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रविवार, 20 दिसंबर 2015

स्‍वर्णिम क्षणों की सुमधुर यादें--(अध्‍याय--50)

नहीं चमत्‍कार नहीं......पर है तो....(पचासवां)

ओशो का नजरिया इतना मौलिक और अनूठा होता है कि किसी भी विषय पर जब वे अपनी दृष्टि डालते हैं तो हम चकित रह जाते हैं कि अरे वाह, इस बात को इस तरह से भी देखा जा सकता है। प्रत्येक विषय की तह तक जाकर इतनी विपरीत दिशाओं से सत्य को समझाते कि उस विषय का कोई भी बिंदु अनदेखा नहीं रह जाता।

एक बार जब किसी ने पूछा कि कैसे ओशो एक कार एक्सीडेंट में बाल—बाल बच गए और ठीक प्रवचन देने आने के पूर्व लाओत्सु कक्ष की छत गिरने से भी वे बच गए। प्रश्नकर्ता ने कहा कि कैसे चमत्कार हुए।
अब ओशो बोलते हैं कि यदि उन दुर्घटनाओं में मेरी मृत्यु भी हो जाती तब भी वह चमत्कार ही होता। ऐसा नहीं कि जीवन बच गया, तो ही चमत्कार, अस्तित्व में बस चमत्कार ही होते हैं और कुछ होते ही नहीं हैं।
इसी संदर्भ में अपने जीवन का किस्सा बताता हूं जिसे हम चमत्कार ही कहते लेकिन ऐसा है नहीं।
एक बार मैं बैगलोर ध्यान शिविर के लिए जाने वाला था। मेरे को सांताकूज हवाई अड्डे से अपनी फ्लाईट पकड़नी थी। मैं समय पर एयरपोर्ट पहुंच गया।
मुंबई के एक मित्र मेरे से मिलने एयरपोर्ट आए थे। मिलने के बाद उन मित्र ने बहुत आग्रह किया कि यदि मैं एक दिन उनके साथ ठहर पाता। शिविर एक दिन बाद शुरू होने वाला था तो मैंने कहा कि यदि टिकट बदल सकता है तो रुक जाते हैं। उन मित्र का भाव देख कर मेरा मन जाने का नहीं हो रहा था। और बात की बात में उन मित्र ने सारी व्यवस्था कर दी, और हम उनके निवास स्थान जुहू पहुंच गये।
दोपहर का भोजन कर आराम किया और शाम को चाय पीते हुए जब टी वी देख रहे थे तो खबर देखी कि जिस हवाई जहाज से मैं जाने वाला था वह दुर्घटनाग्रस्त हो गया है और सारे यात्री मारे गये।
यदि वो मित्र नहीं आए होते, यदि मैं उस हवाई जहाज में चला ही गया होता तो आप सभी खबर देखते कि स्वामी आनंद स्वभाव भी इस प्लेन में थे। क्या आप उसे चमत्कार कहते? क्या मैं उसे चमत्कार कह सकता हूं कि मैं बच गया? ओशो दोनों ही खबरों पर सिर्फ मंद—मंद मुस्कुराते... अस्तित्व में चमत्कार से कम तो कुछ होता ही नहीं न।

आज इति।

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