सौंदर्य की पारखी नजर—(अध्याय—छप्पनवां)
ओशो
सौंदर्य के
बड़े गहरे
पारखी हैं। वे
हर चीज को
इतना सुंदर से
सुंदर बना
देते हैं कि
कोई सोच भी
नहीं सकता। वे
जीवन में
सत्यम, शिवम,
सुंदरम के पक्षधर
रहे हैं। हर
चीज में
सौंदर्य हो।
किसी बहाने रेल्वे
स्टेशन का
जिक्र करते
इशारा करते
हैं कि रेल्वे
स्टेशन भी
कितने सुंदर
बनाये जा सकते
हैं।
वहां
पानी के झरने
हों,
वृक्ष हों,
बगीचा हो, संगीत बज
रहा हो, लोग
नृत्य कर रहे
हों, चारों
तरफ हरियाली,
फूल, खूबसूरती,
खुश्बू...... अब जरा
कल्पना करो
ऐसे किसी रेल्वे
स्टेशन की।
यदि ऐसा हो
सके तो कितना
सुंदर अनुभव
होगा। ऐसे ही
एक बार वे
अपने छात्र
जीवन का जिक्र
करते बताते
हैं कि कैसे
उनके होस्टल
के सामने बड़ी
सी झील थी।
बड़े—बडे
वृक्ष थे। झील
में ऊंची—ऊंची
लहरें उठा
करती। विशाल
वृक्ष की सबसे
ऊंची टहनी पर
बैठ कर वे सूर्योदय
का आनंद लेते।
मैंने
जब यह सब सुना
तो लगा कि ऐसा
स्थल तो जरूर
देखना चाहिए।
तो किसी
यात्रा में
चलते याद आया
कि ओशो जिस
स्थल का वर्णन
करते हैं वह
जगह पास ही है।
तो मैं विशेष
रूप से चल कर
वहां गया।
वहां पहुंचा
तो होस्टल तो
मिला, लेकिन न
तो उसके सामने
कोई झील थी, न बड़े—बड़े
वृक्ष न
हरियाली.....।
मैं तो देख कर
दंग रह गया।
मैंने वहां
किसी से पूछा
कि 'भाई
यहां कोई झील
हुआ करती थी
क्या?' तो
बोले, 'हमने
तो यहां कभी
कोई झील नहीं
देखी, हां
यहां से कोई
छह किलोमीटर
दूर जरूर एक
झील है, लेकिन
वह भी कोई
बहुत बड़ी झील
नहीं है कि
उसमें लहरें
उठती हों।’
मैं
जब ओशो से
मिला तो उनसे
पूछ लिया कि 'आप
जिस तरह से
अपने होस्टल,
झील व
सौंदर्य का
वर्णन करते
हैं वैसा तो
वहां नहीं
मिला।’ इस
पर वे मुस्करा
कर बोले, 'मेरी
बातों को इतना
ऊपर से मत पकड
लिया करो। मैं
कई बार शब्दों
के बहाने सत्य
कहता होता हूं।
मेरा मानना है
कि यदि ऐसे
होस्टल हों तो
कितना अच्छा
हो। छात्रों
को पढाई का
कितना अच्छा
माहौल मिल
सकता है। मेरे
शब्दों को पकड़ने
की जगह उनमें
छिपे इशारों
को देखने की
कोशिश करो।’
पता
नहीं हम सभी
कितना बार—बार
ओशो ने यह कहा, वह
कहा, ऐसा
कहा, वैसा
कहा, में
उलझे रहते हैं
और वे कहते
हैं कि वे
शब्दों का
उपयोग इसलिये
कर रहे हैं कि
हमें निःशब्द
का अनुभव दे
सकें।
आज
इति।
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