दिनांक:
15 नवंबर, 1974;
श्री
ओशो आश्रम, पूना
सूत्र:
झीनी
झीनी बिनी
चदरिया
काहे
के ताना काहे
के भरनी, कौन तार से बिनी
चदरिया।
इंगला
पिंगला ताना
भरनी, सुषमन तार से बिनी
चदरिया।।
आठ कंवल दस
चरखा डोले, पांच तत्तगुन
तिनी चदरिया।
सांई
को सीयत
मास दस लागै, ठोक ठोक
के बिनी
चदरिया।।
सोई
चादर सुर न
मुनि ओढ़ी, ओढ़ी
के मैली किनी
चदरिया।
दास
कबीर जतन से ओढ़ी, ज्यों
की त्यों धरि
दीनी
चदरिया।।
कबीर
तो जुलाहे हैं, उनके प्रतीक
भी जुलाहे के
प्रतीक हैं; लेकिन
जुलाहे के
प्रतीकों में
भी उन्होंने
वह सब कह दिया,
जो उपनिषद
नहीं कह पाते
हैं, वेद
जिसे कहने में
थक जाते हैं, बुद्ध और
महावीर वह सब
कह दिया, जो
उपनिषद कह
पाते हैं, वेद
कहने में थक
जाते हैं, बुद्ध
और महावीर भी
जिसे
अनिर्वचनीय
कह कर छोड़
देते हैं।
जीवन
के जितने—निकट
हो प्रतीक, उतना ही
सत्य को प्रकट
करने में
सक्षम होता है;
जीवन से
जितने दूर हो
जाए, उतनी
ही सत्य की
अभिव्यक्ति
की क्षमता कम
हो जाती है।
कबीर ठीक जीवन
के निकट जी
रहे हैं—साधारण
जीवन के!
और
ध्यान रहे, दुनिया में
कोई असाधारण
जीवन नहीं है।
साधारण में ही
असाधारण छिपा
है। और जो
असाधारण होने
की कोशिश
करेगा, वह
साधारण से तो
बच ही जाएगा, उसमें छिपे
असाधारण से भी
बच जाएगा।
अहंकार
असाधारण की
खाज करता है।
अहंकार बड़े काम
करना चाहता है; लेकिन जीवन
तो छोटे—छोटे
कामों में बना
है। उठना है; कपड़ा बनना है, बेचना
है; खाना
है, पीना
है; सोना
है, जागना
है—जीवन तो इन
छोटी—छोटी
चीजों से बना
है। और जो भी
साधारण होने की
कोशिश करेगा,
वह जीवन से
वंचित रह
जाएगा। जो इन
साधारण कृत्यों
में जागने
लगेगा, जो
इन्हीं
कृत्यों को
जाग कर करने
लगेगा, वह
असाधारण को
उपलब्ध हो
जाएगा। जतन का
वही अर्थ है।
जतन का
अर्थ है, साधारण
को भी
होशपूर्वक
करना; अति
साधारण से भी
चेतना को जोड़
देना क्षुद्र
के साथ जैसे
ही होश जुड़ता
है, क्षुद्र
विराट हो जाता
है। और विराट
के साथ भी
बेहोशी हो तो
विराट भी
क्षुद्र हो
जाता है। तुम
जाओ मंदिर में
तुम्हें
परमात्मा न
मिलेगा; क्योंकि
तुम बेहोश ही
जाओगे वहां।
तुम्हें जो
दिखाई पड़ेगा,
वह
तुम्हारी ही
वासनाओं का
प्रतिबिंब
होगा।
काश, होश होता तो
मंदिर तक जाने
की जरूरत क्या
थी! होश तो तुम
जहां हो, वहीं
पाते कि उसी
का मंदिर है; उसके
अतिरिक्त कुछ
और है भी
नहीं। काशी और
काबा, अज्ञानी
ही यात्रा
करेंगे।
ज्ञानी तो जहां
है, वहीं
उसकी काशी है,
वहीं उसका
काबा है।
क्योंकि
चारों तरफ उसी
एक का विस्तार
है। वह ब्रह्म
कहीं कम और
कहीं ज्यादा
तो नहीं, कहीं
सघन और कहीं
विरल तो नहीं;
वह ब्रह्म
कहीं उपलब्ध
और कहीं
अनुपलब्ध तो नहीं—सभी
जगह है, एक
सा बंटा है।
बुद्ध
ने कहा है, सागर को चखो
कहीं से, सभी
तरफ से नमकीन
है—चाहे इस
किनारे, चाहे
उस किनारे; चाहे मध्यम
में, चाहे
गहराई में, चाहे लहर
में—चखो
सागर को, सब
जगह उसका
स्वाद एक है; चखो
ब्रह्म को सब
जगह, उसका
स्वाद भी एक
है।
मंदिर—मस्जिद
अज्ञानी का
निर्माण है।
इसलिए फिर वह अपने
ही ढंग से
निर्मित करता
है। वे उसकी
ही प्रतिछवियां
है। तुम्हारे
परमात्मा तुम
से बड़े नहीं
हो सकते, जब
तक कि तुम्हीं
परमात्मा
जितने बड़े न
हो जाओ। लेकिन
यहीं जटिलता
है। अगर तुम
बड़े होना चाहोगे,
तो छोटे ही
रह जाओगे; क्योंकि
बड़े होने की
मांग, छोटे
मन की मांग
है। अगर तुम
छोटे में राजी
हो जाओगे, अचानक
पाओगे कि छोटा
तो कुछ है ही
नहीं, सभी
बड़ा है।
क्षुद्र
का कोई
अस्तित्व
नहीं है।
शूद्र तुम्हारी
आंख के द्वारा
दी गई सीमा
है।
जैसे
कि मैं खिड़की
खोलूं और
प्रकाश को देखूं, तो खिड़की का
चौखटा ही
मालूम होता
है। आकाश है।
खिड़की के
चौखटे से
जितना आकाश
दिखाई पड़ता है,
लगता है वही
आकाश है। और
अगर मैं कभी
बाहर गया ही न
होऊं, मैंने
कभी मुक्त
आकाश देखा ही
न हो, और
सदा खिड़की से
ही झांकता
रहा हूं, तो
स्वभावतः मैं मानूंगा
कि इसी खिड़की
के चौखटे में
जितना फंसा
आकाश है, यही
आकाश है। यह
आकाश नहीं है।
खिड़की का
चौखटा यह रूप
दे रहा है। यह
सीमा खिड़की के
कारण बन रही
है, आकाश
की कोई सीमा
नहीं है।
तुम्हारी आंख खिड़कियों
से ज्यादा
नहीं।
तुम्हारे कान
भी खिड़कियों
से ज्यादा
नहीं।
तुम्हारे हाथ
भी खिड़कियों
से ज्यादा
नहीं हैं।
इंद्रियां
छोटी खिड़कियां
हैं, जिनसे
हमने ब्रह्मा
को देखा है; इसलिए
ब्रह्म छोटा
लगता है।
अन्यथा
इंद्रियों को
हटा कर देखो, क्षुद्र
तत्क्षण
विराट हो जाता
है, सीमाएं
गिर जाती हैं।
सीमाएं थीं ही
नहीं, हमारे
द्वार दी गई
थीं। सीमाएं
कल्पित हैं। किसी
काम को छोटा
मत कहना।
कबीर
का प्राथमिक
संदेश यही है
कि किसी काम
को छोटा मत
कहना।
क्योंकि उस छोटे
में विराट
छिपा है।
तुमने छोटा
कहा कि तुम
पीठ फेर लोगे।
और जहां से
तुम पीठ फेरोगे, वही है। तो
हमेशा
तुम्हारी पीठ
उस पर पड़ेगी।
और बड़े
को तुम खोजने
जाओगे कहां? क्या है बड़ा?
राष्ट्र की
सेवा बड़ी है? मनुष्यता की
सेवा बड़ी है? कुर्बान हो जाना बड़ा
है? शहीद
हो जाना बड़ा
है?
ध्यान
रहे, एक क्षण
में शहीद होने
की क्षमता
किसी में भी है।
क्षण भर में
आत्महत्या कर
लेने में कौन
असमर्थ है! शहीदगी
लगती है बहुत
कठिन, कठिन
नहीं; क्योंकि
एक ही क्षण
में तो
निपटारा हो
जाता है। सूली
क्षण में लग
जाती है, गोली
क्षण में
प्राणों में
छिद जाती है।
असली शहीद तो
वे ही हैं, जो
जीवन के लंबे
विस्तार में
होश से जीते
हैं; क्योंकि
उनको सूली
पूरे जीवन
कंधे पर ढोनी
पड़ती है।
असली
शहीद तो वे ही
हैं जो शूद्र
में विराट को खोजते
हैं। और उनकी
खोज कभी अखबारों
में न छपेगा, और कोई
उन्हें फूल चढ़ाने न
आएगा, कोई
उनको गले में मालाएं न पहनाएगा।
वे चुपचाप
अपने अकेले
में भोजन करते
वक्त जानेंगे,
कपड़ा बुनते वक्त
जानेंगे, स्नान
करते वक्त
जानेंगे। कौन
उनका सम्मान करेगा?
लोग कहेंगे,
पागल हो गए
हो? सम्मान
हम करते हैं
शहीदों का जो सूलियों
पर लटकते हैं।
तुम भोजन करने
में जाग गए, तुम जानो!
इससे हमें
क्या प्रयोजन
है, शूद्र
की बात ही मत
उठाओ, लोग
कहेंगे।
लेकिन शूद्र
में ही विराट
छिपा है; जैसे
बीज में वृक्ष
छिपा है। एक
छोटे से बीज को
तुम बो दो, और
विराट वृक्ष
पैदा होता है।
वह छोटा सा
बीज—जतन का
बीज है, ध्यान
का बीज है।
जो भी
तुम करो, ध्यान
पूर्वक करना।
लेकिन
हमारी मनोदशा
बड़ी अजीब है।
हम जब एक काम
से ऊब जाते
हैं, तो हम
विपरीत काम को
तत्क्षण चुन
लेते हैं। संसार
से थक जाओगे, तो धार्मिक
हो जाओगे।
लेकिन जैसे
बेहोश संसार
में थे, वैसा
ही बेहोश
धार्मिक हो कर
रहोगे। कृत्य
बदल जाएगा, तुम न
बदलोगे। पहले
तुम दुकान पर
बैठे थे और रुपया,
रुपया, रुपया
का मंत्र
चलाते थे, अब
तुम मंदिर में
बैठ जाओ—राम, राम, राम,
का मंत्र
चलाओगे। तुम न
बदलोगे।
रुपया कहते वक्त
भी तुम बेहोश
थे, राम, राम, राम
का मंत्र
चलाओगे। तुम न
बदलोगे।
रुपया कहते
वक्त भी तुम
बेहोश थे, राम
कहते वक्त भी
तुम बेहोश
रहोगे। रुपया
भी तुम्हारी
नींद था, राम
भी तुम्हारी
नींद ही होगा।
तब तुम दुकान
पर बैठे थे, अब भी तुम
दुकान पर बैठे
हो। तुमने ही
तो सारे मंदिरों
को दुकानों
में बदल दिया
है। तुम जहां
जाओगे, स्वभावतः
तुम तुम
ही रहोगे।
तुममें फर्क
कैसे पड़ सकेगा?
स्थिति
बदलने से कभी
कोई बदला नहीं
है—मनोदशा
बदलने से कोई
बदलता है।
परिस्थिति नहीं, मनः स्थिति
को बदलना है।
वही रूपांतरण
है। इसलिए
कबीर जुलाहे
बने रहे लेकिन
जाग गए—इस
सूत्र में
उन्होंने बड़ी
कीमती बातें
कही हैं। एक—एक
शब्द को समझने
की कोशिश
करें।
झीनी—झीनी
बिनी
चदरिया।
जुलाहे
को अगर कभी
बुनते देखा हो, या कभी
तुमने अगर
चरखा काता हो,
तो तुम्हें
एक बात खयाल
में आएगी:
जितनी बारीक
तुम्हें धागा
निकालना हो चरखे से या
तकली से, उतना
ही होश रखना
पड़ेगा; जितना
मोटा निकालना
हो उतनी
बेहोशी चल
जाएगी, अगर
बहुत महीन सूत
निकालना हो, तो उतने ही
जतन से, उतने
ही होश से
निकालना
पड़ेगा—क्योंकि
जरा सी बेहोशी
और धागा टूट
जाएगा।
कबीर
कह रहे है, झीनी—झीनी बीनी
चदरिया।......इतनी
झीनी चादर बिनी—उसका
अर्थ ही है कि
बड़े जतन से बीनी।
उसका अर्थ है,
बड़े होश से बीनी।
उसका अर्थ ही
है कि जरा भी
हाथ न कंपा, जरा भी
चेतना न कंपी—अकंप
हो कर बीनी।
जितनी
झीनी, बारीक
काम करना हो, उतना होश
चाहिए। मोटे
काम में
बेहोशी चल जाए,
महीन काम
में बेहोशी
नहीं चल सकती।
इसलिए तो हम महीनतम
काम को कला
कहते हैं; क्योंकि
उसके करते समय
चेतना को बड़ा
सजग होना चाहिए।
जरा सी चूक और
सब विकृत हो
जाएगा।
तो
पहली बात:
जीवन को जितना
तुम जाग कर जीयोगे, उतने ही
बारीक और
सूक्ष्म जीवन
का तुम्हें अनुभव
होगा। और
जितना
सूक्ष्म का
तुम अनुभव करोगे,
उतना ही तुम
ज्यादा जागोगे।
वे दोनों
संयुक्त हैं,
और दोनों एक—दूसरे
में सहयोगी
हैं।
रास्ते
पर तुम चल रहे
हो, शराबी भी
चलता है उसी
रास्ते पर; लेकिन उकसे
पैर देखो, एक
भी पैर जगह पर
नहीं पड़ता।
ऐसे तो वह भी
घर पहुंच ही
जाएगा। तुम भी
चलते हो। फिर
तुम एक बुद्ध
को भी चलते
देखो। तब तुम पाओगे
कि तुममें और
शराबी में
जितना फर्क है,
उतना ही तुम
में और बुद्ध
में भी है।
ऐसे तो शराबी
भी घर पहुंच
जाता है, तुम
भी पहुंच जाते
हो, बुद्ध
भी घर पहुंच
जाएंगे; लेकिन
तुम्हारे
चलने का गुण
अलग—अलग है।
शराबी बिलकुल
बेहोश चल रहा
है। बुद्ध बिलकुल
होश में चल रहा
हैं; तुम
कहीं बीच में
हो। कभी थोड़ी—सी
झलक भी होती
है होश की, फिर
अंधेरा आ जाता
है। कभी तुम
जागे होते हो,
कभी तुम सोए
होते हो। कभी
तुम्हारी आंख
खुली होती है,
कभी बंद
होती है।
तुम
अगर गौर से
देखो तो तुम
पाओगे कि जैसे—जैसे
होश बढ़ेगा, तुम्हारे
चलने में एक सुघड़ता, एक
कुशलता...जिसको
गीता में
कृष्ण ने कहा
है—योगी कर्म
में कुशल हो
जाता है, वह
कुशलता।
क्योंकि योगी
को बड़ी झीनी
चादर बीननी
पड़ती है। उसे
एक—एक पैर
सम्हालकर
रखना पड़ता है,
एक—एक श्वास
सम्हाल के
लेनी पड़ती है।
जीवन बड़ा नाजुक
है और बड़ा
बहुमूल्य है।
वह शराबी की
तरह नहीं
चलता। कबीर ने
कहा, वह
ऐसा चलता है
जैसे गर्भवती
स्त्री चलती
है—सम्हालकर,
जतन से।
भीतर एक नया
जीवन है! और
गर्भवती के भीतर
जो जीवन है, वह तो
शारीरिक की है;
साधक के
भीतर, साधु
के भीतर जो
जीवन का अंकुर
फल रहा है, वह
तो परमात्मा
का अंकुर है।
तुम
ऐसा सोचो कि
परमात्मा
तुमसे पैदा
होने को है, तो तुम
कितने सम्हाल
कर न चलोगे!
जरा सी चूक, और गर्भपात
हो सकता है।
जरा सी भूल, पैर का मुड़
जाना और गिर
जाना, और
सदियों का
श्रम व्यर्थ
हो सकता है।
जैसे—जैसे
करीब आती है, वैसे—वैसे
ज्यादा होश की
जरूरत पड़ती
है। क्योंकि
मंजिल से दूर
थे, तब
भटकने का कोई
डर ही न था; क्योंकि
भटकते तो और
क्या भटकते, भटके ही हुए
थे। मंजिल
करीब आती है
तो और होश की
जरूरत पड़ती है,
क्योंकि अब
भटक सकते हो।
सूफी
कहते हैं, सांसारिक को
क्या डर, डर
तो हमें है!
सांसारिक के
पास खोने का
क्या है, खोने
को तो हमारे
पास है! और
सांसारिक
चाहे तो कैसा भी
चले, मिटने
को कुछ है ही
नहीं, लेकिन
हम कैसे ही
नहीं चल सकते;
क्योंकि
बड़ी संपदा है,
जो मिलते—मिलते
खो जा सकती है,
जो हाथ में
आते—आते वंचित
हो जा सकती है;
जिस पर
पहुंचने—पहुंचने
को थे और
मंजिल खो जा
सकती है। और
जितनी ऊंचाई
पर हो तुम, गिरोगे
उतनी ही नीचाई
में उतर
जाओगे।
इसलिए
जतन शब्द को
बहुत खयाल
रखना
जो
आदमी खाई में
ही सरक रहा है, उसको क्या
डर! लेकिन जो गौरीशंकर
के शिखर पर
खड़ा है, डर
उसको है।
लेकिन यह डर
भय नहीं है।
यह डर एक साव
चेतना है। यह
डर इस बात का
है कि मेरे
पास कुछ है जो
खो जा सकता
है।
ऐसा
हुआ कि जापान
में एक फकीर
हुआ: बोकोजू।
वह टोकियो
में, राजधानी
में ही था।
पुरानी कथा है,
कोई तीन सौ
वर्ष पहले की।
सम्राट रात को,
जैसा
पुराने
सम्राट निकला
करते थे, घोड़े
पर निकलता था,
छिपे हुये
वेश में, नगर
को देखने: कहां
क्या हो रहा
है। सारा नगर
सोया रहता, यह एक फकीर
वृक्ष के नीचे
जागा रहता।
अक्सर तो खड़ा
रहता। बैठता
भी तो आंख
खुली रखता।
आखिर सम्राट
की उत्सुकता
बढ़ी। पूरी रात,
किसी भी समय,
भी जाता, मगर उसको
जागा हुआ
पाता। कभी
टहलता, कभी
बैठता, कभी
खड़ा होता, लेकिन
जागा होता।
सोया, सम्राट
उसे कभी न पा
सका। महीने
बीत गए, उत्सुकता
घनी होने लगी।
आखिर एक दिन
उससे न रहा
गया। वह रुका
और कहा कि
फकीर, एक
उत्सुकता है।
अनधिकार है।
कोई हक मुझे
पूछने का नहीं,
लेकिन
उत्सुकता घनी
हो गयी है और
अब बिना पूछे
नहीं रह सकता।
किसलिए
जागते रहते हो
रात भर?
फकीर
ने कहा
कि...संपदा है, उसकी
सुरक्षा के
लिए। सम्राट
और हैरान हुआ।
उसने कहां, संपदा दिखाई
नहीं पड़ती। ये
टूटे—फूटे
ठीकरे पड़े
हैं।
तुम्हारा भिक्षापात्र,
ये
तुम्हारे चीथड़े—इनको
तुम संपदा
कहते हो, दिमाग
ठीक है? और
उनको चुरा कौन
ले जाएगा?
उस
फकीर ने कहा, जिस संपदा
की बात मैं कर
रहा हूं, वह
तुम्हारी समझ
में न आ
सकेगी।
तुम्हें ठीकरे
ही दिखाई पड़ते
हैं, और ये
गंदे
वस्त्र...। और
वस्त्र गंदे
हों कि सुंदर,
क्या फर्क
पड़ता है—स्त्री
ही हैं; और
ठीकरे टूटे—फूटे
हों कि स्वर्ण
के पात्र हों,
ठीकरे ही
हैं। इनकी बात
ही कौन कर रहा
है? एक आर
संपदा है, जिसकी
रक्षा करनी
है।
पर
सम्राट ने कहा, संपदा मेरे
पास भी कुछ कम
नहीं है, मैं
भी सोता हूं।
उस
फकीर ने कहां, तुम्हारे
पास जो संपदा
है, तुम
मजे से सो
सकते हो, वह
खो भी जाए तो
कुछ खोएगा
नहीं। मेरे
पास जो है, वह
अगर खो गया तो
सब खो जाएगा।
और पहुंचने के
बिलकुल करीब
हूं। हाथ में
आयी—आयी बात
है, चूक
गया तो पता
नहीं, कितने
जन्म लगेंगे!
कबीर
उसी संपदा की
बात कर रहे
हैं। उसके लिए
बड़ा जतन चाहिए; रातें जागकर
बितानी
पड़ेंगी; दिन
होश से बिताना
पड़े; एक—एक
कदम जतन से
रखना पड़े।
साधु का
अर्थ है: जो
जतन से जी रहा
है, सुरति से
जी रहा है, स्मरणपूर्व जी रहा है—जो
भी कर रहा है।
और
जैसे—जैसे तुम
स्मरण से भरोगे, वैसे—वैसे
तुम्हें
दिखाई पड़ेगी:
झीनी—झीनी बिनी
चदरिया।
बड़ी
झीनी चादर है
जीवन की! और
जितना तुम
झीनापन देख
पाओगे, उसकी
बनावट की
बारीकी
समझोगे, उतने
ही अनुग्रह से
भरोगे, उतनी ही
संपदा बहुत
मूल्य होने
लगेगी। जहां कंकड़—पत्थर
थे, वहां
हीरे प्रकट
होने लगेंगे।
और जितने तुम
समझोगे कि
संपत्ति पास
है, उतना
जाओगे। उतनी
बड़ी संपत्ति
का द्वार खुल
जाएगा। दोनों
एक—दूसरे पर अन्योन्याश्रित
है।
कहां
से शुरू करोगे? कहीं से भी
शुरू कर सकते
हो। या तो
जीवन की झीनी
चादर को देखना
शुरू करो।
कबीर उसको ही
इस सूत्र में
समझाते हैं।
कहा के
ताना काहे के
भरनी, कौन
तार से बिन
चदरिया। यह
जीवन जो चादर
है, इससे
सूक्ष्म इस
जगत में और
कुछ भी नहीं।
यह तुम्हारा
दिखाई पड़नेवाला
शरीर न दिखाई पड़नेवाले
को छिपाये हुए
है। यह
तुम्हारे रोएं—रोएं में
जिसे तुम छू
सकते हो, वह
छिपा है। जिसे
छूने का कोई
उपाय नहीं। इन
तुम्हारी
आंखों के भीतर
वह दर्शक बैठा
है, जो
अदृश्य है। जब
तुम हाथ बढ़ाकर
किसी को छूते
हो तो
तुम्हारा हाथ
ही नहीं छूता,
तुम्हारे
भीतर वह भी उस
हाथ से छूता
है, जिसको
छूने का कोई
उपाय नहीं।
तुम्हारे
शरीर को स्थूल
है, लेकिन
तुम्हारे
शरीर के भीतर
अशरीर छिपा
है। स्थूल और
सूक्ष्म का
ताना—बाना है।
और बड़ी झीनी
चादर है। यह
शरीर भी जिसे
तुम देख रहे
हो, यह भी
इतना स्थूल
नहीं जितना
तुमने समझ रखा
है। और पहले
तो तुम अगर
प्रवेश करोगे
तो तुम पाओगे
कि यह शरीर भी
बहुत सूक्ष्म
है। क्योंकि
तुम इसे
पहचाने ही
नहीं हो, इसे
तुमने देखा
नहीं है।
योगी
कहते हैं कि
करोड़ों नाड़ियां
हैं, और अब
विज्ञान भी
सहमत है। अब
विज्ञान भी
कहता है कि योगियो
की प्रतीति
सही है। सिर्फ
तुम्हारे
मस्तिष्क में
सात करोड़ स्नायुत्तंत्र
हैं। छोटा सा
मस्तिष्क है—मुश्किल
से कोई डेढ़
किलो वजन—वह
भी आइंस्टीन
के मस्तिष्क
का, सबके
मस्तिष्क का
नहीं! डेढ़
किलो वजन का
मस्तिष्क है,
उसमें सात करोड़ स्नायुत्तंत्र
हैं। उनसे
सूक्ष्म कोई
भी चीज जगत
में नहीं है।
उन्हें खाली
आंखों से देखा
नहीं जा सकता।
तुम्हारा बाल
बहुत मोटा है।
अगर हम एक लाख
मस्तिष्क के
तंतुओं को एक
के ऊपर एक
रखें तो
तुम्हारे बाल
की मोटाई के
होंगे। इसलिए
तो मस्तिष्क
की सर्जरी
जल्दी विकसित
नहीं हो सकती;
क्योंकि
काटो कुछ, कट
जाए कुछ—सब इतना
बारीक है।
यंत्र को भी
भीतर ले जाना
खतरनाक है।
क्योंकि तुम
कुछ काटना
चाहते हो, लाखों
तंतु कट
जाएंगे—सिर्फ
यंत्र को भीतर
ले जाने में।
इसलिए मस्तिष्क
की सर्जरी को
इतनी देर लगी।
क्योंकि इतने
सूक्ष्म
यंत्र विकसित
करने बहुत
कठिन थे। और
इतने सधे हुए
हाथ पाने बहुत
कठिन थे। फिर
भी ब्रेन की
सर्जरी अभी भी
पूरा विज्ञान
नहीं बन पायी
है। क्योंकि
मस्तिष्क के
संबंध में
पूरी जानकारी
अब भी हमें उपलब्ध
नहीं हो सकी।
यह जो
सात करोड़
तंतुओं का जाल
है, इसमें
तुम्हारी
चेतना छिपी
है। यह जाल भी
सूक्ष्म है, और चेतना तो
उससे भी सूक्ष्म
है। यह जाल भी
खाली आंखों से
नहीं दिखाई पड़
सकता। और
चेतना तो आंख
से दिखाई ही
नहीं पड़ सकती।
बड़ी से बड़ी
खुर्दबीन लगा
दो तो भी
दिखाई नहीं पड़
सकती। यह जो
छोटे—छोटे
तंतु हैं सात करोड़, इनसे
एक—एक तंतु एक—एक
करोड़
सूचनाओं को
संगृहीत कर
सकता है। एक
तंतु एक करोड़
ज्ञान की
सूचनाओं को
अपने में
संगृहीत कर
सकता है।
मस्तिष्कविद
कहते हैं कि
पृथ्वी पर
जितनी लाइब्रेरियां
हैं अभी, अगर
उपाय किया जाए
तो एक आदमी के
मस्तिष्क में
समा सकती हैं।
एक आदमी अपने
में उतनी
जानकारी
समाविष्ट कर
सकता है। तुम
अपनी
मस्तिष्क का दो
प्रतिशत से
ज्यादा उपयोग
करते ही नहीं।
महान से महान
प्रतिभाशाली
व्यक्ति
पंद्रह
प्रतिशत का
उपयोग करता है,
पचासी
प्रतिशत ऐसे
ही चला जाता
है। हम सोच भी नहीं
सकते कि जिस
दिन कोई आदमी
सौ प्रतिशत
मस्तिष्क का
उपयोग करेगा,
उस दिन कैसी
महाप्रतिभा
का जन्म होगा।
उसके सामने आइंस्टीन
छोटे
टिमटिमाते
दीए रह
जाएंगे। वह महासूर्य
जैसा प्रकट
होगा।
यह
मस्तिष्क ही
सूक्ष्म हो
ऐसा नहीं है; पूरा शरीर
ही ऐसा ही
सूक्ष्म ताने—बाने
से बना है।
योगियों ने
बड़ी मेहनत की
और उनकी मेहनत
बड़ी अनूठी है।
क्योंकि
वैज्ञानिक के
पास तो यंत्र
हैं जानने को,
उनके पास
कोई भी यंत्र
न था। और
वैज्ञानिक के
पास तो सुविधा
है, प्रयोगशाला
हैं, निरीक्षण
किसी मुर्दे
को चीर फाड़ा,
न उन्होंने
कभी किसी
दूसरे का
निरीक्षण
किया। उनका
निरीक्षण बड़ा
अनूठा है। वे
भीतर जाग गए
और भीतर से
निरीक्षण
किया। बाहर से
तो उनके पास
कोई उपाय नहीं।
इस
मकान को देखने
के दो ढंग
हैं। एक तो
बाहर तुम सड़क
पर खड़े होकर
इसे देखो; वह इसका
बाहरी रूप है,
बाहर का
परकोटा है। और
एक वह रूप है
जो इस घर में
रहनेवाला
भीतर से
देखेगा।
वैज्ञानिक
बाहर से देख
रहा है। वह
नजर सड़क से गुजरनेवाले
की है। वह घर
का रहनेवाला
नहीं है। वह
भीतर नहीं खड़ा
है। बाहर से
देखनेवाला भी
कहता है कि
बड़ी विराट
सूक्ष्मता
है। तो जिन्होंने
भीतर से देखा
है, और
जिन्होंने
भीतर सजग होकर
इस ताने—बाने
को देखा है...ये
सात करोड़
तंतु जिस दिन
तुम भीतर देखोगे,
उस दिन तुम
समझोगे कबीर
क्या कहते
हैं: झीनी झीनी
बिनी
चदरिया?
ढाका
की मलमल कुछ
भी झीनी नहीं
है। तुम
मस्तिष्क में
जैसी मलमल
लेकर चल रहे
हो, कोई
कारीगर कभी
नहीं बुन
पाया। बुन भी
न पाएगा, क्योंकि
वह बड़े से बड़े
कारीगर
बुनावट है।
कबीर
कहते हैं, उस साईं को
भी बुनने में
दस महीने लग
जाते हैं, उस
परमात्मा को
भी बुनने में
एक चदरिया, इक आदमी का
शरीर निर्मित
करने में दस
माह लग जाते
हैं।
झीनी
झीनी बिनी
चदरिया।
काहे
के ताना काहे
के भरनी, कौन तार से बिनी
चदरिया!
चकित
हैं। भीतर
इलहाम हुआ है।
भीतर प्रकाश
भर गया है। उस
प्रकाश में यह
शरीर का ताना
बाना दिखाई पड़
रहा है। एक—एक
सूक्ष्मता
प्रकट हुई है।
और कबीर
विस्मय में कह
रहे हैं, काहे
के ताना काहे
के भरनी! कौन
सा है ताना, कौन सा है
बाना! किस
तारे से बुना
है इस चदरिया को!
यह उनका चकित,
विस्मय का
भाव है।
जब भी
कोई योगी भीतर
जागता है, विस्मय से
भर जाता है।
विस्मय पहली
घटना है। चकित
हो जाता है, आवक रह जाता
है।
यह
बाहर जी संसार
तुमने देखा है, ना कुछ है।
इससे बड़ा
संसार तुम
अपने भीतर
छिपाये बैठे
हो। उसे तुमने
देखा नहीं है।
क्योंकि उसे
देखने के लिए
भीतर थिर होने
की जरूरत है। और
भीतर होश को
उठाने की
जरूरत है।
भीतर एक ज्योति
बन जाए तुम्हारी
चेतना, तब
भीतर का घर
प्रकट होगा।
और निश्चित ही
मैं कहता हूं,
मनुष्य
जाति के
इतिहास में
किसी दूसरे
व्यक्ति ने
इससे बेहतर
शब्द का
प्रयोग नहीं
किया है। यह
जुलाहे ने ठीक
चाट मारी:
झीनी
झीनी बिनी
रे चदरिया!
इंगला
पिंगला ताना
भरनी, सुषमन तार से बिनी
चदरिया।
ये
योगियों के
पारिभाषिक
शब्द हैं। सुषुम्ना, योगी करते
हैं, रीढ़
को—लेकिन
सिर्फ रीढ़ को
ही नहीं; रीढ़
उसका बाहय
आवरण है। रीढ़
के मध्य से एक अतिसूक्ष्म
ज्योति धरा, रीढ़ के ठीक
मध्य से अति
सूक्ष्म
ऊर्जा, विद्युत
की भांति
ऊर्जा
प्रवाहित है।
और वही तुम्हारे
शरीर के, तुम्हारे
मस्तिष्क के
जीवन का आधार
है। तुम्हारा
मस्तिष्क सात करोड़
सूक्ष्म तंतुओंवाला,
तुम्हारी सुषुम्ना
का ही एक छोर
है, रीढ़ का
ही एक छोर है।
वैज्ञानिक
कहते हैं कि रीढ़
ही विकसित
होकर
मस्तिष्क बन
गई है। तो
तुम्हारा
मस्तिष्क रीढ़
का ही एक छोर
है।
इसे समझने
की कोशिश करो।
तुम्हारे
जीवन में दो
छोर हैं—शरीर
के जीवन में
भी। एक छोर तो
मस्तिष्क है, दूसरा छोर
यौन—केंद्र
है। इसलिए
योगियों ने दो
छोर माने हैं,
एक तो, जिसको
वे मूलाधार
कहते हैं; जो
तुम्हारा यौन
केंद्र है, सेक्स—सेंटर
है; और
दूसरा, जिसको
वे सहस्रार
कहते हैं। सहस्राव
का तुम्हें
कोई पता नहीं
है। रीढ़ के दो
छोर हैं: एक
कामवासना और
एक परमात्मा
की प्रतीति—परमात्म—वासना।
एक तरफ काम, दूसरी तरफ
राम। और इन
दोनों के बीच
जो प्रवाहित
धार है ऊर्जा
की, इनर्जी
की, उसका
नाम सुषुम्ना
है। रीढ़ उसकी
बाहरी खोल है।
जैसे बीज के
भीतर हुआ
वृक्ष छिपा
है। बीज बाहरी
खोल है—ठीक
ऐसे ही जिसको
हम रीढ़ कहते
हैं, इस
रीढ़ के भीतर
योगियों की सुषुम्ना
छुपी है। और
जैसे—जैसे तुम
जागोगे, वैसे—वैसे
यह ऊर्जा ऊपर
की और
प्रवाहित
होती है। जितने
तुम सोये
रहोगे, उतना
यह नीचे की ओर
प्रवाहित
होती है।
निद्रा
का अर्थ है:
तुम्हारा
जीवन सिर्फ
कामवासना को
ही जान पाएगा, तुम कोई और
बात न जान
पाओगे। तुम एक
ही छोर से परिचित
होओगे। वह छोर
बिलकुल द्वार
था पहला। तुम
महल के बाहर
सीढ़ियों पर ही
जीवन गंवा
दिए। तुमने
समझ लिया यही
घर है, तुम
वहीं रह गए।
अधिक लोग पोर्च
में ही जीवन
को समाप्त कर
देते हैं; सीढ़ियों
के भीतर भी
प्रवेश नहीं
हो पाता; द्वार
पर दस्तक भी
नहीं देते।
जैसे—जैसे
तुम
जागोगे...अब
जागने के लिए
फिर दो उपाय हो
सकते हैं। एक
उपाय पतंजलि
का है। वह
उपाय है कि
रीढ़ में वह जो
ऊर्जा है जीवन
की, जिसको
कुंडलिनी कहते
हैं, उसे
तुम ऊपर उठाओ।
इसलिए
शीर्षासन का
उपयोग है।
क्योंकि
शीर्षासन की
अवस्था में वह
ऊर्जा सहज ही
मस्तिष्क की
तरफ गिरनी
शुरू हो जाती
है। आसन इसलिए
उपयोगी हैं कि
उन सबके
माध्यम से चेतना
पर दबाव डाला
जाता है, ताकि
ऊर्जा ऊपर की
तरफ उठने लगे।
इसलिए ब्रह्मचर्य
का मूल्य है।
क्योंकि अगर
ऊर्जा नीचे की
तरफ बहती रहे
तो ऊपर की तरह
जाने को बचेगी
नहीं। तुम
नीचे का द्वार
रोक देते हो; जैसे नदियों
पर हम बांध बांध
देते हैं।
नदियों पर
बांध देते हैं
तो विराट विद्युत
की ऊर्जा
इकट्ठी हो
जाती है। ऐसे
ही बांध को
बांधने का उपाय
है:
ब्रह्मचर्य।
एक तरफ से
हमने द्वार
बंद कर दिया, तो ऊर्जा
इकट्ठी होती
है। जब ऊर्जा
ज्यादा इकट्ठी
होती है तो
उसे मार्ग
चाहिए।
ब्रह्मचर्य
हो, और साथ
में शीर्षासन
हो, तो बंध
हुई ऊर्जा
मस्तिष्क की
तरफ गिरनी
शुरू हो
जाएगी। ये
उपाय शारीरिक
हैं। पतंजलि
और हठयोग इस
शारीरिक उपाय
से तुम्हें जगाएंगे।
जैसे—जैसे
तुम्हारी
ऊर्जा ऊपर की
तरफ बहेगी, वैसे—वैसे
तुम सजग हो
जाओगे।
दूसरा
उपाय—कबीर, बुद्ध—उनका
है। वह दूसरा
उपाय यह है कि
तुम जैसे—जैसे
जागते जाओगे,
वैसे—वैसे
ऊर्जा ऊपर
बढ़ने लगेगी।
जैसे—जैसे तुम
होश का उपयोग
करोगे जीवन
में, चलोगे
तो होश से, बैठोगे,
तो
होशपूर्वक, उठोगे तो
होशपूर्वक, बिस्तर पर
सोने जाओगे तो
होशपूर्वक, तब तक होश को सम्हालोगे
जब तक शरीर
नींद में डूब
जाए, और
धीरे—धीरे ऐसी
घड़ी आएगी कि
शरीर तो नींद
में डूब जाएगा,
होश सम्हला
ही रहेगा। फिर
नींद में भी
होश चलने लगा।
इसलिए
कृष्ण कहते
हैं, योगी तब
भी नहीं सोता
जब सब सो जाते
हैं। इसका यह
मतलब नहीं है
कि वह बैठा ही
हरता है, आंखें
खोले ही हरता
है। वह भी
सोता है—लेकिन
उसका शरीर ही
सोता है। उसके
भीतर का साक्षी—भाव
जगा रहता है।
तो
जैसे—जैसे
साक्षी—भाव
बढ़ेगा, वैसे—वैसे
ऊर्जा ऊपर बढ़ेगी।
अन्योन्याश्रित
है। या तो
ऊर्जा को ऊपर
ले जाओ, तो
साक्षी—भाव
बढ़ेगा।
लेकिन
ऊर्जा को ऊपर
ले जाना अति
दुरूह है और उपद्रव
का मार्ग है।
और लंबी साधना
चाहिए, और
शरीर का लंबा
प्रशिक्षण
चाहिए। और अति
लंबी यात्रा
है, एक
जीवन में पूरी
भी नहीं हो
सकती क्योंकि
वह बैलगाड़ी
से यात्रा
करने जैसा है।
इसलिए धीरे—धीरे
हठयोग प्रयोग
के बाहर हो
गया, उसकी
जगह राजयोग ने
ले ली।
क्योंकि
राजयोग चेतना
पर सीधा काम
करता है। और
चेतना
शीघ्रता से
गतिमान होती
है। क्योंकि
कोई शरीर का
साधना की
जरूरत नहीं
है। चेतना की
साधना बड़ी सहज
है। सिर्फ
तुम्हें होश
ही साधना है।
अगर तुम हठयोग
साधना चाहो तो
शरीर सर्वांगरूप
से स्वस्थ
होना चाहिए, जो कि आज
मुश्किल है।
सर्वांग
स्वस्थ शरीर
खोजना
मुश्किल है।
क्योंकि सारी
प्रकृति विकृत
कर दी गई, और
सारा
प्राकृतिक
जीवन अस्त—व्यस्त
हो गया है। सब
अप्राकृतिक
है। हवा
अप्राकृतिक
है, जो तुम
श्वास से लेते
हो।
वैज्ञानिकों
ने खोजा है कि
बंबई, टोकियो,
न्यूयार्क
की हवा इतनी
ज्यादा
विषाक्त गैसों
से भर गई है कि
वे हैरान हैं
कि आदमी उस
हवा में जिंदा
कैसे हैं! मर
जाना चाहिए।
लेकिन आदमी समायोजन
कर लेता है। जीने
की धारा धीमी
हो जाती है; हर हालत में
अपने को
समायोजित कर
लेता है, जीने
की धारा धीमी
हो जाती, लेकिन
मरता नहीं।
जीने का ढंग
मंदा—मंदा हो
जाता है, बेहोश—बेहोश
हो जाता है, लेकिन मरता
नहीं। चारों
तरफ हवा
विषाक्त है; क्योंकि हठयोगियों
को पता भी
नहीं था कि सड़क
पर कारें
होंगी, ट्रेनें
दौड़ रही होंगी,
मोटर—साइकिलें
होंगी—सब तरफ
पेट्रोल जल
रहा होगा और
हवा में
आक्सीजन धीरे—धीरे
क्षीण हो
जाएगी। ऐसी
हालत आ गई है
कि जल्दी ही, सिर्फ बहुत
संपन्न लोग
आक्सीजन को
उपलब्ध कर सकेंगे।
इस सदी
के पूरे होते—होते
हर आदमी को
अपने चेहरे पर
आक्सीजन की एक
मास्क ओढ़नी
पड़ेगी—हर आदमी
को—रूस में
उन्होंने
प्रयोग शुरू
कर दिए हैं।
अमरीका में वे
प्रयोग शुरू
कर रहे हैं।
क्योंकि सदी
पूरे होते—होते
हवा से
आक्सीजन विदा
हो जाएगी। तो
अपना—अपना
आक्सीजन का
डब्बा
साथ...लेकिन, यह सिर्फ
बहुत संपन्न
लोग ही इसका
उपयोग कर
सकेंगे। गरीब
आदमी को तो मुश्किल
होगी। जैसी
गरीब आदमी को
नल के पास क्यू
लगा कर खड़ा
होना पड़ता है,
पानी
मुश्किल हो
गया; ऐसे
ही उसे, आज
नहीं कल, हवा
के लिए भी
क्यू लगा कर
खड़ा होना
पड़ेगा, जहां
वे दो—चार
आक्सीजन की
गहरी श्वास ले
ले, ताकि
चौबीस घंटे
किसी तरह चल
सके।
भोजन
विषाक्त है।
सब
अप्राकृतिक
है। क्योंकि
जो खनिज तत्व
प्रकृति में
चाहिए, वे
सब खो गए; आदमी
ने उनका उपयोग
कर लिया और
उनको वापिस
नहीं डाला है।
अब जो भी हम फर्टिलाइजर्स
डाल रहे हैं, वे सब नकली
और कृत्रिम
हैं, और
आदमी के बनाये
हुए हैं। वे
सब भोजन को
विषाक्त कर
रहे हैं।
चारों तरफ अणु
के प्रयोग चल
रहे हैं, सारी
दुनिया में।
वे सारी हवा
को विषाक्त कर
रहे हैं—सब
जगह रेडियीधर्मी
तत्व हर चीज
में प्रविष्ट
हो गए हैं।
कोई भी चीज अब
शुद्ध नहीं है—हो
भी ही सकती।
ऐसी हालत में
हठयोग का तो
कोई उपाय नहीं
रहा। हठयोग
बड़ी
प्राकृतिक
दुनिया की बात
थी, जब सब
प्राकृतिक
था। उस
प्राकृतिक
दुनिया में भी
हठयोगी
को कई जन्म लग
जाते थे। वह
लंबी यात्रा
है। क्योंकि
स्थूल ले जो
चलेगा, वह बैलगाड़ी
से चल रहा है।
सूक्ष्म
का जो उपयोग
करेगा, उसने
ज्यादा
त्वरित वाहन
खोज लिए।
इसलिए राजयोग
ने धीरे—धीरे
हठयोग को
समाप्त कर
दिया; उसकी
पूरी जगह ले
ली।
बुद्ध,कबीर,
नानक, दादू—सब
राजयोगी
हैं। और उन
सबने हठयोग का
विरोध किया
है। क्योंकि
उससे अब कोई
पहुंच नहीं
सकेगा, वह
बात आई गई हो
गई।
कबीर
कहते हैं कि
भीतर तुम
जितने जागते
जाओगे, उतनी
ही ऊर्जा
प्रवाहित
होगी। वह
ऊर्जा के
प्रवाह का जो
मार्ग है, उसका
नाम सुषुम्ना
है। उसको कबीर
सुषुम्ना
कहते हैं। और सुषुम्ना
तो बीच का
मार्ग है और
उसके दोनों
तरफ दो नाड़ियां
और हैं, जिसका
नाम इड़ा
और पिंगला
हैं। वे दो नाड़ियां
भी शरीर में
हैं, और उन
दोनों नाड़ियों
के भीतर भी
जीवन—ऊर्जा
प्रवाहित
होती है।
तुमने शायद
ध्यान न दिया
हो, और
आधुनिक शरीर
शास्त्र ने
बिलकुल ध्यान
नहीं दिया है,
लेकिन अब
कुछ
वैज्ञानिक उस
तरफ उत्सुक हो
रहे हैं।
श्वास तुम
लेते हो, तो
कुछ देर श्वास
बाएं नथुए
से चलती है, कुछ देर
दाएं से। जब
बाएं से श्वास
चलती है, तो
सारे शरीर की
अवस्था भिन्न
होती है और जब
दाएं से चलती
है तो भिन्न
होती है।
योगियों ने इन
दोनों
श्वासों के
द्वारों को इड़ और
पिंगला से
जोड़ा है। और
वे जड़े हैं।
जब
तुम्हारी एक
श्वास बाएं से
चलती है, तो
तुम्हारे
जीवन की ऊर्जा
एक यात्रा पथ
से गुजरती है;
जब दाएं से
चलती है, तो
दूसरे यात्रा—पथ
से गुजरती है।
योगियों ने
इनके बहुत नाम
दिए हैं। कोई
सूर्य—नाड़ी, चंद्र—नाड़ी।
क्योंकि
तुम्हारा एक
नासापुट
सूर्य की
भांति है।
उससे जब तुम
श्वास लेते हो,
तो पूरे
शरीर में
उष्णता
व्याप्त होती
है। तुम्हारा
दूसरा चंद्र
की भांति है।
जब तुम उससे
श्वास लेते हो
तो सारे शरीर
में शांति
व्याप्त होती
है। तुम्हारा
दायां स्वर
सूर्य का, तुम्हारा
बांया चंद्र
का है। इसलिए
कभी गौर करना,
अगर सिर में
दर्द हो, तो
तुम दाएं स्वर
को बंद कर
देना और बाएं
स्वर से श्वास
लेना। थोड़ी
देर में पाओगे,
दर्द खो
गया। क्योंकि
बायां स्वर
चंद्र का है, शांतिदायी है। अगर तुम
शिथिल हो, सुस्त
मालूम पड़ते हो,
थे मालूम
पड़ते हो, बाएं
स्वर को बंद
कर देना, दाएं
स्वर से ही
श्वास लेना।
थोड़ी ही देर
में तुम पाओगे
ऊर्जा
प्रवाहित हो
गई। शरीर ऊष्ण
हो गया, सक्रियता
आ गई। वह
सूर्य का स्वर
है।
इस पर, आधुनिक शरीर—शास्त्र
ने बहुत कम
ध्यान दिया है,
लेकिन नये
कुछ
वैज्ञानिक
उत्सुक हुए
हैं; इसमें
कुछ रहस्य तो
है ही। जो
व्यक्ति सुबह
उठता है, और
उठते वक्त
उसका दायां
स्वर चलता
रहता है, वह
पूरे दिन
सक्रिय होगा।
सुबह उठते
वक्त जिसका
बायां स्वर
चलता है, वह
दिन भर सुस्त
होगा। बाएं स्वरवाला
व्यक्ति रात
में ज्यादा
जीवंत मालूम
पड़ेगा; रात
देर तक जगेगा।
रात उसके लिए
दिन है। दाएं स्वरवाला
सांझ होते ही
सो जाने की
तैयारी करेगा;
ब्रह्ममुहूर्त
में अपने—आप
उसकी नींद खुल
जाएगी। दिन, उसका दिन है।
और हर
व्यक्ति को
अपनी प्रकृति
खोज लेनी चाहिए।
अन्यथा बड़े
उपद्रव पैदा
होते हैं।
क्योंकि जो
सूर्य के स्वरवाले
लोग है, वे
ज्यादा
सक्रिय हैं।
स्वभावतः जो
उतने सक्रिय
नहीं हैं, वे
उनकी निंदा
करते हैं।
स्वभावतः जो
उतने सक्रिय
नहीं हैं, वे
उनको कहते
हैं: आलसी हो, काहिल हो, सुस्त हो—उठो,
काम में
लगो! वे
कहेंगे, ब्रह्ममुहूर्त
में उठो!
आमतौर से
पुरुष दाएं स्वरवाले,
स्त्रियां
बाएं स्वर
वाली होती हैं—होना
ही चाहिए।
इसलिए भारत की
पुरानी
परंपरा है कि
पत्नी बाएं
बैठे। वह बाएं
स्वर का प्रतीक
है। वह चंद्र स्वरी है।
रात, उसका
दिन है। रात
वह पूरी खिलती
है। स्त्रियां
सुबह जल्दी
उठना पसंद
नहीं करती।
उठना पड़ता है,
क्योंकि
पति परमात्मा
सो रहे हैं।
लेकिन उनके
स्वभाव के
अनुकूल नहीं
पड़ता। और उसके
परिणाम घातक
होते हैं।
मेरे
अनुभव में
स्त्रियां
सिर के दर्द
से ज्यादा
पीड़ित रहती हैं—भारीपन
से, उदासी
से। और उसका
एक कारण, अनेक
कारणों में यह
है कि उन्हें
जब उठना चाहिए,
उसके पहले
से उठती हैं।
नैसर्गिक यही
है कि पति ही
सुबह की चाय
बनाए।
अभी
वैज्ञानिक भी
इस शोध पर
पहुंच गए हैं।
उन्होंने
दूसरे मार्ग
से बात को
समझा है। वे
कहते हैं कि
प्रत्येक
व्यक्ति का
चौबीस घंटे
में दो घंटे
शरीर का
तापमान नीचे
गिर जाता है।
वे जो दो घंटे
हैं, वही खास
नींद के घंटे
हैं। उन दो
घंटों में जो सो
लेगा, वह
दिन भर जाता
रहेगा। और उन
दे घंटों में
जो जागेगा
वह दिन भर
परेशान
रहेगा। वे दो
घंटे सभी के
एक—जैसे नहीं
हैं। एक—जैसे
होते तो बड़ी
आसानी थी।
कानून बना
देते कि तीन
बजे से पांच
बजे तक हर एक
आदमी को सोना
ही है। लेकिन
वे एक जैसे
नहीं हैं।
किसी को दो और
चार के बीच वे
दो घंटे आते
हैं; किसी
को पांच और
सात के बीच
आते हैं। और
वे दो घंटे
सबके भिन्न
हैं। और आप
उनका पता लगवा
सकते हैं।
क्योंकि
चौबीस घंटे
शरीर का आप
तापमान रख कर
देख लें, आपको
पता लगा जाएगा
कि आपके घंटे
कब हैं। वे दो
घंटे तो सोना
ही—चाहे
ब्रह्ममुहूर्त
हो या न हो। जो
उन दो घंटों
में सोयेगा, वह दिनभर
ताजा अनुभव
करेगा। नींद
पूरी हो गई।
आठ घंटे सोने
की जरूरत नहीं
है, वे दो
घंटे काफी
हैं। अगर वे
दो घंटे चूक
गए, तो तुम
बारह घंटे सोओ,
तो भी तुम
पाओगे कि कुछ
ही नहीं हुआ।
क्योंकि दो
घंटे जब
तापमान शरीर
का नीचे गिरता
है, तब
पूरा शरीर
शिथिल हो जाता
है। तब सारी
सक्रियता खो
जाती है। तब
तुम करीब—करीब
जैसे मुर्दा
हो गए, उस
वक्त न सपना
आएगा। उस वक्त
गहनतम
निद्रा होगी।
पर इन
खोजियों को भी
तुम यह अनुभव
में आया की पुरुषों
के घंटे पहले
हैं, स्त्रियों
के बाद में
हैं। अगर
पुरुष का चार
और छह के बीच, तीन और पांच
के बीच है, तो,
स्त्रियों
का आमतौर से
छह और आठ के
बीच, पांच
और सात के बीच
है। पश्चिम
में तो
उन्होंने सलाहें
देनी शुरू कर
दी हैं कि
स्त्रियां
थोड़े देर से उठें; देर
तक जागें तो
हर्ज नहीं।
पुरुष जल्दी
उठे। लेकिन
इसमें भी भेद
है। सभी पुरुष
एक जैसे नहीं
है, सभी
स्त्रियां एक
जैसी नहीं।
कोई
स्त्रियां तो
पुरुषों से
ज्यादा पुरुष
हैं। कई पुरुष
स्त्रियों से
ज्यादा
स्त्री हैं।
मुल्ला
नसरुद्दीन
कल ही मुझसे
मिलने आया। और
उसने कहा
मानें या न
मानें, लेकिन
पत्नी को
घुटने चलवा
दिया है।
मैंने कहा, सच! उसने कहा,
बिलकुल सच।
इसमें
रत्तीभर झूठ
नहीं है। तो
मैंने कहा, उसमें कुछ
बोली वह? उसने
कहा, बोली
क्यों नहीं!
बोली की खाट
के बाहर निकलो
नीचे से, तब
बताऊं?। खाट के
नीचे छुट गए
थे...पत्नी को
घुटने के बल चलवा दिया
है!
पुरुष
हैं जो
स्त्रैण हैं।
स्त्रियां है
जो पौरुषिक
हैं। तब भेद
है, हर
व्यक्ति को
अपना ही खोजना
पड़ता है। और
जैसे
तुम्हारे
अनूठे के
निशान भिन्न
हैं, तुम्हारे
जीवन के सब
निशान भिन्न
हैं, किसी
दूसरे से मेल
नहीं खाते।
अभी मैं शरीर—शास्त्र
पर एक ग्रंथ
देख रहा था, तो उस शरीर—शास्त्री
ने नवीनता
शोधों का
उल्लेख किया
है कि न केवल
अनूठे के
चिह्न, हर
व्यक्ति की
किडनी दूसरे
भिन्न है। हर
व्यक्ति का
हृदय दूसरे से
भिन्न है।
शरीर का एक—एक
रोआं भिन्न
है। प्रत्येक
व्यक्ति एक
अनूठी
प्रक्रिया
है। परमात्मा
ने बहुत झीनी—झीनी
चादर ही नहीं बीनी है, बड़ी भिन्न—भिन्न
चादर बीनी
है।
परमात्मा
की
सृजनात्मकता
अनंत है। वह
दोहराता
नहीं। वह
दुबारा
तुम्हें
बनाता नहीं, तुम्हारे
जैसा फिर कभी
नहीं बनाएगा।
इसलिए तुम धन्यभागी
हो। और अगर
तुम इस धन्यभाग
को समझ सको, तो तुम्हारे
जीवन में बड़ी
शांति और बड़े
आनंद का उदय
हो जाएगा। तुम
जैसा कभी
परमात्मा ने
किसी को नहीं
बनाया! तुम
जैसा फिर कभी
नहीं बनाएगा।
तो इस महान
अवसर को तुम
ऐसे ही मत खो
देना, जो फिर
कभी आनेवाला।
और तुम्हारे
ऊपर उसका ध्यान
है; क्योंकि
तुम जैसा कभी
नहीं बनाया, तुम जैसा
फिर कभी कोई
नहीं बनेगा।
तुम बिलकुल अनूठे
हो! इसलिए भूल
कर तुम नकल मत
करना। राम जैसे
बनने की, बुद्ध
जैसे बनने की,
कृष्ण जैसे
बनने की—भूल
कर नकल मत
करना, क्योंकि
परमात्मा
सिर्फ यही
चाहता है कि
तुम जैसे ही
पूरे बन जाओ, प्रामाणिक
रूप से तुम हो
जाओ।
तुम्हारा फूल
खिले। वैसा
फूल किसी और
के पास है भी
नहीं। तुम अगर
गरम जैसे बनोगे
तो नकली, कागजी—जापानी।
तुम अपने ही
जैसे बनोगे
तो ही
वास्तविक
यथार्थ।
काहे
के ताना, काहे की
भरनी, कौन
तार से बिनी
चदरिया।
इंगला—पिंगला
ताना भरनी, सुषमनतार से बिनी
चदरिया।।
इधर
रूस में एक
बहुत बड़ा
प्रयोग हुआ। किरिलियान
नाम के एक
फोटोग्राफर
ने एक नयी
फोटोग्राफी खोजी।...इस
सदी में
होनेवाली
अत्यंत
महत्वपूर्ण
खोजों में से
एक है। और
उसने इतनी
सूक्ष्म फिल्में
तैयार की हैं, कि इतनी
संवेदनशील की
उससे सूक्ष्म
शक्तियों के
भी चित्र लिए
जा सकते हैं।
इसे थोड़ा समझ
लें, क्योंकि
तभी यही इड़ा,
पिंगला और सुषुम्ना
की बात खयाल
में आ सकेगी।
क्योंकि ये
एनर्जी फील्ड
हैं। ये
वस्तुएं नहीं
है, ये
विद्युत
क्षेत्र हैं।
किरिलियान
की खोज
आकस्मिक हुई।
वह सिर्फ
फोटोग्राफर
था। लेकिन
सूक्ष्मतम, संवेदन शील
फिल्म बनाने
की उसकी धुन
थी। एक फोटो
लेते वक्त, भूल से उसका
हाथ कैमरे के
सामने आ गया, और हाथ की
तस्वीर आ गयी।
और वह बड़ा
हैरान हुआ। हाथ
में तीन
उंगलियां तो
ठीक थी, अंगूठा
ठीक था, एक छींगली
अजीब सी हालत
में थी, रुग्ण
मालूम पड़ती
थी। और
उंगलियां
बिलकुल ठीक
थीं। लेकिन
चित्र में
रुग्ण मालूम
पड़ती थीं। और
चित्र में
लगता था कि
उंगली को कोई
रोग लग गया
है। छह महीने
बाद उंगली को
रोग लगा। और
जब छह महीने
बाद उसने
चित्र लिया, और मिलाया, तो वे चित्र
बिलकुल एक
जैसे थे। तब
उसे एक सूझ
हुई की कहीं
ऐसा तो नहीं
है कि बीमारी
इसके पहले कि
शरीर में प्रविष्ट
हो, विद्युत—क्षेत्र
में प्रविष्ट
होती हो।
क्योंकि छह महीने
पहले चित्र
बीमारी का आ
जाए, और
बीमारी छह
महीने बाद हो।
तो फिर उसने
दूसरे प्रयोग
शुरू किए। एक
द्वार खुल
गया। उसने
फूलों के, कलियों
के चित्र लिए
और फूल के
चित्र आ गए।
क्योंकि
अत्यंत
संवेदनशील
फिल्मों का
उपयोग किया
उसने। यह फूल
चार दिन बाद
खिलेगा।
लेकिन उसकी
विद्युत—ऊर्जा
पहले खिलती
है। फिर उसी
विद्युत—ऊर्जा
के कारण इसकी पंखुड़ियां
खिलती हैं। वह
विद्युत—ऊर्जा
हमें दिखाई
नहीं पड़ती, फूल दिखाई
नहीं पड़ता है।
और जब उसने
चित्र मिलाए
तो वह चकित
हुआ: ये चित्र
बिलकुल मेल
खाते हैं!
पहले विद्युत—ऊर्जा
खिल जाती है, तो ऊर्जा का
फूल बन जाता
है। फिर चार
दिन बाद फूल
खिलता है। और
जब इसका चित्र
उस चित्र से
मिलाया जाता
है तो वो बिलकुल
एक जैसे हैं।
फिर तो
किरिलियान
ने पिछले तीस
वर्षों में
बहुत प्रयोग
किए और उसने
यह बात
प्रामाणिक
रूप से सिद्ध
कर दी कि शरीर
से भी एक गहरा
शरीर है, और
वह गहरा शरीर
विद्युत
ऊर्जा का है।
और अगर हम
विद्युत—ऊर्जा
के चित्र लेने
में समर्थ हो
जाएं, तो
जो घटना इस
शरीर तक जाने
में छह महीने
का समय लेती
है, वह
वहां पहले ही
घट गई होती
है।
इसके
बड़े उपयोग
हैं। जिस दिन
यह परिपूर्ण
बन जाएगा—किरिलियान
की
फोटोग्राफी—उस
दिन दुनिया
में किसी आदमी
को बीमार होने
की जरूरत नहीं; क्योंकि हम
बीमार होने के
छह महीने पहले
पकड़ लेंगे कि
अब बीमारी आने
के करीब है।
इलाज वहीं हो
सकता है। आदमी
को भी पता
नहीं कि वह
बीमार है। वह
अभी बीमार है
ही नहीं।
बीमारी को
सूक्ष्म से
स्थूल तक आने
में छह महीने
का वक्त लगता
है। और
तुम्हारा जो
विद्युत—ऊर्जा
का चित्र है, उसको पुराने
योगियों ने
तुम्हारा आभामंडल
कहा है।
किरिलियान
पाता है कि
रंग में फर्क
है। जब आदमी
स्वस्थ होता
है, तो उसके
शरीर के आसपास
चार इंच तक
फैला हुआ अलग
रंग का
आभामंडल होता
है; जब
बीमार होता है
जब अलग रंग का
होता है; जब
प्रसन्न होता
है तो अलग रंग
का होता है; जब दुखी
होता है तो
अलग रंग का
होता है। तुम
दुखी नहीं
होते की
तुम्हारी विद्युत—ऊर्जा
भी दुख के रंग
से भर जाती
है। और जब तक
विद्युत—ऊर्जा
को न बदला जा
सके तुम सुखी
न हो सकोगे। तुम्हारा
स्थूल शरीर तो
सिर्फ छाया है,
असली शरीर
तो भीतर छिपा
है। उस असली
शरीर को ही
हमने इंगला—पिंगला
ताना भरनी, सुषमन तार से बिनी
चदरिया, कहा
है।
आठ कंवल
दस चरखा डोल, पांच तत्त
गुन तिनी
चदरिया। वह जो
भीतर का
इनर्जी—फील्ड,
ऊर्जा—क्षेत्र
है, उसमें कंवल हैं, आठ चक्र
हैं। उस द्वार
हैं
इंद्रियों के—दस
चरखा डोले।
पांच तत्व, पांच महातत्वों
से वह बना है।
तीन गुणों से उसकी
रचना हुई है।
तो
कबीर कहते हैं
कि आठ कंवल, जिनको हम
चक्र कहते हैं,
अगर ठीक से
समझें...। और
उनको कंवल
कहने का कारण
है। यह तो
प्रतीक है।
कभी नदी में
आपने देखा, जब कोई भंवर
पड़ती है, तो
चक्र में पानी
घूमता है!
वैसे ही चक्र
आपके शरीर की
विद्युत में
बने हुए हैं, जहां ऊर्जा
घूमती है—भंवर!
और उन भंवरों
का जो रूप है
वह कमल से
मिलता—जुलता
है; जैसे
कमल घूम रहा
हो। और जब
व्यक्ति
अज्ञानी होता
है, तो ऐसा
होता है जैसे
कमल नीचे की
तरफ झुका हो—डंडी
ऊपर, कमल
नीचे की तरफ
झुका हो, मुरझाया
हुआ। जैसे—जैसे
ऊपर की तरफ
बहनी शुरू
होती है, कमल
की डंडी सीधी
होने लगती है,
और कमल सीधा
हो जाता है।
बुद्ध को, विष्णु
को, हमने
कमल पर खड़ा
किया है—खिला
हुआ कमल जिस
पर वे खड़े हैं!
वह कमल उसी
विद्युत—ऊर्जा
का प्रतीक है।
उनको पूरा कमल
खिल गया है।
उस पूरे कमल
के खिल जाने
में उन्होंने
परम सत्य को
पा लिया है।
हमारे कमल
झुके हुए हैं,
जब तक हमारी
ऊर्जा ऊपर
नहीं बहती।
हमारी ऊर्जा
नीचे बहती है।
ऐसा
समझो कि जैसे
कमल हैं, और
वर्षा हो रही
है जोर से, तो
वर्षा को झुका
देगी और नीचे
की तरफ मुंह
कर देगी। जब
तक तुम्हारे
जीवन में
कामवासना हो रही
है, गहन
रूप से बरस
रही है, तब
तक ऊर्जा नीचे
की तरफ बह रही
है। सारे कमल
झुके होंगे।
जिन दिन ऊर्जा
ऊपर की तरफ
बहेगी, ऊर्ध्वगमन
शुरू होगा—जिनको
वेद ने उर्ध्वरेतस्
कहा है—जब तुम उर्ध्वरेतस्
बनोगे कि
तुम्हारी
ऊर्जा ऊपर की
तरफ जाएगी, सब कमल ऊपर
की तरफ उठ
जाएंगे, सब
कमल खिलते
जाएंगे! अंतिम
कमल, आठवां
कमल जिसको
कबीर कहते हैं,
वह सहस्र
है।
यह
गिनना अलग—अलग
है। कोई सात कंवल
गिनता है, कोई आठ कंवल
गिनता है, कोई
नौ कंवल
गिनता है। कोई
ग्यारह कंवल
गिनता है। यह
गणना संभव है।
यह इस पर
निर्भर करता
है कि तुम...।
कमल तो बहुत
हैं। तुम्हारी
ऊर्जा के रोएं—रोएं में
कमल है। तो
जितना
तुम्हें
गिनना हो, जिस
हिसाब से
गिनना हो, तुम
गिन सकते हो।
फिर हर आदमी
की यात्रा के पड़ाव
भिन्न हैं।
जैसे कि तुम
यात्रा पर जाओ,
कोई आदमी हर
दस मिल पर
रुके, सौ
मील की यात्रा
हो तो हर दस
मील पर रुके; दस पड़ाव
बनाए। दूसरा
आदमी पंद्रह
मील पर रुके, तो दस से कम पड़ाव
बनाए। तीसरा
आदमी बीस मील
तक चलता हो और
बीस मील पर
रुके तो पांच
ही पड़ाव
बनाए।
बुद्ध
कहते हैं, छह कमल।
उन्होंने छह
ही पड़ाव
बनाए होंगे।
वह जो अनंत
यात्रा है, उस पर वे छह
जगह रुके
होंगे। छह जगह
अड़चन पायी होगी।
छह जगह उनको
फूलों को
खिलाना पड़ा
होगा तो छह।
कबीर हैं, आठ।
उसमें कोई
विवाद नहीं
है। इस पर
भारी विवाद
चलता है, पंडितों
में कि कौन
सही है। इसमें
क्या अड़चन है?
मैं दस मील
पर अपना पड़ाव
बनाऊं, मेरी
मर्जी; मैं
बीस पर बनाऊं,
मेरी
मर्जी। जहां
मैं कहूंगा, वहां मेरा
पहला पड़ाव
होगा।
ऐसे भी
लोग हैं, जिन्होंने
कमलों की बात
ही नहीं की; जैसे
महावीर। लगता
है उन्होंने पड़ाव बनाए
ही नहीं। जेट जम्प! ऐसा
लगता है, उन्होंने
सीधे पहले
केंद्र से
अंतिम केंद्र पर
छलांग लगाई।
यह भी संभव
है।...यह भी
संभव है। और
महावीर जैसे
व्यक्ति को
संभव है।
इसलिए हमने
उनको नाम
महावीर दिया
है। नाम ही
दिया है कि
उनके पास महान
ऊर्जा है, भारी
ऊर्जा है!
ऊर्जा
जितनी बड़ी हो
उतनी लंबी
छलांग हो सकती
है—कहीं बीच
में पड़ाव
बनाया ही न
हो। तो
उन्होंने कमल
की बात ही नहीं
की, बीच के
चक्रों की बात
नहीं की।
लेकिन उसका मतलब
यही नहीं है
कि वे बीच के
चक्रों से
नहीं गुजरे।
तुम्हारी
ट्रेन चाहे
बीच के
स्टेशनों पर
रुके या न
रुके, गुजरती
तो है ही। तुम
जंकशन से
जंकशन रुको, मेल गाड़ी
में चलो, इससे
कोई फर्क नहीं
पड़ता। लेकिन
जो आदमी ट्रेन
से गुजर रहा
है, फास्ट
ट्रेन से और
बीच के स्टेशन
पर रुकता नहीं,
उसे बीच के
स्टेशनों की
चर्चा करने का
कोई कारण
नहीं। वह
जंकशन टू
जंकशन...। वह एक
जंकशन से दूसरे
जंकशन की बात
करेगा। फिर
पैसेंजर में चलनेवाले
लोग हैं। कोई
खराबी नहीं है
पैसेंजर में
चलने में।
मेरे
एक मित्र हैं, बहुत धनी, लेकिन हमेशा
पैसेंजर में
चलते हैं। वे
कहते हैं, गरीब
लोग चलते हैं
तेज गाड़ी में,
जिनके पास
समय की कमी
है। और उनकी
बात भी मुझे जंचती है; क्योंकि वे
कहते हैं, यात्रा
का आनंद ही
क्या? हर
स्टेशन पर वे
उतरते हैं, पानी पीते
हैं, भजिये खरीदते हैं,
यह करते हैं,
वह करते
हैं। तो
यात्रा का
आनंद ही क्या!
गपशप करते हैं,
मिलते—जुलते
हैं। ट्रेन
खड़ी है.......।
एक बार
मेरा उनसे साथ
हो गया। तो
जहां मैं बारह
घंटे में
पहुंच जाता, तीन दिन लगा
दिये
उन्होंने।
मगर वे आदमी
प्यारे हैं।
उनके साथ तीन
दिन भी तीन
क्षण जैसे लगे
और मुझे भी
लगा की बात तो
उनकी भी सच
है। मर्जी है,
कौन कैसा
चलता है।
विवाद कुछ भी
नहीं है।
इसलिए
मेरे लिए
इसमें कुछ
फर्क नहीं
पड़ता है कि
कोई नौ कमल
कहता है कि
कोई दस कहता
है, कि कोई
ग्यारह कहता
है, इसमें
कोई फर्क नहीं
पड़ता। कबीर
कहते हैं, बिलकुल
ठीक कहते हैं।
आठ कंवल
दस चरखा डोले...।
और दस हैं
इंद्रियों
के। दस
इंद्रियां
हैं: पांच कर्म—इंद्रियां, और पांच
ज्ञान
इंद्रियां।
वे कहते हैं, इन
इंद्रियों का
चरखा है। वे
प्रतीक तो
जुलाहे के
हैं। पंच तत्त—पांच
तत्व हैं। तीन
गुण—रजस, तमस,
सत्व। इन
सबसे मिल कर
वह भीतर की
चादर बनी है।
साईं
को सीयत
मास दस लागे, ठीक कर बिनी
चदरिया।
परमात्मा
को एक—एक— चादर
बनाने में दस
महीने लग जाते
हैं।
सोई
चादर सुन नर
मुनि ओढ़ी, ओढ़ी
के मैली किनी
चदरिया।
दास
कबीर जतन से ओढ़ी ज्यों
की त्यों धरि
दीनी
चदरिया।।
परमात्मा
को भी निर्माण
करने में समय
लेता है।
क्योंकि जो
निर्माण किया
जा रहा है, वह इतना
बहुमूल्य है!
तुम अपने को
कोई कीमत ही नहीं
देते।
परमात्मा
पूरा
अस्तित्व दस
महीने
तुम पर खर्च
करता है—तुम्हें
बनाने में।
लेकिन तुम
अपना कोई मूल्य
ही नहीं
समझते। तुम
ऐसे जीते हो
जैसे निर्मूल्य
हो। तुम दो
पैसे में अपने
को बेचने को
तैयार रहते
हो। तुम्हें
पता ही नहीं
कि कितनी बड़ी
संपदा
तुम्हें दी
गई। तुम उसे
ऐसे ही बरबाद कर
देते हो। तुम
उसका कोई भी
उपयोग नहीं कर
पाते।
कबीर
यहां एक बड़ी
महत्वपूर्ण
बात कर रहे
हैं, सूक्ष्म
है, और गौर
से समझें।
कहते हैं...
सोई
चादर सुन नर
मुनि ओढ़ी...।
तीन प्रतीक
उन्होंने
चुने। सुर—स्वर्ग
में रहनेवाला
देवता; नर—साधारण
मनुष्य; और
मुनि—त्यागी
जन। इन सबने
वही चादर ओढ़ी,
लेकिन कबीर
कहते हैं कि ओढ़ी के
मैली किनी
चदरिया—और इन
तीनों ने मैली
कर दी।
मुश्किल
है समझना।
समझें:
सुर का
अर्थ है:
स्वर्ग में
रहनेवाले देवता।
देवता, भोगने
के शुद्ध
प्रतीक हैं।
वे सिर्फ
भोगते हैं।
स्वर्ग का
अर्थ है: भोग—स्थल।
वहां हमने
कल्पतरू बनाए
हैं, जिनके
नीचे आदमी
बैठता है और
जो चाहता है, चाहा नहीं
इधर कि पूरा
नहीं हुआ
उधर...चाह और पूर्ति
में कर्म नहीं
है। इसलिए
स्वर्ग कोई
कर्म स्थली
नहीं है, भोग—स्थली
है। यही तो
हमारी वासना
है सबकी कि
ऐसा हो कि इधर
मैं चाहूं कि
उधर पूरा हो
जाए। बटन भी न
दबाना पड़े, उतनी देर भी
न लगे। लेकिन
यहां तो
पृथ्वी पर बड़ी
देर लगती है।
तुम एक
बड़ा मकान
बनाना चाहते
हो तो कोई
तुमने चाहा और
पूरा नहीं हो
जाएगा। शायद
पूरी जिंदगी
तुम तड़पोगे, परेशान
होओगे, तब
बन पाएगा।
शायद जब तक बन
पाएगा; तब
तक तुम रहने
योग्य ही नहीं
रह जाओगे। जब
बन जाएगा, तब
तुम पाओगे
जिंदगी तो गई।
तुम धन कमाओगे
बड़ी कामनाओं
से, बड़े
सपनों से; लेकिन
जब धन हाथ
आएगा, तुम
पाओगे कि जो
भोग सकता था
वह तो कभी का
खो गया। समय
सब नष्ट हो
जाता है।
इसलिए हमारी
अंतिम कल्पना
भोग की है।
स्वर्ग, वहां
वासना और
पूर्ति में
समय नहीं
जाता। यहां
तुमने चाहा, वहां पुरा
हुआ। इधर तुम
मांग की, तत्क्षण
पूरी हुई। यही
तो अमीर होने
का सुख है।
गरीब और अमीर
में फर्क क्या
है? गरीब
चाहे तो उसी
वक्त पूरा
नहीं हो सकता,
अमीर चाहे
तो उसी वक्त
पूरा हो सकता
है। जितना
उसके पास धन
हो, उतनी
उसकी वासना और
पूर्ति में
दूरी कम होती
जाती है। इधर
उसने कहा कि
एक बड़ा महल
चाहिए, एक
बड़ा महल हो
जाएगा।
लेकिन
कबीर कहते हैं, देवता भी
मैली कर देते
हैं। भोग से
चादर मैली हो
जाती है।
क्योंकि भोगा
का अर्थ है: जो
अपनी वासनाओं
में पूरी तरह
तादात्म्य
करके भटक गया।
भूख लगी तो
उसने समझा कि
मैं भूख हूं।
वासना जगी तो
उसने समझा कि
मैं वासना
हूं। क्रोध उठा
तो उसने समझा
कि मैं क्रोध
हूं।
भोगी
का अर्थ है:
वासनाओं के
साथ जिसने
अपने को इतना
जोड़ लिया कि
कोई फासला न
रहा। स्वर्ग के
देवता भी गिरेंगे
वापिस।
स्वर्ग कोई
अंतिम अवस्था
नहीं है। भारत
ने एक अंतिम
अवस्था खोजी, जिसको वे
कहते हैं:
मोक्ष। यह
थोड़ा समझ लेने
जैसा है, क्योंकि
दुनिया में
कहीं भी मोक्ष
की धारणा नहीं
है। नर्क है।
नर्क है, स्वर्ग
है, पृथ्वी
है; मोक्ष
एकदम भारतीय
धारणा है—शुद्ध
भारतीय! मगर
भारतीयों ने
मेहनत बड़ी की
है। इसलिए
हकदार थे वे
खोजने के उस
दिशा में। जैसे
विज्ञान ने
पश्चिम में
मेहनत की है, वैसे भारत
ने धर्म
में मेहनत की
है। स्वर्ग को
हम अंतिम
अवस्था नहीं
मानते। उससे
भी आदमी
गिरेगा; क्योंकि
कब तक
भोगेंगे! भोग
से ऊब पैदा
होती है।
इसलिए स्वर्ग
अगर तुम पाओगे
तो सभी देवताओं
को जम्हाई
लेते हुए
पाओगे। ऊब
पैदा होती है।
तुम
सोचो, तुम
जो चाहो, वह
उसी वक्त मिल
जाए, कितनी
देर तुम भोग
पाओगे? दस—बारह
घंटे? मुश्किल!
तुम जो चाहो, उसी वक्त
मिल जाए—तुम्हारी
वासनाएं
कितनी देर चल
पाएंगी? भोग
उबा
देगा। इसलिए
पुराणों में
कथाएं हैं कि
देवता ऊब जाते
हैं, पृथ्वी
के लिए तरसते
हैं। यहां एक
फायदा है। यहां
वासना उसी
वक्त तृप्त
नहीं होती; समय लगता
है। और समय
में ही मजा
है।
इसलिए
तो कवि कहते
हैं, इंतजारी
में...। वह जो
प्रतीक्षा
है...। मिलने
में कुछ खास
मजा नहीं; मिल
गया फिर क्या
करोगे? इंतजारी
में, राह
देखने में, प्रतीक्षा
करने में, आ
रही मंजिल, आ रही; आशा
में सारा मजा
है। मिल जाने
पर तो सब मजा
खो जाता है।
देवताओं को
मिल गया है; भोगते हैं, लेकिन भोग
के साथ
तादात्म्य
जुड़ जाता है।
देवता कोई जागे
हुए लोगों का
नामन ही है।
तुम इंद्र से
ज्यादा सोया
हुआ आदमी न पा
सकोगे। खोया
है—शराब, राग—रंग...अप्सराएं
नाच रही हैं, और हमेशा
परेशान है।
हमेशा कथाओं
में उसका सिंहासन
डोलता रहता
है। कोई मुनि
कहीं ध्यान कर
रहे हैं, उनसे
क्या लेना—देना!
कहीं कोई मुनि
तपश्चर्या कर
रहे हैं, तत्क्षण
इंद्र का
सिंहासन
डोलने लगता
है।
इन
कहानियों का
बड़ा महत्व है, बड़ा मूल्य
है। इसका अर्थ
यह है कि
त्यागी और भोगी
दोनों एक ही
चीज के दो छोर
हैं; जैसे
कि एक ही
तराजू के दो पलड़े होते
हैं। इस तराजू
पर ज्यादा वजन
रखो, यह पलड़ा
डोलने लगता
है। जब भी कोई
मुनि ज्यादा
त्याग करता है,
इंद्र
घबराता है।
उधर पलड़ा
डोलता है—क्यों?
ये दोनों एक
ही चीज से
जुड़े हैं, एक
तराजू के दो
छोर है।
क्योंकि इस
मुनि ने अगर
ज्यादा त्याग
किया तो भोग
का अधिकारी हो
जाएगा; इंद्र
बन सकता है।
तो इंद्र
अपदस्थ हो
सकते हैं। इंद्र
की वही दशा है,
जो दिल्ली
के
राजनीतिज्ञों
की है। इंद्र
को ही इंदिरा—फर्क
नहीं पड़ता; सिंहासन
डोलता ही रहता
है। और वशिष्ठ
और विश्वामित्र
हों कि
जयप्रकाश, एक
ही तराजू के
दो पलड़े
हैं। और इस
तराजू पर वजन
बढ़ा कि दूसरा
तराजू ऊपर उठा
आर चकित हुआ
कि क्या मामला
है।
इसलिए
कथा बड़ी
महत्वपूर्ण
है। कोई कथा
व्यर्थ तो
होती नहीं।
अगर हम उसके
मनोविज्ञान
में प्रवेश कर
सकें तो बड़ी
महत्वपूर्ण
है। भोगी हमेशा
त्यागी से डरा
रहेगा।
क्योंकि
त्यागी कर क्या
रहा है, त्याग
कर क्यों रहा
है? त्यागी
इसलिए सारा
शोरगुल मचा
रहा है, तपश्चर्या
कर रहा है कि
भोग का
अधिकारी हो
जाए।
तो
भोगी और
त्यागी में
बहुत फर्क
नहीं है। भोगी
और त्यागी एक
ही सिक्के के
दो पहलू हैं।
उनकी कामना एक
ही है। एक को
मिल गया है; दूसरे मिल
जाए, इसकी
आशा में जी
तोड़ कर लेगा
हुआ है। इसलिए
त्यागी भी
सपने तो भोग
के ही देखता है।
उसने यहां
सारी
स्त्रियां
छोड़ दी हैं, अप्सराओं के सपने देख
रहा है। उसने
यहां भोजन छोड़
दिया, उपवास
कर रहा है; लेकिन
प्रतीक्षा कर
रहा है: कब
स्वर्ग के
भोजन, मिष्ठान्न
उपलब्ध
होंगे। यहां
उसने शरीर को गला
डाला, सुखा
डाला, वहां
स्वर्ण—काया
की प्रतीक्षा
कर रहा है, देव—काया
की—देवताओं
जैसा शरीर, जो कभी मुर्झाता
नहीं, जो
कभी बूढ़ा नहीं
होता। स्वर्ग
में उम्र बढ़ती
नहीं। वहां
लोग ठहरे ही
रहते हैं। कम
से कम स्त्रियां,
कहते हैं, सोलह पर
ठहरी रहती
हैं। कोई
अप्सरा सोलह
से बड़ी की है
नहीं। अब
कितना समय बीत
गया, अभी
भी वह सोलह की
है। उम्र बढ़ती
नहीं। यहां भी
स्त्रियां
कोशिश तो बहुत
करती हज कि न
बूढ़े लेकिन यह
इस जमीन पर
चलता नहीं।
मुल्ला
नसरुद्दीन
ने मुझे एक
दिन कहा, अकेले
बूढ़ा होते होते,
अकेले—अकेले
बहुत बुरा
लगता है।
मैंने
कहा, अकेले।
तुम्हारी
पत्नी है।
उसने कहा, पत्नी
दस साल से
उसकी उम्र बढ़ी
ही नहीं, हम
अकेले ही बूढ़े
हो रहे हैं।
हर पति
अकेला बूढ़ा
होता है।
पत्नी तो ठहर
चुकी होती है
बहुत पहले।
स्वर्ग में
उम्र बढ़ती नहीं, शरीर गलता
नहीं, रोग
की कोई खबर
नहीं। स्वर्ग
में कोई वैद्य
है, आपने
सुना? एलोपैथी
या
आयुर्वेदिक
या हकीम—कोई
भी नहीं, यहां
तो बुद्ध भी
हों, तो भी
वैद्य की
जरूरत पड़ती
है। स्वर्ग
में कोई रोग
नहीं, बीमारी
नहीं, बुढ़ापा नहीं—बस, भोग
ही भोग है।
सिर्फ स्वर्ग
का रोग एक ही
है कि वहां ऊब
पैदा हो जाती
है।
धनी
आदमी ऊब जाता
है। गरीब आदमी
उतना ऊबा हुआ
नहीं दिखाई
पड़ेगा। धनी
आदमी बिलकुल
ऊबा हुआ दिखाई
पड़ेगा। उसकी
जिंदगी में अब
कुछ बचा नहीं।
क्योंकि
इंतजारी टूट
गई। अब कुछ
इंतजार करने
को नहीं है, सब पा लिया।
अब! अचानक सब
ठहर गया! गति
थी, दौड़ थी,
सब रुक गया।
अब कहीं जाने
को न बचा। अब वह
मुश्किल में
पड़ गया है।
फिर वह तड़पने
लगता है—वापिस
पृथ्वी पर उतर
आने को।
कबीर
कहते हैं कि
चाहे देवता ओढ़ें, चाहे
मनुष्य—सभी
उसको मैला कर
देते हैं।
देवता भोग के
कारण मैला कर
देता है, मुनि
त्याग के कारण
मैला कर देते
हैं।
कबीर
का यह वचन बड़ा
क्रांतिकारी
है। क्योंकि
कबीर यह कह
रहे हैं कि
तुमने अगर त्याग
भी किया और
बेहोशी से
किया, तो वह
भोग से भिन्न
नहीं है। यह
भोग के विपरीत
भला हो, लेकिन
भोग से भिन्न
नहीं है। उसका
स्वभाव एक ही
है। और त्यागी
और भोगी की
नजर में
बुनियादी फर्क
नहीं पड़ता।
भोगी धन के
पीछे पागल है,
त्यागी धन
छोड़ने के पीछे
पागल है।
लेकिन दोनों
की नजर धन पर
लगी है। भोगी
कहता है मेरे
पास दस करोड़
रुपए हैं, त्यागी
कहता है मैंने
दस करोड़
त्याग दिए
हैं। लेकिन दस
करोड़ की
गिनती दोनों
करते हैं।
भोगी कहता है,
सोना सब कुछ
है। त्यागी
कहता है, सोना
मिट्टी है।
लेकिन दोनों
सोने की चर्चा
करते हैं।
सोना अगर सच
में ही मिट्ठी
है तो चर्चा
भी क्या करनी?
मिट्टी की
कोई चर्चा
क्यों नहीं
करता? अगर
सेना सच में
मिट्टी है तो
चर्चा क्या
करनी?
महाराष्ट्र
में एक फकीर
हुआ। उस फकीर
का नाम था रांका।
वह गरीब
त्यागी आदमी
था। लकड़ी काट
कर बेचता और
जो बच जाता
उससे अपना
भोजन चलाता। सांझ
को वह भी बांट
देता जो बच
जाता। एक दिन
वर्षा देर तक
होती रही, दो तीन दिन
बीत गए। तीन
दिन तक भोजन न
मिला। उसकी
पत्नी भी थी, उसका नाम था
बांका। रांका
पति, बांका
पत्नी। चौथे
दिन वर्षा
रुकी, जंगल
गए। लकड़ी काट
कर लौटते थे, लकड़ी गीली
थी, बिक भी
न सकेगी; भूखे
थे, थके
थे। अचानक
देखा पति ने, आगे चल रहा
था, कि राह
के किनारे
स्वर्ण—अशरफियों
से भरी हुई
थैली पड़ी है।
कुछ अशरफियां
हैं, थैली
खुल गयी।
त्यागी आदमी
था, जिसको
कबीर मुनि
कहेंगे। सोचा
कि यह मिट्टी
यहां क्यों
पड़ी है, और
किसी का मन
मोह ले! तो
उसने गढ़े
में डाल के
ऊपर मिट्टी
डाल दी। पत्नी
तब तक पीछे से
आ गई। उसने
उससे पूछा, क्या कर रहे
हैं? तो
उसने कहा, यहां
कुछ सोना पड़ता
था। सोना तो
मिट्टी है। इसलिए
उसको मैंने गढ़े में
डाल कर उसके
ऊपर मिट्टी
डाल दी है।
पत्नी ने कहा,
तुम्हें
मिट्टी पर
मिट्टी डालते
शर्म नहीं
आती। मिट्टी
ही है तो फिर
मिट्टी पर
मिट्टी काहे
कि लिए डाल
रहे हो?
नहीं, जो कहता है
सोना मिट्टी
है, उसको
सभी मिट्टी
नहीं हुआ, नहीं
तो कहने की
कोई जरूरत ही
नहीं।
त्यागी—भोगी, दोनों एक ही
जगह बंधे हैं।
दिशाएं
विपरीत हैं, नजर एक तरफ।
विरोध में है
त्यागी उसी के,
जिसके पक्ष
में भोगी है।
लेकिन दोनों
की बेहोशी
समान है। तुम बायीं तरफ
करवट लेकर सो
रहे, वह दायीं
तरफ करवट लेकर
सो रहा—फर्क
नींद में नहीं
पड़ता। सो
दोनों रहे
हैं। सपना
दोनों देख रहे
हैं। पीठ किए
एक—दूसरे की
तरफ, दोनों
सो रहे हैं।
नींद असली
सवाल है।
दोनों के मध्य
में मनुष्य
है।
कबीर
कहते हैं, त्यागी, भोगी
दोनों नष्ट कर
देते हैं
चदरिया को। और
बीच में जो
मनुष्य है, वह खिचड़ी
जैसा है। सुबह
त्यागी, दोपहर
भोगी; शाम
त्यागी, रात
भोगी। वह
चौबीस घंटे
में कई दफा
बदलता है।
चौबीस घंटे भी
देर की बात हो
गई।
उन्होंने
अभी अमरीका
में एक छोटी
सी घड़ी बनाई है, और घड़ी में डायलर पर निक्सन की
फोटो बनाई है
और हर सेकेंड निक्सन की
नजर बदलती है—उस
घड़ी में। मजाक
है, लेकिन
अच्छी चीज
बनाई है। हर
सेकेंड पर आंख
डोलती है। पर
वह सब आदमी की
तस्वीर है। हर
सेकेंड पर तुम
बदलते हो। भूख
लगी, तुम
एकदम भोगी हो
जाते हो; पेट
भर गया, तुम
एकदम त्यागी
बन जाते हो; संभोग कर
लिया, करवट
लेकर एकदम
त्यागी हो
जाते हो, ब्रह्मचर्य
का विचार करने
लगते हो।
सोचते हो, सब
बेकार; क्या
रखा है इस सब
में! यह तुम कई
बार कर चुके
हो। संभोग के
बाद विषाद न
आए, ऐसा
आदमी खोजना
मुश्किल है।
संभोग के बाद
ऊर्जा का क्षय
होता है। तुम
थके—हारे और
कुछ पाते नहीं;
और कितना
सोचते थे, कितना
सपना बांधते
थे—यह मिलेगा,
यह मिलेगा,
यह मिलेगा!
कुछ मिलता
नहीं, विषाद
से भर जाते
हो।
संभोग
के बाद हर
आदमी
ब्रह्मचर्य
का विचार करता
है। लेकिन
कितनी दूर? चौबीस घंटे
में फिर ऊर्जा
इकट्ठी होगी—भोजन
से, हवा से,
श्रम से।
फिर भोजन
ऊर्जा को बना
देगा। चौबीस घंटे
बाद फिर वासना
जगेगी, फिर
स्त्री का
विचार उठेगा।
तब तुम बिलकुल
भूल जाओगे कि
चौबीस घंटे
पहले
ब्रह्मचर्य
बड़ा महत्वपूर्ण
मालूम पड़ा था।
अब स्त्री
महत्वपूर्ण
मालूम पड़ेगी।और
यह वर्तुल
घूमता रहा है
सदा से। और
तुम अनेक बार
दोनों काम कर
चुके हो।
संभोग के बाद
तुम सोचने
लगते हो
त्याग। फिर
भूख जागती है,
फिर तुम
सोचने लगते हो
भोग। दोनों के
बीच में—त्यागी
और भोगी
अतियां हैं—इन
दोनों के मध्य
में खड़ा हुआ
मनुष्य है। और
मनुष्य बिलकुल
खिचड़ी है,
कनफ्यूजन है। दोनों
का समय बंटा
हुआ है।
तुम
अगर अपना कैलेंडर
रखो, तो तुम
बराबर लिख
सकते हो: सुबह
त्यागी, दोपहर
भोगी, फिर
त्यागी, फिर
भोगी, फिर
मंदिर चले गए,
फिर दुकान आ
गए, फिर
दुकान पर बैठे,
मंदिर की
सोचने लगे; फिर मंदिर
में बैठे, दुकान
की सोचने लगे।
तुम पाओगे कि
तुम दोनों का
मिश्रण हो। जब
दोनों शुद्ध
त्यागी और
भोगी नष्ट कर
देते हैं तो
तुम तो दोहरा
नष्ट कर दोगे।
तुम त्याग और
भोग दोनों की
धारणाओं से
चादर को नष्ट
कर दोगे।
त्यागी बायीं
करवट सो रहा है,
भोगी दायीं
करवट सो रहा
है। तुम
करवटें बदल
रहे हो। तुम चादर
बिलकुल ही
नष्ट कर दोगे।
वे कम से कम
थिर हैं, अपनी—अपनी
दिशा में लगे
हैं। तुम घूम
रहे हो। तुम्हारी
उत्तेजित
अवस्था इस
सूक्ष्म चादर
को बिलकुल ही
नष्ट कर देगी।
इसलिए
कबीर कहते हैं, सोइ चादर
सुर नर मुनि ओढ़ी, ओढ़ी के
मैली कीनी
चदरिया। दास
कबीर जतन से ओढ़ी, ज्यों
की त्यों धरि
दीनी चदरिया।
लेकिन
दास कबीर ने
बड़े सम्हाल कर
ओढ़ी, बड़ी
सावचेतता
से ओढ़ी, बड़े जतन से, होश से ओढ़ी,
बड़े ध्यान
से ओढ़ी—और
ज्यों की
त्यों धरि
दीनी चदरिया—जैसी
दी थी
परमात्मा ने,
वैसी ही
वापस कर दी।
यह
मोक्ष है। यह
मुक्त की
अवस्था है।
तुम, जो मिलता
है, उसे
वैसा ही वापस
कर देना बिना
विकृत किए।
बच्चा
पैदा होता है, साफ चादर ले
कर पैदा होता
है। सब स्वच्छ,
निर्दोष!
फिर विकृति
आनी शुरू होती,
इकट्ठी
होनी शुरू
होती। बूढ़ा
मरता है खंडहर
की भांति, सब
बरबाद! हाथ
में कुछ भी
उपलब्धि
नहीं। जो पास
था, वह भी
गंवा कर।
कबीर
कहते हैं कि
ज्ञानी भी
करता है, लेकिन
इतना उसको
बचाए रखना है,
जो मिला था।
उस चादर को
वैसा ही
निर्दोष रखता है।
कैसे
रखोगे इस चादर
को निर्दोष? कबीर गृहस्थ
हैं, पत्नी,
बच्चा है, कमाते हैं, घर लाते हैं—फिर
भी कहते हैं, दास कबीर
जतन से ओढ़ी।
कला क्या है
इस चदरिया को
बचा लेने की? कला है: होश।
कला है:
विवेक। कला
है: जाग्रत
चेतना। करो—जो
कर रहे हो, जो
करना पड़ रहा
है। जो नियति
है, पूरी
करो। भागने से
कुछ प्रयोजन
नहीं। लेकिन करते
समय कर्ता मत
बनो। साक्षी
रहो, वहां
कुंजी है।
बाजार जाओ, दुकान करो, कर्ता मत
बनो। मंदिर
जाओ, प्रार्थना
करो—कर्ता मत
बनो। कर्ता
परमात्मा को
ही रहने दो, तुम काहे
झंझट में...बीच
में पड़ते हो।
कर्ता एक—वही
सम्हाले! तुम
साक्षी रहो।
तुम जैसे
अभिनेता हो—जैसे
एक पार्ट
तुम्हें मिला
है, एक रोल
ड्रामा के एक
हिस्सा है, वह तुम्हें
पूरा कर देना
है।
जैसे
तुम राम बने, रामलीला में,
तो जरूर
तुम्हें रोना
है। सीता चोरी
जाएगी, वृक्ष
से पूछना है, कहां है
मेरी सीता, चीख—पुकार
मचाना, सब
करना है, लेकिन
भीतर—भीतर न
तुम्हारी
सीता खोयी
है, न कोई
मामला है।
अभिनय है।
पर्दे के पीछे
जाकर तुम फिर
गपशप करोगे, चाय पियोगे।
रावण से चर्चा
करोगे—पर्दे
के पीछे।
पर्दे के बाहर
धनुषबाण
लेकर खड़े हो
जाओगे।
जीवन
एक लीला है।
अगर तुम जतन
से चल सको, तो जीवन एक
अभिनय है।
मेरे
एक मित्र हैं; मनोविज्ञान
के प्रोफेसर
हैं। उनके घर
में मैं
मेहमान था।
उनका लड़का, एक ही लड़का
है। नई—नई
शादी की थी।
वह भोजन नहीं
कर रहा था तो
पत्नी बड़ी
परेशान थी, डांटा—डपटा,
फुसलाया, सब उपाय किए,
लेकिन वह
नहीं कर रहा
तो पति ने कहा,
ठहर, थोड़ा
मनोविज्ञान
का उपयोग करना
चाहिए। मनोविज्ञान
के प्रोफेसर
हैं। नये—नये
पति, नये—नये
पति। तो मैं
भी देखने लगा
कि क्या
मनोविज्ञान
का प्रयोग
करते हैं। तो
उन्होंने
लड़के से कहा
कि देख, अपना
कोट पहन, टोप
लगा, छड़ी
हाथ ले, बाहर
जा, समझ कि
तू हमारा
मेहमान है—अतिथि।
लड़का
बड़ा प्रसन्न
हुआ। बच्चे
हमेशा अभिनय
में बहुत रस
लेते हैं। वही
उनकी
निर्दोषता
है। बूढ़ा होता
है तो कहता कि
क्या अभिनय
करना? क्या
मतलब इससे? क्या सार? लेकिन बच्चा
बड़ा प्रसन्न
हुआ, जल्दी
उसने कोट पहना,
टोप लगाया,
छड़ी हाथ में
ली, बड़ी
तेजी से बाहर
गया। पिता ने
कहा, अब
बाहर से आकर
घंटी बजाना, हम दरवाजे
खोलेंगे
मेहमान का
तुम्हें
पार्ट अदा
करना है।
लड़का
गया, थोड़ी देर
बाद उसके छोटे—छोटे
जूतों की आवाज
सीढ़ियों से
सुनाई पड़ी। आ
कर उसने घंटी
दबाई, दरवाजा
खोला। उसका
स्वागत किया
गया। पिता ने कहा
कि आइये, आप
हमारे मेहमान
हैं। और ठीक
वक्त पर आ गए, भोजन तैयार
है। चलिए!
लड़का
गया। ड्राइंग
टेबल के पास
हम सब पहुंचे।
लड़के ने एक कुर्सी
पर अपना टोप, अपनी छड़ी
रखी। पिता ने
कहा कि जो भी
रूखा—सूखा है,
मेहमान हैं
आप, स्वीकार
करिए! लड़के ने
कहा, क्षमा
करिए, मैं
भोजन लेकर ही
आया हूं।
जब
अभिनय ही था, तो पूरा
उसने किया।
जीवन
एक अभिनय है।
उससे ज्यादा
उसे समझ कि
भटके। मंच बड़ी
है, माना; बहुत
पात्र हैं, माना—लेकिन
जीवन अभिनय
है। और तुम
कर्ता मत
बनना! इतना
अगर जतन रख
लिया तो तुम
भी कह सकोगे—
दस
कबीर जतन से ओढ़ी, ज्यों
की त्यों धरि
दीनी चदरिया।
आज
इतना ही।
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