दिनांक:
12 मार्च, 1974; श्री
रजनीश आश्रम,
पूना
सूत्र:
जग सूं प्रीत
न कीजिए,समझि मन मेरा।
स्वाद
हेत लपटाइए, को निकसै
सूरा।।
एक
कनक अरु
कामिनी, जग
में दोइ
फंदा।
इन
पै जो न बंधावई, ताका मैं बंदा।।
देह
धरै इन मांहि बास, कहु
कैसे छूटै।
सीव भए ते ऊबरे, जीवत ते लूटै।।
एक एक सूं
मिलि रह्या, तिनही सचु पाया।
प्रेम
मगन लौलीन मन, सो बहुरि न
आया।।
कहै
कबीर निहचल
भया, निरभै पद पाया।
संसा
ता दिन का गया, सतगुरु
समझाया।।
कबीर
के वचनों के
पूर्व कुछ
बातें समझ
लें।
पहली
बात: संसार, जिसे छोड़ने
को सारे संत
कहते रहते हैं,
बाहर नहीं
है, जिसे
छोड़कर कोई भाग
सके। संसार मन
का ही खेल है, और भीतर है।
और बाहर तुम
कितने ही भागो,
कोई फर्क न
पड़ेगा; क्योंकि
संसार तुम
अपना अपने
भीतर ही लिए
फिरते हो।
संसार
जीवन को देखने
का तुम्हारा
ढंग है। ज्ञानी
यहीं पत्थरों
में छिपे
परमात्मा को
देख लेता है; तुम चारों तरफ
मौजूद
परमात्मा में
केवल पत्थर को
देख पाते हो।
देखने की बात
है। दृष्टि की
ही सारी बात
है। तुम वही
देखते हो, जो
तुम्हारे मन
की धारणाएं
हैं। तुम वही
नहीं देखते, जो है।
पूर्णिमा
की रात हो और
तुम उदास हो, तो नाचता—गाता
चांद भी उदास
मालूम पड़ता
है। अमावस की
रात हो, आकाश
में बादल घिरे
हों, सब
उदास और खिन्न
मालूम पड़ता हो;
लेकिन तुम
प्रसन्न हो, तुम
आनंदमग्न हो,
तो अमावस भी
पूर्णिमा
मालूम पड़ती है,
अंधेरा भी
ज्योतिर्मय
हो जाता है; आकाश में
बादलों की
गड़गड़ाहट
सुमधुर नाद
मालूम होती
है।
तुम जो
हो, उसे ही
तुम फैलाकर
बाहर देखते
हो!
धन में
कुछ भी नहीं
है; तुम्हारे
मन में ही सब
छिपा है।
तुम्हारा मन जो
लोभ से भरा हो,
तो संसार
में सब जगह
तुम्हें धन ही
धन दिखाई पड़ता
है—ऐसे ही
जैसे उपवास
किया हो तुमने
किसी दिन और तुम
बाजार गए, तो
कपड़े की
दुकानें, जूते
की दुकानें उस
दिन दिखाई नहीं
पड़तीं; उस दिन
सिर्फ मिठाई
मिष्ठान्न के
भंडार दिखाई
पड़ते हैं; सब
तरफ से भोजन
की ही गंध
मालूम पड़ती है;
सब ओर भोजन
का ही
निमंत्रण
दिखाई पड़ता
है। तुम भरे
पेट हो, तब
यही बाजार बदल
जाता है।
तुम
जैसे हो वैसा
ही तुम अपने
चारों तरफ एक
संसार
निर्मित करते
हो। इसलिए
संसार एक नहीं
है; संसार
उतने ही हैं, जितने मन
हैं। हर
व्यक्ति का
अपना संसार है,
जो अपने
चारों तरफ
लपेटे हुए
घूमता है। और
जब तक तुम यह न
समझोगे, तब
तक तुम कभी भी
संन्यासी न हो
सकोगे।
क्योंकि तुम
उस संसार को छोड़ोगे, जो बाहर है; और तुम उस
संसार को पकड़े
ही रहोगे, जो
भीतर है। और
बाहर संसार है
ही नहीं, बस
भीतर है। तो
तुम संन्यासी
का संसार बना
लोगे, कोई
भेद न पड़ेगा।
हिमालय की
गुफा में भी
बैठ जाओगे, तो तुम तुम
ही रहोगे। और
तुम अगर तुम
ही हो, तो
गुफा क्या
करेगी, पहाड़—पर्वत
क्या करेंगे?
तुम वहां भी
धीरे—धीरे
अपनी दुनिया
फिर से सजा
लोगे।
तुम्हारे
भीतर ब्लू—प्रिंट
है, नक्शा
छिपा है कि
कैसे संसार
बनाना है। उस
संसार को
बनाने के लिए
अगर कोई भी
सामग्री न हो,
तो भी तुम
बना लोगे।
मनसविद
कहते हैं कि
अगर एक
व्यक्ति को
सारी संसारी की
दौड़धूप
से अलग कर
लिया जाए, और एक ऐसी
कालकोठरी में
रख दिया जाए, जहां सब तरह
की सुविधाएं
हैं, कोई
असुविधा नहीं
है; भोजन
करने के जिए
भी उसे कुछ न
करना पड़े, नलियां
जुड़ी हुई हैं,
जिनसे उसके
रक्त में सीधा
भोजन पहुंच
जाएगा—इस तरह
के प्रयोग किए
गए हैं—और
जितनी
सुविधापूर्ण
हो सके, उतनी
सुविधापूर्ण
शय्या पर वह
विश्राम करता
रहे, तो वे
कहते हैं कि
तीन दिन के
बाद वह अपना
संसार बचाना
शुरू कर देता
है। अब कल्पना
में बनाता है,
क्योंकि
बाहर तो कुछ
भी नहीं है, सिर्फ
अंधकार से भरी
हुई कोठरी है।
धीरे—धीरे
उसके ओंठ चलने
लगते हैं। वह
बात करने लगता
है उससे, जो
मौजूद नहीं
है। सुंदर
स्त्रियां
उसे घेर लेती
हैं। धन के
आंकड़े वह खड़े
करने लगता है।
तीन सप्ताह
में वह आदमी
पागल हो जाता
है।
पागल
का कुल इतना
ही मतलब है कि
जिसने अपने संसार
को बनाने के
लिए अब किसी
भी पदार्थ की
जरूरत नहीं
समझी; अब
बिना किसी
कारण के भी वह
संसार खड़ा कर
लेता है।
स्त्री बाहर
हो तो ठीक, न
हो तो ठीक—अब
पर्दे की कोई
जरूरत ही नहीं
है; बिना
पर्दे के वह
स्त्री का बना
लेता है। पागल
का इतना ही
मतलब है कि वह
तुमसे भी
ज्यादा कुशल
हो गया है।
तुम्हें
स्त्री में रस
लेने के लिए
कम—से—कम कुछ
सहारा चाहिए,
बाहर कोई
स्त्री चाहिए;
वह बिलकुल
सहारे से
मुक्त है; उसे
कोई स्त्री
बाहर नहीं
चाहिए। वह
अपने भीतर के
मन से प्रगाढ़
प्रतिमाएं
खड़ी कर लेता
है।
तुमने
ऋषि—मुनियों
की कहानियां
पढ़ी हैं कि
इंद्र अप्सराओं
को भेजता है
उन्हें डिगाने
को। तुम इस
भ्रांति में
मत पड़ना।
न तो कहीं कोई
इंद्र है, और न कहीं
कोई परमात्मा
ने ऋषि—मुनियों
को डिगाने
का इंतजाम कर
रखा है। क्यों
करेगा
परमात्मा किसी
को डिगाने
का इंतजाम? परमात्मा तो
चाहता है कि
तुम थिर हो
जाओ। तो कोई
भी डिपार्टमेंट
नहीं है, जहां
ऋषि—मुनियों
को हिलाने की
कोशिश की जा
रही है। ऋषि—मुनि
खुद ही हिल
रहे हैं। ऋषि—मुनि
उसी अवस्था
में हैं, जिसकी
मनोवैज्ञानिक
चर्चा कर रहे
हैं। उन्होंने
खुद ही अपने
चारों तरफ सब
संसार बाहर का
छोड़ दिया है, अपनी गुफा
में बैठ गए
हैं, अब
धीरे—धीरे मन
खेल पैदा कर
रहा है। अब
कोई जरूरत ही
नहीं है। अब
बाहर की
स्त्री नहीं
चाहिए, जिस
पर तुम
प्रक्षेपण
करो; अब
शून्य आकाश
में भी
तुम्हारा
प्रक्षेपण होने
लगा। अब तुम अप्सराओं
को देख रहे हो!
धन के अंबार
लगे हैं! तुम
सोचते हो, कोई
प्रलोभन दे
रहा है; तुम्हारा
मन ही...। कोई और
तुम्हें डिगाने
को नहीं है।
यह तो
पहली बात समझ
लेनी जरूरी है
कि संसार भीतर
है; अन्यथा
तुम वही भूल
करोगे, जो
संसारी कर रहा
है। संसारी भी
सोचता है कि संसार
बाहर है, और
संन्यासी भी
सोचता है कि
संसार बाहर है—तो
दोनों के
ज्ञान में
फर्क क्या? तो दोनों की
समझ में कौन
सा बुनियादी
रूपांतरण हुआ?
संसारी भी
धन बाहर देखता
है और संन्यासी
भी धन बाहर
देखता है—तो
दोनों एक ही
तल पर हैं; कोई
क्रांति घटित
नहीं हुई; कोई
बोध नहीं जगा;
कोई ध्यान
का आविर्भाव
नहीं हुआ।
पहली
क्रांति इस
सत्य को देखने
में है कि
संसार मेरे
भीतर है। जैसे
ही तुम यह
सत्य समझ लोगे
तो पाओगे कि
संसार मेरे
भीतर है; बाहर
तो केवल सहारे
हैं, खूंटियां
हैं, जिन
पर हम अपने
कोटों को टांग
देते हैं। कोट
हमारे हैं; खूंटियों का कोई कसूर
नहीं है। और खूंटियों
ने कभी कहा
नहीं कि कोट टांगो। और
एक खूंटी पर न टांगेंगे
तो दूसरी
खूंटी पर टांगेंगे।
खूंटी नहीं
मिलेगी तो
दरवाजे पर ही
टांग देंगे।
कुछ भी नहीं
होगा तो अपने
कंधे पर ही
रखेंगे। कोट
तुम्हारा है।
इसलिए
कबीर जैसे संत
जब बात करते
हैं—"जंग सूं
प्रीत न कीजिए'—भ्रांति में
मत पड़ जाना, क्योंकि कबीरपंथी
उसी भ्रांति
में पड़े हैं।
वे सोचते हैं
कि जग बाहर है,
उससे प्रेम
नहीं करना है।
जग भीतर है; तुम्हारे ही
मन का हिस्सा
है। कुछ और
नहीं छोड़ना है,
बस मन को
छोड़ना है। कुछ
और नहीं
त्यागना है, बस मन को
त्यागना है।
और हर आदमी का
अपना मन है।
इसलिए तो दो
आदमियों का
मिलना भी बहुत
मुश्किल हो
जाता है। जब
भी दो आदमी
करीब आते हैं,
तो दो संसार
टकराते हैं।
मित्रता बड़ी
मुश्किल है।
प्रेम असंभव
जैसा है। इसलिए
तो हर प्रेम—प्रेयसी
कलह में पड़े
रहते हैं। पति—पत्नी
लड़ते ही रहते
हैं। कारण
क्या होगा? दोनों ने
चाहा था कि
साथ रहें; दोनों
ने बड़ी आशाएं
बांधी थीं, बड़े सपने
संजोए थे। फिर
सब बिखर जाता
है। सब इंद्रधनुष
टूट जाते हैं।
सब सपने धूल
में गिर जाते
हैं, और
कलह हाथ में
रह जाती है।
दो दुनियाएं
हैं। जहां दो
व्यक्ति
मिलते हैं, वहां दो
संसार मिलते
हैं। और जब दो
संसार करीब
आते हैं, तो
उपद्रव होता
है; क्योंकि
दोनों भिन्न
हैं।
ऐसा
हुआ, मैं
मुल्ला नसरुद्दीन
के घर बैठा
था। उसका छोटा
बच्चा—रमजान
उसका नाम है, घर के लोग
उसे रमजू
कहते हैं—वह
इतिहास की
किताब पढ़ रहा
था। अचानक
उसने आंख उठाई
और अपने पिता
से कहा, "पापा,
युद्धों का
वर्णन है
इतिहास
में...युद्ध
शुरू कैसे
होते हैं?'
पिता
ने कहा, "समझो
कि पाकिस्तान
हिंदुस्तान
पर हमला कर दे।
मान लो......।'
इतना
बोलना था कि
चौके से पत्नी
ने कहा, "यह
बात गलत है।
पाकिस्तान
कभी
हिंदुस्तान
पर हमला नहीं
कर सकता और न
कभी
पाकिस्तान ने
हिंदुस्तान
पर हमला करना
चाहा है।
पाकिस्तान तो
एक शांत
इस्लामी देश
है। तुम बात
गलत कह रहे हो।'
मुल्ला
थोड़ा चौंका।
उसने कहा कि
मैं कह रहा
हूं, सिर्फ
समझ लो। सपोज...।
मैं कोई यह
नहीं कह रहा
हूं कि युद्ध
हो रहा है और
पाकिस्तान ने
हमला कर दिया
है; मैं तो
सिर्फ समझाने
के लिए कह रहा
हूं कि मान लो...।
पत्नी
ने कहा, "जो
बात हो ही
नहीं सकती, उसे मानो
क्यों? तुम
गलत राजनीति
बच्चे के मन में
डाल रहे हो।
तुम पहले से
ही पाकिस्तान—विरोधी
हो, और
इस्लाम से ही
तुम्हारा मन
तालमेल नहीं
खाता। तुम ठीक
मुसलमान नहीं
हो। और तुम
लड़के के मन
में राजनीति
डाल रहे हो, और गलत
राजनीति डाल
रहे हो। यह
मैं न होने
दूंगी।'
वह
रोटी बना रही
थी, अपना
बेलन लिए बाहर
निकल आई। उसे
बेलन लिए
देखकर मुल्ला
ने अपना डंडा उठा
लिया। उस छोटे
बच्चे ने कहा,
"पापा रुको,
मैं समझ गया
कि युद्ध कैसे
शुरू करते
हैं। अब कुछ
और समझाने की
जरूरत नहीं
है।'
जहां
दो व्यक्ति
हैं, जैसे ही
उनका करीब आना
शुरू हुआ कि
युद्ध की संभावना
शुरू हो गई।
दो संसार हैं;
उनके अलग—अलग
सोचने के ढंग
हैं; अलग—अलग
देखने के ढंग
हैं; अलग
उनकी धारणाएं
हैं; अलग
परिवेश में वे
पले हैं; अलग—अलग
लोगों ने
उन्हें
निर्मित किया
है; अलग—अलग
उनके धर्म हैं,
अलग—अलग
राजनीति है; अलग—अलग मन
हैं—सार—संक्षिप्त।
और जहां अलग—अलग
मन हैं, वहां
प्रेम संभव
नहीं—वहां कलह
ही संभव है।
मन कलह
का सूत्र है।
इसलिए तो
संसार में
इतनी कठिनाई
है—प्रेमी
खोजने में।
मित्र खोजना
असंभव मालूम होता
है। मित्र में
भी छिपे हुए
शत्रु मिलते हैं।
और प्रेमी में
भी कलह की ही
शुरूआत होती है।
दो
संसार कभी भी
शांति से नहीं
रह सकते।
उसका
कारण?
एक
संसार भी अपने
भीतर कभी
शांति से नहीं
रह सकता; दो
मिलकर अशांति
दुगुनी हो
जाती है।
तुम
अकेले भी कहां
शांत हो? तुम्हारा
मन वहां भी
अशांति पैदा
किए हुए है। फिर
जब दोनों
मिलते हैं तो
अशांति
दुगुनी हो जाती
है।
जितनी
ज्यादा भीड़
होती जाती है
उतनी अशांति
सघन होती जाती
है, क्योंकि
उतने ही कलह
में पड़ जाते
हैं।
जिस
दिन तुम इस
सत्य को देख
पाओगे कि
तुम्हारा
संसार
तुम्हारे
भीतर है, और
तुम उसी संसार
के आधार पर
बाहर की खूंटियों
पर संसार
निर्मित कर
रहे हो, इसलिए
सवाल बाहर के
संसार को
छोड़कर भाग
जाने का नहीं
है; भीतर
के संसार को
छोड़ देने का
है—तब तुम
कहीं भी रहो, तुम जहां भी
होओगे, तुम
वहीं संन्यस्थ
हो। तुम कैसे
भी रहो—महल
में या झोपड़ी
में, बाजार
में या आश्रम
में, कोई
फर्क न पड़ेगा।
तुम्हारे
भीतर से जो
भ्रांति का
सूत्र था, वह
हट गया।
इसलिए
जब जग को छोड़ने
की बात कही है, तो समझ लेना,
किस जग को
छोड़ने की; अन्यथा
ना—समझ बाहर
के जग को
छोड़कर भागे
फिरते हैं; और खुद को
साथ लिए रहते
हैं। खुद को
ही छोड़ना है; कुछ और यहां
छोड़ने योग्य
नहीं। बस खुद
को ही त्यागना
है; कुछ और
यहां त्यागने
योग्य नहीं।
इन
प्रतीकों के
कारण बड़ी उलझन
पैदा होती है, क्योंकि
कबीर कहते हैं,
"एक कनक अरु
कामिनी, जग
में दोइ
फंदा।' तो
शब्द तो साफ
हैं और लगता
है स्त्री को
छोड़कर भाग जाओ—कामिनी;
धन को छोड़
दो—कनक।
स्वर्ण को छोड़
दो, धन को
छोड़ दो, पत्नी
को छोड़ दो, ब्रह्म
उपलब्ध हो
जाएगा। काश, इतना आसान
होता, तो भगोड़े कभी
के परम पद को
पा गए होते!
इतना आसान
नहीं है।
कामिनी
को छोड़ने का
सवाल नहीं है, काम को
छोड़ने का सवाल
है। कामिनी तो
खूंटी है। तो
कबीर प्रतीक
की बात कर रहे
हैं। और कोई
रास्ता नहीं
है; प्रतीक,
मेटाफर से ही बोला
जा सकता है।
कबीर
कह रहे हैं, कामिनी को
छोड़ दो—इसका
अर्थ होता है,
कि जैसे ही
काम छूटा
तुम्हारे लिए
कोई कामिनी न
रही। जब तक
काम है, कामिनी
रहेगी।
कामिनी नहीं
है वहां; तुम्हारा
काम ही कामिनी
को निर्मित
करता है। सोना
थोड़े तुम्हें पकड़े हुए
है; तुम्हारा
लोभ है। सोने
को छोड़ने से
क्या होगा, अगर लोभ
भीतर है? तुम
कुछ और पकड़
लोगे। जब तक पकड़ने की
आकांक्षा
भीतर है, तब
तक तुम एक चीज
को छोड़ोगे,
दूसरी चीज पकड़ोगे; मुट्ठी
खुलेगी, बंधेगी, लेकिन खुली
न रहेगी। धन
तुम छोड़ दो, लेकिन पकड़
किसी और चीज
पर बैठ जाएगी।
तो ऐसा भी हो
सकता है कि
तुम महल छोड़
दो और लंगोटी
पकड़ लो, और
लंगोटी छोड़ना
मुश्किल हो
जाए।
कथा है
कि जनक के घर
एक संन्यासी
मेहमान हुआ और
संन्यासी ने
सब वैभव देखा, विस्तार
देखा, उसने
कहा कि मैंने
तो सुना था कि
आप परम ज्ञानी
हैं; यह
वैभव—विस्तार,
यह कनक—कामिनी—यह
कैसा ज्ञान?
जनक ने
कहा, "समय पर
कहूंगा। थोड़ी
प्रतीक्षा
रखो, जल्दी
न करो।'
दूसरे
दिन ही सुबह
समय आ गया। आ
नहीं गया, जनक ले आए, स्थिति
निर्मित कर
दी। लेकिन
संन्यासी को
गए, महल के
पीछे ही नदी
थी, स्नान
करने को। और
जब दोनों
स्नान कर रहे
थे नदी में, तब अचानक
महल में आग लग
गई; लगवा
दी गई थी, लग
नहीं गई थी। क्योंकि
संन्यासी का
कोई भरोसा
नहीं था; वह
इतनी
जल्दबाजी में
था और वह इतना
बेचैन था महल
से भागने को, भयभीत था कि
कहीं महल में
फंस न जाए।
कनक और कामिनी—सब
वहां मौजूद—तो
जल्दी करनी
जरूरी थी। जनक
ने आज्ञा से
महल में आग
लगवा दी।
दोनों स्नान
कर रहे हैं।
संन्यासी
चिल्लाया कि
"देखो, तुम्हारे
महल में आग लग
गई!'
जनक ने
कहा, "क्या
अपना है, क्या
किसका है! आए
थे कुछ लेकर
नहीं, जाएंगे
बिना कुछ लिए!
खाली हाथ आना,
खाली हाथ
जाना! किसका
महल है! लगने
दो, चिंता
न करो। स्नान
पूरा करो।'
लेकिन
यह सुनने को
वह संन्यासी
वहां मौजूद न
था; वह
लंगोटी छोड़
आया था किनारे
पर, वह महल
के पास ही थी।
वह भागा। उसने
कहा कि महल तो
ठीक, मेरी
लंगोटी भी महल
के पास रखी है,
दीवाल के
बिलकुल पास।
महल और
लंगोटी में
कोई फर्क नहीं
है—तुम्हारे
लोभ के लिए
कोई भी खूंटी
बन सकता है।
तुम बड़ी छोटी
खूंटी पर, बड़े विराट
लोभ को लटका
सकते हो।
क्योंकि लोभ
का कोई वजन
थोड़े ही है; विस्तार है,
और सपने का
है, खाली
हवा है। तो
खूंटी कोई
बहुत बड़ी
चाहिए, ऐसा
नहीं है; खीली
भी, तीली
भी काम दे
जाएगी। लोभ
में कोई वजन
नहीं है, बिना
खूंटी के लटक
जाएगा।
तो जब
कबीर कनक और
कामिनी की बात
करें तो समझना
कि उनका
प्रयोजन क्या
है। कबीर कोई
पंडित नहीं
हैं कि गलती
कर रहे हों; कबीर परम
ज्ञानी हैं।
ये प्रतीक
हैं। वे यह कह
रहे हैं कि
कामिनी तो
पैदा होती है
काम से। तुम्हारा
काम ही किसी
स्त्री को
खूंटी बना
लेता है। और
जब तुम्हारे
काम की ऊर्जा
किसी स्त्री
पर खूंटी की
तरह टंग जाती
है, तब
अचानक तुम
पाते हो, इस
स्त्री से
सुंदर स्त्री
जगत में दूसरी
नहीं है। कल
तक भी यही
स्त्री थी।
अनेक बार
रास्ते पर
तुमने इसे
देखा था; तुम्हारे
भीतर कोई भनक
भी न पड़ी थी।
यह स्त्री
बहुत बार
निकली थी, तुम्हारा
ध्यान भी
आकर्षित न हुआ
था। एक हवा का
छोटा—सा झोंका
भी इस स्त्री
की तरफ न बहा
था। आज अचानक
क्या हो गया
कि यह स्त्री
परम सुंदर हो
गई? और
दूसरे अब भी
हंस रहे होंगे
कि तुम किस
स्त्री के
चक्कर में पड़
गए हो; कुछ
भी वहां नहीं
रखा है।
मजनू
को उसके नगर
के राजा ने
बुलाकर कहा था
कि तू बिलकुल
पागल है। लैला
कुरूप है।
(लैला सच में
काली—कलूटी
थी।) तू
बिलकुल पागल
हो गया है।
नाहक चिल्लाता
फिरता है लैला—लैला।
राजा
को भी दया आ गई
थी, तो उसने
महल के बाहर
सुंदर
युवतियां
सामने खड़ी
करवा दीं।
उसने कहा, तू
कोई भी चुन
ले। महल की
सुंदर
युवतियां थी,
निश्चित
सुंदर थीं; लेकिन मजनू
ने आंख उठाकर
भी न देखा।
उसने कहा, "मुझे
सिवाय लैला के
और कोई दिखाई
ही नहीं पड़ता।
और आप शायद
ठीक कहते
होंगे कि आपको
लैला काली—कलूटी
दिखाई पड़ती
है।'
असल
में मजनू ने
बड़े सार की
बात कही कि
लैला को देखना
हो तो मजनू की
आंख चाहिए।
जब तुम
काम की आंख से
किसी स्त्री
की तरफ देखते
हो, तब
अपूर्व
सौंदर्य की
वर्षा हो जाती
है; तब
तुम्हें कुछ
दिखाई पड़ने
लगता है जो
वहां नहीं है।
यही संसार है।
तब तुम्हें
वहां कुछ दिखाई
पड़ने लगता है
जो वहां कभी
भी नहीं था; तुमने ही
डाल दिया, तुम्हारे
काम ने ही कामिनी
को निर्मित कर
लिया।
जब तुम
सोने पर नजर
डालते हो, तो सोने में
क्या है? क्या
हो सकता है? ऐसी जातियां
हैं जिनमें
सोने का कोई
मूल्य नहीं
रहा है। आदिम
जातियां हैं
कुछ अभी भी।
अफ्रीका के
कुछ कबीले हैं
जिनमें सोने
का कोई मूल्य
नहीं है। सोने
की डली पड़ी
रहे, उस
कबीले को कुछ
दिखाई नहीं
पड़ता। कोई
मूल्य ही नहीं
है, तो बात
खतम हो गई।
मूल्य तो हम
डालते हैं।
लेकिन
तुम्हें सोना
दिखाई पड़ जाए
तो प्राणों की
बाजी लगा
दोगे। कुछ
सोने में है
या तुम्हारा
लोभ खूंटी
बनाता है।
लोभ से
सोना निर्मित
होता है, सोने
से लोभ नहीं।
काम से कामिनी
निर्मित होती
है, कामिनी
से काम नहीं।
उलटे
मत चलना, नहीं
तो भटक जाओगे।
बहुत भटक गए
हैं। इसलिए बार—बार
इसको दोहराता
हूं। बहुत हैं
जो स्त्रियों
को छोड़कर भाग
रहे हैं।
बेचारी
स्त्री का कोई
कसूर नहीं है।
बहुत हैं जो
सोने को छोड़कर
भाग रहे हैं।
सोने ने किसी
का कभी कुछ बिगाड़ा
नहीं। सोना बिगाड़ेगा
भी क्या? सोने
की सामर्थ्य
क्या है?
और जो
बात स्त्री के
संबंध में
लागू है, वही
पुरुष के
संबंध में
लागू है।
स्त्री की कामवासना
ही पुरुष को
पुरुषोत्तम
बना लेती है। जैसे
ही स्त्री की
कामवासना
किसी पुरुष के
आसपास खड़ी
होती है, रूपांतरण
हो जाता है।
अब उसका सपना
है वहां। इसलिए
बड़ी कठिनाई
होती है जीवन
में। तुम अपना
सपना एक
स्त्री पर ढाल
देते हो, स्त्री
अपना सपना तुम
पर ढाल देती
है। न तुम उसके
सपने हो, न
वह तुम्हारा
सपना है। अड़चन
आएगी, क्योंकि
तुम अपेक्षा
करोगे कि वह
तुम्हारा सपना
पूरा करे। वह
अपेक्षा
करेगी कि तुम
उसका सपना
पूरा करो। और
जल्दी ही
असलियत जाहिर
होनी शुरू हो
जाएगी, क्योंकि
असलियत किसी
का सपना नहीं
मानती। असलियत
को तुम्हारे
सपने से लेना—देना
क्या है?
तुम जब
किसी स्त्री
के प्रेम में
पड़ते हो तो तुम
कहते हो—"स्वर्ण—काया!
सोने की देह!
स्वर्ग की
सुगंध!' तुम्हारे
कहने से कुछ
फर्क न पड़ेगा।
गर्मी के दिन
करीब आ रहे
हैं—पसीना
बहेगा, स्त्री
के शरीर से भी
दुर्गंध
उठेगी। तब तुम
लाख कहो—"स्वर्ग
की सुगंध,' तुम्हारे
सपने को तोड़कर
भी पसीने की
बास ऊपर आएगी।
तब तुम
मुश्किल में
पड़ोगे कि धोखा
हो गया। और
शायद तुम यह
कहोगे, इस
स्त्री ने
धोखा दे दिया।
क्योंकि मन
हमेशा दूसरे
पर दायित्व
डालता है, कहेगा,
यह स्त्री
इतनी सुंदर न
थी जितना इसने
ढंग—ढौंग
बना रखा था।
यह स्त्री
इतनी स्वर्ण—काया
की न थी जितना
इसने ऊपर से
रंग—रोगन कर
रखा था। वह सब
सजावट थी, शृंगार
था—भटक गए, भूल
में पड़ गए।
स्त्री
भी धीरे—धीरे
पाएगी कि तुम
साधारण पुरुष
हो और जो उसने
देवता देख
लिया था
तुममें, वह
जैसे—जैसे खिसकेगा,
वैसे—वैसे
पीड़ा और अड़चन
शुरू होगी। और
वह भी तुम पर ही
दोष फेंकेगी
कि जरूर तुमने
ही कुछ धोखा
दिया है, प्रवंचना
की है। और जब
ये दो
प्रवंचनाएं
प्रतीत होंगी
कि एक—दूसरे
के द्वारा की
गई हैं तो कलह,
संघर्ष, वैमनस्य,
शत्रुता
खड़ी होगी।
तुम्हारा मन
किसी और स्त्री
की तरफ डोलने
लगेगा। तुम नई
खूंटी तलाश
करोगे।
स्त्री का मन
किसी और पुरुष
की तरफ डोलने लगेगा।
वह किसी नई
खूंटी तलाश
करेगी। और इसी
तरह तुम
जन्मों—जन्मों
से करते रहे
हो। लाखों खूंटियों
पर तुमने सपना
डाला। लाखों खूंटियों
पर तुमने अपनी
वासना टांगी।
लेकिन अब तक
तुम जागे नहीं
और तुम यह न
देख पाए कि
सवाल खूंटी का
नहीं है; सवाल
कामिनी का
नहीं है; काम
का है। यह
तुम्हारा ही खेल
है। तुम जिस
दिन चाहो, समेट
लो। लेकिन जब
तक समझोगे न, समेटोगे कैसे? भागना
कहीं भी नहीं
है; तुम
जहां हो वहीं
ही अपने मन की
वासनाओं के जाल
को समेट लेना
है। जैसे सांझ
मछुआ अपने जाल
को समेट लेता
है, ऐसे ही
जब समझ की
सांझ आती है, जब समझ
परिपक्व होती
है, तुम चुपचाप
अपना जाल समेट
लेते हो। वह
तुमने ही फैलाया
था, कोई
दूसरे का हाथ
नहीं है। कोई
दूसरा
तुम्हें भटका
नहीं रहा है।
सोने
का क्या कसूर
है? तुम नहीं
थे तब भी सोना
अपनी जगह पड़ा
था। तुम्हारी
प्रतीक्षा भी
नहीं की थी
उसने। तुम
नहीं रहोगे तब
भी सोना अपनी
जगह पड़ा रहेगा।
भर्तृहरि
ने अपने जीवन
में उल्लेख
किया है। राज्य
छोड़ दिया। और
राज्य ऐसे ही
नहीं छोड़ दिया
था, बड़ी
परिपक्वता से
छोड़ा था, जानकर
छोड़ा था। भोगा
था जीवन को और
जीवन के भोग
से जो पीड़ा
पाई थी और
जीवन के भोग
में जो व्यर्थता
पाई थी, उसके
कारण छोड़ा था।
लेकिन तब भी
छोड़ते—छोड़ते
भी धुएं की एक
रेखा भीतर रह
गई होगी।
जीवन
जटिल है। पर्त—दर—पर्त
अज्ञान है। एक
पर्त पर छोड़
देते ही, दूसरी
पर्त पर प्रगट
होना शुरू हो
जाता है।
सब
छोड़कर
संन्यस्त
होकर जंगल में
भर्तहरि
बैठे हैं, अपनी गुफा
में बैठे हैं।
एक पक्षी ने
गीत गुनगुनाया,
आंख खुल गई।
पक्षी को तो
देखा ही देखा,
राह पड़ा एक
चमकदार हीरा
दिखाई पड़ा।
अनजाने कोने
से, अचेतन
की किसी पर्त
से, जरा—सा
लोभ सरक गया, जरा—सा
हल्का झोंका,
पता भी न
चले—भर्तहरि
को ही पता चल
सकता है जो कि
जीवन को बड़ा
समझकर बाहर
आया था—जरा—सा
कंपन हो गया।
लौ हिल गई
भीतर—उठा लूं!
फिर थोड़ी हंसी
भी आई। इससे
भी बड़े—बड़े
हीरे—जवाहरात
छोड़कर आया, और अभी भी
उठाने का मन
बना है। बहुत
कुछ था, बड़ा
साम्राज्य
था। यह हीरा
कुछ भी नहीं
है। ऐसे बहुत
हीरों के ढेर
थे। वह सब छोड़
आया, और आज
अचानक इस
साधारण से
हीरे को राह
पर पड़ा देखकर मन
में यह बात उठ
आई।
खूंटियां
छोड़ने से लोभ
नहीं छूटता।
महल छोड़ देने
से भी लोभ
नहीं छूटता।
धन के अंबार
त्याग देने से
भी त्याग नहीं
हो जाता।
मगर भर्तहरि
बड़ा सचेत, जागरूक
व्यक्तित्व
है। पहचान
लिया, पकड़
लिया, होश
में आ गया कि
नहीं, यह
बात क्या हुई!
और जब यह मन
में मंथन चलता
था, यह जब
मन का
विश्लेषण
चलता था कि
लोभ कहां से उठ
आया, क्षणभर पहले नहीं
था; आंख
बंद थी, ध्यान
में लीन था—कहां
से, किस
पर्त से? बाहर
से तो नहीं
आया? कोई
हीरा तो नहीं
भेज रहा है यह
लोभ?—इस
विश्लेषण में
लगे थे, तभी
देखा कि दो घुड़सवार
दोनों तरफ से
राह पर आ गए
हैं और दोनों
की नजर एक साथ
ही हीरे पर पड़
गई। दोनों की
तलवारें बाहर
निकल आईं।
दोनों सैनिक
हैं। दोनों ने
अपनी तलवारें
हीरे के पास
टेक दीं और
कहा कि पहले
नजर मेरी पड़ी,
तो दूसरे ने
कहा, तुम
गलती में हो, पता भी नहीं
कि एक तीसरा
व्यक्ति भी
छिपा गुहा में
बैठा है, जो
देख रहा है।
तलवारें चल
गईं। क्षणभर
पहले दोनों
जीवित थे, क्षणभर
बाद दोनों की
लाशें पड़ी
थीं। हीरा अब
भी अपनी जगह
था—न रोया, न
पछताया, न
चिंतित, न
बेचैन। जैसे
कुछ हुआ ही
नहीं है। हीरे
को क्या हुआ? लेकिन भर्तहरि
को बड़ा बोध
जागा—हीरा अपनी
जगह ही पड़ा
रहेगा; हम
आएंगे और चले
जाएंगे; हम
चलेंगे संसार
में और विदा
हो जाएंगे।
हीरे हमारे
लिए पछताएंगे
न। न विदा
देते समय एक
आंसू उनकी
आंखों में झलकेगा,
न हमें
देखकर वे
प्रसन्न हैं।
सब अपने ही मन
का खेल है। हम
ही टांग लेते
हैं।
देखकर
यह घटना भर्तहरि
ने फिर आंख
बंद कर ली। और
इस घटना ने भर्तहरि
को बड़ा बोध
दिया।
सब पड़ा
रह जाएगा। न
तुम लेकर आते
हो, न तुम
लेकर जाते हो;
लेकिन घड़ीभर
को बड़े सपने
संजो लेते हो,
बड़े
इंद्रधनुष
फैला लेते हो।
मन
संसार है। काम
कामिनी का
निर्माता है, स्रष्टा है।
लोभ स्वर्ण का
जन्मदाता है।
अब हम
इन सूत्रों
में प्रवेश
करें।
बड़ी
बारीक बात है
और बड़े सरल
शब्दों में
कही गई है।
शब्द इतने सरल
हैं कि लगेगा, समझाने जैसा
क्या है? इन
सरल शब्दों
में इतना कुछ
भरा है कि
समझाए—समझाए
भी समझाया
नहीं जा सकता।
तुम समझते रहो,
मैं समझाता
रहूं—कोई अंत
न आए।
ज्ञानियों
के शब्द सदा
ही सरल होते
हैं। सिर्फ
अज्ञानी
पंडितों के
शब्द कठिन
होते हैं। पंडित
कठिनाई से
जीता है।
कठिनाई पर ही
उसका धंधा है।
वह जितना कठिन
बना लेता है
चीजों, को
उतना ही लोगों
में भ्रांति
फैलती है कि
बड़े रहस्य की
बात है। अगर
चीजें बिलकुल
सरल करके
पंडित कह दे, तो पंडित की
कौन पूजा करे?
वह जटिल
बनाता है। वह
उलझाता है। वह
गोल—गोल
रास्तों से
चलता है। वह
बड़े कठिन
शब्दों का
प्रयोग करता
है। वह बड़े
पारिभाषिक
तर्कों का जाल
बुनता है। वह
ऐसा धुंआ खड़ा
कर देता है चारों
तरफ कि कुछ
दिखाई न पड़े; सिर्फ इतना
ही समझ में आए
कि पंडित कोई
बड़ा महान
कारीगर है।
ज्ञानी
सदा सरल होते
हैं। शब्द
उनके सीधे होते
हैं; गोल—गोल
नहीं, सीधे
हृदय पर चोट
करते हैं।
उनका तीर सीधा
है। और इसलिए
कई बार ऐसा
होता है कि
लोग पंडितों के
जाल में पड़
जाते हैं और
ज्ञानियों से
वंचित रह जाते
हैं। क्योंकि,
लोगों को
लगता है कि
इतनी सरल बात
है, इसमें
है ही क्या
समझने जैसा?
ध्यान
रखना, जहां
सरल हो वहीं
समझने जैसा है;
और जहां
कठिन हो वहां
सब कचरा है।
वह कठिनाई इसीलिए
पैदा की गई है
ताकि कचरा
दिखाई न पड़े।
तुम
डाक्टर के पास
जाते हो तो
डाक्टर इस ढंग
से लिखता है कि
तुम्हारी समझ
में न आए कि
क्या लिखा है।
मुल्ला
नसरुद्दीन
ने तय कर लिया
कि अपने लड़के
को डाक्टर
बनाना है।
मैंने पूछा, आखिर कारण
क्या है? उसने
कहा, आधा
तो यह अभी से
है; क्या
लिखता है, कुछ
पता नहीं
चलता। आधी
योग्यता तो
उसमें है ही।
अब थोड़ा—सा और,
सो पढ़ लेगा कालेज
में।
पता
नहीं चलना
चाहिए।
क्योंकि जो
लिखा है वह दो
पैसे में
बाजार में मिल
सकता है। और
डाक्टर लेटिन
भाषा का उपयोग
करता है, जो
किसी की समझ
में न आए।
क्योंकि अगर
वे उस भाषा का
उपयोग करें तो
तुम्हारी समझ
में आती है तो
तुम मुश्किल
में पड़ोगे।
क्योंकि तुम कहोगे
कि यह चीज तो
बाजार में दो
पैसों में मिल
सकती है, इसका
बीस रुपया!
तुम कैसे दोगे?
बीस रुपया
लेटिन भाषा की
वजह से दे रहे
हो।
जो
डाक्टर का ढंग
है, वह पंडित
का ढंग है। वह
संस्कृत में
प्रार्थना
करता है, या
लेटिन में, या रोमन में,
या अरबी में,
कभी लोकभाषा
में नहीं।
लोगों की समझ
में आ जाए तो
प्रार्थना में
कुछ है ही
नहीं। समझ में
न आए तो लोग
सोचते हैं, कुछ होगा।
बड़ा
रहस्यपूर्ण
है। पंडित की
पूरी कोशिश है
कि तुम्हारी
समझ में न आए, तो ही पंडित
का धंधा चलता
है। ज्ञानी की
पूरी कोशिश है
कि तुम्हें
समझ में आए, क्योंकि
ज्ञानी का कोई
धंधा नहीं है।
कबीर
के शब्द बड़े
सीधे—सादे हैं; एक बेपढ़े—लिखे
आदमी के शब्द
हैं। पर बड़े
गहरे हैं। वेद
फीके हैं।
उपनिषद थोड़े
ज्यादा सजाए—संवारे
मालूम पड़ते
हैं। कबीर के
वचन बिलकुल नग्न
हैं, सीधे!
रत्तीभर
ज्यादा नहीं
हैं; जितना
होना चाहिए
उतना ही हैं।
"जंग
सूं
प्रीत न कीजिए,
समझि मन मेरा।
स्वाद
हेत लपटाइए, को निकसै
सूरा।'
संसार
से प्रेम न कर
मेरे मन; समझ!
क्योंकि
संसार से
जिसने प्रेम
किया—और संसार
से अर्थ है
तुम्हारे ही
खड़े किए संसार
से—वह भटका।
भटका क्यों? क्योंकि वह
सत्य को कभी
जान न सका।
उसके अपने ही
मन ने रंग
इतने डाल दिए
सत्य में, कि
सत्य का रंग
ही खो गया। वह
कभी स्त्री को
सीधा न देख
पाया; देख
लेता तो मुक्त
हो जाता।
बुद्ध
कहते हैं, क्या है
स्त्री में—हड्डी,
मांस—मज्जा!
क्या है
स्त्री की देह
में?—अस्थिपंजर।
काश! तुम काम
को हटा दो, तो
दूसरे की देह
में क्या
दिखाई पड़ेगा?
मल—मूत्र, मांस—मज्जा!
लेकिन काम से
भरी आंखें
स्वर्ण—काया
को देखती हैं।
काम से भरी
आंखें जो हैं,
उसे देखती
ही नहीं।
ऐसा
हुआ कि बुद्ध
एक वृक्ष के
नीचे एक
पूर्णिमा की
रात ध्यान
करते थे। शहर
से कुछ युवक
एक वेश्या को
लेकर जंगल में
आ गए हैं। नशे
में धुत
उन्होंने
वेश्या को
नग्न कर दिया
है। वे हंसी—मजाक
कर रहे हैं।
वे अपनी क्रीड़ा
में लीन हैं।
उनको बेहोश
देखकर, शराब
में धुत देखकर
वेश्या भाग
निकली। थोड़ी देर
बाद जब उन्हें
होश आया और
देखा कि
वेश्या तो जा
चुकी है, तो
वे उसे खोजने
निकले। कोई और
तो न मिला, राह
के किनारे, वृक्ष के
नीचे बुद्ध
मिल गए। तो
उन्होंने पूछा
कि "ऐ भिक्षु,
यहां से
तुमने एक बहुत
सुंदर स्त्री
को नग्न जाते
देखा?'
बुद्ध
ने कहा, "कोई
यहां से गया—कहना
मुश्किल है कि
स्त्री है या
पुरुष। क्योंकि
वह भेद तभी तक
था जब अपनी
कामना थी। अब
कौन भेद करता
है! किसको
लेना—देना है!
क्या पड़ी है!
कोई गया जरूर;
तय करना
मुश्किल है कि
स्त्री थी या
पुरुष था। और
तुम कहते हो, सुंदर!—तुम
और कठिन सवाल
उठाते हो, सुंदर
और असुंदर भी
गया। वह अपने
ही मन का खेल था।
हां एक
अस्थिपंजर, मांस—मज्जा
से भरा, गुजरा
है जरूर। कहां
गया, यह
कहना मुश्किल
है। क्योंकि,
मैं आंखों
को भीतर ले
जाने में लगा
हूं। बाहर कौन
जा रहा है, यह
देखता रहूं तो
भीतर कैसा
जाऊं? तुम
मुझे क्षमा
करो। तुम किसी
और को खोजो।
वह तुम्हें
ठीक—ठीक पता
दे सकेगा। मैं
अपना पता खोज
रहा हूं, दूसरों
के पते की मुझे
अब कोई चिंता
न रही।'
काश!
काम के बिना
तुम स्त्री को
देखो या पुरुष
को देखो क्या
पाओगे वहां? शरीर में तो
कुछ भी नहीं
है। और अगर
कुछ है तो वह
अशरीरी है।
लेकिन काम की
आंखें तो उसे
देख ही न
पाएंगी—उस
आत्मा को जो
इस हड्डी—मांस—मज्जा
की देह में
छिपी है। उस चैतन्य
को, उस
ज्योति को तो
काम से भरी
आंखें तो देख
ही न पाएंगी।
तुम देह पर ही
भटक रहोगे।
जब काम
गिर जाता है, शरीर ना—कुछ
हो जाता है; मिट्टी से
उठा, मिट्टी
में वापस लौट
जाएगा। लेकिन
जैसे ही शरीर
ना—कुछ हुआ, वैसे ही
शरीर के भीतर
जो छिपा है, उसकी पहली
झलक मिलनी
शुरू हो जाती
है। तब न तो
तुम स्त्री को
पाते हो न
पुरुष को; तुम
सब जगह
परमात्मा को
पाते हो।
"जग सूं प्रीत
न कीजिए...।'
इसलिए
काम की आंख से
मत देखो। जो
जग तुमने अपने
चारों तरफ
धारणाओं का, दृष्टियों
का बना रखा है,
वासनाओं का,
तृष्णाओं
का—उससे मत
देखो।
"जग सूं प्रीत
न कीजिए, समझि मन
मेरा।'
मेरे
मन समझ! ना—समझी
काफी हो चुकी।
"स्वाद
हेत लपटाइए,
को निकसै
सूरा।'
लेकिन
मन सदा कहता
है कि बड़ा
स्वाद है। समझ
से बचना चाहता
है, क्योंकि
डर लगता है कि
समझ कहीं
स्वाद न छीन ले;
कहीं देख
लिया स्त्री
की मांस—मज्जा
को, हड्डी
को, मल—मूत्र
को, भीतर
छिपी हुई देह
की जो स्थिति
है, अगर एक
बार दिख गई तो
फिर स्वाद
लेना मुश्किल हो
जाएगा।
पश्चिम
में एक बड़ा
विचारक है, मनोवैज्ञानिक
है—विक्टर फ्रेन्कल।
वह हिटलर के कैदखाने
में था। और
वहां उसने एक
घटना देखी। और
उस घटना के
बाद उसका भोजन
में रस चला
गया, जो
नहीं लौटा अब
तक।
कैसी
घटना रही होगी?
उसने
देखा, कैदी
थे। एक बार
रोटी के कुछ
टुकड़े मिलते
थे, और दिन
भर भूखे रहते
थे। लोग अपने टुकड़ों को
बचाए रखते थे,
ताकि थोड़ा—सा
जब भूख लगे तो
फिर खा लेंगे,
फिर थोड़ा—सा
खा लेंगे।
चौबीस घंटे की
भूख!
एक दिन
उसने देखा कि
एक कैदी को
वमन हो गया, उलटी हो गई।
इसमें तो कुछ
बड़ी बात न थी।
बहुत लोगों को
वमन करते हुए
देखा होगा।
लेकिन फ्रेन्कल
ने देखा कि वह
उस वमन को ही
उठाकर फिर से
खा रहा है।
उसने अपने
संस्मरणों
में लिखा है
कि उस दिन के
बाद फिर मेरा
भोजन में रस
नहीं रहा।
भोजन करता हूं,
मुझे वह
आदमी जरूर
दिखाई पड़ता
है।
एक बार
तुम्हें सत्य
दिखाई पड़ जाए
तो बड़ा मुश्किल
हो जाएगा।
इसलिए तो मन
कहता है कि
समझ से बचो; यह समझदारी
अपने काम की
नहीं, नासमझी
भली। नहीं तो
स्त्री की देह
पर हाथ रखोगे,
कविता कहती
है कि
संगमरमरी देह
है; लेकिन
अगर तुम्हें
भीतर की मांस—मज्जा
और हड्डी
दिखाई पड़ रही
हो, तो
संगमरमरी देह
तुम न कह
सकोगे। सत्य
सब कविताओं को
तोड़ देगा। तुम
बड़ी मुश्किल
में पड़ोगे।
इसलिए
मन कहता है, समझ—वमझ
में मत पड़ो,
नासमझ भली।
इसलिए तो कहते
हैं कि अज्ञान
में भी बड़े
आशीर्वाद
छिपे हैं। स्वाद
ले लो; जल्दी
क्या है—मन
कहता है—थोड़ा
और! और स्वाद
के साथ बड़ी
हैरानी है कि
स्वाद
काल्पनिक है
और दूसरे से
नहीं आ रहा
है। दूसरे से
आ नहीं सकता
स्वाद। स्वाद
तुम्हारा डाला
हुआ है।
कभी
तुमने कुत्ते
को देखा? सूखी
हड्डी को
कुत्ता चूसता
है। सूखी
हड्डी में कुछ
भी नहीं है।
कोई रस तो
निकल नहीं
सकता, इसलिए
चूसोगे
क्या? सूखी
हड्डी कोई
गन्ने की
पोंगरी नहीं
है। उसमें कुछ
है ही नहीं, बिलकुल सूखी
है। कोई मांस
भी नहीं लगा
है आसपास। खून
का धब्बा भी
नहीं है।
बिलकुल सूखी
हड्डी है और
कुत्ता चूसता
है, बड़ा रस
लेता है; और
अगर कोई दूसरा
कुत्ता उस
हड्डी को
छीनने आ जाए
तो जी—जान से
बचाने की
कोशिश करता
है।
क्या, हो क्या रहा
है?
एक बड़ी
महत्वपूर्ण
घटना घट रही
है। वह तुम्हारे
जीवन में भी
घट रही है।
उसे समझ लेना
ठीक है।
जब
कुत्ता सूखी
हड्डी चूसता
है, तो सूखी
हड्डी की
टकराहट से
उसके भीतर
मुंह का मांस
कट जाता है, खून बहने
लगता है। खून
का स्वाद आने
लगता है। स्वभावतः
कुत्ता सोचता
है, हड्डी
से खून आ रहा
है। तर्क
बिलकुल सीधा
साफ है। वह
जितना चूसता
है सूखी हड्डी
को, उतना
ही मुंह भीतर
कटता जाता है।
जीभ कट जाती है।
मसूढ़े कट
जाते हैं।
तालु कट जाता
है। खून बहने
लगता है। खून
गले में आता
है, कुत्ते
को स्वाद आता
है।
और सभी
स्वाद ऐसे
हैं। स्वाद
बाहर से नहीं
आते; तुम्हीं
ले रहे हो।
तुम्हारा ही
खून बह रहा है।
सूखी
हड्डियां चूस
रहे हो। वहां
कुछ है ही नहीं
कि कुछ आ जाए।
जब तुम
सोचते हो कि
स्त्री से
तुम्हें सुख
मिल रहा है, तब तुम्हीं
सुख पा रहे हो—तुम्हारी
धारणा का ही
सुख है। तुम
जब सोचते हो
कि सोने से
सुख मिल रहा
है, तो तुम
ही सुख पा रहे
हो—तुम्हारी
धारणा का ही
सुख है। और
सोने के कारण
कितनी जगह से
तुम कट जाते
हो, तुम्हें
पता नहीं।
सोने का बोझ
तुम्हें कैसे
दबा देता है, इसका
तुम्हें पता
नहीं।
तुम्हारे लोभ
और काम में
तुम कैसे
कारागृह में
बंद हो जाते
हो जहां कि
जीना ही असंभव
हो जाता है, इसका
तुम्हें पता
नहीं!
"स्वाद
हेत लपटाइए,
को निकसै
सूरा।'
कबीर
कहते हैं, स्वाद के
कारण उलझ जाता
है व्यक्ति, और फिर कोई
बहुत बहादुर
ही हो, शूरवीर
हो, तो ही
बाहर निकल
पाता है।
सिर्फ साहसी
ही बाहर निकल
पाते हैं—दुस्साहसी।
क्योंकि, दूसरे
से लड़ना तो
बहुत आसान है;
अपने ही मन
से लड़ना बहुत
कठिन है। और
अपने ही मन को
समझना बहुत
कठिन है कि
क्या हो रहा
है।
कुत्ते
को कैसे पता
चले कि सूखी हड्डी
से अपना ही
खून बह रहा है, उसका ही मैं
स्वाद ले रहा
हूं। जब
मनुष्यों को
पता नहीं चलता,
तो बेचारे
कुत्ते का तो
कोई कसूर
नहीं।
तुमने
जहां—जहां
स्वाद लिया है, वह तुम्हारे
ही रक्त का
स्वाद है। और
जहां—जहां
तुमने स्वाद
लिया है वहां—वहां
तुमने अपने
जीवन को गंवाया
है। जहां—जहां
तुमने स्वाद
लिया है, वहां
अपनी ऊर्जा
खोई है। उससे
तुम दीन हुए
हो। उससे तुम
निर्धन हुए
हो। और मैं
भीतर के धन की बात
कर रहा हूं, जब कहता हूं,
निर्धन हुए
हो। और मैं
भीतर की दीनता
की बात करता
हूं, जब
मैं कहता हूं,
दीन हुए हो।
क्योंकि, जितने
तुमने स्वाद
लिए हैं, उतना
ही तुमने अपने
को खोया है।
और आज एक ऐसी घड़ी
आ गई है कि
तुम्हें
पक्का पता
नहीं कि तुम कौन
हो, क्या
हो, हो भी
या नहीं? इस
बुरी तरह खो
दिया है तुमने,
गंवा दिया
है अपने को कि
कोई बहादुर ही
इसके बाहर
निकल सकता है,
कोई शूरवीर—"को
निकसै
सूरा।'
क्यों
साहस की जरूरत
है? सबसे बड़े
साहस की जरूरत
वहां पड़ती है,
जहां आदतों
के जाल से
बाहर निकलना
हो। अब तुम्हारी
यह आदत हो गई
है—अपने को ही
काटना और
गलाना और अपना
ही स्वाद लेना।
इस आदत से तुम
इतने ज्यादा
ग्रस्त हो गए हो
कि अब बाहर
आना करीब—करीब
असंभव मालूम
पड़ता है। करीब—करीब
ऐसा लगता है
कि तुम अपनी
आदतों के जाल
ही हो, बाहर
कौन आएगा? भीतर
बचा कौन है जो
बाहर आ जाए? इसलिए तुम
टालते हो कि
कल, परसों,
आगे
देखेंगे; अभी
तो उम्र शेष
है, थोड़ा
और भोग लें।
मेरे
पास लोग आते
हैं। वे कहते
हैं, आप
युवकों को
संन्यास दे
रहे हैं; संन्यास
तो बुढ़ापे के
लिए है।
संन्यास का
क्या बुढ़ापे
से संबंध? बुढ़ापे
तक क्यों टाल
रहे हो? तब
तक टालोगे
तुम जब तक तुम
बिलकुल अशक्त
न हो जाओ। जब
कुछ बचेगा ही
नहीं, जब
तुम बिलकुल
मरने की घड़ी
में आ जाओगे, तभी तुम
अपनी सूखी
हड्डी छोड़ोगे।
वह भी तुम छोड़ोगे
नहीं, छूट
जाएगी।
क्योंकि तब पकड़ने
योग्य
सामर्थ्य, क्षमता
भी न रह
जाएगी। तब भी
तुम तो चेष्टा
करोगे कि थोड़ी
देर और।
क्योंकि बूढ़ा
भी अपने को बूढ़ा
थोड़े ही मानता
है; भीतर
तो अपने को
जवान ही मानता
है। क्योंकि
वासना कभी
बूढ़ी होती ही
नहीं। वासना
सदा जवान है। शरीर
थक जाए, मन
नहीं थकता; शरीर टूट
जाए, मन
नहीं टूटता।
मन कहता है, चले जाओ, और
खींचो, थोड़ा
और स्वाद ले
लो। आखिर मरते
क्षण तक भी मन स्वाद
से लपटाए
रखता है।
इसलिए
कबीर कहते हैं,
"स्वाद
हेत लपटाइए,
को निकसै
सूरा।'
वह जो
निकल आए बाहर, वह बड़ा वीर।
संन्यास
केवल साहसियों
के लिए है; संसार
कायरों के
लिए। बड़े से
बड़ा साहस है
जाग जाना और
देख लेना
स्थिति को।
जागने में डर
है, क्योंकि
तुमने स्थिति
में बहुत सा
अतीत गंवा दिया
है।
ऐसा
समझो कि एक
आदमी आंख बंद
किए कागज की
नाव में बैठा
सागर को पार
कर रहा है, और तुम
अचानक उससे कहो,
"आंख खोल ना—समझ!
यह कागज की
नाव; लेकिन
जब तक पता
नहीं है, तब
तक तो
निश्चिंत है,
तब तक तो वह
नाव ही मान
रहा है। अब
तुमने उसे झंझट
में डाल दिया—यह
बताकर कि यह
कागज की नाव
है, डूबेगी। अब
मुश्किल खड़ी
होगी। अब वह कंपेगा और
डरेगा और
परेशान होगा।
वह तुम पर नाराज
होगा। अब तक
सपना ही सही; लेकिन भरोसा
तो यह था कि
ठीक है, पहुंच
जाएंगे।
धन में
तुमने अपना
जीवन गंवाया।
आज अचानक कोई कहता
है कि धन में
कुछ भी नहीं
है, तो
तुम्हारा
पूरा अब तक
गंवाया जीवन
व्यर्थ हो
जाता है। एक
आदमी पचास मील
चल कर आया और
तुम कहते हो
कि "फिर लौटो,
यह तो
रास्ता ही
नहीं है। पचास
मील वापस जाओ।
वहीं से
चौराहे से
बदलाहट होगी,
दूसरा
रास्ता पकड़ना।'
पहला
मन तो उसका
तुम पर नाराज
होने को होता
है। होता है, क्योंकि तुम
उसकी पचास मील
की यात्रा को
खराब किए दे
रहे हो। और
फिर पचास मील
जाना है वापस।
तो पहले तो वह
तुम पर भरोसा
न करेगा। वह
कोई ऐसा आदमी
खोजेगा जो
कहेगा कि नहीं
ठीक हो, बिलकुल
ठीक जा रहे
हो।
इसलिए
तो लोग
ज्ञानियों के
पास जाने से
डरते हैं, भयभीत रहते
हैं। कितने
थोड़े—से लोग
बुद्ध के पास
पहुंचे।
कितने थोड़े—से
लोग कबीर के
पास पहुंचे।
क्यों इतना
बड़ा विराट
संसार, जब
सत्य का कहीं
आविर्भाव
होता है तो दौड़कर
नहीं पहुंच
जाता? हजार
कारण वे खोज
लेते हैं न
जाने के। जाने
का कारण वे
नहीं खोजते, क्योंकि
भीतर एक भय है
कि इस तरह के
आदमी के पास
जाने का मतलब
यह है कि अब तक
तुम जो थे, तुमने
जो भी किया, वह सब गलत।
यह जरा जरूरत
से ज्यादा घबड़ाने
वाला है। तो
फिर पूरा जीवन
अब तक का
बेकार गया? तो तुम मूढ़
थे, ना—समझ
थे?
ज्ञानी
के पास जाने
का भय यह है, वही भय जो
ऊंट को हिमालय
के पास जाने
से लगता है।
इसलिए ऊंट
रेगिस्तान
में रहते हैं,
हिमालय की
तरफ नहीं
जाते।
रेगिस्तान
में वही ऊंट
हिमालय हैं।
जब तुम
ज्ञानी के पास
जाते हो तो
अचानक तुम्हारा
अज्ञान साफ
होता है—घबड़ाहट
होती है।
ज्ञानी की
प्रकाश—रेखा
के समझ
तुम्हारी
अंधेरी रेखा
बिलकुल प्रगट
हो जाती है।
तो आदमी
मित्रता अपने
से ज्यादा
अज्ञानियों
की करता है।
कोई साहसी, कोई शूरवीर
ही ज्ञानियों
के पास जाता
है। इससे बड़ा
कोई साहस नहीं
है कि कोई इस
बात को समझने
को राजी हो कि
अब तक जो मैं
था वह गलत था।
इससे बड़ा कोई
साहस नहीं है कि
अब तक जिस
रास्ते पर मैं
चला, वह
भ्रांत था, और मैं फिर
से अ, ब, स
से शुरू करने
को राजी हूं।
मन समझाएगा
कि इतने दिन
चले लिए, थोड़े
दिन और बचे
हैं, अब
क्यों
परेशानी में
पड़ते हो? थोड़े
दिन और गुजार
लो इसी रास्ते
पर। पहुंचें,
नहीं
पहुंचें; लेकिन
पहुंचने की
आशा तो बनी
है।
मेरे
एक शिक्षक थे।
आस्तिक थे—भजन—कीर्तन, पूजा—पाठ
करते थे। मैं
जब भी गांव
जाता, मुझे
स्कूल में पढ़ाया
था, तो
उनको मैं
मिलने जाता।
कुछ बात होती।
एक बार मैं
गांव गया, तो
उनका लड़का आया
और मुझे कह
गया कि "आप घर
मत आना।
पिताजी ने खबर
भेजी है।
यद्यपि वे
दुखी हैं, असमर्थ
हैं, लेकिन
घर मत आना।'
मैंने
कहा, "एक बार
तो आऊंगा,
कम से कम यह
पूछने के लिए
कि मामला क्या
है? फिर
कभी नहीं आऊंगा।'
मैं
गया तो वे
रोने लगे और
उन्होंने कहा
कि वर्ष भर
तुम्हारी राह
देखता हूं कि
कब आओगे। पर मैं
बूढ़ा आदमी हूं, और तुम सब
गड़बड़ कर देते
हो। मेरी पूजा
ठीक चलती है, प्रार्थना
ठीक कर लेता
हूं, मंदिर
जाता हूं, उपवास
करता हूं, और
अब बूढ़ा आदमी
हूं; और
तुम जब आते हो
तो तुम सब
गड़बड़ कर देते
हो कि "इस पूजा
से कुछ भी न
होगा। यह
प्रार्थना
व्यर्थ है। यह
उपवास से
क्यों अपने को
भूखा मार रहे
हो?' और
तुमसे मैं
भयभीत हो गया
हूं। और अब
मेरी मौत करीब
है। कृपा करके
अब मुझे मत डगमगाओ।
मैं जैसा
हूं...।
क्योंकि अब इस
क्षण में नए
रास्ते पर
जाना मुश्किल
है। अब तुम
मुझे आश्वस्त
मर जाने दो।
नहीं तो मरते
वक्त भी
तुम्हारी
आवाज मुझे
सुनाई पड़ती
रहेगी कि यह
गलत है; जिंदगी
मैंने ऐसे ही
गंवा दी। तुम
मुझे कम से कम
भरोसा दो। तुम
मुझे कहो, सब
ठीक है।
मैंने
उन्हें कहा, "क्रांति के
लिए समय की
जरूरत ही नहीं
है; एक
क्षण में
क्रांति हो
सकती है।
क्योंकि यह क्रांति
समय के बाहर
की घटना है।
तो तुम यह मत सोचो
कि जिंदगी
गंवा दी, तो
अब एक क्षण
में, अब
थोड़े से दिनों
में, थोड़ा
सा समय जो हाथ
में बचा है—हाथी
तो निकल गया
है, अब
पूंछ ही बची
है—अब कैसे
बदलाहट होगी?
तुम यह बात
ही छोड़ो।
सौ साल अंधेरा
रहा हो, अगर
दिया जलाओ, एक क्षण में
अंधेरा विलीन
हो जाता है।
भयभीत मत रहो
कि अब सौ साल
दिया जलाना
पड़ेगा, तब
सौ साल का
पुराना
अंधेरा
जाएगा। यह
गणित यहां
लागू नहीं है।
और अंधेरा यह
भी नहीं कह
सकता है कि
मैं सौ साल
पुराना हूं, इसलिए इतनी
जल्दी नहीं जाऊंगा।'
"एक
क्षण में में
घटना घट सकती
है। लेकिन मन
गणित करता है।
और मन कहता है
कि अब आखिर
में आश्वस्त
मर जाने दो। आश्वस्त
तुम मर ही
नहीं सकते, क्योंकि
तुम्हें खुद
ही भरोसा नहीं
है। और मैं
तुम्हें नहीं
डिगा रहा हूं;
तुम खुद ही
जानते हो कि
जो तुम कर रहे
हो वह थोथा है।
अन्यथा मैं
कैसे डिगाऊंगा?'
गलत
करने वाला
बिलकुल
भलीभांति
जानता है, कितना ही
समझाए, कितना
ही अपने को उलझाए,
कितना ही
शब्दों का जाल
रचे, सांत्वना
का घर बनाए, गलत करने
वाला गहन तल
पर जानता है
कि गलत हो रहा
है।
मुल्ला
नसरुद्दीन
मर रहा था।
जिंदगी भर
अल्लाह ही का
नाम लिया; प्रार्थना,
पूजा, मस्जिद,
कुरान का
पाठ किया
नियमित; और
मरते वक्त, आखिरी क्षण
में उसने जोर
से कहा, "हे
शैतान! हे
अल्लाह! कृपा
कर!'
पास
खड़े हुए मौलवी
ने पूछा कि नसरुद्दीन, मरते वक्त
यह क्या कह
रहे हो?
उसने
कहा कि अब
सच्ची बात ही
कह दूं। मुझे
पक्का नहीं है
कि अल्लाह
मालिक है
दुनिया का कि
शैतान। और अभी
पक्का नहीं
रहा। और मरते
वक्त दोनों को
राजी कर लेना
उचित है, जो
भी हो। यह
मौका कोई जिद्द
करने का नहीं
है।
जीवन
भर का संदेह
मरते क्षण उठ
आएगा, ऊपर आ
जाएगा। मरते
क्षण में तुम
धोखा न दे
पाओगे, जीवन
में भला धोखा
दिया हो। मरते
क्षण में सत्य
जाहिर हो
जाएगा। मरते
क्षण में तुम
जानोगे, सोना
मिट्टी था।
मरते क्षण में
तुम जानोगे कि
कोई स्त्री
सुख देने वाली
नहीं थी, कोई
पुरुष सुख
देने वाला
नहीं था। मरते
क्षण में तुम
जानोगे कि
जिंदगी
गंवाई। लेकिन
तब करने को
कुछ भी न
बचेगा।
शूरवीर
वही हैं जो
मरने से पहले
मरने की हिम्मत
रखते हैं। और
क्या मतलब
होता है
शूरवीर का? कायर किसको
कहते हो तुम? कायर उसको
कहते हो कि
जहां भी मरने
की बात उठी कि
वह भागा, उसने
पूंछ दबाई।
शूरवीर वही है
जो जीवन के
लिए जीवन को
दांव पर लगा
सकता है। शूरवीर
का अर्थ है: जो
जीवन के लिए
जीवन को गंवा
सकता है, जो
मरने के लिए
भी तैयार है, जिसकी
तैयारी में
आखिरी तैयारी
सम्मिलित है—मरने
की तैयारी।
और हम पढ़ेंगे
आगे, कबीर
कहते हैं कि
जो जीते—जी
मरने की कला
जानता है, वही
केवल
परमात्मा को
उपलब्ध होता
है।
मरते
तो सभी हैं, संन्यासी
वही जो मरने
से पहले मर
जाता है—और जो
कह देता है कि
इस जीवन में
कोई सार नहीं।
इस जीवन के
लिए मैं मरा
हुआ हूं। मैं
एक नए जीवन की
शुरूआत करता
हूं और एक नए प्रकाशपथ
की यात्रा...।
बाहर खोजकर
देख लिया, नहीं
कुछ पाया।
अपने ही मन की
भ्रांतियां
थीं, अपने
ही मन का
फैलाव था। अब
पसारा वापस
उठा लेता हूं,
जाल उठा
लेता हूं। अब
भीतर की
यात्रा पर
चलता हूं।
अंतर्यात्रा
निर्णय है
साहस का। बाहर
की तरफ तो सभी
जाते हैं; भीतर की तरफ
कोई शूरवीर...।
बाहर की तरफ
तो पशु भी
जाते हैं, पक्षी
भी जाते हैं; तुम्हारा
कुछ गुण—गौरव
नहीं है कि
तुम बाहर की
तरफ जाते हो।
भीतर की तरफ न
पशु जाते हैं,
न पक्षी
जाते हैं, न
पौधे जाते हैं;
केवल
मनुष्य जा
सकता है; सभी
मनुष्य नहीं
जाते—कोई
शूरवीर जा
सकता है।
अंतर्यात्रा
सबसे कठिन
यात्रा है।
चांद पर
पहुंचना आसान
है, क्योंकि
वह भी बाहर की
यात्रा है।
अपने भीतर आ
जाना सबसे
कठिन यात्रा
है। क्योंकि
उस भीतर आने
में तुम्हें
अपने जन्मों—जन्मों
की आदतों के
जाल तोड़ने
पड़ेंगे; जन्मों—जन्मों
के स्वाद
व्यर्थ हैं, ऐसे जानने
की क्षमता
जुटानी
पड़ेगी। और अब
तक तुमने जो
भी किया वह
सपना था—इसे
झेल लेने की
हिम्मत बड़ी—से—बड़ी
हिम्मत है।
मैं अब तक गलत
था, जन्मों—जन्मों
तक गलत रहा—ऐसी
जिसकी
प्रतीति सघन
हो जाती है, उसके जीवन
में सही
शुरूआत हो गई,
सत्य की तरफ
पहला कदम उठा।
जिसने जान
लिया कि मैं
अज्ञानी हूं,
उसने ज्ञान
के मंदिर की
तरह पहला कदम
उठा लिया।
"एक
कनक अरु
कामिनी, जग
में दोइ
फंदा।' लोभ
और काम—जग में दोइ फंदा।
"इन पै जो न बंधावई
ताका मैं
बंदा।।' और
कबीर कहते हैं,
मैं उसके
पैर दाबूं,
जो इन दो
में न बंधे—मैं
उसका बंदा।
"देह
धरे इन मांहि
बास कहु
कैसे छूटे।'
लेकिन
सवाल यह है कि
देह में रहते
हुए, देह में
बसते हुए, इनसे
कैसे संबंध
छूटे? लोभ,
काम कैसे
छूटे? यह
बड़ा गहन है।
क्योंकि देह
में हम हैं ही
इसलिए कि अतीत
में हमने
कामना की
जन्मों—जन्मों
तक हमने वासना
जुटाई, उसके
कारण ही हम
देह में हैं।
इसलिए तो
ज्ञानी को फिर
देह नहीं है; उसका
पुनरागमन
समाप्त है, उसका आना—जाना
बंद।
हम देह
में आए ही
इसलिए हैं कि
हमने न मालूम
कितनी वासना
इकट्ठी की है, और हम देह को
चाहे हैं।
मरते वक्त भी
आदमी चाहता है,
और दो क्षण
रुक जाऊं।
मरते वक्त भी
नए जन्म की आकांक्षा
रहती है, फिर
जन्म—जन्म की
आकांक्षा
रहती है—फिर
जन्म पा लूं।
वही आकांक्षा
नए जन्म में
ले आती है, नई
देह में ले
आती है।
काम के
कारण हम देह
में हैं। देह
का कण—कण
कामवासना से
बना है।
तीन
वासनाएं
तुममें मिल
रही हैं। तुम
एक संगम हो महावासनाओं
के। एक
तुम्हारी
वासना जो कि
मूल आधार है, जिससे तुम पिछले
जन्म से इस
जन्म में आए।
फिर तुम्हारे
पिता की वासना,
तुम्हारी
मां की वासना,
जिन दोनों
ने मिलकर
तुम्हें देह
दी। इन तीन वासनाओं
से तुम बने
हो। तुम्हारी
देह इन तीन
वासनाओं का
संगम है। दो
तो दिखाई पड़ती
हैं, जैसे
गंगा और
यमुना। तीसरी
सरस्वती
दिखाई नहीं
पड़ती। दो तो
दिखाई पड़ते
हैं—तुम्हारे
पिता और
तुम्हारी
माता, और
तीसरी
तुम्हारी
वासना
सरस्वती की
तरह दिखाई
नहीं पड़ती। वह
असली है। ये
दो तो सहयोगी
हैं। क्योंकि
तुमने न चाहा
होता तो
तुम्हारे पिता
और तुम्हारी
माता की वासना
तुम्हें इस
जगत में न ला
सकती। तुमने
चाहा, उनकी
वासना सहयोगी
बन गई—"तुम
गर्भस्थ हुए।'
तुम्हारे
शरीर का रोआं—रोआं, कण—कण वासना
से बना है।
और लोभ—इसे
थोड़ा समझ लेना
चाहिए कि और
सब लोभ शरीर
के प्रति
हमारी जो लोभ
की दृष्टि है, उसी के
फैलाव हैं।
तुम अपने घर
के प्रति लोभी
हो। क्यों? जो व्यक्ति
अपने शरीर के
प्रति लोभ छोड़
देता है, उसका
घर के प्रति
लोभ अपने—आप
छूट जाता है।
क्योंकि शरीर
ही मूल घर है।
फिर बाहर का
घर तो इसी घर
के लिए सुविधा
है। जो व्यक्ति
शरीर के प्रति
लोभ छोड़ देता
है उसका सोने
के प्रति लोभ
छूट जाता है।
क्योंकि सोना
तो फिर इसी घर
की सजावट है।
और जो इस शरीर
के प्रति लोभ
छोड़ देता है, धन—संपत्ति
से उसका लोभ
अपने—आप छूट
जाता है, क्योंकि
उस सबका उपयोग
इस शरीर के
लिए ही है।
तो
शरीर
तुम्हारे काम
और तुम्हारे
लोभ का आधार
है। इसलिए जगत
में एक बहुत
बड़ा चमत्कार
है! अनेक बार
बुद्ध से पूछा
गया है कि जब
आपकी वासना खो
गई, जब आपको
ज्ञान का
आविर्भाव हो
गया, जब
बुद्धत्व को
उपलब्ध हो गए,
तो फिर आप
शरीर में कैसे
जी रहे हैं? यह प्रश्न
संगत है
क्योंकि अब
कोई कारण नहीं
रहा है; न
शरीर के प्रति
वासना है, न
कामना है, न
लोभ है। अब आप
शरीर में कैसे
हो?
कठिन
है समझना।
लेकिन
बुद्ध कहते
हैं, अतीत के
बल के कारण—मोमेन्टम;
जैसे एक
आदमी साइकल
चलाता है, पैडल
चलाता है, तो
ही साइकल चलती
है, फिर
पैडल रोक लेता
है तो भी कुछ
दूर तक साइकल
चलती जाती है।
मोमेन्टम—वह
जो गति इतनी
देर तक चलाने
से पहियों को
मिल गई है, अब
पैडल की जरूरत
नहीं है। कुछ
यात्रा बिना
पैडल के भी हो
जाती है।
लोभ और
काम, ये दो
शरीर के पैडल
हैं। इन दोनों
से ही शरीर टिका
है। इसलिए
बुद्ध—पुरुष
भी जी जाते
हैं थोड़े दिन;
लेकिन उनका
जीना बड़ा कठिन
हो जाता है।
लोग आमतौर से
सोचते हैं कि
बुद्ध—पुरुष
बहुत स्वस्थ
होंगे। गलत
है। बुद्ध—पुरुष
बड़ी मुश्किल
में जी पाते
हैं।
जैसा
तुम्हें पता
होगा—अगर तुम
साइकल चलाते
हो, चलती है,
लेकिन कब
गिरी, कब
गिरी। बिना
पैडल के भी
थोड़ी चलती है,
लेकिन कभी
भी गिरना बना
रहता है।
बुद्धपुरुष
का संबंध शरीर
से तो टूट
जाता है। अब
वह शरीर में
ऐसे है जैसे
नहीं है। ऐसे
जैसे तुम
वृक्ष की जड़ें
उखाड़ लो
तो भी दो—चार
दिन हरा रह
जाता है—बस!
जड़ें तो टूट
गईं हैं जमीन
से लेकिन
वृक्ष दो—चार
दिन हरा रह
जाता है। इतनी
संचित जल—राशि
उसके भीतर है
जिससे हरा रह
जाता है—संचित
बल है अतीत का
जिससे हरा रह
जाता है।
बुद्ध
भी, महावीर, रमण, रामकृष्ण—ऐसे
ही शरीर में
रहते हैं...!
रामकृष्ण
कैंसर से मरे।
रमण भी कैंसर
से मरे। बड़ी
हैरानी मालूम
होती है कि
रमण और
रामकृष्ण अगर
कैंसर से मरते
हैं तो बड़ा
अन्याय है।
अन्याय वगैरह
कुछ भी नहीं
है; सीधी बात
साफ है कि अब
शरीर में कोई
भीतरी बल नहीं
है, किसी
तरह चल रहा
है। इसलिए
किसी तरह की
बीमारी के लिए
आधार हो सकता
है। क्योंकि
भीतर का धक्का
तो अब बंद हो
गया है; अब
तो पुराने
धक्के पर चल
रहा है। ऐसा
समझो कि मूलधन
तो चुक गया है,
ब्याज से जी
रहा है।
"देह
धरे इन मांहि
बास कहु
कैसे छूटै।'
और फिर
देह है, काम
और लोभ से बना
उसका सारा रूप
है, आकार
है—फिर कैसे
इनसे संबंध
छूटे?
सूत्र
याद रख लेना: "सीव भए
ते ऊबरे, जीवत ते लूटै।'
जो मुर्दे
की भांति हो
गए, वे उबर
गए और जो जीए
वे लुटे।
"सीव भए
ते ऊबरे'—शव हो गए जो
वे उबर गए।
"जीवत ते लूटै'—और जो जीते
रहे, वे
लुट गए।
जीसस
ने कहा है, "बचाओगे—खो दोगे।
खोने को राजी
हो—कोई तुमसे
छीन नहीं
सकता। जियोगे—मरोगे।
मरने को राजी
हो—अमृत
तुम्हारा है।'
कायर
हजार बार मरता
है—कहते हैं—बहादुर
एक बार। कायर
रोज मरता है, मरने से
डरता है, हर
घड़ी मौत मालूम
होती है; साहसी
एक बार।
क्योंकि जैसे
ही कोई मरने
को राजी हो
गया है इस
संसार के
प्रति, उसने
कहा, अब
मैं ऐसे जिऊंगा,
जैसे
मुर्दा, वैसे
ही कोई फिर
मौत नहीं है।
क्योंकि ऐसी
प्रतीति में
तत्क्षण भीतर
के अमृत का
अनुभव हो जाता
है।
मरने
की कला धर्म
है। इसलिए मैं
कहता हूं कि मैं
मृत्यु
सिखाता हूं।
कुछ और सिखाने
योग्य है भी
नहीं। जीवन तो
तुम सीखे
ही हो, जरूरत
से ज्यादा सीख
गए हो; इतना
सीख गए हो कि
अब उसको अन—सीखा
करना मुश्किल
हो रहा है।
मृत्यु सीखनी
है।
धर्म
मृत्यु की कला
है; और तुम
चाहो तो कह
सकते हो, अमृत
की कला भी।
क्योंकि इधर
मरे, उधर
अमृत हुए। इधर
तुमने संसार
की तरफ से आंख
बंद की कि
अपनी तरफ आंख
खुली। और आंख
एक ही तरफ खुल
सकती है—या तो
बाहर देखो, या भीतर; दोनों
तरफ एक साथ न
देख सकोगे।
कैसे देखोगे?
दृष्टि या
तो बाहर जा
रही है तो तुम
बाहर यात्रा
कर रहे हो, तब
अपनी तरफ पीठ
है। इसलिए
अमृत का पता
नहीं चलता, कि तुम कौन
हो।
जब
जीवन—ऊर्जा
भीतर की तरफ
जा रही है—दृष्टि
भीतर मुड़ती
है, अंतर्मुखी
होती है—तो
आंख बंद हो
जाती है, सब
द्वार बंद हो
जाते हैं।
बाहर तुम अब
नहीं जा रहे
हो; अब तुम
उन्मुख हो
अपनी तरफ; अब
तुम अपने
सन्मुख हो—तत्क्षण
अमृत की वर्षा
हो जाती है।
सहजोबाई
ने कहा है, "उस घड़ी में—"बिन
घन परत फुहार'।' कोई
बादल नहीं
दिखाई पड़ता और
अमृत की वर्षा
होती है। "बिन
घन परत फुहार।
रोआं—रोआं नहा
जाता है।
परमात्मा में
स्नान हो जाता
है।'
एक ही
तीर्थ है—वह
तुम हो। लेकिन
तुम अपनी तरफ
पीठ किए चल
रहे हो।
"सीव भए
ते ऊबरे, जीवत ते लूटै।'
क्या
करो, कैसे करो,
कि तुम जीते—जी
मुर्दा हो जाओ?
ऐसा
हुआ रूस में
एक बहुत बड़ा
विचारक और
लेखक हुआ—दोस्तोवस्की।
वह जब जवान था
तो क्रांति के
कारण पकड़ा गया
और जार ने उसे
मृत्यु का दंड
दिया। दस और
साथी थे, सब
को मृत्यु का
दंड मिला। एक
दिन सुबह छः
बजे उनको गोली
मार देने का
तय था। गङ्ढे
खोल दिए गए।
दसों को गङ्ढों
के ऊपर खड़ा कर
दिया गया।
सैनिक संगीनें
लेकर खड़े हो
गए। चर्च की
घड़ी में देख
रहे हैं कि
जैसे ही छः का
घंटा बजे और
कांटा छः बजाए,
गोली मार दी
जाए। एक—एक पल
भारी हो गया
होगा। पांच मिनट
बचे, चार
मिनट बचे, दो
मिनट बचे—कि
एक मिनट बचा—कि
अब सेकंड—सेकंड
का हिसाब होने
लगा होगा।
सबकी आंखें घड़ी
पर टिकी हैं।
छः बजे घड़ी का
घंटा हुआ।
गोली चलती
इसके पहले एक घुड़सवार
आया, भागा
हुआ। संदेश
दिया कि
मृत्यु की सजा
आजीवन कारावास
में बदल दी गई
है। लेकिन
जैसे ही छह की
घड़ी का घंटा
बजा, एक
आदमी तो गिर
गया, यह
सोचकर कि मरे,
मर गए, खत्म
हुआ मामला। एक
आदमी तो गिर
गया। खबर दे दी
गई कि घबराइए
मत, आजीवन
कारावास में
बदल दी गई है
सजा।
लेकिन
वह आदमी
जिंदगी भर
जिंदा रहा, लेकिन और ही
ढंग से जिंदा
रहा। वह लोगों
से कहता, मैं
तो मर गया।
लोग उसे पागल
समझते। लोग
उसका मजाक
उड़ाते। लेकिन
उस आदमी की
जिंदगी में
क्रांति हो
गई। न लोभ रहा,
न मोह रहा, न कोई लगाव
रहा, न कोई
आसक्ति रही; रहता, चलता,
उठता, बैठता,
काम करता—लेकिन
जब भी कोई
उससे पूछता तो
वह कहता कि
फलां तारीख को
सुबह छह बजे
मैं मर गया।
अचानक
वह आदमी संन्यस्थ
हो गया।
दोस्तोवस्की
भी उनमें एक
था। उसने भी
लिखा है कि उस
घड़ी के बाद
मैं दूसरा ही
आदमी हो गया।
क्योंकि
पक्का ही मान
लिया था कि
मौत होने ही
वाली है। छह
बजते बजते
साफ हो गया था
कि बस खत्म हो
गए। फिर बच
गए। लेकिन उस
घड़ी जो खत्म
होने का भाव
हो गया, वह
क्रांति ले
आया।
संन्यस्थ
ऐसी ही भावदशा
है कि
तुम्हारा बोध
एक ऐसी जगह आ
जाए, जहां तुम
इस बात को ठीक
से समझ लो कि
इस जिंदगी में
कुछ भी पाने
जैसा नहीं है।
इस जिंदगी में
सिवाय मौत के
और कुछ मिलता
ही नहीं है।
बोध इतना सघन
हो जाए कि तुम
अपने हाथ से
ही कह दो कि हम
मर गए। उसी
दिन से तुम जल
में कमलवत हो
जाओगे। चलोगे,
काम करोगे,
उठोगे, बैठोगे;
लेकिन जीवन
का जो स्वाद
है, जो रस
है, वह खो
जाएगा; बाहर
की तरफ जो दौड़
है वह मिट
जाएगी; रहे
तो ठीक, न
रहे तो ठीक—सब
बराबर हो
जाएगा।
कभी
इसका छोटा—सा
प्रयोग करो—एक
सात दिन के
लिए ही सही—कि
सात दिन के
लिए ऐसे जियोगे
जैसे मर गए।
कोई गाली देगा
तो क्रोध का
कोई उपाय नहीं; क्योंकि तुम
मर गए। कोई
जेब से पैसे
निकाल ले तो
क्या करोगे?
ऐसा
हुआ कि मुल्ला
नसरुद्दीन
अपनी पत्नी से
पूछता था कि
इस बात का
पक्का कैसे होता
होगा, जब
आदमी मर जाता
है, उसको
खुद को कि मैं
मर गया? वह
कभी—कभी बड़े
दार्शनिक
सवाल उठा लेता
है। पत्नी ने कहा,
"सिर न खाओ
और बेकार की
बातें मत
उठाओ। जब मरोगे,
तब पा चल
जाएगा। हाथ—पैर
ठंडे हो
जाएंगे।'
अब और
क्या कहे?
एक दिन
गया था जंगल
में लकड़ी
काटने, सर्दी
के दिन थे और
ठंडी हवा चल
रही थी, हाथ—पैर
ठंडे होने
लगे। उसने कहा,
मारे गए। कुल्हाड़ी
नीचे पटककर
जैसा कि
मुर्दा आदमी
को करना चाहिए
वह जल्दी से
लेट गया। अपने
गधे को जिस पर
लकड़ी ले जानी
थी उसने वृक्ष
से बांध रखा
था। वह लेट
गया, आंखें
बंद की लीं, उसने कहा, अब कुछ करने
को नहीं बचा; मामला ही
खत्म। अब घर
खबर भी नहीं
भेज सकते, काई
है ही नहीं, और हाथ—पैर
ठंडे हो रहे
हैं। जाहिर है,
पत्नी ने
ठीक कहा था।
वह बिलकुल मर
गया। तभी दो भेड़िये आ
गए और
उन्होंने
हमला किया गधे
पर। मुल्ला नसरुद्दीन
ने कहा, "अब
क्या कर सकता
हूं? काश!
आज जिंदा होता
तो यह भेड़िये
मेरे गधे के
साथ ऐसा
व्यवहार न कर
पाते। मगर अब
बात खत्म हो
गई।'
अगर
तुम सात दिन
के लिए भी सोच
लो कि मर गए, तुम्हें
जीवन का एक
नया दर्शन
होगा। कोई
गाली देगा, तुम सुनोगे—करोगे
क्या? जब
मर जाओगे और
कब्र में पड़े
रहोगे और कोई
आदमी आकर गाली
देगा तो क्या
करोगे?
च्वांगत्सु
एक मरघट से
निकलता था, एक खोपड़ी
में लात लग
गई। किसी की
खोपड़ी पड़ी थी।
उसने बड़ी
क्षमा मांगी।
उसके शिष्यों
ने कहा, "क्या
ना—समझी कर
रहे हो? बुढ़ापे
में सठिया गए?
इस खोपड़ी से
क्या माफी
मांगनी है?'
च्वांगत्सु
ने कहा, "यह
कोई छोटे
लोगों का मरघट
नहीं है; सिर्फ
राजा—महाराजा
यहां दफनाए
जाते हैं। पता
नहीं कौन हो
और पीछे झंझट
दे।' उन्होंने
कहा, "अरे,
यह मर चुका
है। यह राजा
हो कि महाराजा,
या भिखारी—सब
बराबर। मौत
बिलकुल
समाजवादी है।
तुम इसकी फिक्र
छोड़ो।
तुम्हारा
दिमाग खराब हो
गया है? इतने
बड़े ज्ञानी
पुरुष...?'
लेकिन
च्वांगत्सु
खोपड़ी को साथ
ले आया। जिंदगी
भर उसने उसको
अलग न किया।
उसको हमेशा
बगल में रखे
रहता। लोग
कहते कि जरा
अच्छा नहीं
मालूम पड़ता, भद्दा लगता
है यह। आप
क्या करते हो
यह?
च्वांगत्सु
कहता, "इससे
मुझे याद बनी
रहती है कि, आज नहीं कल, मेरी खोपड़ी
मरघट में पड़ी
होगी। तुम
जैसे लोग निकलेंगे
तो माफी भी
नहीं मांगेंगे,
पैर मार
देंगे और मैं
कुछ भी न कर
सकूंगा। तो क्या
फर्क है, आज
भी कोई सिर
में मार जाता
है, तो मैं
उस खोपड़ी की
तरफ देख लेता
हूं। खोपड़ी तो
यही है। अभी
चमड़ी से दबी
है, ढकी है;
कल चमड़ी से
ढकी नहीं होगी,
और क्या
फर्क होगा? और जब
जिंदगी तो
सत्तर साल की,
अस्सी साल
की है, लेकिन
खोपड़ी पड़ी
रहेगी, न
मालूम कितनी
सदियों तक
मरघट में!
कितने लोग निकलेंगे!
कितने लोग
ठोकर मारेंगे!
कोई क्षमा भी
न मांगेगा।
जब अनंत काल
तक यह व्यवहार
होना ही है, तो सत्तर
साल के लिए
क्यों व्यर्थ
विवाद उठाना!'
सात
दिन के लिए भी
अगर तुम तय कर
लो, तुम
दुबारा वही
आदमी न हो
सकोगे। खेल—खेल
में भी अगर
तुम यह तय कर
लो सात दिन के
लिए कि मैं मर
गया हूं, तो
भी तुम पाओगे
कि एक नई समझ
का जन्म हुआ।
लेकिन
जो लोग जीवन
के अनुभव से
जानकर मृतवत
हो जाते हैं, उनका तो
कहना क्या! तब
वे जीते हैं, जहां तुम जी
रहे हो, तुम
जैसे ही जीते
हैं, सब
काम करते हैं,
जो जरूरी है
वह होता है; लेकिन उनके
जीवन में फिर
उन्माद नहीं
रह जाता। लोभ,
काम, क्रोध
उनके जीवन से
तिरोहित हो
जाते हैं। क्योंकि
लोभ, काम, क्रोध तो
जीवन की
आकांक्षा के
हिस्से हैं।
जीवेषणा, लस्ट
फार लाइफ—वह
जो जीने की
आकांक्षा है,
वही तो लोभ,
काम, क्रोध
बन गई है। और
जब तुम अपनी
तरफ से ही मर
रहे, अपनी
मौत से ही मर
रहे, तो
कैसा लोभ, कैसा
काम? कुछ
करना नहीं
पड़ता, वे
अपने—आप ही खो
जाते हैं।
इसलिए
इसको मैं कहता
हूं कुंजी:
"सीव भए
ते ऊबरे, जीवत ते लूटै।'
"एक एक सूं
मिलि रह्या
तिनही
सचु पाया।' और जो बाहर
के जगत के लिए
मर गया, वह
भीतर के जगत
के लिए जाग
गया। जो बाहर
के जगत के लिए
सो गया, वह
भीतर के जगत
में
प्रतिष्ठित
हो गया। और
वहां जो मिलन
हो रहा है, वह
मिलन है एक का
एक से। बाहर
जो मिलन है, वह एक का
अनेक से। भीतर
जो मिलन है, वह एक का एक
से है।
"एक एक सूं
मिलि रह्या
तिनही
सचु पाया।'
और
अनेक झूठ हैं—जैसे
अनेक लहरें
सागर की झूठ
हैं; एक सागर
सच है। लहरें
बनेंगी, मिटेंगी; सागर रहेगा।
जो सदा रहे
वही सच है। जो
बने और मिटे
वह सपना है।
अनेक असत्य है,
एक ही सत्य
है।
"एक एक सूं
मिलि रह्या
तिनही
सचु पाया।'
जो एक
से मिल गया, उसने सत्य
पा लिया।
"प्रेम
मगन लौलीन मन
सो बहुरि न
आया।।'
और
वहां जो घटना
घटती है, वह
बड़ी अनूठी है।
प्रेमी, प्रेम—पात्र
दोनों ही वहां
मिट जाते हैं
और प्रेम ही
शेष रह जाता
है।
जब
प्रेमी मिलता
है, इस संसार
में भी बाहर
किसी प्रेम—पात्र
से तो वे दो हो
जाते हैं। और
फिर जीवन भर यही
तो कोशिश होती
है कि किस
भांति एक हो
जाएं, और
नहीं हो पाते।
इसलिए जीवन
में दुख और
पीड़ा होती है।
वह हो ही नहीं
सकता बाहर। एक
होने का कोई
उपाय नहीं, कितनी ही
चेष्टा करो।
जितनी चेष्टा
करो उतनी असफलता
हाथ लगेगी।
इसलिए प्रेमी
बड़े दुखी हो जाते
हैं। उनकी
आकांक्षा तो
सच है। वहां
वे आकांक्षा
को पूरा करने
की चेष्टा कर
रहे हैं, वह
स्थान गलत है।
वह आकांक्षा
भीतर तृप्त
होगी। उनकी
प्यास तो सही
है, लेकिन
जिस सरोवर पर
वे बैठे हैं, वह सूखा है, वहां जल
नहीं है।
जैसे
ही कोई भीतर
आया, वहां
तत्क्षण जैसे
एक ज्योति आए,
और दूसरी
ज्योति से
मिलकर एक हो
जाए। दो दीयों
की ज्योतियों
को पास रखो, दीये तो दो
ही रहेंगे, ज्योतियां एक हो जाती
हैं। दीये तो
कैसे एक हो
सकते हैं? दीया
तो अनेक की
दुनिया का
हिस्सा है।
शरीर
दीया है
मिट्टी का।
उसके भीतर
जलती आत्मा की
ज्योति है।
तुम दीयों को
एक करने की
कोशिश कर रहे
हो, बड़ी
मुश्किल में
रहोगे, अड़चन
ही अड़चन हाथ
लगेगी, असफलता
अंत में, विषाद,
संताप, चिंता,
रोग...; लेकिन
कभी तुम
स्वस्थ न हो
पाओगे।
ज्योति मिल
सकती है, क्योंकि
ज्योति
निराकार है।
एक
ज्योति दूसरी
ज्योति के
आकार से
टकराती नहीं
है; आकार है
नहीं। एक
ज्योति दूसरी
ज्योति में ऐसे
लीन हो जाती
है जैसे वह
सदा से एक थी।
तुम फर्क भी न
कर पाओगे।
गंगा और यमुना
भी मिलती है
तो तुम फर्क
कर सकते हो कि
यह रही गंगा, यह रही
यमुना, रंग
अलग—अलग; लेकिन
जब दो ज्योतियां
मिलती हैं तो
तुम कोई फर्क
न कर पाओगे।
अंर्तज्योति!
जब तुम भीतर
जाते हो, अचानक
एक लपक—और
सिर्फ एक बचा।
वहां न प्रेमी
है न प्रेयसी है,
न भक्त है न
भगवान है; सिर्फ
प्रेम ही बचा,
ऊर्जा बची,
ज्योति
बची।
"प्रेम
मगन लौलीन मन
सो बहुरि न
आया।' और
जो ऐसा प्रेम—मग्न
हो गया, वह
फिर दुबारा
नहीं आता।
उसके आने की
जरूरत न रही, उसका पाठ
पूरा हो गया।
"कहै
कबीर निहचल
भया, निरभै पद पाया।'
और जो
ऐसे अंतस में
प्रवेश कर गया, उसकी ज्योति
थिर हो गई, अब
उसमें कोई
कंपन नहीं—निश्चल!
कोई हवा के
झोंके अब उसे कंपाते
नहीं; क्योंकि
भीतर कोई हवा
के झोंके
पहुंचते ही नहीं।
जब तक
तुम बाहर हो, तब तक तुम
कंपते ही
रहोगे। वहां
हजार तूफान चल
रहे हैं।
लेकिन जब तुम
भीतर अपने घर
में लौट आए, वहां कोई
तूफान कभी
नहीं पहुंचता।
वहां निश्चल...!
"कहै
कबीर निहचल
भया, निर्भय
पद पाया।' और
जब चेतना
निश्चल होती
है, तभी
निर्भय होती
है; इसके
पहले निर्भय
हो नहीं सकती,
भय से कंपती
रहती है।
"संसा
ता दिन का गया,
सतगुरु
समझाया।'
कबीर
कहते हैं, जिस दिन
सतगुरु ने यह
बात समझा दी, यह कुंजी
थमा दी, उसी
दिन सब शंका
मिट गई; उसी
दिन सब मन के
संदेह खो गए।
लेकिन
समझ बड़ी कठिन
है। बुद्धि की
समझ का नाम
समझ नहीं। तुम
समझ रहे हो जो
मैं समझा रहा
हूं, इसमें
कोई अड़चन नहीं
है, बात
सीधी साफ है।
तुम्हारी
बुद्धि कहती
है, ठीक है;
मगर इससे
तुम्हारा
संशय न मिटेगा।
अभी कहेगी, ठीक है; घड़ी
भर बाद हजार
संशय खड़ी कर
देगी।
क्योंकि बुद्धि
की समझ असली
समझ नहीं है।
जब तुम अपने
तन—प्राण से, जब तुम हृदय
से, जब तुम
अपनी समग्रता
से समझोगे—तभी।
सदगुरु
के समझाने से
नहीं; तुम्हारी
समग्रता की
समझ से...। सदगुरु
तो समझाते रहे
हैं और तुम न
मालूम कितने सदगुरुओं
को पा कर आए हो
और समझे नहीं।
तुम्हारी
समग्रता से, प्राणपन से, तुम्हारे
पूरे
अस्तित्व से
जब तुम
समझोगे...।
"संसा
ता दिन का गया,
सतगुरु
समझाया।'
समझाने
को कुछ है भी
नहीं; छोटी—सी
बात है:
"कस्तूरी
कुंडल बसै!'
आज
इतना ही।
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