(अध्याय—इक्कतीसवां)
माउंट
आबू का ध्यान
शिविर पूर्णिमा
की रात को
पूरा हुआ।
दोपहर को मैं
कुछ मित्रों
से रात को
नौका—विहार के
लिए चलने की
बात करती हूं।
हम सब यह
सुझाव लेकर
ओशो के पास
पहुंचते हैं।
जब हम उनसे
पूछते हैं, तो
वे कहते हैं, हम सभी
नावें रिजर्व
कर लें और
रात्रि ध्यान
के बाद सभी
लोग नौका—विहार
के लिए चल
सकते हैं।’
ध्यान
शिविर में भाग
ले रहे सभी
लोग नौका—विहार
की खबर सुनकर
बड़े रोमांचित
हो जाते हैं।
सभी नावें
रिजर्व कर ली
जाती हैं।
रात्रि ध्यान
के बाद सभी
लोग झील की ओर
ऐसे दौड़ते हैं, जैसे
छोटे बच्चे
पिकनिक के लिए
जा रहे हों।
जब ओशो झील पर
पहुंचते हैं
तो पांच सौ
लोग पहले से
ही बगीचे में
बैठे उनकी
प्रतीक्षा कर
रहे हैं। सब
कुछ बड़ा अस्त—व्यस्त
लग रहा है, लेकिन
कुछ मिनटों
में लोग दोनों
ओर लाइनों में
खड़े होकर उनके
लिए रास्ता
बना देते हैं।
ओशो कभी अपने
लोगों को कोई नियम—अनुशासन
नहीं देते, लेकिन उनकी
उपस्थिति ही
समस्वरता
पैदा कर देती
है। उनके लोग
अपनी समझ से
ही उन्हें
प्रेम करते हैं
और सम्मान
देते हैं।
वे
हाथ जोड़कर
सबको नमस्ते
करते हुए झील
की ओर बढ़ते
हैं। कुछ
मित्र उनके
साथ ही एक नाव
में बैठ जाते
हैं और हम
बाकी लोग दूसरी
नावों में बैठ
जाते हैं। सभी
नावें नाचते—गाते
संन्यासियों
से भरी हैं।
मैं आकाश में पूर्णिमा
के चांद की ओर
देखती हूं और
कल्पना करती
हूं कि चांद
भी नीचे आकर
हमारे उत्सव
में शामिल होना
चाह रहा होगा।
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