एक
बार मैं
हरियाणा में
रोहतक में
शिविर पूरा कर
बस से पानीपत
जा रहा था।
दोपहर का समय
रहा होगा।
टूटी—फूटी सड़क
पर हिचकोले
खाती बस चली
जा रही थी।
कोई नींद
निकाल रहा था, कोई
उबासिया तान
रहा था, कोई
बस से बाहर
देख रहा था.......कोई
कुछ, कोई
कुछ। मैं सब
नजारा देखता
यात्रा का
आनंद ले रहा
था। हमारे देश
में बसों में
यात्रा करना
अपने आपमें एक
अनूठा अनुभव
होता है। सच
कहूं कोई चाहे
तो सिर्फ बस
यात्राओं पर
ऐसी रोचक
किताब लिख
सकता है कि
पढ़ने वाले हंस—हंस
कर लोटपोट हो
जाएं।
क्या
नहीं होता है
चलती बस में......एक
बार मुझे याद
आता है, एक
भीड़ भरी बस
में राजस्थान
की यह बात है.......एक स्टेशन पर एक स्त्री को उतारना था... वह अपने एक हाथ में अपने कपड़ों की पोटली पकड़े थी और दूसरे हाथ में लगभग एक साल के अपने बच्चे को पकड़े थी। उसने बच्चे को इस तरह पकड़ रखा था कि उसका मुंह दूसरी तरफ था। नंगा बच्चा... अब वह स्त्री उतर रही है, बच्चे ने पेशाब शुरू कर दी.......स्त्री को पता ही नहीं है.......वो जैसे—तैसे भीड से रास्ता बनाते उतर रही है... बच्चे की धार सीटों पर बैठे सभी यात्रियों के सिर पर, कोई बैठा ऊंघ रहा है और अचानक उसके सिर पर गरम—गरम धार.......देखने वाले हंस—हंस कर लोटपोट हो गये।
अब
फिर हम रोहतक
से पानीपत की
राह पर आ जाते
हैं। चलती बस
अचानक हमारी
रुक जाती है
और कुछ युवक हाथों
में बंदूकें
लिये चढ़ जाते
हैं। वे
चिल्लाकर बस
में बैठे सभी
सरदारों को
उतरने को कहते
हैं। यह उस
समय की बात है
जब सरदारों के
साथ दंगे हो रहे
थे। दाढ़ी—बाल, पगड़ी
से सरदार
आसानी से
पहचान में आ
जाते हैं।
मेरी भी लंबी
दाढ़ी और बाल
देख कर मुझे
भी नीचे उतरने
को आदेश दिया
गया। मैं नीचे
उतर गया। हम
कुल मिलाकर
सात लोग थे।
उन युवकों में
से जब किसी की
नजर मेरे ऊपर
पड़ी तो वो
बोला, ' यह
तो कोई बाबाजी
लगते हैं, इन्हें
जाने दो।’ और
मुझे बस में
जाने को कह
दिया गया। मैं
बस में चढ़ रहा
था और पीछे से
गोलियों की आवाजें
आईं.. ढांय, ढांय,
ढांय. .बात
की बात में छ:
सरदारों को
मार कर वे युवक
अपनी मोटर
साइकलों से भाग
गए।
बस
में बैठे सभी
यात्री बुरी
तरह से डर गये।
किसी के मुंह
से आवाज तक न
निकली। जैसे—तैसे
हम अगले
स्टेशन
पहुंचे और
सारे वाकिये का
जिक्र पुलिस
को किया।
तो
बस की
यात्राओं में
होता तो बहुत
कुछ है लेकिन
कभी ऐसा भी
होता है कि जब
भी याद आता है
रोंगटे खड़े हो
जाते हैं।
मनुष्य ऐसा
हिंसक भी हो
सकता है, किसी बात,
किसी घटना
की
प्रतिक्रिया
में जीवन को
नष्ट कर दे? कैसे कोई यह
सब कर सकता है?
यदि हम ऐसी
दुर्घटनाओं
की तह में
जाएं तो निश्चित
ही ऐसी बातों
के पीछे
कट्टरपंथ
दिखाई देता है।
किसी भी बात
को कट्टरता से
मानने वाले
इतने बेरहम हो
जाते हैं कि
यदि कोई दूसरा
व्यक्ति उनकी
बात या उनका
विचार न माने
तो उसे मार
देने तक में
उन्हें समय
नहीं लगता। एक
सोचने—समझने
वाला, संवेदनशील
व्यक्ति ऐसा
कभी नहीं कर
सकता।
उस
दिन बस में
मैं तो बच गया
लेकिन वे
निर्दोष लोग
मारे गये। कुछ
देर पहले तक
वे भी हम सभी
यात्रियों की
तरह बैठे थे, ऊंघ
रहे थे... अपने—अपने
गंतव्यों की
तरफ जा रहे थे।
हो सकता है
कोई अपने मां—बाप
से मिलने जा
रहा होगा, उसके
बूढ़े मां—बाप
इंतजार कर रहे
होंगे, मां
ने अपने बेटे
की पसंद की
कोई चीज बना
रखी होगी, बेटा
आएगा तो खाएगा।
कोई अपनी
पत्नी से
मिलने जा रहा
होगा, अपने
पति के इंतजार
में सज—संवरकर
बैठी होगी, कोई अपने
बच्चों के पास
जा रहा होगा।
कोई कुछ, कोई
कुछ... अचानक..
ढांय, ढांय,
ढांय.......सब
कुछ खतम.......कुछ
जानें चली गई,
कितने ही
रिश्ते पता
नहीं कितने
सालों तक सुबकते
रहे... पता नहीं
कितने जीवन
वापस वैसे कभी
नहीं हो पाएं
होंगे जैसे
कभी रहे
होंगे... और उन
लोगों ने तो किसी
का कुछ नहीं
बिगाड़ा था.......ये
हत्याएं
क्यों, ये
अपराध क्यों,
ये गुनाह
क्यों.......यह
कल्लेआम
क्यों.......ये
जीवन को
उजाड़ने का
खूनी खेल
क्यों? ? ? कितने
ही प्रश्नवाचक
हैं.......हर
प्रश्नवाचक
का निदान ओशो
देते हैं—
ध्यान।
आज
इति।
🌺🙏🙏🙏🌺
जवाब देंहटाएं