ओशो
का पुणे आना
हो गया। और
आश्रम में ही
सक्रिय ध्यान
शुरू हो गया।
पुणे का कोरेगांव
पार्क इलाका
पुराने जमाने
के राजा महाराजाओं
और धनिक लोगों
का इलाका है, चारों
तरफ इनके
बंगले बने हैं।
जब सुबह—सुबह
ओशो सक्रिय
ध्यान की
शुरुआत हुई और
दूसरे चरण में
लोगों ने
चीखना—चिल्लाना
शुरू किया तो
स्वाभाविक ही
आस—पड़ोस के
लोगों ने पुसिल
में शिकायतें की।
इस
संदर्भ में
पुणे के
कमिश्नर साहब
ने पत्र भेजा
कि हम से आकर
मिलें) तो मैं
कमिश्नर साहब
से मिला।
मैंने उन्हें
कहा कि 'साहब
जब एक घर में
तीन—चार लोग
रहते हैं तो
थोड़ी बहुत
आवाजें तो
होती ही हैं।
हम जिस घर में
रहते हैं वहां
तो हजारों लोग
रहते हैं तो
आवाजें तो
होगी ही ना।
आप स्वयं आकर
देख लें कि हम
कितनी शांति
और अनुशासन से
रहते हैं।’ और कमिश्नर
साहब ने आने
का बोल दिया।
मैंने
सोचा कि जब वे
आएंगे तो टेप
का वाल्यूम
कम कर देंगे, लोगों
को समझा देंगे।
जब मैं ओशो से
मिलने गया तो
ओशो ने कहा, 'कल से
सक्रिय ध्यान को
बदल दो, सिर्फ
मुद्राओं
द्वारा जैसे
कि कथक में
मुद्राओं
द्वारा सब कुछ
अभिव्यक्त
किया जाता है,
वैसे ही
दूसरे चरण में
मुद्राओं
द्वारा अपनी भाव—
भंगिमाओं को,
हंसी को, क्रोध को, रोने को
अभिव्यक्त कर
दो। हूं..हूं...हूं..की
भी आवाजें
नहीं निकालें
सिर्फ नाभि पर
चोट करें।’
दूसरे
दिन कमिश्नर
साहब आश्रम का
मुआयना करने
आए। जब वे आए
तो चारों तरफ
बड़ी शाति थी, बुद्धा
हाल में लोग
धीमे से
प्यारे से
संगीत पर
नृत्य कर रहे
थे। कमिश्नर
साहब को अच्छा
लगा।
उन्होंने कहा,
'पड़ोसियों को तो हमेशा
ही शिकायत
होती है। कोई
बड़ी बात नहीं
है।’ इस तरह
से उस समय से
लेकर जब तक कि
हमारा नया
ऑडिटोरियम
तैयार नहीं
हुआ सक्रिय
ध्यान वैसे ही
हुआ।
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