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बुधवार, 16 दिसंबर 2015

स्‍वर्णिम क्षणों की सुमधुर यादें--(अध्याय--45)

ओशो का नाम, चिंगारी की तरह—(अध्‍याय—पैतालीसवां)

दिल्ली में बिरला मंदिर के पास आर्य समाज का बहुत बड़ा मंच है। वहां के एक प्रमुख स्वामी जो अपनी उम्र 113 की बताते थे, मैं उनसे मिलने के लिए मेरे एक मित्र मिस्टर केला के साथ वहां गया। मैंने भगवा वस्त्र व ओशो की माला पहनी हुई थी। जैसे ही मैंने उन्हें प्रणाम किया उन्होंने मुझ से पूछा, 'कौन से अखाड़े से आए हो, ओशो के शिष्य हो, अरे यार उसने कितनी बेकार किताब लिखी है, कितनी बुरी है, तुम उसके शिष्य हो?' जब वे बोल चुके तो मैंने बहुत ही विनम्रता से कहा, 'आप मेरे से उम्र में बड़े हैं, कृपाकर सही उत्तर देना,
क्या आपने वह किताब पढी है— 'संभोग से समाधि की ओर' उन्होंने कहा, 'मुझे याद नहीं आता लेकिन कोई मुझे यह पुस्तक दे गया था लेकिन मैंने पढी नहीं है।मैंने कहा, 'यदि आपने यह पुस्तक पढ़ी होती तो जो आपने अपशब्द कहे वह आप कभी ना कहते।
मैंने उन्हें अपने झोले में से निकाल कर वह पुस्तक उन्हें पढ़ने को दी। दूसरे दिन मैं वापस वहां गया। वे एक बहुत ईमानदार व्यक्ति थे। मैं गया तो मुझे अपने पास बैठा कर कहा, 'मैंने पुस्तक पढ़ी यह तो बहुत ही सुंदर पुस्तक है, और समाधि कैसे मिल सकती है इसका सुंदर वर्णन किया है। मैं तुम्हारा अनुग्रहीत हूं कि मुझे एक पाप से बचा लिया। मैंने अपशब्द कहे वह मैं वापस लेता हूं।
मेरे अपने जीवन भर के अनुभवों में ऐसा बहुत कम ही हुआ है, जब कोई धर्म गुरु इतनी ईमानदारी बताये। लेकिन ऐसा भी नहीं है कि प्रमाणिक लोग नहीं होते हैं। ओशो ने अनगिनत हृदयों को छूआ है, रूपांतरित किया है। उन वृद्ध धर्म गुरु का हृदय परिवर्तन और ईमानदारी आज भी मुझे याद हो आती है।

आज इति।

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