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शनिवार, 12 दिसंबर 2015

स्‍वर्णिम क्षणों की सुमधुर यादें--(अध्‍याय--35)

मनाली में ओशो से मिलन—(अध्‍याय—पैतीसवां)

मैं अमरीका से आकर पुणे आश्रम के काम में हाथ बंटाने लगा था। अब उतना काम तो रहा नहीं था और आश्रम की गतिविधियां भी बहुत कम हो चुकी थीं। सिर्फ उत्सव के दौरान भारत से कुछ मित्र आ जाते और थोड़े दिन कुछ मित्र दिखाई देने लगते फिर सब कुछ सुनसान हो जाता।
उस समय आश्रम का सारा कार्य जयंती भाई के हाथ में था। उसी समय मेरा जयंती भाई पर किसी विषय पर थोडा विरोध हो गया। इसकी खबर जब शीला को पता चली तो उसने अमरीका से मुझे आदेश दे दिया कि 'स्वभाव तुम अपना सामान बांधो और घर चले जाओ।
मैंने शीला को कहा कि 'कम से कम तुम्हें मेरा पक्ष भी सुन तो लेना चाहिए।लेकिन उसने मेरी एक न सुनी। तब मैंने उसे कहा, 'यदि तुम्हारा ऐसा ही व्यवहार रहा तो समझ लेना कि तुम भी अधिक टिकने वाली नहीं हो।और वही हुआ। ओशो के गिरफ्तार होने से पूर्व जब शीला की सारी बातें खुलीं तो उसे वहां से निष्कासित कर दिया गया। लेकिन यह बाद की बात है। शीला के निर्णय के बाद मैं अपने घर लौट गया और परिवार के साथ रहने लगा।

ओशो कुल्ल मनाली में रिजॉर्ट में ठहरे हुए थे। 9 दिसंबर को मैं दिल्ली गया हुआ था। वहां मेरे भतीजे की शादी थी। वहां पर मुझे खबर मिली कि ओशो ने मुझे याद किया है, तो मैं शादी छोड्कर मनाली पहुंचा। लंबे समय बाद ओशो को सामने देख कर मन भर आया, आंखों से आंसू बह निकले। ओशो ने मुझसे कहा, 'स्वभाव मेरा अमरीका का कम्यून खतम हो गया। जयंती भाई पुणे आश्रम छोड़ कर जा रहे हैं, तुम जाओ और पुणे का आश्रम बचा लो।मैंने कहा, 'मैं तो वहां से निष्कासित हूं मैं बहुत समय से आश्रम गया भी नहीं।ओशो बोले, ' मुझे सब पता है, उसकी तू चिंता मत ले, और वहां जा और पुणे कम्यून को बचा ले।
दूसरे दिन ओशो का जन्म दिन था और जो मित्र वहां इकट्ठे थे वे उत्सव मनाने वाले थे तो मैंने ओशो से पूछा कि 'मैं भी उत्सव मना लूं फिर जाऊं?' तो जवाब मिला, 'कोई जन्म दिवस नहीं होगा, तुम जाओ।मैंने कहा कि 'यहां जो मित्र हैं, वे मनाने वाले हैं।तो उन्होंने हां कर दी। मैं उत्सव मनाकर दूसरे ही दिन पुणे के लिए निकलने वाला था, उस रात मैं ओशो से मिलने गया, मेरे साथ मेरी पत्नी उषा भी थी। ओशो लगभग दो घंटे तक हम से बात करते रहे। वे देख उषा की तरफ रहे थे, पर बात मेरे से कर रहे थे। कह रहे थे कि 'स्वभाव का अब काम बढ़ जाएगा, वो घर पर नहीं आश्रम में रुकेंगे। हो सके तो तुम भी इनके साथ रुको।उषा ने कहा कि 'छोटे—छोटे बच्चे हैं।तो ओशो कहते हैं कि 'उन्हें बड़े घर छोड दो। होस्टल में छोड़ दो।ओशो ने परिवार के बारे में सब तरह की बात की, सब तरह के विकल्प सुझाए ताकि परिवार और बच्चों को मेरे अधिक समय ना देने पर समस्या न आए। मुझे व मेरी पत्नी को पूरी तरह से आश्वस्त कर दिया। हम प्रसन्नचित्त होकर, ओशो के पांव छू कर विदा लेकर आ गए।
जैसे ही हम पुणे पहुंचे। जयंती भाई और प्रेम तैयार बैठे थे। वहां कुछ और मित्र भी बैठे थे, उन्हें कहा कि 'अब स्वभाव जी यहां का काम देखेंगे, 'और मेरे को आफिस ले जाकर चाबियां दे दीं। मेरे को रहने के लिए ओशो का शयन कक्ष दिया गया। दूसरे दिन जब मैं आफिस गया तो पाया कि रुपये है ही नहीं। कुल सात हजार रुपये पड़े हैं और सब तरह का बकाया बाकी है। प्रापर्टी का करीब चार करोड़ रुपया बकाया है। सरकार के नोटिस दीवारों पर लग चुके हैं। प्रॉपर्टी आक्शन हो सकती है। परिस्थितियां इतनी विपरीत थीं कि उनको संभालना एक दम असंभव था। संभवतया इसी कारण जयंती भाई ने सब छोड़ दिया था। सारी स्थितियां देखकर मैं तो सर पकड़ कर बैठ गया। कुछ मित्र वहां रह रहे थे। उनका खानपान, बिजली इत्यादि के खर्चे और कुल मिलाकर सात हजार रुपये जमा पूंजी थी।
सबसे पहले तो मैंने सोचा कि इन्कम टेक्स डिपार्टमेंट जाऊं। वहां जाकर कमिश्नर साहब से मिला। सारी परिस्थितियों पर विस्तार से बात की। मैं हर दफ्तर गया वहां के आफिसर्स से मिला बात की। और सब तरह के बकाया चुकाने के लिए मौहलत मांगी और समय मिल भी गया। इस बीच रजनीशपुरम् से आए मित्रों से बात की कि वे यहां आए। तो कुछ मित्र भी आ गए। और यहां गतिविधियां चल निकलीं। सब तरफ की फाइलें पढ़ी, नई फाइलें बनाई, वकील से बात की। रात—दिन अथक मेहनत करके सब तरह के मामले सुलझाए। सच बताऊं, यह उन्हीं दिनों की बात है जब रात—दिन काम करते, तंबाखू का गुटका खाने की आदत पड़ गई। हर समय मुंह में तंबाखू डाले काम में जुटा रहता। यह आदत हमेशा पीछे पड़ी रही और इसी कारण मुंह का कैंसर हो गया। इस कैंसर की विस्तार पूर्वक कहानी आगे पढ़िये.....जरूर पढ़िये
(उसकी अनुकंपा अपार है)
ओशो मनाली में रह रहे थे तब अचानक भारत सरकार के आदेश के तहत उनके सभी विदेशी शिष्यों को भारत छोड़ कर जाना पड़ा। वे सब नेपाल जाकर ठहरे। एक दिन ओशो दिल्ली हो कर नेपाल चले गए। फिर ओशो विश्व यात्रा पर निकल गये। हम इधर पुणे आश्रम को सब तरह से सुंदर बनाने के पूरे प्रयास में लगे थे। धीरे— धीरे चीजें सुधरने लगीं। भारत से व विदेशों से मित्र आने लगे। सुबह से लेकर शाम तक विभिन्न ध्यान प्रयोग फिर से शुरू हो गये। ओशो के उत्सव हम बहुत ही धूमधाम से मनाने लगे।
ओशो की विदेश यात्राओं के समाचार हमें मिलते रहते। इक्कीस देशों से ओशो को निष्काशित किया गया। ओशो कहीं टिक नहीं पा रहे थे। हर जगह विरोध, हर जगह राजनैतिक, धार्मिक दबाव। हमें खबरें मिलती रहतीं। ओशो की लीला जारी थी। यह सुन कर ही हंसी आती कि किस तरह से तथाकथित शक्तिशाली देश एक अकेले निहत्थे व्यक्ति से डर रही हैं।
आधुनिक जगत का यह सबसे बड़ा उदाहरण बन रहा था कि एक से एक शक्तिशाली नाभिकीय शस्त्र रखने वाले देश भी विचार से कितने डरते हैं, भयभीत होते हैं। ओशो के वचन पूरी दुनिया में क्रांति ला रहे थे। एक तरह से अकेले ओशो पूरी दुनिया को हिला रहे थे, झकझोर रहे थे। विचार की ऐसी क्रांति कभी न देखी, न सुनी। हर देश, हर समाज में ओशो का विरोध होता और ओशो मुस्कुराते हुए, नाचते हुए आगे बढ़ जाते। यूं लगता कि सभी देशों को स्थापित धर्मों को आईना दिखा रहे हों कि चाहे तुम कितने ही महान बनो, पुरातन होने का दावा करो, दुनिया भर में फैले होने की शक्ति दिखाओ, लेकिन कितने कमजोर और बिना आधार के हो।
ओशो की बातों का किसी के पास जवाब नहीं था। ओशो विचार की मशाल लेकर पूरे संसार में घूम आए लेकिन न तो किसी देश के पास, न किसी धर्म के पास, न किसी नेता, विचारक, लेखक, पंडित—पुजारी के पास उसका जवाब था। उनके पास एक ही जवाब था... ओशो को अपने देश में नहीं आने देना या उन्हें अपने यहां से निष्काशित कर देना। कभी—कभी मैं सोचता कि ऐसी हालत है दुनिया की? हम आधुनिकता, शिक्षा और वैज्ञानिक विकास का इतना दावा करते हैं और व्यवहार तो यूं कर रहे हैं मानों आदि युग में रह रहे हों। ओशो तो विचार की खुली चुनौती देते हैं। वो गलत हों तो उन्हें गलत सिद्ध किया जाए और यदि वे सही हैं तो उनकी बात मान ली जाए.. .गैर कानूनी ढंग से हर जगह से निष्काशित करके क्या हम ये सभी देश, धर्म और आधुनिक लोग अपनी हार नहीं स्वीकार रहे हैं?
तथाकथित आधुनिक, समृद्ध, विकसित पढ़ी—लिखी दुनिया को उसकी अपनी औकात दिखा कर ओशो भारत लौट आए। भारत आकर ओशो मुंबई में अपने एक मित्र के बंगले पर मेहमान बने। कुछ ही दिनों में यहां भी ओशो प्रेमी पहुंचने लगे। ओशो यहां पर पत्रकारों से बात करने लगे। इसी के साथ प्रवचन देने भी शुरू कर दिए। हम जो मित्र पुणे रह रहे थे, रोजाना बारी—बारी से मुंबई जाते और ओशो के दर्शन करते, प्रवचन सुनते। यह तो स्पष्ट ही था कि यहां ओशो अधिक दिन नहीं रह सकते। ओशो के लिए बड़ी जगह चाहिए। यही सोच कर भारत भर में ओशो के लिए नई जगह ढूंढने के प्रयास तेज गति से चल निकले। लेकिन बात बन नहीं रही थी।

आज इति।


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