मुझे दोष मत देना!—(प्रवचन—अठारहवां)
दिनांक; २८ जुलाई
१९७९;
श्री
रजनीश आश्रम, पूना।
प्रश्नसार:
1—भगवान,
मैं प्रभु को
पुकारता हूं,
वर्षों से
पुकारता हूं,
नियमित
प्रार्थना
करता हूं, लेकिन
मेरी पुकारों
का कोई उत्तर
कभी मिलता नहीं।
क्या मुझसे
कहीं कोई भूल
हो रही है?
2—मैकशों की
यही आरजू है
साकिया
आज ऐसी पिला
दे
मैकदे
में हैं जितने
शराबी
आज
सबको नामजी
बना दे
3—यह
कैसे पता चले
कि जो हो रहा
है वह प्रभु
की मर्जी से
हो रहा है या
हम आलस्य के
प्रभाव से नहीं
कर पा रहे हैं? कृपा करके
समझाएं।
पहला
प्रश्न:
भगवान, मैं प्रभु
को पुकारता
हूं, वर्षों
से पुकारता
हूं, नियमित
प्रार्थना
करता हूं, लेकिन
मेरी पुकारों
का कोई उत्तर
कभी मिलता नहीं।
क्या मुझसे
कोई भूल हो
रही है?
नारायण
देव, प्रार्थना
अपना उत्तर
स्वयं है।
किसी और उत्तर
की अपेक्षा
में ही भूल
है।
प्रार्थना
साधन नहीं है,
स्वयं
साध्य है।
अपने—आप में
परिपूर्ण है।
तुमने अपने
हृदय को
निवेदित किया,
तुमने अपने
आंसू के फूल चढ़ाए, तुमने
प्राणों का
गीत गाया, उस
गीत में रस है,
उन आंसुओं
में उल्लास
है। उस समर्पण
में ही उत्सव
है। उसके पार
किसी उत्तर की
अपेक्षा कि आकाश
कुछ बोले, कि
उस पार से कोई
उत्तर आए—वहीं
भूल हो रही
है। वैसी
अपेक्षा ही
तुम्हारी प्रार्थना
को पूर्ण नहीं
होने दे रही।
अपेक्षा
वासना का ही
रूप है। और
जहां वासना है, वहां
प्रार्थना
मृत। जहां
वासना नहीं है,
वहां
प्रार्थना
जीवंत।
अपेक्षा है, तो विषाद से भरोगे।
क्योंकि कोई
अपेक्षा कभी
पूरी नहीं
होती।
प्रार्थना तो
मौलिक रूप से
निरपेक्ष
होती है।
प्रार्थना तो
भाव की
निरपेक्ष दशा
है।
फूल
खिले हैं। किस
अपेक्षा में? कोई उत्तर
मिलेगा? तारों
से आकाश भरता
है। किसी
अपेक्षा में?
कोई उत्तर
मिलेगा? नहीं,
यह महोत्सव
अपना उत्तर
स्वयं है। इस
सत्य को जितना
गहरा हृदय में
बैठ जाने दो
उतना अच्छा।
नहीं तो
वर्षों से चूक
रहे हो, जन्मों
तक चूकते
रहोगे।
तुम
सोचते हो कि
प्रार्थना
करने में कोई
भूल हो रही
है। नहीं, प्रार्थना
की पृष्ठभूमि
में भूल है।
तुम प्रार्थना
ही कर रहे हो
आंखों की कोर
से प्रतीक्षा
करते हुए कि
अब आया उत्तर,
अब आया
उत्तर, अब
प्रभु प्रकट
होंगे, कि
अब आकाश से
वाणी झरेगी।
अभी तक नहीं
उत्तर आया!
अभी तक
परमात्मा प्रकट
नहीं हुआ!
तुम्हारी
प्रार्थना
कैसे पूर्ण हो
पाएगी? तुम
तो बंटे—बंटे
हो! आधा मन
प्रार्थना कर
रहा है, आधा
मन किनारे खड़ा
राह देख रहा
है। आधा मन
प्रार्थना कर
रहा है, आधा
मन शिकायत से
भरा है—अब तक
नहीं हुआ! वह
जो शिकायत है,
वह
प्रार्थना पर
पत्थर की तरह
बंधी है। उड़ने
न देगी
प्रार्थना को;
पंख न लगने
देगी
प्रार्थना
को।
जीवन
में कुछ तो
चाहिए ऐसा जो
बस अपना साध्य
स्वयं हो। उस
कुछ को ही मैं
धर्म कहता
हूं। फिर चाहे
तुम गाओ, चाहे
नाचो, चाहे
मौन बैठ जाओ, लेकिन एक
सूत्र को सदा
स्मरण रखो:
तुम्हारे जीवन
में ऐसी कोई
चीज, जिसके
पार कोई
अपेक्षा नहीं
है, वही
धर्म है।
अगर
पार कोई
अपेक्षा है, तो संसार
जारी है। जहां
वासना, वहां
संसार। जहां
वासना, वहां
भविष्य। आज
करेंगे
प्रार्थना, कल उत्तर
आएगा। अभी
करेंगे
प्रार्थना, थोड़ी देर के
बाद उत्तर
आएगा।
तुम्हारी
प्रार्थना
में और उत्तर
में थोड़ा तो
अंतराल होगा;
साधन और
साध्य में
थोड़ा तो भेद
होगा।
जहां
वासना है, वहां तुम
चूक गए इस
क्षण से।
वर्तमान का यह
अपूर्व क्षण
खाली चला गया।
तुम्हारी आंखें
भविष्य में
अटक गईं।
भविष्य तो
रिक्त है, शून्य
है। भविष्य
कभी आया है कि
आएगा! जो आता है,
उसका नाम
वर्तमान है।
और वर्तमान
आया ही हुआ है।
आता है, ऐसा
कहना भी ठीक
नहीं।
जब मैं
कहता हूं
प्रार्थना
अपना लक्ष्य
स्वयं है, तो इशारा कर
रहा हूं, इस
बात की तरफ कि
कुछ क्षण तो
तुम्हारे
जीवन में ऐसे
हों जब तुम बस
अभी और यहीं जीओ। इस
क्षण के न तो
पीछे कुछ हो, न आगे कुछ
हो। यह क्षण
अपने में पूरा
हो। इसकी पूर्णता
में जरा भी, रत्ती भर
भरने को कुछ
शेष न रहे। और
तब तुम चकित
हो जाओगे, प्रार्थना
ही अपना उत्तर
है, प्रेम
ही अपना उत्तर
है। तुम झुक
सके, यही
पर्याप्त है
अनुगृहीत
होने को।
चिंता क्या है?
परमात्मा
कुछ बोले, तब
तुम तृप्त
होओगे!
कभी
तो तुम्हारे नयम बोल
देंगे
रहो
मौन तुम, मैं पुकारा
करूंगा।
सुना
है कि पाषाण
भी बोलते हैं,
कभी
वज्र के भी
अधर डोलते हैं,
जड़े
मंदिरों में
बधिर देवता भी
स्वयं
द्वार की सांकलें
खोलते हैं।
इसी
एक विश्वास पर
कामनाएं—
सहेजा
करूंगा, संवारा
करूंगा।
कभी
तो तुम्हारे नयम बोल
देंगे,
रहो
मौन तुम, मैं पुकारा
करूंगा।
तुम्हें
ध्यान होगा
यहां की प्रथा
का,
मुझे
प्यार की इस
अधूरी कथा का,
इसी
द्वंद्व में
दिन ढले जा
रहे हैं
न
जाने कहां अंत
होगा व्यथा
का।
मगर
तुम भरोसा करो
मैं तुम्हारे—
प्राणों
को हृदय से
उबारा
करूंगा।
कभी
तो तुम्हारे नयम बोल
देंगे,
रहो
मौन तुम, मैं पुकारा
करूंगा।
मुझे
हर सुमन—शूल
पहचानता है,
मगर
क्या करूं, मन नहीं
मानता है,
कभी
एक पल चैन
लेने न देता
नियति
के नियम, आचरण जानता
है।
अगर
मर गए स्वप्न, तो अर्थियों
को—
स्वरों
की धरा पर
उतारा
करूंगा।
कभी
तो तुम्हारे नयम बोल
देंगे,
रहो
मौन तुम, मैं पुकारा
करूंगा।
विदा
की घड़ी पर
लगाना न देरी,
खुली
छोड़ना प्राण
आंखें न मेरी,
चला
आ रहा जो
निशाना लगाए
किसीका
नहीं है, समय का
अहेरी।
उमर
भर अथक एक
क्षण के मिलन
को—
तुम्हारी
डगर में
निहारा
करूंगा।
कभी
तो तुम्हारे नयम बोल
देंगे,
रहो
मौन तुम, मैं पुकारा
करूंगा।
प्रीतिकर
लगते हैं ऐसे
शब्द, सुंदर
लगती हैं ऐसी
कविताएं, मगर
अर्थहीन हैं,
व्यर्थ
हैं। ऐसी
कविताओं में
ही कहीं तुम
भटके हो।
तुम्हारी
प्रार्थना ने
अभी भी उड़ान
नहीं ली, छलांग
नहीं ली। अभी
जमीन पर ही
सरक रही है।
इस तरह की
कविताएं
मनुष्य के
साधारण प्रेम
के लिए तो
शायद सच
हों...फिर भी
कहता हूं:
शायद; थोड़ी—बहुत
सच हों, अंशतः
सच हों...लेकिन
उस परम प्रेम
के लिए तो बिलकुल
झूठ हैं। जब
तक तुम
निहारते
रहोगे, जब
तक तुम
प्रतीक्षा
करोगे, तब
तक मिलन संभव
नहीं है। जिस
दिन निहारना
गया, जिस
दिन
प्रतीक्षा
छूटी, जिस
दिन तुमने
चिंता से ही
मुक्ति पा ली,
जिस दिन तुम
प्रार्थना
में झुके—और
वही क्षण
परिपूर्ण हुआ!
तुम्हारा
झुकना अपने—आप
में पूरा आनंद
बना। तुमने
गीत गाया और
गीत गाने में
ही तुम्हारा
रस हुआ। साधन
ही जिस दिन
साध्य हो गया,
उस दिन
प्रार्थना
पूर्ण हो गई।
और उसी पूर्णता
में परमात्मा
का दर्शन है।
परमात्मा
वर्तमान है और
अपेक्षा
भविष्य है। इन
दोनों का कहीं
मिलना नहीं
होता। कभी
नहीं हुआ है।
नारायण देव, तुम्हारे
जीवन में भी
नहीं होगा।
इतने वर्ष तुमने
व्यर्थ ही
बिताए। अब भी
सचेत हो जाओ।
तुमने
प्रार्थना को
समझा ही नहीं।
तुमने वासना
को ही नए
वस्त्र दे
दिए। पहले धन
मांगते थे, पद मांगते
थे, प्रतिष्ठा
मांगते थे, फिर प्रभु
को मांगने
लगे। मगर मांग
जारी रही। और
मांग तो वही
है, क्या
तुम मांगते हो,
इससे भेद
नहीं पड़ता।
तुम्हारे
हाथों में तो भिक्षापात्र
है। धन मांगो,
भिक्षापात्र तो वही है, मांग भी वही
है, तुम भी
वही हो। कुछ
भी नहीं बदला।
सिर्फ मांगने
की बात बदल गई,
विषय बदल
गया। विषय के
बदलने से
क्रांति नहीं
होती, तुम्हारा
अंतस्तल
बदलना चाहिए।
मांगना ही जाने
दो। तोड़ दो यह भिक्षापात्र।
गिरा दो यह भिक्षापात्र।
मत करो
प्रतीक्षा
किसी उत्तर
की। आकाश कभी
कोई उत्तर न
दिया है, न
देगा। और जब
तुम उत्तर की
अपेक्षा ही न
करोगे, तो
तुम चकित हो
जाओगे। चौंकोगे
बहुत, अवाक
रह जाओगे कि
जिस दिन उत्तर
की अपेक्षा गई,
उसी दिन
प्रश्न भी
गया। क्योंकि
प्रश्न जीएगा
कैसे बिना
उत्तर की
अपेक्षा के? प्रश्न के
प्राण तो
उत्तर में रखे
हैं। उत्तर मगर
गया, प्रश्न
भी मर गया।
प्रार्थना
उत्तर नहीं
लाती, प्रार्थना
निष्प्रश्न
चित्त की दशा
है। प्रार्थना
मांगती नहीं,
प्रार्थना
धन्यवाद है।
जो मिला है, इतना
है...उसके लिए
धन्यवाद देना
है! तुम और मांग
रहे हो! और
मांगना मन का
जाल है।
प्रार्थना आभार
है, कृतज्ञता—ज्ञापन
है। इतना दिया
है तूने!
लेकिन
हम मांगे चले
जाते हैं। इस
लोक की मांग छूटती
है तो परलोक की
मांग शुरू हो
जाती है।
जीवन
का इकतारा
टूटे जाकर
तेरे गांव में,
प्राणों
का यह दीप
बुझे तेरे
आंचल की छांव
में।
आओ
निर्मम! फूल तड़पते
आंसू
की जय—माल के,
कहां
छिप गए हो
छलिया
सांसों
की भांवर डाल
के,
मन
की मीरा दरद
की मारी, बन—बन डोले
बावरी,
देह
मुरलिया गीत तुम्हारे
गाती फिरी
दिशाओं में
आंसू
तुमको अर्ध्य
चढ़ाए
आह
उतारे—आरती,
तुमको
दिल की धड़कन टेरे
तुमको
सांस पुकारती,
सुधि
की लौ को बुझा
नहीं पातीं
आहों की
आंधियां,
यही
दीप है जो
जलता रहता है
तेज हवाओं
में।
मेरी
अंतिम दृष्टि
तुम्हारा
अंतिम
रूप निहार ले,
मेरे
आंसू का अंतिम
कण
तेरे
चरण पखार ले,
अंतिम
हिचकी का स्वर
तेरी पायल को
झनकार दे
अंतिम
रक्तबिंदु
मेंहदी बन रचे
तुम्हारे
पांव में।
जीवन
का इकतारा
टूटे जाकर
तेरे गांव में,
प्राणों
का यह दीप
बुझे तेरे
आंचल की छांव
में।
लेकिन
यह सारा गांव
उसी का है। ये
सब आंचल उसी
के हैं। ये
आकाश में उठे
हुए बादल उसी
के आंचल हैं।
और यह चांदत्तारों
की सजी बारात
उसी की आंखें
हैं। यह फूलों
में जो
मुस्कुराया
है, कौन है? वृक्षों में
जो हरा हो उठा
है, वह कौन
है? पशुओं
में, पक्षियों
में, मनुष्यों
में, मुझ
में, तुम
में जो जाग्रत
है, जो चैतन्य
है, वह कौन
है? हम उसी
के गांव में
हैं। हम उसी
के मंदिर में
विराजमान
हैं। जहां तुम
हो, वहीं
काबा है और
वहीं काशी है
और वहीं कैलाश
है, वहीं
गिरनार है।
कहीं और जाना
नहीं, कुछ
और पाना नहीं।
परमात्मा
मिला हुआ है, इस बोध का
नाम
प्रार्थना
है।
परमात्मा
को पाना है, ऐसी अगर
आकांक्षा है
तो यह
प्रार्थना
नहीं है।
परमात्मा
मिला ही हुआ
है; अब
क्या करें? नाचें, खुशी मनाएं,
जश्न मनाएं,
उत्सव होने
दें।
परमात्मा
मिला ही हुआ
है श्वास—श्वास
में; गीत
गाएं, स्तुति
को जगने दें।
उसकी महिमा, उसका प्रसाद
तो बरस ही रहा
है। और क्या
चाहते हो!
तुम्हारी
भूल, नारायण
देव, सिर्फ
इतनी ही है कि
तुमने
प्रार्थना
बड़ी परंपरागत
ढंग से शुरू
की। और तुम
उसी परंपरागत
प्रार्थना को
यहां आकर भी
किए जा रहे हो!
मेरी
दृष्टि को
समझने की
कोशिश करो।
पूछते
हो तुम: मैं
प्रभु को
पुकारता हूं।
प्रभु को
जानते हो जो पुकारोगे? उसका नाम, पता, ठिकाना
कुछ मालूम है?
राम को
पुकारते
होओगे—धनुर्धारी
राम! कि कृष्ण
को पुकारते
होओगे—मोरमुकुट,
मुरली वाले
कृष्ण! कि
बुद्ध को
पुकारते
होओगे, कि
महावीर को!
मगर ये सब तो
तरंगें ही हैं
उसके सागर की।
उसको
इन्होंने जान
लिया है, इसलिए
इन्हें हमने
भगवान कहा है।
जिसने उसे
जाना, वही
भगवान। तुम भी
भगवान हो, सिर्फ
अपने से
अपरिचित हो, बस इतनी भूल
हो रही है।
सिर्फ अपनी
तरफ पीठ किए
खड़े हो, इतनी
भूल हो रही
है।
किसको
पुकारते हो? उसका कोई
नाम है! उसका
कोई भी नाम
नहीं। किस दिशा
में पुकारते
हो? उसकी कोई
दिशा है! सब
दिशाओं में
वही है। कौन—सा
विधि—विधान है
तुम्हारी
प्रार्थना का?
फूल चढ़ाते
हो शंकर जी की
पिंडी पर? घंटी
बजाते हो? गायत्री
पढ़ते हो? वेद
की ऋचाएं
दोहराते हो? कि कुरान की
आयतें
गुनगुनाते हो?
क्या करते
हो?
यह सब
तो शब्द ही
हैं।
प्रार्थना का
इनसे कुछ लेना—देना
नहीं है।
प्रार्थना तो
मौन समर्पण
है। वहां वेद
भी छूट जाते
हैं, कुरान—बाइबिल
भी छूट जाती
हैं। वहां
हिंदू हिंदू
नहीं होता, मुसलमान मुसलमान
नहीं होता, ईसाई ईसाई
नहीं होता।
प्रार्थना
में प्रार्थी
होता है। वहां
कोई और नहीं
बचता! वहां मन
ही नहीं बचता।
मांगने वाला
गया कि मन
गया। मन है
भिखमंगा। मन
का रूप है: और
मिले, और
मिले, और
मिले...।
तुम
किस प्रभु को
पुकारते हो? आकाश की तरफ
देख कर? पृथ्वी
में वह नहीं
है? आंख
खोलकर
पुकारते हो? आंख बंद करो
तो वह नहीं है?
आंख बंद
करके पुकारते
हो? आंख खोलो
तो वह नहीं है?
कोई विधि—विधान
नहीं है उसे
पुकारने का।
सिर्फ समग्ररूप
से मौन हो
जाने में ही
तुम्हारे
भीतर जो अहोभाव
जगने लगता है—निःशब्द।
तुम्हारे
भीतर ही एक
दीया जलने लगता
है—शून्य का, मौन का; निर्विकल्प;
निर्विचार
का। अकंप उसकी
लौ होती है।
तुम्हारे
भीतर ही एक
सुगंध फूटने
लगती है।
तुम्हारे
भीतर का ही
कमल खिलता है।
वहीं सुगंध
प्रार्थना
है।
प्रार्थना
कोई क्रियाकांड
नहीं है कि
ऐसे की, कि
वैसे की, प्रार्थना
सहज स्फूर्त
आनंद का भाव
है। जहां बैठे,
वहीं हो गई,
जहां खड़े
हुए, वहीं
हो गई। चलते—चलते
हो गई, काम
करते—करते हो
गई। कोई अलग
कोना खोजने की
जरूरत भी नहीं
है। नहाये
तो ठीक, न
नहाए तो ठीक।
प्रार्थना
औपचारिकता
नहीं है।
तुम
कहते हो:
नियमित
प्रार्थना
करता हूं। एक
यंत्रवत बात
हो गई होगी।
रोज—रोज कर
लेते हो, इतने
दिन से करते
हो, लत पड़
गई होगी। नहीं
करते होओगे तो
अड़चन होती होगी।
नहीं करते
होओगे तो वैसी
ही अड़चन होती
होगी जैसे
धूम्रपान
करने वाले को
धूम्रपान
करने न मिले।
चाय पीने वाले
को चाय न
मिले। वैसे
प्रार्थना जो
करता है, उसे
एक दिन
प्रार्थना
करने को न
मिले तो उसे बड़ी
बेचैनी होती
है। कुछ खाली—खाली
लगता है, कुछ
चूका—चूका
मालूम होता
है। कुछ कमी
रह गई। मन लौट—लौट
वहां जाता है।
मन की आदत है
यंत्रवत जीने की—मन
यंत्र ही है।
और यंत्र अपनी
पूरी
प्रक्रिया
चाहता है।
जैसा रोज होता
रहा, वैसा
ही।
मैंने
सुना है, एक
मदारी के पास
एक बंदर था।
वह रोज सुबह
उसे चार चपाती
देता और सांझ
तीन चपाती दीं,
बंदर ने
फेंक दीं। रोज
सुबह चार
मिलती हैं। बंदर
बड़ा नाराज
हुआ! बड़ा
समझाया—बुझाया
तो बंदर ने
बामुश्किल से
तीन लीं। शाम को
चार दीं तो
उसने फेंक
दीं। क्योंकि
शाम को हमेशा
वह तीन खाता
रहा। मदारी तो
बहुत हैरान हुआ।
मदारी ने बहुत
कहा, अरे
मूरख, तुझे
थोड़ा गणित नहीं
आता? चार
और तीन सात।
सात तुझे रोज
मिलती थीं।
सुबह तीन, चार
शाम या चार
सुबह, कि
तीन शाम।
लेकिन बंदर
अकड़ा बैठा
रहा। बंदर तब
तक राजी न हुआ,
जब तक उसे
सुबह चार और
सांझ तीन रोटियां
मिलनी शुरू न
हुईं।
आदमी
का मन भी बंदर
जैसा है। उसे
तुम जो देते हो, वह उसी की मांग
करता है। रोज—रोज
वैसा ही
चाहिए। मन
पुनरुक्ति
करता है।
तो
प्रार्थना भी
एक यंत्रवत
बात हो जाती
है। रोज सुबह
उठकर, स्नान
करके
प्रार्थना
करते हो; स्नान
करके नहीं
करोगे, खाली
जगह रह जाएगी।
जैसे कभी कोई
दांत टूट जाता
है, तो जीभ
वहीं, वहीं—वहीं
जाती है। इतने
दिन से दांत
था, जनम भर
से, जीवन—भर
से, तब से
जीभ वहां नहीं
गई थी। आज
दांत गिर गया,
खाली जगह
में दिन—भर
जीभ जाती है।
तुम लाख जीभ
को समझाओ कि
मालूम है कि
टूट गया, अब
बार—बार क्या
जाना, मगर
फिर भूले कि
जीभ गई!
खाली
जगह अखरती है।
तुमने
प्रार्थना न
की तो प्रार्थना
की कमी अनुभव
होगी। और
करोगे, तो
कुछ मिलेगा
नहीं। आखिर
जीभ को ले
जाओगे टूटे
हुए दांत की
जगह तो क्या
पा लोगे? प्रार्थना
करते रहोगे, कुछ मिलेगा
नहीं, प्रार्थना
नहीं करोगे तो
कुछ खोया खोया
लगेगा—यह बहुत
हैरानी की
घटना घटती है।
इसलिए लोग जो
करते हैं, किए
चले जाते हैं।
लेकिन
अब काफी हो
गया! वर्षों
से पुकार रहे
हो, कुछ हुआ
नहीं। अब
पुकारने का
नया ढंग सीखो।
जिसमें न नाम
है, न
औपचारिक रूप
है। नियमित
प्रार्थना
करते रहे हो
जैसे और सब
काम नियमित
करते हो—स्नान
करते हो, भोजन
करते हो, सोते
हो। अब एक और
प्रार्थना सीखो,
जिसका नियम
से कोई संबंध
नहीं। जो किसी
मर्यादा में
नहीं होती। जो
श्वास की तरह
होती है। जो
अहर्निश चलती
रहती है। उठते—बैठते,
सोते—जागते,
काम करते—न—करते।
लेकिन ऐसी
प्रार्थना का
अर्थ यह मत
समझ लेना कि
मैं तुमसे कह
रहा हूं कि अब
चौबीस घंटे
राम—राम, राम—राम,
राम—राम
जपते रहो।
वैसा करोगे तो
विक्षिप्त हो
जाओगे। वैसा
करोगे तो जो
थोड़ी—बहुत
प्रतिभा होगी,
वह भी खो
जाएगी; जंग
खा जाएगी।
इसलिए
तुम्हारे
तथाकथित
रामनाम जपने
वाले लोगों
में कोई
प्रतीक्षा के
दर्शन नहीं
होते। उनकी
तलवार में कोई
धार नहीं होती; जंग लगी
होती है। यह
तो जंग लगाने
का ढंग है। एक
ही शब्द को बार—बार
दोहराते
रहोगे तो
प्रतिभा को
धार रखने का मौका
ही नहीं
मिलेगा।
प्रतिभा में
धार आती है नए—नए
अनुभव से; नई—नई
प्रतीतियों
से; नई
भूमि तोड़ने से;
नए पर्वत—शिखरों
पर चढ़ने
से; नए
अभियान से; नई यात्रा
से। चौबीस घंटे
राम—राम
दोहराते रहे
तो गाड़ी के
चाक की तरह
घूमते रहोगे
उसी जगह।
कोल्हू के बैल
हो जाओगे।
तो जब
मैं कहता हूं:
अहर्निश, तो
मेरा अर्थ है:
एक भावदशा।
शब्द उतना
नहीं, जितना
भावदशा।
फूल दिखाई पड़े
तो प्रभु को
स्मरण करना; लोग दिखाई
पड़ें तो प्रभु
को स्मरण करना,
सूरज ऊगता
दिखाई पड़े तो
प्रभु को
स्मरण करना।
सब उसका है।
सब इशारे उसके
हैं। सब रूपों
में वही
व्यक्त हो रहा
है। ऐसा कोई
रूप नहीं जो
उसका न हो।
तुम्हारे
शत्रु में भी
वही है, मित्र
में भी वही
है। ऐसा कर
सको तो
प्रार्थना
हो।
और
ध्यान रखना, कहते हो:
मेरी पुकारों
का कोई उत्तर
नहीं मिलता, उत्तर है ही
नहीं। यह जगत
निरुत्तर है।
इसीलिए तो इस
जगत को रहस्य
कहते हैं।
रहस्य का अर्थ
है: इसका कोई
उत्तर नहीं
है। रहस्य का
अर्थ है: उत्तर
खोजते—खोजते
मर जाओगे, उत्तर
नहीं पाओगे।
सदियां हो गईं,
दार्शनिक
खोज रहे हैं
उत्तर; क्या
खाक उत्तर
खोजा जा सका
है! एक जीवन के
मौलिक प्रश्न
का उत्तर नहीं
है। हो ही
नहीं सकता।
यहीं दर्शन और
धर्म का भेद
है। धर्म कहता
है: उत्तर हैं
ही नहीं।
दर्शन कहता
है: और थोड़ा
खोजें तो शायद
मिल जाए
उत्तर। उत्तर
तो नहीं मिलते—और
नए प्रश्न मिल
जाते हैं।
खोदते—चलो, नए—नए
प्रश्न मिलते
जाते हैं।
धर्म कहता है:
उत्तर तो है
ही नहीं, प्रश्न
को भी गिर
जाने दो। और
जिस दिन
प्रश्न गिर
जाता है, उस
दिन तुम
निर्भार हो
जाते हो।
चिंता नहीं रह
जाती। प्रश्न
है तो विचार
है। प्रश्न
नहीं तो विचार
नहीं। प्रश्न
है तो जीवन
समस्या मालूम होती
है और प्रश्न
नहीं है तो
जीवन समाधान
है। निष्प्रश्न
होना समाधि
है।
नारायण
देव, उत्तर की
प्रतीक्षा ही
न करो! उत्तर
है ही नहीं!
आकाश भी
बेचारा क्या
करे! तुम
पुकारते होओगे,
तुम पूछते
होओगे, आकाश
को भी तुम
असुविधा में
डालते हो।
आकाश भी क्या
करे, उत्तर
कोई है नहीं।
यह
अस्तित्व एक
रहस्य है, एक प्रश्न
नहीं। इस
रहस्य को भोगा
जा सकता है, लेकिन इस
रहस्य को
सुलझाया नहीं
जा सकता। और भोगने
में मजा है, सुलझाकर करोगे भी
क्या? पागल
सुलझाते हैं,
बुद्धिमान
भोगते हैं।
बगिया
में फूल—ही
फूल खिले हैं।
जो बुद्धिमान
है, वह फूलों
को भोगेगा।
उनकी गंध को पीएगा; उनके
आनंद, हवाओं
में होते उनके
नृत्य को
देखेगा; उनके
साथ नाच लेगा;
उनके साथ झूमेगा; उनके साथ
मदमस्त हो
जाएगा। और जो
नासमझ है, वह
अजीब—अजीब
प्रश्न
उठाएगा।
सौंदर्य क्या
है? सुगंध
क्या है? और
इन्हीं
प्रश्नों में
खो जाएगा।
जल्दी ही
बगिया तो
विसर्जित हो
जाएगी, तुम
उसे बैठा किसी
पुस्तकालय
में पाओगे।
ढूंढ रहा होगा,
पुस्तकों
में तलाश रहा
होगा।
सौंदर्य
पुस्तकों में
मिलेगा! बगिया
में भरपूर था,
वहां से चला
आया प्रश्न
लेकर।
नाचो, गाओ—और
अस्तित्व
तुम्हारा है।
पूछो—और तुम
चूके।
पूछते
हो, नारायण
देव, क्या
मुझसे नहीं
कहीं कुछ भूल
हो रही है? तुमने
पूछा है किसी
और अर्थ में—तुमने
पूछा है, क्या
मेरी
प्रार्थना के
ढंग में कोई
गलती है? क्या
मेरे
प्रार्थना के
शब्द समुचित
नहीं? क्या
मेरे
प्रार्थना के
उच्चारण भूल
भरे हैं? क्या
मेरे
प्रार्थना का
व्याकरण चूक
भरा है? क्या
मैं
प्रार्थना को
बदलूं? क्या
मैं जिस नाम
से पुकारता
हूं, वह
नाम मेरे हृदय
से तालमेल
नहीं खाता? कृष्ण—कृष्ण
कहता हूं तो
क्या अब राम—राम
कहूं? इतने
फूल चढ़ाता
हूं, इतनी
आरती उतारता
हूं, कम तो
नहीं पड़ती? कितनी बार
आरती उतारूं,
कितने फूल चढ़ाऊं? एक
बार करता हूं,
एक बार करना
शायद
पर्याप्त न हो
तो दो बार करूं।
घर में ही कर
लेता हूं, शायद
यह ठीक नहीं; मंदिर में
जाकर करूं? तुमने पूछा
है कि कहीं
कोई भूल तो
नहीं हो रही? तुम्हारा इस
तरह की भूलों
से प्रश्न
जुड़ा है।
नहीं, ऐसी कोई भूल
नहीं हो रही।
लेकिन एक भूल
जरूर हो रही
है—मौलिक भूल
हो रही है—तुम्हारी
प्रार्थना
अभी भी वासना
है। छिपी हुई
वासना।
अप्रकट।
तुम्हारी
प्रार्थना
अभी भी प्रश्न
है। तुम्हारी
प्रार्थना
अभी भी मस्तिष्क
में है, अभी
तक हृदय में
नहीं उतरी है।
तुम्हारी
प्रार्थना
अभी भी शब्द
है, मौन
नहीं बनी है।
तुम्हारी
प्रार्थना
में अभी भी
भविष्य है, वर्तमान में
डुबकी नहीं
लगी है। वहां
भूल हो रही
है। तुम कौन—सी
प्रार्थना
करते हो—मुझे
प्रयोजन नहीं
है। हिंदू, मुसलमान, ईसाई—मुझे
प्रयोजन
नहीं। इस पंथ
की, उस पंथ
की—मुझे कुछ
लेना—देना
नहीं है। यह
मौलिक भूल जो
हो रही है, वह
मैं तुमसे कहे
देता हूं। वही
मुसलमान कर रहा
है, वही
हिंदू कर रहा
है, वही
ईसाई कर रहा
है।
प्रार्थना
होनी चाहिए शून्य,
प्रेम का
समर्पण। इस
क्षण को, अभी
और यहीं उंडेल
दो अपने हृदय
को। मत मांगो कुछ!
बिन मांगे
मोती मिलै,
मांग मिलै
न चून। और मोतियों
की वर्षा हो
जाएगी। झर लग
जाएगी
मोतियों की!
फूल ही फूल गिरेंगे
कि तुम सम्हाल
भी न पाओगे, तुम्हारी
झोली छोटी पड़
जाएगी!
और तुम
तुम
जानोगे: मैं
यहां—वहां
टटोलता फिर और
परमात्मा
भीतर मौजूद
था। मैं दूर—दूर
देखता रहा और
परमात्मा पास
था। मैं नाम
ले—ले कर पुकारता
रहा और
परमात्मा
अनाम है। मैं
शास्त्रों से
परमात्मा को
खोजता रहा और
परमात्मा का
कोई भी
शास्त्र नहीं
है।
दूसरा
प्रश्न: भगवान,
मैकशों
की यही आरजू
है
साकिया
आज ऐसी पिला
दे
मैकदे
में हैं जितने
शराबी
आज
सबको नमाजी
बना दे
हरि
भारती, और
मैं कर ही
क्या रहा हूं?
लगता है कि
तुम मैकदे
में आकर भी
नहीं पीने की
कसम लिए बैठे
हो; तोबा
किए बैठे हो!
यह कोई मंदिर
तो नहीं, मधुशाला
है। यहां पीना—पिलाना
ही चल रहा है।
तुम
कहते हो:
मैकशों
की यही आरजू
है
साकिया
आज ऐसी पिला
दे।
लेकिन
प्रतिपल, प्रतिदिन
शराब ही
उंडेली जा रही
है। तुम ही
शायद ओठों
को सिए
बैठे हो। शायद
तुम ही अकड़े
बैठे हो; अपने
तर्क, अपने
सिद्धांत, अपने
शास्त्रों
में घिरे।
तुमने शायद
अंजुली नहीं
भरी। तुमने
शायद अपना
पैमाना साफ
नहीं किया।
शायद तुम अभी
समझ ही नहीं
सके कि पीने की
कला क्या है, पीने की कला
के सूत्र क्या
हैं?
पहली
बात, पीने की
कला के लिए
झुकना आना
चाहिए। यह
शराब कुछ ऐसी
शराब नहीं है
जो सुराहियों
से ढाली जाती
है। यह तो ऐसी
शराब है जो
सागर जैसी।
तटों से टकरा
रही है। तुम
झुको, अंजुली
भरो, दिल
भर कर पीओ! मगर
झुकना होगा।
और झुकना हम
जानते नहीं।
हमारी रीढ़ें
अकड़ गई हैं, झुकना भूल
गई हैं। जहां
झुकने की बात
होती है वहां
हम एकदम सचेत
हो जाते हैं।
झुकना यानी श्रद्धा।
संदेह करने
में हम कुशल
हैं, श्रद्धा
करने में
बिलकुल ही
अकुशल हो गए
हैं। हमें
श्रद्धा की
भाषा ही भूल
गई है। हमें
भाषा सिखाई भी
नहीं जाती
श्रद्धा की।
स्कूल, कालेज,
विश्वविद्यालय,
सब संदेह
सिखाते हैं।
यह विज्ञान का
आधार है, संदेह।
वैज्ञानिक
होने के लिए
संदेह जरूरी है।
वैसे ही जरूरी
है जैसे
धार्मिक होने
के लिए
श्रद्धा
जरूरी है।
विज्ञान
की यात्रा
बहिर्गामी
है। बाहर की
यात्रा के लिए
संदेह के घोड़े
पर सवार होना
होता है। धर्म
की यात्रा
अंतर्यात्रा
है। अंतर्यात्रा
विपरीत दिशा
है। अगर
विज्ञान में
संदेह उपयोगी
है तो धर्म
में संदेह
बाधा है। भीतर
जाना है; जितने
भीतर जाना है
उतना संदेह
छोड़ना पड़े; उतना
श्रद्धा से
भरना पड़े।
विज्ञान में
श्रद्धा से
अड़चन पड़ती है।
श्रद्धालु को
वैज्ञानिक
नहीं बनाया जा
सकता। वैसे ही
संदेह से भरी
चेतना को
धार्मिक नहीं
बनाया जा
सकता।
यह
शराब श्रद्धा
के पात्र में
ही भरी जा
सकती है। तुम
श्रद्धा बनो, तो अभी भर
जाओ, लबालब
भर जाओ! लेकिन
अगर श्रद्धा
में कहीं भी संदेह
के छिद्र हैं,
तो मैं भरता
रहूंगा और तुम
खाली—के—खाली
रहोगे। यह
शराब कोई
मस्तिष्क, विचार,
पांडित्य, ज्ञान—उस
दुनिया की बात
नहीं है; भाव,
भावना, प्रार्थना,
पूजा, अर्चना,
आराधना—उस
जगत की बात
है। ये दो जगत
हैं। ये जीने
के दो ढंग
हैं। और हम सब
खोपड़ी में जी
रहे हैं। खोपड़ी
हिसाब लगाती
है। बस हिसाब ही
लगाती रहती
है! वह गणित ही
बिठाती रहती
है! गणित
बिठाते—बिठाते
ही जिंदगी
समाप्त हो
जाती है। समय
ही नहीं मिलता
कि नाच सको, गुनगुना सको,
वीणा बजा
सको, कि
बांसुरी पर
फूंक दे सको।
उसके लिए एक
दूसरा जगत है
तुम्हारे
भीतर; हृदय
का।
यह
शराब हृदय से पीओगे तो
पी सकोगे।
वहीं चूक हो
रही है। बहुत
लोगों को तो
हृदय भूल ही
गया है।
विज्ञान की
किताबों में
तो हृदय क्या
है? बस फेफड़ा,
फुफ्फुस।
विज्ञान की
किताबों में
हृदय की कोई
जगह नहीं है।
हो भी नहीं
सकती।
विज्ञान आदमी
का विश्लेषण
करता है।
खोपड़ी तो
मिलती है, मस्तिष्क
मिलता है, लेकिन
प्रेम का कोई
स्रोत नहीं
मिलता। विचार का
स्रोत तो
मिलता है।
विचार का
स्रोत शरीर का
हिस्सा है।
प्रेम का
स्रोत आत्मा
का हिस्सा है।
आत्मा अदृश्य
है; उसकी न
कोई तौल हो
सकती है, न कोई
माप हो सकती
है। और
विज्ञान तो
तौल और माप से
जीता है।
जिसकी तौल और
माप न हो सके, उसे
अस्वीकार कर
देता है
विज्ञान।
और, आधुनिक
शिक्षा तुम
सबको ही
नास्तिकता के
लिए तैयार
करती है।
एक बड़ी
दुविधा पैदा
हुई है दुनिया
में। तुम्हारा
परिवार
तुम्हें
आस्तिकता की
तरफ ले जाने की
चेष्टा करता
है। फिर चाहे
घर हिंदू हो, चाहे
मुसलमान, चाहे
ईसाई, चाहे
जैन। बचपन से
मां—बाप
तुम्हें
मंदिर, मसजिद,
गुरुद्वार ले जाना
शुरू करते
हैं। घर की
हवा में जपुजी
सुनते हो, गायत्री
सुनते हो, हवन—यज्ञ—पूजन
देखते हो, तो
तुम्हारे
भीतर थोड़ी—सी
दबी—दबी आग
धर्म की होती
है। लेकिन
तुम्हारा
सारा शिक्षा
का जगत—प्रायमरी
स्कूल से लेकर
विश्वविद्यालय
तक—तुम्हें
तर्क सिखाता,
विचार
सिखाता, गणित
सिखाता, संदेह
सिखाता। ऐसे
तुम्हारे
भीतर द्वंद्व
पैदा हो जाता
है। तुम्हारे
भीतर एक द्वैत
का जन्म होता
है। तुम खंड—खंड
हो जाते हो।
और इन खंडों
के बीच संघर्ष
है। इस संघर्ष
में तुम्हारी
ऊर्जा व्यर्थ
ही व्यय होती
है। और तुम न
यहां के न वहां
के। तुम्हारी
स्थिति धोबी
के गधे की हो
जाती है—न घर
का न घाट का।
तुम मध्य में
अटक जाते हो, तुम
त्रिशंकु हो
जाते।
किन्हीं—किन्हीं
क्षणों में
हृदय जोर
मारता है, थोड़ी—सी
लहरें उठाता
है, लेकिन
वे कमजोर
लहरें होती
हैं, क्योंकि
शिक्षा ने
उनके ऊपर खूब
पत्थर जमा दिए
हैं। चौबीस
घंटे तो तुम
गणित और हिसाब—किताब
की दुनिया में
जीते हो—बही—खाते—और
कभी—कभी गीता
खोल लेते हो, कुरान खोल
लेते हो। इन
दोनों में कोई
तालमेल नहीं
है। ये दोनों
एक—दूसरे के
विपरीत हैं।
इनमें से एक
की मानो तो
दूसरे की
मानना
मुश्किल है।
तो मानते तो
तुम बही—खाते
की हो और झूठी
श्रद्धा के
फूल कुरान और
बाइबिल पर चढ़ा
देते हो।
मानते तो
बाजार की हो, हां, कभी—कभी
मंदिर हो आते
हो। और धीरे—धीरे
तुमने मंदिर
भी बाजार में
ही बना लिया
है। और धीरे—धीरे
तुमने मंदिर
को भी बाजार
में ही ढाल
दिया है। धीरे—धीरे
तुम्हारा
मंदिर भी
बाजार की ही
एक दुकान है।
वहां भी पंडित—पुजारी
बिठा दिए हैं,
जो सिर्फ
व्यवसायी
हैं। जिनके
जीवन में खुद
धर्म का कोई
अनुभव नहीं
है। तुमसे
उनका तालमेल बैठता
है—तुम भी
व्यवसायी, वे
भी व्यवसायी,
भाषा समझ में
आती है, संवाद
आसान हो जाता
है।
हरि
भारती, इसलिए
जब कभी
संयोगवशात, सौभाग्यवश
तुम किसी
मधुशाला में
प्रविष्ट हो
जाते हो तो भी
पी नहीं पाते।
पीने से डरते
हो। तुम्हारी
बुद्धि कहती
है कि पीओगे,
पागल हो
जाओगे। और एक
अर्थ में
बुद्धि ठीक
कहती है, पीओगे
तो जरूर पागल
हो जाओगे।
हालांकि यह
पागलपन
तुम्हारी बुद्धि
के स्वास्थ्य
से बहुत ऊंचाई
पर है। यह पागलपन
तुम्हारी
बुद्धि की
होशियारी से
ज्यादा कीमती
है। यह पागलपन
परमात्मा का
है। मगर बुद्धि
कहती तो ठीक
ही है एक बात
कि जरा सम्हल
कर चलना! जरा
होशियारी
रखना! जरा पैर
फिसला कि फिर
एक ऐसी दुनिया
में समाविष्ट
हो जाओगे जिसकी
न तो तुम्हें
कोई पहचान है,
न जिसकी
तुम्हें कोई
शिक्षा दी गई
है, न
जिसका नक्शा
तुम्हारे पास
है। फिर कहीं
ऐसा न हो कि
लौटना
मुश्किल हो
जाए। इसलिए
बातें धर्म की
करो, मगर
चलो राजपथ।
पगडंडियों पर
धर्म की उतरना
मत, जंगल
भयंकर है, बीहड़ है,
खो जा सकते
हो। और पियक्कड़
होना है तो
पागल होने की
सामर्थ्य तो
चाहिए ही।
तुम
कहते हो:
मैकशों
की यही आरजू
है
साकिया
आज ऐसी पिला
दे
मैकदे
में हैं जितने
शराबी
आज
सबको नामजी
बना दे
यह
शराब तो नमाज
की ही है।
नमाज ही तो
पिलाई जा रही
है। नमाज ही
को तो मैं
शराब कह रहा
हूं।
तुम्हारे
तथाकथित संत
तुम्हें उदास
बनाते हैं।
उनका वैराग्य
एक तरह की
बीमारी है।
उनका धर्म
जीवन—निषेधक
है। उनका
अध्यात्म
मृत्यु से
संयुक्त है, जीवन से
नहीं। उनका
अध्यात्म मृत्योन्मुखी
है, आत्मघाती
है। वे
तुम्हें मरना
सिखाते हैं।
वे तुम्हें सिकुड़ना
सिखाते हैं।
यह छोड़ो, वह छोड़ो...।
छोड़ने
का अर्थ क्या
होता है? सिकुड़ते जाओ, सिकुड़ते जाओ। भूखे
मरो, उपवास
करो, शरीर
को गलाओ, सिकुड़ते जाओ, सिकुड़ते जाओ। एक
आहिस्ता—आहिस्ता
आत्मघात कर
लो।
मैं उन
सब के विरोध
में हूं।
उन्होंने इस
पृथ्वी को
धार्मिक नहीं
होने दिया।
उनकी बातों के
कारण केवल वे
ही लोग धर्म
में उत्सुक
हुए जो किसी तरह
मानसिक रूप से
रुग्ण हैं।
उनके धर्म के
कारण केवल
अस्वस्थ लोग
ही धर्म के
जगत में उत्सुक
हुए। स्वस्थ
आदमी तो नाचना
चाहेगा, गाना
चाहेगा। अगर
स्वास्थ्य
नहीं नाचेगा,
नहीं गाएगा,
तो क्या
बीमारी नाचेगी
और बीमारी गाएगी?
तुम्हारे
मंदिर मधुशालाएं
न बन सके, अस्पताल
बन गए।
तुम्हारे
मंदिरों को
गौर से देखो, वहां तुम
बीमार लोगों
को बैठा हुआ
पाओगे। जिनमें
जीने की
क्षमता नहीं
थी, जो
जीवन से डर गए,
जिन्हें
जीवन घबड़ाने
वाला लगा, उन्होंने
एक आवरण ओढ़
लिया—वैराग्य
का। असलियत
कुछ और थी।
नपुंसक थे, जीवन जीने
में असमर्थ थे,
दुर्बल थे,
अंगूर
खट्टे हैं, ऐसा कह कर वे
भाग गए। अंगूर
चखे ही नहीं—अंगूर
ऊंचाई पर थे, उन्हें पाने
के लिए छलांग
लगानी होती
है। मगर किसी
का अहंकार यह
मानने को
तैयार नहीं होता
कि मेरी छलांग
छोटी है।
एक
सर्दी की सुबह, एक हाथी धूप
ले रहा था। एक
चूहा भी आकर
उसके पास खड़ा
हो गया और धूप
लेने लगा।
चूहे ने बहुत
चें—चें की, हाथी के पैर
पर इधर से
चोंच मारी, उधर से चोंच
मारी—हाथी का
ध्यान
आकर्षित करना
चाहता था।
बहुत मेहनत
करने के बाद आखिर
हाथी को कुछ
लगा कि कुछ
चें—चें, चें—चें
की कुछ
आवाज...नीचे
झुक कर देखा, बामुश्किल
चूहा दिखाई
पड़ा। हाथी ने
इतना छोटा
प्राणी कभी
देखा नहीं था।
उसने पूछा:
अरे, तुम
इतने छोटे!
इतने छोटे
प्राणी भी
होते हैं? चूहे
ने कहा, माफ
करिए, छोटा
नहीं हूं, असल
में छह महीने
से बीमार हूं।
बीमारी की वजह
से यह हाल हो
गया है।
चूहे
का भी अहंकार
है। वह भी यह
नहीं मान सकता
कि मैं कोई
हाथी से छोटा
हूं।
मैंने
एक कहानी और
सुनी है कि एक
हाथी पुल पर से
गुजरा। पुल चर्र—मर्र
होने लगा।
लकड़ी का पुल
था, चरमराने लगा। उस
हाथी के सिर
पर एक मक्खी
भी बैठी थी।
उस मक्खी ने
कहा, बेटा,
हम दोनों का
वजन बहुत भारी
पड़ रहा है!
मक्खी
भी यह मान
नहीं सकती कि
यह हाथी के
वजन से चरमरा
रहा है पुल।
हम दोनों का
वजन बहुत भारी
पड़ रहा है!
अहंकार
स्वीकार नहीं
कर सकता कि
मैं कमजोर हूं; कि अंगूर
दूर हैं, मेरी
पहुंच के बाहर
हैं। तो फिर
क्या उपाय है
अहंकार को अपनी
रक्षा का? वैराग्य।
छोड़ ही दो।
जिस संसार को
पा नहीं सकते,
कहो कि
उसमें कुछ
पाने योग्य ही
कहां है? हम
तो पा सकते थे,
पा ही लिया
था, मगर
कुछ पाने
योग्य था ही
नहीं। कूड़ा—करकट
है सब। और ऐसा
आदमी चौबीस
घंटे समझाता रहेगा
मंदिरों—मस्जिदों
में बैठकर कि
सब कूड़ा—करकट
है, तुमको
भी समझाएगा
कि सब कूड़ा—करकट
है, संसार
में कुछ है
नहीं।
मैं
तुमसे कहता
हूं: संसार
में परमात्मा
है। गहरी खोज
करनी पड़ेगी।
हाथ दूर तक
फैलाने होंगे।
नावें अज्ञात
में ले जानी
होंगी! मैं
तुमसे कहता
हूं: अंगूर
दूर हैं, लेकिन
पाने योग्य
हैं। और उन
अंगूरों को पा
लो तो शराब
बने। जीवन से
भागने से नहीं,
जीवन के
स्वाद में ही
शराब है!
लेकिन
मैं जिस शराब
की बात कर रहा
हूं, खयाल
रखना, वह
नमाज का ही
दूसरा नाम है।
लेकिन वह उनको
ही मिल सकती
है जो जीवन को
पीने को राजी
हैं। यह जीवन
की सुरा है।
जीवन को पीओ
तो परमात्मा
का स्वाद
तुम्हें
मिलेगा।
लेकिन
फिर याद दिला
दूं, मैं
जिसको जीवन
कहता हूं, वह
तुम्हारे मन
का जीवन नहीं
है। धन—पद
पाने का; प्रतिष्ठा,
यश, सम्मान,
सत्कार
पाने का; वह
जो तुम्हारा
मन का जाल है, वह तो पलटू
ठीक कहते हैं
उसके संबंध
में...सपना यह
संसार। वह
संसार तो सपना
है। क्योंकि
तुम्हारे मन
सपने के अतिरिक्त
क्या कर सकते
हैं! लेकिन
तुम्हारे
सपने जब शून्य
हो जाएंगे और
मन में जब कोई
विचार न होगा
और जब मन में
कोई पाने की
आकांक्षा न
होगी, तब
एक नया संसार
तुम्हारी
आंखों के
सामने प्रकट
होगा—अपनी परम
उज्वलता
में, अपने
परम सौंदर्य
में—वह
परमात्मा का
ही प्रकट रूप
है। उसको
पिलाने के लिए
ही मैंने
तुम्हें
बुलाया है।
उसे तुम पीओ, उसे तुम जीओ!
मैं तुम्हें
त्याग नहीं
सिखाता, परम
भोग सिखाता
हूं।
सुन
लो मेरी बात मुनव्वर
तुम भी शेर
कहो मदमाते
नाच
उठे ये धरती
सारी गति
तुम्हारे
गाते—गाते
सुन
लो मेरी बात मुनव्वर
तुम
उपदेशक क्यों
बनते हो तुम
भी रस में डूब
न जाओ
जिसमें
हो शृंगार उमड़ता
तुम भी ऐसे
गीत न गाओ
सुन
लो मेरी बात मुनव्वर
सूखे
उपदेशों को
सुनकर सारी दुनिया
हंस देती है
रस
यौवन में जो
डूबी हो उस
कविता का रस
लेती है।
सुन
लो मेरी बात मुनव्वर
उम्र
पे अपनी क्यों
जाते हो उम्र
तो भावों से बनती
है
नई
पुरानी हर
छलनी से प्रेम
सुरा पल पल
छनती है
सुन
लो मेरी बात मुनव्वर
सुन
लो मेरी बात मुनव्वर
तुम भी शेर
कहो मदमाते
नाच
उठे ये धरती
सारी गीत
तुम्हारे
गाते—गाते
सुन
लो मेरी बात मुनव्वर
मैं
तुम्हें एक
गीत देना
चाहता हूं। एक
गीत, जो मेरे
भीतर जन्मा
है। मैं
तुम्हें एक रस
पिलाना चाहता
हूं। एक रस, जो मैंने
पिया है। मैं
चाहता हूं कि
तुम भी इस अलमस्ती
में डूब जाओ!
मैं तुम्हें
वैराग्य नहीं
सिखाना
चाहता। और अगर
वैराग्य
सिखाना चाहता
हूं, तो
मेरा वैराग्य
तथाकथित वैरागियों
के वैराग्य से
बिलकुल उलटा
है। मेरा
वैराग्य राग
की पराकाष्ठा
है। राग का
अतिक्रमण है,
अंतिम चरण
है।
चांद
हंसने लगा रात
गाने लगी
उनके
कदमों की आवाज
आने लगी
दे
उठी लौ सी फिर रहगुजर की
जम.
और
भी हो गई आज हर
शै हसीं
फूल
महके
कहीं रंग बरसे
कहीं
सोचते
हैं कि खो
जाएं अब तो
यहीं
दिल
की धड़कन नए
रंग लाने लगी
चांद
हंसने लगा रात
गाने लगी
जगमगाने
लगा आरजू का
दिया
फिर
खयालों
में एक हुस्न
लहरा उठा
कह
गई दिल से कुछ
गुनगुना कर हवा
छिड़
गए राग से नाच उट्ठी फिजा
एक
मस्ती
निगाहों पे छाने लगी
चांद
हंसने लगा रात
गाने लगी
छट
गए गम के बादल
मिटी बेबसी
थरथराए
अंधेरे हुई
रोशनी
मुस्कुराने
लगी हर तरफ
चांदनी
हो
गई अब मेरी
जिंदगी जिंदगी
फिर
कोई आंख जादू
जगाने लगी।
चांद
हंसने लगा रात
गाने लगी
उनके
कदमों की आवाज
आने लगी
परमात्मा
के पदचाप
तुम्हें
सुनाई पड़ सकते
हैं, मगर
मस्ती में ही।
थोथी नमाजों
से कुछ भी न
होगा। पियक्कड़
की नमाज
चाहिए!
तुम्हारी
नमाज ऐसी हो
कि बेहोश कर
दे। और बेहोशी
तुम्हारी ऐसी
हो कि होश के दीए
के साथ हो। एक
तरफ भीतर परम
होश भी जगे
और साथ—ही—साथ
एक मस्ती भी
तुम्हें डुलाए,
नचाए।
सम्राट
अकबर गया था
शिकार को।
सांझ हो गई, नमाज का
वक्त हो गया, तो अपना
मुसल्ला
बिछाकर नमाज
पढ़ने बैठ गया।
तभी एक युवा
स्त्री भागती
हुई वहां से
निकली। उसके
मुसल्ले को रौंदती।
वह नमाज में
झुका है, उसको
धक्का देती कि
वह गिर भी
पड़ा। लेकिन
नमाज में बोले
कैसे! क्रोध
तो बहुत आया।
एक तो कोई
नमाज पढ़ रहा
हो, उसके
साथ ऐसा दर्ुव्यवहार।
दूसरे सम्राट
नमाज पढ़ रहा
हो, उसके
साथ ऐसा दर्ुव्यवहार।
जल्दी—जल्दी
उसने नमाज
पूरी की, घोड़े
पर बैठने को
ही था पीछा
करने को कि पकड़े
इस युवती को, लेकिन वह
युवती खुद ही
वापस लौट रही
थी। अकबर ने
उससे कहा, पागल,
होश में है?
मैं नमाज पढ़
रहा था, तूने
मुझे धक्का
दिया। इतना तो
खयाल होना चाहिए!
फकीर भी नमाज
पढ़ रहा हो, गरीब
से गरीब भी
नमाज पढ़ रहा
हो तो उसका
सम्मान होना
चाहिए। प्रभु
की प्रार्थना
में जो लीन है,
उसके साथ
ऐसा दर्ुव्यवहार!
फिर मैं
सम्राट हूं!
तुझे दिखाई
नहीं पड़े मेरे
वस्त्र, मेरी
पगड़ी—हीरे—जवाहरात
जड़ी—मेरा घोड़ा,
यह तुझे
दिखाई नहीं
पड़ा?
उस
युवती ने झुक
कर प्रणाम
किया और कहा, मुझे क्षमा
कर दें, मुझे
माफ कर दें; मुझसे भूल
हो गई।
क्योंकि मेरा
प्रेमी आज आने
वाला था, मैं
राह पर, गांव
के बाहर उसका
स्वागत करने
गई थी। मुझे
याद ही नहीं
कि आपको कब
धक्का लगा।
मुझे याद ही नहीं
कि आप बीच में
पड़े भी। मुझे
माफ कर दें।
लेकिन सम्राट,
एक बात मुझे
पूछनी है। मैं
तो अपने
साधारण प्रेमी
से मिलने जा
रही थी और ऐसी
मस्त थी कि
मुझे आप दिखाई
न पड़े, और
आप परमात्मा
से मिलने बैठे
थे, आपको
मेरा धक्का
मालूम हुआ? मैं आपको
दिखाई पड़ी?
सम्राट
अकबर ने अपने
संस्मरणों
में लिखवाया है
कि शर्म से
मेरी आंखें
झुक गईं। बात
तो उसने ठीक
कही थी। मेरी
नमाज झूठी थी।
उसमें बेहोशी
न थी। उसमें
मस्ती न थी।
शायद उसकी ही
नमाज बेहतर
थी। माना कि
वह अपने
साधारण
प्रेमी से
मिलने जा रही
थी, लेकिन
उसके साधारण
प्रेम में भी
एक असाधारण नशा
था। अगर उसे
पता ही नहीं
चला कि मैं था,
कि मुझे
धक्का लगा—मुझे
धक्का लगा तो
उसे भी धक्का
लगा होगा; दोनों
को साथ ही लग
सकता है—अगर
उसे मेरा पता
नहीं चला, तो
मुझे क्यों
पता चला? कब
वह घड़ी आएगी, शुभ घड़ी, तब
मुझे इस तरह
की छोटी—छोटी
बातों का पता
न चलेगा?
नमाज, प्रार्थना,
आराधना तब
पूरी होती है
जब तुम बाहर
की तरफ बिलकुल
ही बेहोश हो
जाओ; तुम्हारा
सारा होश भीतर
आ जाए। इसलिए
दोहरी घटनाएं
घटती हैं—नमाज
एक बड़ा
विरोधाभास
है। बाहर से
सारा—का—सारा
होश खिंचकर
भीतर आ जाता
है। बाहर बंटा
था, परिधि
पर बिखरा था, भीतर आकर
संग्रहीत हो
जाता है। तो
एक तरफ तो नमाजी
बाहर से बेहोश
हो जाता है और
भीतर परम होश
से भर जाता
है। भीतर एक
जगमगाती
ज्योति प्रकट
होती है। बाहर
का सब भूल
जाता है। शायद
तुम उसे तलवार
से काट दो तो
उसे पता न चले!
ऐसा
हुआ। उन्नीस
सौ पांच में
काशी के नरेश
का आपरेशन
हुआ।
अपेंडिक्स का
आपरेशन था।
लेकिन काशी के
नरेश ने व्रत
ले रखा था कि
कोई मादक द्रव्य
कभी नहीं
लेंगे जो
बेहोश करे।
परमात्मा को पीते
थे, अब और
क्या मादक
द्रव्य चाहिए!
बड़ी अड़चन हो
गई—वे
क्लोरोफार्म
लेने को भी
राजी नहीं थे।
और बिना
क्लोरोफार्म
के कैसे
अपेंडिक्स
निकाली जाए?
अंग्रेज
डाक्टर
परेशान थे।
निकालनी
जरूरी थी, नहीं तो
जीवन खतरे में
था। लेकिन
काशी—नरेश ने
कहा, तुम
चिंता न करो! मैं
प्रार्थना
में लीन हो जाऊंगा,
तुम आपरेशन
कर देना।
उन्हें भरोसा
तो नहीं आया
कि प्रार्थना
ऐसी हो सकती
है कि तुम
अपेंडिक्स निकालो और
पता न चले!
उन्होंने तो
प्रार्थना
करने वाले लोग
देखे थे कि
जरा बच्चा
शोरगुल मचा दे
कि वे निकल कर
बाहर आ जाते
हैं, अपने
मंदिर के बाहर
और चिल्लाते
हैं कि कौन
शोरगुल मचा रहा
है? कि
पत्नी के हाथ
से बर्तन गिर
जाए कि बस, उनकी
खोपड़ी गरम हो
जाती है—कि वह
आराधना के लिए
बैठे थे और सब
आराधना भ्रष्ट
हो गई।
मोहल्ले का
कुत्ता भौंक
दे और काफी है!
ऐसे
प्रार्थना
करने वाले लोग
देखे थे। अपेंडिक्स
निकाली जाए, बड़ा
आपरेशन...और
उन्नीस सौ
पांच में और
भी बड़ा आपरेशन
था, अब तो
अपेंडिक्स
कोई बड़ा
आपरेशन नहीं
है। अब तो कुछ
भी थोड़ा
उपद्रव हो कि निकालो
अपेंडिक्स!
लेकिन
कोई और उपाय
नहीं था तो
राजी होना
पड़ा। सम्राट
लेने को राजी
नहीं था
क्लोरोफार्म, मर जाने के
लिए राजी था।
तो उन्होंने
कहा एक प्रयोग
करके देखें।
मौत तो होने
ही वाली है।
इसमें कम—से—कम
एक संभावना है
कि शायद यह
आदमी कहता है
तो बच जाए।
वह
अपनी
प्रार्थना
में लीन हो
गया और
अपेंडिक्स का
आपरेशन हो गया
और उसे पता भी
नहीं चला। उससे
पूछा गया बाद
में कि कैसे
यह किया? उसने
कहा, इसमें
तो कुछ बात ही
नहीं। यह तो
सीधा—सा हिसाब
है। सारी
चेतना भीतर की
तरफ मुड़ जाती
है।
तुमको
भी इस तरह के
अनुभव कभी—कभी
होते हैं:
अनायास। जैसे
कभी खेल में, तुम अगर खिलाड़ी
हो, हाकी
खेल रहे हो और
तुम्हारे पैर
में चोट लग गई
और खून बह रहा
है, तो जब
तक खेल जारी
रहेगा तब तक
पता नहीं
चलेगा। हां, खेल खतम
होते ही से
पता चलेगा कि
अरे, बड़ा
दर्द हो रहा
है, खून बह
रहा है, पता
नहीं कितना
खून बह गया!
लेकिन खेल
जारी रहते
तुम्हें पता
क्यों नहीं
चला? तुम्हारी
सारी चेतना
खेल पर लगी
थी। पैर तक जाने
के लिए चेतना
को सुविधा ही
नहीं थी।
तुम्हारे
घर में आग लग
जाए; तब
तुम्हारे मन
में फिजूल
विचार नहीं
आएंगे, जो
रोज आते हैं।
उस वक्त तुम
सोचोगे कि कौन—सी
टाकीज
में कौन—सी
फिल्म चल रही
है? घर में
आग लगी हो, उस
वक्त तुम इस
तरह की फिजूल
बातें सोचोगे?
सारी चेतना
सिकुड़ आएगी।
ऐसे
अनुभव
तुम्हें होते
हैं। जब तुम
व्यस्त होते
हो किसी काम
में, तो चित्त
सारी तरफ से
खिंच आता है।
प्रार्थना
ऐसी ही स्थिति
की परम अवस्था
है। वहां सारी
चेतना सिकुड़
आती है भीतर।
तो भीतर तो
सघन होकर
रोशनी हो जाती
है और बाहर
अस्तित्व खो
जाता है। और
ऐसी ही घड़ियों
में प्रभु की
पगध्वनि, उसके
पैरों की पहली
आहट, अतिथि
के आगमन का
पहला
सुसमाचार
पहुंचता है।
हरि
भारती, वही
तो मैं कर रहा
हूं, पिला
रहा हूं। मेरी
तरफ से कंजूसी
जरा भी नहीं
है। अगर तुम न
हो पाओ नमाजी,
अगर तुम न
हो पाओ शराबी,
तो ध्यान
रखना, कहीं—न—कहीं
पीने में तुम
कंजूसी कर गए।
कहीं—न—कहीं
तुमने हाथ
सरका लिया; कहीं—न—कहीं
तुम डर गए, भयभीत
हो गए।
मुझे
दोष मत देना!
मेरी तरफ से
तो तुम जितना
पीओ उससे
ज्यादा
उपलब्ध है।
तुम जन्मों—जन्मों
में जितना पी
सको, उससे
ज्यादा
उपलब्ध है।
मैं तुम्हें
पूरा सागर ही
दिए दे रहा
हूं। मगर तुम
चुल्लू—भर भी
नहीं पी रहे
हो; क्योंकि
तुम पीने से
डरते हो: पीने
से बेहोशी आएगी,
पीने से
पागलपन आएगा;
पीने से
श्रद्धा आएगी,
पीने से
समर्पण आएगा।
और पीने से
तुम्हारी पुरानी
व्यवस्था सब
डांवाडोल हो
जाएगी, अस्तव्यस्त
हो जाएगी।
तुम्हारे
सारे पुराने
न्यस्त
स्वार्थ उखड़
जाएंगे।
तुम्हें एक नई
जिंदगी जीनी
पड़ेगी। और नई
जिंदगी जीने
का साहस कम ही
लोगों में
होता है।
लोग तो
पुराने को ही
खींचते रहते
हैं, क्योंकि
पुराना
सुविधापूर्ण
होता है। जाना—माना,
पहचाना, उसके
हम अभ्यस्त
होते हैं, हम
कुशल भी होते
हैं उसे जीने
में, उसे
करने के लिए
हमें कोई श्रम
भी नहीं करना
पड़ता। इसीलिए
तो जैसे—जैसे
आदमी की उम्र
बड़ी होने लगती
है वैसे—वैसे
वह नई चीज
सीखने में
असमर्थ होने
लगता है। छोटे
बच्चे जल्दी
सीख लेते हैं।
छोटे बच्चों
को कोई भी
भाषा सिखाओ,
वे जल्दी
सीख लेते हैं।
जैसे उम्र बड़ी
होने लगती है,
मुश्किल
होने लगता है।
क्या
मुश्किल आ
जाती है?
मुश्किल
यह आ जाती है
कि अब पुरानी
भाषा से काम
चलने लगा, सुगमता हो
गई, अब कौन
नई झंझट ले!
कौन नया
उपद्रव बांधे!
कौन श्रम करे!
एक गहन आलस्य
है, जो
मनुष्य के मन
में छिपा बैठा
है। उस आलस्य
के कारण हम उतना
ही करते हैं
जितना करना
पड़ता है।...अब
प्रार्थना की
कोई जरूरत तो
है नहीं। रोटी—रोजी
तो उससे
मिलेगी नहीं।
मकान तो बड़ा
बन न सकेगा।
प्रतिष्ठा तो
जगत में
मिलेगी नहीं—होगी
थोड़ी—बहुत तो
वह भी खो
जाएगी! सुनते
हो मीरा ने
क्या कहा? लोकलाज
खोई।
प्रतिष्ठा थी
वह भी गई, लोकलाज
भी गई। लोग
पागल
समझेंगे।
मिलने को कुछ
भी नहीं है और
खो सब जाएगा।
ऐसा
नहीं है कि
मिलने को कुछ
भी नहीं है; लेकिन जो
मिलेगा वह
भीतर है। उसे
तुम दूसरों को
दिखा भी न
सकोगे। उसका
प्रदर्शन भी न
कर सकोगे।
उसकी
अभिव्यक्ति
भी कठिन है।
कहोगे तो लोग
हंसेंगे। अगर
किसी से कहोगे
कि मुझे भीतर
प्रकाश अनुभव
होता है, तो
वह चौंक कर
इधर—उधर
देखेगा कोई और
तो नहीं सुन
रहा है कि हम
भी इनके साथ
हैं। कहोगे कि
भीतर मुझे बड़े
आनंद की लहरें
उठती हैं, तो
वह दूसरा आदमी
संदेह करेगा
कि दिमाग ठीक
है? क्योंकि
उसका अनुभव और
सब का अनुभव
तो भीतर दुख
की लहरों का
है। कहोगे कि
भीतर मेरे
पूर्णिमा है,
उसका अनुभव
तो अमावस का
है। वह माने
तो कैसे माने?
तुम कहोगे,
बड़ा उल्लास
है, बड़ी
मस्ती है; भीतर
आनंद के, हंसी
के फव्वारे
फूट रहे हैं।
लोग कहेंगे, या तो तुम
भ्रम में पड़े
हो या भ्रम
में डालना चाहते
हो। अपने वाले
भी नहीं
मानेंगे, परायों
की तो बात छोड़
दो। पहले—पहले
तो तुम खुद भी
नहीं मानोगे
कि ऐसा हो सकता
है। समझोगे कि
शायद
सम्मोहित कर
लिए गए हो। किसी
भ्रमजाल में
पड़ गए हो।
कल ही
मैं एक लेख पढ़
रहा था। उस
लेख में लिखा
है, इस आश्रम
के संबंध में
कि इस आश्रम
में जाना खतरे
से खाली नहीं
है।
दो
कारण बताए
हैं।
एक, प्रत्येक
व्यक्ति जो
यहां आता है, सम्मोहित कर
लिया जाता है।
अब यह शब्द
सम्मोहन, बस
लोगों को
चौंकाने के
लिए काफी है।
और जो सम्मोहित
नहीं हो सकते,
जो बड़े संकल्पवान
हैं, उनको
पानी में या
चाय में कुछ
मादक द्रव्य
पिला दिए जाते
हैं। एल.एस.डी.,
या कुछ इस
तरह की चीजें
उनको पिला दी
जाती हैं।
क्योंकि यहां
से जो लौटता
है, वह कुछ
और ही तरह की
बातें करने
लगता है।
जिन
मित्र ने लेख
लिखा है, एक
अर्थ में ठीक
ही लिखा है।
कुछ तो जरूर
जो यहां से
लौटता है कुछ
और तरह की बात
करने लगता है।
और आम जनता को
ऐसा लगे कि
कुछ गड़बड़ हो
गई है। ऐसी
बातें करने
लगता है जैसे
लोग भांग—गांजे
के नशे में
करते हैं। तो
या तो
सम्मोहित हो
गया है, या
कुछ गांजा—भांग...!
न
उन्हें
सम्मोहन का
कुछ पता है, न इस तरह के
लोग कभी आए
हैं—आएंगे भी
कैसे; क्योंकि
आ जाएं तो
खतरा ही है!
आना तो है ही
नहीं। लेख ही
इसीलिए लिखा
है कि कोई
दूसरा भी न
जाए। तुम भी पढ़ोगे लेख
को तो तुमको
भी एक दहा
विचार आएगा कि
बात कुछ जंचती
तो है, कि
हम वही तो
नहीं रहे जैसे
थे आने के
पहले। फिर लोग
गैरिक वस्त्र
पहनने लगते
हैं। फिर उनके
चेहरे पर एक
मुस्कुराहट
दिखाई पड़ती
है। जैसे इस
जिंदगी के
सारे दुख उनके
लिए दुख न
रहे। जैसे इस जिंदगी
के सारे विषादों
से उनका संबंध
छूट गया।
उन्हें
एक नई
जीवनशैली मिल
गई है। वह
इतनी नई है और
जगत इतने नर्क
में जी रहा है
कि अगर नर्क में
तुम अचानक पाओ
कि एक आदमी नाच
रहा है, बांसुरी
बजा रहा है, तुम्हें शक
होगा कि गांजा
पीए है; या
अफीम खा गया
है। होश में
होता तो नर्क
में कहीं ऐसा
कर सकता था!
लोग हंसना ही
भूल गए हैं। हंसते
भी हैं तो ओछा,
छिछला।
उनकी हंसी भी
खोखली मालूम
पड़ती है। बस ज्यादा
से ज्यादा कंठ
से आती लगती
है। हृदय का
कोई भी दान
उसमें नहीं
होता।
मेरा
संन्यासी
हंसने लगता
है। दिल खोलकर
हंसने लगता
है। उसके जीवन
में एक रस है।
जो उसके ही
भीतर मौजूद
था। निश्चित
ही शराब पिलाई
जा रही है, लेकिन ऐसी
शराब नहीं जो
बाहर ढलती है,
वरन ऐसी
शराब जो भीतर
ही ढलती है।
तीसरा
प्रश्न:
भगवान, यह कैसे पता
चले कि जो हो
रहा है वह
प्रभु की मर्जी
से हो रहा है
या हम आलस्य
के प्रभाव से
नहीं कर पा
रहे हैं? कृपा
करके समझाएं।
रामसिंह, आलस्य भी
होगा तो उसी
की मर्जी से
होगा। जिसने
सब छोड़ दिया, वह आलस्य को
बचा लेगा? जब
सभी चढ़ा दिया
उसके चरणों
में तो इतनी
कंजूसी और
क्यों कर रहे
हो? आलस्य
भी उसी के
चरणों में चढ़ा
दो।
चढ़ाओ
तो पूरा चढ़ाओ, बंटवारे न करो, नहीं
तो बड़ी
मुश्किल में
पड़ जाओगे। अगर
बंटवारा किया
तो बुरा—बुरा
तुम्हारे हाथ
में रह जाएगा
और भला—भला
उसके हाथ में
चला जाएगा।
लोग अच्छी
चीजें चढ़ा
देते हैं।
सोचते हैं, चढ़ाना है तो अच्छी
ही चीजें चढ़ाना
चाहिए! फिर
आलस्य का क्या
होगा? फिर
बेईमानी का
क्या होगा? फिर चालबाजी
का क्या होगा?
फिर झूठ का
क्या होगा? फिर
तुम्हारे
पाखंड का क्या
होगा? वह
सब तुम्हारे
हिस्से में पड़
जाएगा।
यही तो
अब तक का
इतिहास है कि
आदमी को सिखाया
गया है: अच्छी—अच्छी
चीजें उस पर
चढ़ा दो। फूल
उस पर चढ़ा दो।
फिर कांटे? फिर कांटे
तुम्हारे
जिम्मे पड़े।
सो उसके तो मोर—मुकुट,
फूल लग गए—वैसे
भी उसको फूलों
की कोई कमी न
थी, सारे
फूल उसी के थे—और
तुम अभागे, जो दो—चार
फूल हाथ लगे
थे वे भगवान
को चढ़ा आए, अब
बचे कांटे! अब
रोओ! इन
कांटों को
छाती से लगाओ और
तड़फो!
समर्पण
का अर्थ होता
है: समग्र।
समग्र ही हो तो
समर्पण।
रामसिंह
का मन में
विचार उठा
होगा कि यह
बात तो ठीक है
कि सब
परमात्मा की
मर्जी से हो
रहा है, मगर
अगर आलस्य हो
रहा है, फिर?
परमात्मा
आलसी तो नहीं
हो सकता! यह
तुमसे किसने
कहा? मेरे
हिसाब से तो
परमात्मा का
काम कितना
आहिस्ता चल
रहा है।
सदियां—सदियां
बीत गईं...कोई
जल्दी दिखाई
पड़ती है? कोई
जल्दबाजी? जल्दबाजी
आदमी को है, परमात्मा को
नहीं।
सदियों—सदियों
में करोड़ों—करोड़ों
वर्षों में
पृथ्वी बनती
है। करोड़ों—करोड़ों
वर्षों में
पृथ्वी पर
हरियाली ऊगती
है। करोड़ों—करोड़ों
वर्षों में
फिर पृथ्वी पर
प्राणी आते हैं।
करोड़ों—करोड़ों
वर्षों में
फिर मनुष्य
आता है। और
परमात्मा का
धीरज इतना है
कि करोड़ों—करोड़ों
मनुष्यों में
कभी कोई एक
बुद्ध हो पाता
है, फिर भी वह
राजी है। या
तो कहो आलसी
है, या कहो
परम धैर्यवान
है।
आलस्य
की इतनी निंदा
क्यों है? क्योंकि
आदमी अतीत में
बड़ी मुश्किल
से जीया है—बड़ी
मुश्किल से
जीया है! खूब
श्रम किया है
तो ही जी सका
है, बच सका
है। जीवन एक
गहन संघर्ष
था। इसलिए
उसमें आलसी की
बड़ी निंदा हो
गई। और उसमें
कर्मठ का बड़ा
सम्मान हो
गया। हालांकि
बात यह है कि
कर्मठ लोगों
ने दुनिया को
जितना गङ्ढों
में पटका, उतना
आलसियों ने
नहीं।
आलसियों ने
कोई नुकसान ही
नहीं किया। वे
नुकसान करने
लायक काम भी नहीं
कर सकते।
वे किस तरह
नुकसान
करेंगे? अडोल्फ
हिटलर आलसी हो
सकता है? मुसोलिनी आलसी हो
सकता है? स्टेलिन, माओत्से तुंग आलसी
हो सकते हैं? असंभव। ये
तो बड़े कर्मठ
पुरुष हैं।
लौह—पुरुष। स्टेलिन
शब्द का अर्थ
होता है: लौह—पुरुष।
स्टील से बना
शब्द स्टेलिन।
वह उसका असली
नाम नहीं है, दिया हुआ
नाम है। ये तो
सदा कर्म में
रत रहते हैं
ये लोग। नादिरशाह
और तैमूरलंग
और चंगेजखान
और सिकंदर और
नेपोलियन, ये
कोई आलसी हैं?
नेपोलियन
के संबंध में
कहा जाता है, वह घोड़े पर
ही दो घंटे सो
लेता था। घोड़े
पर ही! नीचे भी
नहीं उतरे; इतना भी समय
कौन खराब करे?
उतरना, चढ़ना...घोड़े
पर ही सो लेता
था। बस दो
घंटे चौबीस
घंटे में काफी
था। इस तरह के
लोगों का हमने
खूब सम्मान किया।
मगर उन्होंने
किया क्या?
आलसियों
के ऊपर कोई
दोष है? उन्होंने
कोई बड़ा पाप
किया? रावण
आलसी होता तो
सीता नहीं
चुराई जाती—पक्का
समझो! कौन
झंझट में
पड़ता!
तुमने
आलसियों की
कहानियां तो
सुनी ही हैं; कि दो आलसी
लेटे हैं एक
झाड़ के नीचे, जामुनें टपक रही हैं;
पकी जामुनें,
उनकी गंध!
और एक आलसी
दूसरे से बोला
कि हद्द हो गई,
हम सोचते थे
कि तू अपना
मित्र है! और
मित्र तो वह
है जो समय पर
काम आए। जामुनें
टपा—टप
गिर रही हैं
और तुझसे इतना
भी नहीं हो
सकता कि एक
जामुन उठाकर
मेरे मुंह में
डाल दे! और उस
दूसरे ने कहा
कि जाओ—जाओ, तेरे मुंह
में और मैं
जामुन डालूं!
अरे, दोस्त
वह जो दुख में
काम आए! अभी एक
कुत्ता मेरे
कान में मूत
रहा था तो तू
उसे भगा भी
नहीं सका!
एक
आदमी रास्ते
से गुजर रहा
था, उसने
दोनों की बात
सुनी, उसने
कहा हद्द हो
गई! दया आई उसे
बहुत, बेचारे
महा आलसी हैं,
उसने एक—एक
जामुन दोनों
के मुंह में
उठाकर डाल दी।
चलने को ही था
कि दोनों बोले,
अबे ठहर, गुठली कौन
निकालेगा? जरा
रुक! अब इतना
किया है तो
इतना और!
ऐसे
आदमी से तुम
सोचते हो कि
दुनिया में
कोई नुकसान हो
सकता है? लेकिन
आलस्य का हमने
विरोध किया है,
क्योंकि
जीवन एक
संघर्ष था और
संघर्ष में
कर्मठ की
उपयोगिता था।
अन्यथा आलस्य
में अपने—आप
तो कुछ ऐसी
विरोध की बात
नहीं है। अपने—आप
में तो कुछ
बुरा नहीं है।
और यह
संभव है कि
आने वाले
भविष्य में
आलसी का सम्मान
बढ़ जाए।
आने
वाली सदी में
उन लोगों का
सम्मान किया
जाएगा जो काम
नहीं मांगेंगे।
क्योंकि सारा
काम धीरे—धीरे
यंत्रों के
द्वारा होने
लगेगा—हो ही
रहा है।
विकसित देशों
में पहले सात
दिन का सप्ताह
होता था, फिर
छह दिन का
होने लगा, फिर
पांच दिन का
होने लगा, अब
चार दिन का
होने लगा। अब
अमरीका में
विचार चलता है
उसको हटा कर
तीन दिन का कर
दिया जाए, क्योंकि
मशीनों से काम
पूरा हुआ जा
रहा है। बीस
साल पूरे होते—होते
करोड़ों लोग
बिना काम के
होंगे। भोजन
तो उन्हें
देना होगा। वह
उनका
जन्मसिद्ध
अधिकार है।
मकान भी देना
होगा, कपड़े
भी देने
होंगे।
पश्चिम
के
अर्थशास्त्री
तो यह कहते
हैं—तुम चौंकोगे
जानकर—कि पचास
साल के भीतर
यह हालत आ
जाने वाली है
कि जो आदमी
काम नहीं मांगेगा, उसको
तनख्वाह
ज्यादा
मिलेगी उस
आदमी के बजाय जो
काम मांगेगा।
क्यों? क्योंकि
वह दो—दो
चीजें एक साथ
चाहता है—तनख्वाह
भी और काम भी!
तो स्वभावतः
उसको तनख्वाह
कम मिलेगी।
दोनों हाथ
लड्डू! जो काम
नहीं मांगता,
उसको
तनख्वाह
ज्यादा
मिलेगी—स्वभावतः
उसको कुछ कॉम्पेन्सेशन
देना होगा, क्योंकि वह
काम भी नहीं
मांग रहा है।
आलस्य
के दिन आ रहे
हैं, रामसिंह,
घबड़ाओ मत!...रामसिंह
हैं अमृतसर
से।...पंजाबियों
के दिन जा रहे
हैं, रामसिंह,
घबड़ाओ मत! आलसियों
के दिन आ रहे
हैं। यंत्र सब
कर देगा। फिर
विश्वविद्यालयों
में और
शिक्षालयों में
बड़े—बड़े
तख्तों पर
लिखा होगा—धन्य
हैं आलसी, क्योंकि
प्रभु का
राज्य उन्हें
का है। हमें जोड़ने
पड़ेंगे ये
वचन। हमें धर्मशास्त्रों
में ये बातें
लिखनी पड़ेंगी।
आलस्य को
सदगुण बनाना
ही पड़ेगा।
और
परमात्मा तो
इतनी धीमी चाल
से चलता है कि
पता ही कहां
चलती है उसकी
चाल! एक बीज
बोओ, कितना
समय लेता है!
वर्षों लग
जाते हैं
वृक्ष के बनते—बनते,
तब कहीं फूल
आते, तब
कहीं फल लगते।
कोई जल्दी है
वहां! समय की
अनंतता है, कोई जल्दी
नहीं।
और रामसिंह, जब सभी उस पर
चढ़ा दिया तो
इतनी भी क्या
कंजूसी! आलस्य
भी उसी का!
तुमने
कहानी नहीं
सुनी?
एक
सूफी कहानी है
कि एक बुढ़िया
जो कुछ उसके
पास होता सभी
परमात्मा पर
चढ़ा देती।
यहां तक कि
सुबह वह जो घर
का कचरा वगैरह
फेंकती, वह
भी घूरे पर
जाकर कहती:
तुझको ही
समर्पित।
लोगों ने जब
यह सुना तो उन्होंने
कहा, यह तो
हद हो गई! फूल चढ़ाओ, मिष्ठान
चढ़ाओ...कचरा?
एक
फकीर गुजर रहा
था, उसने एक
दिन सुना कि
वह बुढ़िया
गई घूरे पर, उसने जाकर
सारा कचरा
फेंका और कहा:
हे प्रभु, तुझको
ही समर्पित!
उस फकीर ने
कहा कि बाई, ठहर! मैंने
बड़े—बड़े संत
देखे.......तू यह
क्या कह रही
है? उसने
कहा, मुझसे
मत पूछो; उससे
ही पूछो। जब
सब दे दिया तो
कचरा क्या मैं
बचाऊं? मैं ऐसी
नासमझ नहीं।
उस
फकीर ने उस
रात एक स्वप्न
देखा कि वह
स्वर्ग ले
जाया गया है।
परमात्मा के
सामने खड़ा है।
स्वर्ण—सिंहासन
पर परमात्मा
विराजमान है।
सुबह हो रही
है, सूरज ऊग
रहा है, पक्षी
गीत गाने लगे—सपना
देख रहा है—और
तभी अचानक एक
टोकरी भर कचरा
आ कर परमात्मा
के सिर पर पड़ा
और उसने कहा
कि यह बाई भी
एक दिन नहीं
चूकती! फकीर
ने कहा कि मैं
जानता हूं इस
बाई को। कल ही
तो मैंने इसे
देखा था और कल
ही मैंने उससे
कहा था कि यह
तू क्या करती
है?
लेकिन
घंटे भर वहां
रहा फकीर, बहुत—से
लोगों को
जानता था जो
फूल चढ़ाते
हैं, मिष्ठान्न
चढ़ाते
हैं, वे तो
कोई नहीं आए।
उसने पूछा
परमात्मा को
कि फूल चढ़ाने
वाले लोग भी
हैं...सुबह ही
से तोड़ते हैं,
पड़ोसियों के वृक्षों
में से तोड़ते
हैं। अपने
वृक्षों के
फूल कौन चढ़ाता
है! आसपास से
फूल तोड़कर
चढ़ाते
हैं......उनके फूल
तो कोई गिरते
नहीं दिखते?
परमात्मा
ने उस फकीर को
कहा, जो आधा—आधा
चढ़ाता है,
उसका
पहुंचता
नहीं। इस
स्त्री ने सब
कुछ चढ़ा दिया
है, कुछ
नहीं बचाती, जो है सब चढ़ा
दिया है।
समग्र जो चढ़ाता
है, उसका
ही पहुंचता
है।
घबड़ाहट
में फकीर की
नींद खुल गई।
पसीने—पसीने
हो रहा था, छाती धड़क
रही थी।
क्योंकि अब तक
की मेहनत, उसे
याद आया कि
व्यर्थ गई।
मैं भी तो
छांट—छांट कर चढ़ाता
रहा।
समर्पण
समग्र ही हो
सकता है।
इसलिए, रामसिंह,
तुम पूछते
हो: यह कैसे
पता चले कि जो
हो रहा है वह
प्रभु की मर्जी
से हो रहा है? पता चलाने
की जरूरत क्या
है? और
किसकी मर्जी
से हो रहा
होगा! और भी
कोई है? जो
हो रहा है, उसी
की मर्जी से
हो रहा होगा—और
तो कोई है ही
नहीं।
और फिर
तुम्हें डर
लगता है: कहीं
हम आलस्य के प्रभाव
में न कर पा
रहे हों। तो
आलस्य उसकी
मर्जी। तुम
जरा आलस्य को
भी चढ़ाकर
देखो और तुम
बड़े हैरान हो
जाओगे। आलस्य चढ़ाते ही
तुम्हारे ऊपर
से जैसे एक
गर्द की पर्त
गिर जाएगी। उस
पर गिरे, जाने
दो, वह
जाने। उसका
संसार है, वह
करे फिक्र!
उसने अगर
तुमको आलसी
बनाया तो तुम
करोगे भी क्या?
वस्तुतः
धार्मिक
व्यक्ति वही
है, जो वह
देता है कि सब
तेरा। बुरा भी,
भला भी, सब
तेरा।
कबीर
के घर लोग
भोजन के लिए
आते थे। रोज
भजन के लिए
आते थे असल
में तो, मगर
जाने के पहले
कबीर कहते:
अरे, कहां
चले? भोजन
तो कर जाओ!
गरीब आदमी, बामुश्किल
रोटी जुटती
थी। पत्नी
परेशान थी।
लड़का तो बहुत
परेशान था। कमाल
ने एक दिन कहा
कि हद्द हो
गई। हम पर
कर्ज भी बहुत
हो गया है।
भजन तक ठीक
बात है, यह
भोजन हर एक को
करवाना, सौ—दो
सौ आदमी रोज
भोजन करें, हम लाएं
कहां से? सारे
गांव से उधार
मांग चुके, अब तो कोई
उधार देने को
राजी नहीं है।
और इन लोगों
ने धंधा बना
लिया है। ये
रोज आकर हाजिर
हैं! और मुझे
शक होता है कि
ये भजन के लिए
आते हैं? ये
भोजन के लिए
आते हैं। और
तुमको कितनी
दफे समझाया और
तुम हां भर
देते हो कि
ठीक, कल
मैं नहीं
कहूंगा, लेकिन
बस, भजन
खतम हुआ कि
तुम मानते ही
नहीं, लोगों
से कहते हो कि
भोजन कर जाओ।
क्या हम चोरी
करने लगें?
गुस्से
में कहा था
कमाल ने किया
क्या हम चोरी करने
लगें? कबीर
ने कहा: अरे
पागल, तो
यह तुझे पहले
क्यों नहीं सूझा? कितने
दिन से मेरी
खोपड़ी खाता है
कि भोजन के लिए
मत कहो। मुझसे
रहा नहीं
जाता। तेरी
अकल पहले कहां
गई थी? गजब
का खयाल है!
लड़के ने सोचा,
हल हो गई! तो
ये चोरी
करवाने के लिए
भी राजी हैं! उसने
पूछा भी कि आप
समझे मेरा
मतलब? होश
में हैं? कहीं
अपने भजन—कीर्तन
में ही तो
नहीं डूबे हैं?
चोरी कह रहा
हूं, चोरी!
कबीर ने कहा, जो उसकी
मर्जी होगी, करवाएगा। अब
चोरी ही करवानी
होगी तो हम
क्या करेंगे?
इसको
आस्तिकता
कहते हैं।
इससे कम हो तो
आस्तिकता
नहीं।
लेकिन
कबीर का लड़का
भी कबीर का ही
लड़का था आखिर।
इतनी जल्दी
छोड़ नहीं
देता। उसने
कहा कि यह बात
ही बात समझकर
मामला निपटा
रहे हैं।
जानते हैं कि
मैं चोरी
करूंगा नहीं।
मगर मैं भी दिखाकर
रहूंगा! सांझ
को, उसने कहा,
ठीक, अब
मैं चोरी को
जा रहा हूं, आप भी चलें!
क्योंकि मैं
अकेला क्यों
जाऊं? भोजन
आप करवाएं, चोरी मैं
करूं? पाप पाप मेरे
सिर पड़ेगा, पीछे जवाब
कौन देगा? वह
यह कह ही रहा
था कि कबीर
उठकर खड़े हो
गए। उन्होंने
कहा कि चल, मुझे
कुछ काम भी
नहीं है; यहां
भी बैठे—बैठे
क्या कर रहा
हूं? भजन
कर रहा हूं
यहां, वहीं
भजन करेंगे।
मैं चल पड़ता
हूं तेरे साथ।
बेटा
भी पक्का था।
अभी भी उसे
भरोसा नहीं था
कि कबीर चोरी
करने के लिए
राजी होंगे।
चले गए। कबीर
खड़े वहीं भजन
करते रहे और
लड़का सेंध
मारता रहा, बार—बार
देखता रहा कि
अब रोकें, अब
रोकें। दीवाल
टूट गई, अभी
भी नहीं रोका।
अब तो थोड़ा
उसे भय लगने
लगा कि यह
मामला ज्यादा
बढ़ जा रहा है।
उसने पूछा, अब भीतर
जाऊं? कबीर
ने कहा, और
दीवाल काहे के
लिए तोड़ी? भीतर
जा! और जाना ही
नहीं, भीतर
से कुछ ला!
कबीर
का ही बेटा था, उसने हिम्मत
की, भीतर
गया। खींच कर
एक बोरा गेहूं
का लाया।
बामुश्किल
उसको छेद में
से बाहर निकाल
पाए। दोनों ने
मिल कर बाहर
निकाला। फिर
जब बोरा बाहर
निकल आया तो
कबीर ने कहा:
अब एक काम और
कर; घर के
लोगों को जाकर
जगा दे।
चिल्ला दे कि
चोरी हो गई, चोरी हो गई!
उसने कहा, यह
किस ढंग की
चोरी? फंसूंगा मैं! कबीर ने
कहा, जिसने
करवाई है, वही
फंसेगा, हम
क्यों
फंसेंगे? तू
बीच—बीच में
अपने को क्यों
लाता है?
कबीर
की बात को
समझना; बारीक
है! कबीरपंथी
इस कहानी को
अपनी किताबों
में से छोड़
देते हैं।
क्योंकि डर
लगता है; इस
बात को लाना
खतरनाक मालूम
पड़ता है।
क्योंकि हमने
तो धर्मों को
भी नीति के तल
पर खींच लिया
है। और धर्म
तो नीति—अनीति
के परे होते
हैं। न वहां
कुछ अच्छा है,
न वहां कुछ
बुरा है। हम
तो धर्म की
नीति के साथ पर्यायवाची
बना दिए हैं।
तो कबीरपंथी
भी डरते हैं
कि यह कहानी
जोड़ना कि
नहीं! लेकिन
कितनी ही छिपाओ,
जानने वाले
इन कहानियों
को जानते हैं।
कानों—कान
चलती रही हैं
ये कहानियां—किताबों
में न भी लिखो
तो क्या होगा!
कहीं—न—कहीं
से इनके लिए
स्रोत मिलते
रहे हैं। इतनी
बहुमूल्य
कहानियां हैं,
गंवाई भी
नहीं जा
सकतीं। तो
मेरे जैसा कोई—न—कोई
आदमी फिर उनको
कह देगा, वे
फिर चलने लगती
हैं!
तुम्हें
किताब में न
मिलें तो घबड़ाना
मत, मैं अपनी
साक्षी से
कहता हूं कि
यह बात सच है। ऐसा
हुआ ही होगा।
होना ही
चाहिए। कबीर
की जिंदगी में
न हो तो और
किसकी जिंदगी
में होगा!
कहानी प्यारी
है।
कबीर
ने कहा, जा,
खबर कर दे!
और जब कबीर
कहें तो बेटा
न जाए! गया
भीतर, लोगों
को हिला—हिला
कर जगा दिया
कि चोरी हो गई!
लोगों ने उसको
पकड़ लिया।
भागा, निकलने
की कोशिश ही
कर रहा था कि
लोगों ने उसको
पकड़ लिया, पैर
उसके पकड़ लिए।
गर्दन बाहर, पैर भीतर।
कबीर ने कहा, भाई, अब
तो सुबह हुई
जा रही है, भजन
करने वाले आते
होंगे। अब मैं
क्या करूं? तो रखने दे
पैर उनको, गर्दन
तेरी मैं ले
जाता हूं। सो
उन्होंने उसकी
गर्दन काट ली;
गर्दन लेकर
घर पहुंच गए।
लोगों
ने भीतर खींच
लिया। सिर तो
था ही नहीं। लेकिन
रंग—ढंग से
ऐसा लगा कि
कबीर का बेटा
है। परिचित था, गांव—भर का
परिचित था।
किसी से पूछा
कि कैसे पक्का
करें कि यह
कबीर का बेटा
ही है या कोई
और? तो
उन्होंने कहा,
ऐसा करो, सुबह कबीर
की मंडली
निकलेगी गंगा
स्नान को, भजन
करती हुई।
इसको बाहर एक
वृक्ष से टांग
दो। उन्होंने
कहा, इससे
क्या होगा? उन्होंने
कहा, अगर
यह कबीर का ही
बेटा है, तो
जब कबीर भजन
करते
निकलेंगे तो
यह ताली बजाएगा।
उन्होंने कहा,
पागल हो गए
हो? इसका
सिर नदारद; मुर्दे कहीं
ताली बजाते
हैं! उन लोगों
ने कहा, तुम
मानो या न
मानो, हमने
कबीर के पास
मुर्दों को
बैठे देखा और
ताली बजाते
देखा है।
सुनते
हो यह कहानी!
कि हमने बहुत—से
मुर्दों को
वहां जाते
देखा है और
उनको ताली
बजाते देखा
है। और ताली
बजाते—बजाते
निंदा हो गए
हैं
मुर्दे।...कबीर
के पास आते ही
लोग जब हैं तब
मुर्दे होते
हैं। आखिर और कौन
आएगा? सारी
दुनिया
मुर्दों से
भरी है।...तो
कहानी कहती है
कि लटका दिया
बेटे के शरीर
को बाहर एक
वृक्ष से और
लोग छिपकर बैठ
रहे। और जब
कबीर की मंडली
आई और धुन छिड़ी
और शराब बही
और नमाज उठी
कि बस, कबीर
के बटे ने
ताली देना
शुरू कर दिया!
लोगों
ने कबीर को
पकड़ लिया और
कहा कि यह
तुम्हारा ही
बेटा है। कबीर
ने कहा, इतने
आयोजन की क्या
जरूरत थी? मुझसे
आकर पूछ लिए
होते! यह बेटा
मेरा है। और
इसने अकेले
चोरी नहीं थी,
मैं भी
मौजूद था। और
मैं भी मौजूद
नहीं था, परमात्मा
भी मौजूद था।
सब
जिम्मेवारी
उसकी है। हम
तो उसके हाथ
के खिलौने
हैं। जैसा नचाए,
नाचते हैं।
जो इस
कहानी को समझ
सके, वह
समर्पण का भाव
समझ सकेगा।
रामसिंह!
आलस्य भी उसी
का। भला भी
उसका, बुरा
भी उसका।
तुम
को क्या मालूम
कि कितना
समझाया है मन,
फिर
भी बार—बार
करता है भूल, क्या करूं?
बीसों
बार कहा खुलकर
मत बोल बावरे
कानों
के कच्चे हैं
लोग जमाने भर
के,
और
कहीं भूले
भटके सच बोल
दिया तो—
गली—गली
मारेंगे लोग
निशाने कर के,
लेकिन
जिद्दी मन को
कोई क्या
समझाए
खुद
मुझ से ही
रहता है
प्रतिकूल, क्या करूं?
मना
किया हर बार
कि ऐसी गैल न
चल तू
जिसमें
अरमानों की
बदनामी का डर
हो,
ऐसा
साथ तलाश कि
जो खाता—पीता
हो—
जिसके
पास उमर अपनी
हो, अपना
घर हो,
लेकिन
जाने कैसा पाया
है स्वभाव जो
लगती
हर मतलब की
बात फिजूल, क्या करूं?
समझाया
बहुतेरा देख न
कर नादानी
ओस
और आंसू का
भाईचारा कैसा,
ओस
चांद की बेटी, तू आवारा
पानी,
आवारा
पानी का मीत
किनारा कैसा,
आंधी
ने सौ बार दिए
हैं धोखे अब
तक
मिले, भले मत मिले,
जनम भर कूल,
क्या करूं?
तुम
को क्या मालूम
कि कितना
समझाया है मन,
फिर
भी बार—बार
करता है भूल, क्या करूं?
एक तो
प्रक्रिया है
नीति की कि मन
को भूल मत करने
दो। हर भूल को सुधारो।
एक—एक भूल को सुधारो, थेगड़े लगाओ।
लेकिन तुम
पक्का समझ लो,
एक तरफ भूल सुधारोगे,
दूसरी तरफ
से भूल बहने
लगेगी। एक तरफ
से रोकोगे
झरना दूसरी
तरफ से फूट
बहेगा। इसलिए
नैतिक व्यक्ति
रूपांतरित
नहीं हो पाता।
सिर्फ उसकी बीमारियां
बदलती रहती
हैं। एक
बीमारी दबाता
है, दूसरी
बीमारी।
दूसरी दबाता
है, तीसरी
बीमारी। मूल
वही—का—वही
रहता है।
धार्मिक
व्यक्ति एक—एक
भूलों को नहीं
सुधारता। कौन थेगड़े
लगाए! सब उसका
है। धार्मिक
व्यक्ति कह
देता है: मैं
भी तेरा, सम्हाल!
भूल करवानी हो
भूल करवा, ठीक
करवाना हो, ठीक करवा।
सम्मान
मिलेगा तो
तुझे, अपमान
मिलेगा तो
तुझे। कल अगर
जूते पड़ेंगे,
तो तुझे, माला पहनाई
जाएगी तो
तुझे। मैं बीच
में नहीं हूं।
इस अदभुत
क्रांति का
नाम धर्म है।
और जो
ऐसा कर पाए, उसको फिर और
कुछ करने की
आवश्यकता
नहीं रह जाती।
आज
इतना ही।
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें