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सोमवार, 14 दिसंबर 2015

दस हजार बुद्धों के लिए एक सौ गाथाएं—(अध्‍याय--10)

(अध्‍याय—दसवां)

 म ओशो के साथ वीटी स्टेशन आए हैं, वे जबलपुर जा रहे हैं। 1969 में गर्मियों की तपती हुई दोपहर है। मैं उनके पीछे खड़ी हुई यह देख रही हूं कि उनके पीठ से पसीना कैसे पानी की छोटी सी धार की तरह उनकी कमर की ओर वह रहा है। उन्होंने सफेद लुंगी पहनी हुई है और ऊपर चादर लपेटी हुई है। उनकी पीठ आधी उघडी हुई है। वे अपने पूरे सौंदर्य और पूरी गरिमा के साथ ऐसे खड़े हैं जैसे कोई' सिंह उन भेड़ों कीं मुंह में खड़ा है जो उसके प्रेम में पड़ गई हैं।

गाड़ी छूटने ही वाली है, लेकिन उनका सामान अभी तक नहीं पहुंचा है। सामान एक दूसरी कार में रखा गया था। हम लोग चिंतित हो जाते हैं। वे एक ध्यान शिविर लेने जा रहे हैं और मैं सोचने लगती हूं कि व?हां वे अपने कपड़ों के बगैर क्या करेंगे। अचानक वे छूते हैं और मेरी ओर देखते हैं। मैं शर्मिदा महसूस करती. हूं कि अपने संदेहग्रस्त मन से मैंने उन्हें परेशान किया। वे मेरी ओर? देखकर मुस्कुरा भर देते हैं। जब मैं
यह लिख रही हूं तो अभी भी उनकी श्रद्धा से चमकती हुई आंखें मेरे सामने तैर रही हैं। मैं शांत हो जाती हूं और उनके शब्दों का स्मरण करती हूं 'अस्तित्व में श्रद्धा रखो।
गार्ड दोबारा सीटी बजाता है और ओशो अपने सामान के बिना ही गाड़ी में चढ़ जाते हैं। गाड़ी में वे दरवाजे पर खड़े हो जाते हैं और अपनी शरारती मुस्कान से सबको देखने लगते है। कहीं अपने हृदय में मैं जानती हूं कि जब तक उनका सामान नहीं आ जाता, गाड़ी नहीं छूटेगी। हम सब दम साधे वहां खड़े यह देख रहे हैं कि आगे क्या होता हैं। अपने सबुद्ध सदगुरू की मौजूदगी में हम कितनी बेहोशी का व्यवहार कर रहे हैं। लेकिन उनकी करूणा अपार है। हम जैसे हैं उन्होंने हमें वैसा ही स्वीकार किया है और वे कभी भी हमें यह भाव नहीं देते कि हम अज्ञानी है या बेहोश हैं।

धीरे—धीरे गाड़ी सरकने लगती है, और आश्चर्य कि उसी समय इश्वरभाई का ड्राइवर ओशो का सूटकेस लिए, भीड़ को इधर—उधर ढकेलता आता दिखाई पड़ता है। वह ओशो के कंपार्टमेंट पर पहुंचकर सूटकेस को ओशो के पीछे रख देता है जो कि दरवाजे पर खड़े हम सबको हाथ हिला कर गुड बाई कह रहे हैं।
गाड़ी चली जाती है। मेरा हृदय मौन में डूब जाता है। मैं अपनी आंखें बंद करके पास ही एक बैंच पर बैठ जाती हूं।एक मित्र आकर मुझे हिलाते हैं और कहते हैं, चलो चलें।मैं अपनी आंखें खेलती हूं और सोचती हूं कि अब कहां जाना है; मेरा हृदय तो उनके साथ जा ही चुका। मैं सारे संसार को चीख—चीखकर बताना चाहती हूं, फिर से एक बुद्ध हमारे बीच जी रहा है।

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