आज
हम ठहर कर देख
सकते हैं कि
कुछ वर्ष
पूर्व ओशो
जैसे मनीषी ने
अपने कार्य की
शुरुआत की, भारत
भर में घूम—घूम
कर प्रवचन
दिये, नव—संन्यास
आदोंलन से
दुनिया को
परिचित
करवाया, आज
के मानव के
लिए बेहद
उपयुक्त
ध्यान विधियों
का निर्माण
किया, पूरी
दुनिया के
प्रतिभावान
लोगों को अपने
आसपास इकट्ठा
किया, दुनिया
के
सर्वश्रेष्ठ
शक्ति संपन्न
देश अमरीका
में जाकर सवा
सौ एकड़ जमीन
पर अपनी तरह
के अनूठे शहर
का निर्माण
किया, विश्व
यात्राएं की,
अपने
क्रांतिकारी
विचारों से
पूरी दुनिया में
एक
महाक्रांति
पैदा कर दी, आज के अति
आधुनिक, तार्किक,
संदेह से
भरे मन को
धर्म, ध्यान,
श्रद्धा, भक्ति और
मोक्ष के पथ
पर अग्रसर
किया। और लगभग
इक्कीस साल
हुए मात्र
अट्ठावन वर्ष
की उम्र में
देह से विदा
भी हो गए।
इतने
छोटे से काल
में ओशो ने
कितना कुछ
किया... आज उनके
देह से जाने
के इक्कीस साल
बाद भी ठीक—ठीक
अंदाजा लगाना
संभव नहीं हो
पाया है और
संभवतया
सैकड़ों साल और
लगेंगे जब
शायद पता चले
कि ओशो ने
कितने आयामों
से इस मानवता
के लिए, इस
पृथ्वी ग्रह
के लिए कार्य
किया है।
अपने
कार्य की
शुरुआत के
दिनों में ही
(यह बात सन् 1969—70
की है) उस समय
के हिंदी
फिल्मों के
सफल अभिनेता
श्री महीपाल
ने भेंटवार्ता
के दौरान जब
ओशो से यह
जानना चाहा कि
आप जल्दी में
दिखते हैं... आप
इतना जल्दी
में क्यों हैं? तो
इस प्रश्न के
उत्तर में ओशो
ने संक्षेप वह
सब कह दिया जो
आने वाले
सालों में
उन्हें करना
था। और अपनी
जल्दी के जो
कारण ओशो ने
दिये और आज लगभग
पचास से साठ
वर्ष के पश्चात
हम स्वयं देख
सकते हैं कि
ओशो का जल्दी
में होना
कितना लाजमी
था। प्रत्येक
मनुष्य के लिए,
इस पृथ्वी
ग्रह के लिए, मनुष्य के
सुंदर भविष्य
के लिए जो मूल—
भूत बातें ओशो
ने उस समय
कहीं, वे
इस प्रकार
हैं.
ओशो
: जल्दी है।
जल्दी दो—तीन
कारणों से है।
एक तो कितना भी
समय हो, तो भी
सदा कम है।
कितना ही समय
हो और कितनी
ही शक्ति हो, तो भी सदा कम
है। क्योंकि
काम सदा सागर
जैसा है।
शक्ति, समय,
अवसर, सब
चुल्लुओं
जैसा है। और
बुद्ध हों कि
महावीर, कृष्ण
हों कि
क्राइस्ट, चुल्ल
से ज्यादा
मेहनत नहीं हो
पाती। और काम
सदा सागर जैसा
है। इसलिए
जल्दी तो सदा
ही है। यह तो
सामान्य
जल्दी है जो
होगी। दूसरे
भी एक कारण से
जल्दी है।
कुछ
समय तो बहुत
थिर होते हैं, जहां
चीजें बहुत
मंद गति से
चलती हैं।
जितने हम पीछे
जाएंगे, उतना
ही मंद गति से
चलने वाला समय
था। कुछ युग
अति तीव्र
होते हैं, जहां
चीजें बहुत
तीव्रता से
जाती हैं। आज
हम ऐसे ही समय
में हैं जहां
चीजें इतनी
तीव्रता में
हैं, जहां
सब चीजें
तीव्रता में
हैं, जहां
कोई भी चीज
थिर नहीं है।
धर्म अगर
पुराने ढंग और
पुरानी चालों
से चले तो
पिछड़ जाएगा और
पिट जाएगा। जब
विज्ञान भी
बहुत धीमी गति
से चलता था, दस हजार साल
हो जाते थे और
बैलगाड़ी में
कोई फर्क नहीं
पड़ता था।
बैलगाडी ही
होती थी।
लोहार के औजार
में कोई फर्क
नहीं पड़ता था,
वह वही औजार
होता था। सब
चीजें ऐसे
चलती थीं जैसे
कि नदी बहुत
आहिस्ता
सरकती है कि
कहीं पता ही न
चलता हो कि
नदी सरकती भी
है। किनारे करीब—करीब
वही के वही
होते थे। तब
धर्म भी इतनी
ही गति से
चलता था, तो
तालमेल था।
धर्म अभी भी
उसी गति से
चलता है। और
सब चीजें बहुत
तीव्रता में
हैं। तो धर्म
अगर पिछq जाए
और लोगों के
पैर से उसका
कोई तालमेल न
रह जाए तो
आश्चर्य नहीं
है।
तो
इसलिए भी
जल्दी है।
जितनी तीव्रता
से जगत का पौद्गलिक
ज्ञान बढ़ता
है और जितनी
तीव्रता से
वितान कदम
भरता है, उतनी
ही तीव्रता से,
बल्कि थोड़ा
उससे भी
ज्यादा धर्म
को गति करनी चाहिए।
क्योंकि धर्म
जब भी आदमी से
पीछे पड़ जाए
तभी आदमी का
नुकसान होता
है। धर्म आदमी
से सदा थोडा
आगे होना
चाहिए। क्योंकि
आदर्श सदा ही
थोड़ा आगे होना
चाहिए। नहीं
तो आदर्श का
कोई अर्थ नहीं
रह जाता।
वास्तविकता
से आदर्श सदा
ही थोड़ा आगे, पार जाने
वाला होना
चाहिए।
यह
एक बहुत
बुनियादी
फर्क है। अगर
हम राम के
जमाने में
जाएं तो धर्म
सदा आदमी से
आगे है। और
अगर हम आज
अपने जमाने
में आएं तो
आदमी सदा धर्म
से आगे है। तो
आज सिर्फ वही
आदमी धार्मिक
हो पाता है, जो
बहुत पिछडा
हुआ आदमी है।
उसका कारण है।
क्योंकि धर्म
से सिर्फ उसके
ही पैर मिल
पाते हैं।
जितना
विकासमान है
आज आदमी, उसका
धर्म से संबंध
छूट जाएगा—या औपचारिक
संबंध रह
जाएगा जो वह
दिखावे के लिए
रखेगा। धर्म
होना चाहिए
आगे।
अब
यह कितनी
हैरानी की बात
है कि अगर हम
बुद्ध और
महावीर के
जमाने को
देखें तो उस
युग के जो श्रेष्ठतम
लोग हैं वे
धार्मिक हैं
और अगर हम आज
के धार्मिक
आदमी को देखें
तो हमारे बीच
का जो निकृष्टतम
आदमी है वही
धार्मिक है।
उस जमाने में
जो अग्रणी है, चोटी
पर है, वह
धार्मिक है; और आज जो
बिलकुल
ग्रामीण है, पिछड़ा हुआ
है, वही
धार्मिक है।
बाकी कोई
धार्मिक नहीं
है। उसका कारण
है। धर्म आदमी
से आगे कदम
नहीं बढ़ा पा
रहा है। इसलिए
भी जल्दी है।
फिर
इसलिए भी
जल्दी है कि
कुछ समय
इमरजेंसी के
होते हैं, आपातकालीन
होते हैं।
जैसे जब आप
कभी अस्पताल
की तरफ जा रहे
होते हैं तब
आपकी चाल वही
नहीं होती जो
आपकी दुकान की
तरफ जाने की
होती है। वह
चाल
आपातकालीन है,
इमरजेंसी
की है।
आज
करीब—करीब
हालत ऐसी है
कि अगर धर्म
कोई बहुत
प्राणवान
आदोलन जगत में
पैदा नहीं कर
पाया तो पूरी
मनुष्यता भी
नष्ट हो सकती
है। तो समय
बिलकुल
इमरजेंसी का
है,
अस्पताल की
तरफ जाने जैसा
है। जहां कि
हो सकता है कि
हमारे
पहुंचने के
पहले मरीज मर
जाए, हमारे
औषधि लाने के
पहले मरीज मर
जाए, हमारा
निदान हो और
मरीज मर जाए।
इसका
कोई व्यापक
परिणाम धार्मिक
चिंतकों पर
नहीं है।
यद्यपि
धार्मिक
चिंतकों की
बजाय सारी
दुनिया की नयी
पीढी पर और
विशेषकर
विकसित
मुल्कों की
नयी पीढ़ी पर
इसका बहुत
सीधा परिणाम
हुआ है। और वह
परिणाम यह हुआ
है कि आज अगर
अमरीका के युवक
को मां—बाप यह
कहें कि तू
यूनिवर्सिटी
में पढ़ ले दस साल, पढ़
लेगा तो अच्छी
नौकरी मिल
जाएगी। तो
युवक यह कहता
है कि क्या इस
बात की गारंटी
है कि दस साल
बाद मैं
बचूंगा या यह
आदमियत बचेगी?
और मां—बाप
के पास जवाब
नहीं है। कल
का भरोसा
सर्वाधिक कम
आज अमरीका में
है। सर्वाधिक
कम! कल बिलकुल
गैर— भरोसे का
है। कल होगा
भी कि नहीं, इसका कोई
पक्का नहीं।
इसलिए इतने
जोर से आज को
ही भोग लेने
की आकांक्षा
है। यह
आकस्मिक नहीं
है। यह बहुत
तीव्र चारों
तरफ साफ
स्थिति है कि
चीजें कल बिखर
सकती हैं
बिलकुल! करीब—करीब
ऐसी हालत है
जैसे कि मरीज
खाट पर पड़ा हो
और किसी भी
क्षण मर सकता
है। ऐसी पूरी
आदमियत है।
इसलिए
भी जल्दी है
कि अगर आपके
निदान बहुत
धीमे और
मद्धिम रहे तो
कोई परिणाम
होने वाला
नहीं है।
इसलिए बहुत
तीव्रता में
मैं हूं कि जो
भी हो सकता है
वह शीघ्रता से
होना चाहिए।
और यह जो
मैंने कहा कि
गांव—गांव घूमूंगा, वह
मैं एक अर्थ
में अपने
हिसाब से घूम लिया
हूं। जिन
आदमियों पर
मेरा खयाल है,
वह मेरा
खयाल आ गया है।
अब उन पर काम
करने की बात
है। बड़ी
कठिनाई तो
इसलिए होती है
कि मेरे खयाल
में कोई आदमी
आ जाए इससे उस
आदमी के खयाल
में मैं आ
जाऊं, यह
जरूरी थोड़े ही
है। और जब तक
उसके खयाल में
मैं न आ जाऊं, तब तक कुछ काम
नहीं हो सकता।
काम
शुरू भी किया
है। और कम
आऊंगा—जाऊंगा
उसका भी
प्रयोजन यही
है कि काम कर
सकूं। नहीं तो
मैं आता ही
जाता रहूंगा
तो काम नहीं हो
पाएगा। और भेजूंगा
लोगों को
तैयार करके
बहुत जल्दी, दो
वर्ष में गांव—गांव
लोगों को भेज
दूंगा। वे
बिलकुल जा सकेंगे।
और ऐसी स्थिति
नहीं आएगी। सौ
नहीं, दस
हजार आदमी
तैयार किए जा
सकेंगे। जो
बहुत संकट के
काल होते हैं,
खतरे के भी
होते हैं, संभावना
के भी होते
हैं। उपयोग न
किया जाए तो
दुर्घटना हो
जाती है।
उपयोग कर लिया
जाए तो बहुत
संभावना के हो
जाते हैं।
बहुत संभावना
का क्षण भी है,
बहुत लोगों
को तैयार भी
किया जा सकता
है। बहुत साहस
का भी योग है, बहुत से
लोगों को बहुत
अज्ञात में
छलांग के लिए
भी तैयार
करवाया जा
सकता है। वह
होगा!
और
यह तो जो बाहर
की स्थिति है, वह
मैंने कही।
लेकिन जब भी
कोई एक युग
ध्वंस के करीब
आता है, तब
भीतरी तल पर
बहुत सी
आत्माएं
विकास के
आखिरी किनारे
पर पहुंच गई
होती हैं।
उनको जरा से
धक्के की
जरूरत होती है।
जरा से इशारे
से उनकी छलांग
लग सकती है।
और जैसे आमतौर
से हम जानते
हैं कि मौत
करीब देख कर
आदमी मौत के
पार का चिंतन
करने लगता है;
एक—एक
व्यक्ति, निकट
जैसे मौत आती
है, वैसे
धार्मिक होने
लगता है। मौत
करीब आती है
तो सवाल उठने
शुरू होते हैं
मौत के पार के,
अन्यथा
जिंदगी इतना
उलझाए रखती है
कि सवाल नहीं
उठते। जब कोई
पूरा युग मरने
के करीब आता
है, तब
करोड़ों
आत्माओं में
भी वे खयाल
भीतर से आने
शुरू होते हैं।
वह भी संभावना
है, उसका
उपयोग किया जा
सकता है।
इसलिए
मैं धीरे—
धीरे अपने को
बिलकुल कमरे
में ही सिकोड़
लंगूा। मैं
आने— जाने को
समाप्त ही कर
दूंगा। अब तो
जो लोग मेरे
खयाल में हैं, उन
पर काम शुरू
करूंगा। उनको
तैयार करके
भेजूंगा। और
जो मैं अकेला
घूम कर नहीं
कर सकता हूं
वह मैं दस
हजार लोगों को
घुमा कर करवा
सकूंगा।
और
मेरे लिए धर्म
बिलकुल
वैज्ञानिक
प्रक्रिया है।
तो ठीक
वैज्ञानिक
टेक्नीक के
ढंग से सारी
चीजें मेरे
पास खयाल में
हैं। जैसे—जैसे
लोग तैयार
होते जाएंगे, उनको
वैज्ञानिक
टेक्नीक दे
देनी है। वे
उस टेक्नीक से
जाकर काम कर
सकेंगे
हजारों लोगों
पर। मेरी
जरूरत नहीं है
उसमें। मेरी
जरूरत इन
लोगों को
खोजने के लिए
थी। इनसे अब
मैं काम ले
सकूंगा। मेरी
जरूरत कुछ
सूत्र
निर्मित करने
की थी, वे
निर्मित हो गए।
एक वैज्ञानिक
का काम पूरा
हो गया। अब
टेक्यीशियंस
का काम होगा।
एक
वैज्ञानिक
काम पूरा कर
लेता है। उसने
बिजली खोज कर
रख दी। एक
एडिसन ने
बिजली का बल्व
बना दिया। अब
तो गांव का
मिस्त्री भी
बिजली के बल्व
को ठीक कर
लेता है और
लगा देता है।
इसमें कोई
अड़चन नहीं है।
इसके लिए कोई
एडिसंस की
जरूरत नहीं है।
अब
मेरे पास करीब—करीब
पूरा खयाल है।
अब जैसे—जैसे
लोग तैयार
होते जाएंगे, उनको
खयाल देकर
प्रयोग करवा
कर उनको भेज
दूंगा कि वे
जा सकें दूर—दूर।
और मेरी नजर
में हैं।
क्योंकि सभी
को संभावनाएं
दिखाई नहीं
पड़ती, अधिक
लोगों को तो
वास्तविकताएं
ही दिखाई पड़ती
हैं।
संभावनाएं
देखना बहुत
कठिन बात है।
संभावनाएं मेरी
नजर में हैं।
बहुत सरलता से,
बुद्ध और
महावीर के समय
में जैसे
बिहार के छोटे
से इलाके की
स्थिति थी, वैसी दस
वर्ष में सारी
दुनिया की
स्थिति हो सकती
है—उतने ही
बड़े व्यापक
पैमाने पर।
लेकिन
बिलकुल नये
तरह का
धार्मिक आदमी
निर्मित करना
पड़ेगा। नये
तरह का संन्यासी
निर्मित करना
पडेगा। नये
तरह के ध्यान
और योग के
प्रयोग और
प्रक्रियाएं
निर्मित करनी
पड़ेगी। वे सब
निर्मित हैं
मेरे खयाल में।
जैसे—जैसे लोग
मिलते जाएंगे, उनको
दे दिया जाएगा
और उनको
पहुंचा दिया
जाएगा।
खतरा
भी बहुत है, क्योंकि
अवसर चूके तो
बहुत नुकसान
भी होगा। अवसर
का उपयोग हो
सके तो इतना
कीमती अवसर
मुश्किल से
कभी आता है
जैसा आज है।
सभी अर्थों
में युग अपने
शिखर पर है, अब आगे उतार
ही होगा। अब
अमरीका इससे
आगे नहीं जा
सकेगा, बिखराव
होगा।
इंग्लैंड छू
चुका अपने
शिखर को और
बिखर गया। अब
कोई संभावना
नहीं है। इस
युग की सभ्यता
बिखराव पर है।
आखिरी क्षण है।
यह
हमको खयाल में
नहीं है कि
बुद्ध और
महावीर के बाद
हिंदुस्तान
बिखरा। बुद्ध
और महावीर के
बाद फिर वह
स्वर्ण—शिखर
नहीं छुआ जा
सका। लोग
आमतौर से
सोचते हैं कि
बुद्ध और
महावीर की वजह
से ऐसा हो गया
होगा। बात
उलटी है। असल
में बिखराव के
पहले ही बुद्ध
और महावीर की
हैसियत के लोग
काम कर पाते
हैं,
नहीं तो काम
नहीं कर पाते।
क्योंकि
बिखराव के
पहले जब सब
चीजें
अस्तव्यस्त
होती हैं और
सब चीजें
गिरने के करीब
होती हैं, तो
जैसे व्यक्ति
के सामने मौत
खड़ी हो जाती
है, ऐसा
पूरी सामूहिक
चेतना के सामने
मौत खड़ी हो
जाती है। और
समूहगत चेतना
धर्म के और
अशात के चिंतन
में उतरने के
लिए तैयार हो
जाती है।
इसलिए यह संभव
हो पाया कि
बिहार जैसी
छोटी सी जगह
में पचास—पचास
हजार
संन्यासी
महावीर के साथ
घूम सके।
यह
फिर संभव हो
सकता है। इसकी
पूरी संभावना
है। और उसकी
पूरी कल्पना
और योजना मेरे
खयाल में है।
मेरा जो काम
था वह एक अर्थ
में पूरा हो
गया। एक अर्थ
में पूरा हो
गया कि मैं
जिन लोगों को
खोजना चाहता
था,
उन्हें
मैंने खोज
लिया है।
उन्हें भी पता
नहीं, मैंने
उन्हें खोज
लिया है। अब
उन पर काम कर
लेना है और
उनको तैयार
करके भेज देना
है।
हवा
पहुंच जाए तो
वह एक मामले
में पूरब को
फीका कर सकेगा।
लेकिन फिर भी
वह नकल होगी।
जो इनीशिएटिव
है,
जो पहला कदम
है वह पूरब के
हाथ में है।
इसलिए
जल्दी ही मैं
इस फिक्र में
हूं कि पूरब से
लोग तैयार किए
जाएं और
पश्चिम भी
भेजे जा सकें।
जोर से वहां
आग पकड लेगी, लेकिन
चिंगारी पूरब
से ही जानी है।
'मैं
कहता आंखन
देखी'. अंतरंग
भेंट—वार्ता
मैं
चाहता हूं कि
सभी मित्र ओशो
के इन विचारों
को ठीक से
पढ़ें, ठीक से
हृदय में
उतारें। आज
हमारे लिए यह
बहुत जरूरी हो
गया है कि हम
यह देखें कि
जैसा ओशो ने
हमें चेताया
और जिस जल्दी
की बात
उन्होंने की
और जो कारण उन्होंने
दिये, उन
सब में हम
कितने सफल रहे
हैं, कितना
हमने समय के
साथ कदम से
कदम मिला कर
वह सब कार्य
किया है जो
ओशो चाहते रहे
हैं और क्या कमी
रह गई और क्या—क्या
किया जाना
चाहिए।
जब
तक ओशो शरीर
में रहे उनके
आसपास सभी
चीजें उतनी ही
तीव्रता से
चलीं जैसा कि
ओशो चाह रहे
थे। लेकिन एक
बार ओशो के
शरीर के जाने
के बाद लगता यही
है कि ओशो के
कार्य की वह
स्पीड कम हुई
है। ओशो के
कार्य की
त्वरा कम हुई
है। ओशो संदेश
का
व्यावहारिक
पहलू थोड़ा
पिछड़ा है।
पूरब
से ओशो को
जैसी आशा रही, उतना
पूरब कर नहीं
पाया। पश्चिम
में जो कुछ
होना चाहिए था
वैसा होता दिखाई
नहीं दे रहा
है।
आज
तमाम इंटरनेट
व आधुनिक
संचार
माध्यमों के द्वारा
ओशो के शब्द
खूब तेजी से
पृथ्वी पर फैल
रहे हैं लेकिन
लाखों—लाखों
लोगों का
ध्यान में
उतरना, होश, सजगता व
साक्षी होना
अब भी बकाया
लगता है।
मानवीय
मन की यह सबसे
बडी कमजोरी है
कि वह अपनी
प्रत्येक
समस्या के लिए
दूसरों को
जिम्मेदार
ठहरा देता है।
स्वयं
जिम्मेदारी
लेना आसान
नहीं होता है।
ओशो
के कार्य में
जहां—जहां
कमजोरी आई है, जिस
आयाम से भी
काम को उस तरह
से नहीं किया
जा सका है जैसा
ओशो चाहते हैं,
तो बडा आसान
है दूसरों में
गलियां निकाल
देना। कुछ
मायनों में
ऐसा हो भी रहा
है और हो सकता
है कि किसी
तरह से उस बात
में सच्चाई हो
भी, तब भी
मैं कहूंगा कि
जो भी मित्र
ओशो को पढ़ रहे हैं,
ध्यान कर
रहे हैं, और
संदेश को समझ
रहे हैं, वक्त
की जरूरत को
देखते, हालातों
की नाजुक दशा
को समझते हुए,
प्रत्येक
मनुष्य से
लेकर इस पूरी
मनुष्यता पर आ
रहे खतरों को
भांपते हुए, ओशो संदेश
को अधिक से
अधिक मित्रों
तक पहुंचाने
में संलग्न हो
जाएं।
न
तो समय दूसरों
में गलियां
ढूंढने का है, न
ही आलस्य का।
अपने पूरे
जीवन काल में
ओशो ने हमें
कितनी ही बार
कहा है कि सारी
मनुष्यता
बहुत नाजुक
हालातों में
चली गई है।
समूल विनाश का
भय दिन पर दिन
नजदीक से
नजदीक आ रहा
है। सिवाय ओशो
के कोई आशा
दिखाई भी नहीं
देती है.. .क्या
ऐसे समय में
भी हम जागेंगे
नहीं? अपने
स्नेहीजनों, प्रियजनों,
मित्रों को
इस दिशा में
चलने के लिए
प्रेरित न करेंगे?
मेरे
अपने अनुभव से
कह सकता हूं
कि यदि आने वाला
समय कोई विनाश
लेकर आता है, यदि
मनुष्य का दुख
बढ़ता ही चला
जाता है, यदि
पृथ्वी पर
शांति नहीं आ
पाती है तो
सबसे अधिक
जिम्मेदारी
उन सभी
मित्रों की
होगी जो ओशो
संदेश को जी
नहीं पाए, अधिक
से अधिक लोगों
तक उसे समय
रहते पहुंचा
नहीं पाए।
मैं
सालों तक पूरे
भारत के चप्पे—चप्पे
में यात्राएं
करता रहा हूं।
लाखों
मित्रों से
मिलना हुआ है।
बहुत ही
संवेदनशील, प्रेमी
और सृजनात्मक
मित्रों को
ओशो ने अपने कारवां
में जोड़ा है, बस थोड़ा सा
प्रयास, थोड़ा
सा उत्साह, थोडी सी
प्रेरणा और
बहुत कुछ करना
संभव है।
आज
इति।
महावीर और बुद्ध की देशना ने इतनी त्वरा और शीघ्रता से अपनी उंचाइओ को छुआ हैं,अपना श्रेठततर मापक तय किया हैं उसका ओशो ने जो अद्भुत कारण बताया और हमने भी यह अंतिम दो साल में देख लिया जो कि समय अत्यंत विकट था,मानों सामूहिक चेतना के सामने मौत खड़ी थी ऐसे समय में समूहगत चेतना धर्म के और प्रगाढ़ चिंतन में उतरने के लिए मानों तैयार ही थी,मानों सबने अपने श्रद्धा के द्वार जहाँ-जहाँ खोलने पड़े वहाँ खोले ही नहीं बल्कि वहाँ मानों लिप्त हों गए !👌🙏🌺
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