कितने
आश्चर्य की
बात है कि ओशो
जैसे
रहस्यदर्शी
को इस विशाल
पृथ्वी ग्रह
पर अपने लिये
एक छोटा—सा
स्थान बनाना
कठिन हो रहा
था। मनुष्यता
की बेहोशी पर
कभी आश्चर्य
भी होता और
कभी दुख भी होता
कि क्या कभी
ऐसा समय भी
आएगा जब हम
बुद्ध पुरुषों
को जीते जी वह
सम्मान दे
पाएंगे जो हम
उनके देह से
जाने के बाद
देते हैं? ओशो
मुंबई में
ठहरे थे और
उनके लिए नई
जगह ढूंढना
जारी था लेकिन
बात नहीं बन
रही थी। एक दिन
मैंने ओशो से
कहा कि पुणे
चलें?
तो
उन्होंने ना
कर दी। बोले, 'वहां बहुत
विरोध होगा और
फिर एक बार
मैं किसी जगह
को छोड़ देता
हूं तो दोबारा
जाना पसंद
नहीं करता।’ समय निकलता
रहा। एक दिन
मैंने सोचा कि
एक बार और पूछ
कर देखूं
रोज ओशो को
सुनने तो जाते
ही थे। ओशो को
फिर आमंत्रण
दिया और अब
ओशो ने हां कर
दी। जो दिन तय
हुआ था उससे
एक दिन पहले
ओशो पुणे आ गये।
इस
बीच हम से
गलती कहो या
होशियारी
हमने पुलिस से
पूछ लिया था
कि ओशो आ रहे
हैं और उनकी
सुरक्षा की
जाए। वो तो इस
ताक में थे कि
ओशो को
गिरफ्तार कर
लें। आधी रात
को ओशो पुणे
आकर अपने कक्ष
में सो रहे थे
और पुणे के कमिश्नर
आ गए और बोले
कि 'ओशो कहां है,
हमें उनसे
मिलना है।’ हमने हर तरह
से बात करने
की कोशिश की
लेकिन मानने
को ही तैयार
नहीं थे। सब
तरह के निवेदन
करने के
बावजूद वो
मानने को तैयार
नहीं थे। हमने
हर तरह का
बहाना बनाया
लेकिन अंततः
उन्हें ओशो के
कक्ष में ले
जाना पडा। ओशो
सो कर उठे ही
थे और पुलिस
कमिश्नर ने
अपनी जेब से
कागज निकाल कर
पढ़ कर सुनाया
कि 'आधे
घंटे के भीतर
पुणे छोड़
दीजिए।’ ओशो
लेटे हुए थे, उसने कागज
ओशो की तरफ
फेंक दिया।
ओशो ने कागज
बिना देखे फाड़
कर फेंक दिया।
इससे हमें भी
जोश आ गया।
मैं
पुलिस
कमिश्नर से
मिलने गया।
मैंने अपना
स्वभाव वाला
विजिटिंग
कार्ड भेजा तो
उन्होंने
मिलने से मना
कर दिया। तब
मैंने अपना
पुराना
विजिटिंग
कार्ड जिस पर मेरा
वैधानिक नाम
हरीश मल्होत्रा
था,
वह भेजा तो
उन्होंने
मिलने को बुला
लिया। भीतर
गया तो मुझे
देख कर वे
बोले तो आप
हैं। मैंने
उन्हें कहा कि
'ओशो
भारतीय
नागरिक हैं।
हम कई साल
पुणे रहे हैं,
हमने कभी
कोई हिंसा
नहीं की।’ थोड़ी
देर बाद कहा
कि 'ठीक
तीन बजे आ
जाना।’ मुंबई
में हमारे
वकील थे
मिस्टर जेठमलानी
उन से बात हुई
तो उन्होंने
बताया कि ओशो
का केस जिस
न्यायाधीश के
पास है वह ओशो
का कट्टर
विरोधी है तो
बस जैसे—तैसे
समय निकालो
और तब तक केस
को कहीं और ले
जाएंगे। तीन
बजे कमिश्नर
साहब से मिलकर
कुछ समय मांग लो।
हम
जब मिले तो
कमिश्नर साहब
ने एक सौ
शर्तें लिखी
हुई थीं और
कहा कि 'यदि
आप इन शर्तों
का पालन करते
हैं तो यहां
रह सकते हैं।’
शर्तें पढ
कर बहुत
आश्चर्य हुआ।
मैंने कुछ
शर्तों पर
असहमति बताकर
बाकी शर्तें
मान ली। ताकि
कुछ दिन तो
निकले। मैंने
हस्ताक्षर कर
दिये। काफी
दिनों तक
पुलिस के साथ
मामले चलते
रहे। आश्रम
चलता रहा। ओशो
बोलते रहे।
फिर पूरी
दुनिया से
मित्रों का
आना शुरू हो
गया। फिर से
कोरेगांव
पार्क की
सडकें
संन्यासियों
से भर उठी।
चारों तरफ
हंसी, खुशी
और मस्ती का
माहौल बन गया
था। उस समय तक
मैं आश्रम
इंचार्ज था।
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