गुरु कुम्हार सिष कुंभ है—(प्रवचन—चौथा)
दिनांक:
14 नवंबर, 1974;
श्री
ओशो आश्रम, पूना
सूत्र:
गुरु
मानुष करि
जानते, ते
नर कहिए अंध।
महादुखी
संसार में, आगे
जम के बंध।।
तीन
लोक नौ खंड
में, गुरु
ते बड़ा न कोय।
करता
करै न करि सकै, गुरु
करै सो
होय।।
गुरु
समान दाता
नहिं, जाचक सिष समान।
तीन
लोक की संपदा, सो
गुरु दीन्हा
दान।।
गुरु
कुम्हारा
सिष कुंभ
है, गढ़—गढ़ काढ़ै
खोट।
अंतर
हाथ सदार दै, बाहर
बाहै
चोट।।
गुरु
को सिर पर राखिए, चलिए,
आज्ञा माहिं।
कहै
कबीर ता दास
को, तीन लोक
डर नाहिं।।
गुरु
गोविन्द दोउ
खड़े, काको लागूं
पाय।
बलिहारी
गुरु आपने, गोविन्द
दियो बताय।।
हरि रूठै गुरु
ठौर है,
गुरु
पूर्वीय
चेतना की खोज
है। पश्चिम की
भाषाओं में
गुरु जैसा कोई
शब्द भी नहीं; शिक्षक
है, अध्यापक
है, आचार्य
है, पर
गुरु जैसा कोई
शब्द नहीं।
पहले तो गुरु
शब्द को समझ
लें, क्योंकि
बड़े सूक्ष्म
भाव उसमें
समाहित हैं।
शिक्षक तो वह
है जो ज्ञान
दे, जिससे
हम कुछ सीख
लें, स्मृति
बढ़े, जानकारी
पढ़े।
गुरु शिक्षक
नहीं है। वह
ज्ञान नहीं
देता; उससे
तुम्हारी
जानकारी भी
नहीं बढ़ेगी।
ठीक उलटा ही
है गुरु
शिक्षक से। वह
तुम्हारा
सारा ज्ञान
छीन लेता है।
वह तुम्हारी
स्मृति को
गिरा देने के
लिए उपाय
बताता है। वह
पहले तुम्हें
परम अज्ञानी बना
देता है; क्योंकि
जैसे ही तुम
परम अज्ञान की
प्रतीति से भर
जाओ, वैसे
ही परमात्मा
के द्वार खुल
जाते हैं। क्योंकि
वह द्वार उसके
लिए ही खुलते
हैं, जो
नहीं जानता
है। जो जानता
है कि मैं
नहीं जानता
हूं, बस
उसी के लिए वह
द्वार खुलते
हैं। जिसे
खयाल है कि
मैं जानता हूं,
उसके लिए
परमात्मा के
द्वार सदा बंद
है—परमात्मा
के कारण नहीं,
उसके जानने
की भ्रांति के
कारण।
इससे
बड़ा कोई
अहंकार नहीं
है कि मैं
जानता हूं।
क्या जानते
हैं आप? जो भी
जानते हैं, कचरा है। वह
कचरा भी अपना
नहीं है, वह
भी उधार है; वह भी किसी
से सीखा है।
इस कचरे के
बोझ को हम पांडित्य
कहते हैं। इस
बोझ को हम
ढोते रहें, यह पत्थर की
तरह हमारी
छाती पर बढ़ता
जाएगा। लेकिन
यह बोझ कभी
पंख नहीं बन
सकता। इससे
तुम परमात्मा
के आकाश में
उड़ न सकोगे।
इससे मोक्ष का
कोई भी संबंध
नहीं, क्योंकि
मोक्ष के लिए
तो निर्भार
होना जरूरी है।
सब बोझ हट जाए,
तो ही पंख
उन्मुक्त
आकाश में
प्रवेश कर
सकते हैं। और
ज्ञान से बड़ा
कोई बोझ नहीं
है। तुम जानते
हो, वही
तुम्हारी
मुसीबत है, वही
तुम्हारा
बंधन है। और
अहंकार जल्दी
मान लेता है
कि मैं जानता
हूं, क्योंकि
अहंकार को यह
मानना कि मैं
अज्ञानी हूं,
बड़ी पीड़ा से
भरी बात है।
इसलिए
सुकरात ने कहा
है,
जब कोई
ज्ञानी हो
जाता है तो
पहली बात तो
यही जानता है
कि मैं नहीं
जानता हूं। तब
द्वार खुलते
हैं। वह द्वार
भी ज्ञान के
नहीं, वह
द्वार भी
अनुभव के हैं।
जब कोई अनुभव
कर लेता है कि
मैं नहीं
जानता हूं, तभी तो
शिष्य होने की
क्षमता आती
है। अगर थोड़ी
सी भी समझ
लेकर तुम मेरे
पास आए हो, तो
तुम नासमझ ही
वापस लौट
जाओगे।
तुम्हारी समझ
ही तो बाधा हो
जाएगी। तुम
मुझे मौका ही
न होगे कि मैं
तुम्हारे
भीतर जा सकूं,
दरवाजे पर
तुम्हारी
समझदारी खड़ी
है। समझदारी
का हटना जरूरी
है। तुम जो भी
जानते हो, उसका
हटना जरूरी
है। क्योंकि
एक बात तो तय
है कि
तुम्हारे
जानने से न तो
तुम्हें सत्य
मिला, न
तुम्हें जीवन
मिला, न
तुम्हें
प्रकाश मिला।
इस
जानने से
तुमने पाया क्या
है?
इस जानने से
तुमने सिवाय
अहंकार के और
कुछ भी नहीं
पाया है। इस
जानने से यह
अकड़ मिली कि
मैं जानता
हूं। और यह
अकड़ बिलकुल
थोथी है। और
यह अकड़ वैसी
है, जैसे
रस्सी जल जाए,
उसमें अकड़
होती है। इस
अकड़ में कोई
शक्ति भी नहीं
है। क्योंकि
इस जानने से
कुछ भी तो जीवन
सघन नहीं होता,
प्रगाढ़ नहीं होता।
इन जानने से
तुम कहीं भी
तो पहुंचते
नहीं हो। इस
जानने से ही
उलटे तुम
भटकते हो। न
जाननेवाला
बैठ जाएगा, चलेगा नहीं;
क्योंकि वह
कहेगा, मुझे
पता नहीं, कहां
जाऊं; रास्ता
कहां; मुझे
पता नहीं, मंजिल
कहां, मुझे
पता नहीं। तो
उचित यह है कि
बैठ ही जाऊं
जब तक पता
नहीं है। कम
से कम न जानने
वाला भटकेगा
नहीं।
जाननेवाले
के पास नक्शे
हैं,
जानकारी
है। वह उनकी
वजह से बड़ी
यात्राओं पर निकल
जाते हैं। और
जितनी लंबी
यात्रा पर तुम
जाओगे, उतने
ही स्वयं से
दर निकल
जाओगे।
अज्ञानी
बैठ जाएगा।
बैठकर ही पा
लेगा।
क्योंकि
जिसको तुम खोज
रहे हो, वह
भीतर छिपा है।
वह कहीं बाहर
होता, तो
नक्शे साथ दे
सकते थे, शास्त्र
काम आ सकते
थे। कोई
शास्त्र काम न
आएगा।
शिक्षक
शास्त्रों को
हस्तांतरित
करता है। समाज
ने जो जानकारी
इकट्ठी की है
सदियों—सदियों
में,
शिक्षक
उसको नयी पीढ़ी
को देता है।
शिक्षक कड़ी है
दो पीढ़ियों के
बीच।
गुरु
शिक्षक नहीं
है। गुरु
हमेशा, जो भी
तुम्हें समाज
ने दिया है, उसे छीन
लेता है, और
तुम्हें समाज—मुक्त
कर देता है।
गुरु तुम्हें
ज्ञान से मुक्त
करता है—उस
तथाकथित
ज्ञान से, जिससे
तुम भरे हो।
गुरु तुम्हें
निर्भार करता
है। इसलिए
गुरु के पास
सीखने नहीं
जाना पड़ता; गुरु के पास
अन सीखने जाना
पड़ता है।
श्री
रमण को किसी
ने कहा, मुझे
कुछ सिखाए, कुछ शिक्षा
दें। रमण ने
कहा, तो
फिर कहीं और
जाओ, यहां
तो अन—लिखा, अन—सीखना
करना हो तो ही
आओ। यहां तो
हम मिटाते हैं,
पोंछते हैं।
यहां हम
तुम्हारी
चेतना के आकाश
पर कुछ लिखना
नहीं चाहते।
काफी लिख गया
है, उसी को
साफ करना
चाहते हैं।
यहां हम
तुम्हें खाली
करेंगे, भरेंगे
नहीं। भरे तो
तुम काफी हो, वही तो
तुम्हारी
विपदा है।
लेकिन
विपत्तियों
को तुम
संपत्ति
समझते हो। तुम
और भरने को उत्सुक
हो। तुम सोचते
हो, शायद
मैं इसलिए भटक
रहा हूं कि
मेरा भराव कम
है। तुम सोचते
हो, शायद
मैं इसलिए भटक
रहा हूं कि
थोड़ी जानकारी
कम है और थोड़ी
जानकारी आ जाए
तो पहुंच
जाएगा। नहीं
तुम
पहुंचोगे।
तुम्हारी
जानकारी को ही
तो कबीर कहते
हैं, काहे
की कुसलात, कर दीपे कंबै पड़े!
कैसे
तुम्हारी
कुशलता! कैसा
तुम्हारा जानना!
पड़े हो कुएं
में, और
कहते हो हाथ
में दीया है!
हाथ में दीया
था, तो तुम
कुएं में कैसे
गिरे? और
कुएं में गिर
गए हो तो हाथ
में बुझा दीया
होगा। बुझे
दीए को भी हम
दीया ही कहते
हैं। बुझे ज्ञान
को भी हम
ज्ञान ही कहते
हैं।
एक तो
कबीर का ज्ञान
है,
वह जलता हुआ
दीया है; और
एक पंडित का
ज्ञान है, वह
बुझा हुआ दीया
है। दोनों को
हम दीया कहते
हैं। बुझे
कहते हैं।
बुझे को दीया
कहना नहीं चाहिए,
भाषा की भूल
है। उधार
ज्ञान को
ज्ञान कहना
नहीं नहीं
चाहिए; भाषा
की भूल है।
लेकिन अपना ज्ञान
तो कभी—कभी
घटित होता है
करोड़ों में।
तो एक को छोड़
कर बाकी का
क्या होगा? वह बाकी भी
मानना चाहते
हैं कि ज्ञानी
हैं। उस मानने
से बड़ी तृप्ति
मिलती है। उस
मानने से कुछ
भी नहीं मिलती,
सिर्फ एक
तृप्ति मिलती
है कि मैं भी
जानता हूं।
पंडित
से ज्यादा
भ्रांत आदमी तुम
कहीं न पा
सकोगे। इसलिए
मैं निरंतर
कहता हूं, पापी
भी उस तक
पहुंच जाए, पंडित नहीं
पहुंच पाता।
ऐसे कभी सुना
नहीं कि पंडित
मोक्ष गया हो।
पापी तो कुछ
पहुंचे हैं, पंडित नहीं
पहुंचा, क्योंकि
पांडित्य
सबसे बड़ा पाप
है। बाकी सब पाप
छोटे हैं।
क्यों?
एक चोर
है,
उसने किसी
का धन चुरा
लिया—यह पाप
है। यह पाप
बहुत बड़ा नहीं,
क्योंकि धन
मिट्टी है। और
यह पाप बहुत
बड़ा नहीं, क्योंकि
कितना धन
चुराया होगा?
और यह पाप
बहुत बड़ा नहीं,
क्योंकि धन
को चुरानेवाले
को यह लगता ही
रहता है कि
मैंने बुरा
किया। उसके
अहंकार की
भरती नहीं
होती इससे, अहंकार में
कांटा छिदता
है।
फिर एक
आदमी ने ज्ञान
चुरा
लिया...पंडित, यानी
जिसने ज्ञान
चुरा लिया।
पंडित चोर है।
लेकिन अकड़
उसकी ऐसी है, जैसे वह
साहूकार हो।
और जो उसने
चुराया है, वह ज्यादा
सूक्ष्म है।
और कहीं कांटा
भी नहीं छिदता
कि मैंने चोरी
की है। चोर को
तो कांटा
छिदता है; वही
उसे मोक्ष ले
जा सकता है।
पंडित को
कांटा भी नहीं
छिदता। पंडित
तो फूल पर
सवार है; वही
फूल उसे डुबायेगा।
वही संघातक
है।
तो
पहली बात:
गुरु ज्ञान
देता नहीं, तुम्हारे
ज्ञान को छीन
लेता है। गुरु
तुम्हें भरता
नहीं, खाली
करता है। गुरु
तुम्हें
शून्य बनाता
है। क्योंकि
शून्य में ही पूर्ण
का आगमन हो
सकता है। गुरु
तुम्हें खाली करता
है, ताकि
परमात्मा के
लिए जगह हो
सके। इसलिए
गुरु और
शिक्षक में
बुनियादी भेद
है।
दूसरी
बात: शिक्षक
शब्द का
प्रयोग करेगा, क्योंकि
शब्द ही वहां
माध्यम है।
कुछ भी कहना हो
कुछ भी देना
हो, कुछ भी
ज्ञान
हस्तांतरित
करना हो, तो
शब्द ही
माध्यम है।
गुरु शब्द का
उपयोग करेगा,
लेकिन
भलीभांति
जानते हुए कि
शब्द केवल
भूमिका है।
सत्य उससे
दिया नहीं जा
सकता।
शिक्षक
शब्द पूरा हो
जाता है गुरु
निःशब्द पर पूरा
होता है। गुरु
भी शब्द से
शुरू करता है, इसलिए
भ्रांति का डर
है कि हम
शिक्षक को
गुरु समझ लें,
गुरु को
शिक्षक समझ
लग। शब्द से
शुरू करना ही होगा,
क्योंकि
तुम जहां हो
वहीं से
यात्रा शुरू
हो सकती है।
तुम अगर बीमार
हो, तो
औषधि से शुरू
करना पड़ेगा; लेकिन औषधि
अंत नहीं है, स्वास्थ्य
अंत है। और
स्वास्थ्य का
अर्थ ही है।
कि जहां औषधि
की कोई जरूरत
न रह जाए।
तुम
बीमार हो—शब्दों
से बीमार हो।
शब्द से ही
शुरू करना पड़ेगा।
लेकिन, लक्ष्य
होगा
निःशब्द।
शिक्षक शब्द
ही से शुरू
करता है, शब्द
ही लक्ष्य है।
गुरु शब्द से
शुरू करता है,
लेकिन शब्द
लक्ष्य नहीं,
निःशब्द!
गुरु शब्द का
उपयोग करता है,
तुम्हारे
शब्दों के
निषेध के लिए।
एक कांटा लगा
हो तो हम
दूसरे कांटे
से पहले कांटे
को निकालते
हैं। गुरु
शब्द का ऐसा
ही उपयोग करता
है। शब्द के
कांटे लगे हैं,
दूसरे
शब्दों के
कांटों से
उन्हें
निकालता है।
लेकिन गुरु
तुम्हारे पीछे
छूट गए घाव
में, नए
कांटे को नहीं
रख देता कि यह
कांटा बड़ा प्यारा
है, कि इस
कांटे ने बड़ी
कृपा की है, किसी इसी
कांटे की वजह
से पुराना
कांटा निकला।
शिक्षक
तुम्हारे
भीतर कांटों
को चुभाये
चला जाता है।
तुम
जितने जानकार
हो जाते हो, उतना
ही जानना
मुश्किल हो जाता
है। तुम जितने
समझदार हो
जाते हो, उतनी
ही समझ
मुश्किल हो
जाती है।
गुरु
तुम्हारे एक
कांटे को
दूसरे कांटे
से निकालता
है। फिर कहता
है दोनों
कांटे फेंक
दो। तुम
बिलकुल
निर्भार हो
जाओ। तुम
कांटे से शून्य
हो जाओ।
लक्ष्य
निःशब्द है, शून्य
है।
शिक्षक
से एक संबंध
बनता है। वह
संबंध बुद्धि
का है। वह
संबंध दो
सिरों का है, हृदय
का नहीं। हृदय
ने शिक्षक का
कोई लेना—देना
नहीं। गुरु से
जो संबंध बनता
है, वह दो
बुद्धियों का
नहीं है, वह
दो हृदयों का
है। इसलिए
पश्चिम के लोग
समझ ही नहीं
पाते कि गुरु
के प्रति
श्रद्धा की
क्या जरूरत
सीखना है, गुरु
एक टेक्नीशीयन
है, जानकार
है; उससे
सीख लो, बात
खतम हो गई!
श्रद्धा का
कहां सवाल है!
काश!
बुद्धि का ही
संबंध होता
गुरु से। तो
पश्चिम ठीक
कहता है: सीख
लिया, धन्यवाद
दे दिया; फीस
चुका दी, बात
खतम हो गई।
जैसे रास्ते
पर तुम किसी
से पूछ लेते हो
कि स्टेशन का
मार्ग कहां है—श्रद्धा
की कोई जरूरत
है? मार्ग
बता दिया, धन्यवाद
दे दिया—चुकतारा
हो गया। तुम
अपनी राह चले
गए, तुम्हारा
बतानेवाला
अपनी राह चला
गया। न तो वह
अपेक्षा करता
है कि तुम उस
पर श्रद्धा
रखो, समर्पण
करो; न सोच
सकते हो कि
इतनी सी बात
पूछने के लिए
कोई श्रद्धा
और समर्पण की
जरूरत है।
तुमने पूछ
लिया ईश्वर
कहां है, गुरु
ने बता दिया।
तुमने पूछ
लिया ध्यान
कैसे करें, गुरु ने बता
दिया। तुमने
धन्यवाद दे
दिया, भेंट
दे दी, अपने
घर चले गए, बात
समाप्त हो गई।
शिक्षक
और
विद्यार्थी
का संबंध
व्यवसायिक है; वहां
श्रद्धा की
कोई भी जरूरत
नहीं। इसलिए
अगर
विश्वविद्यालय
के शिक्षक
विद्यार्थियों
से श्रद्धा की
अपेक्षा करते
हों तो
भ्रांति में
हैं। यह हो
नहीं सकता।
लेकिन पूरब की
परंपरा की वजह
से उनके मन
में यह
भ्रांति बनी
है। क्योंकि
पूरब में गुरु
को आदर था, श्रद्धा
थी—वे सोचते
हैं वे भी
गुरु हैं; उनके
लिए श्रद्धा
और आदमी होना
चाहिए। नहीं,
वे गुरु हैं
नहीं।
विद्यार्थी
शिष्य नहीं है,
शिक्षक
गुरु नहीं है।
विद्यार्थी
फीस चुका रहा
है। धन्यवाद
दे देगा—बात
खतम हो गई।
शिक्षक से कोई
हार्दिक
संबंध नहीं है—हो
नहीं सकता।
लेकिन
भारत में गुरु
के प्रति
सम्मान का भाव
इतना पुराना
है कि
विश्वविद्यालय
का शिक्षक भी
सोचता है कि
मैं गुरु हूं—बिना
इस बात की
फिकर किया कि
गुरु कि
गुरुता कहां; बिना
इस बात की
चिंता किये कि
गुरु होना
साधारण आदमी
के बस की बात
नहीं! क्योंकि
गुरु तो वही हो
सकता है, जो
उस गुरुता को
उपलब्ध हो गया;
जो अंतिम
महिमा की
उपलब्ध हो गया;
जिसने परम
सत्य को जान
लिया, वही
गुरु हो सकता
है। जिसको
जानने को कुछ
शेष न रहा, जिसके
होने में
अंतिम घटना घट
गई; जो
समाधिस्थ हुआ;
जिसके लिए
परमात्मा
पारदर्शी हो
गया; जो
परमात्मा से
एक हो गया; जिसमें
और परमात्मा
में रत्ती भर
भेद न रहा—गुरु
वह है।
शिक्षक
और
विद्यार्थी
में जो फर्क
है,
वह परिणाम
का है—गुण का
नहीं है; क्वालिटेटिव नहीं है, क्वांटिटेटिव्ह है। गुरु
थोड़ा ज्यादा
जानता है, शिष्य
थोड़ा कम जानता
है—ऐसा आप
सोचते हैं? नहीं गुरु
और शिष्य के
बीच जो भेद है,
कम ज्यादा
का नहीं है।
गुरु और शिष्य
के बीच मात्रा
का भेद नहीं
है, गुण का
भेद है। गुरु
कहीं और है, शिष्य कहीं
और है। दो अलग
लोगों में
उनका निवास
है। दो अलग
आयाम में वे
जीते हैं।
उनका अस्तित्व
भिन्न है।
लेकिन
विश्वविद्यालय
का शिक्षक और
उसका
विद्यार्थी, उनमें जो
अंतर है, वह
मात्रा का है।
शिक्षक
थोड़ा ज्यादा
जानता है, विद्यार्थी
थोड़ा कम। और
इसलिए अगर
विद्यार्थी
थोड़ा कुशल हो
तो कोई कठिनाई
नहीं कि
शिक्षक से
ज्यादा जान
सके। कोई भी
कठिनाई नहीं
है। मात्रा का
ही फर्क है।
तो जो बहुत
प्रतिभाशाली विद्यार्थी
होता है, वह
अक्सर शिक्षक
से ज्यादा जान
लेता है। थोड़ी
प्रतिभा, थोड़ा
श्रम—बस इतनी
ही बात है। और
आज नहीं जानता,
तो कल जान
लेगा। शिक्षक
एम. ए. की उपाधि
लिए हुए है, विद्यार्थी
कल एम. ए. की
उपाधि ले
लेगा। तो जो फासला
है, वह
मात्रा का है,
गुण का
नहीं। जहां तक
बीइंग का, आत्मा
का सवाल है, दोनों जैसे
हैं। जहां तक
स्मृति का
सवाल है, दोनों
में फर्क है।
एक के पास
ज्यादा, एक
के पास काम।
लेकिन इसमें
गुणवत्ता
क्या है, गुरुता
क्या है?
गुरु
और शिष्य के
बीच जो फासला
है,
वह क्वालिटेटिव
है, वह गुण
का है। गुरु
कहीं और, शिष्य
कहीं और। यह
मात्रा का भेद
नहीं है। यह तो
पूरा तो पूरा
का पूरा शिष्य
का जब
रूपांतरण
होगा, तभी
यह भेद
टूटेगा। यह
भेद सीखने से टूटनेवाला
नहीं है।
जन्मों—जन्मों
तक शिष्य
सीखता रहे, तो भी
टूटेगा नहीं।
और यह भी हो
सकता है कि
जानकारी की
दुनिया में
गुरु से ज्यादा
भी जान ले, तो
भी नहीं टूटेगी।
इसमें क्या
कठिनाई है? बुद्ध से
ज्यादा कोई भी
जान सकता है।
सच तो
यह है कि आज
विश्वविद्यालय
में पढ़नेवाला
एक
विद्यार्थी
बुद्ध से
ज्यादा जानता
है। कबीर की
जानकारी क्या
है?
कबीर से
ज्यादा तो कोई
भी जानता है।
कबीर को न तो
पता था
आइंस्टीन का,
न पता था हेजनबर्ग
का; न कबीर
को पता था
हिरोशिमा, नागासकी में गिरनेवाले
एटमबस
का। कबीर को
पता ही क्या
था? अगर
पते की ही बात
पूछते हो, तो
कबीर को अगर मैट्रिक
की परीक्षा
में बिठा दो
तो तुम सोचते
हो कि एकदम
पास हो जाएंगे?
टयूटर रखने
पड़ेंगे, और
सालों मेहनत
करनी पड़ेगी, तब पास हो
पाएंगे। फिर
भी पक्का नहीं
है। जानकारी
का सवाल ही
नहीं है।
लेकिन हम
जन्मों—जन्मों
तक पढ़ते रहो, लिखते रहो, उपाधियां
इकट्ठी करते
रहो, पच्चीस
उपाधियां
इकट्ठी कर लो
विश्वविद्यालय
तुम्हें
सम्मानित
करें, डी. लिट. से, तो भी तो तुम
कबीर के एक कण
को न पा
सकोगे।
तुम्हारी तो
बात दूर, तुम्हारा
आइंस्टीन भी
कबीर के एक कण
को नहीं पा
सकता।
आइंस्टीन
भी मरते वक्त
इसी पीड़ा से
मरता है कि
मैं बिना कुछ
जाने मर रहा
हूं;
यह रहस्य
जगत का अछूता
रह गया।
आइंस्टीन
कितना जानता
है! मनस्विद
कहते हैं कि
आइंस्टीन
जितना जानता
है, शायद
मनुष्य जाति
के इतिहास में
इतना किसी आदमी
ने कभी नहीं
जाना, जानकारी
का जहां तक
संबंध है। खुद
आइंस्टीन चकित
था कि इतनी
जानकारी मेरे
भीतर बनी कैसे
रहती है! तो
मरते वक्त
वसीयत कर गया
तो मेरे सिर की
वैज्ञानिक
जांच की जाए—मस्तिष्क
की। तो
मस्तिष्क
प्रयोगशाला
में रखा हुआ
है और जांच चल
रही है। अनूठा
मस्तिष्क है,
उसकी
जानकारी बड़ी
है! लेकिन
आत्मा? आत्मा
वही है, जहां
तुम्हारी है;
उसमें कोई
फर्क नहीं है।
तो दो
बातें खयाल कर
लें—एक तो
जानकारी का परिणात्मक
विस्तार, और
एक आत्मा का
गुणात्मक विस्तार।
कबीर
के पास कुछ भी
नहीं है, जो
तुमसे ज्यादा
है। तुम्हारे
पास मकान बड़ा
कबीर से, तुम्हारे
पास दुकान बड़ी
कबीर से, तुम्हारे
पास स्मृति
बड़ी कबीर से, तुम्हारे
पास अनुभव भी
बड़ा कबीर से—फिर
भी कबीर तुमसे
बड?े हैं।
और तुम जन्मों—जन्मों
तक इसी यात्रा
में चलते रहो,
जिसमें चल
रहे हो, तो
तुम कबीर के
पैर की धूल को
भी न पा
सकोगे। मामला
क्या है?
कबीर
किसी और आयाम
में हैं—आत्मा, अस्तित्व
बीइंग।
दो
आयाम ध्यान रख
लें: नोइंग—जानकारी; और
बीइंग—अस्तित्व,
होना।
ये
कबीर और बुद्ध
और क्राइस्ट, और
कृष्ण को हम
जो इतना सम्मान
देते हैं, जो
इतनी श्रद्धा
देते हैं—इनकी
जानकारी के
कारण नहीं, इनके
अस्तित्व की
शुद्धि के
कारण। इनके
होने का ढंग
और है। इनके
होने का ढंग
हमसे बिलकुल ही
भिन्न है। ये
हमारे साथ
रहते हुए भी
हमारे साथ
नहीं; किसी
और लोक के
निवासी हैं।
इसलिए हम इस
तरह के पुरुषों
को अवतार कहे
हैं। अवतार का
मतलब है कि वह
हमारे बीच हैं,
लेकिन हमसे
पैदा नहीं
हुए। अवतार का
मतलब है: हमारे
बीच हैं लेकिन
उनका आना किसी
पार के लोक से
हुआ है।
जैसे
अंधेरे कमरे
में,
छोटा सा
छिद्र हो, छप्पर
में, और
सूरज की किरण
उतरती है, वह
अवतरण है। वह किरण
भी नहीं है, अंधेरे से
भरे कमरे में,
जहां
अंधेरा है, वहीं वह
किरण भी है।
दोनों के होने
का ऊपरी ढंग
एक सा है, लेकिन
भीतर ढंग बहुत
भिन्न है।
कहां अंधेरा,
कहां किरण—बिलकुल
विपरीत हैं!
किरण आती है
सूर्य के लोक से—वह
अवतरण है।
अंधेरा इस
पृथ्वी का है।
वह कहीं से भी
नहीं आता। वह
सदा यहीं है।
किरण आकर उसको
तोड़ देती है, किरण चली
जाती है, फिर
वह अपनी जगह
ले लेता है।
वह
कहीं आता—जाता
नहीं। अंधेरे
में कोई गति
नहीं है। अंधेरे
में कोई विकास
नहीं है।
अंधेरे में
कोई रूपांतरण
नहीं है। बस
अंधेरा जैसा
का तैसा बना
रहता है।
अंधेरे से
ज्यादा मृत, तुम
कोई और चीज न
पा सकोगे।
पत्थर भी थोड़ा
हिलता—डुलता
है। पहाड़ भी
सरकते हैं।
महाद्वीप भी
यात्रा करते
हैं। पहाड़ भी
बढ़ते हैं, छोटे
बड़े होते हैं।
उनमें भी गति
है और जीवन है।
अंधकार इस जगत
में सब से
भयंकर मृत्यु
है। इसलिए हम
सारी दुनिया
में मृत्यु को
अंधकार की तरह
चित्रित करते
हैं। यमदूत
हों, मृत्यु
के देवता हों,
उनको हम
काला चित्रित
करते हैं। उकसे
पीछे कारण
हैं। क्योंकि
अंधेरे से
ज्यादा जीवन—शून्य
और कुछ भी
नहीं। वह
हिलता—डूलता
भी नहीं, बढ़ता—घटता
भी नहीं; बस
वैसे का वैसे
ही पड़ा है, जहां
का तहां है।
किरणें आती
हैं, छेद
देती हैं।
किरणें चली
जाती हैं, वह
फिर वापिस फिर
घना हो जाता
है, अपनी
जगह।
अवतरण
कहते हैं हम
उस घटना को, कि
कोई हमारे
पड़ोस में ही
बैठा हो, फिर
भी हमारे पास
न हो।
कबीर
तुम्हारे पास
ही बैठे हों
तो भी तुम्हारे
पास नहीं।
परमात्मा के
पास हैं—तुमसे
बहुत दूर यह
उनका
परमात्मा के
पास होना ही
उनकी महत्ता
है।
तो
गुरु और शिष्य
के बीच
गुणात्मक भेद
है। शिक्षक और
विद्यार्थी
के बीच परिमाणात्मक
भेद है।
शिक्षक और
विद्यार्थी
के बीच किसी
तरह की
श्रद्धा
अपेक्षित
नहीं है। गुरु
और शिष्य के
बीच बिना
श्रद्धा के
कुछ भी घटेगा
नहीं, क्योंकि
गुरु और शिष्य
हृदय से जुड़े
हैं। हृदय
यानी प्रेम।
और प्रेम का
जो परम रूप है,
उसका नाम है
श्रद्धा।
प्रेम का जो
शुद्धतम रूप
है, उसका
नाम है
श्रद्धा।
जहां वासना खो
गई है बिलकुल।
प्रेम का जो
निकृष्ट रूप
है, वह है
काम।
तो
प्रेम के तीन
रूप हैं। एक
काम,
वह निकृष्ट
रूप है। जहां
प्रेम
नाममात्र को है:
एक प्रतिशत
प्रेम, निन्यानबे
प्रतिशत
वासना है। फिर
एक मध्य का तल
है, जहां
पचास—पचास
प्रतिशत है; जहां प्रेम
और वासना
बराबर—बराबर
है। हमारे
जीवन में अगर
में इस दूसरे
प्रेम का भी
पता चल जाए तो
बहुत बड़ी घटना
है। फिर एक
तीसरी घटना है,
जहां वासना
एक प्रतिशत रह
गई और प्रेम
निन्यानबे
प्रतिशत—उस
अवस्था का नाम
श्रद्धा है।
कौन सी
वासना बचती है
श्रद्धा में
एक प्रतिशत? मुक्त
होने की वासना,
बस।
निन्यानबे
प्रतिशत जहां
वासना है और
एक प्रतिशत प्रेम—वहां
कौन सा प्रेम
है? बंधने
का प्रेम, किसी
से बंधे हुए
होने की
आकांक्षा। एक
प्रतिशत
प्रेम बंधन
का। अकेले
होने में डर
है, किसी
से बंधा रहूं,
कोई संगी
साथी हो!
निन्यानबे
प्रतिशत शोषण
है, बस वह
एक प्रतिशत
प्रेम है:
किसी से बंधा
रहूं! बंधन!
इसलिए हम अगर
विवाह को बंधन
कहते हैं तो
ठीक ही कहते
हैं। बस वहां
उतना प्रेम है
जितना रस्सी
बांधने के लिए
जरूरी है, बाकी
निन्यानबे
प्रतिशत एक—दूसरे
का शोषण है।
श्रद्धा
में शोषण
बिलकुल खो गया; बस
एक प्रतिशत
वासना बची है।
और वह वासना
इतनी ही है कि
उतनी देर तक
बंधा रहूं
जितनी देर तक
मुक्ति का
मार्ग न मिल
जाए। जैसे ही
मुक्ति का
मार्ग मिला, मुक्ति की
घटना घटी, वह
बंधन भी टूट
जाता है।
शिष्य उसी
क्षण गुरु हो
जाता है।
श्रद्धा
का अर्थ है:
अनन्य प्रेम।
अब थोड़ा समझ
लेना जरूरी
है। जहां
वासना होती है, वहां
तो कारण भी
होता है। कारण
की वजह से ही
हम प्रेम करते
हैं। एक
स्त्री सुंदर है।
उसके व्यक्ति
से हमारा मेल
खाता है, उसकी
आंखें हमें
पसंद हैं, उसकी
वाणी मधुर है—कारण
है। यह प्रेम
सदा नहीं रह
सकता।
क्योंकि कारण
कल खो जाएंगे।
स्त्री बूढ़ी
होगी, वाणी
कर्कश हो
जाएगी, चेहरा
दीन—दीन हो
जाएगा, चमड़ी
सिकुड़ जाएगी,
सौंदर्य खो
जाएगा, तब
कैसे प्रेम
टिकेगा? क्योंकि
कारण से था।
कारण खो
गए...इसलिए
अक्सर प्रेम
शुरू तो होता
है, लेकिन
टिकता नहीं, फिर हम ढोते
हैं। फिर हम
सिर्फ अभिनय
करते हैं।
वास्तविक तो
कभी का खो गया
होता है।
लेकिन यह
मानते में भी
पीड़ा होती है
कि अब प्रेम
नहीं है। तो
हम उसको
सम्हालकर चलते
हैं; एक—दूसरे
को धोखा देते
रहते हैं।
इसलिए जिंदगी
में इतना धोखा
है। क्योंकि
जहां प्रेम भी
धोखा होगा, वहां और
क्या होगा जो
धोखा न हो?
श्रद्धा
अकारण है।
प्रेम में तो
कारण है, क्योंकि
वासना है—निन्यानबे
प्रतिशत।
श्रद्धा तो
बिलकुल अकारण
होगी; क्योंकि
एक प्रतिशत
वासना है—वह
मुक्त होने की
वासना है। तो
श्रद्धा कैसे
पैदा हो? और
अकारण का अर्थ
है, अतक्र्य
होगी। इसलिए
तुम श्रद्धा
के लिए उत्तर
नहीं दे सकते।
अगर किसी की
मुझे में
श्रद्धा है, तुम उससे
पूछो, वह
तुम्हें संतुष्ट
न कर सकेगा।
यह हो सकता है
कि तुम उसे
संतुष्ट कर दो
कि गलत है
तुम्हारी
श्रद्धा। तुम
पच्चीस तर्क
देकर खंडित कर
सकते हो उसकी
श्रद्धा, लेकिन
वह अपनी
श्रद्धा के
संबंध में एक
भी तर्क न दे
पाएगा। और अगर
वह समझ गया है
श्रद्धा का सार,
तो वह तर्क
देने कि कोशिश
भी न करेगा।
और अगर
श्रद्धा का रस
चख लिया है, उसने, तो
वह हंसेगा
तुम्हारे
तर्कों पर। और
तुम्हें उसका
व्यवहार
अतक्र्य
मालूम पड़ेगा।
क्योंकि तुम
पच्चीस तर्क
दे रहे हो
श्रद्धा को
खंडित कर सकते
हैं। लेकिन, वह तुम्हारे
कोई तर्क उस
पर कोई असर
नहीं करते।
तर्क पड़ते हैं
उस पर और गिर
जाते हैं।
श्रद्धा
अतक्र्य है।
होती है तो
होती है, नहीं
होती है तो
नहीं होती।
कोई चेष्टा
करके श्रद्धा
नहीं ला सकता।
इसलिए तुम
कैसे गुरु को चुनोगे?
तुम लाख
उपाय करो, तुम
श्रद्धा थोड़ी
पैदा कर सकते
हो? इसलिए
गुरु को चुनने
का एक ही उपाय
है, और वह
यह है कि गुरु
तुम्हें चुन
लें, तुम
कैसे चुनोगे?
पर तुम गुरु
को चुनने में
बाधा डाल सकते
हो। इसलिए
शिष्य होने की
एक ही कला है
कि वह उपलब्ध रहे।
वह चुन नहीं
सकता। कोई
कारण नहीं है
चुनने का कोई
तर्क नहीं है
चुनने का। और
अगर तर्क से
तुम चुनते हो,
तो जानना वह
श्रद्धा नहीं
है, वह
बुद्धि का ही
खेल है। तुम
कहते हो, यह
आदमी जो कहता
है, ठीक
कहता है—इसलिए
उसको हम अपना
गुरु बनाते
हैं। तो तुमने
गुरु चुना ही
नहीं। तुम
शिक्षक की ही
तलाश कर रहे
हो अभी। तुमने
देखा कि इस
आदमी का आचरण
ठीक है। तुम
कौन हो, कैसे
तुम आचरण जानोगे
कि ठीक क्या
है, गलत
क्या है?
काश
तुम्हें ठीक
और गलत का ही
पता होता, तो
तुम खुदा ही
गुरु थे।
तुम्हें कोई
खोजने की
जरूरत न थी।
तुमने कैसे
चुनोगे कि
इसका आचरण ठीक
है?
समाज
ने जो तुम्हें
सिखाया है कि
क्या ठीक है, क्या
गलत है; क्योंकि
है, क्या
अनीति है—वही समाज
का सिखावन तुम
इस पर लगाओगे?
तुम ज्ञान
के माध्यम से
गुरु को चुन
रहे हो, श्रद्धा
के माध्यम से
नहीं। तो तुम
उसी को गुरु
चुन लोगे, जिसको
तुम सोचते रहे
हो कि गुरु
होना चाहिए। अगर
तुम जैन घर
में पैदा हुए
हो, तुम—यह
आदमी उपवास
करता है, एक
बार खाना खाता
है, रात
भोजन नहीं
लेता, पानी
नहीं छूता, गरम पानी
पीता है—चुन
लोगे, गुरु
का काम पूरा
हो गया! इतनी
सस्ती होती
परीक्षा, काश,
कि पानी
पीने से तुम
पता लगा
लेते!...तो अगर
यह ठंडा पानी
पी रहा है, तो
बात खतम हो गई!
दिगंबर
जैन—मुनि
स्नान नहीं
करते। तो अगर
तुम स्नान करते
हो,
बात खतम हो
गई।
एक घर
में मैं रुक
था। मैं दिन
में दो दफे
स्नान करता।
उन्होंने कहा, क्या
कर रहे हैं आप?
ज्ञानी
होकर दो बार
स्नान? क्योंकि
पानी में तो
जीवाणु हैं, उनकी हत्या
होती है। जैन
मुनि—दिगंबर
जैन—मुनि
स्नान नहीं
करते। बदबू
आती है शरीर
से। अगर तुम्हारे
समाज ने
तुम्हें
स्वच्छता
दिखाई हो तो
तुम दिगंबर
जैन—मुनि को
गुरु न मान
सकोगे कि यह
कैसा गुरु!
बदबू आती है
मुंह से, क्योंकि
वह ठीक से
दतुवन नहीं
सकता, मंजन
का उपयोग नहीं
कर सकता; या
करे तो चोरी
करनी पड़ती है,
छिपाकर
करना पड़ता है।
मगर
तुम्हारी
धारणा से अगर
तुमने चुनोगे
तो तुमने गुरु
चुना ही नहीं, तुम
ही गुरु हो।
क्योंकि
धारणा तो
तुम्हारी ही
तुम लिए चल
रहे हो।
श्रद्धा
का अर्थ है, मैं
अपनी सारी
धारणा छोड़ता
हूं। श्रद्धा
का अर्थ है, अपनी सारी
धारणाओं को एक
किनारे रखकर
तुम्हें मैं
सीधा देखता
हूं। मैं सोचूंगा
नहीं, देखूंगा।
मैं विचार न
करूंगा, तुम्हारी
सुगंध लूंगा।
मैं अपनी
मान्यताएं तुम्हारे
पास न लाऊंगा,
मैं उनका
बीच में परदा
खड़ा न करूंगा।
तुम्हारी आंख
में सीधा झुकूंगा।
श्रद्धा
बुद्धि को एक
तरफ रखकर
उत्पन्न होती है।
और जो व्यक्ति
भी इसके लिए
राजी है, उसके
लिए गुरु
उपलब्ध हो
जाएगा। गुरु
सदा मौजूद है;
जब तुम
तैयार हो, तभी
उपलब्ध हो
जाता है।
तुम्हारी
तैयारी की ही
कमी है। तब
ऐसा व्यक्ति
एक गुरु से
दूसरे गुरु, तीसरे गुरु
के पास जाएगा
भी, तो
खुले मन से
जाएगा। जहां
घटना घट जाएगी
वहां रुक
जाएगा। यह
घटना है जो घटती
है; तुम
इसे घटा नहीं
सकते। इसलिए
मैंने कहा, तुम सिर्फ
उपलब्ध हो
सकते हो। अनेक
गुरु हैं। हर
काल में अनेक
लोग ज्ञान को
उपलब्ध होते
हैं। तुम उनके
पास उपलब्ध
अवस्था में
जाओ, बस।
कहीं न कहीं
हृदय का मेल
बैठ जाएगा। और
जब हृदय का
मेल बैठ जाता
है...कोई बिठा
नहीं सकता।
जैसे प्रेम
घटता है, वैसे
ही श्रद्धा भी
घटती है। तुम
कोई तर्क दे सकते
हो कि इस
स्त्री से
तुम्हारा
प्रेम क्यों
हो गया है? तुम्हारे
सब तर्क झूठे
होंगे।
क्योंकि वस्तुतः
तर्क तुम बाद
में खोजोगे,
प्रेम पहले
हो जाएगा। तब
तुम युक्तियां
खोजोगे
कि क्यों हो गया।
प्रेम
एक घटना है।
इसलिए लोग
कहते हैं, प्रेम
अंधा है। ठीक
कहते हैं।
लेकिन बिना
प्रेम के
आंखें बेकार
हैं। आंख रखकर
भी क्या करोगे?
अंधा प्रेम
भी चुनने जैसा
है। क्योंकि
अंधे प्रेम के
पास भी देखने
की एक क्षमता
है, जो
तुम्हारी
आंखों के पास
नहीं है।
श्रद्धा भी
अंधी है। यही
तो अर्थ है
उसके अतक्र्य
होने का। होती
है तो होती है,
नहीं होती
है तो नहीं
होती।
तुम्हारे किए
कुछ भी न
होगा। तुम
सिर्फ उपलब्ध
रहो। गुरुओं
की सन्निधि
में रहो।
सत्संग में
जाओ, उनकी
संगत में बैठो,
कहीं घट
जाएगा। और जब
घट जाएगा, तब
तुम पाओगे कि तुम्हारे
पास कहने को
कुछ भी नहीं
है। तुम कोई
तर्क न दे
सकोगे।
क्योंकि
तुम्हारे
तर्क को खंडित
करने के
पच्चीस उपाय
किए जा सकते
हैं। अगर कबीर
को तुम कहो कि
मेरे गुरु हैं,
तो जैन
कहेगा, ये
कैसे
तुम्हारे
गुरु हो सकते
हैं; उनकी
पत्नी है और
बच्चा है—ये
ब्रह्मचारी
नहीं! और अभी
भी इन्होंने
पत्नी, बच्चों
को नहीं छोड़ा
है, ये
कैसे गुरु हो
सकते है! ये
अभी भी कपड़ा
बनाते हैं और
बेचते हैं!
नहीं ये गुरु
नहीं हो सकते।
तो कबीर के
बगल में भी
जैन बसा रहे
तो कबीर से
कोई संबंध न जुड़ेगा।
सूफी
फकीर हैं। अगर
तुम उनसे कहो
कि ये महावीर
ज्ञान को
उपलब्ध हो गए
हैं,
हमारे गुरु
हैं, तो
सूफियों को माननेवाले
उनको गुरु
नहीं
मानेंगे। वे
कहेंगे कि
गुरु तो सदा
अपने को
छिपाता है। ये
नग्न होकर घूम
रहे हैं, यह
तो प्रकट होने
का ढंग है।
गुरु तो अपने
को ऐसा छिपा
लेता है कि खोजनेवाला
बामुश्किल
खोज पाता है।
गुरु जाहिर
नहीं करता; क्योंकि
गुरु कोई
संसार की घटना
नहीं है। वह सिर्फ
उसी के लिए है,
जिसको
परमात्मा की
तलाश है। और
जिसको परमात्मा
की तलाश है, गुरु कहीं
भी छिपा हो, वह खोज
लेगा।
हिंदुओं
ने महावीर का
उल्लेख भी
नहीं किया अपने
शास्त्रों
में,
जैसे यह आदमी
हुआ ही नहीं, क्यों करें
उसका उल्लेख?
क्योंकि यह
उन्हें मालूम
ही न पड़ा।
धारणाएं...। और
तब अड़चनें
हो जाती हैं।
एक
भक्त से मैं
बात कर रहा
था। ज्ञानी है, पंडित
है। जीसस की
बात चल पड़ी तो
उन्होंने कहा
कि और कुछ भी
हो, मैं
जीसस को अवतार
नहीं मान सकता;
क्योंकि अवतार
फांसियों
पर नहीं मरते।
निश्चित ही, न तो राम
फांसी पर मरे
हैं, न
बुद्ध फांसी
पर मरे हैं।
तो जीसस फांसी
पर मरे हैं।
और फिर
उन्होंने कहा
कि फिर यह भी
बात ध्यान में
रहनी चाहिए कि
आदमी अपने
कर्मों का फल
भोगता है।
कर्म का
सिद्धांत!
जरूर जीसस ने कोई
पाप कर्म किए
होंगे अतीत
में, उन्हीं
का फल भोग रहे
हैं, सूली
पर लटके हैं।
हिंदुस्तान
में जीसस को
कोई गुरु
मानने को
तैयार हनीं
हो सकता, क्योंकि
सूली पर लटका
हो गुरु!
जैन
कहते हैं कि
महावीर अगर
रास्ते पर
चलते हों, कांटा
सीधा पड़ा हो
तो तत्क्षण
उलटा हो जाता
है। क्योंकि
महावीर के
कर्म इतने शुभ,
कि कांटा चुभ कैसे
सकता है।
क्योंकि दुख
तो अपने ही
कर्मों के
कारण होता है।
तो कांटा सीधा
पड़ा हो, महावीर
को आते देख कर
तत्क्षण उलटा
हो जाता है, कहीं चुभ
न जाए। तो
सूली...सोच
सकते हो
महावीर को
सूली पर? असंभव!
सूली लग ही
कैसे सकती है!
लेकिन
अगर ईसाई को
पूछो, तो ईसाई
कहता है कि
तुम्हारे
महावीर, तुम्हारे
बुद्ध, तुम्हारे
राम, कृष्ण
कुछ भी नहीं।
जीसस का
मुकाबला!
जिसने लोगों
को मुक्त करने
के लिए अपना
जीवन दिया; जिसने, सारा
जगत पाप से
मुक्त हो सके—इसलिए
सूली भोगी!
तुम्हारे
महावीर, बुद्ध,
सब
स्वार्थी हैं,
अपने—अपने
ध्यान में लगे
हैं; जगत
की उनको कोई
चिंता नहीं।
अपनी आत्मा
मुक्त हो जो, इसकी चिंता
है। जीसस ने, सब कैसे
मुक्त हो सकें,
इसकी चिंता
की। यह अवतारी
पुरुष है, यह
ईश्वर का बेटा
है! बाकी तो सब
छोटे—छोटे
स्वार्थी
हैं।
कैसे
तय करोगे, कौन
गुरु है? तय
करने का कोई
उपाय नहीं, तुम सिर्फ
उपलब्ध होना।
अगर तुम
उपलब्ध रहे तो
तुम अचानक
किसी दिन
पाओगे किसी
व्यक्ति के निकट
श्रद्धा का
जन्म हुआ। एक
फूल खिला
तुम्हारे
भीतर जो
अतक्र्य है, जिसको तुम
सिद्ध न कर
करोगे; जिसको
तुम सिद्ध
करने जाओगे तो
हारोगे; जिसको
तुम किसी को
समझाना
चाहोगे तो
मुसीबत में पड़ोगे।
उसका कोई भी
खंडन कर सकता
है। गुरु, श्रद्धा
के बिना घटता
ही नहीं; क्योंकि
श्रद्धा की
आंख से ही
देखा जा सकता
है। और गुरु
और शिष्य के
बीच जो संबंध
है, वह
विचार का नहीं
है—वह श्रद्धा
का है, वह
प्रेम का है।
वह अत्यंत
आत्मीय संबंध
है। उससे बड़ा
आत्मीय कोई संबंध
जगत में नहीं
है। पति—पत्नी
का संबंध भी
आत्मीय नहीं
है। बाप—बेटे
का संबंध भी
आत्मीय नहीं
है। भाई—भाई
का संबंध भी
आत्मीय नहीं
है। फासले हैं,
क्योंकि
सार संबंध
शरीर के ही
हैं।
तुम्हारे पिता,
तुम्हारे
पिता हैं क्यों?
क्योंकि
उनके शरीर से
तुम पैदा हुए
हो, और
क्या संबंध है?
तुम्हारी
मां, तुम्हारी
मां हैं—क्यों?
क्योंकि उस
शरीर से तुम
पैदा हुए हो।
ये संबंध सब
शारीरिक हैं।
इसमें आत्मा
का क्या संबंध
है? भाई से
तुम जुड़े हो, बहन से तुम
जुड़े हो; क्योंकि
एक ही शरीर की
तुम संतान हो।
लेकिन यह
संबंध शरीर का
है। एक ही संबंध
है जगत में जो
शरीर का नहीं
है, वह
गुरु और शिष्य
के बीच का
संबंध है।
उससे कोई
संबंध शरीर का
नहीं है। उससे
संबंध आत्मा
का है। और
जिससे आत्मा
का संबंध है, उससे ही
परमात्मा की
उपलब्धि हो
सकेगी।
अब हम
इस सूत्र को
समझें।
यह
सूत्र अत्यंत
महत्वपूर्ण
है। एक—एक
शब्द को जतन
करके समझना और
एक—एक शब्द को सूरती में
सम्हालकर
रखना।
गुरु
मानुष करि
जानते, ते
नर कहिए अंध।
महादुखी
संसार में आगे
जम के बंध।।
जो
गुरु के
मनुष्य की
भांति मानते
हैं,
उन्हें
अंधा जानना।
क्योंकि गुरु को
तो जब भगवान
की भांति
जानोगे, तभी
जोड़ बनेगा।
अगर गुरु भी
मनुष्य है, तो तुम्हारे
संबंध
शारीरिक
होंगे। आदर भी
हो सकता है, लेकिन आदर
अकारण होगा, अतक्र्य
नहीं होगा।
श्रद्धा नहीं
होगी। श्रद्धा
और आदर में
यही फर्क है।
आदमी का अर्थ
है, कारण
है। यह आदमी
ज्यादा जानता
है, आचारणवान है, त्यागी
है, ऐसा है,
वैसा है।
कारण है तो
आदर है।
श्रद्धा
अकारण है।
इसलिए आदर
तोड़ा जा सकता
है, श्रद्धा
तोड़ी नहीं जा
सकती।
क्योंकि कल
पक्का पता चल
जाए कि नहीं, यह उतना
आचरणवान नहीं,
तो आदर टूट
जाएगा, श्रद्धा
नहीं टूटेगी;
क्योंकि
श्रद्धा कभी
कारण के कारण
थी ही नहीं, तो उसके
आचरण के कारण
टूटने क्या
सवाल है? कल
पता चल जाए, यह आदमी
इतना ज्ञानी
नहीं जितना हम
सोचते थे, तो
भी श्रद्धा
नहीं टूटेगी,
आदर टूट
जाएगा।
जो
गुरु को
मनुष्य के
भांति जानते
हैं,
कबीर कहते
हैं, तेर नर कहिये
अंध—वह अंधे
हैं; उनके
पास आंख नहीं
है।
निश्चित
ही,
गुरु भी
मनुष्य है, पर मनुष्य
ही नहीं है।
मनुष्य तो है
ही। हमारे
जैसा शरीर है,
हमारे जैसी
भूख लगती है, हमारे जैसी
प्यास लगती।
धूप आए तो
पसीना आता—मनुष्य
तो है ही। इन
अंधों को
समझाने के लिए
बड़ा कहानियां गढ़नी
पड़ीं।
तो जैन
कहते हैं कि
महावीर को
पसीना नहीं
आता।...ये अंधों
को समझाने के
लिए! महावीर
को पसीना आएगा
ही।
प्लास्टिक के
बने हों तो
बात अलग।
पसीना स्वाभाविक
है। लेकिन यह
कहानी क्यों
बढ़नी पड़ रही है।
यह कहानी गढ़नी
पड़ रही है, क्योंकि
अगर पसीना
आएगा तो भक्त
कहेगा, फिर
मनुष्य ही
है।...महावीर
पाखाना नहीं
जाते। इससे
बड़ी कब्जियत,
महा
कब्जियत
दुनिया में
कभी हुई ही
नहीं है! लेकिन
भक्त को
समझाने के लिए
महावीर को
फंसाना पड़ता
है। क्योंकि
अगर महावीर भी
पाखाना जाते हैं,
तो फिर हम
जैसे ही हैं।
फिर भेद क्या?
भेद खड़ा
करने के
लिए...लेकिन उस
भेद से क्या
फर्क पड़ेगा? ज्यादा से
ज्यादा आदर
पैदा होगा, श्रद्धा
नहीं हो सकती।
श्रद्धा तो
तभी होगी जब
महावीर को
पसीना भी
निकलता हो, भूख भी लगती
हो, महावीर
बीमारी भी
पड़ते हों, फिर
भी तुम उनमें
परमात्मा को
देख पाओ, तभी
श्रद्धा पैदा
होती है।
शरीर
तो घर है। और शरीर
तो वैसा ही है, जैसा
तुम्हारा है।
नहीं तो
महावीर मरें
कैसे, पैदा
ही कैसे होंगे?
शरीर तो ठीक
तुम्हारे ही
जैसा है।
लेकिन तुमने
अपने को शरीर
ही मान रखा है,
और महावीर
ने अपने को
उसके ऊपर जान
लिया है। तुम
अपने शरीर के
साथ जुड़े हो, तादात्म्य
हो गया है।
महावीर
अतिक्रमण कर
गए हैं। वह
शरीर में है, लेकिन शरीर
ही नहीं हैं।
मिट्ठी का
दीया है, लेकिन
ज्योति
मिट्टी नहीं
है। तुम्हें
अगर दीया ही
दिखाई पड़ा, तो तुम अंधे
हो, कबीर
कहते हैं:
ज्योति को
देखना!
वह
ज्योति, निश्चित
ही, उस
ज्योति में
कोई पसीना
नहीं आता; उस
ज्योति में
कोई दुर्गंध
भी नहीं है।
इस ज्योति को
भूख भी नहीं
लगती, प्यास
भी नहीं लगती;
लेकिन उस
दीए को तो
प्यास भी
लगेगी, तेल
की भी जरूरत
होगी, थकेगा भी, टूटेगा
भी, मरेगा
भी।
गुरु
मानुष करि
जानते, ते
नर कहिये अंध।
जो लोग
गुरु को भी
मनुष्य की
भांति देखते
हैं,
वे अंधे
हैं। अंधे
इसलिए हैं कि
कोई संबंध भी
न जुड़ जाएगा।
आंखें ऊपर
उठाओ।
मंसूर
को सूली लगी।
और जब मंसूर
को सूली लगी, तो
वह हंस रहा
था। किसी ने
भीड़ में से
पूछा कि मंसूर,
क्यों
हंसते हो, क्या
प्रसन्नता की
बात है? तो
उसने कहा कि
तुम कम से कम
थोड़ी आंखें तो
ऊपर उठा कर
देख रहे हो।
सूली लगी थी
तो वह ऊपर
लटका था, लोगों
को आंखें ऊपर
उठा कर देखना
पड़ा रहा था। तो
मंसूर ने कहा
कि मैं
प्रसन्न हो
रहा हूं कि चलो,
तुमने थोड़ी
तो आंखें ऊपर
उठा कर देखा।
मंसूर
बड़ी प्रतीक की
बात बोल रहा
है,
भीड़ समझी
नहीं होगी।
भीड़ समझ ही
नहीं सकती। जो
उसे सूली लगा
रहे, वह
उसे क्या खाक
समझें होंगे!
लेकिन मंसूर
ने यह कहा कि
अगर मेरी
फांसी भी लग
जाए, और
तुम थोड़ी सी
आंख उठा कर
देख लो तो
काफी है। तो
फल मिल गया, पर्याप्त
है। मेरी
फांसी का सवाल
नहीं है; तुम्हारी
आंख थोड़ी ऊपर
उठ जाए...।
गुरु
को देखना, शरीर
में वह
निश्चित है, लेकिन शरीर
ही नहीं है।
श्रद्धा से ही
देख पाओगे। जब
भी तुम किसी
को श्रद्धा से
देखते हो तो शरीर
खो जाता है।
जब भी तुम
किसी को बड़े
गहन प्रेम से
देखते हो, तो
शरीर जाता है।
शरीर की जगह
व्यक्तित्व, आत्मा, अस्तित्व
का बोध होना
शुरू हो जाता
है। जब भी तुम
किसी को प्रेम
करते हो, तो
वहां मनुष्य
नहीं होता, वहां
परमात्मा
होता है।
साधारण जीवन
में भी जब तुम
किसी के प्रेम
में पड़ जाते
हो, तो
दूसरा
व्यक्ति
साधारण नहीं
दिखाई पड़ता, प्रेम की
आंख तत्क्षण
असाधारण को
उघाड़ देती है।
मजनू
लैला के पीछे
दीवाना है।
उसके गांव के
राजा ने उसे
बुलाया और कहा
तू पागल है।
यह लैला कुरूप
है और साधारण
है। क्यों
फालतू परेशान
हो रहा है।
तुम पर दया
आती है।
क्योंकि वह
रोता है, चिल्लाता
है, गांव—गांव
घूमता है, लैला—लैला
की रट लगाए
रखता है। वह
मंत्रमुग्ध
है। राजा को
भी दया आ गई, लोग भी उसके
लिए रोने लगे।
और राजा ने
कहा कि मेरे
महल से मैं
लड़कियों को
बुलवाता हूं,
तू सुंदर से
सुंदर लड़की
चुन ले। राजा
ने एक दर्जन लड़कियां
लाकर खड़ी कर
दीं, वह
सुंदरतम लड़किया
थीं। लेकिन
राजा ने देखा,
उसकी आंखों
से आंसू टपक
रहे हैं। वह
हर लड़की को
गौर से देखता
है और कहता है:
नहीं, लैला
नहीं है। फिर
वह राजा से
बोला, क्षमा
करें, मेरी
और आपकी आंख
में फर्क है।
आपको लैला
साधारण दिखाई
पड़ती है। मुझे
उसके सिवाय
कोई दिखाई नहीं
पड़ता, कहीं
कुछ गड़बड़ है।
होगी भूल मेरी
ही। लेकिन लैला
में मुझे कुछ
दिखाई पड़ता है
जो आपको दिखाई
नहीं पड़ता। और
मैं अपनी ही
आंख से जी
सकता हूं, आपकी
आंख से जीने
का मेरे पास
क्या उपाय है?
जब भी
कोई आदमी
साधारण प्रेम
में गिरता है, वह
प्रेम जहां एक
प्रतिशत
प्रेम होता है
और निन्यानबे
प्रतिशत
प्रेम और एक
प्रतिशत
वासना होती है,
तो भी दूसरे
व्यक्ति में
तत्क्षण कुछ
अलौकिक की
पूछा मुश्किल
होगी।
संगमरमर की
मूर्ति न मुरझाती,
न जन्मती, न मरती, सनातन
है! वहां तुम
घुटने टेक कर
आसानी से खड़ा हो
जाते हो। तुम
इतने झूठे हो
कि झूठे की ही
पूजा कर पाते
हो, सच्चे
की पूजा करना
मुश्किल। तुम
इतने मुर्दा
हो मरे की ही
पूज पाते हो, जीवंत से
तुम्हारा
संबंध नहीं जुड़ता।
गुरु जीवंत
घटना है। उसकी
मूर्ति बनाने
से कुछ भी न
होगा। मूर्ति
तो तुम बनाओगे,
लेकिन वह जब
मर जाएगा, तब
कुछ भी हल न
होगा, कोई
राज न मिलेगी
उससे।
और
ध्यान रखना, मूर्ति
के सामने झुकने
में अहंकार को
कोई चोट नहीं
लगती। वहां
कोई है ही
नहीं, तुम्हीं
खरीद कर बाजार
से मूर्ति लाए
हो। तुम्हें
मालिक हो। तुम
चाहो तो अभी
इस मूर्ति को बाहर
करो। यह
मूर्ति कुछ भी
न कर सकेगी।
तुम भोग लगाओ
तो भोग लगता
है। तुम कहो, भगवान सो
जाओ, तो
सोना पड़ता है।
तुम दरवाजा
बंद करो कि पट
बंद हैं, तो
पट बंद हो
जाते। तुम
मालिक हो! यह
भगवान सिर्फ
तुम्हारा
खिलौना है।
इनके सामने
तुम्हारे
अहंकार को कोई
चोट नहीं
लगती। लेकिन
एक जीवित
व्यक्ति के
सामने तुम जब
झुकते हो, तब
अड़चन आती है।
तुम्हारा
अहंकार ही तो
श्रद्धा में
बाधा है।
ध्यान
रखना, तर्क
बाधा नहीं है,
अहंकार
बाधा है। तर्क
तो सिर्फ
तरकीब है अहंकार
को छिपाने की,
कि तुम कहते
हो कि कैसे झुकें!
जब तक वह आदमी
न मिल जाए तो
झुकने योग्य
है—तब तब कैसे झुकें! वह
आदमी तुम्हें
कभी न मिलेगा,
क्योंकि
तुम्हारा
तर्क सदा कुछ
खोज लेगा।
मुल्ला
नसरुद्दीन
बहुत दिन
अविवाहित
रहा। मैंने
उससे पूछा कि
क्या कारण है? अब
काफी समय हुआ।
अब तुम खोज ही
लो, अन्यथा
समय जा रहा
है। उसने कहा,
खोज में ही
तो लगा हूं।
लेकिन मुझे
ऐसी स्त्री
चाहिए, जो
समग्र रूप में
पूर्ण हो। सैकड़ों
स्त्रियां
मिलीं, लेकिन
पूर्ण कोई भी
नहीं और जब तक
पूर्ण न हो, तब तक मैं
प्रेम न होने
दूंगा।
तो
मैंने कहा, एक
भी स्त्री न
मिली तुम्हें
जीवन भर की
तलाश में? उसने
कहा, नहीं,
एक दो बार
मिली भी, लेकिन
वह भी पूर्ण
पति की तलाश
में थीं।
तुम्हें
अगर कभी पूर्ण
गुरु मिलेगा
भी तो ध्यान
रखना, वह भी पूर्ण
शिष्य की तलाश
में है। वह
मिलेगा ही
नहीं। वह तो
बचने की तरकीब
है।
गुरु
मानुष करि
जानते, ते
नर कहिए अंध।
महा
दुखी संसार
में, आगे
जम के बंध।।
यहां
वह दुखी
होंगे। दुख
खबर है कि तुम
गलत हो। सुख
खबर है कि तुम
सही हो। इसको
कसौटी समझो। अगर
तुम्हारा
जीवन दुखी है
तो जानना कि
तुम गलत हो; तुम
जो भी कर रहे
हो वह भ्रांत
है। दुनिया
में भूल है।
क्योंकि सुख
के फूल तभी
लगते हैं जब तुम
बुनियादी रूप
से सही हो।
और
ध्यान रखना, अगर
कोई मनुष्य
सुखी हो तो
तर्क देकर उसे,
उसके सुख को
नष्ट करने की
कोशिश मत करना;
क्योंकि
सुखी होना ही
एकमात्र
कसौटी है कि
वह सही है।
मेरे
पास लोग आते
हैं। दो दिन
पहले एक मित्र
ने कहा कि आप
लोगों को पागल
किए हुए हैं; मुझे
तो नहीं दिखाई
पड़ता कि कोई
परमात्मा कहीं
है, या कि
उसे पाया जा
सकता है। आप
लोगों को पागल
किए हुए हैं।
मैंने कहा, वह मेरा और
लोगों के बीच
का मामला है।
आप उसमें नहीं
आते। आप स्वस्थ
हैं, प्रसन्न
हैं—खुशी की
बात है।
उन्होंने कहा,
वही तो
मुसीबत है कि
न स्वस्थ हूं,
सुखी हूं।
तो मैंने कहा
कि तुम अपने
स्वस्थ और
सुखी होने का
ही खयाल करो, तो आज नहीं
कल, परमात्मा
के करीब पहुंच
जाओगे। तुम
इसकी फिकर मत
करो कि
परमात्मा है
या नहीं।
क्योंकि परमात्मा
कोई तर्क की
निष्पत्ति
नहीं है।
परमात्मा
सुख की गहन
प्रतीति में
उठा हुआ महोभाव
है। जब तुम
सुखी हो, तब
तुम मान ही
नहीं सकते कि
परमात्मा
नहीं है, अन्यथा
सुख कैसे होगा?
जब तुम सुखी
हो और
तुम्हारा
हृदय गदगद है,
और
तुम्हारे रोएं—रोएं में
गीत है, तब
तुम मान ही
नहीं सकते कि
यह अस्तित्व
चेतना से
शून्य हो सकता
है! क्योंकि
तुम इस
अस्तित्व में
वही देखोगे,
जो
तुम्हारे
भीतर घटित हो
रहा है। तुम
दुखी हो तो
अस्तित्व
नर्क है, परमात्मा
शून्य है। तुम
सुखी हो तो
अस्तित्व स्वर्ग
है—कण—कण
परमात्मा से
आप्लावित, भरा
हुआ! यह सवाल
निष्पत्ति का
नहीं है कि
तुम सोचो
परमात्मा है
या नहीं—विचार
करो, दर्शनशास्त्र
में जाओ, शास्त्रों
का अध्ययन करो,
तर्क जुटाओ—यह
सब पागलपन है।
तुम सुखी हो—तत्क्षण
वह है; तुम
दुखी हो—वह खो
गया!
तो
मैंने उनसे
कहा कि मुझे
और मेरे
पागलों को तुम
छोड़ो।
अगर वह सुखी
हैं,
तो क्या
फर्क पड़ता है,
परमात्मा
है या नहीं।
और तुम अगर
दुखी हो तो क्या
फर्क पड़ता है
कि परमात्मा
है या नहीं? आखिरी
निष्पत्ति तो
सुख और दुख
होगी। आखिरी निर्णय
तो यह होगा कि
आदमी के जीवन
में आनंद का फूल
लग सका, या
नहीं लग सका? वही
निर्णायक है।
तो तुम उसी
तरफ खयाल
रखना। और जिस
व्यक्ति के
पास तुम्हारे
जीवन में आनंद
का फूल खिलने
लगें, वहां
तर्क छोड़ना, वहां बुद्धि
को हटा देना, वहां हृदय
को खुला करना,
वहां
श्रद्धा फलित
होगा, वहां
गुरु का उदय
होगा।
क्योंकि, गुरु
कोई बाह्य
घटना नहीं है—तुम्हारी
श्रद्धा से
देखा गया
अनुभव है। जैसे
कि तुम आंख
खोलते हो, सूरज
कि रोशनी
दिखायी पड़ती
है; तुम
आंख बंद कर
लेते हो, अंधेरा
हो जाता; श्रद्धा
खोलते हो, गुरु
दिखाई पड़ता है;
श्रद्धा
बंद करते हो, गुरु खो
जाता है।
गुरु
तुम्हारी श्रद्धा
की आंख का
अनुभव है। और
श्रद्धा की
आंख बुद्धि को
हमेशा अंधी
मालूम पड़ेगी।
और जिन्होंने
श्रद्धा को पा
लिया, उनके
किए बुद्धि की
आंख से बड़ा
अंधापन नहीं।
लेकिन एक बात
पक्की है...
समझो, एक
छोटा बच्चा
है। वह जो भी
कहता है, उसकी
बात अनुभव की
नहीं है। एक
जवान है, उसकी
बात थोड़े
अनुभव की है।
उसने वचन भी
देखा और जवानी
भी देखी। एक
बूढ़ा आदमी है,
उसकी बात और
भी अनुभव की
है। उसने बचपन
भी देखा, जवानी
भी देखी, बुढ़ापा
भी देखा। जवान
और बूढ़ा जब
बात करेंगे तो
बात में मेल
नहीं पड़ेगा, क्योंकि
जवान ने अभी
दो ही चीजें
देखी हैं, अभी
तीसरी चीज
नहीं देखी।
बूढ़ा जो भी
जवानी के
संबंध में
कहेगा, उसका
अर्थ सोचने
जैसा है, क्योंकि
उसने जवानी भी
देखी, और
फिर जवान की ह्यास भी
देखा, और
अब जवानी की
विपरीत
अवस्था भी
देखी। और अब वह
जीवन के शिखर
पर पड़ा है।
इसलिए हम पूरब
हम पूरब में
बूढ़े आदमी को
आदर देते हैं;
क्योंकि
उसने सब देखा
है। जवान को
हम आदर नहीं
देते, क्योंकि
अभी उसे देखने
को बाकी है।
पश्चिम
में जवान का
आदर है। वह
भ्रांत है।
क्योंकि
जिसने सब देखा, उसकी
ही बात का कोई
मूल्य हो सकता
है। जिस आदमी
ने सिर्फ अभी
तर्क देखा, संदेह देखा,
उसकी बात का
कोई मूल्य
नहीं है।
जिसने तर्क भी
देखा, संदेह
भी देखा, फिर
श्रद्धा भी
देखी, उसकी
बात का मूल्य
है। क्योंकि
उसने दोनों देखे।
नास्तिक
बच्चे जैसा है
आस्तिक बूढ़े
जैसा है। सभी
को नास्तिकता
से गुजरना
पड़ता है, लेकिन
सभी आस्तिक
नहीं हो पाते;
क्योंकि कई
बच्चे, बच्चे
ही मर जाते
हैं। आस्तिक
ने दोनों पहलू
देखे जीवन के।
इनकार करके
देखा और पाया
कि जितना ही इनकार
करो उतने ही
सिकुड़ जाते
हो। जितना कहो—नहीं,
नहीं, नहीं—छोटे
होते जाते हो।
उसने दूसरा
अनुभव भी देखा
कि जितना कहो
हां, जितना
करो स्वीकार,
उतने विराट
होते जाते हो।
कहो नहीं—आखिर
में तुम्हीं
बेचते हो, सिकुड़े
हुए, सड़े हुए! कहो हां—तुम
खो जाते हो, विराट बचता
है, परमात्मा
बचता है; कहो
नहीं—तुम हो
जाओगे अणु की
भांति—क्षुद्र!
कहो हां—तुम
हो जाओगे
आत्मा की
भांति, आकाश
की भांति
विराट।
महादुखी
संसार में, आगे
जम के बंध।
वे
यहां तो दुखी
होंगे ही, और
बार—बार
उन्हीं मरना
पड़ेगा। जम के
बंध। बार—बार
यम आएगा, उन्हें
बांधेगा और ले
जाएगा। उनके
कारण यम को भी
बड़ा श्रम
उठाना पड़ेगा।
वे बार—बार जन्मेंगे,
बार—बार दुख
पाएंगे और
मृत्यु से बार—बार
गुजरेंगे।
जो
व्यक्ति जाग
जाता है, उसके
जन्म और
मृत्यु दोनों
खो जाते हैं।
जो आदमी
परमात्मा के
साथ एक हो
जाता है: फिर न
आना है, न
जाना है। इसे
ही पूरब ने
कहा है, आवागमन
से मुक्ति; आने—जाने से
मुक्ति। उसकी
यात्रा
समाप्त हो
जाती है; मंजिल
आ गई।
तीन
लोक नौ खंड
में, गुरु
ते बड़ा न कोय।
करता
करै न करि
सके, गुरु करै सो
होय।।
बड़ा
कठिन वचन है।
अगाध श्रद्धा
हो तो ही समझ में
आ सकता है।
आस्तिक भी
थोड़ा डरेगा:
ये कबीर थोड़ा
सीमा के बाहर
जा रहे हैं!
आस्तिक भी
कहेगा कि ठीक
था कि गुरु पर
श्रद्धा हो; लेकिन
कबीर अब यह कह
रहे हैं, तीन
लोक नौ खंड नौ
खंड में गुरु
ते बड़ा न कोय।
पर समग्र
अस्तित्व में
गुरु से बड़ा
कोई भी नहीं।
इसलिए हम गुरु
कहते हैं।
गुरु कहते
हैं। गुरु का
अर्थ है, जिससे
भारी और कुछ
भी नहीं।
करता करै न करि
सके—और
परमात्मा भी
करना चाहे, तो
भी न कर पाए।
गुरु करै
सो होय—और
गुरु जो करना
चाहे, वह
हो जाए। क्या
मतलब
परमात्मा के
ऊपर गुरु को
रखने में? परमात्मा
के साथ रखने
तक भी हम जा
सकते हैं कि चलो
ठीक, हमें
पता नहीं
श्रद्धा का, होगा कि
गुरु भी
परमात्मा है—लेकिन
परमात्मा के
ऊपर!...कबीर अतिशयोक्त्ति
करते मालूम
पड़ते हैं।
नहीं, कबीर
यह कह रहे हैं
कि साधन साध्य
से बड़ा है।
क्योंकि साधन
के बिना तुम
साध्य तक तभी
न पहुंच
सकोगे। मार्ग
मंजिल से बड़ा
है, क्योंकि
मार्ग के बिना
तुम मंजिल तक
कभी न पहुंच
सकोगे। और जब
मार्ग के बिना
मंजिल मिल ही
नहीं सकती, तो कौन बड़ा
है? जब
मार्ग बिलकुल
अपरिहार्य है,
उसके बिना
इंच भर गति
नहीं तो मंजिल
सिर्फ मार्ग
का आखिरी छोर
हुआ। जब सीढ़ी
के बिना तुम
चढ़ ही न सकोगे
छप्पर पर, तो
सीढ़ी छप्पर से
बड़ी हो गई।
करता
करै न करि, सके,
गुरु करै
सो होय।
और
परमात्मा भी
जो करना चाहे, तो
न कर पाए, वह
भी गुरु करना
चाहे तो कर
सकता है।
क्यों? उसके
कई कारण हैं।
समझने की कोशिश
करें।
मनुष्य
की पहली
अवस्था:
अंधकार, अज्ञान,
भटका हुआ।
परमात्मा की
अवस्था: परमज्ञान,
पहुंचा
हुआ। गुरु
दोनों के बीच—आधा
मनुष्य, आधा
परमात्मा; परमात्मा
और मनुष्य के
बीच सेतु।
परमात्मा समझ
भी नहीं सकता
तुम्हारी
तकलीफ। तुम
कितना ही रोओ—गाओ,
कितना ही चिल्लाओ, परमात्मा के
कान तुम्हारी
आवाज न सुन
सकेंगे; क्योंकि
वह कान ही
उसके पास नहीं
हैं। वह परम अवस्था
है। वहां दुख
की कोई बात
पहुंच नहीं सकती।
वह परम
शून्यता है।
वहां तुम
चिल्लाते रहोगे,
आकाश में गूंजेगी
बात और खो
जाएगी, वहां
से कोई उत्तर
न आएगा। वह
आखिरी अवस्था
है। उससे
तुम्हारा कोई
संबंध नहीं
जुड़ सकता।
लेकिन
गुरु मध्य में
है। वह आधा
तुम जैसा है; आधा
परमात्मा
जैसा है। वहां
दोनों मिलते
हैं। वह जैसे
संपर्क की जगह
है, जहां
दी सीमाएं
मिलती हैं।
जहां
तुम्हारा अंत
होता है और
जहां
परमात्मा
शुरू होता है—उस
सीमा पर थोड़ी
बात हो सकती
है। तुम गुरु
से कुछ कह
सकते हो। वह
समझेगा।
क्योंकि वह भी
वहीं से गुजरा
है, जहां
से तुम गजरे
हो। उन्हीं
कष्टों में, उन्हीं
चिंताओं और
दुखों में वह
भी जीया है, जिनमें तुम
अब जी रहे हो।
जो तुम्हारा
वर्तमान है, वह उसका
अतीत था। जो
तुम्हारा
भविष्य है वह
भी उसका
वर्तमान है।
वह वहां खड़ा
है, जहां
से परमात्मा
और तुम जुड़े
हो, ठीक
मध्य में। तुम
कुछ कहोगे, अगर गुरु ने
सुन लिया, तो
गुरु के
द्वारा
परमात्मा और
तुम जुड़े हो, ठीक मध्य
में। तुम कुछ
कहोगे, अगर
गुरु ने सुन
लिया, तो
गुरु के
द्वारा
परमात्मा ने
सुन लिया। तुम
कुछ निवेदन
करोगे, तुम्हारी
भाषा उसकी समझ
में आएगी, क्योंकि
द्वारा
परमात्मा ने
सुन लिया। तुम
कुछ निवेदन
करोगे, तुम्हारी
भाषा उसकी समझ
में आएगी, क्योंकि
तुम्हारी
भाषा वह बोलता
है। परमात्मा
को तुम्हारी
भाषा बिलकुल
समझ में नहीं
आ सकती। कौन
सी भाषा समझेगा
परमात्मा? कैसे
समझेगा?
दूसरे
महायुद्ध में
ऐसा हुआ कि एक
जर्मन सैनिक
और एक अंग्रेज
सैनिक की बात
हो रही थी।
दोनों का मिलन
हो गया युद्ध
के क्षेत्र
में। अंग्रेज
सैनिक ने कहा
कि हमारी जीत
सुनिश्चित है, तुम
व्यर्थ कोशिश
कर रहे हो। उस
जर्मन ने पूछा
कि सुनिश्चित
होने का कारण?
तो अंग्रेज
ने कहा, हम
रोज
प्रार्थना
करते हैं।
परमात्मा
हमारे साथ है।
तो उस जर्मन
ने कहा कि
प्रार्थना तो
हम भी करते
हैं, और
परमात्मा
हमारे साथ है।
अंग्रेज
हंसने लगा।
उसने कहा, तुम
पागल हो। तभी
तुमने सुना कि
परमात्मा जर्मन
भाषा समझता है?
परमात्मा
अंग्रेजी
भाषा समझता
है।
इसमें
तुम्हें हंसी
आती है। लेकिन
सभी कौमों का
यही दावा है।
हिंदुस्तान
के पंडितों से
पूछो, वे सहते
हैं, संस्कृत
देव—भाषा है।
उसका मतलब
क्या होता है?
उसका मतलब,
परमात्मा
इसको समझता
है। हिंदी बोल
रहे हो...बेकार!
संस्कृत! वह भी
बिलकुल शुद्ध!
क्योंकि
परमात्मा
व्याकरण का बड?ा आग्रही है!
इसलिए तो काशी
के पंडित कबीर
की फिकर नहीं
किए; अंट—संट
भाषा बोलता
है। काशी के
पंडितों ने
कबीर की भाषा
को नाम ही दे
दिया, सधुक्कड़ी।...आदमी की
नहीं, साधुओं
की। जिनका कोई
ठिकाना नहीं,
कुछ भी बोल
रहे हैं! कबीर
फारसी के शब्द
भी उपयोग कर
लेते हैं, संस्कृत
भी कर लेते
हैं, पाली
के भी उपयोग
कर लेते हैं—सब
का घोल—मेल कर
देते हैं।
परमात्मा भी
दिक्कत में
पड़ता होगा, दस—पंद्रह
व्याख्याकार
रखने पड़ते
होंगे। यह कबीर
क्या बक रहा
है, इसका
मतलब निकालो!
परमात्मा, तुम्हारी
भाषा कोई भी
हो, न समझ
पाएगा—चाहे
संस्कृत, चाहे
अंग्रेजी, कुछ
भी हो। आदमी
की भाषा
परमात्मा
कैसे समझ सकता
है? आदमी
की भाषा आदमी
समझ सकता है।
लेकिन आदमी ही
अगर समझे तो
सहायता क्या
करेगा?
गुरु
ऐसा आदमी है
जो तुम्हारी
भाषा भी समझ
सकता है; और एक
तरफ से जिसका
जीवन और प्राण
परमात्मा में
लीन हो गया।
एक हाथ
तुम्हारे हाथ
में और एक हाथ
परमात्मा के हाथ
में। इसलिए
तुम जो कहोगे,
वह समझेगा।
तुम जो कहोगे,
वह करेगा।
वह चाहेगा कि
तुम्हारी
मांग उचित है,
तो कुछ हो
सकता है।
क्योंकि
दूसरा हाथ
उसका परमात्मा
का हाथ है। वह
दोनों है।
इसलिए
कबीर कहते हैं, मैं
भी सहमत हूं।
अतिशयोक्ति
नहीं है यह
बात, बिलकुल
सही है।
करता
करै न कर
सके, गुरु करै सो
होय।
गुरु
के सामने दाता
नहिं, जाचक
शिष्य समान।
तीन
लोक की संपदा, सो
गुरु दीन्हा
दान।।
गुरु
के जैसा
देनेवाला
नहीं है। गुरु
का अर्थ ही है जो
दिए चला जाए।
पर वह जो दे
रहा है, बड़ा
सूक्ष्म है।
अगर तुम
क्षुद्र को
मांगने गए हो
तो वहां से
खाली हाथ
लौटोगे। अगर
तुम विराट को
मांगने गए हो
तो मिलेगा।
गुरु
के समान दाता
नहीं! लेकिन
उसका दान तभी
संभव हो सकता
है,
जब शिष्य
भिखारी की तरह
आए। तुम अगर अकड़े हुए
आए, तुम
अगर ऐसे आए, जैसे कि तुम
हकदार हो, जैसे
कि तुम्हें
मिलना ही
चाहिए, तो
तुम चूक
जाओगे।
जाचक
शिष्य समान!
शिष्य तो ऐसा
हो,
परम भिखारी!
शिष्य तो ऐसा
हो जैसे उसका
हृदय सिर्फ भिक्षापात्र
है! परम याचक!
तो गुरु से
मेल बनता है।
क्योंकि परम
दाता से परम
याचक का ही
मेल बन सकता
है। वह उलीचता
हो, और तुम
उलटे घड़े
की भांति हो, तो सब
व्यर्थ चला
जाएगा।
भिक्षुक
का अर्थ है
जिसका घड़ा
सीधा है।
ऐसा
हुआ,
चीन में एक
बहुत बड़ा
ज्ञानी हुआ, लीहत्जू—लाओत्से को
परंपरा, शिष्यों
में एक। एक
शिष्य उसके
पास आया, कुछ
पूछा। लीहत्जू
ने कहा, समय
आने पर जवाब
देंगे, तैयारी
चाहिए! पूछते
तो हो, लेने
की हिम्मत है?
दे तो दूंगा,
दब तो न
जाओगे उसमें?
पता है, क्या
मांगते हो? शिष्य थोड़ा
डर गया। वह
साल भर चुप ही
रहा। लेकिन
उसने देखा तो
उत्तर दिया ही
नहीं इस आदमी
ने। साल भर
बाद छोड़कर चला
गया। दूसरे गुरु
के पास
पहुंचा। और
उसने कहा कि
साल भर लीहत्जू
के पास था, कुछ
मिला नहीं, इसलिए यहां
आया हूं। उसने
कहा, तू
अभी यहां से
चला जा।
क्योंकि तेरे
पास पात्र ही
नहीं है। जब लीहत्जू न
भर सका, मैं
गरीब आदमी हूं,
मैं तुझे
क्या दूंगा? लीहत्जू के पास से
खाली हाथ लौट आया,
पागल! तो
मेरे पास तो
कुछ भी नहीं
है। तू जा! तू भाग!
नहीं तो तू
लोगों से
कहेगा कि मेरे
पास साल भर
रहा और बेकार
गया।
ऐसी
बात सुनकर वह
फिर लीहत्जू
के पास वापिस
लौटा। उसने
कहा कि बड़ी
हैरानी की बात
है। अब मैं
क्या करूं? एक—दो
जगह गया, उन्होंने
कहा, जब लीहत्जू
के पास गए, अब
उस विराट
सरोवर के पास
से प्यासे लौट
आए, तो हम
तो छोटे डबरे
हैं। हम
तुम्हारे काम
न पड़ेंगे। तो
मैं वापिस आता
हूं।
तो लीहत्जू
ने कहा, सुन, मैं अपने
गुरु के पास
आया। तो तीन
साल तो मेरे गुरु
ने मेरी तरफ
देखा ही नहीं।
पूछने का सवाल
ही न उठा। क्योंकि
वह देखे नहीं,
वह सबकी तरफ
देखे वह मुझे
छोड़ दे! और वह
इस तरह छोड़ दे,
जैसे वहां
खाली जगह है।
इशारा मैं समझ
गया कि मुझे
खाली जगह की
भांति हो जाना
चाहिए, इसलिए
मुझे नहीं
देखता।
अगर
तुम होते—लीहत्जू
ने कहा, तो
तुम भाग गए
होते।
तुम्हारे
अहंकार को चोट
लगती कि मैं
आया हूं, और
मुझे देखा
नहीं जा रहा
है! तीन साल
बाद जब मैं
बैठा रहा, और
धीरे—धीरे
राजी हो गया
कि ठीक, जो
उसकी मरजी, तो एक दिन
उसने मेरी तरफ
देखा—आनंद की
वर्षा हो गई!
इतना पुलकित
हो गया, जैसा
मैं कभी नहीं
था। क्योंकि
तीन साल, चुपचाप
बैठे रहता ऐसे
जैसे हूं ही
नहीं...।
वह
देखे ही नहीं!
औरों से बात
करे,
औरों से चीत
करे, पूछेत्ताछे,
मेरी तरफ
देखे ही नहीं।
और एक दो दिन
की बात नहीं, तीन साल का
लंबा वक्त है!
पर पर्याप्त
हो गया, मैं
भर गया। फिर
तो फिकर ही न
रही कि वह
देखता है कि
नहीं देखता।
तीन साल और
बीत गए। पहले
उसने मुझे
शून्य होने का
इशारा किया। और
जब उसने आंख
मेरी तरफ देखी
तो मैं समझ
गया उसका
इशारा क्या, कि अब मुझे
देखनेवाला
द्रष्टा हो
जाना चाहिए।
जैसा उसने
देखा, ऐसे
ही अब मैं
अपने को देखूं।
तीन साल मैं
अपने को देखता
रहा। तब एक
दिन उसने नजर
मेरी तरफ की और
पहली दफा वह
मुस्कुराया।
धन्य मेरे
भाग्य! मैं भर
गया। अब मैं
समझ गया उसका
मतलब—शून्य हो
जाओ, साक्षी
हो जाओ, आनंदित
हो जाओ। तब
मैं अकारण
प्रसन्न होने
लगा। लोग समझे
हो गया। तीन
साल बाद वह
मेरे पास गया।
उसने मेरे सिर
पर हाथ रखा।
उसने कहा, तेरी
साधना पूरी हो
गई। अब मुझमेंत्तुझमें
कुछ छेद न
रहा। अब तू जा,
दूसरों को
जगा! तुझे मिल
गया, अब
बांट!
और एक
तू है— लीहत्जू
ने कहा कि साल
भर बैठा तो
जरूर रहा, लेकिन
क्षण भर को भी
शांत न हुआ।
और तेरे मन में
वही प्रश्न
गूंजता रहा कि
कब उत्तर
मिलेगा।...जैसे
उत्तर
महत्वपूर्ण
था, और
गुरु कम
महत्वपूर्ण
था!
तुम्हारे
प्रश्न
तुम्हें बहुत
महत्वपूर्ण मालूम
पड़ते हैं—अहंकार
के कारण।
उत्तर चाहिए—वह
भी अहंकार की
मांग है।
लेकिन जिससे
तुम उत्तर
पाना चाह रहे
हो,
जब तक तुम
उसने देखोगे,
तब तक कोई
उत्तर नहीं
मिल सकता।
सत्संग का यही
अर्थ है।
गुरु
के पास बैठ
जाना; उसकी जब
मर्जी होगी, जब तुम
तैयार होओगे—वह
भर देगा। उसके
हाथों में
अपने को छोड़
देना।
गुरु
समान दाता
नहिं, जाचक
शिष्य समान।
तीन
लोक की संपदा, सो
गुरु दीन्हा
दान।।
गुरु
कुम्हार सिष
कुंभ है, गढ़—गढ़
काढ़ै
खोट।
अंतर
हाथ सहार दे, बाहर
बाहै
चोट।।
बड़ा
प्यारा वचन
है! कुम्हार
को देखा कभी? घड़े को गढ़ता है।
गुरु कुम्हार सिष कुंभ
है—और शिष्य
को तैयार कर
रहा है; वह
एक कुंभ कभी
भांति है; एक
घड़े की
भांति है। वह
कुम्हार है।
और क्यों
तुम्हें घड़े
की तरह बना
रहा है?—ताकि
तुम भरे जा
सको। घड़ा तो
खालीपन है। घड़े की
दीवाल घड़ा
नहीं है। घड़ा
तो खालीपन है।
वह जो शून्य
भीतर है, वही
घड़ा है। वह
तुम्हारे
चारों तरफ एक
पतली मिट्टी
की दीवाल उठा
रहा है। और
भीतर एक शून्य
निर्मित कर
रहा है।
गुरु
कुम्हार सिष
कुंभ है, गढ़—गढ़ काढ़ै
खोट। और वह जो—जो
कमी है, और
जहां—जहां जरूरत
है, जो—जो
हटाना है, जो—जो
गढ़ना है, उस श्रम में
लगा है।
अंतर
हाथ सहार दे...।
कुम्हार को
देखने जैसा है।
क्योंकि वह
भीतर से तो
सहारा देता है
घड़े को, भीतर
से तो मिट्टी
को सहारा देता
है, और
बाहर से चोट
करता है। गुरु
की सारी
प्रक्रिया
यही है। वह
भीतर से तुम्हें
सहारा देता है,
बाहर से
तुम्हें चोट
देता है। और
अगर तुमने बाहर
की ही चोट रखी
तो तुम भाग
खड़े होओगे।
अगर तुम्हें
भीतर का सहारा
दिख गया, तो
बाहर की चोट
बड़ी प्रीतिकर
हो जाएगी। तुम
धन्यभागी
समझोगे कि
बाहर से चोट
दी, क्योंकि
दोनों जरूरी
हैं। भीतर के
सहारे से घड़े
की दीवाल
निर्मित होगी,
अन्यथा गिर
जाएगी। बाहर
की चोट से
मजबूत होगी; अन्यथा पहली
ही प्रक्रिया
पानी भरने की—और
घड़ा फूट
जाएगा। बाहर
से चोट देनी
जरूरी है, मजबूती
के लिए। सब
तरह की चोट
देगा। वह जो
भी चोटें बाद
में पड़ सकती
हैं, जिनसे
घड़ा टूट जाता,
वह सब चोट
गुरु देगा।
कठिन यही है; क्योंकि
जैसे ही चोट
लगती है, शिष्य
भाग खड़ा होता
है। वह सोचता
है, चोट लग
गई, मेरी
तरफ देखा नहीं,
मुझे कहा
नहीं कि आओ, बैठो मुझे
सम्मान न दिया
या कुछ ऐसी
बात कहीं कि
मेरा अपमान हो
गया। या कुछ
इस ढंग से
उत्तर दिया कि
चोट मार दी।
बाहर
से चोट जरूरी
है,
अन्यथा तुम
मजबूत न हो
सकोगे। और जब
वर्षा होगी
पूर्ण की, तो
तुम फूट
जाओगे। भीतर
से सहारा...।
गुरु
के दोनों हाथ
हैं। वह भीतर
से तुम्हें सहारा
देगा ताकि तुम
अभी भी न टूट
जाओ;
बाहर से चोट
देगा ताकि तुम
कभी भी न
टूटो।
गुरु
कुम्हार सिष
कुंभ है; गढ़ गढ़
काढ़ै
खोट।
अंतर
हाथ सहार दे, बाहर
बाहै
चोट।।
गुरु
को सिर पर राखिए, चलिए
आज्ञा माहिं।
कहै बकीर तो
दास को, तीन
लोक डर
नाहिं।।
गुरु
को सिर पर
रखिए, चलिए
आज्ञा माहिं।
क्या
मतलब? गुरु को
सिर पर रखना
आसान, आज्ञा
मान कर चलना
कठिन। लेकिन
आज्ञा मान कर
चना ही सिर पर
रखने का अर्थ
है। बहुत
सुविधापूर्ण
है कि गुरु के
चरणों में सिर
रख दिया। उससे
कुछ फर्क नहीं
पड़ता। भीतर तो
तुम झुकते ही
नहीं, बाहर
ही झुक जाते
हो। भीतर तो
तुम अकड़े
ही रहते हो।
एक घर
में मैं
मेहमान था, और
गृहिणी अपने
बच्चे को डांट
रही थी। वह
काफी शोरगुल,
उपद्रव मचा
रहा था। आखिर
उसने कहा कि
अब बहुत हो
गया, जाओ, बैठ जाओ उस
कुर्सी पर, इसी वक्त।
और बच्चे समझ
जाते हैं कि
कब सीमा आ गई।
तो वह जाकर
कुर्सी पर बैठ
गया। और वहां
से घूर कर मां
को देखता रहा।
उसने कहा, अच्छा,
कोई बात
नहीं; बाहर—बाहर
बैठे हैं, भीतर
तो हम खड़े ही
हैं।
बाहर—बाहर
झुकना बहुत
आसान है। बाहर—बाहर
समन बताना
बहुत आसान है।
आज्ञा मानकर
चलना बहुत
कठिन है, क्योंकि
वह भीतर झुकना
है।
गुरु
जो कहो, आज्ञा
मानने का अर्थ
है कि उसमें
तुम तर्क मत लगाना;
क्योंकि
तुमने तर्क
लगाया, सोचा,
फिर माना, तो तुम अपनी
आज्ञा मान रहे
हो, गुरु
की नहीं।
तुम्हारी
बुद्धि ने कहा,
ठीक है, वह
तुमने किया।
लेकिन अगर
बुद्धि
तुम्हारी यह
भी कहे कि ठीक
नहीं है, तब
भी तुम आज्ञा
गुरु की ही
मानना। तभी तो
बुद्धि टूटेगी
और गिरेगी। जब
तुम बुद्धि की
ही सुनते
जाओगे, तो
तुम सिर से
नीचे न उतर सकोगे।
हृदय तक
तुम्हारी
जड़ें, न
पहुंच
पाएंगी।
गुरु
बहुत बार ऐसी
बात तुम्हें
करने को कहेगा, जिसे
वह भी जानता
है कि वह
अतक्र्य है, जिसे वह भी
जानता है कि
बुद्धि राजी न
होगी; जिसे
वह भी
भलीभांति
जानता है कि
कोई भी साधारण
आदमी कहेगा, क्या पागलपन
है!
गुरजिएफ
अपने शिष्यों
को ऐसी आज्ञाएं
देता था जो
बिलकुल
बुद्धिहीन
हैं। एक आदमी
आया। उसने कभी
शराब नहीं पी।
सच्चरित्र
आदमी है, शाकाहारी
है। और उससे
गुरजिएफ ने
कहा कि तू मांस
खा और शराब
पी।
…….साफ
बात है कि वह
आदमी पागल है।
और यह आदमी
चौंका होगा।
उसने कहा, क्या
वह रहे हैं आप? वह
आदमी भाग खड़ा
हुआ। गुरजिएफ
के एक शिष्य
ने पूछा कि
क्या प्रयोजन
था? गुरजिएफ
ने कहा कि
प्रयोजन सीधा
और साफ है: यह आदमी
मांसाहार के
विरोध में है;
यह आदमी
शराब के विरोध
में है—और
मांसाहार न
करने, और
शराब न पीने
के कारण इसने
भयंकर अहंकार
को जन्म दे दिया
है: मैं
पवित्र! मैं
नैतिक! मैं
धार्मिक! मैं शाकाहारी।
यह अकड़ तोड़नी
पड़ेगी।
शाकाहारी
आदमी आए तो
गुरजिएफ कहता
है,
यह मांस खा
लो! सारी
बुद्धि कहेगी
कि भ्रष्ट करने
का उपाय है, यह कोई गुरु
है? लेकिन
कुछ रुक जाते
थे, और
गुरु ने कहा, मांसाहार कर
लेते थे।
क्योंकि जब
गुरु ने कहा
तो ठीक। फिर
दुबारा नहीं
कहता था उनसे
वह कभी। कभी
तो ऐसा भी हुआ
है कि जैसे ही
शिष्य मांस को
उठाने गया, उसने रोक
दिया कि बस, हो गया, बात
हो गई, कोई
मांसाहार का
प्रयोजन नहीं
है।
महिलाएं
आतीं
गुरजिएफ के
पास,
तो वह कहता
कि पहले ये सब जेवरात उतार
दो, मुझे
दे दो।
एक महिला आई—एक
बहुत बड़ी
संगीतज्ञ
महिला। बहुत
धन था, बड़े
बहुमूल्य जेवरात
थे। और जब
गुरु के पास
गई तो सब जेवर
पहन कर गई थी, जैसा कि लोग
मंदिर में
जाते हैं।
वहां इतने लोग
देखनेवाले
होंगे...! उसको
पता भी नहीं
था। और
गुरजिएफ ने कहा,
बात पीछे, यह रूमाल
रखा है, उसमें
सब तेरे जेवर
रख दे। उस
स्त्री ने
अपने सब जेवर
उतर के रख
दिए। गुरजिएफ
ने रूमाल बांध
कर अपने कोट
में डाल दिया।
बातचीत हुई
स्त्री चली
गई। रात
गुरजिएफ ने
रूमाल वापिस
पहुंचा दिया।
स्त्री चकित
हुई, क्योंकि
गहने उतने ही
नहीं थे, ज्यादा
थे। गुरजिएफ
ने कुछ और
गहने उसमें
डाल दिए थे।
पंद्रह
दिन बाद एक
दूसरी महिला
आश्रम में आई, उसने
कहा कि मैंने
सुना है कि
गुरजिएफ
अक्सर गहने
मांग लेते है,
तुमसे भी
मांगे थे? उसने
कहा, मुझसे
भी मांगे थे।
लेकिन रात
वापिस पहुंचा
दिया। उसने
कहा, तब
कोई भय नहीं।
वह गई।
गुरजिएफ ने
जैसा ही गहने
मांगे, सब
उसने उतार के
रख दिए। और
चूंकि उसे यह
भी पता चल गया
था कि ज्यादा
भी गुरजिएफ ने
भेजे हैं, तो
जितने उकसे
पास थे, सब
ले आई थी।
गुरजिएफ हड़प
गया! कभी न
भेजे वापिस!
गुरु
को तुम धोखा न
दे सकोगे। वह
असंभव है। श्रद्धा
का अर्थ है, अब
जो तू कहेगा, वह हम पूरा
करेंगे। कई
बार बड़ी अदभुत
घटनाएं घटी
हैं।
मारपा
अपने गुरु के
पास गया—तिब्बत
का एक फकीर
सीधा आदमी था।
लेकिन वह इतना
सीधा और सरल
था कि दूसरे
शिष्य शंकित
हो गए कि
जल्दी ही वह
गुरु का
उत्तराधिकारी
हो जाएगा। था
भी वह
उत्तराधिकारी, हुआ
भी। शिष्यों
ने अड़चन डालनी
शुरू की। शिष्यों
ने मारपा को
एक दिन कहा कि
गुरु ने आज्ञा
दी...। गुरु को
पता ही नहीं
था। गुरु ने
आज्ञा दी है
कि अगर
तुम्हारी
श्रद्धा सच है,
तो इस पहाड़
से कूद जाओ।
मारपा कूद
गया। शिष्य भागे,
नीचे
पहुंचे। बड़ी
भयंकर खाई थी।
उसमें बचने का
कोई उपाय ही
नहीं था। और
वह एक वृक्ष के
नीचे ध्यान कर
रहा था।
उन्होंने
समझा कि संयोग
ही होगा। यह
हो ही नहीं
सकता, संयोग
की बात है।
मकान
में आग लगी थी, उन्होंने
कहा कि गुरु
कि आज्ञा है, भीतर प्रवेश
कर जाओ। उसने
गुरु से जा कर
कभी नहीं पूछा
कि तुम ये आज्ञाएं
भेजते हो कि
यही लोग करवा
रहे हैं! इतनी
भी क्या
अश्रद्धा!
उसकी मरजी! वह
आग में घुस
गया। उसके
वस्त्र तक न
जले।
नदी पर
कर रहे थे, शिष्यों
ने कहा, कूद
जाओ। तुम तो
पानी पर चल
सकते हो; क्योंकि
कहा है
शास्त्रों
में कि जिसको
श्रद्धा अटूट
है, वह
पानी पर चलता
है। मारपा
पानी पर चल
गया। तब संयोग
मानना
मुश्किल हो
गया।
उन्होंने
गुरु को जा कर
कहा कि
महाराज!
हैरानी की बात
है, माफ
करें, हम
आपके नाम से
इसको सताते
रहे। लेकिन
आपके नाम की
महिमा अपार
है! यह तो आग
में चला गया—जला
नहीं; पहाड़
से कूद गया—मरा
नहीं; पानी
पर चल गया।
गुरु
को अकड़ हुई।
गुरु कोई
ज्ञान को
उपलब्ध व्यक्ति
नहीं थे।
सच्चरित्र था, आचरणवान
था। सब तरह के
योग—साधन किए
थे। लेकिन अभी
पहुंचा नहीं
था। उसने कहा,
जब मेरे नाम
मारपा चला गया,
तो मैं
खुद...। तो उसने
अपने शिष्यों
से कहा, इसमें
क्या बात है, मारपा की
क्या खूबी? मेरे नाम का
रहस्य...!
एक दिन
सब नाव पर चल
रहे थे, तो
शिष्यों ने
कहा कि आज आप
पानी पर चलें।
उसने कहा, इसमें
क्या कठिनाई
है!...वह चला और
डूब गया। बामुश्किल
उसको निकाला
जा सका।
मारपा
गुरु के नाम
के कारण नहीं
चल रहा था, मारपा
श्रद्धा के
कारण चल रहा
था।
अगर
तुम ठीक समझो
तो श्रद्धा ही
गुरु है। गुरु
तो बहाना है, खूंटी
है। उस बहाने
तुम्हारे
भीतर श्रद्धा
जग जाए। तो
कभी—कभी ऐसा
भी अनहोना हुआ
है कि गुरु तो
गुरु था ही
नहीं और शिष्य
पहुंच गया। और
ऐसा तो रोज
होता है कि
गुरु गुरु
था और शिष्य
नहीं पहुंचे।
श्रद्धा
ही सूत्र है।
आज्ञा
का अर्थ है, वह
जो कहे, तुम्हारी
बुद्धि को
संगत लगे, असंगत
लगे, तुम
अपना हिसाब मत
लगाना। तुम
बुद्धि को
कहना कि तू
किनारे हट, गुरु की सुनूंगा।
और जैसे ही
गुरु को सुनने
की क्षमता बढ़ेगी,
वैसे ही
वैसे गुरु के
सामने झुकने
की क्षमता बढ़ेगी।
गुरु सिर पर
हो जाएगा। जिस
दिन तुम्हारी
बुद्धि सिर से
उतर जाएगी, गुरु
तुम्हारी
बुद्धि हो
जागा। वह
तुम्हारा विवेक
बन जाएगा। यही
अर्थ है—गुरु
को सिर पर
रखिए, चलिए,
आज्ञा आहिं।
कहे कबीर तो
दास को तीन
लोक डर
नाहिं।।
गुरु
गोविन्द दोउ
खड़े, काको लागूं
पाया।
बलिहारी
गुरु आपने, जिन
गोविन्द दियो
बताय।।
इस
सूत्र के दो
अर्थ हो सकते
हैं—दोनों
प्रीतिकर
हैं।
गुरु
गोविन्द दोउ
खड़े काको लागूं
पाय। फिर ऐसी
घड़ी आई—कबीर
अपना अनुभव
कहते हैं कि
गुरु गोविन्द
दोनों सामने
खड़े थे। ऐसी
घड़ी आएगी ही
एक दिन। गुरु
तो द्वार है:
आज नहीं कल, गोविन्द
प्रकट होगा।
गुरु तो मार्ग
है: आज नहीं कल,
मंजिल
आएगी। और पहली
घड़ी में तो
ऐसा होगा कि गुरु
भी मौजूद होगा
और गोविन्द भी
मौजूद होंगे।
तब ऐसी घड़ी
में किसके पैर
छुऊं।
तो
कबीर कहते
हैं: बड़ी
दुविधा में
खड़ा हो गया। गुरु
गोविन्द दोउ
खड़े,
काको लागूं पाय?
पहले किसके
पैर छुऊं!
दूसरे
वचन के दो
अर्थ हो सकते
हैं। पहला
अर्थ—बलिहारी
गुरु आपने, जिन
गोविन्द दियो
बताय। तो
कबीर कहते हैं
कि बलिहारी
गुरु
तुम्हारी कि
जब मैं दुविधा
में था, तुमने
तत्क्षण
इशारा कर दिया
कि गोविंद के
पैर छुओ।
बलिहारी गुरु
आपने, जिन गेविन्द
दिये बताय।...जैसे
ही मैं दुविधा
में था, आपने
इशारा कर दिया
कि गोविन्द के
पैर छुओ, क्योंकि
मैं तो यहां
तक था। मैं तो
राह पर लगे हुए
मील के पत्थर
की तरह था, जिसका
इशारा था: आ
गया, मंजिल
आ गई, अब
मेरा कोई काम
नहीं। अब तुम
गुरु को छोड़ो,
गोविन्द के
पैर छू लो।
एक तो
यह अर्थ है।
साधारणतः यही
अर्थ किया जाता
है। दूसरा
अर्थ तो और भी
कीमती है। और
मेरी प्रतीति
दूसरे अर्थ के
साथ है, क्योंकि
पहले जो वचन
हैं, वे
दूसरे अर्थ के
साथ सही होंगे
दूसरा
अर्थ है—गुरु
गोविन्द
दोनों खड़े, काको लागूं
पाय। बलिहारी
गुरु आपने, जिन गोविन्द
दियो बताय।।
दुविधा में
हूं, किसके
पैर लगूं।
गुरु गोविन्द
दोउ खड़े हैं।
फिर मैंने
गोविन्द को
छोड़ा गुरु के
ही पैर छुए; क्योंकि
उसकी ही
बलिहारी है, उसी ने
गोविन्द को
बताया है। यही
अर्थ ठीक होगा।
क्योंकि पूरे
आगे के सूत्र
जो कहे हैं, वे कह रहे
हैं:
करता
करै न करि
सके, गुरु करै सो
होय।।
परमात्मा
से ऊपर कबीर
जब गुरु को रख
रहे हैं, तो
दूसरा ही अर्थ
संगत है। और
होना भी वही
चाहिए; क्योंकि
इस आखिरी पड़ाव
पर, जहां
से गुरु से
विदा होंगे, जहां से
गोविंद कि
यात्रा शुरू
होगी, यही
उचित है कि
गुरु के ही
पैर छुए जाए।
उस आखिरी पड़ाव
पर, वह
विदाई का क्षण
है। उसके बाद
गुरु नहीं
होगा, गोविंद
ही होंगे। उस
दिन बीच का
सेतु हट जाएगा।
उस दिन बीच
में जो अब तक
हाथ पकड़ कर
लाए थे, वह
विदा हो
जाएगा। उस
विदाई के क्षण
में यही उचित
है कि कबीर ने
कहा कि मैंने
फिर गुरु के
ही पैर, छुए,
क्योंकि
बलिहारी उसी
की है, उसके
बिना यहां तक
न आ सकता, उसके
कारण ही यहां
तक आया हूं।
और यही बात
आगे के सूत्र
से भी सघन
होती है।
हरि रूठै गुरु
ठौर है, गुरु
रूठै
नहीं ठौर।
हरि
रूठ जाए तो
उपाय है; क्योंकि
हम गुरु के
पास जा सकते
हैं। हरि रूठै
गुरु ठौर है, गुरु रूठै
नहिं ठौर। और
गुरु रूठ जाए
तो कोई उपाय
नहीं; क्योंकि
गुरु के बिना
हरि के पास तो
जा नहीं सकते।
हरि बिना गुरु
के पास जा
सकते हैं, गुरु
के बिना हरि
के पास नहीं
जा सकते।
हरि रूठै गुरु
ठौर है, गुरु
रूठै
नहिं ठौर।
शिष्य
की समग्र
साधना गुरु की
छाया बन जाने
की है। वह
समग्र समर्पण
है। वह अपन—आप
को बिलकुल खो
देना है। तभी
तो गुरु
तुम्हें
तैयार कर
पाएगा—उस पर
घटना के लिए
जहां
तुम्हारा आपा
परमात्मा में खोएगा।
गुरु तैयार
कैसे करेगा? अगर
ठीक से समझो
तो गुरु उस
परम घटना की
प्राथमिक
तैयारी है—उस
परम अनुभव की,
जहां आत्मा
परमात्मा में
खोती है। गुरु
में तुम खो कर
तैयारी करते
हो। वह पूर्व
प्रशिक्षण
है।...जब पूरा
हो जाएगा, उसी
क्षण द्वार
खुल जाता, उसी
क्षण गुरु
गोविंद दोनों
खड़े हो जाते
हैं। जहां से
गुरु विदा
होगा और
गोविंद की
यात्रा शुरू
होगी।
तो ऐसा
समझो कि तीन
यात्रा—पथ
हैं। एक है, जो
तुमने अपनी
बुद्धि से
चुना है, जो
अहंकार का पथ
है। दूसरा है,
जो परम
ब्रह्म का पथ
है। दोनों
समांतर हैं, कहीं मिलते
नहीं। तीसरी
एक बीच की गली
हैं, जो इन
समांतर पथों
को जोड़ती है, वह गुरु है।
वह तुम्हारे
अहंकार को
विसर्जित करता
है, अहंकार
से दूर ले
जाता है; निरहंकार
ब्रह्म के पास
पहुंचाता है।
जितने
तुम पिघलते हो
उतना ही
परमात्मा सघन
होता है।
जितने तुम
मिटते हो उतना
ही वह प्रकट होता
है।
लोग
पूछते हैं, परमात्मा
कहां है? उन्हें
पूछना चाहिए
कि मैं इतना
ठोस क्यों हूं?
परमात्मा
को जगह कहां
है और आने की? तुम्हारा घर
बुरी तरह भरा
है—तुमसे ही
भरा है। गुरु
खाली करेगा।
और इसके पहले
कि परमात्मा
उतर सके—परमात्मा
तो बहुत
अज्ञात है, उससे तो तुम
डर जाओगे; आज
अगर आ भी जाए
तुम्हारे
द्वार पर, तो
तुम द्वार ही
न खोलोगे। तुम
ऐसे भागोगे
वहां से अपना
घर छोड़कर कि
दुबारा घर लौट
कर न आओगे।
क्योंकि
परमात्मा तो
विराट है। वह
विराट खाई तो
तुम्हें बहुत
घबड़ा देगी, तुम चक्कर
खा जाओगे।
गुरु तुम्हें
धीरे—धीरे
राजी करेगा।
ऐसा
समझो कि सागर
में नदी गिरती
है,
तुम्हें
अपनी नाव को
सागर में ले
जाना है, तो
तुम नदी में
अपनी नाव को
छोड़ते हो, नदी
में नाव को
चलाने का
अभ्यास करते
हो। नदी में
अभ्यास हो
सकता है—खतरा
कम है। सागर
में अभ्यास
नहीं हो सकता,
खतरा बहुत
ज्यादा है।
तैरना सीखना
हो तो नदी में
सीखना उचित है,
जहां
किनारे हैं; जहां
किनारों पर
लोग हैं, तुम्हारी
आवाज पहुंच
सकती है; जहां
कोई बचा कसता
है, जहां
सुविधा हो
सकती है।
गुरु
नदी की धार
है। वह गंगा
है। उसमें तुम
तैरना सीख लो।
फिर,
धीरे—धीरे
गंगा तुम्हें
सागर में ले
जाएगी। फिर सब
किनारे छूट
जाएंगे। फिर
वहां कोई
सहारा न होगा।
वहां तुम
बिलकुल अकेले
हो जाओगे। उस
परम एकांत के
पहले, गुरु
का संग साथ
जरूरी है।
गुरु के पहले
तुम भीड़ में
हो। भीड़ यानी
अनेक, अनंत।
गुरु यानी दो,
द्वैत।
ब्रह्म यानी
एक, अद्वैत।
इसके पहले कि
तुम भीड़ से
हटो, तुम्हें
दो के लिए
राजी होना
पड़ेगा। तब दो
से भी हट
सकोगे और एक
के लिए राजी
हो जाओगे।
ठीक
कहते हैं
कबीर:
गुरु
गोविंद दोउ
खड़े काको लागूं
पाय।
बलिहारी
गुरु आपने, जिन
गोविंद दियो
बताय।।
हरि रूठै गुरु
ठौर है, गुरु रूठै नहीं
ठौर।
आज
इतना ही।
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