ओशो
के बारे में
अक्सर यह भी
कहा जाता है
कि वे बहुत
विरोधाभासी
हैं। पहली तो
बात यह समझने
की है कि ओशो
ने हर देश, हर
जाति, हर
विषय पर बोला
है। शायद ही
ऐसा कोई विषय
होगा जिस पर
ओशो नहीं बोले।
धर्म, दर्शन,
कला, विज्ञान,
मनोविज्ञान,
साहित्य, शिक्षा कुछ
भी तो नहीं
छोड़ा। एक ही
व्यक्ति पूरब
से लेकर
पश्चिम तक, उत्तर से
लेकर दक्षिण
तक फैली सारी
मानवता के हर
आयाम पर
लगातार बोलता
है।
मनुष्य के
शात इतिहास से
लेकर अधुनातन
विषयों पर वे
सतत् बोले हैं।
अब क्या विभिन्न
विषय इतने
विरोधाभासी
स्वत: ही नहीं
होते हैं? हर
विषय पर अपने
आप में एक अलग
ही दुनिया है
जब एक व्यक्ति
उस पर बोलेगा
तो उसके वचन
एक—दूसरे के
खिलाफ जाते तो
दिखाई देंगे
ही।
फिर
जब ओशो किसी
विषय पर बोल
रहे होते हैं
तो शत—प्रतिशत
उस विषय के
साथ न्याय
करते हैं, उस
विषय के साथ
होते हैं।
जैसे कि जब
ओशो सांख्य
योग पर बोलते
हैं तो फिर
उनके लिए
सांख्य योग ही
बच जाता है
बाकी सारी
बातें खो जाती
हैं। फिर
भक्ति, ध्यान,
भाव.. .सब एक
तरफ हो जाते
हैं। सांख्य
पर बोलते ओशो
पूरे
सांख्यमय हो
जाते हैं। फिर
जब भक्ति पर
बोलते हैं तो
वे पूरी तरह
से भक्ति पर आ
जाते हैं, फिर
सांख्य का अता—पता
भी नहीं रहता।
ओशो
का कार्य
क्षेत्र सारी
मानवता है, आज
से लेकर आने
वाले हजारों
वर्षों तक.. .हर
आयाम से
यात्रा करने
वाले लोगों के
लिए ओशो हर संभव
राह बना रहे
हैं। जिसको
जिस राह पर
चलना हो वह अपनी
राह चुन ले और
उस पर चल पड़े।
यदि ओशो के
कार्य को उसके
संदर्भ में
ठीक से समझा
जाये तो ओशो
का एक भी वचन
विरोधाभासी
नहीं मिलेगा।
उनका बोला हर
शब्द..
.निःशब्द की
यात्रा का आमंत्रण
है।
🙏🙏🙏
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