(अध्याय—सातवां)
ओशो यूनिवर्सिटी
से अपने
प्राध्यापक
पद का त्याग
कर चुके हैं।
वे भारत—भर
में ध्यान
शिविर लेते
हुए और, जनसभाओं
में, खुले
मैदानों में
पंद्रह—पंद्रह,
बीस—बीस
हजार लोगों को
संबोधित करते
हुए घूम रहे हैं।
वे प्रचंड
आग्नेय हैं।
वे निर्भीकता
से अपनी
सिहगर्जना
करते हुए भारत
की पांस्परिक
जड़ताओं को
समूल नष्ट कर
रहे हैं। बंबई
उनके कार्य का
मुख्य केंद्र
बन गया है, जबकि
वे जबलपुर में
ही रह रहे हैं।
कई बार जब वे
कहीं अन्य
स्थान पर भी
जा रहे होते
हैं तो जबलपुर
से बंबइ तक
ट्रेन से आते
हैं
और आगे
जाने वाली
फ्लाइट मिलने
तक बंबई में
किसी मित्र के
घर पर ठहरते
हैं। जबलपुर
लौटते समय भी
वे इसी रास्ते
से ही वापस
जाते हैं।
बंबई के
मित्रों का
सौभाग्य है कि
इतनी जल्दी—जल्दी
उन्हें उनका
सत्संग मिलता
रहता है।
जब
मैं ओशो से
मिली, उससे
पहले वे अक्सर
अकेले ही
यात्रा किया
करते थे। उनसे
मिलने के बाद
उनके साथ होने
का कोई भी अवसर
मैंने छोड़ना
नहीं चाहा, और उन्होंने
ये अवसर मुझे
लेने दिए।
उनके सर्ग—साथ
में रहना और
उनके शरीर की
आवश्यकताओं
की देख—भाल
करना कितना
सौभाग्यपूर्ण
है। भिन्न—भिन्न
परिस्थितियों:
को वे कैसे
जीते हैं, उसे
देखकर
अस्तित्व के
प्रति उनके
प्रेम और करुणा
का साफ पता
चलता है।
जब
वे कुर्सी पर
बैठते हैं तो
ऐसे जैसे
कुर्सी में जान
हो और वे उसे
रंचमात्र भी
चोट नहीं
पहुंचाना चाह्ते, और
जब वे उठते
हैं तो कुर्सी
की ओर ऐसे
देखते हैं
जैसे उन्हें
आराम
पहुंचाने के
लिए उसके प्रति
अहोभाव
व्यक्त कर रहे
हों। चलते हैं,
तो ऐसी
गरिमामय गति
के साथ कि
उनकी पदचाप से
पांवों तले की
जमीन को कुछ
हो न जाए। वे
इतने अहोभाव
से भरकर भोजन
ग्रहण करते
हैं कि जब वे
भोजन की ओर
देखते हैं तो
उनका अहोभाव उनकी
आंखों में
स्पष्ट
प्रतिबिम्बित
होता है।
पौधों, पशुओं
और मनुष्यों
का तो फिर भला
क्या कहा जाए?
वे कभी भी
पौधों को
काटने—छांटने
के पक्षपाती
नहीं हैं, हां,
यदि उनकी
बढ़ोत्तरी के
लिए आवश्यक हो
तो ठीक है।
अपने बगीचों
में उन्हें
मित्रों से
बातचीत करना
बंद करना पड़ता
है क्योंकि
लोग वहां बैठे—बैठे
घास उखाड़ने
लगते हैं। ओशो
फूल तोड्ने के
भी खिलाफ हैं।
एक
बार मैं
उन्हें कहते
हुए सुनती हूं
तुम अपने
बच्चों से
प्रेम करते हो—तो
तुम उनके सिर
नहीं काट लेते।
यदि तुम सच
में ही फूलों
से प्रेम करते
हो तो तुम
उन्हें कभी
नहीं तोड़ोगे।
उन्हें तोड़ कर
तुम उनकी
हत्या कर देते
हो। यह फूलों
के प्रति एक
प्रकार की
हिंसा है। दूर
से सौन्दर्य
का आनंद लो, लेकिन
उस पर कब्जा
मत करो।'
एक
अन्य अवसर पर, वे
खिड़की से बाहर
खेतों की ओर देख
रहे हैं—शाम
का समय है।
दूर एक आदमी
एक गाय को
डंडे से पीट
रहा है और चिल्ला
रहा है। ओशो
कहते हैं, उस
मूर्ख आदमी की
तरफ देखो। गाय
तो अपने आप ही
जा रही है, यह
आदमी बेवजह
उसे सता है।
मैं गाय के
प्रति उनकी
करुणा को
महसूस करती हूं।
मुझे लगता है जैसे
वे जल से भरे
हुए बादल हैं
और जो भी उनके
संपर्क में
आता। उसी पर
वे अपना प्रेम
बरसा देते हैं।
एक
प्रवचन में
मैं उन्हें
कहते हुए
सुनती हूं, ‘मैं
एक माली हूं :
चारों गैर बीज
बिखेरता चला
जाता हूं यह
भी न देखते
हुए कि वे
कहां गिर रहे
हैं। मेरे पास
अतिरेक में है।
जब ठीक ऋतु
आएगी तो उनमें
से कछ बीज फूट
पड़ेंगे और
फूलों से लदे,
सुगन्ध
बिखेरते
विशाल वृक्ष
बन जाएंगे—उनके
नीचे से जो भी
गुजरेगा उसे
वे अपनी खुशबू
व छाया देगें।
💗🙏🙏🙏💗
जवाब देंहटाएं