राजस्थान
में एक जगह है, चंदनगढ़।
वहां के
विद्यालय के
एक मास्टर
साहब ने पुणे आकर
मेरे से ध्यान
शिविर की
तारीख ली, मैंने
उन्हें तारीख
दे दी। नियत
दिन जब ध्यान
साधना शिविर
प्रारंभ होना था,
मैं दोपहर
एक बजे चंदनगढ़
रेल से पहुंच
गया। वहां
स्टेशन तो
खाली पड़ा था, गाड़ी जा
चुकी थी, बियाबान
सन्नाटा। दूर—दूर
तक कोई आदमजात
तक नजर न आए, सुनसान जगह,
स्टेशन पर
कोई आदमी भी
नहीं, कोई
लेने भी नहीं
आया। मैं
स्टेशन
मास्टर के
कमरे में गया
तो वहां भी
कोई भी नहीं, खाली पड़े
आफिस में पूरी
गति से पंखा
चल रहा था, और
उसके नीचे पडे
रजिस्टर के
पन्ने खड़—खड़
करते आवाज कर
रहे थे।
बाहर
आकर देखा तो
दूर तक सुनसान
आदमी तो दूर कोई
कुत्ता तक भी
दिखाई नहीं दे
रहा था।
रेल्वे
स्टेशन इतना
पुराना कि
बिलकुल खंडहर, सब
तरफ रंग उतरा
हुआ, बडे
काले—काले
धब्बे बने हुए।
गर्मी की
दोपहरी में
मैं अकेला खडा,
बड़ा डरावना
माहौल था, मुझे
यूं लगे मानो,
' चंदनगढू
में लोग मरते
नहीं, मारे
जाते हैं।’ थोड़ी देर
में देखा कि
एक साहब एक
छोटे से बच्चे
को लेकर आ रहे
थे, जब वे
पास आए तो
मैंने उन्हें
पहचान लिया, वे आयोजक
मित्र मास्टर
साहब थे, मैंने
उन्हें कहा, ' अरे मास्टर
साहब कहां थे
आप, मैं
यहां इंतजार
कर रहा था भू: ' वे बोले, ' मैं
आपको ढूंढ रहा
हूं।’ मैंने
कहा मीलों दूर
तक कोई दिखाई
नहीं दे रहा, और मैं आपको
दिखा नहीं?' उन्होंने
अपने साथ आए
बच्चे से कहा,
'स्वामी जी
को माला पहनाओ।’
बच्चे ने
माला पहना दी।
खैर, हम
रेल्वे
स्टेशन से
बाहर आए, बाहर
खडी जीप में
अपना सामान
इत्यादि रख कर
मैं जीप में
बैठ गया और
जीप चल पडी।
चारों तरफ
जंगल, सांय—सांय
करती दोपहरी।
टेढे—मेढे
रास्तों से
गुजरते हम
यात्रा कर रहे
थे। रास्ते
में बात करते
हुए मास्टर
साहब ने मेरे
से पूछा, 'आप
क्या खाना
पसंद करेंगे?
यहां के
महाराजा का
रसोईया आपका
खाना बनाएगा।’
मैंने कहा,
'बस, दाल—रोटी
खाते हैं।’
इस
तरह बात करते
हम एक छोटी सी
बस्ती में
पहुंचे। एक
स्कूल में
शिविर रखा था।
मैं जिस कमरे
में ठहरने
वाला था, उस
कमरे के
दरवाजे को जब
खोला तो तेज
आवाज के साथ
दरवाजा खुला,
मानों
सदियों से
उसका उपयोग ही
ना हुआ हो।
पुराने से
कमरे में एक
खाट बिछी थी, उस पर एक
मेला—सा गद्दा
और चद्दर पड़ी
थी। मैंने
अपना सामान
रखा और खाट पर
बैठ गया।
मास्टर साहब
यह कह कर कि
मैं आपके लिए
खाना लाता हूं
वहां से चले
गए। मैं हाथ—मुंह
धोकर, पानी
पीकर खाट पर
बैठ गया।
गर्मी ऐसी कि
पूछो मत, छत
पर लटका
पुराना पंखा
खट, खट, खट
की आवाज के
साथ चल रहा था,
लेकिन
जितनी गर्मी
थी उसमें इस
पंखे से कोई
खास फर्क नहीं
पड़ रहा था।
थोड़ी
देर में
मास्टर साहब
खाना लेकर आ
गए। नीचे जमीन
पर चद्दर बिछा
कर मुझे बिठा
दिया। एक एल्यूमिनियम
की पुरानी सी
थाली में भोजन
रखा। दाल में
बड़ी इलाची यूं
दिख रही थी
मानों काकरोच
पड़ा हो।
पंद्रह—बीस
चपातियां पड़ी
थीं,
जैसे कि जेल
में कैदियों
को दी जाती
हैं। और जंग
लगे चाकू से
टेढा—मेढ़ा कटा
हुआ टमाटर और
काला सा प्याज
पड़ा था। थाली
की शकल ऐसी कि
मेरी तो भूख
ही मर गई।
मैंने कहा, ' मुझे भूख
नहीं है।’ तो
उसी समय
मास्टर साहब
वहां बैठ गए, थाली को
अपनी तरफ
खिंचा और टूट
पड़े। चटकारे
लें—लेकर सारी
चपातियां और
दाल खा कर
डकार लेते हुए
उठ गए, और
बोले, ' ठीक
से शाम को
मिलते हैं।’ और वे चले गए।
मेरा
तो भूख से
बुरा हाल था।
मैं बाहर
निकला कि कुछ
खाने—पीने का
जुगाड जमाऊं।
वहां तो दूर
तक कोई भी
दिखाई ही ना
दे। थोड़ा चलने
पर दूर एक
कोने में एक
व्यक्ति बैठा
दिखाई दिया।
मैंने उनसे
पूछा कि 'भाई
यहां पर एक
शिविर होने
वाला है, कोई
दिखाई ही नहीं
देता।’ वह
व्यक्ति बोला,
'कहां का
शिविर, अरे
इन मास्टर
साहब की तो
दिमागी हालत
ठीक नहीं है।
इनकी पत्नी
कुछ समय से
बीमार है, मास्टर
साहब तो तीन
महीनों से
पगलाए हुए हैं।’
मैंने कहा
गजब के फंसे।
वहीं पास ही
में एक खपरेल
तले बनी छोटी—सी
चाय की दुकान
दिखाई दी, वहां
गया तो देखा
कि बड़ी सी
थाली में थोडी
सी जलेबियां
पड़ी हैं और
हजारों
मक्खियां उन
पर भिनभिना
रही हैं। मैं
वापस अपने
कमरे में आ
गया। लंबी
यात्रा करके
आया था तो मैं
सो गया और मुझे
नींद आ गई।
रात कोई साढ़े
दस बजे किसी
ने कमरे के
दरवाजे पर
आवाज दी।
मैंने दरवाजा
खोला तो
मास्टर साहब
थे। अंदर आकर
बोले, ' देखिये
स्वामी जी
शिविर तो होगा
नहीं क्योंकि
कोई आया ही
नहीं।’ मैंने
कहा, 'वह तो
मुझे भी दिख
रहा है। शिविर
कैसे हो सकता
है।’ वे
बोले, 'हम
कल आपकी
शोभायात्रा
निकालेंगे।’ और यह कह कर
वे चले गए।
मैंने
अल्मारी खोल
कर देखी तो
देखा कि शिविर
के निमंत्रण
पत्र से सारे
बंडल वहां पड़े
थे, उन्हें
खोला तक नहीं
गया था।
दूसरे
दिन मास्टर
साहब एक ऑटो
रिक्यग़ लेकर
आए,
साथ में एक
ठेला गाडी उस
पर बडा सा
लाउड स्पीकर
लगा हुआ और एक
तिनकी बजाने
वाला भी साथ
था। ऑटो
रिक्यग़ के ऊपर
ओशो की एक बडी
तस्वीर बांध
दी। और मेरे
को रिक्यग़ के
अंदर बैठा
दिया। दस—बारह
फूल मालाएं ले
आए और हरेक
आते—जाते
व्यक्ति को
बोले, 'स्वामी
जी को माला
पहनाओ, स्वामी
जी को माला
पहनाओ।’ अब
बड़ा मजमा लग
गया। एक
बुढिया भी
उनके साथ आई
थी उसे भी
मेरे साथ रिक्शे
में बैठा दिया।
मास्टर साहब
ने माइक हाथ
में लिया और
बोलने लगे, 'आज स्वामी
स्वभाव हमारे
बीच हैं, इनकी
भव्य
शोभायात्रा
निकल रही है, आईये इसमें
शामिल होईये।’
थोड़ा आगे
बढ़े होंगे और
मुझे लगा कि
कहां फंस गए, मैंने
रिक्षा वाले
को कहा 'भाई
मेरे पेट में
दर्द हो रहा
है, मुझे
वापस कमरे पर
ले चल।’ उसने
रिक्षा
पलटाया और
मुझे कमरे पर
छोड़ दिया। मैं
कमरे में आकर
बिस्तर पर लेट
गया। सोचने
लगा अच्छा
फंसाया यार।
सोये—सोये
मेरी आंख लग
गई। शाम को
कोई सात बजे
मास्टर साहब
पूरे गांव का भ्रमण
करके वापस आए
और मेरे से
बोले, 'स्वामी
जी कैसी रही
शोभा यात्रा?
' मैंने कहा,
' बहुत
बढ़िया, मजा
आ गया।’ फिर
मैंने कहा, 'मास्टर साहब
अब शिविर तो
हो नहीं रहा
तो मुझे वापस
जाने दें।’ और वे इस पर
राजी हो गए और
रात में आने
वाली गाड़ी से
मैं वापस पुणे
आ गया। यहां
सभी मित्रों
ने पूछा, 'अरे
शिविर हो गया?
' मैंने
कहा, 'भाई
जान बची लाखों
पाए, लौट
कर बुद्ध घर
को आए।’
😂😍😉
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