अंतयात्र्रा के मूल सूत्र—(प्रवचन—ग्यारहवां)
दिनांक:
11 मार्च, 1974;
श्री
रजनीश आश्रम, पूना
सूत्र:
तेरा
जन एकाध है
कोई।
काम
क्रोध अरु लोभ
विवर्जित, हरिपद चीन्है
सोई।।
राजस
तामस सातिग
तीन्यू, ये सब तेरी
माया
चौथे
पद को जे जन चीन्हैं, तिनहि परमपद
पाया।।
अस्तुति
निंदा आसा छाड़ै, तजै
मान अभिमाना।
लोहा
कंचन सम करि देखै, ते मूरति
भगवाना।।
च्यंतै
तो माधो च्यंतामणि, हरिपद रमै
उदासा।
त्रिस्ना
अरु अभिमान
रहित हवै, कहै कबीर सो
दासा।।
तिब्बत
के एक आश्रम
में कोई हजार
साल पहले एक
छोटी सी घटना
घटी। उससे ही
हम कबीर में
प्रवेश शुरु
करें। बड़ा
आश्रम था यह, और इस आश्रम
ने एक छोटा
नया आश्रम भी
दूर तिब्बत के
सीमांत पर
प्रारंभ किया
था।
आश्रम
बन गया। खबर
आयी कि सब
तैयारी हो गई
है, अब आप एक
योग्य
संन्यासी को
पहुंचा दें जो
गुरु का संभाल
ले।
प्रधान
आश्रम के गुरु
ने दस
संन्यासी
चुने और दसों
को उस आश्रम
की तरफ भेजा।
पूरा आश्रम
चकित हुआ। कोई
हजार अंतःवासी
थे। उन्होंने
कहा, बात समझ
में न आई—एक
बुलाया था; दस भेजे।
उत्सुकता
बहुत तीव्र हो
गई। जिज्ञासा
सम्हाले न सम्हली।
तो कुछ
संन्यासी गए
और गुरु को
कहा, हम
समझ न पाये।
एक का ही
बुलावा आया था,
आपने दस
क्यों भेजे?
गुरु
ने कहा, रुको।
जब वे पहुंच
जाएं, तब
तुम्हें समझा
दूंगा। तीन
सप्ताह
बाद...यात्रा
लंबी थी—पहाड़ी
थी, पैदल
यात्रा थी।
तीन सप्ताह
बाद खबर
पहुंची कि
आपने जो एक
संन्यासी
भेजा था, वह
पहुंच गया।
अब और
भी मुसीबत हो
गई। अब तो
पूरा आश्रम एक
ही चर्चा से
भर गया कि यह
तो रहस्य
सुलझा न, और
उलझ गया। दस
भेजे थे; खबर
आई, एक ही
पहुंचा। फिर
उन्होंने फिर
से पूछा। तो गुरु
ने कहा, दस
भेजो तो एक
पहुंचता है।
फिर
पूरी कहानी
बाद में पता
चली। दस
यात्रा पर गए।
पहले ही गांव
में प्रवेश
किया और एक
आदमी ने सुबह
ही सुबह नगर
के द्वार पर, पहला जो
संन्यासी था,
उसके पैर
पकड़ लिए और
कहा, ज्योतिषी
ने कहा है कि
जो भी व्यक्ति
कल सुबह पहला
प्रवेश करे, उसी से मैं
अपनी लड़की की
शादी कर दूं।
लड़की यह है और
इतना धर मेरे
पास है, और
कोई मालिक
नहीं। एक ही
लड़की है, कोई
और मेरा बेटा
नहीं।
ज्योतिषी ने
कहा, अगर
पहला आदमी
इनकार कर दे
तो जो दूसरा
आदमी हो; दूसरा
इनकार करे तो
तीसरा। तो तुम
दस इकट्ठे ही
हो, कोई न
कोई स्वीकार
कर ही लेगा।
पहले
ने ही स्वीकार
कर लिया। लड़की
बहुत सुंदर थी।
धन भी काफी
था। उसने अपने
मित्रों से
कहा कि मेरा
जाना न हो सकेगा
आगे; परमात्मा
की मर्जी यही
दिखती है कि
मैं इसी गांव
में रुक जाऊं।
दूसरे
गांव में जब
वे पहुंचे तो
गांव के राजा
का जो पुरोहित
थे, वह मर गया
था, और वह
एक नये
पुरोहित की
तलाश में था।
अच्छी नौकरी
थी, शाही
सम्मान था; काम कुछ भी न
था। एक
संन्यासी
वहां रुक गया।
और ऐसे ही...।
पहुंचते—पहुंचते, जब सिर्फ दस
मिल दूर रह
गया था आश्रम,
वे एक गांव
में एक सांझ
रुके। दो ही
बचे थे। गांव
के लोगों ने
प्रवचन
आयोजित किया
था। उनमें से
एक बोला। जब
वह बोल रहा था
तो एक नास्त्कि
बीच में खड़ा
हो गया और
उसने कहा कि
यह सब बकवास है;
ये बुद्ध और
बुद्ध वचन, ये सब दो कौड़ी
के हैं, कचरा
हैं, इनमें
कुछ सार नहीं।
जो संन्यासी
बोल रहा था, उसने अपने
मित्र से कहा,
अब तुम जाओ।
मैं यहीं रुकूंगा।
जब तक इस
नास्तिक को
बदलकर आस्तिक
न कर दिया, तब
तक मैं इस
गांव से निकलनेवाला
नहीं हूं।
ऐसे एक
पहुंचा।
दस
चलते हैं तब
एक पहुंचता
है।
इस
घटना के आधार
पर तिब्बत में
यह कहावत बन
गयी कि दस
चलते हैं तब
एक पहुंचता
है। मार्ग कंटकाकीर्ण
है; और बहुत
प्रलोभन हैं
मार्ग में।
जगह—जगह रुकने
की संभावना
है। और
प्रलोभन है।
नीचे उतरनेवाला
मार्ग नहीं है,
जहां
सुविधा से कोई
ढलक सकता है; चढ़ाव है, भारी चढ़ाव है।
गिरने की सब
तरह की
संभावनाएं
हैं। गिरने के
सब तरह के
सूक्ष्म कारण
मौजूद हैं।
इसलिए दसचलें
और एक भी
पहुंच जाए तो
काफी है।
इजिप्त
में वे कहते
हैं कि हजार
बुलाये जाते हैं, और एक चुन
जाता है। और
मुझे लगता है,
तिब्बत से
उनकी कहावत
ज्यादा सही
है। दस चले और
एक पहुंच जाए,
यह भी संभव
नहीं मालूम
होता। हजार बुलये
जाते हैं और
एक चुना जाता
है।
जीसस
से किसी ने
पूछा कि
तुम्हारे
प्रभु का राज्य
कैसा है, तो
जीसस ने कहा, मछुए के जाल
की तरह। मछुआ
जाल फेंकता है,
सैकड़ों मछलियां
फंस जाती हैं।
जो योग्य हैं,
खाने के
योग्य हैं, चुन ली जाती
हैं; बाकी
वापस पानी में
फेंक दी जाती
हैं।
तो
जीसस ने कहा, प्रभु का
राज्य भी मछुए
के जाल की तरह
है। परमात्मा
जाल फेंकता है,
लाखों फंसते
हैं; पर
इने—गिने चुने
जाते हैं, जो
तैयार हैं; बाकी वापस
पानी में फेंक
दिए जाते हैं।
पानी यानी
संसार।
इसी
तरह तो तुम
बार—बार फेंके
गए हो। ऐसा
नहीं है कि
जाल में नहीं फंसे, कई बार फंसे
हो; पर तुम
योग्य नहीं थे
कि चुने जा
सको। जाल में फंस
जाना काफी
नहीं है; मछुए
की आंख में
जंचना भी
जरूरी है। जाल
में तो तुम
फंस जाते हो—जाल
के कारण; लेकिन
मछुआ तो
तुम्हें चुनेगा—तुम्हारे
कारण। हजार
बार तुम फंस
गए हो—न मालूम
कितनी बार
संन्यास लिया
होगा; न
मालूम कितनी
बार भिक्षु
बने होओगे; न मालूम
कितनी बार घर—द्वार
छोड़ा होगा, आश्रम में
वास कर लिया
होगा; कितनी
बार
प्रार्थना की
है, कितनी
बार संकल्प
किए, कितने
व्रत, कितने
उपवास!
तुम्हारे
अनंत जन्मों
की अनंत कथा
है। लेकिन एक
बात पक्की है
कि तुम जाल
में कितने ही
बार फंसे होओ;
बार—बार
वापस जल में फेक दिए गए
हो; चुने
तुम नहीं जा
सके।
चुने
जाने के लिए
पात्रता
चाहिए। चुने
जा सको, इसके
लिए भीतरी बल
चाहिए, ऊर्जा
चाहिए चुने जा
सको, इसके
लिए पात्रता
चाहिए।
और उस
पात्रता को
उपलब्ध करना
दुर्गम है, अति दुर्गम
है। इस संसार
में सभी कुछ
पा लेना आसान
है। तुम जैसे
हो वैसे ही
रहते हुए इस
संसार की सब
चीजें पाई जा
सकती हैं।
परमात्मा को पा
लेना कठिन है,
क्योंकि
तुम जैसे हो
वैसे ही रहते
हुए परमात्मा
को नहीं पाया
जा सकता; तुम्हें
बदलना होगा।
और बदलाहट ऐसी
है कि तुम्हें
कुछ न कुछ परमातम
जैसे होना
होगा, तभी
तुम परमात्मा
को पा सकोगे।
क्योंकि जो परमात्मा
जैसा नहीं है,
वह कैसे
परमात्मा को
पा सकेगा? कोई
समानता चाहिए
जहां से सेतु
बन सके। कुछ किरण
तो चाहिए
तुममें सूरज
की, जिसके
सहारे तुम
सूरज तक
यात्रा कर
सको।
हम दुध
से दही बनाते
हैं, तो थोड़ा
सा दही उसमें
डाल देते हैं,
फिर सारा
दुध दही हो
जाता है। तो
तुमने थोड़ा सा
परमात्मा तो
होना चाहिए—तभी
तुम्हारा
पूरा दूध दही
हो सकेगा।
उतना ही न हो
तो यात्रा
नहीं हो सकती।
और कहीं
कठिनाई है, क्योंथक थोड़ा सा भी
परमात्मा
जैसा हेना
तुम्हारे सारे
जीवन की
व्यवस्था को
बदलने के
अतिरिक्त न हो
सकेगा; तुम्हारी
पूरी जीवन की
शैली और
पद्धति रुपांतरित
करनी होगी।
इसलिए
कबीर कहते हैं, तेरा जन
एकाध है कोई।
ऐसे करोड़—करोड़
लोग हैं, मंदिर
हैं, मस्जिद
हैं, गुरुद्वार हैं। लोग प्रार्थनाएः
कर रहे हैं, पूजा कर रहे
हैं, अर्चना
कर रहे हैं—पर
तेरा जन कोई
एकाध ही है।
बड़ी
पृथ्वी है।
करोड़ों—अरबों
लोग हैं।
मंदिरों की भी
कोई कमी नहीं
है; प्रार्थना—पूजा
भी खूब चल रही
है। अर्चना की
धूप जल रही है,
दीये जल रहे
हैं; लेकिन
अचना की
आत्मा नहीं
है। पूजा हो
रही है बाहर
के मंदिर में;
भीतर के
मंदिर में
पूजा का कोई
स्वर नहीं है।
बड़ा सजावट है
मंदिर में
बाहर; भीतर
का मंदिर
बिलकुल खाली
है। तो जाओ
तुम कितना ही
मंदिरों में,
पहुंच न
पाओगे; क्योंकि
उसका मंदिर कोई
पत्थर—मिट्टी
का मंदिर नहीं
है। उसका
मंदिर तो परम
चैतन्य का
मंदिर है।
उसका मंदिर
कोई आदमी के बनये नहीं
बनता। बात तो
बिलकुल उलटी
है—उसके बनाये
आदमी बना है।
आदमी उसके
मंदिर बनाकर
किसको धोखा दे
रहा है?
तुम्हारे
बनाये
मंदिरों से
तुम कहीं भी न
पहुंच सकोगे।
तुम्हारे
बनाये मंदिर
तुमसे छोटे
होंगे। उचित
भी है, गणित
साफ है। तुम
जो बनाओ वह
तुमसे बड़ा हो
सकता है? बनानेवाले
से बनायी गई
चीज बड़ी नहीं
हो सकती। कविता
ही सुंदर हो, कवि से बड़ी
थोड़ी ही हो
पाएगी। और
संगीत कितना ही
मधुर हो, संगीतज्ञ
से तो बड़ा न हो
पाएगा। मूर्ति
कितनी ही
सुंदर हो, मूर्तिकार
से तो सुंदर न
हो पाएगी।
बनानेवाला तो
ऊपर ही रहेगा,
क्योंकि
बनानेवाले की
संभावनाएं
अभी शेष हैं, सब चुक नहीं
गया; वह
इससे भी
श्रेष्ठ बना
सकता है।
जिसने एक सुंदर
गीत गाया, वह
इससे भी सुंदर
हजार गीत गा
सकता है। और
वह कितने ही
गीत गाए, हर
गीत के ऊपर ही
वह रहेगा।
तुम्हारे
बनाये मंदिर
बड़े नहीं हो
सकते।
तुम्हारी
बनाई हुई परमात्मा
की प्रतिमाएं
तुमसे छोटी
होंगी। तुम्हीं
उनके स्रष्टा
हो। तुम्हारा
काम, तुम्हारा
क्रोध लोभ, माया—मोह, सब तुम्हारी
मूर्तियों
में समाविष्ट
हो जाएगा।
तुम्हारा हाथ
ही तो छूएंगे
और निर्माण
करेंगे।
तुम्हारे हाथ
का जहर तुम्हारी
मूर्तियों
में भी उतर
जाएगा।
तुम्हारे
बनाए हुए
मंदिर तुमसे
बेहतर नहीं हो
सकते। और अगर
तुम्हारा मन
वेश्यालय में
लगा है तो तुम्हारे
मंदिर वेश्यालयों
से बेहतर नहीं
हो सकते। तुम
जहां हो, तुम
जैसे हो, तुम्हारी
ही अनुकृतिम
तो गूंजेगी।
तुम्हारी ही
धुन तो छूट
जाएगी जहां।
इसीलिए तो
परमात्मा के
मंदिर हैं; नाम भर
परमात्मा के
हैं, बनाये
आदमी के हैं।
और
शायद इसीलिए
जितना
मंदिरों से
नुकसान हुआ जगत
का, सिकी और चीज से
नहीं हुआ।
मंदिरों और मस्जिदों
ने लोगों को लड़ाया है; क्योंकि
जिन्होंने
बनाया था, उनकी
हिंसा उनमें
उतर गई। मंदिर
और मस्जिद ने आदमी
को जोड़ा नहीं,
तोड़ा है।
उनके कारण
पृथ्वी पर
स्वर्ग नहीं
उतरा, यद्यपि
नर्क की झलकें
कई बार मिली
हैं।
ठीक भी
लगता है, साफ
है बात—क्योंकि
जिन्होंने
बनाया है उनकी
घृणा, उनकी
हिंसा, उनकी
आक्रमण की
वृत्ति, उनकी
दुष्टता, उनकी
क्रूरता, सभी
मंदिरों और मस्जिदों
में प्रवेश कर
गई है।
तुम्हारे
मंदिर में तुम
किसकी पूजा कर
रहे हो? अपनी
ही पूजा कर
रहे हो।
तुम्हारे
मंदिर तुम्हारे
ही दर्पण हैं,
जिनमें
तुम्हारी छवि
ही दिखाई पस? रही है।
इसलिए तो
मंदिर और
मस्जिद में
तुम कितने ही भटको, तुम
पहुंच न
पाओगे।
तुम्हें अगर
परमात्मा को खोजना
है तो तुम्हें
वह मंदिर खाजना
होगा जो उसने
ही बनाया। वह
मंदिर
तुम्हीं हो।
इसलिए कबीर
कहते हैं, कस्तूरी
कुंडल बसै।
तुम्हें
पता होगा
कस्तूरी मृग
का। कस्तूरी तो
पैदा होती है
मृग की नाभि
में। कस्तुरी
का नाफा
नाभि में पैदा
होता है। और
कस्तूरी की जो
सुगंध है, वह मादा मृग
को आकर्षित
करने के लिए
है। जब मृग—नर
कामातुर होता
है, जब कामातुरता
बढ़ती है तो
उसके शरीर से
एक सुगंध
फैलनी शुरू हो
जाती है। वह
सुगंध बड़ी
मादक है।
कस्तूरी जैसी
कोई गंध नहीं;
बड़ी आकर्षक
है, चुंबक
जैसा उसमें
आकर्षण है।
मस्ती से भर
देती है वह
गंध मादा को।
मादा पागल हो
जाती है; वह
अपना होश खो
देती है।
यह तो
ठीक है। यह तो
प्रकृति की
व्यवस्था
हुई। प्रकृति
ने वैसी
व्यवस्था की
है कि मादा और
नर एक—दूसरे
से चुम्बकीय
आकर्षण से
बंधे रहें।
मोर
नाचता है।
उसके पंख, उसके रंग, कामातुर
हैं। उसका
नृत्य, उसके
नृत्य की भनक
मादा को आषर्षित
करती है। कोयल
गाती है। उसकी
ध्वनि पुकार
है; उसकी
ध्वनि में
मादा बंधी चली
आती है। वैसे
ही कस्तुरी—मृग
है। उसकी नाभि
में कस्तुरी
पैदा होती है
और उसकी गंध शराग जैसी
है। उस गंध
में मादा अपना
होश खो देती
है समर्पण कर
देती है। यहां
तक तो ठीक है, लेकिन
कस्तूरी—मृग
की एक तकलीफ
है कि उसको
खुद भी बास
आती है।
मोर
नाचता है तो
खुदा तो अपने
पंखों को नहीं
देख सकता।
पपीहा
पुकारता है या
कोयल गीत गाती
है, तो भी कोयल
को पता है कि
गीत मेरा है।
लेकिन
कस्तूरी—मृग
को गंध आनी
शुरू होती है
और उसकी समझ
में नहीं आता
कि गंध कहां
से आ रही है।
मादा तो पागल होती
है, नर भी
पागल हो जाता
है, और वह
भागता है
मदहोशी में कि
कहीं से आ रही
होगी—आ तो रही
है—तो वह
स्रोत की तलाश
करता है। वह
भागा फिरता
है। वह जहां
भी जाता है, वही गंध को
पाता है। वह
करीब—करीब
पागल हो जाता
है, सिर
लहूलुहान हो
जाता है, भागते—वृक्षों
में, जगल
में, खोजते
कि कहां से
गंध आती है? और गंध उसके
भीतर से आती
है—कस्तूरी
कुंडल बसै।
कबीर
ने बड़ा प्यारा
प्रतीक चुना
है। जिस मंदिर
की तुम खोज कर
रहे हो, वह
तुम्हारे
कुंडल में बसा
है; वह
तुम्हारे ही
भीतर है; तुम
ही हो। और जिस
परमात्मा की
तुम मूर्ति गढ़ रहे हो,
उसकी
मूर्ति गढ़ने
की कोई जरूरत
नहीं; तुम
ही उसकी
मूर्ति हो।
तुम्हारे
अंतर—आकाश में
जलता हुआ उसका
दीया, तुम्हारे
भीतर उसकी ज्योतिर्मयी
छवि मौजूद है।
तुम मिट्टी के
दीये भला हो
ऊपर से, भीतर
तो चिन्मय की
ज्योति हो। मृण्यम
होगी
तुम्हारी देह;
चिन्मय है
तुम्हारा
स्वरूप।
मिट्टी के दीए
तुम बाहर से
हो; ज्योति
थोड़े ही
मिट्टी की है।
दीया पृथ्वी
का है; ज्योति
आकाश ही है।
दीया संसार का
है; ज्योति
परमात्मा की
है।
लेकिन
तुम्हारी
स्थिति वही है
जो कस्तूरी मृग
की है: भागते
फिरते हो; जन्मों—जन्मों
से तलाश कर
रहे हो, उसकी
जो तुम्हारी
भीतर ही छिपा
है। उसे खोज
रहे हो, जिसे
तुमने कभी
खोया नहीं।
खोजने के कारण
ही तुम वंचित
हो। यह कस्तुरी—मृग
पागल ही हो
जाएगा। यह
जितना खोजना
उतनी मुश्किल
में पड़ेगा; जहां जाएगा,
वहीं भी जाए,
सारे संसार
में भटके तो
भी पा न
सकेगा।
क्योंकि बात
ही शुरु से
गलत हो गई—जो
भीतर था उसे
उसने बाहर सोच
लिया, क्योंकि
गंध बाहर से आ
रही थी, गंध
उसे बाहर से
आती मालूम पड़ी
थी।
तुम्हें
भी आनंद की
गंध पागल
बनाये दे रही
है। तुम भी
आनंद की गंध
को बाहर से
आता हुआ अनुभव
करते हो, कभी
किसी स्त्री
के संग
तुम्हें लगता
है, आनंद
मिला; कभी
बांसुरी की
ध्वनि में
लगता है, आनंद
मिला; कभी
भोजन के स्वाद
में लगता है
कि आनंद मिला;
कभी धन की खंकार में
लगता है कि
आनंद मिला; कभी पद की
शक्ति में, अहंकार में
लगता है कि
आनंद मिला।
बड़ा जंगल है!
हर वृक्ष से
तुम सिर तोड़
चुके हो, लहूलुहान
हो—कभी यहां, कभी वहां, कभी इधर, कभी
उधर खोजते हो
और झलक मिलती
है। झलक इसलिए
मिलती है कि
कस्तूरी
कुंडल बसै।
जहां भी जाओगे
वहीं झलक मिल
जाएगी।
जब यह
जरा कठिन है।
जब तुम किसी
स्त्री के पाते
हो कि आनंद
मिला, तब
ठीक वही दशा
है जो कस्तूरी—मृग
की है। आनंद
तुम्हें अपने
कारण मिल रहा
है—क्योंकि तुममहारा
ही मन बदल
जाएगा और इसी
स्त्री में
आनंद न मिलेगा;
कल इसी
स्त्री से तुम
बचना चाहोगे।
आज सब न्योछावर
करने को राजी
थे; कल
इसकी शक्ल
देखना
मुश्किल हो
जाएगी। अगर आनंद
स्त्री से
मिलता था, तो
सदा मिलता, शाश्वत
मिलता।
तुम्हारे ही
भीतर से कोई
गंध उठी थी, और स्त्री
में प्रतिफलन
हुआ था।
तुम्हारे ही भीतर
से उठी थी गंध,
और तुमने
उसे स्त्री से
आते हुए अनुभव
किया था।
स्त्री ने
शायद
तुम्हारे
भीतर जो था
उसकी ही
प्रतिध्वनि
की थी। कभी धन
के संग्रह में,
कभी अहंकार
की तृप्ति में,
पद—प्रतिष्ठा
में तुम्हें
गंध आती अनुभव
हुई।
मैंने
सुना है, एक
जंगल में ऐसा
हुआ, एक लोमड़ी
ने एक खरखोश
को पकड़ लिया।
वह उसे खाने
ही जा रही थी, सुबह का
नाश्ता ही
करने की
तैयारी थी कि
खरगोश ने कहा,
रुको! तुम लोमड़ी हो, इसका सबूत
क्या? ऐसा
कभी किसी
खरगोश ने
इतिहास में
पूछा ही नहीं
था। लोमड़ी
भी सकते में आ
गयी। उसे भी
पहली दफे
विचार उठा कि
बात तो ठीक है,
सबूत क्या
है? उस
खरगोश ने पूछा,
प्रमाण
पत्र कहा है, सर्टिफिकेट
कहां है? उसने
खरगोश से कहा,
तू रूक, मैं
अभी आती हूं।
वह गई
जंगल के राजा
के पास, और
उसने कहा, एक
खरगोश ने मुझे
मुश्किल में
डाल दिया। मैं
उसे खाने ही
जा रही थी तो
उसने कहा, रुक
सर्टिफिकेट
कहां है?
सिंह
ने अपने सिर
पर हाथ मार
लिया और कहा
कि आदमियों की
बीमारी जंगल
में भी आ गई।
कल मैंने एक गधे
को पकड़ा, वह
गधा बोला कि
पहले सबूत, प्रमाण—पत्र
क्या है? पहले
तो मैं भी
सकते में आ
गया कि आज तक
किसी गधे ने
पूछा ही नहीं।
इस गधे को
क्या हो गया
है? वह
आदमी के सत्यंक
में रह चुका
था।
सिंह
ने कहा, मैं
लिखे देता हूं,
उसने लिखकर
दिया कि यह लोमड़ी
ही है।
लोकड़ी
गई, बड़ी
प्रसन्न, लेकर
सर्टिफिकेट।
खरगोश बैवा
था। लोकड़ी
को तो शक था कि
भाग जाएगा—कि
सब धोखा है।
लेकिन नहीं, खरगोश बैठा
था, खरगोश
ने
सर्टिफिकेट
पढ़ा। लोमड़ी
के हाथ में
सर्टिफिकेट
दिया और भाग खड़ाहुआ।
पास के ही बिल
से, जमीन
में
अंतर्ध्यान
हो गया। लोमड़ी
सर्टिफिकेट
के लेने—देने
में लग गई और
उस बीच वह
खिसक गया। वह
बड़ी हैरान
हुई। वह वापस
सिंह के पास
आई कि यह तो
बहुत मुश्किल
की बात हो गई।
सर्टिफिकेट
तो मिला गया, लेकिन वह
खरगोश निकल
गया। तुमने
गधे के साथ क्या
किया था? सिंह
ने कहा कि देख,
जब मुझे भूख
लगी होती है, तब मैं
सर्टिफिकेट
की चिंता नहीं
करता; पहले
मैं भोजन करता
हूं। वही काफी
सर्टिफिकेट
है कि मैं
सिंह हूं। और
जब मैं भूखा
नहीं होता, तो मैं
सर्टिफिकेट
की बिलकुल
चिंता नहीं
करता। मैं
मानता ही
नहीं। मगर यह
बीमारी जोर से
फैल रही है।
आदमी
में यह बीमारी
बड़ी पुरानी है, जानवरों में
शायद अभी
पहुंची होगी।
बीमारी यह है
कि तुम दूसरों
से पूछते हो
कि मैं कौन
हूं। जब
हजारों लोग जय—जयकार
करते हैं, तब
तुम्हें
सर्टिफिकेट
मिलता है कि
तुम कुछ हो।
जब कोई
तुम्हें
उठाकर
सिंहासन पर बिठाल
देता है, तब
तुम्हें
प्रमाण—पत्र
मिलता है कि
तुम कुछ हो।
दूसरों से
प्रमाण—पत्र
लेने की जरूरत
है? दूसरों
से पूछना
आवश्यक है। कि
तुम कौन हो?
लेकिन
तुम सदा
दूसरों से पूछ
रहे हो। स्कूल
से
सर्टिफिकेट
ले आए हो कि
तुम मैट्रिकुलेट
हो, कि बी. ए.
हो, कि पी.
एच. डी. हो। सब
तरफ से तुमने
सर्टिफिकेट
इकट्ठे किए
हैं कि तुम
कौन हो। कोई
प्रमाण—पत्र
तुम्हें खबर न
दे सकेगा कि
तुम कौन हो। क्योंकि,
दूसरे
तुम्हें कैसे पहचानेंगे?
सिंह
भी कैसे
प्रमाण—पत्र
दे सकता है लोमड़ीको
कि तू लोमड़ी
ही है। अगर
कोई प्रमाण है
तो भीतर है।
तुम कौन हो, इसको अगर
कोई भी खबर
मिल सकती है, तो भीतर से
मिल सकती है।
तुम दूसरों के
दरवाजे मत खटखटाओ;
तुम अपना ही
दरवाजा खोल
लो। और
तुम्हें
दूसरों के
दरवाजे पार जो
भनक भी मिलेगी,
वह भी
तुम्हारे
भीतर की ही
गंध की है।
दूसरे के
दरवाजे से टकराकर
तुम्हारी ही
गंध तुम्हारे
नासापुटों
में आ जाएगी, और तुम
समझोगे कि
दूसरे ने कुछ
दिया है।
इस जगत
में कोई किसी
को कुछ नहीं
देता, दे
नहीं सकता।
स्त्री दुख
नहीं दे सकती
पुरुष को, पुरुष
सुख नहीं दे
सकता स्त्री
को; लेकिन
एक—दूसरे के
आस—पास खड़े
होकर अपनी गंध
की
प्रतिध्वनि
सुनने में
सुविधा हो जाती
है। अगर
तुम्हें एक
शून्य घर में
छोड़ दिया जाए,
तो तुम बड़ी
मुश्किल में
पड़ जाते हो, क्योंकि
वहां कोई
दूसरा
व्यक्ति नहीं
जिसके माध्यम
से तुम अपनी
गंध को वापस
पा सका। इसलिए
आदमी भीड़ की
तरफ जाता है—क्लब,
समाज, समुदाय,
मित्र, परिवार।
तुम
सदा दूसरे को
खोजते हो, क्योंकि
दूसरे के बिना
प्रतिध्वनि
कैसे पता चलेगी?
तुम भागे
फिरते हो।
बहुत जगह
तुम्हें झलक
मिलती है। वह
सब झलक झूठी
है—झूठी स्रोत
की दृष्टि से।
तुम्हें लगता
है, वह
बाहर से आ रही
है। तब तुम
बाहर पर
निर्भर होते
जाते हो। और
जितना तुम
बाहर पर
निर्भर होते
हो, उतनी
ही भीतर की
सुधि खो जाती
है।
पहचानो, जब स्त्री
के संभोग में
कभी तुम्हें
सुख का कोई
क्षण मिला है,
तो होता
क्या है? होता
इतना ही है कि
संभोग के क्षण
में विचार बंद
हो जाते हैं; विचार बंद
हो जाते हैं; भीतर के
ध्यान की धुन
बजने लगती है;
मार्ग खुल
जाता है—कस्तुरी
बाहर तक आ
जाती है। क्षणभर
को तुम्हें
सुख का अनुभव
होता है; क्षणभर
को झरोखा
खुलता है, फिर
बंद हो जाता
है।
जहां
कहीं भी कोई
सितार बजाता
हो, और तुम
बैठ जाते हो, लीन हो जाते
हो—जैसे ही
तुम लीन होते
हो, वैसे
ही सुगंध आनी
शुरू हो जाती
है। वह सुगंध सितार
से नहीं आ रही
है; वह
तुम्हारी
लीनता से आ
रही है।
तल्लीनता ही तो
ध्यान है।
तुम
भोजन करते हो, स्वादिष्ट
भोजन है; तुम
बड़े रस से
भोजन लेते हो;
तुम इतने
तल्लीन होकर
भोजन करते हो
कि भोजन ही
ध्यान हो जाता
है। उसी क्षण
में तो उपनिषद
के ऋषियों ने
कहा है कि
अन्न ब्रह्म
है। अन्न से
भी इतनी ध्वनि
उठी होगी कि
ब्रह्म जैसा
प्रतीत हुआ।
होता
क्या है?
समझ लो
कि तुम भोजन
कर रहे हो—बड़ा
स्वादिष्ट है, तुम बड़े
तल्लीन हो, बड़ा सुख आ
रहा है, स्वाद
रोएं—रोएं
में डूबा जा
रहा है—तभी
कोई खबर लेकर
आता है कि
बाहर पुलिस
खड़ी है और मीसा
के अंनर्गत
तुम गिरफ्तार
किए जाते हो—तत्क्षण
स्वाद खो गया।
भोजन अब भी
वही है, लेकिन
लीनता टूट गई।
भोजन वही, जीभ
वही है, शरीर
में अब भी वही
रस काम रह रहे
हैं, लेकिन
लीनता टूट
गयी। अब भोजन
में कोई स्वाद
नहीं है, भोजन
बेस्वाद हो
गया। अब भोजन
में नमक है या
नहीं, तुम्हें
पता न चलेगा।
अचानक
क्या बदल गया? सब तो वही
है। और फिर एक
आदमी भीतर आता
है, वह
कहता है, घबड़ाओ
मत, सिर्फ
मजाक की थी, कोई पुलिस
नहीं आई है, कोई सीमा के अंतर्गत्त
गिरफ्तार
नहीं किए गए
हो—फिर लीनता
आ गई! जो भोजन
बेस्वाद हो
गया था, बड़ा
फासला हो गया
था—वह फिर
स्वादिष्ट हो
गया; फिर
तुम मग्न हो।
तुम्हीं
दान देते हो, तुम्हीं भोग
करते हो।
तुम्हीं पहले
भोजन में रस
डाल देते हो
लीनता के
द्वारा, फिर
तुम्हीं
स्वाद लेते
हो। तुम्हीं
स्त्री या
पुरुष में
अपनी कामना के
द्वारा ध्यान
को केंद्रित
कर देते हो, फिर अपनी ही
धुन सुनते हो।
कस्तूरी
कुंडल बसै।
जहां
भी तुमने कहीं
आनंद पाया हो, स्मरण रखना
कि वह तुमने
ही डाला होगा,
क्योंकि
दूसरा कोई
उपाय नहीं है।
धन में डाल दो
तो में आनंद
मिलने लगेगा,
पद में डाल
दो तो पद में
आनंद मिलने
लगेगा—जिस बात
में भी डाल दो
वहीं से आनंद
मिलने लगेगा।
आनंद
तुम्हारा
स्वभाव है; वह तुम्हारी
नाभि में ही
छिपा है और
तुम मदमाते
भाग रहे हो; और वहां खोज
रहे हो जहां
वह नहीं है; और वहां से
तुम्हारी आंख
बिलकुल चूक गई
है जहां वह
है।
तेरा
जन एकाध है
कोई।
कोई
एकाध करोड़ों
में भीतर की
तरफ मुड़ता
है। कोई एकाध
करोड़ों में इस
राज को समझ
पाता है कि
जिसे मैं बाहर
पा रहा हूं वह
मेरे भीतर है।
इस राज की कुंजी
हाथ में आते
ही, जीवन में
क्रांति घटित
हो जाती है; तुम्हारी
हाथ में
स्वर्ग का
द्वार आ गया
पहली दफा। अब
कहीं खोजने की
कोई जरूरत न
रही। अब तो जब
भी चाहा, सुंगध
भीतर है, स्वर्ग
भीतर है। जब
जरा गर्दन
झुकाई, देख
ली। दिल के
आईने में है
तस्वीर यार।
अब बस गर्दन
झुकाने की बात
रही। धीरे—धीरे
तो गर्दन
झुकाने की भी
बात नहीं रह
जाती।
तुम्हीं हो, गर्दन भी
क्या झुकानी
है! जहां रहे, जैसे रहे, वहीं आनंद
फैलता रहेगा।
जहां रहे, जैसे
रहे; सुविधा
में रहे, असुविधा
में रहे; स्वस्थ
थे कि बीमार
थे; गरीब
थे कि अमीर थे;
जवान थे कि
वृद्ध थे; जन्म
रहे कि मर रहे
थे—कोई फर्क
नहीं पड़ता।
तुम्हीं
हो परम
स्वर्ग। अब
कुछ भी बाहर
होता रहे, वह सब बाहर
है और भीतर
अनाहत संगीत
गूंज रहा है; और भीतर उस
भीतर के महासुख
में जरा भी
दरार नहीं
पड़ती, कोई
विध्न नहीं
आता। क्योंकि
जो बाहर है, वह बाहर है, और उसके
भीतर पहुंचने
का कोई उपाय
नहीं। एक बार
तुम्हें अपने
भीतर का मंदिर
मिल गया और एक
बार तुमने राह
पहचान ली, फिर
तुम्हें भटक
का कोई उपाय
नहीं।
क्योंकि, कोई
भटका भी नहीं
रहा था, तुम
खुद ही भटक
रहे थे।
क्योंकि, तुम्हें
लगता था, गंध
आती है बाहर
से; और गंध
छिपी थभ
तुम्हारे
नाभि में।
तेरा
जन एकाध है
कोई।
करोड़ो
में कोई एक
भीतर की इस
बात को पहचान पाताहै।
अड़चन क्या है? खोजते तो
सभी हैं, पाना
भी सभी चाहते
हैं; फिर
पा क्यों नहीं
पाते। कहां
अवरोध है? कहां
मार्ग में
दीवाल आ जाती
है?
काम
क्रोध अरु लोभ
विवर्जित, हरिपद चीन्हैं
सोई।
ये तीन
को...कबीर कहते
हैं: काम, क्रोध
और लोभ—इन
तीनों की विवर्जना
है, इनका
अवरोध है। इनके
कारण ही पहचान
मुश्किल हो
जाता है। इनके
कारण ही हरिपद
को चीन्हना
मुश्किल, करीब—करीब
असंभव हो जाता
है। इन तीन हम
समझने की कोशिश
करें:
काम, क्रोध, लोभ—
काम
है: जो हमारे
पास है, उससे
ज्यादा पाने
की आकांक्षा।
जो मिला है उससे
तृप्त न होना
काम है। जो है,
उससे
असंतोष काम
है। इसलिए
मोक्ष की
कामना भी कामना
ही है।
परमात्मा को
पाने की इच्छा
भी काम है। धन
पाने की इच्छा
तो काम है ही, स्त्री पाने
की, पुरुष
पाने की इच्छा
तो काम है ही; परमात्मा को
पाने की इच्छा,
मोक्ष को
पाने की इच्छा
भी काम है।
काम का
अर्थ इतना ही
है कि जो है, उतना काफी
नहीं। और अकाम
का अर्थ है, जो है वह
काफी से ज्यादा
है; जो है
वह परम तृप्ति
दे रहा है; जो
है वह परितोष
दे रहा है।
उतने से हम
राजी ही नहीं
हैं; हम
प्रफुल्लित
भी हैं; जो
मिला है उससे
हम अनुगृहीत
हैं। फिर काम
विसर्जित हो
जाता है।
इसलिए
ध्यान रखना, दो तरह के
कामी हैं; सांसारिक
और धार्मिक।
सांसारिक
कामी बाजार
में बैठा है—वह
धन इकट्ठा कर
रहा है, पद
प्रतिष्ठा
इकट्ठा कर रहे
है, मकान
बड़े से बड़े
किए चला जा
रहा है। और एक
धार्मिक कामी
है—वह
संन्यासी हो
गया है, मुनि
हो गया है, मंदिर
में बैठा है, आश्रम में
बैठा है; लेकिन
वह भी कामी
है। उसकी
कामना का विषय
बदल गया है; लेकिन कामना
नहीं बदली। कल
वह धन चाहता
था; अब वह
ब्रह्म चाहता
है—चाह काफी
है।
और चाह
है काम। क्या
तुम चाहते हो, इससे कोई
फर्क नहीं
पड़ता। जब तक
तुम चाहते हो तब
तक तनाव रहेगा,
और जब तक
तनाव रहेगा तब
तक अवरोध
रहेगा। जब तक तुम
मांगते रहोगे
तब तक
तुम्हारी आंख
बाहर लगी
रहेगी। जब तक
तुम चाहना से
भरे रहोगे तब
तक तुम भविष्य
से भरे रहोगे;
तुम्हारा
मन दौड़ता
रहेगा कल की
तरफ। भीतर
कैसे जाओगे? भीतर जाना तो
आज और अभी होगा।
बाहर
जानेवाला मन
हमेशा कल
आनेवाले
भविष्य में
डोलता रहेगा,
डांवाडोल
रहेगा।
काम
भविष्य का
पैदा करता है।
कामना से
भविष्य पैदा
होता है। और
जो आदमी
निष्काम है, वह अभी और
यहीं जीता है,
उसके लिए
कोई भविष्य
नहीं है। यह
क्षण काफी है।
क्या कमी है
इस क्षण में? सब पूरा है।
तुम पूरे के
पूरे हो; रत्तीभर
कमी नहीं है।
लेकिन अगर
कामना हुई तो कामना
से कमी पैदा
होती है।
यह
गणित ठीक से
समझ लो।
जितनी
बड़ी कामना, उतनी बड़भ
कमी। जितना
मांगोगे, उतने
बड़े भिखारी
रहोगे।
मैं एक
घर में मेहमान
था कलकत्ता
में। एयरपोर्प
से मेरे मेजमवान
मुझे लेकर चले
तो बड़े उदास
थे। मैंने
पूछा, कया हुआ कि बहुत
नुकसान हो
गया। उनकी
पत्नी, जो
पीछे बैठी थी,
उसने कहा, इनकी बातों
में मत पड़ना।
आप तो जानते
ही हैं नुकसान
बिलकुल नहीं
हुआ है, लाभ
हुआ है। तो
मैं थोड़ा
परेशान हुआ कि
मामला क्या है?
मैंने कहा,
विस्तार से
कहो। तो उसने
कहा, इनको
किसी धंधे में
दस लाख मिलने
की आशा थी, पांच
लाख मिले। ये
कहते हैं, पांच
लाख का नुकसान
हो गया और
उससे बड़े
परेशान हैं। ये
रात सो नहीं
सकते। और मैं
इनको समझा—समझाकर
मरी जा रही
हूं। और इसलिए
मैंने चाहा कि
आप आए और इनको
थोड़ी याद
दिलाए कि पांच
लाख का लाभ
हुआ है।
कामना
दस की हो और
पांच ही मिलें
तो पांच को तो नुकसान
हो गया। अगर
कामना पचास की
होती तो और
बड़ा नुकसान
होता। अगर
कामना करोड़
की होती तो
भिखारी ही हो
गए थे, दिवाला
ही निकल जाता
था। जितनी बड़ी
कामना होती
चली जाती है, उतना बड़ा भिखारीपन
बढ़ता चला जाता
है। इसलिए
सम्राटों से
बड़े भिखारी
तुम कहीं न पा
सकोगे, और
धनियों से बड़े
दरिद्र खोजना
मुश्किल है।
उनके पास क्या
है, उसकी
गिनती मत करना;
क्योंकि
उसकी गिनती वे
खुद ही नहीं
कर रहे हैं, तुम क्यों
करो? उनके
पास जो नहीं
है उसका हिसाब
करना, तब
तुम्हें पता
चलेगा। यहीं
भूल हो रही
है। तुम देखते
हो धनी तो तुम
उसका हिसाब
लगाते हो जो—जो
उसके पास है—कितना
बड़ा मकान, कितनी
बड़ी कार, कितनी
बड़ी जमीन। तुम
इसका हिसाब
लगा रहे हो, तुम कह रहे
रहो, आदमी
के पास कितना
है! वह आदमी
इसका हिसाब ही
नहीं लगा रहा
है। वह हिसाब
लगा रहा है
उसका जो हानो
चाहिए और जो
नहीं है।
तुमर्
ईष्या से मरे
जा रहे हो कि
काश, इतना
हमारे पास होता!
और वह आदमी
अपनी तृष्णा
से मरा जा रहा
है, क्योंकि
यह तो कुछ भी
नहीं है।
सपने
कभी पूरे नहीं
होते, क्योंकि
अगर पूरे भी
हो जाए तो
सपने बड़े लोचपूर्ण
हैं। जब तक वे
पूरे होते हैं
तब तक वे
फैलकर और बड़े
हो जाते हैं।
सपने तो, बच्चे
रबड़ के
गुब्बारों से
खेलते हैं, वैसे हैं—तुम
फूंकते
जाते हो, वे
बड़े होते जाते
हैं। कुछ और हनीं करना
पड़ता, सिर्फ
फूंकना पड़ता
है, सिर्फ
थोड़ी हवा और
डाल दी कि
फुग्गा बड़ा हो
जाता है, और
बड़ा होता चला
जाता है।
कामना फूंकने
से ज्यादा
नहीं है। कोई
कामना के लिए क्ुछ करना
नहीं पड़ता; आराम कुर्सी
में बैठकर तुम
जितना
दिवास्वप्न
देखना चाहो उतना
देख सकते हो।
और बच्चों के फुग्गे तो
फूट भी जाते
हैं, अगर
ज्यादा फूंक
जाए; कामना
के फुग्गे
कभी नहीं
फूटते, क्योंकि
वे हों तो
फूटें।
फुग्गा कम से
कम कुछ तो है—माना
कि कुछ पतली रबड़ है और
भीतर सिर्फ
गर्म हवा है; लेकिन सपने
के फुग्गे
में उतनी पतली
रबड़ भी
नहीं, वह
हवा ही हवा
है। उसको तुम
फैलाते चले
जाते हो। यह
आकाश भी छोटा
है तुम्हारे
सपने से। उसकी
कोई सीमा
नहीं।
दुनिया
में दा चीजें
असीम हैं: एक
सपना और एक ब्रह्म।
बस दो चीजें
असीम हैं।
उनमें से एक
है और एक
बिलकुल नहीं
है।
फिर
सपना जितना
बड़ा होता है, उससे तुम
तुलना करते हो
जो तुम्हारे
पास है—बड़ी
अतृप्ति पैदा
होती है, बड़ा
असंतोष जगता
है। कोई
तुम्हें गरीब
नहीं बना रहा
है; तुम्हीं
अपने को गरीब
बनाए चले जा
रहे हो। जिस
दिन यह समझ
में आया बुद्ध
और महावीर को,
वे तत्क्षण
राजमहल छोड़
सड़क पर खड़े हो
गए। राजमहल
नहीं छोड़ा; वह जो सपना
था, जिसके
कारण गरीब से
गरीब हुए जा
रहे थे, वह
सपना छोड़
दिया।
इसलिए
दुनिया में
बड़ी अनूठी
घटना घटती है:
सम्राट दीन रह
जाते हैं और
कभी—कभी राह
के भिखारी ने
ऐसी गरिमा
पायी है कि उसकी
महिमा का बखान
नहीं किया जा
सकता।
राज
क्या है? कुंजी
कहां है?
जो
तुम्हारे पास
है उससे जो
तृप्त है, जिसकी वासना
रत्तीभर भी
भविष्य की तरफ
नहीं जाती, जिसने
वर्तमान को
काफी पाया—और
काफी शब्द ठीक
नहीं है, काफी
से ज्यादा
पाया, क्योंकि
काफी में थोड़ी
कमी मालूम
पड़ती है; बस
काफी है, ऐसा
लगता है कि
कुछ और बाकी
है—जितना है
काफी ही नहीं,
जो है उसमें
पर्याप्त से
ज्यादा पाया,
परितृप्ति
पायी, परितोष
पाया; और
इतना ही नहीं
कि वह राजी है,
वह
अनुगृहीत है,
वह अहोभागी
है; जो
मिला है उसके
लिए उसके हृदय
में बड़ा गहन
धन्यवाद है—तो
कामना टूट
जाती है। संतोष
कामना को मिटा
देता है।
असंतोष कामना
की अग्नि में
घी की तरह
बढ़ता चला जाता
है।
संतुष्ट
होना सीखो, तो पहली
बाधा गिर
जाएगी—काम।
अगर कामना बनी
रही तो भविष्य
का जाल बना रहता
है। और वह जाल
बड़ा है। और
वर्तमान का
क्षण बड़ा छोटा
है। वह उस जाल
में कहां खो
जाएगा, तुम्हें
पता ही न
चलेगा।
वर्तमान
का क्षण तो
ऐसे है जैसे
रेत का एक कण; और भविषे
का जाल ऐसे है
जैसे सारे सागरों
के किनारे की
रेत। वर्तमान
का कण कहां
तुम खो दोगे
उस रेत में, पता ही न
चलेगा। अगर
तुम यह
वर्तमान के
क्षण के द्वार
को पकड़ लो, और
वही द्वार है।
और उसके अतिरिक्त्त
कोई द्वार
नहीं है। वहीं
से कोई मंदिर
में प्रवेश
करता है।
क्योंकि वहीं
तुम हो वही
वृक्ष है, वहीं
आकाश हैं, वहीं
चांदत्तारे
हैं, वही
परमात्मा है।
वर्तमान
का क्षण
एकमात्र
अस्तित्व है।
भविष्य तो
कल्पना का जाल
है; वह तो
आंखें खुली
रखकर सपने
देखने का ढंग
है—दिवास्वप्न।
अगर
तुम्हारी
कामना भविष्य
की तरफ बढ़ती
जाती है तो एक
अवरोध दूसरे
अवरोध को
सहायता देता
है। जिस आदमी
की कामना
भविष्य में
होगी उसका लोभ
अतीत में
होगा। लोभ
अतीत है, और कानमा, काम
भविष्य है।
लोभ का मतलब
है, जो उसे
जोर से पकड़े
रहो। काम का
अर्थ है, जो
नहीं है उसको
मांगे जाओ। और
लोभ का अर्थ
है, जो
तुम्हारे पास
है उसे जोर से पकड़े रहो, वह कहीं खो न
जाए, उसमें
से रत्तीभर कम
न हो जाए।
अब यह
बड़े मजे की
बात है कि
उससे तुम्हें
कोई सुख नहीं
मिल रहा है, उससे तुम
संतुष्ट नहीं
हो; संतोष
की तो तुम
कामना कर रहे
हो, कभी
भविष्य में
कोई स्वर्ग
मिलेगा; लेकिन
तुम उसे पकड़े
जोर से हो।
आदमी
अतीत को पकड़े
रखता है, और
जो—जो उसने
अतीत में
कमाया है—धन, पद, त्याग,
जो भी, उसको
संभाले रखनता
है कि कहीं यह
खो न जाए।
आंखें लगी
रहती हैं भविष्य
पर और पैर अड़े
रहते हैं अतीत
में। दोनों
हाथा से अतीत
को पकड़े
रहते हो और
दोनों आंखों
से सपना देखते
रहते हो
भविष्य का। और
इन दोनों के
बीच में क्षण
है एक, जहां
अस्तित्व
समाधि में सदा
ही लीन है; जहां
अस्तित्व क्षणभर
को भी कंपा
नहीं है; जहां
निष्कम्प
चैतन्य की
ज्योति जल रही
है; जहां
मंदिर का द्वार
खुला है।
संकीर्ण
है वह द्वार।
जीसस
ने अपने शिष्य
से कहा है, नैरो इज माइ गेट।
संकीर्ण है
मेरा द्वार।
स्टेट इज
दि वे, बट
नैरो इज माइ गेट।
मार्ग तो सीधा—साफ
है, लेकिन
द्वार बहुत
संकीर्ण है।
वही तो कबीर
कहते हैं, प्रेम
गली अति सांकरी,
तामे दो न समाय।
बड़ी संकीर्ण
है गली; वहां
दो भी साथ न जा
सकेंगे।
जीसस
ने कहा है, सुई के छेद
से ऊंट निकल
जाए, लेकिन
धनी स्वर्ग के
द्वार से न
निकल पाएगा। आखिरी
धनी पर ऐसी
क्या नाराजगी
है? धनी से
प्रयोजन है, जिसने पकड़
रखा है अतीत
को, लोभ
को।
लोभ और
काम एक ही
सिक्के के दो पहलूं हैं।
एक अतीत की
तरफ देख रहा
है कि जो है वह
खो न जाए—दमड़ी—दमड़ी को पकड़े हुए
है। और काम
भविष्य की तरफ
देख रहा है कि
जो है उससे
डरती। और
पत्नी डरे तो
समझो, कोई खाय मामला
है, क्योंकि
आमतौर से पत्नियां
डरती नहीं
हैं। कभी—कभार
ऐसा होता है, सौ मैं से
एकाध मौके पर
ही पत्नी डरे।
पत्नी डरती, नौकर कंपते,
और उनको
मैंने कभी
नहीं देखा कि
वे राह से निकलते,
तो इधर—उधर
देखते हों; बिलकुल सीधा
वे अपना...चलते
रहते; एकदम
चले जाते, तीर
की तरह।
मैंने
उनसे पूछा कि
मामला क्या है? तो उन्होंने
कहा कि अगर
जरा ही हंसकर
पत्नी से बोले,
कहती है, फलाना गहना
ले जाओ, यह
करो। हंसकर
बोले कि फंसे,
तो चेहरा
सख्त रखना
पड़ता है। अगर
बच्चे की जरा
सी पीठ थपथपाओ,
वह खीसे में
हाथ डालता है।
अगर नौकर की
तरफ देख भी लो
तो तैयार खड़ा
है कि तनख्वाह
बढ़ाओ।
मगर इस
अदमी की
जिंदगी सोचो।
पैसा तो यह
बचा लेगा और
सब खो जाएगा।
इसकी जिंदगी
में कोई सुख
का क्षण नहीं हो
सकता।
क्योंकि जो
अपने बच्चे की
पीठ थपथपाने
में भी भयभीत
होता हो, जो
पत्नी के पास
बैठकर
मुस्कुराने
से डरता हो, यह आदमी न
हुआ, एक
तरफ का पत्थर
हो गया। इसके
हृदय धीरे—धीरे
धड़कना
बंद हो जाएगा,
सिर्फ फेकड़ा
हवा फेंकता
रहेगा, हृदय
की धस?कन
खो जाएगी।
इसके जीवन में
जो भी
संवेदनशील है,
वह सब नष्ट
हो जाएगा।
क्योंकि यह
डरा हुआ है, यह कंजूस है,
यह भयभीत
है। इसने
संपत्ति को सब
कुछ मान लिया
है। यह
संपत्ति की
रक्षा करेगा
लेकिन मालिक नहीं
है। पहरेदार
हो सकता है।
मालकियत तो
तभी होती है
जब तुम बांट
पाते हो। और
देने की कला
सीख लेना इस
जगत में सबसे
बड़ी कला है, क्योंकि उसी
द्वार से सब
कुछ आता है।
जो देता है, उसे मिलता
है; जो
लुटाता है, उस पर बरसता
है।
कबीर
ने कहा है, जैसे कि नाव
में पानी भर
जाए, तो
तुम क्या करते
हो?—दोनों
हाथ उलीचिए।
ऐसे ही जीवन
में जो
तुम्हें मिल
जाए, तुम
दोनों हाथ
उलीचना।
जीसस
ने कहा है, जो बचाएगा,
वह खो देगा;
और जो खोने
को राजी है, उससे कोई भी
नहीं छीन
सकता। यह बड़ी
उल्टी बातें
हैं। क्योंकि
हमें तो लगता
है, जितना बचाओगे
उतना ही बचेगा,
बांटोगे तो
खो जाएगा।
लेकिन तब तुम्हें
जीवन के रहस्य
की कोई भनक भी
तुम्हारे
जीवन में नहीं
पड़ी। तुम दो
और देखो।
दान
लोभ के अवरोध
को गिराता है; संतोष काम
के अवरोध को
गिराता है।
दान का मतलब
इतना ही नहीं
कि तुम पैसा
किसी को दे दो;
दान का मतलब
है देने का
भाव। एक
मुस्कुराहट
भी दी जा सकती
है। कुछ खर्च
नहीं लगता।
लेकिन कृपण
उससे भी डरता
है। क्या खर्च
पड़ता है किसी
की तरफ मुस्कुराकर
देखने में? जरा भी खर्च
नहीं है; लेकिन
खर्च की
संभावना शुरू
हो जाती है—डर
है, भय है।
कृपण ऐसे जीता
है, जैसे
दुश्मन के बीच
में जी रहा है—सब
तरफ दुश्मन
हैं, और हर
चीज से डरा
हुआ है। कृपण
भय से कंपता
रहता है—सब
तरफ चोर हैं, डकैत हैं; लुटेरे हैं,
सब तरफ
बेईमान हैं और
सबकी नजर उस
पर लगी है कि उसकी
चीजों को झटके
लें, छीन
लें।
सिर्फ
दानी अभय हो
पाता है। और
दान का मतलब
बहुआयामी है।
राह पर कोई
गिर पड़ा है, तुम हाथ पकड़कर
उसे उठा लेते
हो, तुम
अपनी राह चल
जाते हो, वह
अपनी राह चला
जाता है; लेकिन
तुमने थोड़ी सी
जीवन ऊर्जा बांटी।
तुम एक कुम्हलाए
हुए पौधे को
देखते हो और
एक लौटा पानी
लाकर डाल देते
हो—तुमने दिया,
तुमने जीवन—ऊर्जा
बांटी।
तुम एक बीमार
आदमी के पास
जाते हो, एक
फूल उसके बिस्तर
पर रख आते हो—तुमने
जीवन—ऊर्जा बांटी, तुमने
जीवन दिया। और
बहुत बार ऐसा
होता है कि दवा
जो नहीं करती,
वह किसी
मित्र का लाया
हुआ एक छोटा
सा फूल कर
जाता है। कोई
अब भी प्रेम
करता है, यह
बात जितनी बड़ी
बचाने वाली हो
जाती है, कोई
दवा नहीं बचा
सकती। और कोई
अब भी उत्सुक
है...! जब कोई मरण
के मुंह के
पास पड़ा हो, तब किसी का
आकर कुशल—क्षेम
पूछ जाना भी
बड़े काम का हो
जाता है। फिर शक्ति
जग जाती है, आत्म—विश्वास
उभर आता है।
वह आदमी मौत
के खिलाफ पैर
टिकाकर खड़ा हो
जाता है कि
संबंध सब टूट
गए हैं; अभी
भी कुछ
खूंटियां
जीवन में गड़ी
हैं; कोई
भी प्रतीक्षा
करता है; कोई
प्रेम करता
है!
एक
छोटा—सा फूल, एक प्रेम से
भरा हुआ शब्द
किसी के जीवन
को क्रांति दे
देता है, किसी
के जीवन को
गिरने से बचा
लेता है। एक
शुभ आशीष
प्राणों में
नई ज्योति भर
देता है।
कोई धन
ही बांटने की
बात नहीं है।
धन तो निकृष्टतम
है बांटने
में। जिसके
पास कुछ न हो वह
धन बांटे।
एक करोड़पति
एक बार मुझे
मिलने आया।
बहुत से रुपये
लाकर सामने
मेरे पैर पर
रख दिए। वह
बहुत अनूठा
आदमी था। फिर
मुझे वैसा
दूसरा अनूठा
आदमी पूरे मुल्क
में घूमकर भी
नहीं मिला। और
बड़ी हैरानी की
बात, वह एक सटोरिया
था, जिनको
लोग बुरा
समझते हैं।
जिंदगी बहुत
अनूठी है!
यहां कभी—कभी
बुरी
स्थितियों मग
छिपे हुए साधु
मिल जाते हैं,
और कभी—कभी
साधु के वेश
में सिवाय
शैतान के और
कोई भी नहीं
होता। जिंदगी
बहुत
रहस्यपूर्ण
है। इसीलिए
तुम ऊपर से
पहचानना मत।
जब तब भीतर न पहुंचो, तब तक
निर्णय मत
लेना। उस सटोरिये
ने बहुत रुपये
लाकर मेरे पैर
पर रख दिए।
मैंने कहा कि
अभी मुझे
जरूरत नहीं है;
जब जरूरत
होगी तब मैं
आपसे ले
लूंगा। सटोरिये
की आंख से
आंसू गिरने
लगे। उसने कहा,
आप ऐसा कहते
हैं, लेकिन
तब मेरे पास
होंगे कि
नहीं। मैं
सटोरिया हूं—आज
हैं, कल
नहीं हैं।
इसलिए कल का
मैं कोई वचन
नहीं दे सकता।
मैं डटोरिया
हूं; मैं
तो आज ही जीता
हूं। और फिर
उसने कहा कि
अगर आप इनको
इनकार करेंगे,
तो आप मुझे
बड़ी पीड़ा
देंगे। मैंने
कहा, क्या
मतलब? उसने
कहा कि मैं
बहुत गरीब
आदमी हूं; सिवाय
रुपये के मेरे
पास कुछ भी
नहीं।
मुझे
इससे कीमती
शब्द कहने वाला
कोई आदमी फिर
नहीं मिला। उस
आदमी ने कहा कि
मैं बहुत गरीब
आदमी हूं!
मेरे पास
सिवाय रुपये
के और कुछ भी
नहीं। और जब
आप मेरा रुपया
इनकार कर दें
तो मुझे इनकार
कर दिया, क्योंकि
मेरे पास और
कुछ भी नहीं
है जो मैं भेंट
कर सकूं।
तो
रुपया तो सबसे
गरीब आदमी
बांटता है; वह तो आखरी
है, उसकी
कोई बहुत कीमत
नहीं है। कैसे
नापोगे
एक
मुस्कुराहट
को कि कितने
रुपये है? एक
प्रेम भरा
शब्द, कहां
तौलोगे
कि कितने
कैरेट का है?
अमूल्य
है तुम्हारे
पास देने को।
और राज यह है
कि तुम जितना
देते हो, उतना
तुम्हारे पास
बढ़ता है।
जितना तुम
बांटते हो, उतना बढ़ता
है। जितना तुम
बांटते हो, उतना नया तुम्हार
भीतर उभरता
है। क्योंकि,
तुम्हारे
भीतर
परमात्मा
छिपा है। तुम
उसे बांट—बांट
कर भी बांट न
पाओगे। तुम
अपने ही हाथ
से कृपण हो गए
हो। तुम देते
जाओगे और तुम
पाओगे, ताजा
निकलता आता
है। तुम जितना
दोगे, उतना
बढ़ेगा।
और जो
व्यक्ति देने
की कला सीख
लेता है, उस
व्यक्ति की
लोभ की जो
दीवाल है, वह
गिर जाती है।
लोभ और
काम के बीच
में क्रोध है।
क्रोध
बड़ा
महत्वपूर्ण
है, समझ लेने
जैसा है, क्योंकि
इन दोनों से
ज्यादा जटिल
है।
क्रोध
क्या है?
अगर
तुम्हारी
कामना में कोई
बाधा डाले तो
क्रोध करता है, या तुम्हारे
लोभ में कोई
बाधा डाले, तो क्रोध
आता है। कबीर
ने ठीक कहा है,
काम, क्रोध
और लोभ। ठीक
व्यवस्था से
उन्होंने शब्द
रखे हैं।
क्रोध बीच में
है, सेतु
है।
कब आता
है तुम्हें
क्रोध?
तुम एक
स्त्री के
प्रेम में पड़
गए हो और
पत्नी बाधा
डालती है—क्रोध
आता है। तुम शराबखाने
जा रहे हो, और बीच में
एक संन्यासी
मिल गया है, और शराब के
खिलाफ बोलने
लगता है, और
रुकावट डालता
है—क्रोध आता
है। तुम कृपण
हो और एक
भिखारी हाथ फैलाकर
खड़ा हो जाता
है और चार
आदमियों के
सामने बड़ी
फजीहत में डाल
देता है—क्रोध
आता है। तुमने
अक्सर
भिखारियों को
पैसे क्रोध
में दिए होंगे
निन्यानबे मौकों पर; तुमने सिर्फ
इसलिए दिए
होंगे कि झंझट
छूटे; तुमने
सिर्फ इसलिए
दिए होंगे कि
चार आदमियों के
सामने लोग
क्या सोचेंगे,
दे दो।
इसलिए भिखारी
भी बड़े कुशल
हैं। वे तभी
हाथ फैलाते
हैं, जब
देखते हैं कि
भीड़—भाड़ है।
अकेले में
अगरी तुम मिल
गए सड़क पर, तो
वे अपना जेब
बचाकर निकल
जाते हैं।
तुमसे पाने की
तो आशा नहींम
तुम और निकाल
लो! अकेले में
भिखारी तुमसे
सावधान रहता
है कि एकांत
में ठीक नहीं
झंझट में पड़ना
उचित नहीं।
वह
हमेशा
तुम्हें भीड़
बाजार में, सड़क पर पकड़ता
है: पैर पकड़
लेता है, चार
आदमियों के
साथ जा रहे थे
और फजीहत हुई
जाती है। अभी
यह इज्जत का
सवाल है।
भिखारी इज्जत
का सवाल खड़ा
कर रहा है। वह
यह कह रहा है
कि अब दे दो एक
पैसा, एक
पैसे के पीछे
मत बदनामी करवाओ,
लोग क्या
कहेंगे? तुम
देते हो क्रोध
में, और जो
क्रोध में दिय
ागया वह
दिया ही नहीं
गया, क्योंकि
दान सिर्फ
प्रेम में है।
अगर
तुम्हारे लोभ
में कोई बाधा
डालता है, तो उस पर
क्रोध आता है।
अगर तुम्हारे
काम में कोई
बाधा डालता है
तो उस पर
क्रोध आता है।
इसलिए तो पुरानी
कहावत है: जरा,
जोरू, जमीन;
ये उपद्रव
के तीन कारण
बड़े प्राचीन
समय से लोग
समझते रहे
हैं। जर, जोरू,
जमीन का
मतलब यह है कि
धन और या काम, ये दो ही
उपद्रव में
उतार देते हैं;
दोनों ही
क्रोध का कारण
बनते हैं।
क्रोध दोनों
के बीच में
है। जैसे नदी
क्रोध की बहती
है और दो किनारे
हैं—एक काम का
और एक लोभ का।
अगर काम और
लोभ विसर्जित
हो जाए, क्रोध
तत्क्षण
विलीन हो जाता
है।
अब यह
बड़े मजे की
बात है कि
मेरे पास लोग
आते हैं, जो
पूछते हैं, क्रोध कैसे
मिटे? मेरे
पास कोई आदमी
नहीं आया
जिसने पूछा हो
कि लोभ कैसे
मिटे? कोई
आदमी नहीं आया
अब तक जिसने
पूछा हो, काम
कैसे मिटे? रोज आदमी
आते हैं, जो
पूछते हैं, क्रोध कैसे
मिटे?
क्रोध
मिट नहीं
सकता। क्रोध
पर सीधा हमला
करने का उपाय
ही नहीं है।
क्योंकि
क्रोध बाइप्राडक्ट
है। वह तो काम
और लोभ के बीच
में जीता है।
लोग जब
पूछते हैं, क्रोध कैसे
मिटे, तो
मैं बड़ी
मुश्किल में
पड़ जाता हूं।
इनको क्या कहो?
इनको निराश
करना भी उचित
नहीं है। कम
से कम इतना भी
पूछने आए हैं,
यह भी क्या
कम है। लेकिन
उनको कहो क्या?
क्योंकि
अगर उनको कहो
कि लोभ मिटाओ,
वे नदारद हो
जाएंगे, दुबारा
कभी आएंगे ही
नहीं। वे
क्रोध मिटाना
चाहते हैं। और
क्रोध भी वे
क्यों मिटाना
चाहते हैं, ताकि लोभ
सुविधा से कर
सकें और काम
का भोग शांति
से हो। और कोई
कारण नहीं है
क्रोध मिटाने
का। कोई
परमात्मा को
पाने के लिए क्रोध
मिटाना चाहते
हैं, ऐसा
भी नहीं है।
क्रोध से अड़चन
आती है। कभी—कभी
ग्राहक पर
क्रोध आ जाता
है, पीछे
पछतावा होता
है। कभी पत्नी
पर क्रोध आ जाता
है, फिर
पीछे पछतावा
होता है, क्योंकि
इससे काम में
और लोभ में
बाधा पड़ती है।
तुम दिन में
पत्नी पर
क्रोध कर लो, रात में वह
बदला लेगी—वह
तुम्हारे काम
में बाधा
डालेगी।
क्रोध
से अड़चन आती
है काम और लोभ
में। इसलिए लोग
क्रोध को
मिटाना चाहते
हैं। लेकिन
क्रोध मिटता
है तभी जब काम
और लोभ
विसर्जित
होते हैं, और मिटने का
कोई भी उपाय
नहीं है; हो
भी नहीं सकता,
क्योंकि वह
दोनों के मध्य
में जीता है।
और जब तक वे
दोनों मौजूद
हैं तब तक
क्रोध रहेगा
ही। यह सोचा
भी नहीं जा
सकता कि लोभी
क्रोध को कैसे
छोड़ पाएगा।
क्योंकि जब
उसके लोभ में
कोई बाधा
डालेगा तो वह
क्या करेगा? क्रोध रक्षा
है। और जब
उसके काम में
कोई बाधा डालेगा
तब वह क्या
करेगा?
क्रोध
सब अवरोधों को
तोड़कर
काम के विषय
तक पहुंचने की
चेष्टा है।
क्रोध तुम्हारे
भीतर की
आक्रमक हिंसा
है, जो रक्षा
करती है लोभ
की और काम की।
लेकिन जब काम
और लोभ ही न
रहें, रक्षा
कोई न बचा, रक्षक
अपने—आप विदा
हो जाता है, वह व्यर्थ
हो जाताहै।
उसका कोई
प्रयोजन नहीं
रह जाता।
कबीर
कहते हैं, काम क्रोध
अरु लोभ
विवर्जित, हरिपद
चीन्है
सोई। जो व्यकित्त
इन तीनों की विवर्जना
कर देता है, इन तीन के
पार हो जाता
है, वही
केवल हरिपद का
पहचान पाता
है। हरिपद तो
तुम्हारे
भीतर है। अगर
ये तीन हों तो
तुम कहां होओगे?
अगर लोभ न
हो, तो जो
तुम्हारे पास
है, तुम
उसमें न
रहोगे। अगर
काम न हो, तो
जो तुम्हारे
पास नहीं है, उसमें तुम न
रहोगे। तब तुम
रहोगे कहां? तब तुम्हारी
चेतना कहां
आवास करेगी? कहां होगा
तुम्हारा
डेरा? अचानक
तुम अपने भीतर
खड़े हो जाओगे—और
कई जगह न रही
जाने की। न
पीछे जाने की
कोई जगह रही, न आगे जाने
की कोई जगह
रही। यहीं और
अभी, तुम
अपने भीतर खड़े
हो जाओगे। तुम
अपने स्वरूप में
लीन हो जाओगे।
वही स्वरूप
हरिपद है। वही
परममात्मा
के चरण हैं।
यह
हरिपद शब्द
बड़ा
महत्वपूर्ण
है। तुम हरि
को न पा लोगे
इतने जल्दी, लेकिन हरिपद
को पा लोगे।
तुम्हारे
भीतर, तुम्हारे
हृदय के
अंतरतम में
परमात्मा के
चरण हैं—लेकिन
जब चरण पा लिए
तो परमात्मा
ज्यादा दूर नहीं।
जब चरण पर हाथ
पड़ गए, परमातम ज्यादा दूर
नहीं।
तुम्हारे
भीतर उसके पद
है। उसका पूरा
शरीर तो ब्रह्मांझ
है। उसका पूरा
शरीर तो यह
सारा
अस्तित्व है।
लेकिन
हर हृदय में
उसके पैर हैं।
हर हृदय से उसकी
तरफ जानेवाला
मार्ग है।
उसके पैर को
पकड़ लेना ही
उसके मार्ग पर
चल पड़ता है।
पैर पकड़ने का
अर्थ है:
समर्पण।
परमात्मा के
पैर तुम्हारे
हृदय में हैं।
उसका अर्थ है
कि अगर तुम
हृदय में
समर्पित हो
जाओ, तो तुमने
किरण को पकड़
लिया—अब सूरज
ज्यादा दूर
नहीं; कितने
ही दूर हो तो
भी ज्यादा दूर
नहीं। जिसने
किरण पकड़ ली, उसने सूरज
का पैर पकड़
लिया। काम
क्रोध अरु लोभ
विवर्जित, हरिपद
चीन्है
सोई।
राजस
तामस सातिग
तीन्य, ये सब तेरी
माया। चौथे पद
को जे जन चीन्हैं
तिनहि परमपद
पाया।।
सत्व, रज, तम—इन
तीन गुणों में
संख्या ने
सारे जगत को
बांटा है। यह
तीन की संख्या
महत्वपूर्ण
है, क्योंकि
जिन्होंने भी
जाना है, नाम
इनके अलग—अलग
हो, कोई और
नाम दे, कोई
और, लेकिन
इन सभी ने
अस्तित्व को
तीन हिस्सों
में बांटा है।
सत्व, रज, तम—ये
सांख्य के शबद
हैं।
त्रिमूर्ति—ब्रह्मा
विष्णु, महेश—हिंदुओं
की सामान्य
धारणा है।
ट्रिनिटी ईसाइयों
का विचार हैं।
और अब
वैज्ञानिक
कहते हैं कि
पदार्थ आखिरी
खोज में
उन्होंने तीन
को पाया।
विश्लेषण के
अंतिम क्षण
में उन्होंने
पाया कि इलेक्ट्रोन,
न्यूट्रोन
और पाजिट्रान,
तीन से सारा
अस्तितव
बना है। ऐसा
लगता है कि
तीन सच्चाई की
खबर है। कहीं
से भी कोई
खोजा है, एक
तक पहुंचने के
पहले उसने तीन
को पाया है।
इस
आश्रम के लिए
जो प्रतीक
चुना है—फाउंडेशन
के लिए—वह
इसकी तरफ
इशारा है। एक
तीन हो जाता
है—संसार शुरू
हुआ, मूल गुण
शुरु हो गए।
तीन नौ हो
जाते हैं—संसार
भरपूर हो गया;
बाजार पूरा
भर गया। फिर
नौ से वापस एक
हो जाता है।
संसार को जी
लिया, देख
लिया,स्रोत
की और वापस
पहुंच गए, स्रोत
उपलब्ध हो गया,
एक से तीन, तीन से नौ, नौ से पुनः
एक। नौ का
मतलब है अनंत—यह
सारा वस्तुओं
का जगत है।
तीन का अर्थ
है, इस
अनंतता का
आधार। और एक, जहां सब
माया खो गई, जहां सब
दृश्य विलीन
हो गए, जहां
केवल द्रष्टा
रह गया। वह
द्रष्टा एक
है। वह चौथा
है।
इसलिए
कबीर कहते हैं, राजस तामस सातिग तीन्यू—इन
तीनों को ही—यह
सब तेरी माया।
माया
का अर्थ होता
है: जो दिखाई
पड़ती है और है
नहीं।
पूरब
में हमने तीन
विभाजन किए
हैं। एक, जो
दिखाई नहीं
पड़ता और है—उसको
हम ब्रह्म
कहते है। दो, जो दिखाई पड़ता
है और नहीं है—उसको
हम माया कहते
हैं। वह सपने
जैसी है। और तीन,
वह जो उसे
भी देखता है
जो माया है, और उसे भी
देखता है जो
माया नहीं है—वह
द्रष्टा है।
चौथे
पद को जे जन चीन्हैं, तिनहि परमपद
पाया। वही परम
अवस्था को
उपलब्ध हो
जाता है जिसने
चौथे को पहचान
लिया। तीन को
देखते—देखते
धीरे—धीरे
चौथे की पहचान
आ जाती है।
ऐसा
समझो कि तुम
एक नाटक देखने
गए हो: जब तुम
नाटक देखते हो
तो तुम बिलकुल
ही भूल जाते
हो कि तुम भी
हो, नाटक ही
रह जाता है।
सिनेमा—गृह
में बैठ—बैठ
तुम्हें खयाल
ही नहीं रह
जाता कि तुम
हो। और अगर
तुम्हें बार—बार
खयाल आए कि
तुम हो, तो
तुम समझते हो
कि नाकट
ढंग का नहीं
है—दिल ही न
लगा, लीनता
ही न बली; करवटें,
बदलते रहे
कुर्सी पर
बैठकर; बार—बार
मन होता रहा
कि कब खतम हो; तुम्हें
अपनी याद आती
रही; बेचैन
रहे। नाटक की
कुशलता ही यही
है कि तुम अपने
को बिलकुल भूल
जाओ: देखनेवाले
को याद ही न
रहे कि मैं
हूं; जो
दिखाई पड़ता है
वही रह जाए।
कुशल अभिनेता
वही है जो
द्रष्टा को
बिलकुल ही
विस्मृत करवा
दे, याद ही
न रह जाए।
ऐसा कई
बार होता है।
फिल्म तुम
दुखते हो, वहां कुछ भी
नहीं है परदे
पर, सिर्फ
धूप—छाया का
खेल है; लेकिन
कोई घड़ी आ
जाती है कि
तुम सिसक—सिसक
कर रोने लगते
हो। वहां
सिर्फ धूप—छाया
है। पीछे भी
कुछ नहीं है।
एक
प्रोजेक्टर लगा
है, वह
सिर्फ रोशनी
फेंक रहा है, फिल्म के
माध्यम से।
परदे पर भी
कुछ नहीं है, वह तुम भली—भांति
जानते हो, क्योंकि
जब तुम आए थे
तो परदा खाली
था। अब सब खेल
रच गया है। अब
कोई ऐसी घड़ी आ
गई है जहां
तुम बिलकुल
जार—जार हो
जाते हो, रोने
लगते हो। वह
तो अच्छा है
कि अंधेरा
रहता है हाल
में। सब अपने—अपने
रुमाल निकाल
कर आंसू
पोंछते रहते
हैं। अंधेरे
की वजह से
सुविधा होती
है, अन्यथा
अड़चन हो।
अंधेरा होना
जरूरी है, अन्यथा
द्रष्टा का
खोना मुश्किल
हो जाए।
अंधेरे के कारण
द्रष्टा खो
जाता है।
अंधेरे के
कारण है, अन्यथा
द्रष्टा का
खोना मुश्किल
हो जाए। अंधेरे
के कारण
द्रष्टा खो
जाता है।
अंधेरे के कारण
दृश्य उभरकर
दिखाई पड़ता
है।
कभी
तुम हंसते हो, कभी तुम
रोते हो, कभी
तुम उदास हो जाते
हो, कभी
तुम प्रसन्न
हो जाते हो—और
तुम कभी सोच
भी नहीं रहे
कि वहां परदे
पर कुछ भी
नहीं है।
तीन का—सत्व, रज, तम या
कहो इलेक्ट्रोन,
न्युट्रान,
प्रोट्रोन—यह जो सारा
खेल है—जानने
वालों ने जाना
है कि यह एक
बड़ा रंगमंच है,
बड़ा गहन
नाटक चल रहा
है। तुम देखनेवाले
हो, पर तुम
बिलकुल खो गए
हो, क्योंकि
नाटक बड़ा कुशल
है, होना
भी चाहिए, क्योंकि
उसका
लिखनेवाला भी
परमात्मा है
और उसको चलानेवाला
भी परमात्मा
है। सारा खेल
बड़ी कुशलता से
चल रहाहै।
कुशलता ऐसी है
कि तुम्हें
बिलकुल ही याद
नहीं कि तुम
हो। और नाटक
साधारण ढंग का
नहीं है।
जापान
में एक नाटक
होता है, या
अभी अमरीका
में एक नया
नाटक शुरू हुआ
है, वे
उसको नो
ड्रामा कहते
हैं। उसका नाम
ही है अ नाटक।
और वह बढ़ रहा
है और जोर से, अमेरिका का
फैलेगा
क्योंकि
उसमें बड़ा रस
है। और उस
नाटक की खूबी
यह है कि उसका
संसार से कुछ संबंध
है गहरा। नाटक
ऐस है कि
उसमें मंच
नहीं होता और
दर्शक और
अभिनेता अलग—अलग
नहीं होते।
अभिनेता
दर्शकों के
साथ ही बैठते
हैं। फिर नाटक
शुरू हो जाता
है। उसमें दर्शक
भी भाग लेत
हैं। तुम्हें
बीच में दिल आ
गया, तुम
बीच में पहुंच
गए और तुमने
कुछ—कुछ कहना
शुरू किया।
उसकी कहानी
पहले से लिखी
नहीं होती, डायलोग बंटे नहीं
होते; कोई
नहीं जानता कि
क्या होगा। पर
उसमें बड़ा रस
है, क्योंकि
अन—अपेक्षित
हो सकता है।
उसमें देखने
वाले और नाटक
करनेवाले अलग—अलग
नहीं होते। सब
उसमें सहभागी
होते हैं। और जो
लोग उसमें भाग
लेते हैं, उनको
ज्यादा रस आता
है, नाटक
देखने के बजाय
क्योंकि तुम
भी भागीदार हो
जाते हो।
तुमको अगर
रोना ही है तो
आंखें छिपाकर
रोने की जरूरत
नहीं। तुम
उठकर बीच में पहुचं
जाते हो, दिल
खोलकर रोते
हो। और तुम
पूरे नाटक की
धारा बदल देते
हो, क्योंकि
तुम्हारे
रोने को भी
संभालना पड़ता
है कि वे जो
अभिनेता हैं,
कि...अब इनका
क्या करो।
इनको कुछ कहना
पस?ता है—इनके
कहने की वहज
से पूरी कथा
बदल जाती है, पूरी वार्ता
बदल जाती है; जहां अंत
होगा, कुछ
पता नहीं; कहां
प्रारंभ होगा,
कुछ पता
नहीं
यह
नाटक संसार का
ठीक प्रतीक
है। यहां तुम देखनेवाले
अलग नहीं बैठे
हो कुर्सियों
पर, और मंच पर
नाटक नहीं चल
रहा है। मंच
पर चलता है नाटक,
तुम कुर्सी
पर बैवे
रहते हो। वहां
तुम भूल जाते
हो, तो
यहां तो तुम
भूल ही जाओगे।
यहां मंच ही
मंच है; यहां
कोई अलग नहीं
है। यहां सब
ही अभिनेता है
और सभी देखनेवाले
हैं।
भूलना
बिलकुल स्वाभाविक
है। कुछ बुरा
भी नहीं है कि
भूल गए। लेकिन
अगर याद आ जाए, अगर याद आ
जाए कि जिन
दुखों से तुम
पीड़ित हो, चिंताओं
से परेशान हो,
तनावों से
ग्रस्त हो—वे
सब विलीन हो
जाते हैं। अगर
यह याद आ जाए
कि तुम देखनेवाले
हो, करनेवाले
नहीं तब नाटक
चलता रहेगा, तुम एक कोने
में बैठ जाओगे
और मुस्कुराओगे।
तुम्हारी दशा
वही होगी जो
कबीर कहते हैं,
गूंगे केरी
सरकार, खाये
और मुस्कुराय।
तुम एक कोने
में बैठकर
स्वाद लोगे
अपना, क्योंकि
वही मधुरतम
है। और तुम
हंसोगे लोगों
पर कि नाहक
परेशान हो रहे
हैं, बहुत
परेशान हो रहे
हैं। तुम
बैठोगे एक
कोने में। यह
बैठना ही
संन्यास है।
इस बैठने का
कल इनता
ही मतलब है।
कि मुझे समझ
आना शुरू हो
गई कि कर्ता
होने की कोई
जरूरत नहीं है;
मेरा
स्वभाव
द्रष्टा का है;
मैंने तीन
के पार चौथे
को पहचान लिया
है।
चौथा
है तुम्हारे
भीतर
देखनेवाला।
इसलिए समस्त
ध्यान की पद्धतियां
चौथे को जगाने
की पद्धतियां
हैं: कैसे तुम
जागरुक बनो; कैसे तुम
ज्यादा से
ज्यादा होश से
भर जाओ; कैसे
तुम्हारी
मूर्च्छा और
तंद्रा टूटे;
कैसे तुम
दृश्य से हटो
और द्रष्टा
में थिर हो जाओ।
चौथे
पद को जे जन चीन्है, तिनहि परमपर
पाया।
अस्तुति
निंदा आसा छाड़ै, तजै
मान अभिमाना।
फिर न तो कोई
प्रशंसा का
सवाल है, न
कोई निंदा का;
न कोई आशा
का, न कोई
अपेक्षा का।
जैसे ही
तुम्हें
द्रष्टा का
बोध होना शुए
हुआ, स्तुति
और निंदा
व्यर्थ हो गई
क्योंकि
स्तुति और
निंदा तो
अभिनेता की
अपेक्षा है।
अभिनेता
चाहता है कि
तुम ताली बजाओ,
स्तुति
करो। अभिनेता
चाहता है कि
लोग निंदा न करें,
क्योंकि
अभिनेता का सारास रस
इसमें है कि
लोग क्या कहते
हैं।
अभिनेता
का अर्थ है कि कत्ता में
इतना ज्यादा तादाम्य
कर लिया है
उसने कि उसके
दृष्टा का उसे
कुछ पता ही
नहीं है। वह
चाहता है कि
यह लोग क्या
कहते हैं। गंध
उसके भीतर है—कस्तूरी
कुंडल बसै; लेकिन उसकी
भनक दूसरों की
आंखों द्में
देखना चाहता
है। लोग
प्रशंसा करें
तो वह प्रसन्न
है; लोग
निंदा करें तो
वह दुखी है।
लेकिन जिसने
द्रष्टा को पा
लिया, उसके
लिए तो न तो
कोई अब स्तुति
है, न कोई
निंदा है। तुम
उसकी निंदा
करो तो वह
दुखी नहीं; तुम उसकी
स्तुति करो तो
वह प्रसन्न
नहीं। तुम फूल—मालाएं चढ़ाओ तो
तुम उसके सुख
को चढ़ाते
नहीं; तुम
उस पर गालियों
की बौछार करो,
तो तुम उसके
सुख को घटाते
नहीं। तुम
क्या करते हो
इससे अब उसको
कोई संबंध न
रहा। जब तक वह
खुद कर्ता था
तब तक तुम्हारे
करने से संबंध
था; अब वह
द्रष्टा हो
गया; अब तो
तुम्हारे
द्रष्टा से ही
संबंध हो सकता
है, तुम्हारे
कर्ता से कोई
संबंध नहीं हो
सकता। क्योंकि
हम जैसे होते
हैं, वैसा
ही हमारा
संबंध होता
है। वह
तुम्हारे कर्तुत्व
के जगत से हट
गया, पार
हो गया। और
ऐसे व्यक्ति
की अब कोई आशा
अपेक्षा नहीं,
क्योंकि
भविष्य नहीं
है। वह
परमात्मा से
भी कुछ नहीं
मांगता; उसकी
मांग ही जाती
रही। और वह अब
कोई आशा भी नहीं
रकता कि
कल कुछ
होनेवाला है।
सब जो बड़ा हो
सकता था, वह
अभी हो रहा है;
जो अभी हो
सकता है, वह
हो ही रहा है।
ऐसा नहीं है
कि ऐसा आदमी
निराश हो जाता
है; निराश
तो वे ही लोग
होते हैं
जिनकी आशा है।
इस
फर्क को ठीक
से समझ लेना
क्योंकि
पश्चिम में
ऐसी बहुत—सी
धारणाएं हैं
कि पूरब के
लोग इस तरह की
बातों में उलझकर
निराश हो गए, पैसिमिस्ट हो गए। नहीं;
निराश तो
वही हो सकता
है जिसकी आशा
है। जिसकी कोई
आशा ही नहीं
उसको तुम
निराश कैसे
करोगे? उसकी
प्रफुल्लता
अक्षुण्ण
रहेगी। उसकी
प्रफुल्लता
भिन्न होगी उस
आदमी से जो
आशा में जीता
है। और उसके
आनंद में एक
तरह की
उदासीनता होगी,
लेकिन
हताशा नहीं।
थोड़ा
बारीक भेद है।
एक
आदमी उदास
बैठा है, क्योंकि
जुंए में हार
गया है—बड़ी
आशा लगाई थी; कि लाटरी
हार गया— बड़ी
आशा बांधी थी—उदास
बैठा है। इसकी
उदासी और एक
व्यक्ति द्रष्टा
को उपलब्ध हो
गया है, वह
भी उसी के पास
बैठा है, वह
भी एक तरह से
उदास दिखाई
पड़ेगा; उसका
भी कोई रस
संसार में
नहीं दिखाई
पड़ेगा। लेकिन
दोनों की उदासी
में बड़ा फर्क
है। पहले की
उदासी कामना
की उदासी है।
दूसरे की उदास
निष्काम भाव
की शांति है।
उसमें
उत्तेजना
नहीं है।
इसलिए उदासी
मालूम होती
है। वह कहीं
भाग नहीं रहा
है, इसलिए
शांति से बैठा
है।
बुद्ध
बैठे हैं, महावीर बैठे
हैं—उनके
बैठने में भी
तुम्हें
उदासी दिखाई
पड़ सकती है, क्योंकि वे
कहीं जा नहीं
रहे हैं; सब
जाना बंद हो
गया। अब वे
इतने शांत हैं
कि तुम उनकी
शांति को भी न
पहचान सकोगे।
उनकी शांति
बड़ी गहन है।
उस गहनता के
कारण उदास
मालूम पड़ती
है।
तुमने
कभी गहरा जल
देखा है नदी
का? जब नदी का
जल बहुत गहरा
होता है तो
उदास मालूम
पड़ता है। जब
नदी छिछली
होती है और कंकड़
पत्थरों पर से
और चट्टानों
पर से नदी की
धार दौड़ती है
तो बड़ी
प्रफुल्ल
मालूम होती है,
बड़ा शोरगुल
मचाती है; लेकिन
शोरगुल हमेशा
ही उथलेपन
का सबूत है।
जहां नदी सच
में गहरी होती
है, वहां
जल नीला हो
जाता है; लहर
का भी पता
नहीं चलता।
नदी इतनी मंथर
गति से चलती
है कि तुम्हें
पता भी नहीं
चलता कि कोई
गति है। वहां
नदी उदास
मालूम पड़ेगी;
लगेगा कि
कोई गीत नहीं,
कोई नाच
नहीं। जब भी
कोई चीज बहुत
गहन हो जाती है
तो गीत भी
बाधा मालूम
पड़ता है। जब
कोई चीज बहुत
गहन हो जाती
है तो शोरगुल
क्या?
ज्ञानियों
ने कहा है कि
घड़ा जब अधभरा
होता है तब
आवाज होती है; जब पूरा भर
जाता है तो सब
आवाज खो जाती
है। आधा भरा धड़ा आवाज
करता है।
छिछलापन आवाज
करता है।
इसलिए
ज्ञानी में एक
तरह की उदासी
तुम्हें दिखाई
पड़ेगी, जो
उदासी नहीं है;
जो उसकी बड़ी
गहन अनुभूति
के कारण सघन
हो गई शांति
है। वह इतना
गहरा चला गया
है कि सतह पर
तुम्हें वे
उदास मालूम पड़ेगा।
उसका होना अब
केंद्र पर है,
परिधि पर
नहीं।
"अस्तुति
निंदा आसा छाड़ै,
तजै मान अभिमाना।'
ऐसी
दशा में मान—अभिमान
सब छूट जाते
हैं।
मान
और अभिमान में
क्या फर्क है?
अभिमान
को पहचान लेना
बहुत आसान है; मान जरा
सूक्ष्म बात
है। अभिमान
फूल जैसा है, मान सुगंध
जैसा। मान को पकड़ने के
लिए बड़ी गहरी
आंख चाहिए।
अभिमान बहुत
साधारण है, जड़ है, स्थूल
है; मान
बहुत सूक्ष्म
है।
ऐसा
हुआ, एक
रास्ते पर तीन
ईसाई फकीर
मिले—अलग—अलग संप्रदायोंए
के माननेवाले,
अलग—अलग
आश्रमों में
रहने वाले। एक
ने अपने आश्रम
की प्रशंसा
में कहा कि इस
बात को तो
तुम्हें भी
स्वीकार करना
पड़ेगा कि जैसे
पंडित हमारे
आश्रम में
पैदा हुए हैं,
वैसे पंडित
तुम्हारे
आश्रमों में
पैदा नहीं हुए
और जैसे
शास्त्र
हमारे आश्रम
के संन्यासियों
ने लिखे हैं
और जैसी महान
टीकाएं की हैं,
वैसा
तुम्हारे
आश्रम में कुछ
भी नहीं हुआ।
उन दोनों ने
कहा, यह
बात सच है।
इसे तो
तुम्हारे
दुश्मन भी
स्वीकार
करेंगे। हम भी
स्वीकार करते
हैं। दूसरे ने
कहा, लेकिन
इस बात को
तुम्हें भी
स्वीकार करना
पड़ेगा कि जैसे
त्यागी हमने
पैदा किए हैं,
जैसे महान
तपस्वी, वैसे
तुम्हारे
आश्रम में
पैदा नहीं नहीं
हुए; पंडित
जरूर हुए हैं,
लेकिन
त्यागी नहीं।
बाकी
दो ने स्वीकार
किया कि यह
बात सच है और
इनकार नहीं की
जा सकती। फिर
दानों ने
तीसरे से पूछा
कि तुम्हारे
संबंध में
क्या कहना है, क्योंकि
तुम्हारे
संबंध में कुछ
भी नहीं सुना
गया—तुम्हारे
आश्रम के न
पंडितों की
कोई वहां से खबर
आई, न कभी
बड़े महात्यागियों
की खबर आई।
उस
तीसरे ने कहा
कि अगर तुम
हमारी भी
पूछते हो तो
हमने ऐसे
विनम्र आदमी
पैदा किए हैं
कि जिनको न
पांडित्य का
अभिमान है, और न
जिन्हें
त्याग का
अभिमान है। वी
आर टॉप इन ह्यमिलिटी—हमारा
कोई मुकाबला
नहीं
विनम्रता
में। यह बड़ा
सूक्ष्म है।
अहंकारी
आदमी अभिमानी
है। निरहंकार
का जो दावा कर
रहा है, वह
मानी है।
जिसके पास धन
है, वह अकड़
से चल रहा है
सड़क पर, समझ
में आता है—यह
अभिमान है।
फिर यही आदमी
कल लात मार
देना है धन को,
त्यागी हो
जाता है, फिर
अकड़कर
चलता है सड़क
पर, क्योंकि
यह कहाता है
कि याद है, लाखों
पर लात दी! अब
यह मान है। यह
सूक्ष्म है।
संसारी
अभिमानी हाता
है; साधु, संन्यासी,
त्यागी, मुनि
हो जाते हैं।
उनकी चाल में
तुम्हें मान दिखाई
पड़ेगा। बड़ी
सूक्ष्म है।
देखते
हो संन्यासी
को चलते हुए!
उसके पास कुछ नहीं
है, इसकी अकड़
है—सब छोड़
दिया, सब
लत मार दिया!
उसकी आंखों
में एक झलक है
कि "तुम
क्षुद्र में
उलझे हो, हम
परमात्मा के
खोजी हैं! तुम
लोभी, कामी,
क्रोधी; हम
ध्यानी हैं।
यह मान
है। और अगर
मान है तो अभिमान
छिपा है, कहीं
गया नहीं; थोड़ा
भीतर सरक गया
है; और
गहरे में चला
गया है; जहर
सूक्ष्म हो
गया है। और
जहर जितना
सूक्ष्म हो
जाता है उतना
खतरनाक हो
जाता है।
इसलिए मैं
अक्सर पाता
हूं कि
सांसारिक
व्यक्ति को तो
उसके अहंकार
के प्रति
जागना आसान है;
तुम्हारे
तथाकथित
धार्मिकों को
उनके अहंकार
के प्रति जगाना
बहुत कठिन है।
वह इतना
सूक्ष्म है कि
उनको खुद भी
पकड़ में नहीं
आता। उनको ,खयाल में
नहीं है कि
विनम्रता भी
अहंकार हो सकती
है।
जहां
दावा है वहां
अहंकार है।
कबीर
कहते हैं, जिसने
द्रष्टा को
जाना—तजै
मान अभिमाना।
"लोहा
कंचन सम करि देखै—अब उस
लोहा और सोना
समान ही दिखाई
पड़ते हैं। ते
मूरति भगवाना—और
ऐसा व्यक्ति
स्वयं भगवान
की मूर्ति हो
जाता है। उसका
द्वैत मिट गया,
अच्छे—बुरे
में फासला न
रहा, संपत्ति—विपत्ति
में भेद न रहा,
मिट्टी—सोना
बराबर हो गए।
ते मरति
भगवाना।
च्यंतै तो
माधो च्यंतामणि—अगर
वह सोचता है
कभी, विचार
करता है, तो
परमात्मा का।
परमात्मा
का कैसे विचार
करोगे? न
तो उसका कोई
नाम है, न
उसका कोई रूप
है—इसलिए
परमात्मा के
विचार का अर्थ
ही निर्विचार
हो जाना होता
है। क्योंकि
परमात्मा का
कैसे विचार
करोगे? परमात्मा
का विचार करते—करते
ही अचानक आदमी
को समझ मएं
आता है कि
विचार हो ही नहीी सकता;
यहां तो
सिर्फ
निर्विचार
होने का उपाय
है। निर्विचार
है परमात्मा
का विचार।
"च्यंतै
तो माधो च्यंतामणि—अगर
वह सोचता है
कभी तो सोचने
के जगत में जो
चिंतामणि है,
जो आखिरी
बात है, वह
माधव की, परमात्मा
की याद करता
है।
"हरिपद
रमै उदासा'
और अगर रमता
है कहीं तो
परमात्मा के
चरणों में
रमता है; लेकिन
उसके रमण में
उदासी है। इसी
उदासी की मैं
बात कर रहा
था। संसार को
लगेगा यह आदमी
उदास हो गया; और वह रम रहा
है परमात्मा
के चरणों में।
"हरिपद
रमै उदासा'—ऐसे भीतर
उतर जाता है
हरिपद में, ऐसे गहरे
चला जाता है
कि बाहर से
लगता है कि मौजूद
ही न रहा, वह
अनुपस्थित हो
गया—उदास लगने
लगता है।
वह
उदासी
भ्रांति है।
लेकिन उस
उदासी के कारण
बड़ा उपद्रव
पैदा हुआ। कई
लोगों ने समझा
कि उदास होने
से हरिपद मिल
जाएगा। वे
उदास बैठ गए।
इसलिए उदासियों
के संप्रदाय
हैं—उदासी
संप्रदाय। वे
उदास होना
सिखाते हैं। बैठे
हैं बिना नहाए—धोए, मक्खियां उड़ रही हैं।
मक्खियों को
भी नहीं उड़ा
रहे हैं, क्योंकि
उदास आदमी हैं,
क्या करें।
हारे, थके—हारे,
हताश बैठए
हैं। यह तो
मरना हो गया।
यह कोई जिंदगी
न हुई । और
इससे कोई
हरिपद मिलेगा,
इस भ्रांति
में मत पड़ना।
लेकिन अक्सर
धर्म के मार्ग
पर यह कठिनाई
होती है, क्योंकि
लोग बाहर से पकड़ते
हैं।
जिन्होंने
हरिपद पाया, उनके जीवन
में एक उदासी
आती है। उदासी
गहराई से आती
है। उनके
चेहरे पर एक
गहनता आ जाती
है। वे गहरी नदी
की भांति हो
जाते हैं। चहल—पहल
खो जाती है
गति विलीन हो
जाती है। वे
ज्यादा से
ज्यादा अपने
से रमने
लगते हैं।
भीतर इतना
आनंद है कि
सारी जीवनधार
भीतर की तरफ
मुड़ जाती है; बाहर कोई
बचता ही नहीं।
तो ऐसा
भी हो सकता है
कभी कि ऐसा
व्यक्ति, जो
नहीं जानते, उनका उदास
मालूम पड़े। वह
परम आनंद में
लीन है; वही
हरिपद में रमा
है।
तो फिर
कठिनाई है, दूसरे लोग
सोचकर कि ऐसे
उदास होने से
हरिपद मिल गया
इस आदमी को , हम भी बैठ
जाएं उदास
होकर। उदास
बैठने से हरिपद
नहीं मिलता; हरिपद मिलने
से बाहर के
जगत में उदासी
हो जाती है।
हो ही जाएगी।
जिसको हीरे
मिल गए, वह कंकड़—पत्थर
के प्रति उदास
हो जाता है।
वह कंकड़
पत्थरों को किसलिए सभांले
फिरेगा, किसलिए
ध्यान देगा? कल तक
संभालता था, क्योंकि
हीरों का उसे
पता न था। अब
हीरे मिल गए, कंकड़ पत्थर के
प्रति उदासी
हो गई। अब रस
परमात्मा में
लग गया तो
संसार से विरस
हो गया। यह
स्वाभाविक
है।
लेकिन
इससे उलटी बात
नहीं होती कि
तुम संसार में
विरस हो जाओ
तो परमात्मा
में रस मिल
जाए, कि तुम कंकड़
पत्थर छोड़ दो
तो हीरे मिल
जाएं। हीरे
मिल जाएं तो कंकड़
पत्थर छूट
जाते हैं।
लेकिन कंकड़
पत्थर छोड़ने
से कैसे हीरे
मिल जाएंगे? कंकड़ पत्थर
छोड़ने से हीरे
मिलने का क्या
संबंध है? हीरे
मिल जाए तो कंकड़
पत्थर की याद
भूल जाती है।
"हरिपद
रमै उदासा—बात
खतम हुई। कंकड—पत्थर
भूल गए।
छोटा
बच्चा खेल रहा
है अपने
खिलौनों से।
तुम और कीमती
खिलौने ले आए, शानदार
खिलौने ले आए।
चलने वाला
गड्डा ले आए कि
दौड़ने वाली
रेलगाड़ी ले आए—वह
फेंक देता है
अपने पुराने खिलौंनो
के बाहर। कल
इन्हीं पर
लड़ता, झगड़ता,
अब इनकी कोई
फिक्र नहीं
करता; चीर—फाड़कर अलग
कर देता है, टांग तोड़कर
भीतर देख लेता
है कि क्या है—निपटार कर
दिया; अब
अपने नए
खिलौने में लग
गया। लेकिन
तुम अगर सोचते
हो कि यह
बच्चा पुराने
खिलौने छोड़ दे,
फेंक दे, तो इसको नए
खिलौने मिल
जाएंगे—इसकी
कोई आवश्यकता
नहीं है, इनकी
कोई
अनिवार्यता
नहीं है।
संसार
छोड़ने से नहीं
परमात्मा
मिलता; परमात्मा
मिलने से
संसार छूट
जाता है।
क्षुद्र छूट
जाता है, विराट
की झलक आने
से।
तो बहुत
लोग हैं जो
उदास बैठे
हैं। ये सिर्फ
बीमार तरह के
लोग हैं—सुस्त
काहिल। बुद्ध
के बैठने में
सुस्ती नहीं
है, आलस्य
नहीं है, काहिलता नहीं है।
वासना चली गई,
दौड़ चली गई;
लेकिन
ऊर्जा
परिपूर्ण है।
फिर अनेक
बुद्धू बैठे
हैं, वे
बैठे हैं। वे
सिर्फ सुस्त
हैं। वे काहिल
हैं; चलने
तक की हिम्मत
नहीं है, इच्छा
नहीं है, उठने
की भी नहीं—कोई
भी नहीं।
उनकी
हालत वैसी है
कि मैंने सुना
है, दो आदमी
एक वृक्ष के
नीचे लेटे हुए
थे। जामुन का
वृक्ष था और
एक पकी जामुन
गिरी। तो एक
आदमी ने कहा
कि भाई बिलकुल
मेरे पास पड़ी
है, तू जरा
इसे उठाकर
मेरे मुंह में
डाल दे। उसने
कहा, छोड़ो भी! तुम भी
कोई साथी हो, कुत्ता मेरे
कान में मूतता
रहा और तुमने
उसे नहीं
भगाया।
ऐसे
लोग उदासीन हो
जाते हैं; ऊर्जा नहीं
है, मरे—मरे
जी रहे हैं।
अगर ये बैठ
जाएंगे तो क्एया
परमात्मा मिल
जाएगा? परमात्मा
मिलता है
विराट ऊर्जा
से। जब
तुम्हारी
वासना सब तरफ
से छूट जाती
है—काम से, क्रोध
से—तो
तुम्हारे पास
इतनी शक्ति
होती है।
क्योंकि, इनमें
ही तुम्हारी
शक्ति व्यय हो
रही है। उसी शक्ति
के पंखों पर चढ़कर तुम
परमात्मा की
यात्रा करते
हो।
परमात्मा
कोई सुस्ती से
नहीं मिलता।
वह कोई आलस्य
और प्रमाद की
घटना नहीं है।
वह कोई बिस्तर
में पड़े रहने
से नहीं मिल
जाएगा। अगर
ऐसे वह मिलता
होता तो काहिलों
ने उसे कभी का
पा लिया होता।
"च्यंतै
तो माधो च्यंतामणि,
हरिपद रमै
उदासा।'
वह रमण
है, वह
परमात्मा के
साथ रमण है।
वह उसके आनंद—उत्सव
में लीन हो
जाना है। वह
ऐसे ही है कि
जैसे तुम खाना
खाने बैठे थे,
रूखी—सूखी
रोटी थी और
महल का निमंत्रै
आ गया—तुमने
थाली फेंक दी;
तुमने कहा,
बस काफी
हुआ। तुम भागे
महल की तरफ!
परमात्मा
का निमंत्रण
जब सुनाई पड़ता
है, तुम्हारी
ऊर्जा सारे
संसार से हटकर
भीतर की तरफ
बहने लगती है—अंतरगमन
शुरू होता है।
इसलिए बाहर से
तुम कभी—कभी
उदास दिखाई पड़
सकते हो। वह
उदासी नहीं
है।
"त्रिस्ना अरु अभिमान
रहित ह्वै कहै
कबीर सो
दासा।।
और ऐसे
क्षण में जब
कोई परमात्मा
में लीन हो जाता
है तो तृष्णा
अभिमान कैसे
बच सकते हैं? जिसने
परमात्मा की
जरा—सी झलक पाली,
उसके मन में
कोई भी तृष्णा
कैसे बच सकती
है। जिसने सब
पा लिया, पाने
को ही कुछ न
बचा...।
परमात्मा
से ज्यादा
पाने को कुछ
ही भी नहीं।
इसे
थोड़ा समझ लें, क्योंकि
कबीर पहले
कहते हैं कि
कामना छूटे; जब कामना
छूट जाए तो
परमात्मा की
झलक मिलती है।
जब परमात्मा
की झलक मिलती
है, तब
तृष्णा छूटती
है। आमतौर से
शब्दकोश में
लिखा है कि
कामना और
तृष्णा का एक
ही अर्थ है।
वह नीहीं
है; जीवन
के अर्थकोश
में भिन्न है।
तृष्णा
बहुत सूक्ष्म
है; तुम्हारे
कुछ करने से न
मिटेगी। तुम
तृष्णा को न
मिटा पाओगे।
तुम कामना को
मिटा सकते हो;
वह स्थूल
है। लेकि न
सूक्ष्म अंतरतलों
में तृष्णा
बाकी रहेगीत
तृष्णा का
मतलब यह कि
कामना मिट
जाएगी, लेकिन
कातना मिटाकर
भी तुम इस
कामना के टिने
से कुछ पाने
की बाट जोहते
रहोगे—मोक्ष
मिल जाए, परमात्मा
मिल जाए। कहीं
सूक्ष्म से
सूक्ष्म तुम्हारे
प्राणों में
एक तरंग उठती
ही रहेगी कि
देखो अब कामना
छोड़ दी, अब
क्या मिलता
है! और
ज्ञानियों ने
कहा है, कामना
छोड़ दो, सब
मिल जाएगा—अब
जल्दी ही सब
मिलने के करीब
है! यह तृष्णा
है।
लोग
मुझसे पूछते
हैं कि ठीक, आप कहते हैं
सब चाह छोड़ दो,
फिर क्या
मिलेगा? या
तो वे मुझे
नहीं समझे कि
मैं क्ाो
कह रहा हूं—सब
चाह छोड़ दी, सब में यह
चाह भी आगई।
नहीं आई? वे
समझ गए मेरी
बात; लेकिन
वे भी क्या
करें, तृष्णा
बहुत सूक्ष्म
है। वह नहीं
आई सब चाह में।
शब्द सुन लिया
उन्होंने।
उनकी भी समझ
में आ रहा है
कि मैं कह रहा
हूं कि सब चाह
छोड़ दो। वे कहते
हैं, सब
चाह छोड़कर
क्या मिलेगा?
ठीक है, आपक
कहते हैं कि
वासना—रहित हो
जाओ, हो गए
फिर? वह जो
"फिर' है, वह तृष्णा
है। वह आखिरी
सूक्ष्मतम
बीज है। वह निर्विचार
की दशा तक
पतंजलि कहते
हैं, वह
बना रहेगा।
निर्विचार
समाधि में भी
तृष्णा का बीज
बना रहेगा। और
जब तृष्णा का
बीज जलेगा तभ
निर्बीज
समाधि, अंतिम
समाधि उपलब्ध
होगी।
कामना छोड़ी जा
सकती है—स्थूल
है, बाहर की
है। छोड़ो।
जब तुम सब छोड़
दोगे, कुछ
छोड़ने को न
बचेगा; सिर्फ
एक् भाव
का कंपन रह जाएग
कि सब छोड़
दिया, अब? यह तृष्णा
है। कामना
छोड़ने से
परमात्मा की
झलक मिलेगी; परमात्मा की
झलक मिलने से
तृष्णा छूटेगी।
और
वैसा ही
अभिमान छोड़
दोगे; लेकिन
फिर भी "मैं
हूं' यह
भाव तो रहेगा।
अभिमान छोड़
दोगे, मान
छोड़ दोगे, "मैं
कौन हूं' यह
भाव छोड़ दोगे;
लेकिन "मैं
हूं' यह
भाव तो बना ही
रहेगा। जब
परमात्मा की
झलक मिलेगी तो
यह भाव भी
मिटेगा।
अहंकार को तुम
छोड़ दोगे, आत्मा
का भाव बना
रहेगा; और
जब परमात्मा
की झलक मिलेगी
तो आत्मा का
भाव भी मिट
जाएगा। तब
बूंद पूरी तरह
सागर में लीन हो
गई। "त्रिस्ना
अरु अभिमान
रहित ह्वै कहै
कबीर सो
दासा।।
कबीर
कहते हैं, वही दास है; वही
परमात्मा के
चरणों ाके
उपलब्ध हो
गया।
यात्रा
कठिन है। दस
चलते हैं, एक पहुंच
पाता है। तुम
उस एक को बनने
की कोशिश करना।
नौ बनना बहुत
आसान है। तुम
एक बनने की कोशिश
करना। और अगर स्मरणपूर्वक
चलो तो कोई
कारण नहीं है
कि तुम क्यों
होओ वह एक जो
पहुंच जाता
है। तुम भी वह
एक हो सकते हो—पूरी
संभावना है; होशपूर्वक
चलने की बात
है। पच्चीस
निमंत्रण मिलेंगे
बीच तें
यहां—वहां
जाने के, तुम
इनकार कर
देना। तुम
अपना ध्यान एक
ही बात पर
रखना कि हरिपद
तक पहुंच जाना
है।
और
आखिरी बात
तुमसे आज के
पद में कहूं—तुम्हें
हरिपद तक
पहुंचना है; फिर तो हरि
खुद ही
तुम्हें छाती
से लगा लेते
हैं। उसके आगे
तुम्हें नहीं
पहुंचना है—बात
खतम हो गई; तुम्हारी
यात्रा पूरी
हो गई। तुम जो
कर सकते थए,
कर दिया।
इससे ज्यादा
तुमसे
अपेक्षा भी
नहीं हो सकती।
इसलिए कबीर
कहते हैं कि
हरि का दस हो जाने
तक ही यात्रा
है—"कहे कबीर
सो दासा।' इसके
बात तुम्हें
फिर फिक्र
करने की बात
नहीं है; अब
जिम उसका है।
और जिसने उसके
चरणों तक
पहुंचने की
यात्रा की, वह निश्चित
ही उठाकर
आलिंगन कर
लिया जाएगा। वह
परमात्मा के
हृदय में लीन
हो जाएगा।
पद तक
तुम पहुंचो; हृदय तक
परमात्मा
तुम्हें उठा
लेगा। आधी यात्रा
तुम करो, आधी
वह करेगा।
और
स्मरण रखना कि
परमात्मा कोई
निष्क्रिय तत्व
नहीं है। तुम
अगर उसकी तरफ
चलते हो, तो
वह भी
तुम्हारी तरफ
चलता है। कहीं
बीच में मिलन
हो जात है।
तुम नहीं चलते
, वह भी
नहीं चलता।
तुम जब
पुकारते हो तो
पुकार सुनी
जाती है। जब
तुम
प्रार्थना से
भरते हो तो
प्रार्थना भी
सुनी जाती है।
तुम जब सचमुच
ही अभीप्सा से
भर जाते हो तो
परमात्मा भी
तुम्हारे
प्रति इतनी ही
अभीप्सा से भर
जात है।
परमात्मा
कोई
निष्क्रिय
तत्व नहीं है
कि तुम्हीं को
ही यात्रा
करनी है। अगर
ऐसा होता तो जिंदगी
बड़ी आखिरी
अर्थों में
उदास होती।
परमात्मा
प्रेमी है। जब
तुम प्रेम से
भरकर उसकी तरफ
चलते हो, वह
तुम्हारी तरफ
चलना शुरू कर
देता है। बहुत
पुरानी कहावत
है चीन में कि
"तुम एक कदम
चलो, वह
हजार कदम चलता
है।'
बस, हरि के पद तक
तुम पहुंच
जाओ। और तुम
पहुंच सकते हो
क्योंकि दूर
नहीं है पद; तुम्हारे
हृदय में
विराजमान है। औरकई बार
तुम्हें उनकी
भनक भी पड़ी
है। लेकिन सदा
तुमने बाहर
समझा कि कहीं
बाहर से आवाज
आ रही है।
आवाज भीतर से
आ रही है।
आनंद का झरना
भीतर से बह
रहा है।
"कस्तूरी
कुंडल बसै।'
आज
इतना ही।
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