ओशो से
बहुत शुरू में
ही मिलना हो
गया। खूब
सान्निध्य भी
मिला।
अनेकानेक
प्रवचनों में
ओशो के सामने
बैठे। धीरे—
धीरे तो जीवन
मानो ओशो का
ही होकर रह
गया। ओशो के
अलावा कुछ भी
ऐसा नहीं बचा
था,
जिसमें कोई
रस रहा हो।
इतना
होने पर भी मन
में कई बार यह
विचार उठता कि
ओशो से और भी
पहले मिलना हो
गया होता। आज
जो कुछ अनुभव
हो रहे हैं, वे
बहुत पहले हो
गये होते। यह
खयाल इतना
अधिक सताने
लगा कि एक दिन
ओशो से इस
बारे में पूछ
ही लिया। ओशो
ने ' रहिमन
धागा प्रेम का'
श्रृंखला
पर बोलते हुए
यह प्रश्न
लिया।
प्रश्न
:
इसका
रोना नहीं कि
तुमने क्यों
किया दिल बरबाद, इसका
गम है कि बहुत
देर में बरबाद
किया। मुझको
तो नहीं होश, तुमको तो
खबर हो शायद ,लोग कहते
हैं कि तुमने
मुझे बरबाद
किया।
स्वभाव!
बीज जब तक
मिटे नहीं, तब
तक उसका होना
सार्थक ही
नहीं है।
मिटने में ही
उसकी
सार्थकता है।
टूट कर बिखर
जाने में ही
उसका सौभाग्य
है। जो बीज
अपने को बचा
ले, वह अभागा
है। बीज को तो
गल जाना चाहिए,
मिट्टी में
मिल जाना
चाहिए; खोजे से भी न मिले,
ऐसा
आत्मसात हो
जाना चाहिए भूइम के
साथ। तभी
अंकुरण होता
है; तभी
जीवन का जन्म
है।
हृदय
तो बीज है
आत्मा का। जो
हृदय को बचा
लेते हैं, वे
आत्मा के जन्म
से वंचित रह
जाते हैं। और
जिन्होंने
आत्मा ही न
जानी, उनके
लिए परमात्मा
तो बहुत दूर
की कल्पना है—मात्र
कल्पना है, हवाई कल्पना
है, बातचीत
है। उसका कोई
मूल्य नहीं।
हृदय मिटे तो
आत्मा का
आविर्भाव
होता है। और
जिस दिन तुम
आत्मा को भी
मिटाने को
राजी हो जाते
हो, उस दिन
परमात्मा का
अनुभव होता है।
हृदय यानी
तुम्हारी
अस्मिता, मैं—
भाव। हृदय
यानी मैं पृथक
हूं अस्तित्व
से।
इस
पृथकता को
तोड़ो तो पहले
तो ऐसा ही
लगेगा कि बरबाद
हुए। और
दूसरों को तो
सदा ही ऐसा
लगेगा कि
बरबाद हुए। तो
दूसरे तो ठीक
कहते हैं कि
लोग कहते हैं
कि तुमने मुझे
बरबाद किया।
उनको तो सिर्फ
बरबादी ही
दिखेगी। उनको
तो तुम्हारे
भीतर जो घटित
हुआ है, उसकी
कोई खबर भी
नहीं हो सकती।
वह तो तुम्हीं
जानते हो कि
तुम्हारे
भीतर नये
अंकुर फूटे
हैं, नये
जीवन का
सूत्रपात हुआ
है। इसलिए तुम
कह सकते हो :
इसका रोना
नहीं कि तुमने
क्यों किया
दिल बरबाद,
इसका गम है
कि बहुत देर
में बरबाद
किया।
दूसरे
तो इतना ही
कहेंगे सिर्फ
कि हो गए
बरबाद। इस
आदमी ने
तुम्हें ड़बाया।
और वे ठीक ही
कहते हैं।
उनका अपना
हिसाब है।
अब
स्वभाव एक बड़ी
फैक्टरी के
मालिक... अभी कल
ही मैं देखता
था कि उनकी
फैक्टरी वेकफील्ड
को
अंतर्राष्ट्रीय
पुरस्कार
मिला है।
चित्र छपा था।
चित्र देख कर
मुझे लगा कि
स्वभाव अगर
संन्यासी न
होते तो शायद
चित्र में
होते, पुरस्कार
लेते हुए
दिखाई पड़ते
चित्र में।
कोई और ले रहा
है। स्वभाव ही
प्राण थे उस
संस्थान के।
सब छोड़—छाड़
कर मेरे साथ
दीवाने हो गए।
तो लोग तो
कहेंगे ही कि
बरबाद हो गए, कि पागल हो
गए। उनका भी
कोई कसूर नहीं।
उनके अपने
मापदंड हैं।
जैसे कोयला
अगर हीरा हो
जाए तो दूसरे
कोयले तो यही
कहेंगे कि हो
गए बरबाद।
कोयला ही हीरा
होता है, खयाल
रखना। कोयले
और हीरे में
कोई रासायनिक
भेद नहीं है।
कोयला ही
सदियों तक भूइम
के नीचे दबा—दबा
हीरे में
रूपांतरित
होता है। हीरे
और कोयले का
रासायनिक
सूत्र एक ही
है। हीरा
कोयले की
अंतिम परिणति
है और कोयला
हीरे की
शुरुआत है।
कहो कि कोयला
बीज है और
हीरा फूल है।
मगर दोनों
जुड़े हैं। जब
कोई हीरा
निर्मित होता
होगा कोयले के
टुकड़े से, तो
और कोयले के
टुकडे क्या
कहते होंगे? कि हुआ
बरबाद! गया
काम से! अपना न
रहा! अपने
जैसा न रहा!
मगर हीरे पहचानेंगे
कि दो कौड़ी
का था, आज
बहुमूल्य हो
गया।
तो
स्वभाव, जो
तुम जैसे ही
बरबाद हुए हैं,
वे पहचानेंगे।
तुम पहचानोगे।
क्योंकि इसके
पहले तुम जी
कहां रहे थे!
एक धोखा था, खींच रहे थे,
ढो रहे थे।
आज तुम जी रहे
हो। एक उमंग
है, एक उत्कुल्लता
है, एक
आनंद है। आज
तुम रसविभोर
हो। गई
अस्मिता, गया
अहंकार, गई
अकड़। आज तुम
तरल हो, सरल
हो। और यही
तरलता, यही
सरलता
तुम्हें
पात्र बनाएगी
उस परम घटना के
लिए। उस परम
सौभाग्य का
क्षण भी दूर
नहीं, जब प्रभु
भी तुममें उतर
आए, जब वह
महारास हो, जब उसकी
रसधार बहे।
लेकिन लोग तो
तब भी कहते
रहेंगे।
मीरा
से भी लोगों
ने यही कहा कि
तू क्या करती
है पागल! राजघराने
से है! महलों
से है!
बाजारों में
नाचती फिरती है!
सब लोक—लाज खो
दी!
बुद्ध
से भी लोगों
ने यही कहा सब
तुम्हारा था।
सुंदर महल थे।
सुंदर पत्नी
थी,
बेटा था।
बड़ी
संभावनाएं
थीं। जिस पद
और प्रतिष्ठा
के लिए लोग
जीवन भर दौड़ते
हैं, वह
तुम्हें
अनायास मिला
था। न मालूम
कितने—कितने
जन्मों के पुण्यों
का फल था! और
तुम लात मार
कर चले आए!
पागल हो तुम!
बुद्ध
ने जब अपना घर छोडा तो वे
राज्य छोड़ कर
चले गए, राज्य
की सीमा छोड
दी। क्योंकि
वहां रहेंगे
तो पिता
आदमियों को
भेजेंगे, लोग
समझाएंगे,
सिर पचाएंगे,
तो वे पड़ोसी
राज्य में चले
गए। लेकिन
पिता कुछ इतनी
आसानी से तो
नहीं छोड़ दे सकते
थे। उन्होंने
पड़ोसी राजा को
खबर की। बिंबिसार
पड़ोस का राजा
था। वह बुद्ध
के पिता का
बचपन का मित्र
था, दोनों
साथ—साथ पढ़े
थे, साथ—साथ
ही धनुर्विद
हुए थे।
पुरानी
दोस्ती थी।
उन्होंने खबर
भेजी कि मेरा
बेटा
संन्यस्त हो गया
है, वह
तुम्हारे
राज्य में
कहीं है, जाओ
उसे समझाओ।
बिंबिसार
गया। बहुत
प्रेम से
बुद्ध से मिला
और बुद्ध से
उसने कहा. हो
जाता है कभी।
हो गई होगी
कोई बात।
तुम्हारी और
तुम्हारे
पिता की नहीं
बनती, फिक्र छोडो। मैं
भी तुम्हारे
पिता जैसा हूं।
तुम्हारे
पिता के मुझ
पर बहुत उपकार
हैं। काश
तुम्हारे लिए
मैं कुछ कर
सकूं तो उऋण
हो जाऊंगा।
तुम आओ, यह
महल भी
तुम्हारा है
और यह राज्य
भी तुम्हारा
है। मेरी एक
ही लडकी
है, मैं
उससे तुम्हें
विवाहित किए
देता हूं। तुम
छोडो वह
राज्य। छोड
ही दिया, ठीक
है। नहीं जाना,
मत जाओ।
पिता से नहीं
बनती न, किस
बेटे की बनती
है! कोई फिक्र
न करो। इस
राज्य को
सम्हाल लो।
वैसे तो वह भी
राज्य तुम्हारा
है, क्योंकि
अकेले बेटे हो।
पिता बूढे हैं।
तो तुम दोहरे
राज्य के
मालिक हो
जाओगे। बुद्ध
हंसे और
उन्होंने कहा
: तो मालूम
होता है मुझे
यह राज्य भी
छोड़ कर भागना
पड़ेगा।
इसीलिए तो छोड़
कर चला आया कि
वहां समझाने
वाले आएंगे।
आप यहां भी आ
गए!
लेकिन
बिंबिसार
ने कहा कि तुम
अभी जवान हो, अभी
तुम्हें जीवन
का अनुभव नहीं,
जल्दबाजी न
करो, अधैर्य
न करो। चलो
महल। सोचो—विचारो।
समय दो। मैं
तुमसे कहता
हूं—पछताओगे
पीछे।
बुद्ध
ने इतना ही
पूछा कि क्या
तुम अपनी छाती
पर हाथ रख कर
यह कह सकते हो
कि तुमने जीवन
में वह पा
लिया जिससे
तृप्ति होती
है?
बिंबिसार
थोड़ा बेचैन
हुआ। छाती पर
हाथ रख कर तो न
कह सका। आदमी
ईमानदार रहा
होगा। उसने
कहा. यह तो मैं
न कह सकूंगा
कि मैंने वह
पा लिया है, जिससे
जीवन तृप्त हो
जाता है, जिससे
जीवन
परिपूर्ण हो
जाता है।
तो
बुद्ध ने कहा :
फिर मुझे बाधा
न डालो।
तुम्हारे महल
में मैं वही
पा सकूंगा जो
तुमने पाया है।
उससे तुम्हें
तृप्ति नहीं
मिली, मुझे
कैसे मिलेगी?
मेरे पिता
को नहीं मिली,
मुझे कैसे
मिलेगी? किसको
कब मिली है? तुम मुझे
मेरी राह पर छोड दो।
तुम मुझे मेरी
बरबादी पर छोड़
दो, दया मत
करो। क्योंकि
मैंने, तुम
जो आबाद हो, उनको मैंने
बरबाद देखा है।
तुम मुझे
बरबादी पर छोड़
दो। कौन जाने,
शायद यही
आबाद होने का
रास्ता हो।
और
एक दिन बुद्ध
आबाद हुए। और
एक दिन बिंबिसार
उनके चरणों
में झुका। एक
दिन बुद्ध के
पिता भी बुद्ध
के चरणों में
झुके।
आज
तो,
स्वभाव, तुम्हें
बहुत लोग
कहेंगे कि अभी
भी लौट आओ, अभी
भी कुछ बिगड़ा
नहीं है। घर, परिवार, भाई...
और वे सब
तुम्हें
प्रेम करते
हैं। ऐसा नहीं
कि वे
तुम्हारे कोई
दुश्मन हैं।
सब तुम्हारे
चाहक हैं। वे
सब चाहेंगे कि
तुम लौट आओ।
तुम्हारी ही
भलाई के लिए
चाहेंगे कि
तुम लौट आओ।
लेकिन उनकी
समझ कितनी है?
उनका अनुभव
कितना है? धन
का होगा, सुख—सुविधा
का होगा, ध्यान
का तो नहीं, अंतर—आनंद
का तो नहीं।
वे भी कहेंगे
कि तुम बरबाद
हुए, लेकिन
उनके कहने में
और तुम्हारे
कहने में बहुत
फर्क है। मैं
भी कहता हूं
कि तुम बरबाद
हुए। लेकिन
मैं कहता हूं
कि यही
सौभाग्य है, परम सौभाग्य
है कि तुमने
हिम्मत जुटा
ली और तुम बरबाद
हो सके। अब
द्वार खुलते
हैं
संभावनाओं के।
बीज टूटा कि
बस निकले नये
कोंपल, निकले
नये पत्ते, बनेगा बड़ा
वृक्ष कि
जिसके नीचे
हजारों लोग छाया
में बैठ सकें।
उड़ेगी
गंध आकाश में
कि गुफ्तगू
होगी चांद—तारों
से।
तुम ठीक कहते
हो:
इसका रोना
नहीं कि तुमने
क्यों किया
दिल बरबाद
इसका गम है
कि बहुत देर
में बरबाद
किया।
लगता
है ऐसा ही। जब
तुम जानना
शुरू करते हो
यह बरबादी का
मजा,
इस बरबादी
का रस, जब
पीते हो यह
जाम, तब
ऐसा ही लगता
है कि अरे, कितनी
देर हो गई, काश
यह जरा जल्दी
होता! लेकिन
कुछ भी समय के
पहले नहीं
होता है। जब
हो सकता था
तभी हुआ है।
समय के पहले
तुमसे कहता भी
तो तुम सुनते
नहीं। कितने
तो हैं जिनसे
कह रहा हूं
नहीं सुन रहे
हैं। वे भी एक
दिन कहेंगे कि
बहुत देर में
बरबाद किया।
बरबादी का रस
पी लेंगे, तब
कहेंगे न! अभी
तो बरबादी डराती
है, घबडाती है। अभी तो
बचने का उपाय
खोजते हैं।
कितने उपाय
खोजते हैं!
मेरे
विरोध में जो
बातें चलती
हैं,
वे और कुछ
भी नहीं हैं—सिवाय
अपने को बचाने
के उपाय के।
आत्मरक्षा के
अतिरिक्त
उनका और कोई
लक्ष्य नहीं
है। मेरे
खिलाफ इतना धुआ खड़ा कर
लेते हैं अपने
चारों तरफ कि
एक बात
निश्चित हो
जाती है स्वयं
के समक्ष, कि
नहीं इस आदमी
के साथ एक कदम
बढाना। बस
उतने के लिए
कितनी
गालियां
उन्हें देनी
पड़ती हैं, कितने
झूठ उन्हें गढ़ने पड़ते
हैं, वे सब
कर लेते हैं।
कितना
आविष्कार
उन्हें करना
पड़ता है! सब
करने के लिए
राजी हैं—सुरक्षा
के लिए, आला—रक्षा
के लिए।
हालांकि वे भी
एक दिन यही
कहेंगे।
स्वभाव
ने भी बहुत
दिन तक
खींचतान की।
कोई जल्दी ही
मिटने को राजी
नहीं होता।
कौन मिटने को
जल्दी राजी
होता है? धीरे—धीरे
ही यह रस लगता
है। यह रस है
भी बडा महंगा।
सौदा बड़ा
महंगा है। जो
है, वह तो
छूटने लगता है
हाथ से; और
जो नहीं है, उसका क्या
भरोसा? उसे
तो लगा देना
है दांव पर जो
पास में है—और
जो बहुत दूर
है, कहीं
आकाश में, उसकी
आशा में। बड़ा
साहस चाहिए, दुस्साहस
चाहिए! स्वभाव
भी खूब मुझसे
लड़े—झगडे
हैं। खूब रस्साकसी
की है। खूब
खींचतान की है।
बचने के जितने
उपाय कर सकते
थे, किए
हैं। लेकिन
सौभाग्यशाली
हैं कि उनके
सब उपाय हार गए।
कभी यूं होता
है कि हार में
ही जीत हो
जाती है और
कभी यूं होता
है कि जीत में
ही हार हो
जाती है। अगर
किसी जाग्रत
व्यक्ति के
पास हार सको
तो जीत गए; अगर
जीत जाओ तो
हार गए।
मगर
ध्यान रहे, जब
होता है, जिस
घड़ी होता है, वही घड़ी हो
सकता था। एक परिपकता
की घडी होती
है। एक प्रौढ़ता
की घडी होती
है। असमय में
इस जगत में
कुछ भी नहीं
घटता है।
मैंने लाख
उपाय किए हैं
अनेक लोगों के
साथ, लेकिन
अगर समय नहीं
पका था तो बात
नहीं हो सकी।
बनते—बनते
बिगड़ गई है।
और अगर समय
पका था तो
बिना उपाय किए
भी बात बन गई है।
जरा सा इशारा
और यात्रा
शुरू हो गई।
अन्यथा
पुकारते रहो,
चिल्लाते
रहो, बहरे
कानों पर बात
पड़ती है, कोई
सुनता नहीं है।
एक
बार एक चौक पर
दो बहरे मिले।
एक बहरे ने
दूसरे बहरे से
पूछा. क्यों
भाई,
क्या बाजार
जा रहे हो?
दूसरे
बहरे ने कहा.
नहीं—नहीं, जरा
बाजार तक जा
रहा हूं।
पहला
बहरा बोला :
अच्छा—अच्छा, मैंने
समझा कि बाजार
जा रहे हो।
बस
ऐसा ही होता
है। मैं कुछ
कहूंगा, अगर
समय नहीं पका
है, तुम
कुछ सम झोगे।
न समझो तो भी
ठीक। बिलकुल न
समझो तो भी
ठीक। कुछ का
कुछ समझोगे।
अर्थ समझ में
न आए, चलेगा;
लेकिन
अनर्थ समझ में
आ जाता है।
एक
दार्शनिक को
मजबूरी में
नौकरी करनी
पड़ी। कुछ उलटी—सीधी
बातें कहने के
कारण
विश्वविद्यालय
से निकाल दिया
गया। कुछ
बगावती बातें
कि
विश्वविद्यालय
बर्दाश्त न कर
सका। तो कुछ
और तो वह
जानता नहीं था, बस
कोई छोटा—मोटा
काम ही कर
सकता था। तो
एक घर में झाड—बुहारी
लगानी, बर्तन
मल देने, इस
तरह के छोटे
काम की नौकरी
कर ली।
दार्शनिक था
तो वह मालिक
से पूछे ही न।
खुद ही काफी
होशियार था।
अपनी
होशियारी से
ही काम करे।
मगर उसकी
होशियारी
दूसरी दुनिया
की थी।
दर्शनशास्त्र
की होशियारी
एक बात, बुहारी
लगाने का
मामला बिलकुल
दूसरी बात।
बर्तन मलना
बिलकुल दूसरी
बात।
तर्कशास्त्र पढ़ना और पढ़ाना
बिलकुल दूसरी
बात। इन दोनों
में कोई
तालमेल नहीं
है।
मालिक
उससे थक गया, घबडा
गया। आखिर
मालिक ने उससे
कहा कि सुनो
जी, जब भी
तुम कुछ करो, पहले मुझसे
पूछ लिया करो।
क्योंकि तुम
जो भी करते हो,
गलत—सलत
करते हो। तुम
जैसा समझदार
आदमी, ऐसी
आशा न थी, कि
तुमको मैंने
बाजार सब्जी
लेने भेजा तो
तुम दिन भर
सब्जी लाते
रहे।
पहले
भिंडी खरीद कर
लाया, फिर
भाजी खरीद कर
लाया, फिर
मूली खरीद कर
लाया, फिर
चटनी खरीद कर
लाया। एक—एक
चीज! दिन भर
सुबह से शाम
तक बाजार आता
रहा, जाता
रहा।
मालिक
ने कहा. हद हो
गई! ये कोई ढंग
हैं?
दार्शनिक
ने कहा. मैंने
तो सोचा कि एक—एक
काम को
परिपूर्णता
से निपटा लेना
चाहिए। ऐसे
बहुत से कामों
में उलझ जाने
से द्वंद्व खडा होता
है,
दुविधा खडी
होती है, उलझन
खड़ी होती है।
मैं साफ—सुथरा
और सुलझा हुआ
आदमी हूं। फिर
आप जैसा कहते
हैं!
एक
दिन आया।
मालिक किसी से
बात कर रहा था
तो वह खड़ा। जब
बात पूरी हो
गई तो उसने
मालिक से पूछा
कि मालिक, मैंने
खिड़की में से
देखा कि
रसोईघर में
बिल्ली दूध पी
रही है, अगर
आप कहें तो
उसे भगा दूं?
मगर
बात अगर यहीं
होती तो भी
ठीक थी। मालिक
बीमार पड़ा।
दार्शनिक को
भेजा कि जाकर
वैद्य को ले
आए। सुबह का
गया,
सांझ लौटा।
और वैद्य को
ही नहीं लाया,
कोई दस—पच्चीस
लोगों को साथ
लेकर आया।
मालिक के तो
होश उड़ गए
बीमारी भी उड़
गई साथ में।
एकदम उठ कर
बैठ गया, दिन
भर से पड़ा था।
और कहा कि
माजरा क्या है?
यह बारात किसलिए
लिए आ रहे हो?
उसने
कहा मालिक, आपने
कहा था न कि एक
दफे जाना
भिंडी लाए, एक दफे गए
फिर मूली लाए,
एक दफे गए
फिर सब्जी लाए,
फिर भाजी
लाए, यह
ठीक नहीं है।
एक ही दफे में
निपटा देना
चाहिए। तो मैं
गया, वैद्य
को लाया। फिर
हो सकता है
वैद्य काम कर
सके न कर सके, इसलिए एक
हकीम को भी
लाया। फिर पता
नहीं हकीमी
जमे न जमे, तो
एक एलोपैथ
को भी ले आया
हूं। और क्या
पता एलोपैथी
का, एक
नेचरोपैथ को
भी ले आया हूं।
और नेचरोपैथी
में पता नहीं
आपको भरोसा हो
या न हो, विश्वास
हो या न हो, सो
होम्योपैथ को
भी ले आया हूं।
सब तरह के
डाक्टर ले आया
हूं—एकबारगी
में!
फिर
भी मालिक ने
कहा कि इससे
भी हल नहीं
होता। ये
पच्चीस आदमी
क्यों?
तो
उसने कहा :
इनमें से कुछ
हैं जो पुलटिस
बनाते हैं।
क्योंकि कोई
डाक्टर कहे
पुलटिस बनाओ, फिर
जाओ बाजार।
फिर
भी मालिक ने
कहा कि इनमें
तो मुझे कुछ
गुंडे—लफंगे
भी बस्ती के
दिखाई पड रहे
हैं। उसने
कहा. मैं कुछ
ले आया हूं कि
हो सकता है
डाक्टर सफल
हों या न हों, अगर
आप मर ही गए तो
कब्रिस्तान
भी ले जाने के
लिए कोई चाहिए
कि नहीं? तो
अच्छे मजबूत..
.इन्हीं को तो
ढूंढने में
दिन भर लग गया।
अरथी का सामान
भी ले आया हूं
मालिक, बिलकुल
निश्चिंत रहो!
बाहर अरथी
तैयार हो रही है,
भीतर इलाज
चलेगा। एक ही
दफा में निपटा
दिया है।
मैं
तुमसे क्या कह
रहा हूं अगर
तुम उसे न
समझो तो भी
ठीक है। लेकिन
कठिनाई न
समझने की नहीं
है। अर्थ पकड
में न आए, इतना
ही नहीं है; अनर्थ पकड़
में आ जाता है।
और जब तक जीवन
की वह परम घडी
नहीं आई, वसंत
का क्षण नहीं
आया, जब
फूल खिले, उसके
पहले कुछ भी
नहीं हो सकता,
स्वभाव।
तुम्हारी
आकांक्षा
प्रीतिकर है।
लेकिन
अनुग्रह मानो
परमात्मा का
कि जब भी हुआ, जल्दी हुआ।
और भी देर लग
सकती थी। यह
शिकायत भी भूल
जाओ कि इतनी
देर क्यों लगी।
यह स्वाभाविक
है शिकायत। यह
सबको होता है।
यह स्वयं
बुद्ध तक को
हुआ था।
बुद्ध
को जब शान हुआ
तो उनको पहला
सवाल जो उठा वह
यही कि इतनी
देर क्यों लगी? यह
बात इतनी सरल
है। यह कभी की
हो जानी चाहिए
थी। इतने—इतने
जन्म लग गए इस
सरल सी बात के
होने में! यह
स्वाभाविक
अनुभव, यह
अपना ही
साक्षात्कार,
इतना समय
क्यों लिया? बेबूझ लगती
है पहेली।
लेकिन जीवन
पकाता है।
जीवन के सब
अनुभव पकाते
हैं। सुख और
दुख, सब
पकाते हैं।
दिन और रात, सर्दी और
गर्मी, सब
पकाते हैं। और
प्रत्येक
व्यक्ति के पकने
की अलग—अलग
शैली है। जैसे
हर फल के पकने
की अलग—अलग
शैली होती है
और हर वृक्ष
के फूल खिलने
का अलग—अलग
अवसर होता है,
अलग—अलग
मौका होता है।
कुछ फूल दिन
को खिलते हैं,
कुछ फूल रात
को खिलते हैं।
कुछ फूल गर्मी
में खिलते हैं,
कुछ फूल
सर्दी में
खिलते हैं।
कुछ फूल वर्षा
में खिलते हैं।
सब अपनी नियति
से जीते हैं, स्वभाव से
जीते हैं। और
स्वभाव की
प्रत्येक की
प्रक्रिया
निजी है।
तो
जो तुम्हें लग
रहा है कि
इतनी देर में
क्यों बरबाद
किया, वह
यद्यपि
स्वाभाविक है,
लेकिन उस
शिकायत को भी
जाने दो। कहो
कि चलो बरबाद
तो किया, देर
में ही सही!
कोई ज्यादा
देर नहीं हो
गई। अनंत काल
अभी भी शेष है।
अनंत काल तक
अब यह आनंद झरेगा,
बरसेगा।
क्या देर हो
गई? कुछ
देर नहीं हो
गई है।
शिकायत
की जगह हमेशा
अनुग्रह के
भाव को गहराओ।
इससे लाभ है।
अनुग्रह का
भाव मंगलदायी
है,
क्योंकि
अनुग्रह के
भाव के अतिरिक्त
और कोई
प्रार्थना
नहीं है।
(रहिमन
धागा प्रेम का)
आज
इति।
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