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बुधवार, 23 दिसंबर 2015

दस हजार बुद्धों के लिए एक सौ गाथाएं—(अध्‍याय--23)

(अध्‍याय—तैइसवां)

म अहमदाबाद में एक बड़े कट्टर जैन परिवार में ठहरे हुए हैं। ओशो प्रवचन में जाने के पहले शाम 6 बजे ही भोजन कर लेते हैं। आजकल वे देर रात गए तक पढ़ते रहते हैं, इसलिए मैं उनसे कहती हूं 'ओशो आप इतनी जल्दी भोजन ले रहे हैं, रात को आपको भूख लगेगी।वे बस मुस्कुरा भर देते हैं।

रात 11 बजे क्रांति आकर मुझसे कहती है कि ओशो कुछ खाना चाहते हैं। मुझे समझ नहीं आता कि अब क्या किया जाए? मैं उससे कहती हूं, मैं रसोई में जाकर देखती हूं अगर वहां से कुछ जुटा सकी तो लाती हूं।बिलकुल दबे पाव मैं रसोईघर में जाती हूं। ऊपर एक शेल्फ में लाइन से अनेकों डिब्बे रखे हुए हैं। उन डिब्बों पर कोई लेबल भी नहीं लगे हैं। मैं उलझन में पड़ जाती हूं और मैं अपनी आंखें बंद करके कुछ देर शांत खड़ी हो जाती हूं और अपनी अंतर्प्रेरणा का ही पालन करती हूं। जो डिब्बा खोलने का मेरा मन करता है वही डिब्बा मैं खोलने लगती हूं। मुझे हैरानी होती है कि मुझे वही सब चीजें मिल रही हैं जो ओशो को पसंद हैं। मैं बहुत खुश हो जाती हूं और एक प्लेट लेकर तरह—तरह के व्यंजन निकालकर उसमें रखती जाती हूं।
अचानक उस घर की गृहिणी वहां आ जाती है और मुझसे पूछती है कि मैं क्या कर रही हूं। मैं तो बिल्कुल ठिठक जाती हूं। वह बहुत ही कट्टर जैन स्त्री है जो रात को खाना खाने को पाप समझती है, और वैसे भी ओशो के लिए तो वे सर्वथा प्रतिकूल बात है। मैं साहस बटोरकर उससे हूं, मुझे भूख लगी है और मैं कुछ खाना चाहती हूं।वह एकदम बेहद नाराज हो जाती है और मेरे आगे कुछ और डिब्बे पटककर मुझे सब कुछ खा लेने को कहती हैं। मेरे पास कहने को कुछ भी नहीं है सो मैं चुपचाप भरी हुइ प्लेट लेकर रसोईघर से बाहर निकल आती हूं। वह मेरे पीछे आने लगती है।
मैं ओशो के कमरे में जाती हूं जहां वे कुर्सी पर बैठे कोई किताब पढ़ रहे हैं। मैं कुर्सी के सामने रखी छोटी सी मेज पर प्लेट रख देती हूं और सामने फर्श पर बैठ जाती हूं। पता नहीं क्यों मुझे ऐसा लगता है कि मैं ओशो पर यह बात न आने दूं कि वे रात को खाते हैं। मैं क्रांति को बुलाकर कहती हूं चलो जाएं।हम दोनों जाने लगती हैं और वह स्त्री वहीं खड़ी हमें देखती रहती है। वह बहुत तनाव में है। उसका ध्यान बंटाने के लिए मैं उससे पूछती हूं, इतने बढ़िया पकवान किस ने बनाये हैं? ये बहुत ही स्वादिष्ट हैं।वह कोई जवाब नहीं देती। अब तक, ओशो ने भी अपनी पुस्तक रख दी है। वे भी हमारे साथ खाने लगते हैं। मैं देख रही हूं कि यह स्त्री गुस्से से उबल रही है। उसे जब बोलने के लिए कोई शब्द नहीं सूझते तो वह चली जाती है।
जब मैं ओशो को बताती हूं कि रसोईघर में क्या हुआ तो वे छोटे बच्चे की तरह हंसने लगते हैं। वे कहते हैं, सुबह उसे बता देना कि हम स्वर्ग जाना नहीं चाहते। हम तो हर तरह के पाप कर—करके नर्क जाने की तैयारी कर रहे हैं।मैं जोर से हंस पड़ती हूं जिससे मेरा सारा तनाव दूर हो जाता है और हम मजे से पकवान और मिठाई खाते हैं।




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