(अध्याय—दो)
मैं
उनकी
पुस्तकें
पढ़ना शुरू कर
देती हूँ और
अपने आपको
उधार ज्ञान से
पूरी तरह
मुक्त होता
हुआ अनुभव
करती हूँ।
उनके शब्द
मुझे नितांत
खालीपन में
अकेला छोड़
जाते हैं।
मेरा हृदय
उनसे मिलने की
उत्कंठा से भर
उठता है। मैं
बंबई के जीवन
जागृति
केंद्र का पता
व फोन नंबर
मालूम करती
हूँ और ओशो के
विषय में
पूछने के लिए
वहां फोन करती
हूँ। मुझे
नारगोल में
होने वाले
ध्यान शिविर
के बारे में
बताया जाता है, जहां
मैं उन्हें
मिल पाउंगी।
मैं बहुत
आनंदित हो
जाती हूँ और
अधीर होकर इस ध्यान
शिविर की
प्रतीक्षा
करने लगती हूँ।
आखिरकार, नारगोल
में उनके करीब
से दर्शन पाने
का वह पहला
दिन भी आ
पहुंचा जब मैं
उनके चरणों के
पास बैठ
पाउंगी।
शिविर में कोई
पांच सौ लोग
हैं; ऊंचे—ऊंचे
पेड़ों से घिरा
यह बहुत ही
सुंदर सागर तट
है। मैं वहां
बनाए गए मंच
के करीब अपना
एक वृक्ष खोजकर
उसके नीचे
आराम से बैठ
जाती हूँ।
मेर2ईा आंखें
उस रास्ते पर
टकटकी बांधे
हैं; जहां
से उनको आना
है, और कुछ
ही क्षणों में
मैं द्रेखती
हूं कि श्वेत
लुंगी और शॉल
में लिपटे हुए,
अपने पूरे
सौंदर्य और
गरिमा के साथ
वे चले आ रहे
है। मैं
वस्तुत: उनके
चारों ओर
शुभ्र प्रकाश
का एक आभामंडल
सा देख पा रही
हूं। उनकी
मौजूदगी में एक
जादू है जो कि
इस संसार का
नहीं है। वे
सबको हाथ
जोड़कर
नमस्कार करते
हैं और एक चौकोर
मेज पर सफेद
चादर डालकर
बनाए गए मंच 'पर बैठ जाते
हैं।
वे
बोलना
प्रारम्भ
करते हैं, लेकिन
उनके शब्द
मेरे सिर के
ऊपर से गुजर
रहें हैं।
उनकी आवाज? और, दूर
से आती हुई
सागर की लहरों
की गर्जन के
अतिरिक्त
चारों ओर गहन
शान्ति छायी
हुई है। मुझे नहीं
पता कि वे
कितनी देर
बोले परन्तु
जब मैं अपनी आंखें
खोलती हूं तो
पाती हूँ कि
वे पहले ही जा
चुके हैं।
मुझे मृत्यु
की सी अनुभूति
हो रही है।
उन्होंने
मेरे हृदय को
ऐसे छू लिया
है जैसे चुंबक
लोहे को खींच
लेता है। और
मैं पूरी रात
सो नहीं पाती।
सागरतट पर
शून्य आंखें
लिए —मैं यूं
ही घूमती रहती
हूँ। आकाश
तारों से भरा
हुआ है। ऐसी
शांति व ऐसा
सौंदर्य
मैंने पहले
कभी नहीं जाना
है। मेरा हृदय
पुकारना
चाहता है, वे
क्या हैं,? मैं
उनसे मिलना
चाहती हूँ!'
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