भक्ति का मारग झीनी रे—(प्रवचन—छठवां)
दिनांक:
16 नवंबर, 1974;
श्री
ओशो आश्रम, पूना।
सूत्र:
भक्ति
का मारग
झीना रे।
नहिं
अचाह नहिं
चाहना, चरनन लौ लीना
रे।
साधन
के रसधार में रहै, निसदिन
भीना रे।।
राम
में श्रुत ऐसे
बसै, जैसे
जल मीना रे।
साईं
सेवत में देइ सिर, कुछ विलय न
कीना रे।।
कबीर
एक महान
समन्वय हैं:
एक संगम—जैसे
प्रयाग राज; एक तीर्थ—जहां
जो भी श्रेष्ठ
है, वह सभी
संयुक्त हो
गया है। गंगा,
यमुना, सरस्वती
तीनों वहां
मिल गई हैं।
ज्ञान, कर्म
और भक्ति
तीनों का वहां
मेल हो गया
है।
कर्म
तो दिखाई पड़ता
है, भक्ति को
छिपाना
मुश्किल है।
ज्ञान बहुत
भीतरी धारा है।
इसलिए
तीर्थराज में
गंगा—यमुना तो
दिखाई पड़ती
हैं, सरस्वती
अदृश्य है।
सरस्वती
ज्ञान की देवी
है।
इस बात
को ठीक से समझ
लें।
कर्म
तो दिखाई
पड़ेगा ही, क्योंकि
कर्म का अर्थ
ही है: बाहर।
भक्ति को छिपाना
मुश्किल; जैसे
किसी को प्रेम
हो जाए तो
प्रेम को
छिपाना
मुश्किल। इस
दुनिया में सब
चीजें छिपाई
जा सकती हैं, प्रेम को
छिपाना संभव
नहीं है।
प्रेमी के पैर
का ढंग बदल
जाएगा। आंख
बदल जाएगी, एक नशा छा जाएगा, एक मस्ती
घेर लेगी, एक
राग
प्रतिध्वनित
होने लगेगा।
उठेगा, बैठेगा,
चलेगा—लेकिन
कुछ बदल गया!
कोई भी देख
लेगा, अंधा
भी पहचान
लेगा। इसलिए
प्रेमी कभी
प्रेम को छिपा
नहीं पाये।
साधारण प्रेम
नहीं छिपा पाए,
तो
परमात्मा का
प्रेम तो
असंभव है।
प्रेम तो ऐसे
जलेगा जैसे
अंधेरे घर में
दीया जलता हो।
दूर—दूर तक
प्रकाश दिखाई
पड़ेगा।
ज्ञान
प्रकट है गंगा
की भांति।
कर्म प्रकट है
गंगा की भांति।
प्रेम प्रकट
और अप्रकट के
मध्य में है, यमुना की
भांति। ज्ञान
की धारा बहुत
भीतर है; वह
सरस्वती है।
इसलिए ध्यान
को भर छिपाया
जा सकता है।
सच तो यह है कि
ध्यान को
प्रकट करना मुश्किल
है।
इसलिए
जिन्होंने
सिर्फ ध्यान के
मार्ग पर ही
यात्रा की है, जैसे सूफी
हैं, वे
छिप कर रह
सकते हैं।
सूफियों का
पता भी नहीं
चलेगा; तुम्हारे
पड़ोस में भी
रहता हो तो भी
पता न चलेगा।
पत्नी को पता
नहीं चलेगा कि
पति किसी ध्यान
की धारा में
डूबा हुआ है।
क्योंकि सारा
खेल बहुत गहरे
में है; छिपाया
जा सकता है, वस्तुतः
प्रकट करना
कठिन है।
प्रेम को
छिपाना कठिन
है। प्रेम को
बताना भी कठिन
है, छिपाना
भी कठिन है।
वह ठीक मध्य
में है। कर्म प्रकट
है। और कबीर
तीनों हैं।
कबीर
जीवन भर कर्म
से कभी अलग न
हटे। कर्म को
उन्होंने कभी
छोड़ा नहीं।
भक्त वे हैं।
उनका पूरा जीवन
कीर्तन की
मस्ती से भरा
हुआ जीवन है।
सुबह से रात
तक वे गाते ही
रहते हैं। और
वे गीत कुछ साधारण
नहीं। वह गीत
कंठ से नहीं
आया है। और उस गीत
का जन्म
बुद्धि और
विचारों से
नहीं हुआ है।
वह गीत उनके
प्राणों के
प्राण से उठा
है। उस गीत
में कविता कम
है; छंदबद्ध
वह नहीं है।
उसमें बड़ी भूल—चूक
हैं। लेकिन उस
गीत में हृदय
है। और हृदय ने
कब छंद माने
हैं, कब
नियम माने
हैं! सब नियम तोड़कर
हृदय बहता है।
हृदय तो ऐसा
है, जैसा
वर्षा में
पूरा आ गयी
गंगा, सब
किनारे तोड़कर
बहती है।
बुद्धि
सूखी है, जैसे
गरमी की गंगा
क्षीण हो जाती
है, किनारों
में बंध कर
बहती है। हृदय
आपूर होकर बहता
है।
तो
कबीर गाते रहे
जीवन भर। ये
सारे गीत
उन्होंने
बनाये नहीं, गाए हैं।
एक तो
कवि होता है, जो बनाता है,
जो श्रम
करता है, जो
सजाता है, भाषा
को बिठाता है,
व्याकरण
छंद, नियम
सबकी
व्यवस्था
करता है। और
एक ऋषि है जो
सिर्फ गाता
है। ऋषि भी
कवि है, लेकिन
कवि ऋषि नहीं
है। ऋषि भी
गाता है, लेकिन
उसका गीत कोई
बौद्धिक
आयोजन, कोई
व्यवस्था, भाषा,
व्याकरण, छंद नहीं
है। उसका गीत
तो सिर्फ हृदय
में आ गया पर
है। अपने भीतर
नहीं रोक सकता,
वह बाहर
बहता है। उसका
गीत उसकी
मस्ती है।
कबीर
जीवन भर गाते
रहे। उस गीत
में उनकी
भक्ति बही है।
भक्ति को वे
छिपा नहीं सके—कोई
नहीं छिपा
सकता। लेकिन
ध्यान को वे
भीतर सम्हाल
रखे। उसका नाम
जतन है। वह
भीतर घटना है।
उसका बाहर के
जगत से कोई
लेना—देना
नहीं। वह
अत्यंत एकांत
में घटती है।
कर्म में तो
तुम हो और
सारा संसार
है। भक्ति में
तुम हो और तुम्हारा
प्रेमी
परमात्मा है।
ध्यान में तुम
बिलकुल अकेले
हो। ध्यान में
परमात्मा भी
नहीं है।
कबीर
ने कह है, हेरत—हेरत हे
सखी, रह्या कबीर हेराइ।
खोजते—खोजते
खुद में खो
गया। अब मेरा
ही पता नहीं
चलता कि कहां
हूं। क्या खोजने
निकला था, वह
तो बात दूसरी
है जो
खोजने निकला
था, उसका
भी अब पता—ठिकाना
नहीं।
ध्यान
में ऐसी घड़ी
आती है; जब
तुम खोजने जो
चले हो, वह
तो मिलता नहीं,
तुम खो जाते
हो। लेकिन
तुम्हारे
खोते ही वह मिल
जाता है।
इसलिए एक बहुत
बड़ा
विरोधाभास, पैराडाक्स है; तुम
कभी परमात्मा
से मिल सकोगे।
क्योंकि जब
परमात्मा
घटेगा, तब
तुम न रहोगे।
जब तक तुम हो
तब तक वह घट
नहीं सकता।
इसलिए मनुष्य
का परमात्मा
से कभी मिलन नहीं
होता; परमात्मा
का ही
परमात्मा से
मिलन होता है।
मनुष्य तो खो
जाता है राह
में। मनुष्य
को खोजते—खोजते
ही गल जाता है,
पिघल जाता
है। मिलने की
घड़ी आते—आते
तुम अचानक चौंककर
देखोगे
कि जो खोजने
निकला था, वह
कहीं रास्ते
में छूट गया।
और जो पहुंचा
है मंजिल तक, इसकी तो
पहचान ही न थी
कि यह भी मेरे
भीतर है। और
जो पहुंचा है
मंजिल तक, यह
तो सदा मेरे
भीतर था; मंजिल
तक आने की कोई
जरूरत न थी।
जरा गर्दन
झुका ली होती,
तो अपने
भीतर ही देख
लिया होता।
मंजिल
भीतर है, परमात्मा
भीतर है; खोजनेवाले के खोने की
कमी है। ध्यान
में तुम
बिलकुल अकेले
हो। ज्ञान में
तुम बिलकुल
अकेले हो।
ज्ञान की विधि
ध्यान है।
भक्ति की विधि
प्रेम है। कर्म
की विधि सेवा
है।
क्राइस्ट, सेवा को
सारा साधन
माने। इसलिए
ईसाइयत में सेवा
आराधना बन
गयी।
बुद्ध, ध्यान की
सारी साधना का
केंद्र बनाए।
इसलिए बुद्ध
धर्म में सेवा
भक्ति दोनों
खो गए। केवल ध्यान
रह गया। कबीर
तीनों हैं।
मीरा हैं, चैतन्य
हैं—वे अकेले
भक्ति से जी
रहे हैं।
इसलिए
कहता हूं, कबीर
तीर्थराज
प्रयाग हैं, तीर्थों में
श्रेष्ठ है; क्योंकि
तीनों धाराएं
उनमें आ जाती
हैं; और
मिल जाती हैं।
उनसे बड़ी सिन्थसिस,
उनसे बड़ा
समन्वय घटित
नहीं हुआ है।
इसलिए कबीर को
समझाना भी
मुश्किल है।
क्योंकि जहां तीनत्तीन
अनूठी धाराएं
आकर गिरती हों
वहां बड़ी
असुविधा हो
जाएगी; तर्क
काम न पड़ेगा।
कभी कबीर यह
कहते मालूम
पड़ेंगे, कभी
वह कहते हुए
मालूम
पड़ेंगे। कभी
कहेंगे, कभी
उसका विरोध
करेंगे।
क्योंकि जो
कर्म के लिए
सच है, वही
भक्ति के लिए
सच नहीं; और
जो भक्ति के
लिए सच है, वह
ध्यान के लिए
सच नहीं; जो
ध्यान के लिए
सच है, वही
भक्ति मग बाधा
बन जाता है; और जो भक्ति
के लिए सच है, वह कर्म में
बाधा बन जाता
है। इसलिए
कबीर जैसे
व्यक्ति के
पीछे, एक
बड़ा रहस्य छूट
जाता है, जिसको
खोलने की
चेष्टा चलती
है सदियों तक,
लेकिन खोला
नहीं जा सकता।
आज का
जो गीत है, वह भक्ति से
संबंधित है।
पहले हम थोड़ा
भक्ति को समझ
लें, फिर
इस गीत में
उतरें।
प्रेम
हम जानते हैं, भक्ति से
हमारा कोई
संबंध नहीं
है। और प्रेम
भी हम बहुत
नहीं जानते
हैं; कभी
कण, क्षण।
कभी थोड़ी—सी
झलकें उसके
जीवन में उतरी
हैं। कभी क्षणभर
को ऐसा लगा है
किसी के साथ
कि हम खो गए।
जहां भी खोने
का अनुभव हो, समझना
प्रेम। अगर
खोने का अनुभव
जीवन में कभी न
हुआ हो, समझना
कि प्रेम से
अछूते रह गए।
और जो प्रेम से
अछूता रह गया,
वह भक्ति को
न समझ पाएगा।
क्योंकि जो
पास के सरोवर
में ही स्नान
करने न गया, उसकी यात्रा
सागर तक कैसे
हो सकेगी! जिसने
कभी खिड़की के
बाहर ही न झांका,
वह आकाश के
नीचे कैसे जा
सकेगा! जिसने
सामान्य
प्रेम को न
जाना, वह
असामान्य
भक्ति को कभी
न जान सकेगा।
इसलिए
जीवन के द्वार
खुले रखना!
प्रेम कहीं से
भी उतरे, उसे
उतरने देना।
क्योंकि वह
भक्ति की पहली
भनक है। वह
भक्ति की पहली
किरण है। और
अगर तुमने
प्रेम के
द्वार बंद कर
लिए तो तुम
कितने ही
मंदिरों में
सिर पटको,
और मस्जिदों
में चीखो और पुकारो और गिरजाघरों
में गीत गाओ—तुम्हारे
सब गीत, चीख—पुकार
व्यर्थ है, कहीं भी वह
सुनी न जा
सकेगी।
क्योंकि
तुम्हारी सब
चीख पुकार
तुम्हारे सिर
से आएगी, वह
तुम्हारे
हृदय से नहीं
आ सकती। हृदय
तो बंद ही पड़ा
रहा। वह बीज
तो टूटा ही
नहीं। वह तो
अंकुरण ही
तुम्हारे
भीतर नहीं
हुआ। तुम
कहोगे, नहीं,
प्रेम हमने
किया है।
पत्नी से
हमारा प्रेम
है, बच्चों
से हमारा
प्रेम है।
लेकिन थोड़ा
गौर करके
देखना, क्योंकि
प्रेम की
परिभाषा यही
है कि जिसमें
तुम खो जाओ।
कभी ऐसा क्षण
आया है जब
पत्नी में तुम
खो गए? नहीं,
सभी पतियों
की चेष्टा है
कि पत्नियां
उनमें खो जाए।
सभी पत्नियों
की चेष्टा है
कि पति उनमें
खो जाए। प्रेम
दूसरे को अपने
में नहीं
डुबाना चाहता,
अपने को
दूसरे में
डुबाता है। और
जो अपने को
दूसरे में
डुबाता है, वह दूसरे के
लिए तो अनायास
ही डुबाने
का कारण बन
जाता है।
तो तुम
जिसे प्रेम
कहते हो, वह
प्रेम नहीं
है। वह भी
शोषण का एक
ढंग है। वह भी
हिंसा का एक
मार्ग है।
अगर
तुम अपने
प्रेमी पर
कब्जा करना
चाहते हो, तो तुमने
प्रेम जाना ही
नहीं। तुमने
प्रेम को
पहचाना ही
नहीं। प्रेम
कब्जा नहीं
करना चाहता, कब्जा देना
चाहता है।
प्रेम मालिक
नहीं होना चाहता,
मालिक
बनाना चाहता
है। इसलिए तो
कबीर बार—बार
कहते हैं: कहे
दास कबीर! वह
जो दास शब्द
है, समझ
में लेना।
वह दास
का अर्थ क्या
है?
उसका
अर्थ है कि
प्रेम कब्जा
देना चाहता है; वह दूसरे को
मालिक बनाना
चाहता है।
तुम्हारा सारा
प्रेम मालिक
बनना चाहता है,
इसलिए झूठा
है। जरा सी
तरकीब और सब
भूल हो गई। तुम
दूसरे को दास
बनाना चाहते
हो। और प्रेम
खुद दास बनना
चाहता है।
प्रेम
अति विनम्र
है। प्रेम
आक्रामक नहीं
है। प्रेम तो
निमंत्रण है, आक्रमण
नहीं। प्रेम
तो बुलावा है।
प्रेम तो अपने
को मिटाने की
तैयारी है। और
जब तुम मिटने को
तैयार होते हो,
तब दूसरा भी
मिटने का भय
छोड़ देता है।
और जब तुम
दूसरे पर
कब्जा करना
चाहते हो तो
स्वभावतः दूसरा
भी तुम पर
कब्जा करना
चाहता है।
प्रेमियों की
यही तो कलह
है। प्रेम में
तो कलह हो ही
नहीं सकती।
लेकिन प्रेमी
निरंतर लड़ते देखे
जाते हैं।
उनकी कलह का
मूल आधार यही
है कि वे एक—दूसरे
को मिटाने में
लगे हैं।
पत्नी कितना
ही कहती हो कि
वह दासी है, लेकिन
चेष्टा उसकी
मालकिन बनने
की है। बाप कितना
ही कहता हो
बेटे के प्रति
कि मेरा प्रेम
है, लेकिन
बाप बेटे में
खोने को तैयार
नहीं है। बाप
चाहता है, बेटा
बाप का अनुसरण
करे, बाप
की छाया बने।
बाप बेटे को
मिटाना चाहता
है: मेरी
आज्ञा, मैं
जो कहूं, वही
ठीक हो तेरे
लिए भी। मैं
जो बताऊं
वही मार्ग
बने। मैं जो
कहूं वही तेरी
दिशा हो। तू
मेरे इशारे से
चले। तो बाप
प्रसन्न है।
जब कोई
तुम्हारे सब
इशारे मानकर
चलता है, तब
तुमने उसे
अपने में मिटा
लिया। यह
प्रेम नहीं
है।
अगर
बाप सच में ही
बेटे को प्रेम
करता है, तो
वह बेटे को
कहेगा कि तू
मेरे पीछे
चलने की चिंता
मत कर। तू तू
हो जा। मेरा
सारा सहारा
तेरे लिए, सारी
शक्ति तेरे
लिए; लेकिन
तू मेरी छाया
मत बनना। तू
खुद बनना। तू स्वयं
होना। तू अपने
ही जीवन की
सुगंध को पाना।
भला उस सुगंध
को पाने में
तुझे मेरी आज्ञाएं
तोड़नी
पड़ें, क्योंकि
मेरी आज्ञाओं
का क्या अर्थ!
भला उस सुगंध
को पाने में
तुझे मुझसे
दूर तक जाना
पड़े। मेरे पास
होने का और
प्रयोजन भी
क्या हो सकता
है, अगर
तेरी सुगंध न
मिले!
बाप
अगर प्रेम
करता है तो
बेटे में खो
जाएगा। बेटा
अगर प्रेम
करता है तो
बाप में खो
जाएगा। पत्नी
अगर प्रेम
करती है तो
पति मग खो
जाएगी। लेकिन
हम खोने से
डरते हैं।
खोने से ऐसा
लगता है: खो
जाएंगे, मिट
जाएंगे, तो
हम बचेंगे ही
नहीं। अहंकार
प्रताड़ित
होता है।
अहंकार बहुत
भयभीत होता है
कि खो गया अगर तो
फिर क्या
होगा! इसलिए
अहंकार ऐसे
इंतजाम करता
है कि प्रेम
घट ही न पाए।
ध्यान रखना, प्रेम को
विरोध में
अहंकार से बड़ी
और कोई चीज
नहीं है। घृणा
प्रेम का
विरोध नहीं है,
प्रेम का
अभाव है।
अहंकार प्रेम
का विरोध है। क्योंकि
अगर प्रेम
मिटना है, तो
अहंकार बचने
की चेष्टा है:
मैं बचा रहा
हूं: इसलिए
धीरे—धीरे
अहंकार के
कारण हम मिटने
के सब द्वार
बंद कर देते
हैं। इसलिए तो
हमने प्रेम की
जगह विवाह
ईजाद किया है।
क्योंकि
प्रेम खतरनाक
है। विवाह
सुविधापूर्ण
है। विवाह एक कनवीनीयन्स
है, एक
सुविधा है।
प्रेम एक
उपद्रव है। और
प्रेम में सदा
डर है कि चूके
कि गए! खाई सदा
पास है। और रास्ता
बीहड़ है
और साफ—सुथरा
नहीं है।
विवाह का
रास्ता राजपथ
है, सीमेंट
कांकरीट
का है। हजारों
उस पर चल रहे
हैं, आगे—पीछे
बड़ी भीड़ है, सुरक्षा है।
पुलिस चारों
तरफ तैनात है।
अदालतें
किनारे खड़ी
हैं।
मजिस्ट्रेट
अपनी वेशभूषा
में सजे
तैयार हैं।
विवाह
सामाजिक
संस्था है; प्रेम, व्यक्तिगत
छलांग है।
प्रेम में तुम
अकेले हो; विवाह
में पूरा जगत
तुम्हारे साथ
है। विवाह में
कुछ गड़बड़ होगी
तो अदालत में
तुम पूछताछ कर
सकोगे। वकील
सहारा बन
सकेंगे।
कानून की
किताबों में
रास्ते खोजे
जा सकेंगे।
प्रेम
में न कोई
वकील साथ होगा, न कोई कानून
की किताब
होगी। प्रेम
की दुनिया में
अब तक कोई
किताब प्रवेश
नहीं कर पायी;
और किसी
वकील को वहां
कोई जगह नहीं
है। प्रेम में
तुम निपट
अकेले हो।
अकेले होने से
डर लगता है।
और फिर
प्रेम का मतलब
ही मिटता है।
और मिटने से
लगता है, जैसे
मृत्यु हो
जाएगी। इसे
ध्यान रखो।
तीन
चीजों से मैं
अनुभव करता
हूं, लोग डरे
हुए हैं। सैकड़ों
लोगों के जीवन
की उलझनों को
सुलझाते—सुलझाते
तीन चीजें
निकाल पाया, जिनसे वे
डरे हुए हैं।
एक प्रेम...और
जो प्रेम से
डरा है वह
परमात्मा से
डर गया।
क्योंकि वे उसका
आखिरी परिणाम
है। दूसरा
मृत्यु...और जो
मृत्यु से डर
गया, वह
जीवन से डर
गया। क्योंकि
मृत्यु जीवन
की अंतिम घटना
है, शिखर
है, निष्पत्ति
है, सारे
जीवन का निचोड़
है। और तीसरा
ध्यान।
क्योंकि
ध्यान, और
मृत्यु, दोनों
जैसा है।
उसमें मरना भी
होता है, और
परमात्मा का
पाना भी होता
है; इसलिए
सबसे ज्यादा
खतरनाक ध्यान
है। प्रेम से
डरे कि
परमात्मा का
द्वार बंद
हुआ।
जब तुम
सामान्य किसी
स्त्री और
किसी पुरुष के
साथ भी न डूबकर
मिट सके, तो
तुम इस विराट
अस्तित्व के
साथ कैसे डूब
पाओगे? तुम
लड़ोगे, संघर्ष
करोगे, तुम
अपने को बचाओगे।
और जितना तुम बचाओगे, उतना ही तुम
पाओगे कि तुम
कमजोर होते जा
रहे हो।
क्योंकि
किससे तुम लड़
रहे हो? तुम
अंश हो इस
विराट के, इससे
तुम लड़ कैसे
सकोगे? तुम
इसी से पैदा
हुए हो। तुम
एक लहर की
भांति हो, लहर
सागर से लड़ेगी
कैसे? तुम
वृक्ष में
खिली हुई एक
नयी कोंपल हो,
यह कोंपल
पूरे वृक्ष से
संघर्ष कैसे
करेगी? और
अगर संघर्ष भी
करेगी तो क्या
जीत सकती है? हार निश्चित
है। जो भी
लड़ेगा। वह
हारेगा। जो भी
अपने को बचायेगा,
वह मिटेगा।
जीसस
ने कहा है, बचाया कि
तुम खो जाओगे।
खो गए कि फिर
तुम्हारे
मिटने का कोई
उपाय नहीं है।
हम समस्त से
लड़ कैसे
सकेंगे? जैसे
मेरा हाथ
मुझसे ही लड़ने
लगे, तो
हाथ जीतेगा
कैसे? हाथ
पागल हो गया—हारेगा,
मिटेगा, अपने
ही श्रम से, अपने को ही
नष्ट कर लेगा।
विराट के साथ
तो लीन होना
पड़ेगा। सब
संघर्ष छोड़
देना पड़ेगा।
वहां तो शरण—कबीर
कहते हैं कि
वहां तो चरनन
में, वहां
तो चरणों में
विलीन हो जाना
पड़ता।
उस
विराट छलांग
का पहला पाठ
प्रेम है।
लेकिन हम
प्रेम से डर
गए हैं। हमने
विवाह का
आयोजन कर लिया
है। विवाह शुभ
है, अगर
प्रेम के फूल
की तरह आए, अगर
वह प्रेम में
ही लगे। लेकिन
विवाह अशुभ है,
अगर वह
आयोजन से आए, अगर
व्यवस्था से
आए।
बड़ी
हैरानी की बात
है। मां, बाप
परिवार, पंडित,
पुरोहित, समाज, पंच,
वे तय करते
हैं। और जिनके
बाबत वे तय
करते हैं, उनसे
कभी पूछते भी
नहीं। वे
जानते हैं कि
उनसे पूछना
खतरनाक है।
क्यों? क्योंकि
वे जानते हैं,
वे अभी
अनुभवी नहीं
हैं। ध्यान
रखो, अनुभव
हमेशा प्रेम
के विरोध में
होगा। अनुभवी
का मतलब है:
अहंकारी। गैर—अनुभवी
का मतलब है:
निरहंकारी।
बच्चे
प्रेम में पड़
सकते हैं, बूढ़े प्रेम
में नहीं
पड़ते। इतना
अनुभव हो गया है
उन्हें, और
अहंकार इतना
अनुभव से भर
गया है कि जब
ऐसी भूल वे
नहीं कर सकते।
और जिसे वे
भूल कह रहे
हैं, उन्हें
पता नहीं, वह
भूल नहीं है।
उसको चूककर
ही, वे सब
चूक गए हैं।
क्योंकि बड़ी
से बड़ी कला मिटने
की, पिघलने
की कला है—इस
तरह पिघल जाने
की कि सीमा खो
जाए; इस
तरह पिघल जाने
की कि मुझे
पता ही न चले
कि मैं हूं।
प्रार्थना
की पहली झलक
प्रेम में आती
है। और परमात्मा
की अंतिम
परिणति भी
प्रेम में ही
होती है।
भक्ति प्रेम
का विस्तार
है। लेकिन आज
बीज हो तो विस्तार
हो जाए। बूंद
हो तो सागर भी
बन सकता है।
बूंद ही न हो
तो क्या करे?
इसलिए
पहले तो भक्ति
के मार्ग पर
जाने के क्षण
में सोचना कि
जीवन में
प्रेम आया? अगर वह नहीं
आया तो वह
मार्ग भूलकर
मत चुनना। क्योंकि
तुम्हारा सब
प्रयास
व्यर्थ होगा।
वह बिना बीज
के फसल करने
जैसी बात है।
तुम बैठे
रहोगे और फसल
न आएगी। तुम
चिल्लाओगे, कोई उत्तर न
आएगा। तुम
मंदिर में सिर
पटकोगे, सिर टूट जाए,
लेकिन कुछ
घटेगा नहीं, क्योंकि बीज
ही नहीं है।
जिनके
जीवन में
प्रेम न आ
पाया हो, भक्ति
उनके लिए
मार्ग नहीं
है। उनके लिए
ध्यान, उनके
लिए कर्म—लेकिन,
भक्ति
नहीं।
क्योंकि
ध्यान बिना
प्रेम के भी हो
सकता है। तुम
अकेले हो, दूसरे
से कुछ संबंध
जोड़ना नहीं
है। भक्ति तो
आत्यंतिक
संबंध है।
ध्यान सब
संबंधों से
तोड़ना है।
दोनों बिलकुल
विपरीत दिखाई
पड़ते हैं, लेकिन
परिणाम एक है।
प्रेम
को समझ लेना।
प्रेम
का सूत्र है:
डूबना, मिटना,
पिघलना, अपने
को खोना। और
जब यह खोना
किसी एक
व्यक्ति के
साथ नहीं
बल्कि समस्त
के साथ हो जाए,
तो भक्ति।
भगवान कोई
व्यक्ति नहीं
है। भगवान तो
समष्टि है, सबका नाम
भगवान है। जब
तुम्हारे
प्रेम ऐसा विराट
हो जाए कि
चाहे चट्टान
हो, चाहे
वृक्ष हो, चाहे
आदमी हो, चाहे
जानवर हो, जहां
तुम आंख डालो,
वहां
तुम्हें
भगवान दिखाई
पड़ने लगे; जहां
तुम्हारी आंख
जाए, वहीं
तुम उसे मौजूद
पाओ; जब
तुम्हारा
प्रेम ऐसा सघन
हो जाए कि
पत्ते—पत्ते
में उसकी ही
झलक मिलने लगे
और कण—कण में
उसकी धुन
सुनाई पड़ने
लगे—तब भक्ति
है।
पर
प्रेम का पाठ
सीख लेना
जरूरी है।
मेरे
देखे, यह
संसार एक
पाठशाला है, जहां हम
परमात्मा के
लिए तैयार
होते हैं। यह
संसार
परमात्मा के
विरोध में
नहीं है, यह
उसकी तैयारी
है। और इस
संसार के सारे
संबंध उस
आत्यंतिक
संबंध की
पूर्व—व्यवस्थाएं
हैं। ऐसा होना
ही चाहिए, क्योंकि
संसार अगर
परमात्मा के
विरोध में हो,
परमात्मा
पर संसार के
विरोध में हो,
तो संसार बच
ही कैसे सकता
है! इसके होने
का आधार ही खो
जाएगा। इसलिए
जिन लोगों ने
सिखाया है कि
परमात्मा को
पाना है तो
संसार के
विरुद्ध हो
जाओ, उन्होंने
गलत सिखाया
है। संसार के
विरुद्ध होने
से परमात्मा
नहीं मिलोगे;
संसार के
अतिक्रमण से
परमात्मा
मिलेगा। और इन
दोनों बातों
में बड़ा भेद
है।
अतिक्रमण
का अर्थ है:
संसार के ऊपर
उठ जाओ। वह विपरीत
जाना नहीं है।
संसार का
अनुभव जितना सघन
होगा, उतने
ही तुम ऊपर
उठने लगोगे।
जैसे—जैसे तुम
प्रेम में
उतरोगे—संसारिक
प्रेम में—वैसे—वैसे
तुम पाओगे कि
संसार खोता
जाता है और
परमात्मा
प्रकट होता
जाता है। अगर
तुम एक
व्यक्ति के भी
प्रेम में ठीक
से डूब जाओ, तो वही
व्यक्ति थोड़े
दिनों मग खो
जाएगा और दरवाजा
बन जाएगा, और
उस दरवाजे से
तुम पाओगे:
परमात्मा की
पगध्वनि
सुनाई पड़ने
लगी। लेकिन
तुम एक के भी प्रेम
में नहीं खो
सकते, तुम
बड़े कठोर हो।
तुम्हारा
हृदय बिलकुल
पत्थर की तरह
हो गया है।
तुम प्रेम की
बातचीत भी करते
हो, कविता
भी गुनगुना
लेते हो, लेकिन
सब सिर में
होती है, बातचीत;
हृदय से
कहीं कोई कंपन
नहीं उठता; हृदय अछूता
ही रह जाता है;
तुम्हारी
बुद्धि का ही
सारा उपक्रम
होता है। और
जब तब हृदय न
छू जाए, जब
तक हृदय
आप्लावित न हो
जाए, जब तक
हृदय में
रसधार न बहने
लगे, जब तक
हृदय में
तुम्हें
अनुभव न होने
लगे, कि एक
नया कंपन, एक
नयी सिंहरन
पैदा हो गई
है...।
यह जो
धड़कन है हृदय
की, इस धड़कन
के पीछे छिपी
एक और धड़कन है,
उसे तुमने
नहीं सुना। यह
धड़कन तो सिर्फ
खून की चाल से
पैदा होती है।
एक और धड़कन है,
जो प्रेम की
चाल से पैदा
होती है। सदा
से, अलग—अलग
कोई नहीं है
पृथ्वी पर—अलग—अलग
जातियों मग, अलग—अलग
संस्कृतियों
में, एक—दूसरे
से बिलकुल
अपरिचित
अनजान, लेकिन
जब भी प्रेम
की बात उठती
है, जब भी
प्रेम की
चर्चा उठती है
तो लोग हृदय
पर हाथ रख
लेते हैं। उस
संबंध में कोई
भेद नहीं है।
यह हैरानी की
बात है। हर
चीज में भेद
है, सिर्फ
इस एक संबंध
में मनुष्य
जाति में कोई
भेद नहीं है।
निश्चित ही, यह हृदय पर
हाथ रख लेना
कोई
सांस्कृतिक
और सामाजिक
घटना नहीं हो
सकती—अस्तित्वगत,
एक्जिस्टेंशियल होगी; क्योंकि
सामाजिक होती
हो भेद होते।
हर चीज
में भेद हैं।
ऐसी जातियां
हैं जहां हां
के लिए सिर को
ऊपर—नीचे
हिलाया जाता
है। ऐसी
जातियां हैं
जहां, हां
के लिए दाएं, बाएं हिलाया
जाता है। ऐसी
जातियां हैं
जहां ना के
लिए हम दायां—बायां
हिलाते हैं।
ऐसी जातियां
हैं जहां ना के
लिए हम ऊपर—नीचे
हिलाते हैं।
निश्चित ही वह
सिर का हिलाना
सांस्कृतिक ,
सामाजिक
सिखावन है; वह
अस्तित्वगत
नहीं है।
छोटी—छोटी
चीजों में
फर्क हैं।
मैंने बहुत
खाज की, एक
ही चीज में
फर्क नहीं है—और
वह है: जब भी
प्रेम की बात
उठे तो लोग
हृदय पर हाथ
रख लेते हैं।
यह हृदय पर
हाथ रखना
अस्तित्वगत
है। किस हृदय
पर हाथ रखते
हैं? अगर
हम शरीर
शास्त्री से
पूछें तो वह
कहेगा: तुम
पागल हो, यहां
कुछ भी हृदय
जैसा है नहीं,
सिर्फ
फेफड़े हैं; और पंपिंग
है, खून को
पंप करने की
व्यवस्था, पंपिंग
स्टेशन है, और तो कुछ
वहां है नहीं।
और यह जो धड़कन
है, यह
धड़कन तो सिर्फ
खून की गति से
पैदा हो रही
है। इस हृदय
की बात ही
नहीं है, यह
तो फेफड़ा ही
है। लेकिन इस
हृदय के ठीक
भीतर छिपा हुआ
एक और हृदय है।
जब तुममें
प्रेम की
रसधार बहती है,
तब उसकी
धड़कन सुनी
जाती है। कबीर
उसी हृदय की बात
कर रहे हैं।
लेकिन वह
रसधार बहती तब
है, जब
अहंकार की
चट्टान टूट
जाती है।
अहंकार की चट्टान
ही उस हृदय के
द्वार पर रखी
है। उसकी वजह
से ही दूसरी
धड़कन तुम सुन
नहीं पाते हो।
अब हम
इन सूत्रों
में प्रवेश
करने की कोशिश
करें।
भक्ति
को मारग
झीना रे।
...कहते
हैं कबीर कि
भक्ति का जो
मार्ग है, बहुत
नाजुक है, बहुत
डेलीकेट
है। होगा ही।
कर्म का मार्ग
सबसे ज्यादा
स्थूल है—भूखे
को रोटी दो, बीमार का
पैर दाब दो, गरीब की
सहायता करो, असहाय की सेवा
में लगो। कर्म
का मार्ग सबसे
ज्यादा स्थूल
है। इसलिए
पश्चिम में क्रिश्चियनिटी
का इतना
प्रभाव पड़
सका। क्योंकि
पश्चिम की पकड़
बहुत स्थूल है,
मैटीरयलिस्टिक है। जितना
ज्यादा
पदार्थवादी
व्यक्ति होगा,
उतना ही
ज्यादा कर्म
का मार्ग निकट
मालूम पड़ेगा।
क्योंकि
पदार्थ के
सबसे ज्यादा
करीब कर्म है।
कर्म जैसे तुम्हारे
घर का पहला
द्वार है।
करो, लेकिन जो भी
करो, उसे
परमात्मा को
समर्पित करके
करो। इसलिए क्रिश्चियनिटी
बहुत प्रभावी
हुई। आधी
दुनिया आज
ईसाइयत के साथ
है। उसका कारण
भी साफ है।
क्योंकि
ईसाइयत की
सारी
प्रक्रिया
कर्म की है।
दूसरे धर्मों
को भी ईसाइयत
से प्रतियोगिता
करनी पड़ती है।
इसलिए वे भी
कर्म की थोड़ी—थोड़ी
बातें करते
हैं, लेकिन
जमती नहीं बात;
क्योंकि
उनके प्रयोग
ज्यादा गहरे
और सूक्ष्म
हैं और उनसे
मेल नहीं
खाते।
हमने
कभी सोचा ही
नहीं कि
संन्यासी
जाकर गरीब के
पैर दबाएगा।
यहां तो गरीब
ही संन्यासी
के पैर दबाता
रहा है। सेवा
हम संन्यासी
की करते रहे
हैं। संन्यासी
से हमने सेवा
की अपेक्षा
नहीं की। हम
सोच ही नहीं
सकते कि बुद्ध
और महावीर
अस्पताल में मरीजों
की सेवा कर
रहे हैं। मरीज
करने भी न देंगे।
बगावत हो
जाएगी उनके
खिलाफ, हट
जाएंगे, भाग
जाएंगे मरीज
कि हमारी
सेवा...यह कैसे
हो सकता है!
क्योंकि
बुद्ध और
महावीर, अंतिम
जो गहरा से
तत्व है ध्यान,
वहां खड़े
हैं।
ध्यान
सूक्ष्म है, अति सूक्ष्म
है। कर्म
स्थूल है, अति
स्थूल है।
दोनों के
माध्य में
नाजुक भक्ति
है। लेकिन
भक्त की भी
बहुत प्रभावना
नहीं हो सकती।
क्योंकि भक्त
गाता है, नाचता
है, मस्त
है, लेकिन
तुम्हारी
मस्ती से
दूसरी को क्या
मिलेगा? भूखे
को रोटी नहीं
मिलेगी।
बीमारी का
इलाज नहीं हो
जाएगा। इसलिए
दोनों मार्ग
ज्ञान और भक्ति
के धीरे—धीरे
धूमिल हो गए
और एकदम स्थूल
जो है, सबसे
ज्यादा स्थूल जो
है, कर्म
का मार्ग, वह
सामने रह गया।
गीता
पर हजारों
टीकाएं हैं—कोई
एक हजार से
ऊपर। सबसे
स्थूल टीका
लोकमान्य
तिलक की है; लेकिन बड़ी
प्रभावी हुई,
इस मुल्क को
खूब प्रभावित
किया, क्योंकि
कर्म पर
लोकमान्य का
जोर है। शंकर
की सबसे
ज्यादा
सूक्ष्म है, क्योंकि ज्ञान
पर जोर है।
रामानुज की डेलिकेट
है, नाजुक
है—भक्ति पर
जोर है। लेकिन
रामानुज और
शंकर सब फीके
पड़ गए; लेकिन
लोकमान्य की
व्याख्या बड़ी
प्रभावी हो गई।
भारत
भी धीरे—धीरे
स्थूल की तरफ
गिरा है। जब
हमको भी वही
दिखाई पड़ता है
तो पदार्थ है।
अब हम भी
पदार्थ से ज्यादा
कुछ नहीं देख
पाते।
सूक्ष्म को
देखने की हमारी
क्षमता भी हो
गई है। नाजुक
से हमारे
संबंध टूट गए
हैं। नाजुक को
समझने के लिए
एक सांस्कृतिक
ऊंचाई चाहिए, एक परिष्कार
चाहिए।
मुल्ला
नसरुद्दीन
ने एक
शास्त्रीय
संगीतज्ञ को
निमंत्रित
किया था—ख्यातिलब्ध
शास्त्रीय संगीतज्ञ
था। बड़ी
कठिनाई से
उपलब्ध था। सब
पास—पड़ोसियों
को निमंत्रित
किया था। जब
सभा बैठ गई।
संगीत—सभा
शुरू हो गई तो
संगीतज्ञ ने
बड़े आदर भाव
से पूछा कि
मुल्ला आप कौन
सा राग पसंद
करते है?
मुल्ला
ने कहा, राग—वाग
कोई भी चलेगा।
अपना प्रयोजन
तो पड़ोसियों
को परेशान करने
से है।
शास्त्री
संगीत बड़ी
नाजुक बात है।
लेकिन अगर समझ
में न आता हो
तो सिर्फ
परेशानी पैदा
होती है।
अब
भक्त परेशानी
पैदा करता है; समझ में
नहीं आता। अगर
भक्त आपके बीच
खड़ा हो तो या
तो आप समझेंगे
पागल है, बुद्धि
खराब हो गई...।
अब भक्त से
हमारे संबंध नहीं
जुड़ते।
क्योंकि हम
इतने नीचे तल
पर खड़े हैं कि
वहां से नाजुक
फूल दिखाई
नहीं पड़ता है,
आंखें
पहचान नहीं
पातीं। अगर
चैतन्य वापस
लौट आए और
तुम्हारे
गांव में
नाचते हुए गुजरें,
मीरा आ जाए
और गीत गाए
तुम्हारी गली
में, तो
तुम बहुत रस
पा न सकोगे।
कठिन
है, क्योंकि
तुम यह न देख
पाओगे कि कहां
से यह घटना घट
रही है! चैतन्य
जब गा रहे हैं
और नाच रहे
हैं, तो उस
समय भी बंगाल
में लोगों ने
कहा कि यह लंपट
है...तो अब तो
बड़ी मुश्किल
है। अब तो तूम
समझोगे कि
मालूम होता है
प्रभुदास
का शिष्य है, कृष्ण—कांशयसनैस
में सम्मिलित
हो गया है।
चैतन्य
को समझने के
लिए भाव—दशा
चाहिए। भाव
विचार नहीं
है। विचार तो
तुम शास्त्र
से पा सकते हो, विद्यालय
में सीख सकते
हो। लेकिन भाव
एक अनुभव है; अगर हो तो हो,
न हो तो न हो!
भाव का अर्थ
है कि तुमने
भी उसे जाना
है, एक झलक
तुम्हें भी
मिली है, तुम
भी उसे जिए हो।
न सही उतना
गहरा, न
सही उतने दूर
गए हो, लेकिन
नदी में उतरकर
दो हाथ तुमने
भी तैरने के
मारे हैं:
तुम्हें भी
तैरने का पता
है कि क्या
है।
विचार
उधार हो सकता
है, भाव कभी
उधार नहीं हो
सकता। भाव, अनुभव हो तो
हो, नहीं
हो तो न हो।
कितना ही कहो
कि तैरने में
बड़ा आनंद है, बड़ी पुलक है,
तैरने का
बड़ा रहस्य है—और
तुम अगर कभी
नदी में नहीं
उतरे, तुम
कहोगे, होगा!
तुम सोचोगे, इसमें होगा
क्या, ज्यादा
से ज्यादा
पानी में हाथ—पैर
मारने से हो
क्या सकता है!
लेकिन
तुम्हें खयाल
भी नहीं, जो
तैरनेवाले
के अनुभव में
आता है, वह
पानी में हाथ—पैर
मारना नहीं है,
वह पानी और
स्वयं के बीच
एक लयबद्धता
को पैदा करना
है। और जब तैरनेवाला
सच में ही
शिखर पर
पहुंचता है
तैरने के, तो
तैरना समाप्त
ही ही हो
जाता है। नदी
ही सारा काम
करती है। वह
नदी पर ही तिरता
है, तैरता
नहीं है। उसे
कोई श्रम नहीं
करना होता। एक
लयबद्धता नदी
के प्राण के
बीच और उसके
बीच हो जाती
है। नदी के
देवता से उसकी
पहचान हो गयी।
अब जैसे नदी
का देवता ही
उसे उठाकर
चलता है। अब
कोई सम्हालना
है उसे। नदी
उसे डुबाती नहीं,
नदी उसकी
दुश्मन नहीं
है। एक गहरी
मैत्री हो गयी
है।
अगर
तुम कभी नदी
में नहीं उतरे
तो तुम्हें
ज्यादा से
ज्यादा इतना
ही दिखाई पड़ता
है कि यह आदमी
हाथ—पैर फेंक
रहा है, इससे
फायदा क्या!
व्यायाम है।
हम घर पर ही कर
लेंगे। अपने
बिस्तर पर
लेटकर हाथ पैर
फेंक लेंगे।
तो इतना ही
व्यायाम होगा,
ज्यादा भी
हो सकता है।
तो झंझट क्यों
लेनी! खतरा
क्यों मोल
लेना।
लेकिन
तुम्हें पता
नहीं जो तैरनेवाले
के भीतर घट
रहा है। अगर
तैरने की
प्रक्रिया ठीक
हो, विचार खो
जाते हैं; नदी
की धार के साथ
एक लीनता जुड़
जाती है। नदी
ले जाने लगती
है। तैरनेवाला
धीरे—धीरे
अपनी अस्मिता
को छोड़ देता
है, नदी का
अंग हो जाता
है; जैसे
वह भी नदी है; तिरता है। और उस तिरने में
जो आनंद की
प्रतीति होती
है, वह
प्रतीति
तुम्हें वह दे
नहीं सकता, न बता सकता
है। वह कितना
ही कहे। अगर
तुम्हें थोड़ा
अनुभव हुआ
हो...तो संतों
ने कहा है, गूंगे
का गुड़। गूंगे
को गुड़ दे दो।
स्वाद तो उसे
आ जाता है।
बोल वह नहीं
सकता। लेकिन छोड़ो
गूंगे को। तुम
तो गूंगे नहीं
हो, तुम्हें
कोई गुड़ दे दे,
तुम्हें तो
स्वाद आ
जाएगा। तुम
बोल भी सकते
हो, बोलोगे
क्या? और
जिसने कभी
मिठास न जानी
हो, जिसने
कभी मीठा
अनुभव न किया
हो, उसे
तुम कितना कहो,
मीठा
है...मीठा
है...मीठा
है...शब्द
सुनाई पड़ेगा,
लेकिन शब्द
में कोई अर्थ
तो होगा नहीं,
क्योंकि
अर्थ तो अनुभव
से आता है।
मिठास
एक प्रतीति
है।
कबीर
ने कहा है, गूंगे केरी सरकरा।
सभी
गूंगे हैं भाव
के संबंध में।
विचार के संबंध
में, मुखर; भाव
के संबंध में,
गूंगे। तुम
नहीं जान सकते
कि क्या भाव
दशा है। अगर
प्रेम का थोड़ा
अनुभव हुआ हो,
तो भक्ति का
मार्ग इतना
नाजुक है, बारीक
है, झीना
है, सूक्ष्म
है, वह
तुम्हें खयाल
में आ सकेगा।
नाजुक
का क्या अर्थ
हो सकता है? झीनी का
क्या अर्थ
होता है? झीने
का अर्थ होता
है: जिसे
सम्हालने में
बड़ा यत्न करना
पड़े। तुमने
संगीतज्ञों
को देखा होगा,
इसके पहले
कि वे अपना
संगीत शुरू
करें, घड़ी
आधा घड़ी साज
को बिठाने में
लगाते हैं।
नासमझ तो उसी
में ऊब जाते
हैं कि यह
क्या लगा रखा
है। कहीं हथौड़ी
से ठोकते हैं,
कहीं तार
खींचते हैं, कहीं कुछ
करते हैं, लेकिन
वे क्या कर
रहे हैं? वे
साज को एक नाजुक
हालत में ला
रहे हैं, जहां
संगीत संभव हो
सकेगा। वे
तारों को उस
जगह बिठा रहे
हैं, जहां
न तो वे
ज्यादा कसे
होंगे और न
ज्यादा ढीले
होंगे।
क्योंकि तार
बहुत ढीलें हो
तो संगीत को
चोट नहीं
पड़ती। अगर तार
बहुत कसे हों,
तो टूट ही
जाएंगे। तो
तार ऐसे होने
चाहिए कि न
ढीले, न
कसे—ठीक मध्यम
में। और जहां
तार ठीक सम हो
जाते हैं, वहीं
सम्यकृत्व
पैदा हो जाता
है। वहीं
संगीत का जन्म
है। और ऐसे ही
जीवन की कला
है।
भक्ति
ठीक मध्य में
पैदा होती है।
ज्ञान भी एक
अति है। कर्म
भी एक अति है।
कर्मठ एक अति
पर जीता है—स्थूल।
ज्ञानी दूसरी
अति पर जीता
है—सूक्ष्म।
भक्त मध्य में
जीता है। उसे
साज को बहुत
बिठाना पड़ता
है। भक्त को
संगीत के साथ
बहुत ताल—मेल
बिठाना पड़ता
है। नाजुक है।
कबीर
कहते हैं, भक्ति का मारग
झीना रे। नहिं
अचाह नहिं
चाहना...न तार
बहुत कसे, न
तार बहुत
ढीले।
नहिं
अचाह, नहिं
चाहता, चरनन लौ लीना
रे।
इस बात
को हम समझ लें, ध्यान से
सुन लें। नहिं
अचाह नहिं
चाहना...
दो
अतियां है। एक
चाह है—वासना; और एक अचाह
है—निर्वासना।
और कबीर कहते
हैं, भक्ति
का मार्ग अति
झीना रे—दोनों
के माध्य में।
चाही तो भोगी
है—वह, जो
चाह रहा है, चाहना से
भरा है; यह
चाहिए, वह
चाहिए—मांगता
चला जा रहा
है। उसे समझ
लेना हमें
कठिन नहीं है।
हमारा भी
अनुभव नहीं
है। चारों तरफ
वही लोग हैं, उनकी ही भीड़
है, उनका
बाजार है, उनकी
दुकानें हैं,
उनके मंदिर
हैं। वे मांग
रहे हैं। वे
कहते हैं, वह
मिल जाए...वह मिल
भी नहीं पाता
कि उनकी मांग
आगे बढ़ जाती
है। और वे
कहते हैं, यह
मिल जाए...! वे
याचक ही बने
रहते हैं। वे
कभी मालिक
नहीं हो पाते।
वे भिखारी ही
बने रहते हैं,
कभी सम्राट
नहीं हो पाते।
देने का तो
मौका ही नहीं
आता, मांगने
से ही फुर्सत
नहीं हो पाती।
दान का तो सवाल
ही नहीं उठता,
सभी खुद ही
भूखे हैं, अभी
खुद ही का
पात्र अधूरा
है।
ऐसा
हुआ, कबीर के
जमाने में एक
फकीर था:
फरीद। फरीद के
गांव के लोगों
ने उससे कहा, अकबर
तुम्हें बड़ा
सम्मान देता
है, कभी
जाओ। इतना तुम
कह दोगे, तो
कम हो जाएगा!
गांव में एक
मदरसा चाहिए,
एक स्कूल
चाहिए। तुमने
कहा कि हो
जाएगा।
फरीद
का भक्त था
अकबर। तो फरीद
ने कहा, अच्छा,
जाऊंगा। और फरीद
गया भी। जब
पहुंचा तो
सुबह ही सुबह
का वक्त था।
उसके लिए कोई
रोक—टोक न थी
महल में, उसे
सीधा ले आया
गया। अकबर
अपनी निजी
मस्जिद के
भीतर नमाज पढ़
रहा था। फरीद
पीछे जाकर खड़ा
हो गया। अकबर
की नमाज पूरा
होने के करीब थी,
तब उसने
दोनों हाथ ऊपर
उठाए—याचक
भांति, एक
भिक्षुक की
भांति—और कहा,
हे
परमात्मा, मेरी
संपदा को बढ़ा,
मेरे
साम्राज्य को
बड़ा कर!
फरीद
तत्क्षण लौट
पड़ा। किसी के
लौटने की आवाज
सुनकर
सीढ़ियों पर
अकबर ने लौटकर
देखा, नमाज
पूरी हो गयी
थी, भागा
हुआ आया। फरीद
वापस लौट रहा
है। और फरीद कभी
आया नहीं था।
अकबर ही जीता
था सदा। लेकिन
फरीद ने सोचा,
जब मांगना
हो, तो
जाना चाहिए।
पैर पकड़ लिए
अकबर ने, और
कहा कि आए और
लौट चले, कुछ
भूल हुई, कुछ
मुझसे गलती हो
गयी?
फरीद
ने कहा, न, भूल तुमसे
नहीं हुई, भूल
मुझसे हुई।
मैं तुमसे
मांगने आया, और मैंने
पाया कि तुम
तो अभी खुद ही
मांग रहे हो।
नहीं, मैं
तुम्हें गरीब
न बनाऊंगा। वह
मदरसा महंगा पड़
जाएगा। और फिर
मैंने सोचा कि
जिससे तुम मांग
रहे हो, तो
उससे हम सीधा
ही मांग
लेंगे। बीच
में और एक भिखारी
को क्या लेना?
और अब तक
मैंने समझा था
कि तुम एक
सम्राट हो, वह मेरी
भ्रांति टूट
गयी।
जब तक
मांग है, तब
तक कोई सम्राट
नहीं हो सकता।
तब तक तुम दोगे
कैसे? दोगे
भी तो तुम
सौदा करोगे, दोगे भी तो
पाने के लिए
दोगे। दोगे भी
तो ज्यादा
मिले उसकी
व्यवस्था से
दोगे। तुम्हारा
दान भी इनवेस्टमेंट
होगा। उसमें
कुछ पाने की
आकांक्षा
होगी।
चाह से
भरा हुआ आदमी
भिखारी है—यह
साफ है। इसके
कारण, जिन्होंने
यह समझा कि
चाह से भरा
आदमी भिखारी है,
उन्होंने
चाह छोड़ दी, वे अचाहे
में चले गए।
जैसे बुद्ध, जैसे महावीर
उन्होंने
सारी चाह छोड़
दी। उन्होंने
कहा, मांगना
ही छोड़ेंगे,
तभी तो यह
भिखमंगापन
मिटेगा। बात
बिलकुल सीधी
है, तर्कयुक्त
है, साफ
है। मांगनेवाले
का मार्ग सीधा—साफ
है। और न मांगनेवाले
का भी मार्ग
सीधा—साफ है:
छोड़ दी चाह, नहीं रखी
कोई वासना। तो
महावीर और
बुद्ध सम्राट
हो गए। उन
जैसे सम्राट
खोजना कठिन
है। सिकंदर, नेपोलियन, अकबर जैसे
भिखारी खोजना
कठिन है।
महावीर, बुद्ध
जैसे सम्राट
खोजना कठिन
है। उन्होंने चाह
ही छोड़ दी।
उन्होंने बात
ही बंद कर दी, वह द्वार ही
बंद कर दिया।
मांगे ही नहीं,
तो एक
साम्राज्य का
उदय हुआ। वे
अपने आप में पूर्ण
हो गए।
लेकिन
कबीर कहते हैं, भक्ति का मारग
झीना रे।
बड़ी
नाजुक बात है।
नहिं
अचाह नहिं
चाहना, चरनन लौ लीना
रे।
—न
तो हम चाह
रखते हैं, और
न हम अचाह
रखते हैं। हम
परमात्मा के
सामने ऐसे खड़े
होते हैं, जैसे
कोई चाह न हो, और जैसे
चाहा भी हो।
परमात्मा के
समाने हम ऐसे
खड़े होते हैं
कि हम मांगते
तो कुछ भी
नहीं, लेकिन
खड़े भिखारी की
तरह होते हैं।
मांगता तो कुछ
भी नहीं, क्योंकि
मांगा कि
परमात्मा से
संबंध छूट गया।
तब जो
तुम मांग रहे
हो, वह
ज्यादा
महत्वपूर्ण
चीज हो गई, परमात्मा
गौण हो गया।
परमात्मा
साधन हो गया, जो तुमने
मांगा वह
साध्य हो गया।
हम परमात्मा
के सामने ऐसे
खड़े होते हैं,
जैसे
भिखारी हैं और
चाह हमारी जरा
भी नहीं। तो
हम ऐसे भी खड़े
होते हैं जैसे
सम्राट हैं।
अचाह भी है, क्योंकि हम
कुछ मांग नहीं
रहे। लेकिन हम
चाहनेवाले
की तरह भी खड़े
हैं, क्योंकि
हम ऐसे झुके
हैं, जैसे
सारा संसार
मांग रहे हों।
मांगते नहीं
और भिखारी की
तरह खड़े होते
हैं। सम्राट
की तरह होते
हैं, हाथ
में भिक्षापात्र
होता है।
इसलिए भक्ति
का मारग
झीना रे।
भक्त न
तो मांगता है, और न यह कहता
है कि मैं
अचाह को
उपलब्ध हो गया
हूं। न तो वह
यह कहता है कि
मैंने सब चाह
छोड़ दी और न वह
यह कहता है कि
मेरी कोई चाह
है। इसे थोड़ा
सोचें।
भिखारी
और सम्राट—दोनों
एक साथ! उसे
कुछ भी दे
दिया जाए तो
कोई फर्क न
पड़ेगा, ऐसा
सम्राट; रत्तीभर
भी जुड़ेगा
नहीं, जितना
था उतना ही
रहेगा। और खड़ा
ऐसे है, जैसे
सारी चाह उसी
की है; सारा
संसार, परमात्मा
को ही मांग
रहा है, मांगा
उसने रत्ती भर
नहीं है। मतलब
यह हुआ: जैसे
सम्राट
भिक्षा—पात्र
हाथ में लिए
खड़ा हो।
भिक्षा—पात्र
इसलिए कि
परमात्मा के
सामने खड़े
होने का ढंग
सम्राट का
नहीं हो सकता।
उसके सामने
खड़े होने का
ढंग भिखारी का
ही हो सकता
है। उसके सामने
तुम कैसे अकड़कर
खड़े होओगे
सम्राट की तरह?
इसलिए तो
महावीर और
बुद्ध दोनों
ने परमात्मा को
इनकार कर दिया
कि वह है ही
नहीं।
क्योंकि जब
तुम सम्राट की
तरह खड़े हो तो
परमात्मा
कैसे हो सकता
है? इसलिए
तो महावीर और
बुद्ध की
व्यवस्था में
कोई परमात्मा
नहीं है। कोई
परमात्मा का
प्रश्न ही
नहीं उठता।
तुम स्वयं ही
परमात्मा हो,
तब खतम हो
गई। और तुम
मंदिर जाते हो,
मस्जिद
जाते हो—तुम
मांगने जाते
हो—अगर हिंदू
के मंदिर में
तुम्हें न
मिले, तुम
हिंदू ही सही,
और कोई कह
दे कि फलां
पीरे, कि
फलां मुसलमान
फकीर कि फलां
मुसलमान फकीर
की कब्र, वहां
मिल सकता है, तो तुम चोरी—छिपे
वहां भी जा
सकते हो।
हिंदू भी बने
रहते हो, मुसलमान
फकीर की मजार
पर भी पहुंच
जाते हो। मांगनेवाले
का क्या भरोसा,
उसकी क्या
आस्था! भिखमंगे
की कोई आस्था
होती है! जहां
मिलेगा, वहां
जाएगा। इस घर
मिला तो ठीक, नहीं तो
दूसरे घर में मांगेगा।
मांगनेवाला
की न तो कोई
आस्था है, न तो
परमात्मा से
कोई प्रयोजन
है। वह जो
मांगता है, अगर कोई कहे
कि नास्तिक हो
जा, इस
शर्त पर मैं
देता हूं, तो
वह नास्तिक हो
जाएगा। वह
कहेगा, छोड़ो,
परमात्मा
से क्या लेना—देना!
हम तो इसीलिए
जाते थे...तुम
जाते थे कि
मुझे स्वास्थ्य
मिल जाए, बीमारी
दूर हो जाए।
परमात्मा दूर
न कर पाया। और
कोई कहता है
कि हम तुझे एक
दवा देते है
और ठीक हो
जाएगा, लेकिन
आज से
परमात्मा को
छोड़ दे। तुम
कहोगे, हम
बिलकुल तैयार
हैं, हम
पहले से तैयार
हैं।
परमात्मा
प्रयोजन नहीं
था। हम मांगने
गए थे। आशा थी
कि वह मिल
जाएगा। मिल
जाता तो हम
धन्यवाद देते; नहीं मिलता,
तो हम
नाराजगी भी
जाहिर करते
हैं।
दुनिया
में असली
आस्तिक खोना
मुश्किल है।
भीतर तो तुम
सभी नास्तिक
हो। आस्तिक तो
तुम बने हुए
हो, क्योंकि
तुम्हारी चाह
है, और
तुम्हें लगता
है कि
परमात्मा से
शायद मिल जाए।
शायद हो...।
मेरे
एक मित्र हैं—बूढ़े
आदमी! नास्तिक
रहे जीवनभर।
बड़े ख्यातिनाम
आदमी हैं।
लेखक हैं, कथाकार हैं।
एक दिन अचानक
उनके घर से
उनका लड़का
भागा हुआ आया।
और उनसे मुझसे
कहा कि पिताजी
एकदम बीमार
हैं और आपको
याद किया है।
हार्ट—अटैक
का दौरा पड़ा
था। दौरा तो
चला गया था, लेकिन बहुत
कंप गए थे।
हाथ—पैर में
कंपन था। मैं
जब पहुंचा तो
राम, राम, राम,, राम
धीरे—धीरे कह
रहे थे। मैं
बहुत हैरान
हुआ क्योंकि वे
तो नास्तिक
हैं। मैंने
उनका सिर
हिलाया। मैंने
कहा, क्या
कर रहे हो? मरते
वक्त भ्रष्ट
हो रहे हो? उन्होंने
कहा, छोड़ो भी वह बात मत
उठाओ। पता
नहीं, हो
ही भगवान!
मरते
वक्त आदमी
भयभीत हो जाता
है; सोचता है,
पता नहीं हो
ही! फिर वे
कहने लगे, हर्ज
भी क्या है? न हुआ तो कोई
हर्ज नहीं, हुआ तो हमने
नाम ले लिया।
तो
भगवान भी
तुम्हारा
हिसाब है; वह भी
तुम्हारे भय
का ही रूप है।
तुम्हारा
भगवान यानी
तुम्हारा भय।
जब तुम भयभीत
होते हो तो
तुम याद करते
हो; जब तुम
निर्भय होते
हो, बिलकुल
भूल जाते हो।
जब तुम सुखी
होते हो, याद
नहीं आती। जब
तुम दुखी होते
हो, एकदम
राम—राम रटने
लगते हो। नहीं,
तुम
नास्तिक हो।
आस्तिकता
तुम्हारी
होशियारी, चालाकी
का नाम है।
आस्तिकता
तुम्हारे
हृदय का फैलाव
नहीं है, तुम्हारे
तर्क की
व्यवस्था है।
जब जरूरत हुई,
तब तुम
आस्तिक; जब
तुम निश्चित
हो, तब तुम
नास्तिक।
मुल्ला
नसरुद्दीन
एक नाव से
यात्रा कर रहा
था...और भी लोग
थे। अचानक
तूफान आया और
नाव डूबने
लगी। तो लोग
चिल्लाने
लगे। किसी ने
कहा, हे भगवान,
मुझे बचा ले,
तो मैं इतने
रुपये दान कर
दूंगा। किसी
ने कहा कि
मुझे बचा ले
तो मैं एक गाय
दान कर दूंगा।
किसी ने कहा
कि मुझे बचा
ले तो मैं यह
कर दूंगा, वह
कर दूंगा। लोग
ऐसा किए जा
रहे थे। तभी नसरुद्दीन
चिल्लाया कि
ठहरो, ज्यादा
आगे मत बढ़ो,
किनारा
करीब है। और
सब भूल गए, ये
जो दान वगैरह
कर रहे थे। सब
अपना बिस्तर—सामान
बांधने लगे।
वह हम
सब दुख में
याद करते हैं।
जब किनारा दिखाई
पड़ता है, क्या
लेना—देना
भगवान से! वह
तो डूबती नाव
में सहारा था।
जब नाव किनारे
लगने लगी तो
क्या प्रयोजन
हम मानते हैं
तो भगवान के
द्वार जाते
हैं। फिर
हमारे बीच ऐसे
लोग हुए, बुद्ध
और महावीर
जैसे, जिन्होंने
मांगना ही छोड़
दिया। देखा कि
मांगने में
सिवाय कष्ट के
कुछ भी नहीं
है। चाह कहीं
तो नहीं ले
जाती, नये—नये
नर्क निर्मित
करती है।
जितना चाहोगे
उतना विषाद
आता है। चाह
की एक बड़ी खूबी
है। अगर पूरी
हो जाए तो भी
दुख; अगर
पूरी न हो तो
भी दुख। अगर
पूरी हो जाए, तो तुम
अचानक पाते हो
कि जिस चाह के
लिए इतने सपने
संजोये, इतने
इंद्रधनुष
जिसके आसपास
बांधे, इतने
फूलों का
सेहरा रखा—और
कुछ भी न
निकला! जब
निकली बात तो
कुछ भी न निकली।
खोदा पहाड़ निकली
चुहिया। मिल
जाए तो हमेशा
ऐसा लगेगा कि
इतना पहाड़
खोदकर इस
चुहिया के लिए
परेशान हो रहे
थे। अगर न
मिले तो तुम
दुखी, क्योंकि
तुम सोचते हो,
पता नहीं
मिल जाती तो
क्या न मिल
जाता।
एक
पागलखाने में
एक
मनोवैज्ञानिक
अध्ययन करने
गया। तो सुपरिटेंडेंट
उसे घुमाने
लगा। एक कमरे
में एक आदमी
चीख मार—मारकर
रो रहा था, और हाथ में
एक तस्वीर लिए
छाती से लगाए
था। तो उस
मनोवैज्ञानिक
ने पूछा कि इस
आदमी को क्या
हो गया? तो सुपरिटेंडेंट
ने कहा कि यह
जो तस्वीर लिए
हुए है, यह
इस औरत को
प्रेम करता था,
और यह औरत
इसे मिल नहीं
सकी, यह
पागल हो गया।
अब यह तस्वीर
छाती से लगाकर
पीटता रहता है,
रोता रहता
है, चिल्लाता
रहता है। उसके
बगल में ही
दूसरे सीखचों
में बंद आदमी
को देखा कि वह
अपने बाल नोंच
रहा है और
तस्वीर भी
अपने हाथ में
रखे हैं। वह उसे
काटता है, फेंकता
है, दीवाल
पर मारता है, लात से
दबाता है।
पूछा, इसको
क्या होगा? उस सुपरिंटेंडेंट
ने कहा, इसको
वह औरत मिल
गयी। ये दोनों
उसे प्रेम में
थे। एक को
नहीं मिली, वह पागल हो
गया। और यह
इनको मिल गयी
है, इसलिए
ये पागल हो गए
हैं।
चाह
पूरी हो तो
पागल, चाह
पूरी न हो तो
पागल। चाह सब
तरह से दुख
देती है। मिले
तो विषाद आ
जाता है कि
कुछ भी न
मिला। न मिले
तो विषाद बना
रहता है, कि
न मिला। चाही
दुखी रहेगा।
वासना से भरा
हुआ दुखी
रहेगा। जिसको
यह दिखाई पड़
गया, जिसने
थोड़ा जीवन को
समझने की
कोशिश की, जिसको
यह समझ में आ
गया, उसने
चाह छोड़ दी; वह अचाह को
उपलब्ध हो गया;
निर्वासना
को उसने सूत्र
बना लिया
ये
दोनों बातें
सरल हैं।
कबीर
कहते हैं, भक्ति का
मारा झीना रे।
मांगना कुछ भी
नहीं है, फिर
भी मांगनेवाले
की तरह खड़े
हैं। हो गए
हैं, सम्राट,
मांगने को
कुछ भी नहीं, फिर भी दास
की तरह झुके
हुए हैं।
नहिं
अचाह नहिं
चाहना, चरनन लौ लीना
रे।
न तो
मांगते हैं
कुछ, न मांग है
कुछ, लेकिन
चरनन में
चरणों में—प्रेम
को लगा दिया
हैं।
चरनन
लौ लीना
रे...बस, चरणों
को कपड़े हैं।
तुम
चरण को पकड़ते
हो—कुछ मांगना
हो तो। जब
मांगना ही
नहीं तो चरण किसलिए पकड़ना!
इसलिए कबीर
कहते हैं, नाजुक
मार्ग।
मांगना कुछ भी
नहीं और चरण
को पकड़े
हुए हैं।
लेकिन जो भी
इस अदभुत घटना
को उपलब्ध हो
जाता है—मांगना
कुछ भी नहीं
और चरण को पकड़े
हुए हैं; थे
सम्राट, भिक्षापात्र लिए झुके
हैं—उसे बहुत
कुछ मिलता है।
सब बिना मांगे
मिलता है। बिन
मांगे तो मोती
मिले! बिना
मांगे चारों तरफ
बरसा होने
लगती है।
क्योंकि यह
आदमी तो
सम्राट है और
दास की तरह
झुका है।
महावीर
को तुम झुका न
सकोगे।
महावीर घुटने
के बल, हाथ जोड़कर
प्रार्थना न
कर सकेंगे।
प्रार्थना का
कोई संबंध ही
महावीर से
नहीं। जब
मांगना ही
नहीं है कुछ
तो झुकना क्या?
पागल हो गए
हो, झुकने
की क्या जरूरत?
लेकिन तर्क
तुम समझो तो
एक ही है।
मांगना है तो
झुको, तर्क
था। अब मांगना
नहीं है तो मत
झुको, वही
तर्क है।
यह
कबीर अतक्र्य
है। इसलिए
भक्त से
ज्यादा आदमी
खोजना कठिन
है। भक्त तो
एक पैराडाक्स
है। एक
विरोधाभास है, उसमें दो
विपरीत मिल
रहे हैं। वह
दोनों के मध्य
में है। एक
तरफ से महावीर—एक
सम्राट; दूसरी
तरफ से एक
साधारण
भिखारी—दोनों
एक साथ।
नहिं
अचाह नहिं चाहन, चरनन लौ लीना
रे।
और यह
जो चरनन
में, चरणों
में लवलीन
होना है, चरणों
में डूब जाना
है—यह क्या है?
तुम
अगर झुको, तो शरीर ही
झुकता है, अहंकार
तो भीतर खड़ा
ही रहता है, वह कभी नहीं
झुकता। उसका
ही झुकना झुकना
है। शरीर के
झुकने का तो
कोई तलब नहीं।
और जैसे ही
अहंकार झुकता
है, वैसे
ही तुम लवलीन
होने लगते हो;
वैसे ही एक
नयी मस्ती, और एक नया
रंग भीतर पैदा
होने लगता है।
इसलिए ज्ञानी
को रूखे—सूखे
तुम पाओगे। महावीर
से कोई कविता
पैदा
होनेवाली
नहीं, कोई
गीत भी नहीं
पैदा
होनेवाला।
महावीर नाचेंगे
भी नहीं। तुम
सोच भी नहीं
सकते कि
महावीर नाच
रहे हैं।
चैतन्य
नाचेंगे, मीरा
नाचेगी।
भक्त
तो गीला होगा, आर्द्र होगा,
डूबा होगा।
ज्ञानी सूखा
होगा। ज्ञानी
मरुस्थल जैसा
होगा, जहां
हरियाली है ही
नहीं। अंतिम
अवस्था वह भी पा
लेगा। उसने भी
पा ली है।
लेकिन होगा
मरुस्थल
जैसा। भक्त तो
एक झरना होगा,
जो गाता ही
रहता है।
ज्ञानी चुप
होगा, ज्ञानी
मौन होगा।
भक्त संगीत से
भरा होगा; उसकी
चुप्पी में भी
गीत होगा; उसके
गीत में भी
चुप्पी होगी।
वह मध्य में
है। वह बोलेगा
तो संगीत होगा;
वह चुप
रहेगा तो भी
संगीत सुना जा
सकेगा। उसके रोएं—रोएं
से एक धुन
बजती रहेगी।
साधन
के रसधार में, रहै
निसदिन भीना
रे।
वह
गीला होगा; जैसे कोई
नदी से स्नान
करके निकला हो—सद्यःस्नात!
ऐसा भी न होगा—जैसे
हर वक्त रसधार
में डूबा हुआ
है।
साधन
के रसधार में, रहै
निसदिन भीना
रे। और साधन
यानी भक्ति।
साधन यानी
कीर्तन साधन
यानी नाम—स्मरण।
साधन यानी जप।
साधन यानी
परमात्मा के चरणों
में सदा लगे
रहना ऊपर कुछ
भी करे, भीतर
उसी की धुन
बजती रहे।
बाजार जाए, काम करे, भीतर
उसी की धुन
बजती रहे। और
प्रतिपल
अनुग्रह का
भाव बना रहे।
और प्रतिपल
लगे कि
परमात्मा ने
जो दिया है, वह जरूरत से
ज्यादा है, वह मेरी
पात्रता से
ज्यादा है।
मांगने का सवाल
कहां? और
जब बिन मांगे
मिल रहा हो, तो मांगना
नासमझी है। जब
उसने जीवन
दिया है, जब
उसने प्रेम का
धड़कता
हुआ हृदय दिया
है, और जब
उसने जीवन के
आनंदित होने
के इतने—इतने
आयाम दिए हैं,
तब और
मांगने को
क्या है! उसे
प्रतिपल
धन्यवाद देता
रहे!
सूफी
फकीर हुआ, बायजीद। एक
रास्ते से
गुजरता था
अपने भक्तों के
साथ। एक पत्थर
से पैर में
चोट लग गई।
वहीं झुककर
बैठ गया। पैर
से खून बहने
लगा। उसके हाथ
जुड़ गए और सिर
आकाश की तरह
उठ गया।
भक्तों ने कहा
कि यह क्या कर
रहे हैं? हम
तो समझे कि आप
इसलिए झुके कि
पैर में से
खून निकल रहा
है, चोट लग
गई। पर हम
देखते हैं कि
आप प्रार्थना
कर रहे हैं।
बायजीद ने कहा,
तुम्हें
उसके राजों का
पता नहीं। अगर
आज वह न बचाता
तो फांसी होनी
थी। और फांसी
को टालकर
उसने सिर्फ
पैर में जरा
सी पत्थर की
चोट कर दी और
वह भी उसकी
कृपा है, याददाश्त
दिलाने को।
अगर
भक्त के जीवन
में कष्ट भी
हो तो वह
धन्यवाद देता
है। अभक्त के
जीवन में सुख
भी हो, तो भी
शिकायत करता
है। क्योंकि
अभक्त को
कितना ही सुख
मिले, वह
हमेशा सोचता
है: और ज्यादा
मिल सकता
था...इतना ही? और भक्त को
कितना ही दुख
मिले, वह
सदा सोचता है;
और ज्यादा
मिल सकता
था...इतना ही? दोनों के
देखने के ढंग,
दृष्टियां
अलग—अलग हैं।
दोनों के ढंग
ऐसे हैं। कि
अभक्त सदा दुखी
रहेगा और सदा
नर्क में जीएगा।
और भक्त सदा
स्वर्ग में
रहेगा, सदा
सुखी रहेगा।
और तुम जब सुख
में रहना सीख
जाते हो तो
सुख बढ़ता है।
जब तुम दुख
में रहना सीख
जाते हो तो
दुख बढ़ता है।
स्वर्ग और
नर्क आदतें
हैं। और आदतें
बड़ी मुश्किल
से छोड़ती हैं
पीछा।
साधन
के रसधार में, रहै
निसदिन भीना
रे।
राग
में श्रुत ऐसे
बसै, जैसे
जल मीना रे।।
जैसे
मछली पानी में
है, ऐसे ही उस
राग में सारे
शास्त्र और
सारा सत्य छिपा
हुआ है।
रस
में श्रुत ऐसे
बसै, जैसे
जल मीना रे।
और
जिसने भक्ति
का वह राग पा
लिया, वह
धुन बजने लगी
जिसके भीतर और
जो मस्त हो
गया, जिसने
पी ली वह शराब,
जो उस नशे
में डूब गया।
वह पाएगा कि
जैसे नदी में मछलियां
हैं, ऐसे
उस राग में
सारा सत्य
छिपा है। जो श्रुतियों
में लिखा है, शास्त्र
जिसका गीत
गाते हैं, वह
सब जहां छिपा
ही हुआ है, उस
रसधार में।
साईं
सेवत में देइ सिर, कुछ विलय न
कीना रे।
बस
करना एक काम
है, और वह यह
है कि
परमात्मा की
सेवा में सिर
दे देना।
साईं
सेवत में
देई सिर, कुछ विलय न
कीना रे।
यह जो
अंतिम वचन है, उसके दो
अर्थ हो सकते
हैं। दोनों
महत्वपूर्ण हैं।
दोनों समझ
लेने चाहिए।
साईं सेवत
में देह
सिर...परमात्मा
की सेवा में...।
साईं
स्वामी का
अपभ्रंश है।
तो जो
परमात्मा है, जो स्वामी
है, उसको
देने में बस
एक ही काम है
करने को—सिर
दे देना है।
सिर का अर्थ
है: बुद्धि।
सिर का अर्थ
है: विचार।
सिर का अर्थ
है: तर्क। सिर
का अर्थ है:
धारणाएं, शब्द।
इन सबके
संग्रहीत
तत्व का नाम
है, सिर।
यह जो खोपड़ी
है वह देने से
काम न चलेगा; इसे तो कोई
भी काटकर रख
दे सकता है।
लेकिन तुम अगर
खोपड़ी काटकर
भी रख दो तो भी
तुम्हारी
खोपड़ी में
विचार चलते
रहेंगे।
तुम्हारी
खोपड़ी हिंदू
की रहेगी, मुसलमान
की रहेगी, ईसाई
की, जैन की
रहेगी। खोपड़ी
काटने से बहुत
कुछ न होगा।
इस खोपड़ी को
काटने का सवाल
नहीं है। यह
तो सरल काम
है। यह तो बहुत—से
आत्महत्या कर
लेते हैं।
इसमें कुछ
अड़चन नहीं है।
लेकिन यह
खोपड़ी तो रहे
बाहर से, भीतर
से चली जाए। न
विचार उठे, न तर्क उठे, न धारणा बचे,
न पक्षपात
रह जाए। तुम
भीतर से
बिलकुल खाली
हो जाओ। जब
उसकी ही मर्जी
तुम्हारी
मर्जी है, तब
इस खोपड़ी की
जरूरत क्या है?
इसकी जरूरत
तो इसलिए है
कि तुम सोचते
हो कि तुम
असुरक्षित हो,
इन्सिक्योरिटी है, तुम्हें
अपना इंतजार
खुद करना है।
इसलिए इसकी
जरूरत है।
इसलिए सोचो, विचारो,
रास्ता
बनाओ, लेकिन
जब वही खोज
रहा है
तुम्हारे लिए
रास्ता, जब
वही बना रहा
है तुम्हारे
लिए मार्ग, जब वही
तुम्हारी
श्वासों को
चला रहा है—तब
तुम पूरा ही
क्यों नहीं
छोड़ देते उसी
पर?
एक राह
से एक सम्राट
गुजर रहा था, और एक सूफी
फकीर था। सूफी
फकीर को
रास्ते पर पैदल
चलते देखकर उस
सम्राट ने कहा
कि तुम आ जाओ मेरे
रथ में बैठ
जाओ, वह
जाकर बैठ गया
लेकिन सम्राट
को बड़ी हैरानी
हुई कि वह सिर
पर जो पोटली
लिए था, अब
भी सिर पर लिए
हुए है। उस
सम्राट ने कहा,
पोटली नीचे
क्यों नहीं रख
देते हो? दिमाग
खराब है क्या?
तो उस फकीर
ने कहा कि
नहीं, दिमाग
आप ही जैसा
है। इसलिए
नीचे नहीं रख
रहा हूं कि
आपने मुझे
बिठा लिया, यही क्या कम
है! और रथ पर और
वजन बढ़ाना ठीक
नहीं।
सम्राट
ने कहा कि
मुझे शक हो
रहा था
तुम्हारे ढंग
से कि
तुम्हारा
दिमाग खराब
है। और तुम
कहते हो, तुम्हारे
जैसा! जब तुम
रथ पर बैठे हो
तो तुम सिर पर
रखो अपना बोझ,
अपनी पोटली,
या रथ पर
रखो—क्या फर्क
पड़ता है? हर
हालत में बोझ
रथ पर है।
फकीर ने कहा, तो तुम
समझदार मालूम
पड़ते हो। तो
फिर इस सिर को
ऊपर क्यों रखे
हो? जब
परमात्मा सब
ले जा रहा है, जीवन उठता
है, लीन
होता है, इतने
अनंत
प्रकारों में
लहरें उठती
हैं, बिखरती
हैं, जब सब
उसके रथ पर चल
ही रहा है, तो
तुम यह सिर
क्यों रखे हुए
हो? मैं तो
सिर्फ पोटली
रखे हूं सिर
पर, तुम
वह सिर क्यों
रखे हुए हो? और निश्चित
मेरी पोटली से
तुम्हारे सिर
का वजन ज्यादा
है।
सिर ही
तो वजन है।
सिर के
अतिरिक्त और
कोई वजन नहीं
है। और जिसने
सिर को उतारकर
रख दिया, वह
निर्भार हो
गया; उसे
पंख मिल गए।
फिर वह उड़
सकता है, मुक्ति
के अनंत आकाश
में।
तो
कबीर कहते हैं, साईं सेवत
में देई
सिर...और चीजों
से काम न
चलेगा। लोग
बड़े चालाक
हैं। लोग जाते
हैं मंदिर में,
और नारियल फोड़ आते
हैं। नारियल
प्रतीक है
खोपड़ी का, और
लगता भी खोपड़ी
जैसा है: बाल, दाढ़ी, आंखें...लोग
बड़े होशियार
हैं।
कबीर
कहते हैं, साई सेवत
में देई सिर, वे नारियल
रख आते हैं!
नारियल सिर
जैसा लगता है,
उसे रख आते
हैं। सिंदूर
लगा देते है
मंदिर में, वह खून जैसा
लगता है।
लेकिन खून से
ही पूजा हो सकती
है। खून से
पूजा का अर्थ
है: कुछ प्राण
से दो। सिंदूर
लगाने से क्या
होगा? लेकिन
लोग कुशल है।
उन्होंने सब्स्टियूट
खोज लिए हैं।
उन्होंने
परिपूरक
निकाल लिए हैं:
खून को बचाओ
लाल रंग का
टीका लगा दो, सिंदूर लगा
दो, सिर को
बचाओ, नारियल
को चढ़ा दो! और
नारियल भी
मंदिर में लोग
सड़े ले
जाते हैं।
मंदिर के नारियल
अलग ही बिकते
हैं बाजार में
क्योंकि वे फिर—फिर
आ जाते हैं, सरक्यूलेशन में रहते
हैं, वर्षों
चलते हैं। कई
लोग उसको चढ़ा
चुके। नारियल
भी तुम्हारा
नहीं। वह भी
बासा है। चढ़
चुका कई दफा, उतर चुका कई
दफा—वह घूमता
ही हरता है, सरक्यूलेशन में। वहीं
मंदिर के बाहर
दुकान रहती है,
वह पुजारी
का ही भाई—भतीजा
चलता है। तुम
चढ़ा आए, रात
दुकान में
पहुंच गया।
सुबह फिर बिक
गया, रात
फिर दुकान में
पहुंच गया।
भीतर बिलकुल सड़ जाता
है।
खोपड़ी चढ़ाने की
बात है। पहले
तो तुम नारियल
खोज लेते हो, वह भी फिर सड़ा,
वह भी बासा
और चढ़ाया
हुआ दूसरों
का। नहीं, परमात्मा
के द्वार पर
तुम्हारी
प्रामाणिकता
चाहिए। उधार,
बासा, पराया,
वहां कुछ भी
न चलेगा। तुम
ही अपने को
लेकर पाओगे तो
स्वीकृत हो
सकते हो।
साईं सेवत में
देई सिर, कुछ
विलय न कीना
रे।
और यह
जो अंतिम आधा
हिस्सा है, इसके दो
अर्थ हो सकते
हैं। एक अर्थ
कि जरा भी
देरी न की, जरा
भी विलंब न
किया—और साई
की सेवा में
सिर को चढ़ा
दिया। यही
भक्ति का
मार्ग है—कुछ
देरी न की, कुछ
विलंब न किया,
बिना विलंब!
इसे थोड़ा सोच
लें।
मेरे
पास लोग आते
हैं। संन्यास
का विचार करते
हैं। उनसे मैं
कहता हूं, संन्यास के
दो ढंग हैं।
एक तो विचार
कर—कर के लेना,
तो तब विलंब
होगा। विलंब
भी होगा और
संन्यास का
मजा भी खो
जाएगा।
क्योंकि
जितना तुम
विचार करोगे,
और जितना
तुम अपनी
बुद्धि को समझाओगे,
तर्क दोगे,
पक्ष—विपक्ष
में सोचोगे, और बुद्धि
ने अगर निर्णय
दिया कि हां, ले लो, तो
यह संन्यास
बेकार है, क्योंकि
यह बुद्धि का
निर्णय है। और
बुद्धि के
निर्णय से
बुद्धि को कोई
हटा नहीं
सकता। और संन्यास
का प्रयोजन ही
इतना है कि
बुद्धि हट जाए।
तो अगर तुमने
सोच—सोचकर
लिया तो अर्थ
ही खो जाता
है।
एक
दूसरा ढंग है
छलांग का, कि तुम ले लो,
तुम सोचो
मत। बुद्धि को
एक तरफ रख दो
और तुम ले लो।
अगर तुम
बुद्धि को एक
तरफ रखकर लेते
हो, तो
संन्यास लेते
ही क्रांति
शुरू हो जाती
है; रूपांतरण
शुरू हो जाता
है। लेने में
ही रूपांतरण
शुरू हो जाता
है। क्योंकि
तुमने बुद्धि
से पूछा नहीं।
पहली दफा
तुमने कुछ
किया बिना बुद्धि
के। पहली बार
बिना बुद्धि
के, बिना
तर्क के, बिना
सोचे—विचारे,
तुम अनजान
में गए, अंधेरे
में गए, अज्ञात
में गए।
तो एक
तो है बिना
विलंब किए
छलांग। उस
छलांग का
मूल्य है। वह
छलांग है। अगर
तुमने विलंब
किया और सब
तरफ से नाप—जोख
की, सीढ़ी
लगाई, फिर
सीढ़ी से उतरे,
सुगमता, से
पहुंच गए—बात
ही खो गई!
क्योंकि उसी
छलांग में तो
सारा राज था, उसी छलांग
में तो सिर
कटता। इससे जो
लगा है, उससे
नहीं। वह
व्यवस्था थी,
उससे नहीं,
उससे सिर
नहीं काटेगा।
इसलिए तर्क से
जो धर्म के
पास आता है, वह धर्म के
पास कभी आ
नहीं
पाता।...अतक्र्य!
तर्क को कोई सवाल
नहीं है; यह
तो पागलों का
काम है। यहां बुद्धिमानों
को प्रवेश
नहीं है।
बुद्धिमान तो
बाहर ही रह जाते
हैं। उनकी
बुद्धि ही
उनके लिए
उपद्रव हो जाती
है। पागल
छलांग लगा
जाते हैं। यह
तो मस्तों
का काम है। यह
तो उनका काम
है, जो
व्यावसायिक
नहीं है; जो
जुआ पर दांव
लगाना जानते
हैं। यह जुआरियों
का काम है।
एक तो
व्यवसायी
चित्त है, जो सोचता है—सोचता
है, विलय
करता है, विलंब
करता है, पोस्टपोन करता है—कल
लेंगे, परसों
लेंगे। सब तरफ
से व्यवस्था
जमा लेंगे। सोच
लेंगे, सब
तरफ से पूछ
लेंगे, पता
लेंगे—कि ठीक
होगा लेना कि
नहीं ठीक होगा
लेना, हजार—हजार
लोगों से सलाह
ले लेंगे, फिर।
इस सब में ही
लेने का सारा
अर्थ खो जाएगा।
संन्यास
एक छलांग है—निर्बुद्धि
की। उसी छलांग
में सिर गिर
जाता है।
तो
पहला तो अर्थ
है कि कुछ
विलय न कीना
रे। जरा भी
विलंब न किया, जरा भी समय न
जाने दिया।
समझे और छलांग
लगा ली।
दूसरा
अर्थ है—साईं सेवत में
देई सिर, कुछ
विलय न कीना
रे—साईं की
सेवा में, परमात्मा
की सेवा में
सिर चढ़ा दिया
और फिर भी कुछ
खोया नहीं—पाया।
कुछ विलय न
कीना रे। सिर
भी चढ़ा दिया
और फिर भी कुछ
खोया नहीं; पाया—और डरे
थे नाहक कि खो
जाएगा।
बड़ी
हैरानी की बात
है। तुम्हारे
पास कुछ है भी
नहीं, फिर
भी तुम डरे हो
तो कि खो
जाएगा। है
क्या जिससे
तुम भयभीत हो
कि खो जाएगा।
छलांग में
बाधा क्या है?
तुम्हारे
पास कुछ होता
तो डर भी ठीक
था, कुछ है
भी नहीं। और
अगर कुछ है तो
सब ऐसा है कि जो
खो ही जाए तो
अच्छा है। दुख
है, चिंता
है, तनाव
है, अशांति
है। संपदा के
नाम पर कुछ भी
नहीं विपत्तियां
बहुत हैं। सोच
किसलिए
रहे हो, सिर
को चढ़ाने
में? लगता
है कुछ खो
जाएगा। तुम उस
नंगे आदमी की
तरह हो जो
नहाता नहीं; क्योंकि नहायेगा,
तो कपड़े निचोड़ेगा
कहां, सुखाएगा कहां! कपड़े
हैं ही नहीं, वह आदमी
नंगा है, मगर
इसी भय से कि
अगर नहाऊंगा
तो कपड़े कहां सुखाऊंगा,
कहां निचोडूंगा,
नहाता ही
नहीं।
तुम्हारे
पास कुछ होता
खोने को तो भी
बात अर्थपूर्ण
थी। अगर तुम
कभी लौटकर
विचारते भी
नहीं कि क्या
है मेरे पास।
डरते हो देखने
में, क्योंकि
खाली अपने को
देखकर बहुत
पीड़ा होगी, संताप होगा।
पूरी जिंदगी
व्यर्थ निकल
गई है। कोई
उपलब्धि नहीं
है। कोई
किनारा नहीं
मिला, को
मंजिल करीब
नहीं आयी है।
भीतर तुम
बिलकुल खोखले
हो। लेकिन तुम
उस खोखलेपन
को देखने में
डरते हो, क्योंकि
देखोगे
तो भय लगेगा।
इसलिए तुम
यहां—वहां भटकते
रहते हो, उस
तरफ कभी नजर
नहीं करते। और
सोचते रहते हो
कि लेंगे, सोचेंगे,
कहीं कुछ खो
न जाए।
नहीं, कुछ खोने को
तुम्हारे पास
नहीं है। और
जैसे ही तुम
सिर दे दोगे, वैसे ही तुम
पाओगे कि सब
जो तुमने चाहा
था और मांगा
था, उस सब
की वर्षा हो
गई।
जीसस
ने कहा है: जो
देगा, उसे
मिलेगा; जो
बचायेगा,
वह खो देगा।
और जीसस ने
कहा है: जिनके
पास है, उन्हें
और दिया जाएगा;
और जिनके
पास नहीं है, उनसे भी छीन
लिया जाएगा।
बड़ा कठिन वचन
है, मगर
बड़ा सार्थक
है। क्योंकि
तुम्हारे पास
वही बढ़ेगा, जो है। अगर
दुख है तो जगत
में कोई भी
चीज रुकती
नहीं, हर
चीज बढ़ती है।
खयाल रखना।
अगर दुख है तो
दुख बढ़ेगा।
अगर प्रेम है
तो प्रेम
बढ़ेगा। अगर
क्रोध है तो
क्रोध बढ़ेगा।
जगत में कोई
चीज रुकती नहीं,
बढ़ती है। हर
चीज विकासमान
है। अगर तुमने
देर की तो
तुम्हारे पास
जो है, वह
बढ़ा रहा है।
तुम्हारा
नर्क बड़ा होता
जा रहा है।
जीसस
कहते हैं, जो देंगे
उन्हें
मिलेगा; जो
बचाएगा
वे खो देंगे।
क्योंकि
बचाने को है
ही क्या तुम्हारे
पास? तुम
नर्क को ही बचाओगे।
तुम स्वर्ग को
बिलकुल खो
दोगे। तुम
अपने को बचाओगे,
तुम
परमात्मा को
बिलकुल खो
दोगे। और
दूसरा वचन
कहता है कि
जिनके पास है,
उन्हें और
दिया जाएगा।
अगर परमात्मा
तुम्हारे पास
है तो और
परमात्मा, और
परमात्मा
मिलता जाएगा।
क्योंकि जो
तुम्हारे पास
है, वह
बढ़ेगा। और
जिनके पास
नहीं है, जीसस
कहते हैं कि
उनके पास जो
है, वह भी
छीन लिया
जाएगा।
साईं
सेवत में देईं सिर, कुछ विलय न
कीना रे।
दे तो
दिया, सब दे
दिया और खोया
कुछ भी नहीं, सब पा लिया।
जैसे बूंद
सागर में
गिरती है तो इस
तरफ से तो
बूंद होना
समाप्त हो
जाता है, लेकिन
उस तरफ से
सागर हो जाती
है। होती क्या
है? बूंद
होना खोती है,
सागर होना
पाती है। जैसे
ही कोई अहंकार
को खोता है, बूंद खो
जाती है और
ब्रह्म हो
जाता है, सागर
हो जाता है।
क्षुद्र खोता
है, विराट
मिलता है।
तुम
बचा क्या रहे
हो? तुम किस
क्षण के लिए
सोच रहे हो? किसलिए देर है? और
क्यों विलंब?
जो करने
जैसा लगता
हो...कबीर कहते
हैं, साईं सेवत में
देई सिर, कुछ
विलय न कीना
रे। जरा भी
विलंब की
जरूरत नहीं है—इमिजिएट, तत्क्षण, समझ आए, छलांग
ली जा सकती
है। और जो
तत्क्षण
छलांग लेंगे,
वे ही ले
पाएंगे।
जिन्होंने
जरा भी स्थगित
किया, वे
चूक जाएंगे।
क्योंकि
स्थगित किया
कि क्षण खो
जाता है।
द्वार करीब
आता है; स्थगित
किया कि दूर
हो जाता है।
मौका पास आता है;
स्थिति
किया कि दूर
हो जाता है।
जब मौका पास आए
और जब लगे कि
समझ के लिए
साफ हो गया।
समझ का
अर्थ बुद्धि
नहीं है। समझ
का अर्थ तुम्हारी
समग्रता है।
जब तुम्हारे
पूरे प्राण को
प्रतीत हो कि
ठीक है, उस
क्षण को मत
चूकना। उस
क्षण को तुम
बहुत—बहुत
जन्मों तक
चूके हो। उस
क्षण विलंब न
करना। उस क्षण
सिर को दे ही
देना। खोओगे
तुम कुछ भी
नहीं। बूंद खोएगी, सागर
उपलब्ध होता
है।
आज
इतना ही।
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