ओशो
के साथ एक युग
जीया है, लौटकर
देखूं तो
यूं लगता है
कि पता नहीं
कितने सालों
से, सदियों
से, युगों
से ओशो के साथ
हूं। जिस पल
ओशो मिले वहां
से लेकर इस पल
तक सिवाय ओशो
के कुछ भी तो
जीवन में नहीं
हुआ है। हर पल,
हर समय ओशो
हर श्वास में
बने रहे हैं।
ओशो
से संन्यास
दीक्षित हुआ, ओशो
के सान्निध्य
में ध्यान
किये, ओशो
के अनगिनत
प्रवचन सामने
बैठ कर सुनें।
सालों तक देश
भर में घूमते
हुए लाखों
मित्रों के
साथ ओशो संदेश
का आनंद लिया,
ध्यान का
आनंद लिया।
अनगिनत
मित्रों को
ओशो के संन्यास
में, ध्यान
की राह पर
दीक्षित होते
देखा, न
जाने कितने
रूपांतरण
अपनी आंखों के
सामने से
गुजरे......मेरे
व्यक्ति—गत
जीवन से लेकर
लाखों
मित्रों के
जीवन में होने
वाले
परिवर्तनों, रूपांतरण को
देखते, महसूस
करते
स्वाभाविक ही
ओशो के प्रति
प्रेम, श्रद्धा
और उनकी
महानता अधिक
से अधिक होती
चली गई।
जब
ओशो कहते कि
सारी दुनिया
में हर मनुष्य
तक ध्यान का
संदेश
पहुंचना
चाहिए तो सच
कहूं मन करता
है कि चिल्ला—चिल्ला
कर दिन—दुनिया
तक ओशो संदेश
पहुंचाऊं।
ओशो के वचन
कानों में हर
पल गुंजते
रहते कि 'हर
मनुष्य तक
ध्यान का
संदेश पहुंचाना
है।’
जो
मित्र ओशो को
सुन रहे हैं, ध्यान
कर रहे हैं और
उनसे होने
वाले
प्रभावों को
देख रहे हैं, महसूस कर
रहे हैं, उनकी
यह भी
जिम्मेदारी
है कि अपने—अपने
मित्रों, स्नेहीजनों,
बंधु—बाधुओं
तक तो ओशो की
बात पहुंचानी
ही है।
जैसा
कि ओशो हमें
बार—बार
चेताते रहे
हैं कि यह समय
पृथ्वी के लिए
बहुत ही जोखिम
भरा है। चारों
दिशाओं से बड़ी
से बड़ी चुनौतियां
आती ही चली जा
रही हैं और
समूल विनाश का
संकट गहराता
जा रहा है।
समय कम है, काम
बहुत बड़ा है, सभी मित्रों
को स्वयं की
यात्रा के साथ
ही साथ दूसरे
मित्रों तक इस
ज्योत को पहुंचाना
ही है।
कहीं
ओशो ने कहा कि
आज मनुष्यता
के ऊपर जितनी बड़ी
दुख की चादर
पड़ी है उतनी
कभी भी नहीं
रही है। हर
मनुष्य
चिंतित है, दुखी
है, तनावग्रस्त
है, मनोरोगों
से भरा है।
बेहोशी इतनी
है कि मानों
लाखों—लाखों
लोग बस जिंदा
लाशें भर हो
गए हैं। ध्यान,
होश, विवेक,
सजगता का तो
मानो नामो—निशान
ही नहीं बचा
है। और इस
दिशा में कुछ
सृजनात्मक, सकारात्मक
नहीं हुआ तो
कैसे यह
पृथ्वी इतनी दुखी
मानवता को सह
पाएगी?
ओशो
ने बहुत ही
सहज और सरल
ध्यान की
विधियां बनाई
हैं। ओशो
द्वारा बनाई
गई 112 ध्यान की
विधियां है।
जिनमें से किसी
एक ध्यान विधि
का नियमित
प्रयोग वह सब
कर सकता है जो
किया जाना
चाहिए। एक
ध्यान विधि
नियमित, चौबीस
घंटों में से
एक घंटा ध्यान
को देना है।
यह एक घंटा
निर्णायक हो
जाएगा। इतनी
शांति, प्रेम,
सृजन और
मस्ती आएगी कि
आप स्वयं तो उससे
प्रसन्न होएगे
ही आपके आसपास
का माहौल भी
इतना खुशगवार
हो जाएगा कि
जो भी व्यक्ति
उसके संपर्क
में आएगा उसे
भी वह छू जाएगा।
ओशो
कहते हैं न कि
सिर्फ बीमारी
का ही संक्रमण
नहीं होता है, स्वास्थ्य
का भी संक्रमण
होता है। यदि
ऐसा हो पाता
है तो पृथ्वी
पर आने वाले
सभी संकटों को
टाला जा सकेगा
और मनुष्यता
को बचाया जा
सकता है।
इस
संसार को
सुंदर से
सुंदर बनाने
के जितने भी
प्रयास किये
गये,
वे पूरी तरह
से असफल हो
गये हैं। हुआ
तो यह है कि
सुंदर बनाने
की जगह हमने
संसार को बदतर
ही किया है।
ओशो इस दिशा
में एक दम नई
दृष्टि लेकर
आए हैं जो कि
बेहद
व्यावहारिक भी
है। ओशो के
बताये ध्यान
की राह से
प्रत्येक
व्यक्ति अपने
स्वयं के भीतर
से लेकर बाहर
तक पूरा तरोताजा,
नई ऊर्जा से
भरपूर स्वस्थ
हो सकता है।
ध्यान के
द्वारा इतनी
ऊर्जा
प्रत्येक
व्यक्ति के
भीतर
ऊर्ध्वगमन कर
सकती है कि उस
ऊर्जा से आए
सृजन से संसार
को सचमुच सुंदर
बनाया जा सकता
है।
सच
पूछा जाए तो
इस पृथ्वी ने
शांति और अमन
का शायद ही
कभी समय देखा
हो। या तो देश
युद्धरत रहते
हैं या युद्ध
की तैयारी
करते रहते हैं।
और अब तो यह
तैयारी उस हद
तक जा पहुंची
है कि यदि
युद्ध होता है
तो समूल
मानवता का
विनाश हो सकता
है। युद्ध तो
पहले भी होते
रहे हैं लेकिन
अब यदि युद्ध
होता है और वह नाभिकिय
युद्ध में बदल
जाता है जिसकी
की पूरी—पूरी
संभावना है तो
कोई भी एक देश, कोई
भी एक सिरफिरा
राजनेता पूरी
मनुष्यता को,
इस पूरे
ग्रह को पलों
में नष्ट कर
सकता है। जरा
कल्पना करें
कि यदि यह
ऊर्जा जो मृत्यु
की सेवा में
लगी है, सृजन
की दिशा में
मुड़ जाए जो कि
ध्यान के द्वारा
संभव है तो जो
ऊर्जा समूल
विनाश कर सकती
है वही ऊर्जा
इस पृथ्वी
ग्रह को
स्वर्ग में
बदल सकती है।
जितने भी
धर्मों ने तरह—तरह
के स्वर्गों
की मात्र
कल्पना की है
वह विज्ञान के
द्वारा इसी
पृथ्वी पर
संभव किया जा
सकता है।
ओशो
ने एक समन्वय
की बात की है, मिलन
की बात की है।
ओशो के अनुसार
जोरबा जो
कि पश्चिम की
संस्कृति का
प्रतीक है, जो कि खाओ—पीओ
मौज करो में
विश्वास करता
है, वह भी
अधूरा है।
क्योंकि बिना
भीतर की शांति
के कितना ही
खा लो—पी लो
चैन नहीं मिल
सकता। और यही
हुआ है पश्चिम
में वितान के
द्वारा बाह्य संसाधन
तो खूब जुटा
लिये लेकिन
भीतर की कंगाली
ने उन
संसाधनों को
भी अंततः तनाव,
विषाद और
पीड़ा में बदल
दिया है। आज
लगभग सारा
पश्चिम तनाव
से मारा जा
रहा है। और
इसी तरह से
भारत या पूरब
के देशों ने भीतर
की यात्रा खूब
की, बुद्धत्व
की ऊचाइंयां
छू लीं लेकिन
बाह्य तल पर भिखमंगे
रह गये। गरीबी
और गरीबी से
आई सब तरह की
बीमारियों ने जीना
दूभर कर दिया।
ओशो
कहते हैं कि
प्रत्येक
व्यक्ति को
भीतर से बुद्ध
जैसा मौन होना
है और बाहर से
अमीर होना है।
बुद्ध और जोरबा
का मिलन, पूरब
और पश्चिम का
मिलन, संसार
और संन्यास का
मिलन, धर्म
और विज्ञान का
मिलन, बाह्य
और अंतस का
मिलन..... इन मिलन
से जो मनुष्य
बनता है उसे
ओशो अपना नया
मनुष्य कहते
हैं।
यदि
ऐसा होता है
तो इसी धरती
पर,
इसी हमारी
पृथ्वी पर वह
सब संभव है जो
कोई भी मनुष्य
सुंदर जीवन की
कल्पना कर
सकता है। जरा
सोचो तो बाहर
से व्यक्ति
बिल गेट्स
जितना अमीर और
भीतर से बुद्ध
जैसा मौन, शांत,
चेतना की
ऊंचाई पर
विराजमान.....कैसा
होगा वह संसार,
यह संभव है
ओशो के साथ, बस उनके
संदेश को अधिक
से अधिक
मित्रों तक
पहुंचाना है,
अधिक से
अधिक मित्रों
को भीतर की
यात्रा पर ले
जाना है। यह
संभव है.....यह
कोरी कल्पना
नहीं।
आज
इति।
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