मन के जाल हजार—(प्रवचन—तैरहवां)
दिनांक: 13 मार्च, 1974; श्री रजनीश आश्रम, पूना
सूत्र:
सूत्र:
चलत
कत टेढ़ौ
रे।
नऊं
दुवार नरक धरि
मूंदै, तू दुरगंधि
कौ बेढ़ौ
रे।।
जे जारै तौ
होइ भसम तन, रहित किरम उहिं खाई।
सूकर
स्वान काग को भाखिन, तामै कहा भलाई।।
फूटै
नैन हिरदै
नाहिं सूझै, मति एकै
नहिं जानी।
माया
मोह ममता सूं
बांध्यो, बूड़ि मुवौ
बिन पानी।।
बारू
के घरवा मैं
बैठो, चेतत नहिं अयांना।
कहै
कबीर एक राम भगति बिन, बूड़े बहुत सयांना।।
मन
की चाल समझ
लें, तो सब समझ
लिया। मन को
पहचान लिया, तो कुछ और
पहचानने को
बचता नहीं। मन
की चाल समझते
ही चेतना अपने
में लीन हो
जाती है। जब
तक नहीं समझा
है, तभी तक
मन का अनुसरण
चलता है। मन
के पीछे चलता है
आदमी यही
मानकर कि मन
गुरु है—जो
कहता है, ठीक
कहता है; जो
बताता है, ठीक
बताता है।
एक बार अपने मन पर संदेह आ जाए, तो जीवन में क्रांति की शुरुआत हो जाती है। और मजा यही है कि मन सभी पर संदेह करता है। और तुम कभी मन पर संदेह नहीं करते। मन पर तुम्हारी श्रद्धा अपूर्व है; उसका कोई अंत नहीं। और मन रोज तुम्हें गङ्ढे में डाले, तो भी श्रद्धा नहीं टूटती।
एक बार अपने मन पर संदेह आ जाए, तो जीवन में क्रांति की शुरुआत हो जाती है। और मजा यही है कि मन सभी पर संदेह करता है। और तुम कभी मन पर संदेह नहीं करते। मन पर तुम्हारी श्रद्धा अपूर्व है; उसका कोई अंत नहीं। और मन रोज तुम्हें गङ्ढे में डाले, तो भी श्रद्धा नहीं टूटती।
मेरे
पास लोग आते
हैं। वे कहते
हैं, लोगों की
श्रद्धा उठ गई
है। मैं उनसे
कहता हूं कि
लोगों की जैसी
श्रद्धा मन पर
है, उसे देखकर
ऐसा नहीं लगता
कि लोगों की
श्रद्धा उठ गई
है। कितना ही
भटकाए मन, कितना
ही सताए
मन, कितना
ही भरमाए
मन—श्रद्धा
नहीं टूटती।
श्रद्धा तो
भरपूर है—गलत
दिशा में है।
आज तक मुझे
कोई
अश्रद्धालु आदमी
नहीं मिला।
श्रद्धा गलत
दिशा में हो
सकती है; जिस
पर नहीं आनी
चाहिए, उस
पर हो सकती है—लेकिन
अश्रद्धालु
कोई भी नहीं
है।
और दो
ही श्रद्धाएं
हैं; या तो मन
की श्रद्धा है
और या आत्मा
की श्रद्धा
है। या तो तुम
अपने पर भरोसा
करते हो—अपने
का अर्थ है, जहां मन की
कोई भनक भी
नहीं, जहां
एक विचार भी
नहीं तिरता,
जहां शुद्ध
चेतना है—या
तो उस शुद्ध
चेतना का
तुम्हारा
भरोसा है। अगर
उसका भरोसा है,
तो तुम जीवन
में कहीं भी गङ्ढे न
पाओगे; तुम्हारा
कोई पैर गलत न
पड़ेगा। और या
फिर आदमी
भरोसा करता है
मन पर। तब तुम गङ्ढे ही गङ्ढे
पाओगे; तब
तुम जीवन में
जहां भी जाओगे,
भटकोगे ही—क्योंकि
मन की चाल ही
ऐसी है।
मन
की चाल को समझ
लें।
एक, कि मन
तुम्हें
देखने नहीं
देता। मन
तुम्हें अंधा
रखता है। मन
तुम्हारी
आंखों को
धुंधला रखता
है, धुएं
से भरा रखता
है। वह धुंआ
ही विचार है।
इतनी तीव्रता
से मन विचारों
को चलाता है
कि तुम्हें
जगह भी नहीं
मिलती कि तुम
देख पाओ, कि
तुम्हारे
बाहर क्या हो
रहा है, कि
तुम्हारे
जीवन में क्या
घट रहा है। मन
तुम्हें
विचारों में उलझाए
रखता है। जैसे
छोटे बच्चे को
हम खिलौने दे
देते हैं—फिर
उसकी मां मर
भी रही हो, तो
भी वह अपने
खिलौने से
खेलता रहता है,
खिलौनों
में उलझा रहता
है।
मन
तुम्हें विचार
देता है; विचार
खिलौने हैं।
खिलौनों में
भी थोड़ा—बहुत
सत्य है, विचारों
में उतना भी
नहीं। लेकिन
एक खिलौने से
तुम चुक भी
नहीं पाते कि
मन तत्क्षण
दूसरा निर्मित
कर देता है।
इसके पहले कि
तुम जागकर
देख पाओ, मन
तुम्हें नया
खिलौना दे
देता है।
पुराने से तुम
ऊब जाते हो, तो मन नई
उलझनें सुझा
देता है। एक
उपद्रव बंद भी
नहीं हो पाया
कि मन दस
उपद्रवों में
रस जगा देता
है। और यह
इतनी तीव्रता
से होता है कि
दोनों घटनाओं
के बीच खिड़की
बनाने लायक भी
जगह नहीं
मिलती, जहां
से तुम देख लो
कि जिंदगी में
हो क्या रहा है।
मैंने
सुना है कि
मुल्ला नसरुद्दीन
जब बहुत बूढ़ा
हो गया, नब्बे
वर्ष का हुआ, तब उसका बड़ा
भरा—पूरा
परिवार था।
उसका बड़ा बेटा
ही सत्तर वर्ष
पार कर रहा
था। उसके
बेटों के बेटे
पचास पार रहे
थे। उसके
बेटों के बेटे
विवाहित हो गए
थे। उनके भी
बच्चे हो गए
थे। अचानक एक
दिन बूढ़े नसरुद्दीन
ने कहा कि
मैंने फिर से
शादी करने का
तय कर लिया
है। पत्नी मर
चुकी थी। पहले
तो लड़कों ने
मजाक समझी; हंसे कि "अब
इस बुढ़ापे
में...। हम भी
बूढ़े हो गए हैं।
अब शादी!
पिताजी मजाक
कर रहे होंगे।'
लेकिन नसरुद्दीन
ने जब बार—बार
दुहराया, तो
उन्होंने
गंभीरता से
बात ली। और जब नसरुद्दीन
ने एक दिन
सुबह आकर
घोषणा ही कर
दी कि "मैंने लड़की
भी तय कर ली', तब जरा
सोचना पड़ा।
सारा परिवार
इकट्ठा हुआ। उन्होंने
विचार किया कि
इससे बड़ी
फजीहत होगी, लोग
हंसेंगे। ऐसे
ही नसरुद्दीन
की वजह से लोग
जिंदगी भर
हंसते रहे; और अब यह
बुढ़ापे में आखिरी
उपद्रव खड़ा कर
रहे हैं। क्या
कहेंगे लोग? बड़े लड़के को
सबने कहा कि
तुम्हीं जाकर
कहो। बड़े लड़के
ने जो सुना तो
चकित हो गया।
सुना कि सामने
ही एक रंगरेज
की लड़की से तय
किया है नसरुद्दीन
ने। लड़की की
उम्र मुश्किल
से सोलह साल
है। उसने कहा,
"यह नहीं हो
सकता। पापा, यह बंद करो।
यह सोच ही छोड़
दो। यह भी तो
सोचो, उस
लड़की की उम्र
सिर्फ सोलह
साल है।' नसरुद्दीन ने कहा, "अरे
पागल! सोलह
साल ही तो
शादी की उम्र
है। और जब फिर
मैंने तेरी
मां से शादी
की थी, तब
उसकी भी उम्र
सोलह साल ही
थी। इसमें
बुरा क्या हुआ
जा रहा है?'
मन
तर्क दे रहा
है। मन पीछे
लौटकर नहीं
देखता। मन
अपनी तरफ नहीं
देखता, मन
सिर्फ दूसरे
की तरफ देखता
है।
लड़के
बहुत परेशान
हुए और बड़े
बूढ़ों से सलाह
ली। डॉक्टर से
भी पूछा।
डॉक्टर ने कहा, "यह बहुत
खतरनाक है। इस
उम्र में शादी
जीवन के लिए
खतरा हो सकती
है।'
फिर
बेटे को समझा—बुझाकर
भेजा। बेटे ने
कहा कि "हम सब
सलाह—मशविरा
किए हैं।
डॉक्टर कहता
है, जीवन के
लिए खतरा हो
सकता है। जीवन
को दांव पर मत
लगाओ।' नसरुद्दीन ने कहा, "अरे
पागल, यह
लड़की मर भी गई
तो कोई
लड़कियों की
कमी है? दूसरी
लड़की खोज
लेंगे।'
मन कभी
पीछे की तरफ
देखता नहीं—अपनी
तरफ नहीं
देखता है। मन
सदा दूसरे में
खोजता है सुख, दूसरे पर
थोपता है दुख;
दूसरे से
पाना चाहता है
शांति, दूसरे
से ही पाता है
अशांति। सदा
ही नजर दूसरे
पर लगी है, जबकि
नजर अपने पर
लगी होनी
चाहिए। तो मन
के जगत का
उपद्रव, मूल
आधार दूसरे पर
दृष्टि है।
दूसरे
से क्या
प्रयोजन है? दूसरा मौलिक
नहीं है, मौलिक
तो तुम हो; लेकिन
मन सदा भरमाता
है। अगर तुम
दुखी हो तो मन
कहता है, जरूर
कोई तुम्हें
दूसरा दुखी कर
रहा है। तो तुम
किसी न किसी
पर दुख थोप
देते हो। जब
तुम सुखी होते
हो तब भी मन
कहता है, किसी
दूसरे के कारण
सुख मिल रहा
है। तब तुम
सुख दूसरे पर
थोप देते हो; और मजा यह है
कि दुख भी
अपने कारण
मिलता है, सुख
भी अपने कारण
मिलता है। नरक
भी भीतर है, और स्वर्ग
भी भीतर।
अंततः तुम ही
निर्णायक हो;
क्योंकि
तुम्हारी
व्याख्या पर
ही निर्भर करेगा
कि क्या सुख
है और क्या
दुख है। चाहो
तो सुख दुख
जैसा हो जाता
है; चाहो
तो दुख सुख
जैसा हो जाता
है। क्षणभर
में बदल जाती
है बात।
दूसरा
निर्णायक
नहीं है; लेकिन
मन सदा दूसरे
पर मन को अटकाए
रखता है। और
जन्मों—जन्मों
से तुम यही कर
रहे हो, और
दूसरे पर थोप
रहे हो। जहां
से सुख—दुख
उठते हैं, अगर
वहां नजर जाए,
तो सुख भी
छोड़ दोगे और
दुख भी छोड़
दोगे। तब जो शेष
रह जाता है, वही आनंद
है। तब जो
सुगंध
तुम्हें
मिलेगी, तब
जो सुवास
तुम्हारे
जीवन को भर
देगी—वही
मोक्ष है।
जब तुम
दूसरे पर
देखते हो कि
दूसरा सुख दे
रहा है तो
तुम्हारी
कोशिश होती है
दूसरे को
बदलने की; स्वभावतः, जो सुख देता
है उसको बदलता
है, ताकि
दुख न मिले।
अनंत लोग हैं।
तुम उनको बदलने
में लगे हो।
पति पत्नी को
बदल रहा हो, पत्नी पति
को बदल रही है;
बाप बेटे को
बदल रहा है, बेटा भी
कोशिश में लगा
है कि बाप को
बदल दे; मित्र
मित्र को
बदल रहे हैं—सब
एक—दूसरे को
बदलने में लगे
हैं।
दूसरे
को तुम कैसे
बदल सकते हो? दूसरा
स्वतंत्र है।
उसकी अपनी
नियति है। दूसरे
का अपना आधार
है, अपना
केंद्र है, दूसरे का
अपना स्रोत है,
जहां से
उसके मनोभाव
उठते हैं। तुम
दूसरे को नहीं
बदल सकते। तुम
अगर किसी को
बदल सकते हो, तो स्वयं
को। लेकिन
वहां तो नजर
ही नहीं। मन
वहां देखने ही
नहीं देता।
जैसे
ही कोई
व्यक्ति
स्वयं को
देखता है, वह पाता है
सुख भी यहीं
से उठते हैं, दुख भी यहीं
से उठते हैं।
न केवल यही, जल्दी ही
उसको दिखाई
पड़ने लगता है
कि हर सुख के
साथ उसका दुख
जुड़ा है; हर
फूल के पास
उसका कांटा है;
और हर दिन
के पीछे छिपी
उसकी रात है।
जैसे—जैसे तुम
भीतर आते हो, वैसे—वैसे
साफ होने लगता
है कि अगर
तुमने सुख
चुना, तो
दुख भी चुन
लिया। हर सुख
का अपना दुख
है। हर स्वर्ग
के पास उसका
नरक है; जरा
भी दूर नहीं—संयुक्त
हैं। एक ही
द्वार है
दोनों का।
जैसे ही तुमने
सुख को चुना, तत्क्षण
तुमने दुख को
चुन लिया—जैसे
ये एक ही
सिक्के के दो
पहलू हों।
जिस
दिन यह दिखाई
पड़ जाता है—पहला
अनुभव कि सुख—दुख
भीतर उठते हैं, दूसरा अनुभव
कि हर सुख और
दुख संयुक्त
हैं—तब दुख और
सुख में कोई
भी भेद नहीं
रह जाता। और जो
आदमी जान लेता
है कि स्वर्ग
और नरक में
कोई भी भेद
नहीं, वह
दोनों को छोड़
देता है।
मन
कोशिश करता है, दुख को
छोड़ने की और
सुख को बचाने
की, ज्ञानी
दोनों को छोड़
देता है; क्योंकि
दोनों या तो
साथ बचते हैं,
या साथ जाते
हैं।
तुम
सिक्के का एक
पहलू बचाओगे—कैसे
बचा पाओगे? दूसरा पहलू
भी बच जाएगा।
ज्यादा से
ज्यादा इतना
ही कर सकते हो
कि जो पहलू
तुम्हें पसंद
है उसे ऊपर कर
लो, जो
पहलू तुम्हें
पसंद नहीं है
उसे नीचे कर
दो; लेकिन
वहीं दूसरा
छिपा है।
हर
दीये के तले
अंधेरा है, और हर सुख के
नीचे छिपा दुख
है। देर—अबेर
वह जो नीचे
छिपा है, प्रगट
होगा। और जीवन
का एक
महत्वपूर्ण
नियम है कि
अगर तुमने सुख
का ऊपर रखा और
सुख को भोगा
तो सुख चुक
जाएगा; और
जब सुख चुक
जाएगा तो दुख
उठना शुरू हो
जाएगा। जिसको
तुमने भोगा, वह चुकेगा; और जिसको
नहीं भोगा, वह बचा हुआ
है—उसको कौन भोगेगा? एक पहलू
तुमने खर्च कर
लिया; अब
दूसरा पहलू
बचा है, अब
उसे भी भोगना
पड़ेगा।
यह
दूसरी
प्रतीति है
भीतर जाते
यात्री की कि
सुख—दुख
संयुक्त हैं।
तो इसका अर्थ
हुआ कि सुख
दुख हैं, उनमें
जरा भी भेद
नहीं। भेद मन
की भ्रांति
थी। मन की टेढ़ी—मेढ़ी चाल
के कारण भेद
मालूम पड़ता
था। सुख—दुख
दोनों छूट
जाते हैं। छोड़ना
भी नहीं पड़ता।
यह एहसास, यह
प्रतीति, यह
अनुभव कि
दोनों एक हैं—फिर
छोड़ना भी नहीं
पड़ता। जैसे
अंगारा हाथ
में रखा हो—छोड़ना
पड़ेगा? समझ
में आया कि
अंगारा है, कि छूट
जाएगा। जैसे
घर में आग लगी
हो, तो
निकलने के लिए
कुछ प्रयास
करना पड़ेगा? पता चला कि
आग लगी है कि
तुम बाहर हो
जाओगे। तुम
फिर यह भी न
पूछोगे कि
कहां से बाहर
जाऊं, रीति—रिवाज
क्या है, सभ्य
मार्ग क्या
होगा? तुम
खिड़की से
छलांग लगाकर
निकल जाओगे; तुम यह न
पूछोगे कि
खिड़की से
निकलना उचित—अनुचित,
शिष्ट—अशिष्ट
है। जब घर में
आग लगी हो तो
शिष्टाचार को
कोई पूछता है?
तब तुम कहीं
से भी छलांग
लगाकर निकल
जाओगे। तुम
बाहर हो जाओगे—घर
में आग लगी है,
यह एहसास भर
हो जाए।
जैसे
कोई भीतर जाता
है, वैसे ही
सुख—दुख एक ही
हो जाते हैं, तत्क्षण छूट
जाते हैं; जो
शेष रह जाता
है, वही
मोक्ष है; जो
शेष रह जाता
है वही तुम हो;
जो शेष रह जाता
है वही
परमात्मा है।
लेकिन मन
तुम्हें भीतर
नहीं जाने
देता; मन
कहता है, दूसरे
ने दुख दिया।
मन कहता है, दूसरे ने
सुख दिया। मन
दूसरे पर अटकाए
रखता है, यह
मन की पहली
कुशलता है।
दूसरी
कुशलता मन की, कि वह हमेशा
आधे को
दिखलाता है और
आधे को नहीं देखने
देता। जैसे कि
चांद को हम
देखते हैं, तो आधा चांद
दिखाई पड़ता है,
आधा नहीं
दिखाई पड़ता; उस तरफ का
पहलू छिपा
रहता है। मन
जो भी देखता है,
हमेशा आधे
को देखता है।
मन पूरे को
नहीं देख सकता।
चांद तो बड़ी
चीज है।
तुम्हारे हाथ
में एक कंकड़
भी रख दें, छोटा
सा, एक रेत
का कण रख दें, उसको भी तुम
पूरा नहीं देख
सकते, आधा
ही दिखेगा; आधा उस तरफ
जो है, वह
छिपा रहेगा।
मन आधे को ही
देख सकता है।
मन आधे को
देखने की
व्यवस्था है।
इसलिए
तो मन के कारण
द्वैत पैदा
होता है; क्योंकि
आधे को देखता
है, उसे
समझता है; यह
पूरा है; फिर
दूसरे आधे को
देखता है, उसे
समझता है, यह
पूरा है—और
दोनों को कभी
साथ तो देख
नहीं सकता।
इसलिए उनको एक
कैसे माने? इसलिए जहां
एक है वहां मन
दो देखता है।
और जब तुमने
एक की जगह दो
देख लिया, संसार
खड़ा हो जाता
है।
तुम
देखते हो, यह आदमी
मित्र है और
वह आदमी शत्रु
है; लेकिन
मित्र में शत्रु
छिपा है।
मित्र कभी भी
शत्रु हो सकता
है। और शत्रु
में मित्र
छिपा है।
शत्रु कभी भी
मित्र हो सकता
है—कोई अड़चन
नहीं है, कोई
बाधा नहीं है।
तुम्हारे
प्रेम में
घृणा छिपी है, घृणा में
प्रेम छिपा
है। लेकिन मन
दो करके देखता
है—घृणा को
अलग, प्रेम
को अलग; शत्रु
को अलग, मित्र
को अलग; सुख
को अलग, दुख
को अलग। और जब
तुम एक को दो
करके देख लेते
हो, फिर
तुम जो भी
करोगे वह गलत
होगा।
बुनियाद से गलती
शुरू हो गई।
प्रारंभ से ही
भूल हो गई।
मुल्ला
नसरुद्दीन
एक रात शराब
पीकर घर लौट
रहा है।
शराबी
को एक की जगह
अनेक चीजें
दिखाई पड़ने
लगती हैं।
चीजें अनेक हो
नहीं जातीं।
अगर तुमने कभी
शराब पी है या
भांग के नशे
में आ गए हो, तो तुम्हें
पता होगा कि
एक चीज दो
दिखाई पड़ने लगती
हैं, तीन
दिखाई पड़ने
लगती हैं, चार
दिखाई पड़ने
लगती हैं।
जैसे—जैसे नशा
बढ़ता है—क्या
होता है? जैसे—जैसे
नशा बढ़ता है, भीतर
तुम्हारी
चेतना कंपने
लगती है। उसकी
जो थिरता है
खो जाती है, चैन है वह खो
जाता है, चेतना
कंपने लगती
है। और जब
चेतना कंपने
लगती है, तो
उसके कंपन के
कारण एक चीजें
बहुत होकर
दिखाई पड़ती
हैं। जैसे
चांद झील पर
प्रतिबिंब
बना रहा है; झील शांत है—अकंप,
तो एक चांद
दिखाई पड़ता है
झील में। एक कंकड़ फेंक
दो, झील
में लहरें उठ
गई हैं, कंपन
हो गया, झील
कंप गई—अब एक
चांद हजार
चांद में टूट
गया। अगर तुम
झील को बहुत
ही कंपा दो तो
चांद दिखाई ही
न पड़ेगा, बस
चांद के टुकड़े
ही टुकड़े पूरी
झील पर फैल जाएंगे:
चांद एक है; झील कंप गई।
नशा
तुम्हारी
चेतना को कंपा
देता है। झील
कंप गई है—अब
चीजें दिखाई
पड़ने लगती
हैं।
मुल्ला
नसरुद्दीन
घर आया है, नशे में
डूबा है। ताले
में चाबी
डालने की कोशिश
करता है, लेकिन
ताले में चाबी
नहीं जाती।
छेद और चाबी को
मिला नहीं
पाता। हाथ कंप
रहे हैं। एक
पुलिसवाला
रास्ते पर खड़ा
देख रहा है।
आखिर उसने कहा,
"नसरुद्दीन,
क्या मैं
सहायता करूं?
ताले में
चाबी डाल दूं?'
नसरुद्दीन
ने कहा, "अगर
सहायता ही
करनी है तो
जरा तुम मकान
को सम्भाले
रखो, तो
मैं चाबी डाल
लूं।' नशेलची को यह नहीं
दिखाई पड़ता है
कि मैं कंप
रहा हूं; उसे
दिखाई पड़ता है
कि मकान कंप
रहा है—"मकान
को सम्भाले
रखो!'
एक और
दिन ऐसा ही
नशा करके नसरुद्दीन
घर लौटता था, एक वृक्ष से
टक्कर हो गई।
बड़ी मुश्किल
में पड़ गया।
वृक्ष तो एक
था, उसको
दो दिखाई पड़
रहे थे। तो वह
दोनों के बीच
से निकलने की
कोशिश कर रहा
था। जैसे ही
कोशिश करता, सिर टकरा
जाता। वृक्ष
तो एक ही था।
अनेक बार कोशिश
की। तब वह जोर
से चिल्लाया
कि मारे गए, यह तो बड़ा
जंगल है। यह
कोई एक वृक्ष
नहीं है यहां,
जिसमें से
निकल जाओ; बहुत
वृक्ष हैं।
बड़ी
पुरानी कथा
है। एक कुत्ता
एक राजमहल में
प्रवेश कर
गया। उस महल
के राजा ने उस
महल को सिर्फ
दर्पणों से
बनाया था।
दीवाल पर दर्पण
ही दर्पण थे।
पूरा कांच का
ही बना था। कुत्ता
मुसीबत में पड़
गया। जहां
देखा, अनेक
कुत्ते दिखाई
पड़े। घबड़ा गया,
यह तो कोई
एकाध कुत्ता
नहीं है, कुत्तों
की पूरी सेना
मालूम पड़ती
है। और भागने
का उपाय नहीं
दिखता; चारों
तरफ घेरे खड़े
हैं। और जैसा
कि कुत्तों की
आदत होती है, कि पहले
उसने डराने की
कोशिश की कि
डर जाएं ये लोग;
लेकिन
जितना उसने
कुत्तों को
डराया, उतना
कुत्तों ने
उसे डराया, क्योंकि वे
उसी के
प्रतिबिंब
थे। जैसे ही
कुत्ता झपटा
और भौंका, हजारों
कुत्ते झपटे
और भौंके।
क्योंकि वे
वहां थे ही
नहीं, वे
उसी की छायाएं
थे। कुत्ता
दर्पणों से
टकराया, झपट्टा
मारा, उसके
प्रतिबिंब
कुत्ते से टकराए,
सिर
लहूलुहान हो
गया; सुबह
कुत्ता मरा
हुआ पाया
गया!...वहां कोई
भी न था।
जहां
कुछ भी नहीं
है, वहां भी
तुम्हारे
भीतर के कंपन
झूठे अस्तित्व
को निर्मित कर
लेते हैं। उस
झूठे
अस्तित्व को
ही हमने माया
कहा है। माया
बाहर नहीं है।
तुम्हारे
कंपते हुए
चित्त के कारण,
जो है, वह
तो एक है, लेकिन
वह अनेक होकर
दिखाई पड़ रहा
है। और तुम्हारी
कोशिश वही है
जो मुल्ला नसरुद्दीन
ने सिपाही से
कही थी कि जरा
तुम मकान को
सम्हाल लो, तो मैं ताले
में चाबी डाल
दूं।
तुम्हारी
भी कोशिश यही
है कि कैसे
मकान को थिर
कर लिया जाए।
कोई कभी नहीं
कर पाया।
ज्ञानियों ने
मकान की फिक्र
छोड़ दी; अपने
को थिर कर
लिया—सब थिर
हो जाता है।
जरूरत है कि
नशा उतर जाए।
मकान तो थिर
ही है, वह
कभी हिला न
था। यह
अस्तित्व कभी
हिला ही नहीं
है। यह बिलकुल
थिर है। यह
अपने में
बिलकुल लीन
है। यह स्वभाव
में डूबा है।
तुम हिल गए
हो। लेकिन तुम
अस्तित्व को
सम्हालने की
कोशिश कर रहे
हो।
मन
द्वैत का
सूत्र है, और अनेक का
भी सूत्र है।
मन से गुजरकर
चीजें वैसे ही
हो जाती हैं, जैसे सूरज
की किरण को
अगर तुम एक
कांच के टुकड़े
से गुजरने दो।
कई पहलुओं का
कांच का टुकड़ा
ले लो—प्रिज्म
उस टुकड़े को
कहा जाता है।
उसमें तराशे
हुए कई पहलू
हैं। सूरज की
किरण गुजरती
है उससे। जब
आती है तो एक
होती है; जब
उससे बाहर
निकलती है तो
सात हो जाती
हैं। इसलिए तो
इंद्रधनुष
निर्मित होता
है। इंद्रधनुष
निर्मित
इसलिए हो जाता
है कि हवा में
वर्षा के
दिनों में
पानी के कण
लटके होते
हैं। वे पानी
के कण प्रिज्म
का काम करते
हैं। उन पानी के
कणों में से
सूरज की किरण
गुजरती है, टूटकर सात
हो जाती हैं, सात रंग
दिखाई पड़ने लगते
हैं।
जगत
तुम्हारे मन
से गुजरा हुआ
इंद्रधनुष
है। किरण तो
परमात्मा की
एक है। उसकी
रोशनी एक है।
अस्तित्व का
स्वभाव एक है।
अस्तित्व एक
है। लेकिन
तुम्हारे मन
की लटकी हुई
बूंद से, एक
गुजरकर सात
में टूट जाता
है, सब
चीजें खंड—खंड
हो जाती हैं, और मन कहता
है यही सत्य
है। और मन
तुम्हें कभी
लौटकर नहीं
देखने जाता, जहां से सात
पैदा हुए, जहां
एक से सात का
जन्म हुआ।
सारे
ध्यान के
प्रयोग मन से
पीछे लौटने के
प्रयोग हैं।
मन की
तीसरी टेढ़ी
चाल है कि मन
बड़ा
तर्कनिष्ठ
है। वह हर चीज
के लिए तर्क
देता है, और
तर्क ऐसी
सुगमता से देता
है कि तुम्हें
भी लगने लगता
है कि ठीक ही तो
बात है।
अस्तित्व
तर्क से बहुत
बड़ा है। और मन
छोटे—छोटे
तर्क के आंगन
बना लेता है—साथ—सुथरे; सब ठीक—ठीक
मालूम पड़ता
है। लेकिन
आंगन के पार
जो अस्तित्व
है, वह
अतक्र्य है।
वह तर्क जैसा
नहीं है। वह
गणित का कोई
प्रयोग नहीं
है। वह गणित
से ज्यादा
काव्य है।
काव्य से भी
ज्यादा रहस्य
की अनुभूति
है।
तो मन
कहता है, "ईश्वर
हो ही नहीं
सकता। कहां है
दिखाओ? क्योंकि
जो भी है, वह
दिखाया जा
सकता है। और
तुम तो कहते
हो ईश्वर ही
ईश्वर है, वही
सब जगह है—तो
दिखाओ, मौजूद
करो।' मन
ने एक सवाल
उठाया जिसका
जवाब तुम न दे
पाओगे, क्योंकि
ईश्वर दिखाया
नहीं जा सकता;
वह देखने
वाला है! वह
बाहर दृश्य की
तरह नहीं है, तुम्हारे
भीतर द्रष्टा
की तरह है। और
मन ने एक सवाल
उठाया जो कि
बड़ी अड़चन का
है; वह
कहता है, दिखा
दो। न दिखा
पाओगे तो मन
हंसेगा, और
कहेगा: मूढ़
हो, नासमझ
हो, अज्ञानी
हो, अंधविश्वासी
हो; जो
दिखाया नहीं
जा सकता उसको
मानते हो। मन
कहता है, हम
तो अनुभव को
मानते हैं; और जब तक
अनुभव न हो
जाए तब तक हम
मानते नहीं।
मन ठीक
ही कहता लगता
है, तर्क में
कहीं भी भूल—चूक
नहीं है। भूल—चूक
है तो इतनी
बुनियादी है
कि जब तक तुम
मन से थोड़े सरकोगे
न, तुम्हारी
समझ में न
आएगी।
मन
कहता है कि
दृश्य की तरह
परमात्मा को
दिखा दो।
लेकिन
परमात्मा का
स्वभाव दृश्य
की तरह नहीं
है। परमात्मा
का स्वभाव
द्रष्टा का है, साक्षी का
है। परमात्मा
चैतन्य है, वस्तु नहीं
है। चेतना को
देखा नहीं जा
सकता; चेतना
में लीन हुआ
जा सकता है।
चेतना को गणित
से सिद्ध नहीं
किया जा सकता;
चेतना का तो
रहस्य की एक
अनुभूति में
अनुभव किया जा
सकता है।
चेतना को
प्रयोगशाला
में पकड़ा नहीं
जा सकता; अगर
पकड़ने की
कोशिश की तो
तुम खो दोगे।
एक
जिंदा आदमी को
ले जाओ
प्रयोगशाला
में अंग—अंग
काट डालो:
हड्डी मिलेगी, मांस—मज्जा
मिलेगी, चमड़ी
मिलेगी, खून
मिलेगा; एल्युमिनियम,
लोहा, सब
धातुएं
मिल जाएंगी; बस एक चीज न
मिलेगी—आत्मा;
लाश मिलेगी,
जीवन न
मिलेगा।
क्योंकि
तुमने काटा, उसी वक्त
जीवन तिरोहित
हो जाता है।
ऐसे ही जैसी
कि एक फूल का कोई
विश्लेषण
करे। तुम्हें
मैं एक फूल दिखाऊं,
कहूं कि
देखो, यह
गुलाब का फूल
कितना सुंदर
है, और तुम
कहो, "कहां
है सौंदर्य? गुलाबी रंग
दिखाई पड़ता है,
मान लेते
हैं; पंखुड़ियां हैं, कोमल
हैं, मान
लेते हैं; गंध
है, मान
लेते हैं—लेकिन
सौंदर्य कहां?
सौंदर्य
दिखाओ, प्रयोगशाला
में सिद्ध
करो।' तो
फूल को तुम
तोड़ डालो
जीवित पंखुड़ियां
मुर्झा
जाएंगी, मृत
हो जाएंगी।
जहां रस की
धार बहती थी, वहां रस की
धार सूख
जाएगी। जहां
से सुगंध उठती
थी, जल्दी
ही सुगंध
तिरोहित हो
जाएगी। फिर पंखुड़ियों
का तुम
रासायनिक
विश्लेषण कर
लो, तो
पांच—सात छोटी—छोटी
बोतलों में
लेबल लगाकर
तुम बता दोगे
कि उसमें इतनी
मात्रा में
फलां पदार्थ
है, इतनी
मात्रा में
फलां पदार्थ
है। लेकिन ऐसी
तो एक बोतल न
होगी उनमें, जिसमें तुम
कहो कि इतनी
मात्रा में
सौंदर्य है।
मन
तर्कनिष्ठ
है। जीवन एक
रहस्य है।
जीवन कोई गणित
नहीं है। जीवन
किसी
दुकानदार का
हिसाब नहीं
है। जीवन तो
किसी प्रेमी
की अनुभूति
है। जीवन तो
किसी कवि का
स्वर है। जीवन
तो किसी
संगीतज्ञ की लहर
है। जीवन
सौंदर्य जैसा
है; काव्य
जैसा है, प्रेम
जैसा है। जीवन
परम रहस्य है,
और मन कहता
है गणित।
मन की
चाल बड़ी टेढ़ी—मेढ़ी है।
इसको खयाल में
ले लें, फिर
कबीर का यह पद
एकदम साफ होने
लगेगा।
"चलत
कत टेढ़ौ—टेढ़ौ रे'
कबीर
कहते हैं, "ए मन, टेढ़ा—टेढ़ा
क्यों चलता है,
सीधा क्यों
नहीं जाता?'
और मन
बड़ा टेढ़ा—टेढ़ा चलता
है।
तुमने
कभी शराबी को
चलते देखा है?—सीधा नहीं
चल सकता, टेढ़ा—टेढ़ा चलता
रहा है; एक
पैर इस दिशा
में, दूसरा
पैर दूसरी
दिशा में।
इसलिए तो
अक्सर वह नाली
में गिरा हुआ
पाया जाता है।
तुम बीच सड़क में
शराबी को गिरा
हुआ न पाओगे; नाली में
गिरा हुआ पाया
जाता है। टेढ़ा—टेढ़ा चलता
है। टेढ़ेपन
ये हैं कि
जहां रहस्य है,
वहां तर्क
उठाता है।
तर्क बड़ी टेढ़ी
चीज है। तर्क
से ज्यादा टेढ़ा
इस संसार में
कुछ भी नहीं
है। क्योंकि
तर्क से तुम, जो है, उसे
सिद्ध कर सकते
हो कि नहीं
है। तर्क से, जो नहीं है, उसे तुम
सिद्ध कर सकते
हो कि वह है।
लेकिन ये हवाओं
में बनाए गए
घर हैं; इनका
अस्तित्व में
कोई अर्थ
नहीं।
मुल्ला
नसरुद्दीन
का बेटा स्कूल
से पढ़कर लौटा, विश्वविद्यालय
से शिक्षित
हुआ था। सबसे
बड़ी उपाधि
लेकर घर आया।
तो जैसा कि
अक्सर
युनिवर्सिटी
से लौटने वाले
बच्चों को
जल्दी होती है
दिखाने की कि
वे कितना
जानकर आए हैं,
कितना सीखकर
आए हैं, प्रभावित
करने का मन
होता है। और
युनिवर्सिटी
से लौटने वाले
सभी बच्चे मां—बाप
को मूढ़
समझते हैं।
सांझ को खाना
खाने बैठे थे,
नसरुद्दीन की पत्नी ने
लाकर दो अमरूद
एक प्लेट में
रखे। बेटे ने
कहा कि देखें,
विश्वविद्यालय
में कैसी
अदभुत बातें
सिखाई जाती
हैं! मैं तर्क
का स्नातक
हूं।' उसने
अपनी मां को
कहा कि "इसमें,
प्लेट में
कितने अमरूद
हैं?' उसकी
मां ने कहा, "दो हैं'।
बेटे ने कहा
कि मैं सिद्ध
कर सकता हूं
तर्क से कि
तीन हैं। मां
उत्सुक हुई। नसरुद्दीन
तो बैठा रहा
चुपचाप, देखता
रहा। मां
उत्सुक हुई।
उसने कहा, सिद्ध
करो। तो बेटे
ने कहा कि
देखो, यह
अमरूद एक, यह
अमरूद दो—दो
और एक मिलकर
कितने होते
हैं? मां
ने कहा कि बात
तो ठीक है; दो
और एक मिलकर
तीन होते हैं।
मां सीधी, भोली—भाली—थोड़ी
मुश्किल में
पड़ गई। बेटे
ने नसरुद्दीन
की तरफ देखा। नसरुद्दीन
ने कहा कि
बिलकुल ठीक।
एक हम ले
लेंगे। दो तेरी
मां खा लेगी, तीसरा तू खा
लेना।
तर्क
हवा है; उसे
खाया नहीं जा
सकता। न तर्क
को जीया जा
सकता है, न
तर्क को भोगा
जा सकता है।
लेकिन तर्क मन
पर भारी है।
और मन तर्क से
चल रहा है।
इसलिए जीवन से
तुम वंचित हो।
जीवन
सीधा—सीधा है।
उससे सरल और
सुगम कुछ भी
नहीं है। तर्क
टेढ़ा—टेढ़ा
है। इसलिए कबीर
कहते हैं, "चलत कत टेढ़ौ—टेढ़ौ रे'—सीधा क्यों
नहीं चलता? साफ रास्ता
है, इधर—उधर
क्यों उतरता
है? यहां—वहां
की बहकी—बहकी
बातें क्यों
करता है?
अपने
मन को समझने
की कोशिश
करना। जब तक
तुम तर्क ही
करते रहोगे तब
तक समझना, तुम टेढ़े—टेढ़े जा
रहे हो; तब
तक जो सीधे—सीधे
मिलता था, उससे
तुम वंचित
रहोगे।
मंदिर
के द्वार खुले
हैं। राह सीधी—साफ
है। जरा—भी
कोई बाधा नहीं
है। लेकिन मन
तुम्हें यहां—वहां
उतार ले जाता
है। मन
तुम्हें राह
से उतार देता
है। मन
तुम्हें बेराह
कर देता है, और इतनी
कुशलता से
करता है कि
तुम्हें कभी
खयाल भी नहीं
आ पाता।
एक
मित्र मेरे
पास आए, कुछ
दिन पहले। कहा
कि "मन बड़ा
अशांत है, और
शांति एकदम
आवश्यक है; नहीं, नहीं
तो मैं जी न
सकूंगा।
आत्मघातक का
मन होता है।' धनी है, सब
सुख—सुविधा
है। राजनीति
के बड़े पदों
पर रहे हैं। मैंने
उनसे कहा, तो
फिर
प्रार्थना
करो। कहने लगे,
प्रार्थना
में मन नहीं
लगता।
..."ध्यान करो।'
कहने लगे, ध्यान की
बिलकुल इच्छा
नहीं होती।
मन
अशांत है, लेकिन ध्यान
में मन नहीं
लगता! मन
अशांत है तो भी
मन की ही सुन
रहे हो। मन
आत्महत्या के
करीब ले आया
है। कहता हूं,
प्रार्थना
करो; कहते
हैं, चाह
नहीं उठती मन
में। जो
आत्महत्या के
करीब ले आया
है, उस पर
भरोसा नहीं
छूटता। मन
अशांत है; श्रद्धा
उसी पर है!
जिसने इतनी
अशांति दी, मैं कहता
हूं, इसे छोड़ो, इसकी
मानना बंद
करो। वे कहते
हैं कि मैं मन
के ऊपर जाने
के लिए आप के
पास नहीं आया
हूं; मैं
तो सिर्फ मन
की शांति
चाहता हूं।
अब
यहीं बड़ा खेल
है और यहीं मन
के तर्क उलझा
देते हैं। मन
कहता है कि मन
की शांति
चाहिए, और
मन की शांति
कभी होती नहीं;
क्योंकि जब
तक मन होता है
तब तक शांति
होती ही नहीं।
मन ही
तो अशांति है।
तो मन कभी
शांत होने
वाला है? तुमने
कभी सुना कि
किसी का मन
शांत हो गया
हो?
यह तो
ऐसे ही है, जैसे कि तुम
चिकित्सक के
पास जाकर पूछो
कि मेरी
बीमारी को
स्वस्थ होने
का कोई उपाय
बता दो। तुम
स्वस्थ होओगे,
बीमारी
स्वस्थ नहीं
होगी; तुम
शांत होओगे, मन शांत
नहीं होगा। और
जब तक बीमारी
है, तब तक
तुम स्वस्थ
कैसे होओगे? और तुम पूछ
रहे हो बीमारी
को स्वस्थ
करने की कोई
औषधि दे दें।
सागर
में तूफान
उठता है; पहाड़ों
की तरह लहरें
उठती हैं। उस
क्षण में सागर
अशांत है, तूफान
है। क्या तुम
पूछते हो कि
जब सागर शांत हो
जाएगा, तब
क्या होगा? तूफान रहेगा?
शांत होकर
रहेगा? तूफान
नहीं रहेगा।
शांति का अर्थ
है: तूफान का न
हो जाना; शांति
का अर्थ है: मन
का न हो जाना।
मन
तूफान है, मन तुम्हारे
भीतर उठी
तरंगें हैं, लहरें हैं।
मन का ही सारा
उपद्रव है। और
तुम पूछते हो,
"उपद्रव
कैसे शांत हो?'
उपद्रव
शांत होने को
एक ही उपाय है
कि उपद्रव न
हो।
वे
कहने लगे, "आप तो गहरी
बातें करने
लगे; मैं
तो केवल मन की
शांति के लिए
आया था।'
मन से
गहरे न जाओ, तो मन की
शांति नहीं हो
सकती; क्योंकि
मन से गहरे न
हो जाओ तो तुम
मन में ही मस्त
रहते हो। उससे
पीछे हटने का
तुम्हारे पास उपाय
नहीं है। पीछे
हटने का उपाय
बताया जाए तो
तुम कहते हो, मन को भाता
नहीं। तुम
बीमारी से
पूछते हो कि
औषधि भाती है
या नहीं? बीमारी
से पूछोगे तो
औषधि भाएगी
ही क्यों?
समझ लो
कि तुम्हें
बीमारी है कोई—क्षयरोग
हो गया है।
क्षयरोग के
कीटाणु तुम्हें
खाए जा रहे
हैं। उन कीटाणुओं
से पूछो कि
औषधि भाती है? वे कीटाणु
कहेंगे, "हमारी
जान लेनी है?' क्योंकि उन कीटाणुओं
के लिए तो
औषधि मौत है।
उन कीटाणुओं
का जीवन
तुम्हारी मौत
है।
विचार कीटाणुओं
की तरह हैं।
मन एक रोग है, महारोग है।
और जब कोई
कहता है, ध्यान
करो, तो
तुम कहते हो, मन को भाता
नहीं। इसी मन
से पूछते हो
और मन तो कहेगा
कि नहीं भाता,
क्योंकि
किस को अपनी
मौत भाती है?
ध्यान
मन की मौत है।
तो मन
तुम्हें
ध्यान से बचाएगा।
वह हजार बहाने
खोजेगा। वह
कहेगा कि इतनी
सुबह, इतनी
सर्द सुबह
कहां उठकर जा
रहे हो? थोड़ा
विश्राम कर
लो। रात भर
वैसे तो नींद
ही नहीं आई, और अब सुबह
से ध्यान? वैसे
तो थके हो, अब
और थक जाओगे।
शांत पड़े रहो।
कल चले जाना।
इतनी जल्दी भी
क्या है? कोई
जीवन चुका जा
रहा है?
हजार
बहाने मन
खोजता है। कभी
कहता है, शरीर
ठीक नहीं है, तबीयत जरा
ठीक नहीं है; कभी कहता है,
घर में काम
है; कभी
कहता है, बाजार
है, दुकान
है। हजार
बहाने खोजता
है। ध्यान से
बचने; की
मन पूरी कोशिश
करता है।
क्योंकि
ध्यान सीधा
रास्ता है जो
मंदिर में ले
जाता है; वह
यहां—वहां
नहीं ले जाता
है।
"चलत
कत टेढ़ौ—टेढ़ौ रे।'
मन
सीधा चल ही
नहीं सकता।
अगर तुम मेरी
बात ठीक से
समझो, तो मन
का अर्थ ही है टेढ़ा—टेढ़ा
चलना। टेढ़ी
चाल का नाम मन
है। जैसे ही
चाल सीधी हुई,
मन गया। मन
सीधी चाल में
बचता ही नहीं।
इसलिए सरलता
से मन भागता
है, जटिलता
को चुनता है।
जितनी जटिल
चीज हो, उतनी
मन को रुचती
है। जितनी
कठिन चीज हो
उतनी मन को
रुचती है।
हिमालय चढ़ना
हो, जंचता है।
परमात्मा में
जाना हो, नहीं
जंचता; क्योंकि
इतनी सरल घटना
है कि वहां
कोई चुनौती नहीं
है, वहां
कोई चैलेंज
नहीं है। कठिन
को जीतने में
मजा आता है मन
को। सरल को
जीतने का उपाय
भी नहीं है।
सरल को क्या जीतोगे।
परमात्मा
से लोग वंचित
हैं—इसलिए
नहीं कि वह
बहुत कठिन है, इसलिए वंचित
है कि वह बहुत
सरल है; इसलिए
वंचित नहीं है
कि वह बहुत
दूर है, इसलिए
वंचित है कि
वह बहुत पास
है। उसमें
चुनौती नहीं
है।
दूर की
यात्रा पर तो
मन निकल जाता
है, पास की
यात्रा में
यात्रा नहीं
है—जाना कहां
है?
तो
जितना
तुम्हारा मन
किसी चीज में
जटिलता पाता
है, उतना ही
रस लेता है; क्योंकि चाल
टेढ़ी—मेढ़ी
चलने की
सुविधा है।
सीधे—सीधे में
साफ—सुथरे में
मन कहता है, "कुछ रस नहीं,
क्या करोगे?
बात इतनी
साफ—सुथरी है,
कोई भी
पहुंच सकता है—तुम्हारी
क्या
विशिष्टता?'
इसलिए
तुम्हें कहूं
इसे ठीक से
सुन और समझ
लेना, धर्म
बड़ी सीधी चीज
है, लेकिन
मन के कारण
पुरोहितों ने
धर्म को बहुत
जटिल बनाया, क्योंकि
जटिल की ही
अपील है। तो
उलटी—सीधी
हजार चीजें
धर्म के नाम
से चल रही
हैं। उपवास
करो, शरीर
को सताओ, शीर्षासन
करके खड़े रहो—उलटा—सीधा
बहुत चल रहा
है। और वह
चलता इसलिए है,
क्योंकि
तुम्हें जंचता
है। अगर मैं
तुमसे कहूं कि
बात बिलकुल
सरल है, बात
इतनी सरल है
कि कुछ करना
नहीं है, सिर्फ
खाली, शांत
बैठकर भीतर
देखना है—तुम
मुझे छोड़कर
चले जाओगे।
तुम कहोगे, "जब कुछ करने
को ही नहीं है,
तो क्यों
समय खराब करना?
कहीं और
जाएं, जहां
कुछ करने को
हो।'
सौ
गुरुओं में
निन्यानबे
जटिलता के
कारण जीते
हैं। वे जितने
दांव—पेंच बता
सकते हैं, उतने बता
देते हैं और
दांव—पेंच में
तुम उलझ जाते
हो; मन बड़ा
रस लेता है, पहुंचते कभी
भी नहीं। नहीं
पहुंचते तो
गुरु कहते हैं,
"पहुंचना
कोई इतना आसान
है? जन्मों—जन्मों
की यात्रा है।'
नहीं
पहुंचते तो
गुरु समझाते
हैं कि यह तो
कर्मों का बड़ा
जाल है; यह
कभी इतने
जल्दी होने
वाला है? कभी
हुआ है ऐसा? जन्मों—जन्मों
तक लोग चेष्टा
करते हैं, तब
होता है?' अब
दूसरे जन्म
में इन्हीं
गुरु से मिलने
का उपाय तो है
नहीं। पिछले
जन्म में जिन
गुरुओं ने जटिल
साधनाएं दी
थीं, उनसे
मिले इस जन्म
में कि पूछ लो
कि अब भी नहीं
हुआ? वह
बात ही नहीं
होती, क्योंकि
दुबारा मिलने
का कोई उपाय
नहीं। मिल भी
लो तो पहचान
नहीं होती।
तुम खुद को
भूल गए हो, तुम्हारे
गुरु भी अपने
को भूल गए
हैं। इसलिए धंधा
चलता है।
जटिलता
पर सारा खेल
है।
तुम
समझो इसे:
हीरे—जवाहरात
बहुमूल्य हैं, क्योंकि
न्यून हैं।
उनका मूल्य
उनकी न्यूनता
में है; खुद
में कोई मूल्य
नहीं है।
कोहिनूर दो कौड़ी का
नहीं है। क्या
करोगे—खाओगे,
पिओगे?
समझ लो कि
कोहिनूर हर
सड़क पर पड़े
हों, कंकड़—पत्थर की
तरह पड़े हों, फिर क्या
करोगे? कोहिनूर
की कीमत खत्म
हो जाएगी।
दुनिया भर में
हीरे—जवाहरात
जितने हैं
इतने बाजार
में लाए नहीं
जाते, क्योंकि
बाजार में
लाने से उनकी
कीमत गिर जाएगी।
बड़े—बड़े भंडार
हैं हीरे—जवाहरातों
के। उनको
रोककर रखा
जाता है। और
धीरे—धीरे
बहुत कम
संख्या में
हीरे—जवाहरात
बाहर निकाले
जाते हैं, क्योंकि
अगर उनको सारा
का सारा निकाल
दिया जाए तो
उनकी कीमत ही
मिट जाए इसी
वक्त। उनकी
कीमत उनकी न्यूनता
में है।
कोहिनूर
एक है, इसलिए
मूल्यवान है।
क्या कारण
होगा इसके मूल्य
का? इतना
है कि इसको
पाना कठिन है।
चार अरब
मनुष्य हैं और
एक कोहिनूर
है। तो चार
अरब
प्रतियोगी हैं
और एक कोहिनूर
है—बड़ा जटिल
मामला है। चार
अरब पाने की
कोशिश कर रहे
हैं, और एक
कोहिनूर है!
बहुत कठिन है।
गांव—गांव, सड़क—सड़क, पहाड़—जंगल,
सब जगह
कोहिनूर पड़े
हों, कौन
फिक्र करेगा?
और कोई अगर
बादशाह रणजीत
सिंह या एलिझाबेथ
अपने मुकुट
में लगाएगी तो
लोग हंसेंगे कि
इसमें क्या है;
कोहिनूर तो
गांव—गांव पड़े
हैं; बच्चे
खेल रहे हैं।
न्यूनता
का मूल्य है, क्योंकि
न्यूनता के
कारण पाने में
जटिलता पैदा
हो जाती है।
कुछ चीजों के
मूल्य बाजार
में बहुत
ज्यादा रखने
पड़ते हैं, इसलिए
वे बिकतीं
हैं। अगर उनके
मूल्य कम कर
दिए जाएं तो उनको
खरीददार न
मिलें। यह बड़े
मजे का
अर्थशास्त्र
है। तुम सोचते
होओगे कि
चीजों के दाम
कम हों, ज्यादा
खरीददार
मिलेंगे; कुछ
चीजें ऐसी हैं
कि उनके
खरीददार तभी
मिलते हैं, जब उनके दाम
इतने हों कि
ज्यादा
खरीददार न उनको
खरीद सकें। रॉल्सरॉयस
खरीदनी
हो तो कितने
खरीददार खरीद
सकत हैं? इसका
मूल्य इतना
ऊंचा रखना
पड़ता है कि जो
उसे खरीद ले, वह उसकी
प्रतिष्ठा बन
जाए कि रॉल्सरॉयस
खरीद ली। वह
प्रतिष्ठा का
सिंबल है, प्रतीक
है। इसका
मूल्य इतना है
नहीं, जितना
मूल्य चुकाना
पड़ता है। मगर
लोग पागल हैं।
और मन का यह
पूरा खेल है।
अगर
तुम्हें
परमात्मा ऐसे
ही घर के पीछे
मिलता हो तो तुम्हारा
रस ही खो जाए।
तुम कहोगे यह
तो जन्मों—जन्मों
की बात है, ऐसे कहीं
मिलता है? ऐसे
परमात्मा
अचानक एक दिन
आ जाए और
तुम्हें उठा
ले कि "भाई, मैं आ गया, तुम बड़ी
प्रार्थना
वगैरह करते थे,
शीर्षासन
लगाते थे—अब
हम हाजिर हैं,
बोलो!' तुम
फौरन आंख बंद
कर लोगे कि यह
सच हो ही नहीं
सकता।
ऐसा
हुआ कि मुल्ला
नसरुद्दीन
ने जाल फेंका, एक मछली पकड़
ली। मछली इतनी
बड़ी थी कि कभी
सुनी भी नहीं
गई थी। सिर्फ मछुओं की
कहानियों में
कि एक मछुए एक—दूसरे
को बताते हैं
कि दस मन की
मछली पकड़ी
ली। लेकिन कोई
मानता नहीं।
सब समझते हैं
कि गप्प मार
रहा है। और मछुओं
से ज्यादा गप्पबाज
दूसरे नहीं
होते, क्योंकि
वे मछलियों की
कहानी बताते
रहते हैं कि
"इतनी बड़ी
मछली पकड़ ली; कि इतनी बड़ी
मछली ठहरी हुई
थी सागर के तट
पर कि हम
बैठकर उसकी
पीठ पर रोटी
पकाए, और
मछली को पता न
चलता। जब तक
मछली को पता
चला तब तक
हमारी रोटी पक
गई, भोजन
कर चुके, तब
वह हिली—इतनी
बड़ी थी!' एक
बड़ी मछली पकड़
ली। भीड़ लग
गई। नसरुद्दीन
ने सब तरफ से
उस मछली को
जाकर देख
लिया। सिर हिलाया
और कहा कि
नहीं, यह
सच है ही नहीं,
यह झूठ है, यह तो एक
गप्प है। इसको
कौन मानेगा? उसने कहा, "भाइयो मुझे
सहायता दो, इसको सागर
में फेंक देने
दो। यह मछली
है ही नहीं, यह एक झूठ
है।'
अगर
परमात्मा ऐसे
ही आ जाए
चुपचाप, और
कहे कि मैं आ
गया; तुमने
याद किया था—तो
तुम भरोसा न
करोगे। तुम
कहोगे कि यह
एक झूठ है।
कोई स्वप्न
देख रहा हूं।
यह हो ही नहीं
सकता।
तुम
सरल को मान ही
नहीं सकते। और
मैं तुमसे कहता
हूं, परमात्मा
ऐसे ही आता
है। अगर
तुम्हारे मन
की टेढ़ी—मेढ़ी चाल न
हो, अगर
तुम सीधे—सरल
होकर बैठ जाओ
तो परमात्मा
ऐसे ही आता है
कि उसकी
पगध्वनि भी
नहीं सुनाई
पड़ती: एक क्षण
पहले नहीं था
और एक क्षण
बाद है। अचानक
तुम उससे भर
गए हो। उसके मेघ
ने तुम्हें
घेर लिया है।
उसके अमृत की
वर्षा होने
लगी। तुम कभी
यह भी न समझ
पाओगे कि मेरी
क्या योग्यता
थी और
परमात्मा आया!
क्योंकि योग्यता
की बात तो
तर्क की बात
है। परमात्मा
कुछ किसी
योग्यता से
थोड़े ही मिलता
है। तुम कभी
समझ ही न
पाओगे कि
"मेरी
पात्रता क्या थी?
मैंने क्या
किया था, जिसकी
वजह से
परमात्मा
मिला? क्योंकि
करने से थोड़े
ही परमात्मा
मिलता है। वह
तुम्हें मिला
ही हुआ है; तुम्हारे
करने के पहले
मिला हुआ है; तुम्हारे
होने के पहले
मिला हुआ है।
तुम उसे खो ही
नहीं सकते। मन
की टेढ़ी—मेढ़ी चाल
है कि तुम्हें
लगता है, खो
गया। फिर खोज
का सवाल उठता
है। जिसे कभी
खोया नहीं, उसे तुम
खोजने निकल
जाते हो!
जिस
दिन परमात्मा
मिलता है, उस दिन
प्रसाद—रूप, अकारण...।
मिला ही हुआ
है। तुम जरा
बैठो। तुम दौड़ो
मत। तुम थोड़ा
मन को
विसर्जित करो।
तुम मन की बात
मत सुनो। तुम
मन के धुएं से
जरा अपने को
मुक्त करो और
पार ले जाओ।
तुम जरा मन की
घाटी से हटो।
थोड़ा—सा
फासला मन से
और परमात्मा
से सारी दूरी
मिट जाती है।
इसे हम ऐसा कह
सकते हैं कि
जितने मन के
पास हो तुम, उतने
परमात्मा से
दूर; जितने
मन से दूर, उतने
परमात्मा के
पास—बस ऐसा ही
सीधा—सा गणित
है। जितने मन
से दूर, उतने
परमात्मा के
पास। जिस दिन
मन नहीं, उस
दिन तुम
परमात्मा हो।
परमात्मा
को तुमने खोया
नहीं है। मन
को तुमने पा
लिया है—यही
तुम्हारी
अड़चन है।
"चलत
कत टेढ़ौ—टेढ़ौ रे।
नऊं
दुवार नरक धरि
मूंदै।।
तू दुरगंधि
कौ बेढ़ौ
रे।।'
क्यों
इतना तिरछा—तिरछा
चलता है, और
क्यों इतनी
अकड़? क्योंकि
अकड़ के कारण
लोग तिरछे
चलते हैं। पैसा
मिल जाए तो
आदमी अकड़कर
चलता है; इलेक्शन में जीत जाए
तो पैर जमीन
पर नहीं पड़ते—तिरछा—तिरछा
चलता है।
कबीर
कह रहे हैं कि
तेरी अकड़ का
कोई कारण समझ
में नहीं आता, नाहक ही
अकड़ा हुआ है।
अगर सच्चाई
कहनी है तो अकड़
का तो कोई भी
कारण नहीं है।
"नऊं
दुवार नरक धरि
मूंदै'—तेरे ही नौ
द्वारों के
कारण नरक में
गिरेगा।
नौ
द्वार हैं
शरीर के नौ
छिद्र—आंख, कान, नाक,
शरीर के नौ
छिद्र—जिनसे
मन अपनी
वासनाओं को
संसार में
फैलाता है; जिन द्वारों
से मन बाहर
जाता है, पदार्थ
से चिपटता है,
दूसरे को पकड़ता है, परिग्रह
बनाता है, लोभ,
काम, क्रोध
को पैदा करता
है।
कबीर
कहते हैं, "नऊं
दुवार नरक धरि
मूंदै'—तेरे ही
कारण और तेरे
ही द्वारों के
कारण नरक का
द्वार
खुलेगा। अकड़
किस बात की है?
क्यों ऐसा
तिरछा—तिरछा
जा रहा है?
"तू दुरगंधि
को बेढ़ौ
रे'—और
मैंने तुझसे
कभी कोई सुगंध
उठते देखी
नहीं। सिवाय
दुर्गंध के
तुझसे कभी कुछ
उठा नहीं। तू
दुर्गंध का घर
है, फिर भी
अकड़ा फिर रहा
है!
इसे
थोड़ा समझो।अपने
ही मन से बात
करना, ध्यान
का एक बड़ा
गहरा प्रयोग
है। जब तुम
अपने मन से
बात करने लगते
हो तो फासला
हो जाता है।
जब तुम अपने
मन से बात
करते हो तो मन
वहां, तुम
यहां; तुम
अपने मन से
कहते हो, "चलत
कत टेढ़ौ—टेढ़ौ रे'—फासला हो
गया! तुम बोलनेवाले
हो गए, मन
सुननेवाला हो
गया, अपने
मन से बात
करना, ध्यान
का एक गहरा
प्रयोग है।
कभी—कभी बैठकर
बात करने से
तुम बड़ा लाभ
पाओगे। और मन
के पास कोई
जवाब नहीं है।
अगर तुमने ठीक
से बात की और
चीजें साफ
रखीं, तो
मन क्या कहेगा?
मन के पास
कोई जवाब नहीं
है।
"तू दुरगंधि
को बेढ़ौ
रे!' मन से
सिवाय
दुर्गंध के
कभी कुछ नहीं
उठता। और कभी
अगर तुम्हें
सुगंध मालूम
पड़ती है, तो
तुम खोज करना,
वह मन के
पार से आती
होगी, मन
से नहीं आती।
जैसे समझो:
क्रोध मन से
उठता है, घृणा
मन से उठती है,
वैमनस्य,र्
ईष्या मन से
उठती है, जलन,
द्वेष
मत्सर मन से
उठता है—सब
उपद्रव मन से
उठता है। अगर
कभी तुम्हें
मन से कोई ऐसी
चीज भी उठती
मालूम पड़ती हो
जो दुर्गंध
जैसी नहीं है,
तो तुम ठीक
से खोजना, तुम
फौरन पाओगे कि
वह मन के पार
से आ रही है।
जो प्रेम मन
से उठता है, वह तो
दुर्गंध—भरा
ही होता है; वह तो घृणा
का ही दूसरा
रूप होता है।
लेकिन एक ऐसा
प्रेम भी है
जो मन के पार
से उठता है।
और तुम उसे
पहचान लोगे
तत्क्षण।
उसकी सुगंध ही
और है! जब कभी
कोई ऐसा प्रेम
उठता है, जो
कुछ भी नहीं
मांगता, जो
कुछ भी नहीं
चाहता, जिसकी
कोई अपेक्षा
नहीं है—जैसा
प्रेम बुद्ध
की आंखों में
दिखाई पड़े—वह
प्रेम मन से
नहीं आ रहा है;
वह मन के
पार से आ रहा
है; उसमें
फिर कोई
दुर्गंध नहीं
है; उसमें
फिर घृणा कोई
पहलू नहीं है।
तुम
बुद्ध के
प्रेम को घृणा
में नहीं बदल
सकते।
तुम्हारे
प्रेम को घृणा
में बदला जा
सकता है। तो
वह प्रेम मन
से आ रहा है।
तो क्या हुआ
मापदंड? मापदंड
यह हुआ कि जो
भी चीज अपने
से विपरीत में
न बदली जा सके
वह, मन के
पार से आ रही
है—यह क्राईटेरियन
हुआ, यह
निष्कर्ष
हुआ। इस पर
तुम कस लेना।
तुम
किसी को प्रेम
करते हो। एक
स्त्री को
प्रेम करते हो; आज वह सुंदर
है, कल
बूढ़ी हो जाएगी—फिर
भी प्रेम
करोगे? ऐसा
ही प्रेम
करोगे? आज
स्वस्थ है, कल बीमार हो
जाए, केंसरग्रस्त हो जाए, कि
कोढ़ आ जाए, सारा
शरीर गलने
लगे—फिर भी
तुम ऐसा ही
प्रेम करोगे?
सिर्फ
सोचो।
तत्क्षण तुम
जान लोगे कि
नहीं कर पाओगे।
आज स्त्री
प्रसन्न है, तुम्हें
पूछती है; कल
गाली देख
अपमान करे—तब
भी ऐसा ही
प्रेम करोगे?
आज
तुम्हारे
पीछे छाया की
तरह चलती है, तुम्हारे
अहंकार को
भरती है; कल
किसी और की
तरफ प्रेम की
नजर से देख ले—तब
भी ऐसा ही
प्रेम करोगे?
कल किसी और
के पीछे चलने
लगे, किसी
और की छाया बन
जाए—तब भी तुम
ऐसा ही प्रेम
करोगे? तो
तुम्हारा
प्रेम सशर्त
है: उसमें कंडिशन
है; वह लेन—देन
है। और अगर
स्त्री ने किसी
और को प्रेम
कर लिया तो
प्रेम करना
दूर, तुम
उसकी हत्या कर
दोगे। तुम उसे
गोली मार दोगे।
तुम्हारा
प्रेम घृणा
में बदल सकता
है।
जो चीज
अपने से
विपरीत में
बदल जाए, समझना
कि मन से आ रही
है; क्योंकि
मन के पास
द्वैत है, मन
के पार अद्वैत
है। अगर
तुम्हारा
प्रेम घृणा
में बदल सके, अगर तुम समझ
लो कि यह संभव
ही नहीं है कि
मेरा प्रेम
घृणा में बदल
जाए तो खोजना
गौर से, अपने
को धोखा देने
का कोई सार
नहीं है, क्योंकि
किसी और को
तुम धोखा नहीं
दे रहे हो। तुम्हारी
शांति अशांति
में बदल सकती
है, तो समझ
लेना कि मन का
ही खेल है।
तुम अगर ऐसी
शांति को
अनुभव करो
जिसे कि कुछ
भी न बिगाड़
सकेगा, जिसमें
कोई विघ्न—बाधा
न डाल सकेगा; तुम्हारी
शांति ऐसी
होगी, उसे
अशांति में
बदलने का कोई
उपाय न हो
सकेगा; चारों
तरफ तूफान
चलता रहे तो
भी तुम्हारी
शांति अडिग
बनी रहेगी—तो
तुम समझ लेना
कि कुछ मन के
पार से आ रहा
है। मन के पार
से जो आता है, वह विपरीत
में बदल नहीं
सकता, क्योंकि
उसका विपरीत
है ही नहीं; वह अद्वैत
से आ रहा है।
उससे अन्य कोई
है ही नहीं।
कभी—कभी
तुम्हें
सुगंध की खबर
मिल सकती है—मन
से भी। लेकिन
वह सुगंध मन
की नहीं है।
मन से तो
दुर्गंध उठती
है। और जो भी
तुम मन से
करोगे, तुम्हारा
जीवन उतना ही
दुर्गंध से
भरता जाएगा।
अगर
तुम दुर्गंध
से भर गए हो तो
चेतो! कब तक मन
पर भरोसा किए
जाओगे? काफी
कर लिया। हर
चीज की हद
होती है। "चलत
कत टेढ़ौ—टेढ़ौ रे।'
"नऊं
दुवार नरक धरि
मुंदै, तू दुरगंधि
को बेढ़ौ
रे।' घर है
तू दुर्गंध
का। नौ द्वार
खुलते हैं
तुझसे नरक के और
अकड़कर तू
चलता है—कुछ
समझ में बात
आती नहीं; कबीर
अपने मन से
कहते हैं।
"जे जारै तो
होइ भसम तन'—और जब जलाया
जाएगा तो शरीर
के साथ, शरीर
भस्म हो जाएगा,
राख हो
जाएगा, तू
भी राख हो
जाएगा। "रहित
किरम उहिं
खाई'—अगर कोई
टुकड़े बच गए
शरीर के आग से,
तो कीड़े—मकोड़े
खा लेंगे। अकड़
किस बात की है?
किसलिए इतना सिर
ऊंचा किए चल
रहा है? ये पताकाएं किसलिए फहराई जा
रही हैं? झंडा
उठाने जैसा
कुछ भी तो
नहीं है।
"सूकर
स्वान काग को भाखिन'—छोड़
देगी चेतना, उड़ जाएगा
पखेरू, हंस
यात्रा पर निकल
जाएगा—तो तुझे
सूअर, कुत्ते,
कौवे
भक्ष्य बना
लेंगे। "तामै
कहा भलाई'—कुछ
बात समझ में
नहीं आती कि
क्यों तू इतना
अकड़ा है?
"फूटै
नैन हिरदै
नहिं सूझै,
मति एकै
नहिं जानी।' तेरे कारण
पाया तो कुछ
भी नहीं, खोया
बहुत। और बड़ी—से—बड़ी
चीज जो खो दी
है, मन के
कारण, वह
है—"फूटै
नैन, हिरदै नहिं सूझै।'
मन ने कब्जा
कर लिया है, इतनी
तीव्रता से कि
हृदय को
बिलकुल अलग ही
तोड़ दिया है।
मन की आंख सजग
है और हृदय की
आंख मन ने बिलकुल
अंधी कर दी—जैसे
आंख पर तेजाब
डाल दी हो
हृदय की।
और मन
समझाता है कि
हृदय अंधा है; देखना है तो
हमसे देखो। मन
कहता है, प्रेम
अंधा है, देखना
है तो हमसे
देखो, नहीं
तो भटक जाओगे।
और प्रेम एक—मात्र
आंख है—मन
अंधा कहता है।
मन तुम्हें
हृदय की नहीं
सुनने देता।
जब तुम सुनते
ही नहीं बड़े—बड़े
लंबे—लंबे समय
तक, तो
धीरे—धीरे
हृदय की आवाज
धीमी—धीमी, धीमी—धीमी
पड़ती जाती है।
और मन का
शोरगुल इतना
है कि वह आवाज
सुनाई नहीं
पड़ती। थोड़ा मन
विदा हो, तुम्हारी
थोड़ी दूरी बढ़े,
तो पहली दफे
पता तुम्हें
चलेगा कि
तुम्हारे भीतर
हृदय भी है।
और हृदय यानी
एक अलग ही लोक;
हृदय यानी
एक नया ही
आयाम; जीवन
को जानने—पहचानने
की एक नई
कीमिया। तुम नए
ही हो जाओगे
जब तुम हृदय
से देखोगे।
वही चीजें जो
तुमने मन से
देखी थीं, वे
ही चीजें जब
तुम हृदय से देखोगे, तुम पाओगे
बात ही बदल
गई।
अगर
तुम मन से
परमात्मा को देखोगे तो
पत्थर से
ज्यादा दिखाई
नहीं पड़ेगा।
अगर हृदय से
तुम पत्थर को देखोगे तो
परमात्मा से
अन्यथा नहीं
दिखाई पड़ेगा।
जिन्होंने
पत्थर की मूर्तियां
बनाई हैं
परमात्मा की, उन्होंने
बनाई होंगी
हृदय से—उन्हें
परमात्मा
दिखाई पड़ा।
तुम भी जाते
हो उसी मंदिर
में, तुम्हें
पत्थर दिखाई
पड़ता है।
पत्थर
की मूर्तियां
बनाने का बड़ा
राज है। राज यही
है कि अगर
हृदय की आंख हो, तो पत्थर
दिखाई पड़ता ही
नहीं; पत्थर
रूपांतरित हो
जाता है।
पत्थर एक ऐसे
अलौकिक रूप से
आविष्ट हो
जाता है कि
कबीर ने कहा है,
"महिमा कही
न जाए!' पत्थर
तो तिरोहित हो
जाता है; पत्थर
से प्रगट हो
जाता है
परमात्मा।
क्योंकि वह सब
जगह भरा है, जगह—जगह
छिपा है—जरा खोदने
की बात है।
जैसे पानी जगह—जगह
छिपा है, जरा
खोदा कि कुआं
बन गया। लेकिन
वह खुदाई हो सकती
है हृदय के
उपकरणों से।
हृदय
जोड़ता है, मन तोड़ता
है। मन खंड—खंड
करता है, हृदय
अखंड करता है।
मन का सूत्र
है: विश्लेषण—एनालिसिस;
हृदय का
सूत्र है:
संश्लेषण—सिन्थीसिस।
जहां चीजें
खंड—खंड हैं, हृदय वहां
अखंड देखता है;
और जहां
चीजें अखंड
हैं, वहां
मन खंड—खंड
देखता है।
हृदय जब
परिपूर्ण रूप
से सक्रिय
होता है तो
सारा
अस्तित्व एक
हो जाता है।
कबीर
कहते हैं, पाया तो
तुझसे कुछ भी
नहीं। "फूटे
नैन, हिरदै नहिं सूझै'—आंख फोड़
दी तूने, दृष्टि
मिटा दी तूने,
और हृदय की
सारी सूझ खो
गई। प्रेम के
पंख काट डाले
तूने, प्रार्थना
का उपाय न
छोड़ा—यही तेरी
उपलब्धि है।
"मति एकै
नहिं जानी'—और प्रज्ञा
की एक किरण
तूने नहीं
जानी है, और
न तूने जानने
दी।
मति का
अर्थ है:
प्रज्ञा, परम
ज्ञान, उसकी
झलक। मन में
बहुत ज्ञान
इकट्ठा कर
लिया है; लेकिन
उस ज्ञान में
मति की जरा भी
झलक नहीं है।
बहुत जानता है
मन, और कुछ
भी नहीं
जानता। बड़ा
संग्रह है
ज्ञान का—शास्त्र,
शब्द, सिद्धांत,
लेकिन
प्रतीति का एक
कण भी नहीं
है। और प्रतीति
ही एक मात्र
प्रज्ञा है।
अपना ही अनुभव
एक मात्र
ज्ञान है। तो
मन तोते की
तरह है: रटन
लगाए रखता है,
दोहराता
रहता है—बासा,
उधार।
कबीर
कहते हैं, "मति एकै
नहिं जानी।' इसके दो
अर्थ हो सकते
हैं कि मति की
एक भी किरण भी
न जानी; इसका
एक अर्थ यह भी
हो सकता है कि
उस एक के संबंध
में कुछ भी न
जाना; बहुत
के संबंध में
जान लिया और
एक के संबंध
में कुछ भी
नहीं जाना। और
एक ही असली
जानना है।
उपनिषदों ने कहा
है, "जो उस
एक को जान
लेता है, वह
सब जान लेता
है।'
"मति
एकै नहिं
जानी।'
"माया
मोह ममता सूं
बांध्यो,
बूड़ि मुवौ
बिन पानी।' इतनी ही
तेरी कुशलता
है कि—"माया
मोह ममता सूं
बांध्यो'—स्वप्नों से
बांध दिया
तूने, सत्य
से तोड़ दिया; मोह से बांध
दिया तूने, ममता से
बांध दिया; अहंकार से—मैं
और मेरा! सपने
तूने संजो
दिए। झूठा एक
जगत निर्मित
कर दिया चारों
तरफ। और एक
ऐसी स्थिति बना
दी: कहते हैं, कहावत है कि
"चुल्लू भर
पानी में डूब
मरो'—कहते
हैं उस आदमी
से जिसको अब
कोई बचने की
जगह न रही, जिसने
ऐसा अपराध
किया है जीवन
के साथ, जिसने
ऐसा पाप किया
है जीवन के
साथ कि वह
चेहरा दिखाने
योग्य न रहा, तो उससे हम
कहते हैं, डूब
मरो चुल्लू भर
पानी में।
चुल्लू भर
पानी में
क्यों? क्योंकि
तुम इतने क्षुद्र
हो गए कि
चुल्लू भर
पानी काफी
होगा। चुल्लू
भर पानी
तुम्हारे लिए
सागर जैसा
होगा—डूब मरो।
तुम इतने
क्षुद्र हो गए,
यह मतलब है।
इतने छोटे हो
गए तुम कि अब
तुम्हें कोई
नदी, कोई
सरोवर, सागर
डूब मरने के
लिए नहीं
चाहिए; अपने
ही चुल्लू भर
पानी में डूब
सकते हो।
कबीर
कहते हैं, लेकिन तेरी
कृपा से ऐसी
स्थिति आ गई
कि "बूड़ि मुवौ बिन
पानी'—बिना
ही पानी के
डूब मरो; चुल्लूभर की भी कोई
जरूरत नहीं है,
पानी की
जरूरत ही नहीं
है, बस डूब
मरो। तूने
इतना क्षुद्र
बना दिया, तूने
इतना छोटा बना
दिया—और विराट
को, जिसकी
कोई सीमा न थी,
जिसका कहीं
अंत न आता था!
असीम को तूने
ऐसी गति में
डाल दिया कि
अब बिना ही
पानी के मरने
की अवस्था है।
"बूड़ि
मुवौ बिन
पानी!'
"बारू के
घरवा में बैठो'—अकड़ किस बात
की है तेरी?
यह
वार्तालाप
बड़ा प्यारा
है! "बारू
के घरवा में
बैठो'—बैठा
है रेत के घर
में—जो अब गिरा,
तब गिरा; हवा का जरा—सा
झोंका, और
सम्हाले न सम्हलेगा।
शरीर
की अवस्था ऐसी
तो है: कब गिर
जाएगा क्या पता!
अभी है, क्षणभर बाद न हो
जाए। एक क्षण
का भी तो
भरोसा नहीं
है। एक पल के
लिए तो हम
आश्वस्त नहीं
हो सकते कि यह कल
भी बचेगा।
महाभारत
में छोटी—सी
कथा है: एक
भिखारी ने भीख
मांगी।
युधिष्ठिर
कुछ काम में
लगे थे; कहा,
कल आ जाना।
भीम पास में
बैठा था। उसने
उठाया एक ढोल
और जोर से
बजाया, और
भागा गांव की
तरफ।
युधिष्ठिर ने
कहा, "तू यह
क्या कर रहा
है? क्या
हो गया है?' उसने
कहा, "मैं
गांव में खबर
कर आऊं कि
मेरे भाई ने
समय को जीत
लिया; कल
का आश्वासन
दिया है।
भिखारी से कहा
है कि आ जाना।
इसका मतलब कि
कल हम यहां
रहेंगे। इसका
मतलब कि कल तू
भी रहेगा।
मेरे भाई ने
काल को जीत लिया
है—इतनी बड़ी
घटना घट गई है,
तो मैं जरा
ढोल पीटकर
गांव में खबर
कर आऊं।'
युधिष्ठिर
को बात समझ
में आ गई।
दौड़े, भिखारी
को वापस ले आए
और कहा, "क्षमा
कर। कल का
क्या भरोसा, तू अभी ले
जा।'
"बारू के
घरवा में बैठो,
चेतत नहीं अयांना।'
अब तक चेतता
नहीं। और ऐसा
भी नहीं कि
कोई पहली दफा
बैठा, बहुत
बार बैठ चुका
बालू के घर
में, और
बहुत बार घर
गिर गया; मगर
फिर—फिर बना
लेता है।
"चेतत
नहीं अयांना...।'
अयांना का अर्थ है:
अब तक, अभी
तक। अभी तक
चेतता नहीं!
"कहै
कबीर एक राम भगति बिन, बूड़े बहुत सयांना।।'
और सयाने
होने की अकड़
मत कर, क्योंकि
एक "राम भगति
बिन बूड़े
बहुत सयांना'—बड़े—बड़े
ज्ञानी डूब गए
हैं। सिर्फ एक
ही सहारा है जो
बचाता है, वह
है परमात्मा
से प्रेम, राम—भक्ति।
अकड़ मत
रख कि तू बहुत
जानता है। ऐसे
जाननेवाले
बहुत डूब मरे
हैं। यह बड़ा
प्यारा वचन
है। बूड़े
बहुत सयांना!' मन बड़ा
सयाना है; हर
चीज में सलाह
देने को तैयार
है—वहां भी
जहां कुछ
जानता नहीं; हर बात में
गुरु बनने की
तैयारी है। मन
शिष्य नहीं
बनना चाहता, गुरु बनने
को सदा तैयार
है। कूड़ा—कर्कट
इकट्ठा कर
लेता है यहां—वहां
से।
तुम
जरा अपने मन
को देखो। जो
भी तुम जानते
हो, वह कहीं न
कहीं से
इकट्ठा कर
लिया है—सब
उधार, सब
बासा, बड़ा सड़ा, जूठन
फेंकी लोगों
की—उसको
इकट्ठा किए
बड़े अकड़े
और सयाने बने
बैठे हैं।
ऐसा
हुआ कि सूफी
फकीर जुन्नैद
एक गांव से
गुजरता था। वह
बड़ा पंडित था, बड़ा जानकार
था। और
जानकारों की
बड़ी मुसीबत है
कि वे जानते
हैं तो दूसरे
को जनाना
चाहते हैं कि
कोई मिल जाए
जिसका सिखा
दें। ऐसा हुआ
उस दिन कोई न
मिला। वह
धार्मिक गांव
रहा होगा। कई
को पकड़ने
की कोशिश की
जुन्नैद ने
लेकिन लोगों
ने कहा कि अभी
जरा दूसरे काम
से जा रहे हैं,
जब फुर्सत
होगी तब
आएंगे। जो लोग
जानते रहे होंगे
इस पंडित को, कोई न मिला
तो एक छोटा
बच्चा मिल
गया। वह एक दिया
लिए जा रहा था
एक मजार पर चढ़ाने
को, तो
जुन्नैद ने उसको
कहा, "यह
दिया तूने ही
जलाया?' उस
लड़के ने कहा,
"निश्चित
मैंने ही
जलाया।' तो
तू क्या यह
बता सकता है
कि ज्योति जब
तूने जलाई थी
तो कहां थी? और जब तूने
जलाई तो कहां
से आई?—किस
दिशा से?' उस
लड़के ने कहा
कि देखो! फूंक
मारकर उसने
दिया बुझा
दिया और कहा
कि "अब ज्योति
कहां गई, आप
ही बता दो, आप
के सामने ही
गई—तब मैं बता
दूंगा कहां से
आई।'
जुन्नैद
को पहली दफा
होश आया कि
बड़ी—बड़ी ज्ञान
की मैं बातें
करता हूं कि
यह संसार कहां
से आया, किसने
बनाया, और
यह ज्योति
सामने ही मेरी
आंखों के लीन
हो गई और मैं
नहीं बता सकता
कि कहां गई!
उसने झुककर
पैर छुए उस
बच्चे के। और
जुन्नैद ने
लिखा है कि
उसी दिन मैंने
पंडित होने का
त्याग कर
लिया। ज्ञान
कचरा है। क्या
बकवास मैंने
भी लगा रखी है?
छोटी—छोटी
बात का पता
नहीं, बड़ी—बड़ी
बात कर रहा
हूं! अपना पता
नहीं, संसार
की बात कर रहा
हूं। खुद की
कोई खबर नहीं,
खुदा की
चर्चा चला रहा
हूं! जुन्नैद
उसी दिन परिवर्तित
हो गया।
जुन्नैद
ने कहा, अब
हम सिखाने
नहीं निकलते,
अब सीखने
निकलते हैं।
वह शिष्य हो
रहा। वह बड़ा
विनम्र आदमी
हो गया। उसकी
विनम्रता
अनूठी थी।
उसने हर किसी
से सीखा। और
जब वह ज्ञान
को उपलब्ध हुआ
तो उससे लोगों
ने पूछा, तो
उसने इस बच्चे
को अपना पहला
गुरु बताया।
दूसरा गुरु एक
चोर को बताया।
लोगों ने कहा,
चोर और
गुरु!
उसने
कहा, हां, एक
गांव में मैं
देर से
पहुंचा। सारा
गांव तो सोया
था। धर्मशाला
तो बंद हो
चुकी थी, एक
चोर एक अंधेरी
गली में मुझे
मिल गया। उसने
कहा कि देखो, अब इस रात के
अंधेरे में
तुम्हें कहीं
कोई जगह न
मिलेगी, विश्राम
न मिलेगा।
मेरे घर तुम आ
सकते हो, लेकिन
मैं तुम्हें
बता दूं, क्योंकि
तुम फकीर हो, मैं चोर हूं—अपना
धंधा बिलकुल
अलग—अलग, और
फकीर से झूठ
क्या कहना! सच—सच
बता देता हूं,
नहीं तो
कहीं पीछे तुम
पछताओगे कि
कहां चोर के
घर में रुक
गए। मुझे कोई
ऐतराज नहीं है,
और मुझे डर
नहीं है कि
तुम मुझे बदल
लोगे, मैं
पक्का चोर हूं,
तुम्हें
अगर डर हो कि
मैं तुम्हें
बदल लूंगा, तुम कहीं और
ठहर जाओ।
जुन्नैद
ने कहा है कि
मैंने सोचा, मन में मेरे
भय तो आया था, चोर पहचान
गया। मन में
एक बात तो आई
थी कि चोर के
घर रुकना?—ठीक
नहीं है, क्योंकि
सत्संग सोचकर
करना चाहिए।
लेकिन जब चोर
ने कहा कि "मैं
पक्का चोर हूं,
तुम मुझे न
बदल पाओगे।
इसलिए मुझे
उसकी कोई चिंता
नहीं है। हां
तुम्हें अगर
डर है कि मेरे
पास रहकर मेरा
रंग तुम्हें
लग जाएगा। तुम
अगर कच्चे
फकीर हो तो
कहीं भी ठहर
जाओ।
तुम्हारी
मर्जी।' चोट
लग गई।
क्योंकि उसने
कहा, "कच्चे
फकीर!'
जुन्नैद
रुक गया और
फिर महीने भर
रुका रहा, चोर अनोखा
आदमी था। रोज
सांझ चोरी के
लिए निकलता, रोज बड़ी आशा
से भरा हुआ
निकलता और
जुन्नैद से बड़ी
बातें करता कि
आज महल में ही
प्रवेश करने
वाला हूं, तो
देखना कि
तिजोरी ही उठा
लाऊंगा।
और रात जब
लौटता तब भी
उदास न दिखाई
पड़ता। दरवाजा
जब जुन्नैद
खोलता और
पूछता कि लाए?
तो वह कहता
आज तो नहीं
लगा दांव, लेकिन
कल पक्का है।
ऐसे महीना बीत
गया। दांव लगा
ही नहीं। मगर
उस आदमी की
आंख की चमक न
गई। उसकी आशा
न खोई। उसने कभी
भी निराशा
प्रगट न की।
वह हताश न
हुआ। फिर जुन्नैद
उसे छोड़कर चला
गया। बाद में
जुन्नैद जब
परमात्मा की
खोज में डूबा
और रोज दिन
बीतने लगे और
परमात्मा की
कोई झलक न
मिली तो एक
दिन उसने तय
कर लिया कि बस
अब बहुत हो
गया, अगर
आज मिलता है
परमात्मा तो
ठीक, अगर न
मिलता तो समझ
लेंगे, है
ही नहीं। तभी
उसे चोर की
याद आई। और
उसने कहा कि
कच्चे फकीर!
और मैं पक्का
चोर!' और वह
चोर साधारण
संपत्ति खोज
रहा है, लेकिन
निराश नहीं
है। और मैं
परम संपत्ति
को खोजने
निकला हूं और
इतनी जल्दी हताश
हो गया! फिर
जाग गया, और
फिर उस चोर ने
मेरा साथ दिया,
उसकी
स्मृति ने
मेरा साथ
दिया। और जब
तक मैंने
परमात्मा न पा
लिया तब तक
मैं चोर के
सहारे ही चला।
इसलिए दूसरा
मेरा गुरु वह
चोर।' ऐसे
उसने नौ गुरु
गिनाए। उसने
सबसे सीखा।
जब तुम
मन का भरोसा
किए हो, और
जो जानता ही
है उसे जनाना
मुश्किल। जो
जागा हुआ पड़ा
ही हुआ है। वह
जानता है ही, और जो जानता
ही है उसे
जनाना
मुश्किल। जो
जागा हुआ पड़ा
हो और सोने का
बहाना कर रहा
हो, उसे
जगाना
मुश्किल है।
जिसको पहले से
ही यह भ्रांति
हो कि हम
जानते हैं
उसको जनाओगे
कैसे? वह
पहले ही अपने
ज्ञान से भरा
है और ज्ञान कौड़ी का
नहीं है; सब
उधार है; तोता—रटंत
है; सीख
लिया है; कहीं
प्राण उससे
भीगे नहीं है।
बाहर—बाहर है
ज्ञान। अंतस
अछूता रह गया
है। भीतर गहन
अज्ञान है, अंधेरा है।
रोशनी उधार है
और बाहर है।
रोशनी किसी और
की, तुम्हारी
रोशनी नहीं हो
सकती। दीया
किसी और का
तुम्हारे काम
नहीं पड़ सकता।
बुद्ध
ने अंतिम
क्षणों में
कहा है, "अप्प दीपो भव!' अपने दीये
हो जाओ। कब तक
शास्त्रों के
दीये लिए
फिरोगे। वे तो
बुझे दीये
हैं। शब्दों
के दीये कब तक
काम आएंगे।
"कहै कबीर एक
राम भगति
बिन' बूड़े बहुत
सयाना।' कहते
हैं, "चलत
कत टेढ़ौ—टेढ़ौ रे।' और तेरे
जैसे बहुत
ज्ञानी डूब
गए। अकड़ मत!
यह झंडा मत
उठा। तिरछा—तिरछा
मत चल। तेरे सयानेपन
में कुछ सार
नहीं है। बचे
तो केवल वे—"कहै
कबीर एक राम भगति बिन, बूड़े बहुत
सयाना।'—बचे
तो केवल वे, जिन्होंने
राम का सहारा
ले लिया।
राम के
सहारे का अर्थ
है: जिन्होंने
एक का सहारा
ले लिया और वह
एक तुम्हारे
भीतर छुपा है।
जिन्होंने
विचारों से
दृष्टि हटा ली
और चैतन्य की
तरफ उन्मुख हो
गए, जो स्रोत
की तरफ लौट
गए। जो
गंगोत्री में
पहुंच गए—जहां
से सब आया है, जहां से सब
फैलाव हुआ है;
जो उस मूल
उदगम पर पहुंच
गए, और वह
उदगम
तुम्हारे
भीतर है—"कस्तूरी
कुंडल बसै।'
आज
इतना ही।
Great
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