मैं पुणे
कम्यून का ईंचार्ज
होते हुए, सभी
तरह के कामों
में व्यस्त
रहता था। धीरे—धीरे
मुझे लगने लगा
कि अब यह काम
मैं और नहीं कर
सकता। कुछ भी
हो मै बदलाव
चाहता था।
मैंने ओशो को
पत्र लिखा कि अब
इस कार्य से
मुझे मुक्ति
चाहिए तब ओशो
ने मुझे भारत
के लिए अपना धर्मदूत
बना लिया।
ओशो
ने कहा कि जो
काम मैं स्वयं
करता था, पूरे
देश में घूम—घूम
कर प्रवचन
देना, ध्यान
करवाना, शिविर
लेना, विभिन्न
संस्थाओं में
जाकर उद्बोधन
देना वह सब
करना है।
मेरे
को यह सुनकर
प्रसन्नता
हुई और मैं इस
कार्य में कूद
गया। सालों से
ओशो को सुनते—सुनते, ध्यान
करवाते, ओशो
जिन शिविरों
का स्वयं
संचालन करते
थे उनमें
हिस्सा लेते
इतना तो भान
था कि यह काम
कैसे करना है
लेकिन
व्यावहारिक
रूप मे स्वयं
लोगों के बीच
जाना इतना
आसान भी नहीं
था। हिंदी
मैंने कभी पढ़ी
नहीं, बस
ओशो को सुनते
व मित्रों से
बात करते ही
हिंदी की समझ
आई थी। लेकिन
ओशो के साथ यह
एक मजेदार बात
है कि नये से
नये काम में
भी बस शुरू कर
दो तो चीजें
स्वत: बनने
लगती हैं।
इतना अनुभव था
कि यह काम भी
सुंदर ढंग से
हो जाएगा।
जब
इसकी सूचना
मित्रों को दी
गई कि अब
स्वामी आनंद
स्वभाव देश भर
में ओशो ध्यान
शिविरों का संचालन
करेंगे तो बात
की बात में
पूरे देश से शिविर
संचालन के
आमंत्रण के
अंबार लग गये।
और इस तरह से
पूरे देश में
तीन दिवसीय
आवासीय ध्यान
साधना
शिविरों का
सिलसिला चल
निकला।
जो
मित्र भारत
में यात्राएं
करते हैं
उन्हें अच्छे
से पता है कि
हमारे देश में
बस,
रेल, हवाई
जहाज से
यात्रा करना
कितना चुनौती
भरा होता है।
पूरी दुनिया
में एडवेंचर
स्पोर्ट्स के
लिए लोग पता
नहीं क्या—क्या
करते हैं। तेज
बहती नदियों
में तैरेंगे,
पहाड़ों पर चढेगें, बर्फ में
छलांग
लगाएंगे, मैं
कहता हूं कि
हमारे देश में
सड़क, रेल
से यात्रा
करना अपने आप
में एडवेंचर
स्पोर्टस है।
आपको कुछ नहीं
करना है।
चारों तरफ सड़कें
झरझर हैं, समय
की कोई पाबंदी
नहीं है, कब
कौन सी बस आती
है, रेल
जाती है, कुछ
पता नहीं चलता।
बस और रेल
स्टेशनों पर
यात्रियों की
सुविधाओं के
लिए कुछ भी
नहीं होता है।
ओशो
स्वयं लगभग
बीस सालों तक
इस देश में
घूमे हैं, उन्हें
स्वयं भारत
में यात्राओं
का बहुत बड़ा
अनुभव रहा है।
तो उन्होंने
कहलवाया कि
जहां भी हवाई
जहाज जाती है,
वहां हवाई
जहाज से जाओ, रेल में
प्रथम श्रेणी
में यात्रा
करो और ठहरने
भोजन की अच्छी
सुविधा हो।
ओशो ने बताया
कि यह सब खर्च
आयोजक मित्र
करेंगे।
तीन
दिन शिविर के
लिए,
दो या तीन
यात्रा के लिए
तो कुल मिलाकर
हर शिविर में
सात दिन लगते।
एक महीने में
तीन या चार
शिविर होने
संभव थे और
मैं वही करने
लगा।
बीस
से अधिक सालों
तक मैं पूरे
देश के हर
हिस्से में
गया हूं। जहां
से भी मित्र
आमंत्रण देते, वहीं
पहुंच जाता।
बस, रेल,
कार, ट्रेक्टर
जो भी मिल जाए।
मैं सोचता हूं
कि हमारे देश
में यात्रा के
जितने भी साधन
होते हैं उन
सबका उपयोग कर
लिया। सर्दी,
गर्मी, ठंड,
बरसात आधी—तूफान..
.क्या नहीं।
मई—जून में
उत्तर भारत की
गर्मियां,
जिसने भोगी
हों वहीं जान
सकता है कि
गर्मी क्या
होती है।
बहरहाल
इस बहाने
लाखों—लाखों
मित्रों से
मिलना हुआ।
ओशो के ध्यान
के संदेश को
लेकर पूरे
भारत में एक
अलख जगा दी।
अनेक
शहरों में
विभिन्न
संस्थाएं
उद्बोधन के
लिए बुलातीं, रोटरी
क्लब, लायंस क्लब, स्कूल,
कॉलेज, निजी
कंपनियां, पत्रकार
वार्ताएं..
.शिविरों में
आने वाले लोगों
के प्रश्न..
.रात—दिन इन सब
के बीच। मुझे
पता ही नहीं
होता कि कहां
क्या पूछा जाएगा
कहां कैसी
स्थिति—परिस्थिति
का निर्माण
होगा।
एक
बार स्टेज पर
जाता या कहीं
भी बोलना होता
तो एक मिनट के
लिए मैं अपनी आंखें
बंद कर लेता, ओशो
का स्मरण करता
और बोलना शुरू
कर देता यूं लगता
कि मेरे द्वारा
स्वयं ओशो ही
बोल रहे हैं।
इतने सालों के
अनुभव में कभी
ऐसा नहीं हुआ
कि किसी ने
कुछ पूछा हो
या जानना चाहा
हो और उसे जवाब
न मिला हो।
एक
बार मॉरिशस
में रेडियो
स्टेशन से बोल
रहा था, रेडियो
के श्रोता फोन
से अपने
प्रश्न पूछ
रहे थे, एक
मित्र के
प्रश्न से कुछ
सेकंड के लिए
विचार में पड़
गया कि जवाब
क्या हो? उस
श्रोता का
प्रश्न था कि 'यदि भगवान
सभी के भीतर
होता है तो
कोई व्यक्ति
भला, कोई
बुरा क्यों
होता? कोई
अच्छा इंसान
तो कोई शैतान
क्यों होता है?'
कुछ सैंकड
के लिए मैं
असमंजस में पड़
गया कि अब
क्या बोलो, लेकिन जब बोला
तो बात बन गई, मैंने कहा, 'भगवान किसी
व्यक्ति की
तरह नहीं है, वह शक्ति है
यह सारा
अस्तित्व उसी
शक्ति का खेल
है, शक्ति
न तो अच्छी
होती है न
खराब, उसका
जैसा उपयोग हो
वैसी हो जाती
है। शक्ति यूं
है मानो की
बिजली, बिजली
जब पंखे में
उपयोग हाती
है तो हवा
देती है, टयूब
लाईट में
प्रकाश एक ही
बिजली के
कितने रूप है,
उसी तरह से
सत्य हम सब
में है, शक्ति
हम सब में है, हम जैसा
उपयोग करते
हैं वैसी ही
वह हो जाती है।’
पता नहीं
ऐसा कितनी बार
हुआ होगा जब
अचानक सुंदर
जवाब स्वत: आ
गए, बाद
में मुझे
स्वयं को
आश्चर्य होता
कि क्या जवाब
आ गया था।
तीन
दिन के शिविर
में सुबह छह
बजे से लेकर
रात दस बजे तक
ओशो के बताये
विभिन्न
ध्यान प्रयोग होते।
हर शिविर में
लगभग पंद्रह
से बीस अलग—अलग
ध्यान होते।
जिसमें
सक्रिय व
कुंडलिनी तो
हर दिन होते।
एक
दिन संन्यास
उत्सव होता।
हर शिविर में
बीस से लेकर
पचास मित्रों
के संन्यास
होते। बहुत ही
प्रेम और
अहोभाव से
मित्र
संन्यास की
यात्रा पर चल
निकलते, यात्रा
की शुरुआत
करते तो देख
कर बहुत आनंद
होता।
जिस
प्रेम, त्वरा
और सघनता से
मित्र ध्यान
में उतरते, भाव में
उतरते, ओशो
के वचनों को
हृदयंगम करते
वह सब मेरे को
रोमांचित कर
देता। तीन
दिनों में लोग
इतने हल्के हो
जाते, आनंदित
हो जाते, नव
जीवन उनमें
फूट पड़ता यह
देखना अपने
आपमें अनूठा
अनुभव होता।
मैं
हर शिविर से
लौटकर ओशो को
विस्तार से
उसकी खबर देता, देश
में उनके बारे
में क्या चल
रहा है, यह
बताता, समाचारों
में क्या—क्या
हो रहा है, यह
भी बताता। एक
बार ओशो ने
हस्तलिखित
पत्र लिखकर
मुझे बताया कि
वे मेरे काम
से संतुष्ट
हैं कि शिविर
बहुत ही सुंदर
हो रहे हैं और
उनका काम
सुंदर ढंग से
चल रहा है।
शिविर संचालन
में मैं सफल
हो रहा हूं।
शिविर
के अंतिम दिन
मैं एक प्रयोग
करवाता था, मैं
एक जली हुई
मोमबत्ती
लेकर बैठ जाता
और सभी शिविरार्थी
दो पंक्तियों
में आते और
मेरी जलती
मोमबत्ती से
अपनी बुझी
मोमबत्ती को
जलाते। धीरे—
धीरे सभी
मित्रों की मोमबत्तियां
जल उठती, सारा
कक्ष प्रकाश
से भर उठता।
चारों तरफ
हंसते—नाचते
मित्र अपने—अपने
हाथों में
प्रकाश पुंज
लिए यूं लगते
मानों स्वर्ग
से दूत धरती
पर उतर आए हों।
फिर
मैं कहता कि
अपनी
मोमबत्ती को
दूसरे मित्र
से बदलें सभी
अपना— अपना
प्रकाश दूसरे
मित्रों के
साथ बांटने लगते।
बहुत ही
प्रतीकात्मक
और जीवंत
अनुभव होता।
ज्योत से
ज्योत जलाते
चलो,
प्रेम की
गंगा बहाते
चलो। प्रेम और
सद्भाव का एक
अनुपम माहौल
तैयार हो जाता।
तीन दिनों में
सभी मित्र
शरीर, मन, आत्मा हर तल
पर नई ऊर्जा
से भर उठते...
अपने हाथों
में प्रकाश
थामें इस
संसार की
अंधेरी गलियों
को प्रकाशित
करने की
तैयारी
दिखाते।
सच
कहूं
यात्राओं की
कठिनाई रही, बहुत
रही, सालों
तक गांव—गांव,
नगर— नगर, शहर—शहर
यात्राओं पर
यात्राएं
शरीर के लिए
आसान नहीं
होती हैं, लेकिन
जब मित्रों का
प्रेम देखता,
ध्यान के
लिए उनकी तड़फ
देखता, और
जब तीन दिनों
के बाद हंसते,
नाचते, मस्त
होते देखता तो
सारे कष्ट भूल
जाता, अनवरत
यात्राओं पर
लगातार चलता
रहता, अनेका—नेक
मित्रों तक
ओशो की बात
पहुंचाता।
रात
दिन ओशो के
बारे में
बोलते, मेरे
लिए इस नाम का
अहर्निश जाप
हो रहा है।
लाखों
लोगों ने बहुत
प्रेम दिया, सम्मान
दिया, चरणों
में झुके.. .मैं
उनके हर भाव
को ओशो के चरणों
में उंडेल
देता.. .तेरा
तुझ को अर्पण।
मैं
ईमानदारी से
स्वीकारता
हूं कि जो कुछ
भी हुआ, किया..
.सब ओशो ने
करवाया.. .मैं
लौटकर देखता
हूं तो स्पष्ट
दिखाई देता है
कि यह सब मेरे
बस की बात तो
नहीं थी। हम
बस उसके हाथ
में अपने को
छोड़ दें, बाकी
काम वे स्वयं
अच्छे से कर
लेते हैं...।
आज
इति।
🌺🙏🙏🙏🌺
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