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मंगलवार, 8 दिसंबर 2015

सुन भई साधो--(प्रवचन--01)

माया महाठगिनी हम जानी—(प्रवचन—पहला)

दिनांक: 11 नवम्बर, 1974;
श्री ओशो आश्रम, पूना.
सूत्र:
माया महाठगिनी हम जानी।
निरगुन फांस लिए डोलै, बोलै मधुरी बानी।।
केसव के कमला होइ बैठी, सिव के भवन भवानी।
पंडा के मूरत होइ बैठी, तीरथ हू में पानी।।
जोगि के जोगिन होइ बैठी, राजा के घर रानी।
काहू के हीरा होइ बैठी, काहू के कौड़ी कानी।।
भक्तन के भक्त्ति होइ बैठी, ब्रह्मा के ब्रह्मापनी
कहै कबीर सुनो भज्ञई साधो, यह सब अकथ कहानी।।

बीर अनूठे हैं। और प्रत्येक के लिए उनके द्वारा आशा का द्वार खुलता है। क्योंकि कबीर से ज्यादा साधारण आदमी खोजना कठिन है। और अगर कबीर पहुंच सकते हैं, तो सभी पहुंच सकते हैं। कबीर निपट गंवार हैं, इसलिए गंवार के लिए भी आशा है; बे—पढ़े—लिखे हैं, इसलिए पढ़े—लिखे होने से सत्य का कोई भी संबंध नहीं है। जाति—पाति का कुछ ठिकाना नहीं कबीर की—शायद मुसलमान के घर पैदा हुए, हिंदू के घर बड़े हुए। इसलिए जाति—पाति से परमात्मा का कुछ लेना—देना नहीं है।
कबीर जीवन भर गृहस्थ रहे—जुलाहे—बुनते रहे कपड़े और बेचते रहे; घर छोड़ हिमालय नहीं गए। इसलिए घर पर भी परमात्मा आ सकता है, हिमालय जाना आवश्यक नहीं। कबीर ने कुछ भी ने छोड़ा और सभी कुछ पा लिया। इसलिए छोड़ना पाने की शर्त नहीं हो सकती।
और कबीर के जीवन में कोई भी विशिष्टता नहीं है। इसलिए विशिष्टता अहंकार का आभूषण होगी; आत्मा का सौंदर्य नहीं।
कबीर न धनी हैं, न ज्ञानी है, न समादृत हैं, न शिक्षित हैं, न सुसंस्कृत हैं। कबीर जैसा व्यक्ति अगर परमज्ञान को उपलब्ध हो गया, तो तुम्हें भी निराश होने की कोई भी जरूरत नहीं। इसलिए कबीर में बड़ी आशा है।
बुद्ध अगर पाते हैं तो पक्का नहीं की तुम पा सकोगे। बुद्ध को ठीक से समझोगे तो निराशा पकड़ेगी; क्योंकि बुद्ध की बड़ी उपलब्धियां हैं पाने के पहले। बुद्ध सम्राट हैं। इसलिए अगर धन से छूट जाए, आश्चर्य नहीं। क्योंकि जिसके पास बस है, उसे उस सब की व्यर्थता का बोध हो जाता है। गरीब के लिए बड़ी कठिनाई है—धन से छूटना। जिसके पास है ही नहीं, उसे व्यर्थता का पता कैसे चलेगा? बुद्ध को पता चल गया, तुम्हें कैसे पता चलेगा? कोई चीज व्यर्थ है, इसे जानने के पहले, कम से कम उसका अनुभव तो होना चाहिए। तुम कैसे कह सकोगे कि धन व्यर्थ है? धन है कहां? तुम हमेशा अभाव में जिए हो, तुम सदा झोपड़े में रहे हो—तो महलों में आनंद नहीं है, यह तुम कैसे कहोगे? और तुम कहते भी रहो, और यह आवाज तुम्हारे हृदय की आवाज न हो सकेगी; यही दूसरों से सुना हुआ सत्य होगा। और गहरे में धन तुम्हें पकड़े ही रहेगा।
बुद्ध को समझोगे तो हाथ—पैर ढीले पड़ जाएंगे।
बुद्ध कहते हैं, स्त्रियों में सिवाय हड्डी, मांस—मज्जा के और कुछ भी नहीं है, क्योंकि बुद्ध को सुंदरतम स्त्रियां उपलब्ध थीं, तुमने उन्हें केवल फिल्म के परदे पर देखा है। तुम्हारे और उन सुदरतम स्त्रियों के बीच बड़ा फासला है। वे सुंदर स्त्रियां तुम्हारे लिए अति मनमोहक हैं। तुम सब छोड़कर उन्हें पाना चाहोगे। क्योंकि जिसे पाया नहीं है वह व्यर्थ है, इसे जानने के लिए बड़ी चेतना चाहिए।
कबीर गरीब हैं, और जान गए यह सत्य कि धन व्यर्थ है। कबीर के पास एक साधारण सी पत्नी है, और जान गए कि सब राग—रंग, सब वैभव—विलास, सब सौंदर्य मन की ही कल्पना है।
कबीर के पास बड़ी गहरी समझ चाहिए। बुद्ध के पास तो अनुभव से आ जाती है बात; कबीर को तो समझ से ही लानी पड़ेगी।
गरीब का मुक्त होना अति कठिन है। कठिन इस लिहाज से कि उसे अनुभव की कमी बोध से पूरी करनी पड़ेगी; उसे अनुभव की कमी ध्यान से पूरी करनी पड़ेगी। अगर तुम्हारे पास भी सब हो, जैसा बुद्ध के पास था, तो तुम भी महल छोड़कर भाग जाओगे; क्योंकि कुछ और पाने को बचा नहीं; आशा टूटी वासना गिरी, भविष्य में कुछ और है नहीं वहां—महल सुना हो गया।
आदमी महत्वाकांक्षा में जीता है। महत्वाकांक्षा कल की— और बड़ा होगा, और बड़ा होगा, और बड़ा होगा...दौड़ता रहता है। लेकिन आखिरी पड़ाव आ गया, अब कोई गति नहीं—छोड़ोगे नहीं तो क्या करोगे? तो महल या तो आत्मघात बन जाता है या आत्मक्रांति। पर कबीर के पास कोई महल नहीं है।
बुद्ध बड़े प्रतिभाशाली व्यक्ति हैं। जो भी श्रेष्ठतम ज्ञान था उपलब्ध, उसमें दीक्षित किए गए थे। शास्त्रों के ज्ञाता थे। शब्द के धनी थे। बुद्धि बड़ी प्रखर थी। सम्राट के बेटे थे। तो सब तरह से सुशिक्षा हुई थी।
कबीर सड़क पर बड़े हुए। कबीर के मां—बाप का कोई पता नहीं। शायद कबीर नाजायज संतान हों। तो मां ने उसे रास्ते के किनारे छोड़ दिया था—बच्चे को—पैदा होते ही। इसलिए मां का कोई पता नहीं। कोई कुलीन घर से कबीर आए नहीं। सड़क पर ही पैदा हुए जैसे, सड़क पर ही बड़े हुए जैसे। जैसे भिखारी होना पहले दिन से ही भाग्य से लिखा था। यह भिखारी भी जान गया की धन व्यर्थ है, तो तुम भी जान सकोगे। बुद्ध से आशा नहीं बंधती। बुद्ध की तुम पूजा कर सकते हो। फासला बड़ा है, लेकिन बुद्ध जैसा होना तुम्हें मुश्किल मालूम पड़ेगा। जन्मों—जन्मों की यात्रा लगेगी। लेकिन कबीर और तुम में फासला जरा भी नहीं। कबीर जिस सड़क पर खड़े हैं—शायद तुमसे भी पीछे खड़े हैं; और अगर कबीर तुमसे भी पीछे खड़े होकर पहुंच गए, तो तुम भी पहुंच सकते हो।
कबीर जीवन के लिए बड़ा सूत्र हो सकते हैं। इसे तो पहले स्मरण में ले लें। इसलिए कबीर को में अनूठा कहता हूं। महावीर सम्राट के बेटे हैं; कृष्ण भी, राम भी, बुद्ध भी; वे सब सहलो से आए हैं। कबीर बिलकुल सड़क से आए हैं; महलों से उनका कोई भी नाता नहीं है। कहा है कबीर ने कि कभी हाथ से कागज और स्याही छुई नहीं—मसी कागज छुओं न हाथ।
ऐसा अपढ़ आदमी, जिसे दस्तखत करने भी नहीं आते, इसने परमात्मा के परम ज्ञान को पा लिया—बड़ा भरोसा बढ़ता है। तब इस दुनिया में अगर तुम वंचित हो तो अपने ही कारण वंचित हो, परिस्थिति को दोष मत देना। जब भी परिस्थिति को दोष देने का मन में भाव उठे, कबीर का ध्यान करना। कम से कम मां—बाप का तो तुम्हें पता है, घर—द्वार तो है, सड़क पर तो पैदा नहीं हुए। हस्ताक्षर तो कर ही लेते हो। थोड़ी—बहुत शिक्षा हुई है, हिसाब—किताब रख लेते हो। वेद, कुरान, गीता भी थोड़ी पढ़ी है। न सही बहुत बड़े पंडित, छोटे—छोटे पंडित तो तुम भी हो ही। तो जब भी मन होने लगे परिस्थिति को दोष देने का कि पहुंच गए होंगे बुद्ध, सारी सुविधा थी उन्हें, में कैसे पहुंचूं, तब कबीर का ध्यान करना। बुद्ध के कारण जो असंतुलन पैदा हो जाता है कि लगता है, हम न पहुंच सकेंगे—कबीर तराजू के पलड़े को जगह पर ले आते हैं। बुद्ध से ज्यादा कारगर हैं कबीर। बुद्ध थोड़े से लोगों के काम के हो सकते हैं। कबीर राजपथ हैं। बुद्ध का मार्ग बड़ा संकीर्ण है; उसमें थोड़े ही लोग पा सकेंगे, पहुंच सकेंगे।
बुद्ध की भाषा भी उन्हीं की है—चुने हुए लोगों की। एक—एक शब्द बहुमूल्य है; लेकिन एक—एक शब्द सूक्ष्म है। कबीर की भाषा सबकी भाषा है—बेपढ़े—लिखे आदमी की भाषा है। अगर तुम कबीर को न समझ पाए, तो तुम कुछ भी न समझ पाओगे। कबीर को तो समझ लिया, तो कुछ भी समझने को बचता नहीं। और कबीर को तुम जितना समझोगे, उतना ही तुम पाओगे कि बुद्धत्व का कोई भी संबंध परिस्थिति से नहीं। बुद्धत्व तुम्हारी भीतर की अभीप्सा पर निर्भर है—और कहीं भी घट सकता है; झोपड़े में, महल में, बाजार में, हिमालय पर; पढ़ी—लिखी बुद्धि में, गैर—पढ़ी लिखी बुद्धि में, गरीब को, अमीर को; पंडित को, अपढ़ को; कोई परिस्थिति का संबंध नहीं है।
ये जो वचन इस समाधि शिविर में हम कबीर के लेने जा रहे हैं, इनका शीर्षक है: सुनो भाई साधो। और कबीर अपने हर वचन में कहीं न कहीं साधु को ही संबोधित करते हैं। इस संबोधन को थोड़ा समझ लें, फिर हम उनके वचनों में उतरने की कोशिश करें।
मनुष्य तीन तरह से पूछ सकता है। एक कुतूहल होता है—बच्चों जैसा। पूछने के लिए पूछ लिया, कोई जरूरत न थी, कोई प्यास भी न थी, कोई प्रयोजन भी न था। ऐसे ही मन की खुजली थी। उठ गया प्रश्न, पूछ लिया। उत्तर मिले तो ठीक, न मिले तो ठीक, दुबारा पूछने का भी खयाल नहीं आता—छोटे बच्चे जैसा पूछते हैं। रास्ते से गुजर रहे हैं, पूछते हैं, यह क्या है? वृक्ष क्या है? वृक्ष हरे क्यों हैं? सूरज सुबह क्यों निकलता है, रात क्यों नहीं निकलता?  अगर तुमने उत्तर दिया तो कोई उत्तर सुनने के लिए उनकी प्रतीक्षा नहीं है। जब तुम उत्तर दे रहे हो, तब तक वे दूसरा प्रश्न पूछने चले गए। तुम उत्तर न दो, तो भी कुछ जोर न डालेंगे कि उत्तर दो। तुम दो या न दो, यह असंगत है, प्रसंग के बाहर है। बच्चा पूछने के लिए पूछ रहा है। बच्चा केवल बुद्धि का अभ्यास कर रहा है; जैसा पहली दफे जब बच्चा चलता है, तो बार—बार चलने की कोशिश करता है—कहीं पहुंचने के लिए नहीं, क्योंकि अभी बच्चे की क्या मंजिल है! अभी तो चलने में मजा लेता है। अभी तो पैर चला लेता है, इससे ही बड़ा प्रसन्न होता है; नाचता है कि मैं चलने लगा। अभी चलने का कोई संबंध मंजिल से नहीं है, अभी चलना अपने—आप में ही अभ्यास है। ऐसा ही बच्चा जब बोलने लगता है, तो सिर्फ बोलने के लिए बोलता है। अभ्यास करता है। उसके बोलने में कोई अर्थ नहीं है। पूछना जब सीख लेता है, तो पूछने के लिए पूछता है। पूछने में कोई प्रश्न नहीं है, सिर्फ कुतूहल है।
तो एक तो उस तरह के लोग हैं, वे बचकाने हैं जो परमात्मा के संबंध में भी कुतूहल से पूछते हैं। मिले उत्तर, ठीक; न मिले उत्तर, ठीक। और कोई भी उत्तर मिले, उनके जीवन में उस उत्तर से कोई भी फर्क न होगा। तुम ईश्वर को मानते रहो, तो तुम वैसे ही जिओगे; तुम ईश्वर को न मानो तो भी तुम वैसे ही जिओगे
यह बड़ी हैरानी की बात है कि नास्तिक और आस्तिक के जीवन में कोई फर्क नहीं होता। तुम जीवन को देख के बता सकते हो कि यह आदमी आस्तिक है या नास्तिक! नहीं, तुम्हें पूछना पड़ता है कि क्या आप आस्तिक है या नास्तिक। के व्यवहार में रत्तीभर का कोई फर्क नहीं होता। वैसा ही बेईमान यह, वैसा ही दूसरा। वे सब चचेरे—मौसेरे भाई हैं। कोई अंतर नहीं है। एक ईश्वर को मानता है, एक ईश्वर का नहीं मानता है। इतनी बड़ी मान्यता और जीवन में रत्ती भर भी छाया नहीं लाती! कहीं कोई रेखा नहीं खिंचती! दुकानदारी में वह उतना ही बेईमान है जितना दूसरा; बोलने में उतना ही झूठा है जितना दूसरा। न इसको भरोसा किया जा सकता है, न उसका। क्या जीवन में कोई अंतर नहीं आता आस्था से? तो आस्था दो कौड़ी की है। तो आस्था कुतूहल से पैदा हुई होगी; वह बचकानी है। ऐसी बचकानी आस्था को छोड़ देना चाहिए।
सबसे सतह पर कुतूहल है।
दूसरे, थोड़ी गहराई बढ़े तो जिज्ञासा होती है। जिज्ञासा सिर्फ पूछने के लिए नहीं है—उत्तर की तलाश है; लेकिन तलाश बौद्धिक है, आत्मिक नहीं है। तलाश विचार की है, जीवन की नहीं है। जिज्ञासा से भरा हुआ आदमी, निश्चित ही उत्सुक है, और चाहता है कि उतर मिले; लेकिन उत्तर बुद्धि में संजो लिया जाएगा, स्मृति का अंग बनेगा, जानकारी बढ़ेगी, ज्ञान बढ़ेगा—आचरण नहीं, जीवन नहीं। उस आदमी को बदलेगा नहीं। वह आदमी वैसा ही रहेगा— ज्यादा जानकार हो जाएगा।
जिज्ञासा पैदा होती है बुद्धि से।
फिर एक तीसरा तल है, जिसको मुमुक्षा कहा है। मुमुक्षा का अर्थ है: जिज्ञासा सिर्फ बुद्धि की नहीं है, जीवन की है। इसलिए नहीं पूछ रहे हैं कि थोड़ा और जान लें; इसलिए पूछ रहे हैं कि जीवन दांव पर लगा है। इसलिए पूछ रहे हैं कि उत्तर पर निर्भर होगा कि हम कहां जाएं, क्या करें, कैसे जिए। एक प्यासा आदमी पूछता है, पानी कहां है? यह कोई जिज्ञासा नहीं है। मरुस्थल में तुम पड़े हो, प्यास जगती है और तुम पूछते हो, पानी कहां है? उस क्षण तुम्हारा रोआं—रोआं पूछता है, बुद्धि नहीं पूछती। उस क्षण तुम यह नहीं जानना चाहते कि पानी की वैज्ञानिक परिभाषा क्या है। उस समय कोई तुमसे कहे कि पानी—पानी क्या लगा रखा है। एच टू ओ। विज्ञान का उपयोग करो, फार्मूला जाहिर है कि उदजन और आक्सिजन से मिलकर पानी बनता है दो मात्रा, उदजन, एक मात्रा आक्सिजन—एच टू ओ। लेकिन जो आदमी प्यासा है, उसे इससे कोई फर्क नहीं पड़ता कि पानी कैसे बनता है, यह सवाल नहीं है। पानी क्या है, यह भी सवाल नहीं है। वह कोई जिज्ञासा नहीं है पानी के संबंध में जानकारी बढ़ाने के लिए। यहां जीवन दांव पर लगा है; अगर पानी नहीं मिलता घड़ीभर और, तो मृत्यु होगी। पानी पर ही जीवन निर्भर है। मृत्यु और जीवन का सवाल है।
मुमुक्षा का अर्थ है: जिज्ञासा केंद्र पर पहुंच गई। अब हमारे लिए यह सवाल ऐसा नहीं है कि ईश्वर है या नहीं, पूछ लिया बच्चों जैसा, या पूछ लिया दार्शनिकों जैसा, एक बुद्धिगत सवाल, बुद्धिगत उत्तर खोजने में लग गए, शास्त्रों में गए! जिसको प्यास लगी है, वह शास्त्रों में नहीं खोजेगा। कि पानी का स्वरूप क्या है! जिसको प्यास लगी है, वह सरोवर चाहता है। जिसको प्यास लगी है, वह ऐसा ज्ञानी चाहता है जिसको पीकर वह भी अपनी प्यास को बुझा ले—ज्ञान नहीं चाहता, ज्ञानी नहीं चाहता, ज्ञानी को चाहता है।
मुमुक्षा गुरु को खोजता है; जिज्ञासा शास्त्र को खोजता है; कुतूहली किसी से भी पूछ लेता है।
कबीर उसको साधु कहते हैं, जो मुमुक्षु है। इसलिए उनका हर वचन इस बात को ध्यान में रख कर कहा गया है: सुनो भाई साधो! साधु का मतलब है जो साधना के लिए उत्सुक है—जो साधक है। साधु का अर्थ है: जो अपने को बदलने के लिए, शुभ करने के लिए, सत्य करने के लिए आतुर है—जो साधु होने को उत्सुक है।
साधु शब्द बड़ा अदभुत है। विकृत हो गया बहुत उपयोग से। साधु का अर्थ है: साधा, सादा सरल, सहज। साधु शब्द ही बड़ी भाव—भंगिमाएं हैं। और सीधा, सादा, सरल, सहज—यही साधना है।
इसलिए कबीर कहते हैं: साधो, सहज समाधि भली! सहज हो रहो, सरल हो जाओ।
थोड़ा समझ लेना जरूरी है; क्योंकि हम बहुत से लोगों को जानते हैं जो सरल होने की चेष्टा में ही बड़े जटिल हो गए हैं; सरल होने की ही चेष्टा में चले थे, और उलझ गए हैं।
मेरे एक मित्र हैं। लोग उन्हें साधु कहते हैं, मैं उन्हें असाधु कहता हूं; वे सीधे—सादे जरा भी नहीं हैं। अगर सुबह उन्हें दूध दो, तो वे कहते पूछते हैं कि गाय का है या भैंस का। क्योंकि भैंस का दूध वे नहीं पीते। शब्द हिंदू हैं; गाय का ही पीते हैं। और गाय का ही नहीं पीते, सफेद गाय का पीते हैं। किसी शास्त्र से उन्होंने खोज लिया है कि सफेद गाय का दूध शुद्धतम होता है। वह भी कुछ घड़ी पहले लगा हो तो ही पीते हैं। क्योंकि इतनी घड़ी देर तक दूध रह जाए, तो उसमें विकृति का समावेश हो जाता है। कुछ घड़ी पहले का तैयार घी ही लेते हैं; क्योंकि इतनी देर ज्यादा रह जाए तो शास्त्रों में उल्लेख है कि घी विकृत हो जाता है। इस तरह का पानी पीते हैं कि जो भी भर के लाए वह गीले वस्त्र पहने हुए भर के लाए, ताकि बिलकुल शुद्ध हो। क्योंकि सूखे वस्त्रों का क्या भरोसा, किसी ने छुए हों, धोबी धो के लिया हो, लांड्री में गए हो—तो ठीक नहीं। कहीं कुएं पर स्नान करो वस्त्र पहने हुए, ताकि वस्त्र भी धुल जाएं, तुम भी धुल जाओ, फिर पानी भर के ले आओ। ब्राह्मण ने भोजन बनाया हो तो ही लेते हैं। और सब चेष्टा में उनका!...चौबीस घंटे व्यस्त हैं। चौबीस घंटे में उन्हें भगवान के लिए एक क्षण बचता नहीं, भोजन सारा समय ले लेता है। निकले थे सरल होने, वे इतने जटिल हो गए है कि बड़ी कठिनाई है। जीना ही मुश्किल हो गया है। और जिसके घर पहुंच जाए, वह भी प्रार्थना करने लगता है परमात्मा से—उसने कभी प्रार्थना न की हो भला—कि कब इनसे छुटकारा हो।
अगर साधु आपके घर रुक जाए, तो आप एक ही प्रार्थना करते हैं कि अब ये जल्दी जाएं, क्योंकि तीन बजे रात वह उठ जाते हैं। और वह खुल नहीं उठते, पूरे घर को उठा देते हैं। क्योंकि ऐसा शुभ कार्य ब्रह्ममुहूर्त में उठने लगा! वे खुद तो करते ही हैं, लेकिन इतने जोर से ओंकार का पाठ करते हैं कि आप सो नहीं सकते। और आप उनसे यह भी नहीं कह सकते कि आप गलत कर रहे हैं, क्योंकि कुछ गलत भी नहीं कर रहे हैं। ब्रह्ममुहूर्त में ओंकार की ध्वनि कर रहे हैं। तो एक उपकार ही कर रहे हैं आपके ऊपर!
सरलता के खोज में निकला हुआ आदमी भी जटिल हो जाता है। कहीं कुछ भूल हो रही है। सरलता को समझा नहीं गया।
सरलता का अर्थ ही यह है कि तुम सहज होकर क्षण—क्षण जीना, अनुशासन से नहीं। क्योंकि अनुशासन तो जटिल होगा। जब भूख लगे, तब खाना खा लेना। जो मिल जाए, उसे चुपचाप स्वीकार कर लेना। जब नींद खुल जाए, तब ब्रह्ममुहूर्त समझना। जब नींद लग जाए तो परमात्मा का आदेश समझना कि सो जाओ। और जब नींद खुल जाए तब उसका आदेश समझना कि जग जाओ। अपनी तरफ से कुछ भी मत करना, उस पर ही छोड़ देना—जो तेरी मरजी! क्योंकि तुम कुछ भी करोगे तो जटिलता खड़ी कर लोगे। तुम जो भी करोगे, मन से ही करोगे—और मन जटिलता का यंत्र है। वह उसी में से उपद्रव निकाल लेगा—फिर उपद्रव बढ़ता जाता है। फिर उसका कोई अंत नहीं है। और जिनको तुम साधु कहते हो, वे साधु कम और असाधु ज्यादा हो जाते हैं। क्योंकि साधु का मूल अर्थ—सादगी, सीधापन—खो जाता है। हमने सादगी के दूसरे ही अर्थ कर लिए हैं। सादगी का हम मतलब लेते हैं कि जो आदमी एक ही लंगोटी पर रहता है, वह सादगी। लेकिन जो आदमी एक ही लंगोटी पर रहता है, उसका आपको पता है कि उसका अपनी लंगोटी पर इतना मोह होता है जितना कि सम्राट को अपने साम्राज्य पर नहीं। होगा भी, क्योंकि अब मोह को और कोई जगह न बची; सारा मोह लंगोटी पर ही लग जाएगा। लंगोटी और साम्राज्य का तो कोई सवाल नहीं है। सवाल तो मोह का है। सम्राट का मोह तो विस्तीर्ण होता है, बंटा होता है। भिखारी का मोह संकीर्ण होता है, एक ही जगह केंद्रित होता है। और अगर कोई गौर से देखे तो पाएगा कि भिखारी का मोह ज्यादा खतरनाक होता है, क्योंकि अनबंटा होता है, घना होता है, सघन होता है। एक ही चीज पर सब दांव लगा होता है। लंगोटी खो जाए तो भिखारी आत्महत्या कर लेगा। क्योंकि वही सब कुछ था। ऊपर से देखने पर लगता था कि सादगी है, लेकिन सादगी के पीछे बड़ी जटिलता छिपी थी। कबीर साधु उसे कहते हैं, सच में ही सीधा—साधा है।
ज्ञानी हो गए, निर्वाण को पा लिया, परमसत्य की अनुभूति हो गई, तो भी कपड़ा बुनना जारी रखा। लोगों ने पूछा भी कबीर को। सैकड़ों उनके भक्त थे। उन्होंने कहा भी कि अब यह शोभा नहीं देता कि आप जैसा परम ज्ञानी और कपड़े बुने दिनभर...और बाजार में बेचने जाए; हमको भी लज्जा आती है।
कबीर ने कहा, जब परमात्मा इतना बड़ा ताना—बाना बुनता है संसार का और लज्जित नहीं होता, तो मैं गरीब छोटा—सा ही काम करता हूं, क्यों लज्जित होऊं? जब परमात्मा इतना बड़ा संसार बनता है—जुलाहा ही है परमात्मा—में भी जलाहा; मैं थोड़ा छोटा जुलाहा, वह जरा बड़ा जुलाहा। और जब वह छोड़ के नहीं भाग गया, मैं क्यों भागूं? मैंने उस पर ही छोड़ दिया है, जो उसकी मरजी। अभी उसका आदेश नहीं मिला कि बंद कर दो।
वे जीवन के अंत तक, बूढ़े हो गए तो भी बाजार बेचने जाते रहे। लेकिन उनके बेचने में बड़ा भेद था, साधुता थी। कपड़ा बुनते थे, तो वे बुनते वक्त राम की धुन करते रहते। इधर से ताना, उधर से बाना डालते, तो राम की धुन करते। और कबीर जैसे व्यक्ति जब कपड़े के ताने—बाने में राम की धुन करें, तो उस कपड़े का स्वरूप ही बदल गया। उसमें जैसे कि राम की ही बुन दिया। इसलिए कबीर कहते हैं, झीनी झीनी बीनी रे चदरिया! और कहते हैं, बड?ी लगन से और बड़े प्रेम से बीनी है। और जब जाते बाजार में, तो ग्राहकों से वे कहते कि राम, तुम्हारे लिए ही बुनी है, और बहुत सम्हाल के बुनी है। उन्होंने कभी किसी ग्राहक को राम के लिए सिवा और दूसरों कोई संबोधन नहीं किया। ये ग्राहक राम हैं। यह इसी राम के लिए बुनी है। ये ग्राहक ग्राहक नहीं हैं और कबीर कोई व्यवसायी नहीं हैं।
कबीर व्यवसाय करते रहे और सादे हो गए। उन्होंने सादगी को अलग से नहीं साधा। अलग से साधोगे कि जटिल हो जाएगी। सादगी साधी नहीं जा सकती। समझ सादगी बन जाती है।
कबीर ने अपने को इतना मरजी पर छोड़ दिया परमात्मा की, सुबह लोग भजन के लिए इकट्ठे हो जाते, तो कबीर उनसे कहते कि ऐसे मत चले जाना, खाना लेकर जाना। पत्नी—बच्चे परेशान थे: कहां से इतना इंतजाम करो! उधारी बढ़ती जाती है। कर्ज में दबते जाते। रोज रात को कमाल कबीर का लड़का, उनसे कहता कि अब बस हो गया, अब कल किसी से मत कहना! कबीर कहते, जब तक वह कहलाता है, तब तक हम क्या करें? तुम्हारी सुनें कि उसकी सुनें? जिस दिन वह बंद कर देगा, कहनेवाला कौन! हम अपनी तरफ से कुछ करते नहीं और तुम क्यों परेशान हो? जब वह इतना इंतजाम करता है, यह भी करेगा!
लेकिन आखिरी वक्त आ गया। एक दिन कमाल ने कहा कि अब बस बहुत हो गया, क्या तुम चोरी करने लगें? उसने गुस्से में कहा था। कबीर ने कहा, अरे पागल, यह तुझे पहले क्यों नहीं सुझा? कमाल सोचा कि कबीर समझे नहीं की मतलब क्या है। तो दुबारा कहा कि क्या समझे? मैं कह रहा हूं, क्या हम चोरी करने लगें? कहां से लाए? कबीर ने कहा, सभी उसका है, क्या चोरी, क्या अचोरी! जो उसकी मरजी! यह खयाल पहले क्यों न आया?
कमाल भी अदभुत लड़का था। उसने कहा, आज परीक्षा पूरी ही हो ले। उसने कहा, फिर मैं जाता हूं चोरी पर, लेकिन साथ तुम्हें भी आना पड़ेगा। कबीर उठकर खड़े हो गए। समझना हमें कठिन हो जाएगा, क्योंकि हम सीधे आदमी को जानते ही नहीं। हमारा साधु कहता है, चोरी पाप है, अचोरी पुण्य है। हमारा साधु कहता है कि नासमझ, तू खुद नर्क में जा रहा है और मुझको भी ले जाना चाहता है! लेकिन कबीर उठकर खड़े हो गए, यह सादगी बड़ी मधुर है। जैसे कुछ भेद न रहा—न चोरी में, अचोरी में; न शुभ में, न अशुभ में। क्योंकि सब परमात्मा का है तो कैसे भेद। भेद तो चालाक बुद्धि का होता है। सादगी में कैसा भेद? वे उठकर खड़े हो गए।
कबीर को भीतर से समझना बड़ा मुश्किल पड़ेगा तुम्हें, क्योंकि तुम्हारे मन में भी भेद है। तुम भी सोचोगे कि यह क्या मामला है। क्या कबीर चोरी के पक्ष में हैं?
कमाल भी झिझका, जब कबीर उठकर खड़े हो गए। उसने सोचा कि यह भी मजाक ही थी। लेकिन कमाल आखिर कबीर का ही लड़का था, और अब बात को पूरा करना जरूरी था। गया एक मकान में, सेंध लगाई। कबीर बाहरी खड़े हैं—सेंध लगाकर, भीतर गया, एक बोरा गेहूं का घसीटकर लाया। किसी तरह बोरा तो बाहर निकल गया। जब वह खुद बाहर निकल रहा था तो घर के लोग जाग गए। जाग इसलिए गए कि कबीर ने जोर से उससे पूछा कि अरे पागल, घर के लोगों से पूछा कि नहीं? चोरी, सो तो ठीक, लेकिन घर के लोगों को बताया या नहीं? थोड़ा शोरगुल कर दे, तार्किक लोग जग जाएं, कि चोरी हो गई।
एक सीधा—सादा आदमी, जिसके लिए भेद गिर गए हैं!
यह आवाज सुनकर, बातचीत सुनकर, घर के लोग जग गए। और जब कमाल निकल रहा था, दीवाल के छेद से, तो किसी ने उसके पैर पीछे से पकड़ लिए। तो कमाल ने कहा, अब क्या किया जाए? कम से कम इतना ही करो कि मेरी गर्दन काटकर ले जाओ, ताकि कम से कम बदनामी तो न हो। कबीर ने कहा, यह भी खूब रहा! बिलकुल ठीक सुझाया है। वक्त पर तूने भी अच्छी सूझ दी! और कहानी है कि कबीर गर्दन काटने के पहले कमाल से बोले, गर्दन तो काट ले जाता हूं, लेकिन बात छुपाए छुपेगी नहीं, उसको सब पता है; परंतु तू कहता है तो काट ले आता हूं।
हमें लगेगा यह आदमी चोर भी है, हिंसक भी। लेकिन कबीर जानते हैं कि मरता तो कुछ भी नहीं है। अगर तुम्हारा कोट खींचकर मैं अलग कर दूं तो मैं हिंसक नहीं हूं, तो तुम्हारी गर्दन काटकर अलग करने से कैसे हिंसक हो जाऊंगा। अगर सच में ही शरीर वस्त्र है, तो कबीर हिंसक नहीं हैं। यही तो कृष्ण अर्जुन को समझ रहे हैं गीत में कि तू फिकर मत कर; हन्यते हन्यमाने शरीर! वह मारने से मरता नहीं, काटने से कटता नहीं, जलाने से जलता नहीं। कबीर वही तो कर रहे हैं। उन्होंने काट लिया कमाल का सिर; लेकिन उससे कहा कि तू कहता है तो काट लेता हूं, बाकी बात छिपाए न छिपेगी, पता चल जाएगा। क्योंकि उसको तो सब पता ही है। फिर भी ठीक है, जैसी उसकी मरजी!
घर के लोगों को शक तो हुआ शरीर को देखकर कि यह लगता है कमाल का, लेकिन बिना गर्दन के है! बड़ी अदभुत कहानी है। उन्होंने दूसरे दिन सुबह, जब कबीर निकलते थे, नदी की तरफ जाते थे—जाते गाते, भजन—कीर्तन करते स्नान करने—और उनके सौ दो सौ भक्त जाते थे, दरवाजे के सामने एक खंभे पर कमाल का शरीर लटका दिया कि शायद कबीर को भी अपने लड़के को देखकर चेहरे पर कोई फर्क आ जाए। और भक्तों को तो पता ही होगा। उनमें से कोई न कोई, कुछ न कुछ कह देगा। लेकिन यह बात कुछ और ही हो गई। अब कबीर का जुलूस वहां पहुंचा तो कबीर रुक गए और उन्होंने कहा, देखो कमाल लटा है खंभे पर! रोज बेचारा सम्मिलित होता था, आज सम्मिलित न हो पाएगा। लेकिन हम कीर्तन तो उसके पास करें ही। कहानी है कि जब उन्होंने कीर्तन किया तो कमाल के हाथ—मुर्दा हाथ ताली देने लगे।
कोई मरता नहीं। मृत्यु असंभव है। मृत्यु तो तुम्हारी मान्यता है। तुमने माना है इसलिए तुम मरते हो। और तुमने जान नहीं है इसलिए तुम मरते हो। जीवन—ऊर्जा सब तरफ व्याप्त है। और कबीर ने कहा, पागल! पहले ही कहा था कि बात छिपाए न छिपेगी। चोरी तो ठीक, लेकिन उसको सब पता है। अब उसने खोल दिया राज।
इसलिए कबीर ने अपने भक्तों से कहा, सदा मैंने कहा, उसकी मरजी से चलो!
जीवन का बड़े बड़ा सत्य है भेद का गिर जाना—बुरे और भले का, शैतान और संत का, रात और दिन का, जीवन और मृत्यु का, अंधकार और प्रकाश का। सारा भेद जब गिर जाए शुभ और अशुभ का, तब कोई साधु है। हम तो उसे साधु कहते हैं जो अंधेरे के विपरीत, प्रकाश के पक्ष में है। हम उसे साधु कहते हैं जो अशुभ के विपरीत, शुभ के पक्ष में हैं। हम उसे साधु कहते हैं, जो संत है और शैतान नहीं। लेकिन हमारा साधु हमारी ही बुद्धि का ही प्रक्षेपण है, कबीर का साधु नहीं है।
कबीर का साधु तो वही है, जिसके लिए सारे भेद विलीन हो गए; जो अभेद में जीता है, जिसका द्वैत नष्ट हुआ; जो अद्वैत में जीता है, जो एक को पा लिया है। उस एक में कौन होगा संत, कौन होगा शैतान! उस एक में कौन होगा सज्जन, कौन होगा दुर्जन! उस एक में क्या होगा पाप, क्या होगा पुण्य! सब भेद माया है। भेद मात्र माया का आधार है। और जो भेद में गिरा, वह जटिल हो जाएगा। जो अभेद में रहा वह साधु—वह सादा, वह सीधा। वह कुछ चुनता नहीं अपनी ओर से। वह अपनी मरजी को बीच में नहीं लगता। वह सिर्फ बहता है, जैसे नदी में कोई तैर नहीं, बहे। नदी जहां ले जाए वहां जाने को राजी रहे, और जहां पहुंच जाए, वहीं मंजिल; नदी बीच में डुबा दे तो वही किनारा।
और कबीर बार—बार कहते हैं, सुनो भाई साधो। वे उसको इंगित कर रहे हैं, तुम्हारे भीतर, जो सीधा—सादा है।उस सीधे—सादे को कैसे पाओगे? क्या उसको पाने के लिए जटिल साधना करनी पड़ेगी, योगासन करने पड़ेंगे, शीर्षासन करना पड़ेगा, घंटों मंत्रोच्चार करना पड़ेगा? अगर इस सीधे—सादे को पाने के लिए कुछ भी करना पड़े, तो यह सीधा—सादा नहीं है—यह तो समझ की ही बात है, यह तो सिर्फ बोध ही है। यह तो समझ में आ जाए कि एक ही है, तो सादगी प्रकट हो जाती है। इसलिए कबीर सहज समाधि पर जोर देते हैं। सहज का अर्थ है: जो साधनी न पड़े। साधु का अर्थ है: जो समझ से फलित हो जाए, जिसके लिए कोई भी प्रयत्न, कोई भी श्रम न करना पड़े; जैसे तुम हो, जिसका द्वार वहीं खुल जाए; जहां तुम हो, वहीं उससे मिलन हो जाए, इंचभर चलना न पड़े। चले कि जटिलता हो जाएगी। जिसे प्रयत्न से पाया जाएगा, वह सहज नहीं हो सकता।
सुनो भाई साधो—और यहां भी मैं तुम्हारे भीतर छुपे साधु को संबोधन कर रहा हूं। तुम्हारे भीतर बुद्धि असाधुता का तत्व है, और हृदय साधुता का। हृदय न भले का जानता है, न बुरे को। हृदय के पास कोई गणित नहीं। हृदय को काटने की कला आती ही नहीं। हृदय को कैंची नहीं है। हृदय को जोड़ने की कला आती है। हृदय सुई—धागे की भांति है।
फरीद को किसी ने एक सोने की कैंची भेंट की...फरीद कबीर के जमाने में था। और फरीद और कबीर की मुलाकात हुई थी और बड़ी मीठी मुलाकात हुई थी। क्योंकि दो दिन दोनों साथ रहे, और चुप रहे! एक शब्द न यहां से बोल गया, और न वहां से बोला गया। दोनों गले मिले, दोनों हंसे, दोनों साथ बैठे। स्वागत किया जाकर गांव के बाहर कबीर ने फरीद का और विदा कर आए। लेकिन दो दिन में एक शब्द का लेन—देन न हुआ! और जब शिष्यों ने पूछा दोनों को कि यह क्या माजरा है, हम थक गए, ऊब गए, और हम बड़ी अपेक्षा रखते थे के कि कुछ होगी बात, हम भी सुन लेंगे, कुछ सार मिलेगा; सब दो दिन खराब हुए!
फरीद ने कहा, जो बोलता है वह अज्ञानी है। अगर मैं बोलता तो मैं अज्ञानी, और कबीर बोलते तो वे अज्ञानी। कबीर ने अपने शिष्यों से कहा, बोलने को कुछ था नहीं। क्योंकि दोनों हम जानते हैं। और दोनों ने एक को ही जान लिया, कहना, किससे, सुनना किसको? और पुनरुक्ति शोभादायक नहीं। अकारण मेहनत। जहां मैं हूं, वही फरीद है। न मैं हूं, न फरीद है। तुम्हारे लिए हम दो थे, हमारे लिए हम एक हैं। तुम वार्तालाप चाहते थे। और हम वार्तालाप करते तो पागल मालूम पड़ते। क्योंकि वह एकालात होता। दूसरा था नहीं, बात किससे होती?
दो अज्ञानी मिलें, बात हो सकती है; खूब होती है। एक ज्ञानी और एक अज्ञानी मिलें, तो भी बात हो सकती है; समझ में बहुत नहीं आती है। लेकिन दो ज्ञानी मिलें तो कैसी बात! बात बिलकुल नहीं होती, और सब समझ में आता है। सुना एक शब्द नहीं जाता और सब समझ में आता है। और दो अज्ञानी खूब चर्चा करते हैं; सुना बहुत जाता है, शोरगुल बहुत मचता है, समझ में कुछ भी नहीं आता।
एक ज्ञानी और एक अज्ञानी की भी वार्ता होती है। अगर अज्ञानी राजी हो, तो उस वार्ता से कुछ फल मिल कसता है। अगर अज्ञानी थोड़ा खुला हो, अगर अज्ञानी में थोड़ा हृदय हो, सिर्फ बुद्धि न हो, तो कोई बीज हृदय में अंकुरित हो सकते हैं।
फरीद को किसी ने एक सोने की कैंची भेंट की। फरीद ने कहा, माफ करो, कैंची का हम क्या करेंगे? काटने का हम धंधा करते ही नहीं, हमारा धंधा जोड़ने का है। अगर तुम कुछ देना ही चाहते हो, एक सुई—धागा ले आओ।
संतों का धंधा ही जोड़ने का है। हृदय का धंधा जोड़ने का है। बुद्धि का धंधा तोड़ने का है। पंडित तोड़ते हैं, संत जोड़ते हैं। दुनिया इतनी टूटी है पंडितों के कारण—तीन सौ धर्म हैं, पंडितों के कारण। पंडित भेद निकालता है, बारीक भेद निकालता है। संत अभेद को खोजते हैं। दो के बीच जो जोड़नेवाला है, उसको खोजते हैं। पंडित दो के बीच जो तोड़नेवाला है, उसको खोजते हैं। इसलिए वास्तविक विरोध संत और असंत के बीच नहीं है, संत और पंडित के बीच है। संत और पापी के बीच वास्तविक विरोध नहीं है; संत और पंडित के बीच वास्तविक विरोध है।
धर्मों का जन्म होता है संतों से, और विनाश होता है पंडितों से। और जैसे ही जन्म होता है धर्म का, वैसे ही पंडित हावी हो जाते हैं।
तुम्हारे भीतर साधुता का तत्व है हृदय, क्यों? क्योंकि हृदय तुम्हारे भीतर अप्रशिक्षित है। बुद्धि का तो प्रशिक्षण हुआ। बुद्धि को समाज ने तैयार किया है, हृदय को परमात्मा ने। हृदय को शिक्षित करने के कोई उपाय नहीं हैं, कोई विश्वविद्यालय भी नहीं, जहां तुम्हारे हृदय की शिक्षा हो सके। प्रेम के प्रशिक्षण का आज तक कोई मार्ग नहीं खोता जा सका, और धन्यभागी हैं हम कि मार्ग नहीं खोजा जा सका। जिस दिन खोज लिया जाएगा, उससे बड़ा कोई दुर्भाग्य न होगा। उस दिन फिर तम मशीन हो जाओगे। तुम्हारी बुद्धि तो यंत्र हो ही गई है, तुम्हारा हृदय थोड़ा सा यंत्र नहीं है। तुम्हारी धड़कन में अभी भी प्रकृति धड़कती है। परमात्मा थोड़े स्वर देता है। तुम्हारी बुद्धि तो बिलकुल यांत्रिक है और समाज द्वार निर्मित है।
बुद्धि से तुम परमात्मा तक न जा सकोगे, इसीलिए तो शास्त्र से कोई कभी वहां नहीं पहुंचता। हृदय से पहुंचता है, प्रेम से, प्रार्थना से, आस्था से। जब साधु की बात कहीं जा रही है, तब तुम्हारे हृदय को निवेदन किया जा रहा है। संबोधित है तुम्हारा हृदय। तो जो यहां कहें, उसे तुम सोचना मत, सिर्फ समझना। हृदय समझता है, बुद्धि सोचती है, और दोनों में कोई तालमेल नहीं है। बुद्धि बड़ा तर्क करती है, हृदय देखता है। हृदय के पास आंख है, बुद्धि अंधे का टटोलना है। बुद्धि अंधे की लकड़ी है, जिससे वह टटोलता है कि रास्ता कहां है। हृदय देखता है, टटोलने की कोई जरूरत नहीं तर्क व्यर्थ है, हृदय को दिखाई पड़ता है, वह निकल जाता है।
सुनो भाई साधो का अर्थ है—हृदय से सुनो; सादगी से सुनो; तर्क और विचार से नहीं, भाव और प्रेम से सुनो! वही समझ पाएगा।
अब हम कबीर के वचन को लें।
एक—एक शब्द को गौर से हृदय तक जाने देना।
माया महाठगिनी हम जानी।
माया का क्या अर्थ है? जिसके कारण एक दो की भांति दिखाई पड़ता है, उस सूत्र का नाम माया है।
...तुमने नशा कर लिया, शराब पी ली, तब तुम्हें एक आदमी रास्ते पर आता हुआ दिखाई पड़ता है, और लगता है दो आ रहे हैं; एक मकान की जगह दो मकान दिखाई पड़ते हैं; एक दरवाजे की जगह दो दरवाजे दिखाई पड़ते हैं।
मुल्ला नसरुद्दीन अपने किसी मित्र को विदा कर रहा था। रात देर तक दोनों पीते रहे। और जब विदा करना लगा तो रात अंधेरी थी, सुनसान मार्ग पर कोई भी नहीं। मित्र ने पूछा कि थोड़ा रास्ते के संबंध में समझा दो।
नसरुद्दीन ने कहा, रास्ते के संबंध में एक ही बात खयाल रखना: जब यहां से तुम सौ कदम पहुंच जाओ, तो वहां तुम्हें दो रास्ते मिलेंगे; तुम बाएं तरफ मुड़ना क्योंकि दाएं तरफ कोई रास्ता है ही नहीं, सिर्फ दिखाई पड़ता है। यह मैं अपने अनुभव से कहता हूं, उस पर कई दफे मैं मुड़ गया हूं और भटक गया हूं। वहां रास्ता है ही नहीं।
मुल्ला नसरुद्दीन अपने बेटे का समझा रहा था, शराबघर में बिठाकर। उसने कहा कि देख बेटा, उस कोने में देख जहां चार आदमी बैठे हैं, जब ये आठ दिखाई पड़ने लगें तब समझना कि बस, अब रुक जाना जरूरी है। बस, फिर फौरन घर की तरफ चल पड़ना। उस बेटे ने कहा: पिता जी, मुझे केवल दो आदमी दिखाई पड़ रहे हैं। वे नसरुद्दीन ज्यादा पहले ही पी चुके थे!
नशे में जब तुम हो, तब तुम भीतर कंपते हो, उस कंपन के कारण बाहर भी सब चीजें कंपती हैं।
जब नशे में तुम हो, तब तुम दो हिस्सों में भीतर बंट जाते हो; क्योंकि एक तो तुम्हारे भीतर तत्व है, जो कभी भी नशे में नहीं हो सकता; तुम्हारी चेतना कभी भी बेहोश नहीं हो सकती। नशा तुम्हारे शरीर में जाता है, मन में जाता है आत्मा में नहीं जा सकता। जैसे ही नशा तुम्हारे भीतर प्रवेश करता है, तुम दो हिस्सों में बंट जाते हो—तुम्हारी आत्मा अलग, तुम्हारा शरीर मन अलग। और शरीर, मन तो एक ही हैं, उनमें बहुत भेद नहीं है; वे एक ही तत्व के सूक्ष्म और स्थूल रूप हैं। तुम भीतर बंट जाते हो, और सब कंपने लगता है। जब तुम भीतर कंपने लगते हो, बाहर सब कंपने लगता है।
माया एक नशा है।
 कबीर कहते हैं, माया महाठगिनी हम जानी। और हमने जाना कि माया बड़ी ठगिनी है। उसके कारण सब दो हो गया है।
गिरगुन फांस लिए कर डौले, बोलै मधुरी बानी।
केसव के कमला होई बैठी, सिव के भवन भवानी।।
इस विचार को थोड़ा समझें...
राम के साथ सीता है, कृष्ण के साथ राधा है, शिव के साथ शिवानी है, विष्णु के साथ लक्ष्मी है। हिंदुओं ने बड़े विचार के ये प्रतीक चुने हैं। यह तुम्हारे कारण, क्योंकि तुम दो में बंटे हो। परमात्मा तुम्हारे लिए एक नहीं हो सकता। यह तुम्हारे भीतर जो नशा और कंपन है, तुम्हारे भीतर जो माया है, जो भ्रम का सूत्र है, तुम्हारे कंपन के कारण तुम्हें शिव और शिवानी दो दिखाई पड़ते हैं। जब तुम्हारा कंपन खो जाएगा, तब तुम अचानक पाओगे कि शिव और शिवानी एक हो गए। वही अर्धनारीश्वर की प्रतिमा है।जैसे ही तुम्हारा कंपन खो जाएगा, तुम पाओगे कि वहां भी दो विलीन हो गए: लक्ष्मी विष्णु में खो गई, विष्णु लक्ष्मी में खो गए; एक बचा। तुम्हारे कारण दो है; क्योंकि तुम कंप रहे हो।
कौन तुम्हें कंपा रहा है? शराब तुमने पी नहीं, लेकिन फिर भी तुम शराबी हो। और बहुत तरह की शराबें तुमने पी ली हैं, जिनका तुम्हें पता नहीं है। तुमने आसक्ति पी ली है, तुमने मोह पी लिया है, तुमने अहंकार पी लिया है, तुमने द्वेष पी लिया है,र् ईष्या पी ली है, महत्वाकांक्षा पी ली है;— तुमने घृणा, क्रोध, लोभ—न मालूम कितनी शराबें पी ली हैं!
शराब का मतलब ही यह है कि जो बेहोश करे। शराब बोतलों में ही बंद नहीं बिकती, शराब तो जीवन के रोएंरोएं में मिल रही है। अगर तुम पकड़ने में उत्सुक हो, तो सब जगह उसका दरवाजा खुला है।
शराब का अर्थ है: जिससे तुम भीतर कंप जाते हो। शराब का अर्थ है: ऐसी बेहोशी, जिसमें तुम ठीक—ठीक नहीं देख पाते, आंखें देखने की क्षमता खो देती हैं; या तुम वह देखने लगते हो जो है नहीं; या तुम्हें वह दिखाई पड़ने लगता है जो कभी था नहीं। नशे में तुम्हारी दृष्टि और दर्शन खो जाते हैं।
खयाल करो, जब तुम मोह से भर जाते हो, तब तुम्हें वही नहीं दिखाई पड़ता, जो है; तुम्हारा मोह तुम्हें जो दिखाता है, वही दिखाई पड़ता है। जब तुम क्रोध से भर जाते हो, तब तुम कुछ और देखने लगते हो।
एक स्त्री के मोह में तुम पड़ गए, या एक पुरुष के, तो स्त्री बहुत सुंदर दिखाई पड़ती है; ऐसा लगता है कि जगत में वैसा कोई भी नहीं, वैसा सौंदर्य कभी हुआ ही नहीं। वह स्त्री वैसी ही साधारण थी कल तक। रास्ते पर कई बार तुम गुजरे थे और उसे स्त्री को देखा था; आज अचानक क्या हो गया? तुम्हारे भीतर कुछ मोह का उदय हुआ है। तुम्हारे भीतर कोई सम्मोहन जगा है। तुम्हारे भीतर कोई नशा छा गया है। स्त्री वहां है, कल भी वही थी।
अचानक आज स्त्री सुंदर नहीं हो जाएगी। तुम्हारे भीतर कुछ फर्क हुआ है। तुम कुछ पागल हुए हो। आज स्त्री परम सौंदर्यवान दिखाई पड़ रही है। आज जो तुम देख रहे हो, वास्तविक नहीं है। आज जो तुम देख रहे हो, वह अपने ही सपने का विस्तार है। आज स्त्री केवल परदा बल गई है, और तुम अपना ही सपना उस पर देख रहे हो। रहो कुछ दिन उस स्त्री के पास, कर लो विवाह—थोड़े दिन में सपना टूटने लगेगा; क्योंकि सपने सदा नहीं चल सकते। सपनों का गुणधर्म यही है कि वे कभी होते हैं, कभी खो जाते हैं।
चौबीस घंटे कोई सपना नहीं देख सकता। और चौबीस घंटे कोई नशे में नहीं रह सकता। और सदा के लिए नशे में रहने का कोई उपाय नहीं है। सत्य ही सदा रह सकता है, सपना सदा नहीं रह सकता। दो चार दिन बीतते—बीतते ही स्त्री साधारण होने लगती है। यद्यपि तुम फिर भी कोशिश करते रहते हो सपने को खींचने की, लेकिन तुम जानते हो कि सपना टूटने के करीब आ गया। महीना, दो महीना बहुत मुश्किल है कि सपना चल जाए। और जब सपना टूट जाता है, तब एक विरक्ति, तब एक उदासी, तब एक विषाद घेर लेता है।
अब तुम विषाद और उदासी के माध्यम से उस स्त्री को देखने लगते हो तो वह साधार हो गई। कहां पर्वत पर थी, शिखर पर थी, अब कहां खाई में, खङ्ढ में गिर गई। कल तक स्वर्ण काया थी उसकी, अब उसके शरीर से गंध आने लगी। कल तक उसके शरीर पर कभी पसीना नहीं दिखाई पड़ा था—तुम देख ही नहीं सकते थे पसीना—आज शरीर से बदबू आने लगी। कल तक सुगंध थी, आज सब दुर्गंध हो गई। अब तम क्रोध और घृणा से भी देखना शुरू करोगे, तब वह स्त्री बहुत कुरूप मालूम पड़ने लगेगी—और स्त्री वही है, पुरुष वही है, कहां कुछ भी भेद नहीं हुआ। सारा भेद तुम्हारे भीतर हो रहा है।
कबीर कहते हैं, माया महाठगिनी हम जानी।
माया तुम्हारे भीतर बेहोश होने की कला का नाम है। माया, तुम्हारे सो जाने की पद्धति है। माया, तुम्हारे स्वप्न देखने की प्रक्रिया है।
कोई आदमी धन के पीछे दीवाना है, तो तुम कल्पना ही हनीं कर सकते, अगर तुम धन के दीवाने नहीं हो। उसे धन क्या दिखाई पड़ता है? वह रोज अपनी तिजोरी खोलता है, तब तुम उसकी आंखें देखो; जैसी कोई प्रेमी अपने प्रेयसी को देखता है। किसी कवि ने कवि जगत के सौंदर्य को ऐसा भाव—विभोर होकर नहीं देखा, जैसा धन का दीवाना तिजोरी खोलकर देखता है। तब उसकी आंखों में देखो, कितने सपने तैरते हैं, आंखों में कैसी चमक आ जाती है। तुम्हें अगर कोहिनूर हीरा पड़ा हुआ मिल जाए रास्ते पर, और तुम धन के दीवाने हो, तो तुम सारा होश खो दोगे। और कोहिनूर सिर्फ एक पत्थर है। लेकिन तुम्हारे भीतर सब बदल जाएगा। कोहिनूर एक परिस्थिति है, जिसने तुम्हारे भीतर के सोये हुए सारे नशे जग जाएंगे। ओर तब तुम्हें कोहिनूर में जो दिखाई पड़ेगा, वह कोहिनूर में नहीं है, वह तुमने ही डाला है।
तुम जो भी जगत में देख रहे हो, वह जगत में नहीं है, वह तुम्हारा डाला हुआ है। पद—लोलुप पद में जो देखता है...पागल होकर लोग दौड़ते रहते हैं।
मुल्ला नसरुद्दीन एक दिन लौट रहा था रात। वर्षा के दिन में धीमी—धीमी फुहार पड़ रही थी। रास्ते में गांव का राजनीतिज्ञ नेता, वह मिल गया। उसने कहा, नसरुद्दीन! बिना छाते के...!
नसरुद्दीन कहना नहीं चाहता था कि छाता नहीं है, और अभी सुविधा भी नहीं है खरीदने की। नसरुद्दीन ने कहा कि यह एक आध्यात्मिक अभ्यास है, यह एक ध्यान का प्रयोग है, इसमें बड़ा अनुभव होता है: परमात्मा वर्षा कर रहा है और तुम मूर्ख छाता लगाए हो? यह कोई बात हुई? बंद करो छाता, और जरा खड़े होकर देखो, बड़ा इलहाम होगा, बड़ा रिवीलेशन होगा, बड़ा उदघाटन होगा! परमात्मा बड़े सत्य देता है!
राजनेता को भरोसा तो न आया। लेकिन उसने सोचा, हर्ज क्या है करके देखने में। दूसरे दिन वह बड़ा क्रोधित लौटा। और उसने कहा, नसरुद्दीन मजाक की एक सीमा होती है! रात भर बुखार चढ़ा रहा। तुमने जैसा कहा था, वैसे ही मैंने किया। जब सब लोग सो गए, तो मैं बाहर गया और खड़ा रहा पानी में। कुछ हुआ नहीं। बस यह हुआ कि मेरी गर्दन से पानी उतर के कपड़े के भीतर चला गया। ठंड लगने लगी; शरीर कंपने लगा, और मुझे ऐसा लगा कि मैं भी क्या मूरखपन कर रहा हूं, यह कैसा मूढ़ता का मैं काम कर रहा हूं! क्या मैं मूर्ख हूं या पागल हूं?
नसरुद्दीन ने कहा, बस, यह क्या कोई कम इलहाम है? पहले ही अभ्यास में इतनी बड़ी अनुभूति! यह क्या कोई कम उपलब्धि है? अभ्यास किए जाओ, और आगे...अनुभव होंगे!
आदमी जैसा भीतर है, उस भीतर की परिस्थिति को अगर न बदला जाए, अगर न तोड़ा जाए, तो तुम परमात्मा को बाहर न पा सकोगे। क्योंकि तुम जो भी पाओगे, वही संसार होगा। तुम जो भी देखोगे, वह तुम्हारी ही आंखें देखेंगी। तुम जो भी पाओगे, पानेवाले तुम ही रहोगे। असली सवाल परमात्मा को खोजने का नहीं है, असली सवाल से बेहोशी तोड़ने का है। बेहोश आदमी जहां भी जाएगा, बेहोशी ही पाएगा।
भीतर से माया टूट जाए, सुषुप्ति टूट जाए, स्वप्न टूट जाए, तो तुम जहां हो, वही तुम्हें परमात्मा उपलब्ध हो जाएगा। वही तुम्हें चारों तरफ से घेरे खड़ा है। उसके अतिरिक्त और कोई भी नहीं है। तुम उससे कैसे वंचित हुए, यही चमत्कार है। तुमने कैसे उसे खोया, यही चमत्कार है। जरूर तुम किसी गहरी मूर्च्छा में हो।
महावीर ने कहा—किसी ने पूछा—साधु कौन? महावीर ने कहा, जो जागा है, वह साधु है। और असाधु?—जो सोया है।
तुम्हारे भीतर कुछ जागने की प्रक्रिया भी है, और कुछ सोने की प्रक्रिया भी है। तुम्हारे भीतर सपना देखने की क्षमता भी है, और सत्य को जानने की क्षमता भी है। तुम जाग भी सकत हो और सो भी सकते हो—ये दोनों तुम्हारे भीतर क्षमताएं हैं। सोने की क्षमता का नाम माया है।
रात तुम सपना देखते हो। सपना देखने के लिए एक चीज जरूरी है कि तुम सो जाओ। जागे—जागे सपना देखना मुश्किल है। सपना देखने के लिए सोना जरूरी है। और जैसा तुम देख रहे हो, जगत को अभी—रुपए में तुम्हें परमात्मा दिखाई पड़ता है; हड्डी, मांस—मज्जा में तुम्हें सौंदर्य दिखाई पड़ता है; भोजन में तुम्हें जीवन का सारा रस दिखाई पड़ता है; वस्त्रों में तुम्हें जीवन की सारी कला दिखाई पड़ती है; व्यर्थ में तुम्हें सारे दिखाई पड़ता है; सार का तुम्हें कोई पता नहीं चलता—इससे एक बात जाहिर है कि तुम सोये हुए हो और सपना देख रहे हो।
माया महाठगिनी हम जानी।
माया कोई दार्शनिक तत्व नहीं है। दार्शनिकों के हाथ में पड़ गया सिद्धांत, तो उन्होंने बड़े सिद्धांत खड़े किए हैं। और बड़े बिगूचन में डाल दिया है। अगर तुम दार्शनिकों को पढ़ोगे तो तुम बड़ी मुश्किल में पड़ोगे कि यह माया क्या है। क्योंकि उन सबकी व्याख्याएं अलग हैं। कोई कहेगा, यह परमात्मा की शक्ति है; कोई कहेगा, यह परमात्मा की छाया है। और उनको बड़ी कठिनाई है। शंकराचार्य को बड़ी कठिनाई है कि यह माया कहां से आती है। क्योंकि अगर सभी कुछ ब्रह्म है, तो माया कैसे पैदा होती! कोई उत्तर उनके पास नहीं है। कोई उत्तर हो भी नहीं सकता।
लेकिन अगर गौर से समझो तो माया मनोवैज्ञानिक तत्व है। माया कोई दार्शनिक तत्व नहीं है। माया का कोई संबंध ब्रह्म से, अस्तित्व से नहीं है। माया का संबंध तुमसे है। माया तुम्हारी छाया है, ब्रह्म की नहीं। और माया तुम्हारे भीतर बेहोशी का नाम है। इसलिए जैसे—जैसे तुम भीतर जागरूक हो जाओगे, जैसे—जैसे और साक्षी हो जाओगे, वैसे—वैसे माया तिरोहित हो जाएगी।
अगर माया ब्रह्म का तत्व है तो तुम उसे कैसे तिरोहित कर पाओगे? तब तो तुम जाओगे कैसे? अगर माया ब्रह्म का अंग है तो तुम उसे कैसे मिटा पाओगे? नहीं माया तुम्हारा ही अंग है। तुम ब्रह्म की चर्चा में मत पड़ो। तुम उसे जान भी न पाओगे, जब तक तुम्हारे भीतर की माया न टूट जाए।
माया शब्द बड़ा अदभुतपूर्ण है। माया का ठीक वही अर्थ है, जो अंग्रेजी में मैजिक का है। मूल शब्द का वही अर्थ है।
तुम्हारे भीतर सपनों को गढ़ लेने की एक चमत्कारी क्षमता है। रात तुम एक अंधेरे रास्ते से गुजरते हो, भय तुम्हारे भीतर है—अंधेरे का भय, अकेलेपन का भय, अजनबी रास्ते का भय—तुम कंप रहे हो भय से। भय एक माया का हिस्सा है। पत्ते हिलते हैं, तुम समझते हो कि कोई आ रहा है। पत्तों को हिलने की आवाज, तुम कैसे किसी के आने की पदचाप में बदल लेते हो। तुम्हारे भय के कारण। दिन होता है, ऊर्जा होता, रास्ते पर लोग होते, तुम चिंता भी न करते कि पत्तों में कोई आवाज हो रही है। सूखे पत्ते हवा में हिल रहे हैं, तत्क्षण तुम चौंक के खड़े हो जाते हो—लगता है कोई आ रहा है। आवश्यक नहीं है पत्तों का हिलना; अगर भय काफी हो, तो अपने ही पैर की आवाज—सुनसान रास्ते पर मालूम पड़ती है कि कोई पीछा कर रहा है! अपने ही पैर की आवाज—सुनसान रास्ते पर लगती है, कोई पीछा कर रहा है! अंधेरे में वृक्षों के रूप रंग—लगते हैं भूत—प्रेम खड़े हैं!
मरघट पर जाकर किसी दिन देखो! तुम्हें बहुत चीजें दिखाई पड़ेंगी जो वहां हैं ही नहीं। और इतनी जोर से दिखाई पड़ेंगी कि तुम्हें उनका अस्तित्व क्षीण और उनका अस्तित्व ज्यादा प्रगाढ़ मालूम पड़ेगा। और तुम भयभीत होकर भाग खड़े हुए, तो जितना तुम्हारा भय बढ़ता जाएगा, उतना ही...
कभी तुम्हें पता है, मरघट से तुम गुजर जाओ, तुम्हें पता न हो कि मरघट है, तो कुछ न होगा। कोई भूत—प्रेत रास्ते में न आएंगे। कोई ढोल न बजेगा। कोई प्रकाश न जलेगा। कोई ज्योति इस कोने से उस कोने तक न जाएगी। तुम्हें पता न हो कि मरघट है, तुम मजे से गुजर जाओगे। और तुम्हें पता है कि मरघट है, और मरघट न भी हो कि तुम मुसीबत में पड़ जाओगे।
एक मेरे मित्र हैं। सदा डींग वे मारते हैं, निर्भय होने की। जो भी आदमी निर्भय होने की डींग मरता है, समझ लेना कि भयभीत है। नहीं तो डींग मारने की कोई जरूरत नहीं। डींग हम सदा विपरीत की मारते है। तो मेरे घर मेहमान थे। मैंने उनसे कहा, क्या भूत—प्रेम से भी नहीं डरते? उन्होंने कहा, क्यों डरूं, भूत—प्रेत हैं कहां? सब मन की कल्पना है। मैं किसी से नहीं डरता। तुम मेरे सामने भूत—प्रेत लाओ!
मैंने कहा, ठहरो। तुम ठीक वक्त पर आ गए हो। वे थोड़े डरे। उन्होंने कहा, क्या मतलब?
सामने के मकान में इस समय भूतों का अड्डा है। तो मैं वहां इंतजाम तुम्हारे सोने का करवाये देता हूं। वहां कोई है भी नहीं; बस तुम और भूत!
वे थोड़े हंसे, लेकिन उनकी हंसी अब खोखली थी। उन्होंने कहा, मैं डरता नहीं...क्या जरूरत वहां जाने की? मैंने कहा, अगर नहीं डरते तो फिर जाने में भय क्या?
...फंस गए! कहने लगे, अच्छा! लेकिन उनका चित्त बड़ा उदास हो गया। सामने के मकान में भी कभी किसी ने नहीं सुना था कि भूत हैं—थे भी नहीं। लेकिन उस मकान को एक तेल का दुकानदार अपने खाली पीपे रखने के काम ले लाता था—एक गोदाम की तरह। इसलिए उसमें कोई था भी नहीं। मगर खाली पीपे गरमी के दिनों में आवाज करते हैं; दिन में फैल जाते हैं गरमी के कारण, रात में सिकुड़ते हैं। और कोई हजार, दो हजार पीपे थे मकान में। तो आवाज एक पीपे से दूसरे पीपे में जाती। और काफी सुंदर भूत—प्रेतों की लीला उस घर में चलती थी। उनका मैंने उस मकान में जाकर बिस्तर लगवा दिया। ऊपर उनको बिठाकर सुला आया दूसरी मंजिल पर। रात को कोई दो बजे चीख—पुकार की एकदम आवाज मची। खड़े छज्जे पर सामने, बिलकुल विक्षिप्त दशा में चिल्ला रहे थे कि बचाओ। तो मैंने कहा कि घबड़ाना क्या! चाभी मैं तुम्हें दे दिया हूं, तुम उतर के बाहर निकल आओ। उन्होंने कहा, उसी कमरे में से तो गुजरना पड़ेगा, जहां वह सब भूतलीला, भूत—प्रेतलीला चल रही है। तो बड़ी मुसीबत हो गई। तो उतारें कैसे। उन्होंने कहा, सीढ़ी लगाओ। सामने से सीढ़ी लगाई गई, वे इतने कंप रहे थे कि सीढ़ी पर से गिर पड़े। उनको मैंने लाख समझाया बाद में कि वहां कुछ भी नहीं है। पर उन्होंने कहा, मैं नहीं मान कसता। ऐसा हो ही नहीं सकता कि वहां कुछ न हो; क्योंकि मैंने बराबर पीपों में से भूतों को निकलते दूसरे पीपों में जाते देखा है—आंख से देखा है।
अब वे डींग नहीं मारते। कम से कम मेरे सामने तो नहीं मारते। और तब से वे भूत—प्रेतों के बड़े भक्त हो गए हैं। और मैंने भी उन्हें समझाया कि वहां कुछ नहीं है। सारी बात समझा दी कि पीपे हैं, आवाज करते हैं। उन्होंने कहा, छोड़िए, जब तक मुझे अनुभव नहीं था, एक बात थी। अपने अनुभव से कहता हूं।
 यह अनुभव माया है।
और बूढ़े आदमी जो भी अनुभव से कहता हैं इस संसार के संबंध में, वह सब अनुभव ऐसा ही है। सिर्फ उस आदमी के अनुभव का कुछ सार है, जो माया से जग गया हो, बाकी सब अनुभव ऐसा ही है। इस अनुभव का कोई भी मूल्य नहीं; क्योंकि तुम्हारी कल्पना, तुम्हारे भीतर की बेहोशी से प्रसूत है।
इसलिए कबीर कहते हैं,
माया महाठगिनी हम जानि!
निरगुन फांस लिए कर डोलै
वे कहते हैं, इससे बड़ा चमत्कार और क्या होगा कि जो निर्गुण है...तुम निर्गुण हो, तुम ब्रह्म हो, तुम परम ऊर्जा हो जगत की—निराकार, शुद्ध, इससे बड़ा चमत्कार क्या होगा! निरगुन फांस लिए कर डोलै। निर्गुण को फांस लिया है माया ने, और हाथ में हाथ डालकर डोल रही है।
माया महाठगिनी हम जानी।
बोलै मधुरी बानी!
और बड़े मधु वचन हैं माया के। होंगे ही, अन्यथा इतने लोग फंसते कैसे! बड़े मधुर वचन हैं। बड़े स्वप्न दिखाती है। एक रूप खड़ा कर देती है चारों तरफ। सपना इतना प्रगाढ़ हो जाता है, इतना इंद्रधनुषी कि तुम रुक नहीं सकते, पात्रता पर जाना होता है। सपने खोजने पड़ते हैं।
सारे लोग दौड़ रहे हैं अपने—अपने सपने की तलाश में। और उस सपनों को तुम कभी भी पाओगे नहीं, क्योंकि वे कहीं हैं नहीं, उनका कोई अस्तित्व नहीं है। आखिर में तुम पाओगे कि विषाद, हाथ खाली हैं। आखिर में तुम पाओगे: सब पा लिया तो भी हाथ खाली हैं, कुछ न पाया तो भी हाथ खाली हैं। आखिर में तुम पाओगे: मृत्यु आती है, सब सपने टूट जाते हैं, और तुमने जीवन का इतना बहुमूल्य अवसर व्यर्थ गंवा दिया। जहां सत्य जाना जा सकता था, वहां तुम सपनों के पीछे दौड़ते रहे। छोटे बच्चे तितलियों के पीछे दौड़ते हैं। अगर तुम गौर से देख सको तो बूढ़ों को भी तुम तितलियों के पीछे ही दौड़ते पाओगे। तितलियां बदल गई होंगी, क्योंकि बूढ़े अनुभवी हैं—लेकिन दौड़ नहीं बदलती। और दौड़ तितलियों के पीछे ही बनी रहती है। छोटे बच्चे को हम कहते हैं कि क्या पागल हुआ है, तितली को पकड़कर भी क्या होगा! लेकिन बूढ़े क्या पकड़ने के लिए दौड़ रहे हैं? तुम खुद क्या पकड़ने के लिए दौड़ रहे हो? तुम भी बच्चे थे, तितलियां पकड़ते रहे। तुम्हारे बच्चे भी कल बूढ़े हो जाएंगे, और वे भी अपने बच्चों को समझाएंगे, क्या तितलियों के पीछे दौड़ रहे हो! लेकिन बूढ़े भी तितलियों के पीछे दौड़ते रहते हैं।
और अगर चुनाव ही करना है, तो बच्चों की तितलियां ज्यादा ठीक मालूम पड़ती हैं, बजाय बूढ़ों की। बूढ़े नोट के पीछे दौड़ रहे हैं, पद के पीछे दौड़ रहे हैं; दिल्ली उनका मोद्व है, वे दिल्ली जा रहे हैं! धन उनकी आत्मा है, वे धन जोड़ जा रहे हैं! बच्चे कंकड़—पत्थर बीन लेते हैं, और बूढ़े हीरे—जवाहरात—फर्क कितना है? कंकड़—पत्थर में और हीरे—जवाहरात में कोई भी तो फर्क नहीं है।
अगर आदमी इस जमीन पर न हो, तो साधारण पत्थर में और कोहिनूर में क्या फर्क होगा? कोहिनूर कुछ अकड़कर कह सकेगा कि मैं विशिष्ट हूं। लेकिन बड़े से बड़े सम्राट भी...
कोहिनूर हीरा रणजीत सिंह के पास था। रणजीत सिंह की मृत्यु के बाद महारानी विक्टोरिया की नजर कोहिनूर पर लगी रही: कोई भी हालत में कोहिनूर पाना जरूरी है।
विक्टोरिया के पास सब कुछ था। बड़ा विराट साम्राज्य था, जिसमें सूर्य का कभी अस्त नहीं होता था। मगर यह कोहिनूर उसके हृदय में जख्म की तरह सताता रहा। और उसको सताने के लिए रणजीत सिंह कोहिनूर अपने घोड़े पर लटकाकर रखते थे। खुद नहीं लगाते थे उसको, घोड़े पर लटका रखा था।
रणजीत सिंह की मृत्यु के बाद, लड़का नाबालिग था रणजीत सिंह का, तो उसको विक्टोरिया ने इंग्लैंड बुला लिया। नाबालिग था, जब तक वह बालिग न हो जाए, तब तक राज्य का मालिक भी नहीं हो सकता था। तो तब तक उसकी शिक्षा—दिक्षा का भार ब्रिटिश राज्य ने ले लिया। वह लड़का लोगों से कहता फिरता था कि मुझे रस नहीं है, रस कोहिनूर में है। और यह और चोर है यह औरत। और कोहिनूर हीरा चुरा लिया गया। नाबालिग लड़का है, कहीं खो न दे, इसलिए कोहिनूर ले लिया गया ब्रिटिश साम्राज्य में। फिर वह कभी वापिस नहीं लौटाया गया।
विक्टोरिया की नजर भी एक पत्थर पर लगी है—जिसके पास सब है! बूढ़े भी कंकड़—पत्थर बीनते रहते हैं। बच्चों की तितलियां कम से कम जीवित हैं; तुम्हारी तितलियां बिलकुल मृत, मरी हुई हैं। लेकिन दौड़ जारी रहती है, क्योंकि माया तो एक ही है। वह बच्चों के भीतर है, वह बूढ़े के भीतर है। जब तक तुम जाग न जाओ, जब तक तुम्हारा नया जन्म न हो जागने में, तब तक तुम जो भी मरोगे वह मूढ़तापूर्ण है। माया से निकला हुआ सभी मूढ़तापूर्ण होगा।
एक बात ठीक से समझ लेना जरूरी है।
मैं जब भी माया की बात करता हूं, तो मुझे माया और ब्रह्म के सिद्धांत से कोई प्रयोजन नहीं है—कबीर को भी नहीं है। माया तुम्हारे भीतर बेहोशी होने की प्रक्रिया का नाम है—तुम्हारी सोये होने की दशा। तुम नींद—नींद में जी रहे हो। और सपने तुम्हारे चारों तरफ घिरे हैं। इसलिए ध्यान उपयोगी है। क्योंकि ध्यान माया को तोड़ने का प्रयोग है: कैसे तम जाग जाओ और माया छिन्न—छिन्न हो जाए। और तुम जागकर अगर जगत को देखो, तो तुम जगत को पाओगे ही नहीं, वहां तुम ब्रह्म को पाओगे। माया जब तक भीतर है, तब तक तुम सत्य को न देख सकोगे।
निरगुन फांस लिए कर डोलै, बोलै अधुरी बनी।
बड़ी मधुर बानी है, सभी को फांस लेती है। जब रुपए की खनकार तुम्हें सुनाई पड़ती है, तब कैसी मधुर मालूम पड़ती है! जब एक सुंदर चेहरा स्त्री का तुम्हें दिखाई पड़ता है, तो कैसा मधुर मालूम पड़ता है! जब एक पद तुम्हें पुकारता है, तो कैसा मधुर मालूम पड़ता है। पीछे सब कड़वा हो जाता है, लेकिन शुरुआत बड़ी मधुर है। ऐसा लगता है, जैसे हम जहरीली दवाइयां शक्कर का लेप चढ़ाकर देते हैं; जैसे जीवन का सब जहर हम पीने को राजी हैं—सिर्फ माया का थोड़ा—सा लेप चाहिए। पीछे सब जहर प्रकट होता है, लेकिन तब बहुत देर हो गई होती है।
इस बात को ध्यान में रखना कि जिस अनुभव में सुख पहले हो और पीछे दुख आए, उसे समझना कि वह माया से पैदा हुआ है। इससे विपरीत जिस अनुभव में दुख पहलू मालूम पड़े और सुख पीछे आए, समझना कि वह माया से पैदा नहीं हुआ है।
तप की परिभाषा इतनी ही है कि वहां दुख पहले है और सुख बाद में। और भोग की परिभाषा इतनी ही है कि वहां सुख पहले है और दुख बाद में। सुख स्वागत करता मिलेगा सदा—वह माया का सेवक है—पीछे दुख छिपा है। तपश्चर्या में, साधना में, जब तुम सत्य की खोज से भरोगे मुमुक्षा से, और जाओगे, तो पहले दुख मालूम पड़ेगा। और अगर तुम उस दुख से बहुत डर गए तो माया से कभी जाग न सकोगे। अगर तुम उस दुख के लिए राजी हो गए, तो जल्दी ही दुख नष्ट हो जाता है और महासुख के द्वार खुल जाते हैं।
दुख का अचेतन रूप से चुनना तपश्चर्या है।
सुख के पीछे दौड़ते रहना, तितलियों के पीछे दौड़ते रहना—और मजा यह है कि सुख के पीछे जो दौड़ता है, उसे सुख मिलता है; और जो दुख के लिए राजी है, वह महासुख का अधिकारी हो जाता है।
इस गणित को बहुत साफ समझ लेना जरूरी है। क्योंकि इस गणित को समझे बिना माया को तोड़ा नहीं जा सकता, उसकी मधुर वाणी से उठा नहीं जा सकता। बड़ा मीठा सपना है उसका।
केसव के कमला होइ बैठी, सिव के भवन भवानी।
पंडा के मूरत होइ बैठी, तीरथ में हूं पानी।।
जोगी के जोगिनी होइ बैठी, राजा के घर रानी।।
काहू के हीरा होइ बैठी, काहू के कौड़ी कानी।।
भक्तन के भक्ति  होइ बैठी, ब्रह्म के ब्रह्मानी
कहै कबीर सुनो भाई साधो, यह सब अकथ कहानी।।
कबीर कह रहे हैं कि जो नहीं कहा जा सकता, जो अकथ है, वह कहानी तुमसे कहता हूं। कहा तो नहीं जा सकता है, क्योंकि  कहना उन चीजों का संभव है, जो तर्कयुक्त हों। उन चीजों को कहना मुश्किल है, जो तर्क बिलकुल विपरीत हों। भाषा तर्क की सरिणी है। उसमें जो तर्कयुक्त है, वह वहां जा सकता है। लेकिन यह बड़ी अतक्र्य कहानी है कि तुम अपने ही कारण दुख पा रहे हो। हम कहेंगे यह बात तो हो नहीं सकती, क्योंकि हम तो सुख चाहते हैं, तो हम अपने ही कारण कैसे दुख पाएंगे! इसीलिए तो हम सदा कहते हैं कि दुख हम दूसरे के कारण पाते हैं। पति पत्नी के कारण पा रहे हैं, पत्नी पति के कारण; बेटा बाप के कारण, बाप बेटे के कारण। हम सदा सोचते हैं कि दुख हम दूसरे के कारण पा रहे हैं, वह तर्क—युक्त मालूम पड़ता है। क्योंकि हम अपने कारण दुख क्यों पाएंगे, हम तो सुख चाहते हैं।
कहानी बड़ी अकथ है। क्योंकि तुम सुख चाहते हो, इसलिए तुम दुख पा रहे हो। यह बड़ी अतक्र्य बात है, लेकिन यही सत्य है। और जब तक तुम सुख चाहोगे, तब तक तुम दुख पाओगे, और जिस दिन तुम राजी हो जाओगे दुख के लिए, उस दिन तुम दुख पाने के बाहर हो जाओगे। कहानी अकथ है।
अगर कोई तुमसे कहे कि तुम भटक रहे हो, क्योंकि तुम खोज रहे हो, तो बड़ा विरोधाभास मालूम पड़ता है। अगर कोई तुमसे कहे, अगर तुम रुक जाओ तो तुम पा लोगे, तो बड़ा विरोधाभास मालूम पड़ता है। बड़ी अकथ बात है! पर यही सत्य है। जब तक तुम दौड़ोगे, तुम न पा सकोगे। क्योंकि जिसको तुम खोजने चले हो, वह तुम्हारे भीतर छिपा है। जब तक तुम दौड़ते रहोगे, तब तक तुम भटकते रहोगे, क्योंकि जिसे तुम खोजने चले हो, वह तुम ही हो। तुम दौड़ के जाओगे कहां? और जितना तुम दौड़ोगे, उतनी ही उत्तेजना में तुम अपने को भूल जाओगे। रुक जाओ!
अकथ कहानी है! जो रुक जाते हैं, वे पा लेते हैं। पैराडाक्स है, विरोध है। तर्क मानने को राजी नहीं होता, तर्क क्या कहेगा? तर्क कहेगा, अगर तुम दौड़ते हो और नहीं पाते, तो जरा जोर से दौड़ो। साफ है, गणित सीधा है। दौड़ के नहीं पाते, इसका मतलब है, दौड़ पर्याप्त नहीं है—तेजी से दौड़ो! या दौड़ के नहीं मिल रहा है, तो इसका मतलब है, दिशा गलत है। तो ठीक दिशा चुनो। तर्क कहेगा, दिशा बदलो, दौड़ की गति बढ़ाओ, पहुंच जाओ। लेकिन, अगर तुम्हारे भीतर ही छुपी है, मंजिल, तो तुम किसी दिशा में जाओ—किसी भी दिशा में जाओ—गलत दिशा होगी। क्योंकि इसका दिशा से कोई संबंध ही हनीं तुम्हारे भीतर...
भीतर की दिशा को हमने गिना ही नहीं है कभी। हम कहते हैं, दस दिशाएं हैं। मैं कहता हूं, ग्यारह। क्योंकि दास तो बाहर हैं—आठ चारों तरफ, एक नीचे, एक ऊपर। और तुम्हारे भीतर? लेकिन भूगोल उस दिशा को बिनता ही नहीं। उसको हमने बाहर ही रख छोड़ा है और वहीं मिलेगा।
जिसे तुम खोज रहे हो, वह तुम्हारे भीतर छिपा है। तुम अपने को ही खोज रहे हो। तो तुम कोई भी दिशा चुनो, सभी दिशाएं गलत होंगी। तुम कोई भी मार्ग चुनो, तुम भटकोगे। और धीरे और जोर से दौड़ने का सवाल नहीं है। तुम कितने जोर से दौड़ो, जितने जोर से दौड़ोगे, उतने ही दूर निकल जाओगे।
रुको! सब दिशाएं छोड़ो! दसों दिशाएं छोड़ो! वहीं ठहर जाओ, जहां तुम हो! भीतर वहीं रुक जाओ जहां तुम हो। सब मार्ग छोड़ो। यही तो सहजता का अर्थ है। कोई मार्ग नहीं, कोई प्रयत्न नहीं, कहीं जाना नहीं, दौड़ना नहीं, आसन, व्यायाम नहीं। चुपचाप वहां रुक जाओ, जहां तुम हो। वहां वह सब छिपा है, जिसकी तलाश है।
दौड़ है माया, रुक जाना है ब्रह्म। तुम रुके कि उसे पा लिया। दौड़ोगे तो विचार में चलना ही पड़ेगा। मन की सहायता जरूरी है दौड़ने में। क्योंकि मन यंत्र है। वह तुम्हें मार्ग सुझाता है। वह मार्ग की कठिनाइयां दिखलाता है। वह, कैसे मार्ग को पार करो, इसकी विधि—विधान बनाता है। मन की तो जरूरत रहेगी अगर यात्रा करनी है। और जितनी ज्यादा यात्रा करनी है, उतनी ही ज्यादा मन की जरूरत होगी। और मन को तो छोड़ना है, तभी तुम पाओगे।
मन माया है। जैसे ही मन रुक जाता है, न कोई यात्रा—तीर्थयात्रा भी नहीं है। जैसे ही तुम अपने भीतर शांत और ठहर जाते हो, एक लहर भी नहीं उठती विचार की—तुम पहुंच गए! आ गई मंजिल! और तब तुम हंसोगे कि इसे खोजने को मैं कितना दौड़ा। तब तुम हंसोगे कि दौड़ने के कारण ही तुम इसे नहीं पा रहे थे। तब तुम हंसोगे कि मैं भी कैसा पागल था: अपने ही कारण दुख पा रहा था और सोचता था दूसरों के कारण दुख मिलता है।
जब तक तुम देखते रहोगे, दूसरों के कारण दुख मिलता है, तब तक तुम भटकोगे; क्योंकि तुम्हें कोई भी दुख नहीं दे रहा है; सिवाय तुम्हारा अपना ही जीवन का ढंग। तुम्हारे जीवन की पद्धति गलत है। वह माया से लिप्त है।
सोचो, तुम्हारा धन खो जाता है। एक चोर धन चोरी कर ले गया। तुम सोचते हो चोर ने तुम्हें बहुत दुख दिया? चोर क्या दुख देगा? धन में आसक्ति थी, इससे दुख हुआ। अगर आसक्ति न होती और चोर चोरी करके ले जाता, तो दुख होता? तो शायद तुम प्रसन्न होते कि चलो निर्भार हुए, इससे भी छुटकारा हुआ। तुम शायद धन्यवाद देते चोर को कि तेरी बड़ी कृपा, तूने बोझ कम किया। लेकिन आसक्ति है धन से, इसलिए दुख होता है चोर से।
पत्नी मर जाती है, तुम छाती पीटते हो, रोते—चिल्लाते हो—मृत्यु ने दुख दिया? तुम कहते हो, हे परमात्मा! तू क्यों इतना कठोर है? तुम कहते हो कि यह कैसा दुर्भाग्य का क्षण, यह मुझ पर ही क्यों घटा, दूसरों पर क्यों नहीं घटता? आखिर मुझे ही क्यों चुना? और मैं तेरी रोज प्रार्थना करता हूं, मंदिर, भी जाता हूं, गीता भी पढ़ता हूं, कुरान भी पढ़ता हूं, मस्जिद में पांच नमाज पढ़ता हूं—और यह फल मिला।
परमात्मा तुम्हें दुख दे रहा है, विधि दुख दे रही है, या कि तुम्हारी आसक्ति दुख दे रही है? तुम बंधे थे इस स्त्री से, और तुम सोचते थे इस स्त्री में ही तुम्हारा सुख है। अब यह स्त्री न रही, अब सुख कैसे मिलेगा? इससे तुम पंडित हो रहे हो।
खयाल करो, जब भी तुम दुखी होते हो तुम्हीं कारण हो। और जैसे ही यह बोध सघन हो जाएगा कि मेरे दुख का कारण मैं हूं, वैसे ही तुम दुख की प्रक्रिया को तोड़ने लगोगे। फिर तुम दुख चाहो तो बात दूसरी। चलो उस रास्ते पर, लेकिन तब शिकायत मत करना। और तब किसी से मत कहना कि किसी और के कारण मैं दुख पा रहा हूं। तब तुम्हारी मौज। तब दुख पाना ही तुम चुनते हो, ठीक। लेकिन तब शिकायत नहीं। लेकिन अगर तुम दुख नहीं पाना चाहते हो, तो दुख के मूल कारणों को समझने की कोशिश करो।
तुम क्रोधित होते हो, किसी ने गादी दी—और तुम कहते हो कि यह तो साफ है, यह आदमी गाली न देता और मैं क्रोधित न होता, न दुखी होता। लेकिन गाली से कोई कभी क्रोधित नहीं होता। क्रोधित तुम इसलिए होते हो कि तुमने एक अहंकार पाल रखा है, जो गाली से चोट खाता है। तुमने एक अस्मिता बना रखी है कि मैं एक बड़ा प्रतिष्ठिव व्यक्ति हूं और यह आदमी गाली दे रहा है। मेरी प्रतिष्ठा खराब कर रहा है। अहंकार को चोट लगती है गाली से; लेकिन अगर भीतर अहंकार न हो, तो गाली ऐसे निकल जाएगी, जैसे हवा का झोंका आया और निकल गया। तुम अछूते रह जाओगे, अस्पर्शित।
खयाल करो: कई बार ऐसा तुम्हें जीवन में हुआ होगा। पैर मैं चोट लग गई तो फिर दिनभर वहीं—वहीं चोट लगती है। सीढ़ी से निकलते तो टकरा जाते हो। किसी आदमी का धक्का लग जाता है। कुर्सी के पास से निकलते हो तो कुर्सी चोट मार देती है। जूता पहनते हो तो जूता काटता है। स्नान करने जाते हो तो पानी कष्ट देता है। दिनभर कुछ न कुछ। और तुम्हें लगता है कि बड़ी हैरानी की बात है, रोज ऐसा नहीं होता था, और आज चोट क्या लगी है, सारा संसार वहीं चोट मारने को उत्सुक है! कोई संसार तुम्हें चोट मारने को उत्सुक नहीं है। रोज भी यही होता था; लेकिन रोज चोट नहीं थी, इसलिए पता नहीं चलता था। रोज कुर्सी यही लगती थी, रोज जूता यही छूता था, रोज बच्चा घर आता था। पैर पर पैर रखकर चढ़ता था। लेकिन वहां चोट नहीं थी, इसलिए पता नहीं चलता था। आज पता चल रहा है।
गाली कोई देता है, लगती है चोट; क्योंकि अहंकार एक घाव की तरह तुम्हारे भीतर है। कोई प्रशंसा करता है, तुम खिल जाते हो; कोई निंदा करता है, तुम मुरझा जाते हो। यह कैसी गुलामी? और इसमें दूसरे का कोई हाथ नहीं है, इसमें तुम ही जिम्मेवार हो। जैसे—जैसे तुम गौर से देखोगे अपने जीवन के दुखों को, तुम पाओगे कि कहीं भीतर मैं ही जिम्मेवार हूं। वहीं माया है। और जिससे तुम्हें दुख मिल रहा है, उसको गिरा दो, उसे हटा दो। गाली किसी ने दी, उसको तो कहो कि तेरी बड़ी कृपा; और जहां चोट लगी, उस घाव को हटा दो।
कबीर ने कहा है, निंदक नियरे राखिए, आंगन कुटी छवाय। वह तुम्हें जो गाली दे, उसको तो तुम घर ही ले आना, उसको तो कहना कि तू पास ही रह, भैया। तू दूर रहेगा, पता नहीं कभी दे न दे, मिलता हो न हो, यहीं रह, बगल में तेरे लिए भी एक घर बना देते हैं। आगन कुटी छपाय। उसको बुढ़िया सुंदर व्यवस्था कर दो रहने की, ताकि वह सतत मौजूद रहे और तुम अपने अहंकार को अनुभव कर सको।
और असली सवाल अहंकार छोड़ने का है। असली सवाल भीतर कुछ बदलने का है। लेकिन बदलोगे कैसे? अगर जिम्मेवारी दूसरे पर छोड़ते हो, तो तुम भीतर देखोगे ही नहीं।
इस भीतर के अंधेपन का नाम माया है। और यह माया अनेक रूप ले लेती है। इसके रूप का कोई अंत नहीं है। तुम जैसा चाहो, वैसा रूप ले लेती है, क्योंकि माया सपना है। वहां कोई पदार्थ तो नहीं कि रूप देने में कोई कठिनाई हो।
तो कबीर कहते हैं, भक्त के लिए मूर्ति ही माया हो जाए, वह उसी को सम्हाल सम्हालकर फिरता है।
एक घर में मैं पंजाब में मेहमान हुआ। सुबह स्नान करने के लिए निकला तो जिस कमरे से गुजरा, वहां देखा कि गुरुग्रंथ साहब रखा है, नानक की वाणी रखी है, और एक लौटा रखा पास में और एक दतौन रखी है! मैं जरा हैरान हुआ कि दतौन और लोटा यहां किसलिए रखा है! तो उन्होंने कहा कि गुरुग्रंथ साहब के लिए, सुबह दतौन करने के लिए। किताब रखी है वहां, मूर्ति भी नहीं है! गुरुग्रंथ साहब के लिए दतौन रखी है! मूर्ति भी हो तो थोड़ा समझ में आता है। ऐसे तो वह भी मूढ़तापूर्ण है, क्योंकि तुम्हारी ही बनाई मूर्ति और तुम भलीभांति जानते हो, बाजार से खरीद लाए हो, और अब दतौन लौटा रखा हुआ है। लेकिन किताब के सामने तो हद हो गई। लेकिन हो गई हद इसलिए कि किताब का नाम है गुरुग्रंथ साहब। और किताब में एक व्यक्ति डाल दिया—साहब। तो भोजन भी दिया जाएगा गुरुग्रंथ साहब को; सुलाया भी जाएगा, उठाया भी जाएगा।
कबीर कहते हैं, भक्त के भक्ति होइ बैठी, जोगी के जोगने होइ बैठी, राजा के घर रानी। पंडा के मरत होइ बैठी, तीरथ हूं में पानी।
सारे संसार में उसने बहुत रूप लिए हैं। प्रश्न यह है कि जहां भी तुम्हारी आसक्ति हो, जहां भी तुम्हारा मोह हो, जहां भी तुम्हारा अंधापन लग जाए, राग जुड़ जाए, वहीं माया खड़ी हो जाएगी। अब किताब से राग लग गया तो किताब ही माया हो गयी। मुझसे राग लग जाए, वही माया हो गई। तो फिर मेरे कारण तुम परेशान होने लगे। और जहां माया होगी, वही परेशानी शुरू हो जाएगी। जागो!
माया महाठगिनी हम जानी।
जागो! और देखो भीतर कैसे—कैसे तुमने कितने रूप खड़े कर रखे हैं! और अपने ही हाथ...!
समझ काफी है, तोड़ने की कोई जरूरत भी नहीं है। समझ आइ तो तुम खुद ही हंसोगे—इस लोटा और दतौन को देखकर गुरुग्रंथ साहब के सामने रखा। समझ आई कि तुम खुद ही हंसोगे कि तुम मंदिर की मूर्ति के सामने हाथ जोड़े, घुटने टेके खड़े हो, तुम उससे बातें कर रहे हो। तुम पागल हो। किससे बातचीत चल रही है?
लोग मूर्ति से भी नाराज, नाखुश, खुश होते हैं। बड़ा मजेदार है। और तुमने मांगा कि इस लड़के की नौकरी लग जाए। संयोग की बात लग गई तो तुम बड़े प्रसन्न होते हो, मूर्ति से चर्चा करते हो, कि बड़ी कृपा है तेरी, तेरे बिना कुछ भी न होता, लड़के की नौकरी लग गई! न लगे नौकरी, नाराज हो जाते हो, मूर्ति को फेंकने को उतारू हो जाते हो।
ऐसे लोग को मैं जानता हूं, जो गुस्से में मूर्ति फेंक आए कुएं में। क्योंकि हो गए इतने दिन प्रार्थना करते—करते, पूजा करते—करते, और न कोई सुननेवाला है, न कोई पूरा करनेवाला है।
एक आदमी को मैं जानता हूं जो नास्तिक था, फिर आस्तिक हो गया। मैंने उससे पूछा, क्या हुआ? तुम तो बड़े नास्तिक थे! उसने कहा कि अब मानना ही पड़ता। लड़के को नौकरी नहीं लगती थी, सब उपाय कर लिए, सब की खुशामद कर ली, रिश्वत देकर देख ली, कुछ हल न हुआ, आखिरी कोई रास्ता न रहा तो मंदिर गया—और वहां मैंने कहा कि अगर लग गई लड़के को नौकरी पंद्रह दिन के भीतर, तो सदा के लिए भक्त हो जाऊंगा। अब हनुमान जी का भक्त हो गया हूं।
 हनुमान जी बेचारे इसके लड़के को नौकरी लगवाने के लिए कैसे जिम्मेवार हैं! कोई भी संबंध नहीं है। कोई हनुमान जी ने कोई एम्प्लायमेंट एक्स्चेंज नहीं खोला हुआ है। और अगर वे खोलेंगे भी तो बंदरों को नौकरी लगाएंगे, आदमियों को नहीं। सबके अपने रिश्तेदार, नाते—रिश्तेदार हैं।
मैंने इस आदमी से कहा कि तुम बंदर जैसे तो लगते भी नहीं। उसने कहा, क्या मतलब आपका? मैंने कहा, हनुमान जी तुम्हारी फिकर करेंगे! तुम अकारण अपने को इतना महत्वपूर्ण मान रहे हो। और इस कारण यह आदमी आस्तिक हो गया है। अब यह जाता है, हर मंगलवार निश्चित रूप से प्रसाद लेकर। मगर यह भरोसे का नहीं है। क्योंकि नौकरी छूट गयी तो नाराज हो जाएगा। पत्नी मर जाए और हनुमान जी न बचाएं—और कहां—कहां इसका साथ देंगे? हजार उपद्रव यह लाएगा। और जहां भी इसने पाया कि नहीं हुआ काम पूरा...यह आदमी कोई भरोसे का नहीं है। इसकी भक्ति माया का हिस्सा है। इसकी पूजा—प्रार्थना झूठी है। क्योंकि जहां मांग है, वहां कैसी पूजा, कैसी प्रार्थना!
जहां आकांक्षा है, वहां वासना है। वासना का प्रार्थना से कभी कोई संबंध नहीं जुड़ता। और जब वासना खो जाती है, तब प्रार्थना करने को क्या बचता है? क्या प्रार्थना, तब तुम्हारा पूरा जीवन ही एक प्रार्थना होता है। अलग से करने को क्या बचता है? तुम ऐसे जीते हो—प्रार्थनापूर्ण हृदय से अनुगृहीत भाव से...सारा संसार तुम्हें इतना दे रहा है, जरूरत से ज्यादा दे रहा है। परमात्मा ने तुम्हें जो दिया है, वह तुम्हारी योग्यता से अनंतगुना ज्यादा है। क्या है तुम्हारी योग्यता? तुम्हें जीवन दिया है, इतना काफी नहीं है? नौकरी चाहिए, तब तुम पूजा करोगे? तुम्हें इतनी बड़ी क्षमता दी है जागने की, होश की, कि तुम बुद्ध हो सको—वह काफी नहीं है? नौकरी चाहिए, तब तुम अनुग्रह—भाव प्रकट करोगे?
जो दिया गया है, वह जरूरत से ज्यादा है—यह भक्त का भाव है। और जो मेरे पास है, वह कम है, और मुझे मिले—यह अभक्त की प्रार्थना है। अगर इस हिसाब से सोचोगे, तो तुम्हें मंदिरों में अभक्त मिलेंगे, भक्त नहीं। भक्त्त क्यों मंदिर में जाएगा? क्योंकि भक्त के लिए तो यह सारा अस्तित्व ही मंदिर है। वह जहां है, वहां मंदिर है। और वह जो कर रहा है, वही उसकी प्रार्थना है।
कबीर ने कहा है, जो कुछ करूं सो पूजा! कबीर को किसी ने कभी मंदिर जाते नहीं देखा। इसलिए काशी के पंडित, पुजारी कबीर को कभी मान्यता नहीं दिए। और मरते वक्त कबीर ने कहा कि मुझे मगहर ले चलो।
कहानी है कि मगहर में जो मरता है, वह गधा होता है; और काशी में जो मरता है, वह भक्त होता है। जिंदगी भर काशी रहे, मरने के पहले कबीर ने अपने शिष्यों को कहा, मुझे मगहर ले चलो! काशी में मैं न मरूंगा। क्योंकि अगर काशी में मरे और स्वर्ग गए तो इसमें अपनी क्या खूबी! मगहर मर के स्वर्ग जाना है।
...एक मजाक कबीर का! हिम्मत के आदमी थे। भरोसे के आदमी थे। क्योंकि अगर भगवान पर भरोसा है, तो तुम मगहर में मरो कि काशी में, क्या  फर्क पड़ता है?
लोग मरने के लिए काशी जाते हैं! जीते हैं मगहर में गधों की तरह, मरते हैं काशी में, इस आशा में कि मोक्ष चले जाएंगे। कबीर जीये काशी में संतों की भांति, मरने गए मगहर! लोग सोचते हैं, जीयो कैसे ही, मरो काशी में! जीयो कैसे ही! मरते वक्त राम का नाम ले लेना, गंगा—जल पिला देना, काम खत्म हो गया।
तुम बड़े होशियार हो, चालाक हो! तुम्हारा धर्म भी तुम्हारी चालाकी का विस्तार है। जीयो जैसे तुम्हें जीना है—माया के साथ—मर लेना राम का नाम लेकर!
ध्यान रखना, तुमसे राम का नाम भी न निकलेगा मरते वक्त। क्योंकि मृत्यु में तो वही निकलेगा, जो जीवन में जीया गया है।जो पूरे जीवन का संग्रहीभूत सार है, वही तो मृत्यु में तुम्हारा साथ जाएगा।
तो पंडे—पुजारी हैं; आदमी मर रहा है, वे उसको कान में राम दोहरा रहे हैं। वह खुद भी नहीं दोहरा सकता। वह अपने मन में माया को इकट्ठा कर रहा है। जीवनभर में जो पाया, उसका हिसाब लगा रहा है; जो नहीं पाया उसकी शिकायतें कर रहा है। वह अपने भीतर तैयारी कर रहा है नये संसार में प्रवेश करने की, नये गर्भ में प्रवेश करने की—जहां जो—जो अधूरा रह गया, वह पूरा हो सके; जो तिजोरी खाली रह  गई, वह भरी जा सके; जो स्त्री मिली, मिलनी थी, वह मिल सके; जो पर पाना था, नहीं पाया जा सका, वह पा सके। वह अपने भीतर माया के सब बीज इकट्ठे कर रहा है। इसके पहले कि शरीर छोड़े उसकी आत्मा सारे बीजों को, माया के, इकट्ठे कर लेगी, ताकि नये गर्भ में प्रविष्ट होकर फिर यात्रा शुरू हो जाए। और किराए का आदमी! किराए का आदमी, क्योंकि वह भी राम उसके कान में दोहरा रहा है और सोच रहा है कि पांच रुपये मिलनेवाले हैं। यह बड़ा मजेदार मामला है। वह आदमी भीतर माया इकट्ठी कर रहा है। जो आदमी उसके कान में राम—राम कर रहा है, वह माया का हिसाब लगा रहा है, और इन दोनों के बीच में राम फंसे हैं।
ठीक कहते हैं कबीर, निरगुन फांस लिए कर डोले, बोलै बधुरी बांनी
सब फंसे मालूम पड़ते हैं। पुजारी फंसे हैं, पंडे फंसे हैं, भक्त फंसे हैं। माया के रूप बदल जाते हैं, फंसावट नहीं बदलती। तुम जाते जहां भी अपने को फंसा हुआ पाओ, खोजबीन करना भीतर, माया होगी। और जहां—जहां तुम फंसा हुआ पाओ, धीरे—धीरे वहां—वहां समझपूर्वक काटना। समझपूर्वक कहता हूं, क्योंकि गैर—समझपूर्वक भी तुम काट सकते हो, अक्सर लोग गैर—समझपूर्वक काट लेते हैं, तब अधूरी रह जाती है। तब नया सिलसिला शुरू हो जाता है। इस पत्नी को छोड़कर भाग जाओगे, दूसरी पत्नी कहीं न कहीं मिल जाएगी। घर छोड़ोगे, आश्रम में पहुंच जाओगे। घर में मोह था, आश्रम में मोह हो जाएगा। कच्चा कुछ भी मत तोड़ना, कच्चा तोड़ा नहीं जा सकता। इसलिए कहता हूं, समझपूर्वकसमझपूर्वक का अर्थ है, पककर। समझने की कोशिश करना। जितनी गहरी से गहरी समझने की कोशिश कर सको, क्यों फंसा हूं, क्या फंसावट है। क्यों बंधा हूं? कहां से यह बंधन मेरे भीतर पैदा हो रहा है? प्रवेश करना भीतर, कारण खोजना, और सब भांति कारण को समझना। जैसे ही समझ पूरी होगी, कारण विलुप्त हो जाएगा। तुम्हें तोड़ने की जरूरत भी न पड़ेगी। जैसे पक जाता है पत्ता, सुख जाता है, फिर हवा का छोटा सा झोंका भी न हो, तो भी सूख पत्ता गिरेगा ही। कोई कुल्हाड़ी लेकर काटना नहीं पड़ेगा। अक्सर लोग कुल्हाड़ी लेकर काट लेते हैं। तुम्हारे तथाकथित साधु—संन्यासी ऐसे ही लोग हैं, जिन्होंने कुल्हाड़ी से काट दिया, घाव रह गया। अब वह नई जगह उस घाव को भर रहे हैं। वही दौड़ है जो पीछे थी। कोई फर्क नहीं पड़ता। नाम बदल जाते हैं, रूप बदल जाते हैं, माया फिर जगह बना लेती है।
पकाना! प्रौढ़ता! होश! समझ! जल्दी मत करना! परमात्मा को कोई जल्दी हनीं है। तुम्हें भी जल्दी की कोई जरूरत नहीं है। धैर्यपूर्वक समझ को गहरा करना। जैसे—जैसे समझ साफ होगी, जैसे—जैसे तुम्हें दिखाई पड़ेगा, गाली में कष्ट नहीं है, मेरे अहंकार में है, तब अपने अहंकार को समझने की कोशिश करना। जिस दिन समझ पूरी हो जाएगी, उसी दिन तुम पाओगे कि भीतर एक सूखा पत्ता लटका था, वह गिर गया। उसके गिरते ही तुम मुक्त हो।
माया महाठगिनी हम जानी।
कहे कबीर सुनो भाई साधो, यह सब अकथ कहानी।
इस सूत्र से हम शुरू करते हैं। पूरी कहानी अकथ है, कही नहीं जा सकती, फिर भी कबीर ने कही है, और बड़ी मधुरता से, और बड़ी सफाई से कही है। बहुत स्पष्ट कही है। तर्क का जाल नहीं है। सीधे साफ, एक अपढ़ आदमी के शब्द हैं, तुम भी तर्क का जाल खड़ा मत करना। कबीर को सीधा—साधा समझने की कोशिश करना, कबीर का भाव अगर तुम्हारे भीतर प्रविष्ट हो जाए, तो तुम्हें समाधि के लिए कुछ भी करना न होगा।
समझ काफी है। समझ क्रांति है, समझ रूपांतरण है।
कुछ करना पड़ता है, इसीलिए कि समझ काफी नहीं है। इसलिए ध्यान करो, साधना करो; क्योंकि समझ काफी नहीं है। समझ काफी हो, तो कुछ करने को नहीं बचता। अनकिए सब होय—कबीर का वचन है। अनकिये सब होय। कुछ करना नहीं पड़ता। लेकिन तुम यह मत समझ लेना कि तुम्हें कुछ नहीं करना है। तुम्हें तो समझ, तुम्हें तो बहुत कुछ करना पड़ेगा। उस सबको करने से तुम्हारी समझ की क्षमता बढ़ेगी
यहां जो ध्यान के प्रयोग चलेंगे समाधि शिविर में, उन्हें संपूर्ण भाव से करना, उनके करने में कुछ क्षणों के लिए झलक मिलनी शुरू होगी—उस परम अवस्था की, जिसकी तरफ कबीर इंगित करेंगे।
लेकिन अगर तुमने अपने को थोड़ा भी बचाया तो चूकोगे। तुम पूरे के पूरे ही ध्यान में डूबने की कोशिश करना। अपनी तरफ से सब पूरा कर देना और शेष परमात्मा पर छोड़ देना। फिर भी न हो तो तुम्हारा कोई दायित्व नहीं। अपने तरफ से पूरी कोशिश कर लेना, फिर परमात्मा पर छोड़ देना। लेकिन अपनी तरफ से आधी कोशिश करके परमात्मा पर मत छोड़ना। क्योंकि उसका हाथ तुम्हारे पास तभी आता है, तब तुम अपनी पूरी कोशिश कर चूके होते हो; उसके पहले कोई जरूरत भी नहीं है।
एक नाव में कुछ यात्री यात्रा कर रहे थे, और एक फकीर भी था। तूफान उठा। भयंकर तूफान था और नाव डूबने के करीब आने लगी। सारे लोग घुटने टेककर प्रार्थना करने लगे, चीख—पुकार मच गई; परमात्मा बचाओ—बचाओ! सब हैरान हुए, अकेला फकीर चुपचाप बैठा था। तूफान चला गया। तब लोगों ने फकीर को घेर लिया और कहा, हम कुछ और अपेक्षा रखते थे! तू फकीर हो, संन्यासी हो; तुम्हें तो प्रार्थना करनी चाहिए थी। हम सब प्रार्थना कर रहे थे, तुम खाली बैठे रहे। क्या मामला है।?
उस फकीर ने कहा, जब तक हम कर सकते हैं, वह पूरा न कर लिया जाए, तब तक हम प्रार्थना के हकदार नहीं और परमात्मा का हाथ तभी आता है, जब हमने अपने हाथों का पूरा उपयोग कर चुकें। जब तक तुम्हारे पास कुछ करने को बचा है, तब तक तुम्हें परमात्मा की जरूरत भी नहीं है।
ध्यान के प्रयोग में तुम अपने को पूरा डुबा देना। अगर तुमने कुछ भी न बचाया, तुम अचानक उसका हाथ अपने सिर पर पाओगे। अचानक तुम पाओगे तुम उठा लिए गए। अचानक तुम पाओगे कोई तुम्हें ले चला। कोई नाव तुम्हें दूसरे किनारे की तरफ ले चली। फिर अनकिये सब होय। उसके पहले नहीं। अपनी तरफ से पूरा कर लेना, फिर उसकी तरफ से शुरू हो जाता है।

आज इतना ही।



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