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रविवार, 14 दिसंबर 2014

भगवान का भिक्षाटन और शैतान—(कथा यात्रा—112)


भगवान का पंचशाला में भिक्षाटन और शैतान का जाल-(एस धम्‍मो सनंतनो)


क दिन भगवान पंचशाला नामक ब्राह्मणों के गांव में भिक्षाटन के लिए गए। मार ने— शैतान ने— पहले ही ग्रामवासियों में आवेश कर ऐसा किया कि भगवान को किसी ने कलछी मात्र भी भिक्षा न दी। फिर जब भगवान खाली पात्र गांव के बाहर आने लगे तब मार आया और बोला क्या श्रमण! कुछ भी भिक्षा नहीं मिली? बुद्ध ने कहा नहीं तू सफल रहा और मैं भी सफल हूं मार समझा नहीं। बोला यह कैसे? या तो मैं सफल या आप सफल। दोनों साथ— साथ कैसे सफल हो सकते हैं! यह तो आप बड़ी तर्कहीन बात कर रहे हैं। बुद्ध ने हंसकर कहा नहीं तर्कहीन नहीं है। तू सफल हुआ लोगों को भ्रष्ट करने में भ्रमित करने में मैं सफल हुआ अप्रभावित रहने में। और यह भोजन से भी ज्यादा पुष्टिदायी है।

मार ने एक जाल और फेंका। मार ने कहा तो भंते फिर प्रवेश करें शायद भिक्षा मिल ही जाए। दिनभर भूखे रहने में क्या सार! परेशानी होगी पीड़ा होगी दिनभर के थके— मांदे आप दूर यात्रा करके आए हैं शायद कोई दया खा ही जाए। मार ने सोचा कि इस तरह शायद बुद्ध दुबारा अपमानित हो क्योंकि गांव के लोगों पर तो उसे भरोसा था। शायद बुद्ध दुबारा अपमानित हों तो क्रोधित हो जाएं।
लेकिन बुद्ध ने कहा जो बात गयी सो गयी। जो नहीं मिला वह मिलने को नहीं था। जो मिला वह बहुत है। कुछ लौटकर जाने की बात नहीं है। बुद्ध कहीं लौटकर जाते भी नहीं। बुद्ध ने कहा बुद्ध लौटकर देखते भी नहीं पीछे। फिर आज का सुअवसर खो देने जैसा नहीं है भोजन तो मिलता है मिलता रहता है। आज तो हम जैसे आभास्वर लोक के ब्राह्मण आभास्वर लोक के देवता प्रीतिसुख से जीते हैं वैसे ही जीएंगे

यह बौद्धों की एक धारणा है कि एक ऐसा लोक है, स्वर्ग, जहा ब्रह्मज्ञान को उपलब्ध व्यक्ति—ब्राह्मण या ब्रह्मा जो भी नाम देना चाहो, उस लोक का नाम है, आभास्वर। वहा कोई स्थूल भोजन नहीं करता। वहां लोग प्रेम का ही भोजन करते हैं। तुम कहते हो न कभी—कभी, प्रीतिभोज दिया; वहां प्रीतिभोज ही चलता है। तुम तो कहते ही भर हो प्रीतिभोज, खिलाते तो फिर यही स्थूल चीजें हो! लेकिन उस लोक में प्रीतिभोज ही चलता है। प्रेम ही वहां एकमात्र भोजन है। वही एकमात्र पोषण है।
तो बुद्ध ने कहा आज हमें भी ऐसा सुअवसर मिला है न चूकेंगे मार! आज हम उस लोक के ब्रह्माओं की भांति प्रीतिसुख में जीएंगे। आज प्रीतिभोज लेगे और तब उन्होंने यह गाथा कही—

            सुसुख वत! जीवामयेसं नो नत्थि किन्चिना ।
            पीतिभक्सा भविस्साम देवा आभस्सरा यथा ।।

'जिनके पास कुछ भी नहीं है, अहो, वे कैसा सुख में जीवन बिता रहे हैं। आभास्वर के देवताओं की भांति हम भी आज प्रीतिभोजी होंगे।'
प्रीतिभक्खा—आज प्रीति को ही खाएंगे।
इसके पहले कि इस छोटी सी कथा की गहराई में हम उतरें, एक बात समझ लेनी जरूरी है। आधुनिक मनोविज्ञान इस सत्य को पुन: खोजा है कि जब मां बच्चे को भोजन देती है, तो सिर्फ भोजन ही नहीं देती, प्रीतिभोज भी देती है। एक तो स्थूल भोजन है, जो उसके स्तन से बहता है—दूध—और एक उसका प्रेम है, जो अदृश्य बहता है।
मनोवैज्ञानिक कहते हैं, अगर बच्चे को सिर्फ दूध ही दिया जाए और मां प्रेम न दे, तो भी बच्चा सूखने लगता है। पूरा भोजन दिया जाए शारीरिक, लेकिन प्रेम न दिया जाए—जैसे कोई नर्स बच्चे को दूध पिला दे, कोई दाई तुम घर में रख लो, दूध पिला दे—तो बच्चे में वैसी प्रफुल्लता नहीं होती, वैसा उल्लास नहीं होता, वैसा जीवन नहीं होता, वैसे फूल नहीं खिलते। और कुछ बच्चे के जीवन में हमेशा खाली रहेगा। क्योंकि मां दूध तो देती थी, वह तो केवल स्थूल था, उस स्थूल के साथ—साथ लगा—जुड़ा छाया की भाति सूक्ष्म भी बहता था, वह प्रेम है।
प्रेम और भोजन बड़े गहरे जुड़े हैं। इसीलिए तो जब तुम्हारा किसी से प्रेम होता है तो तुम उसे भोजन के लिए घर बुलाते हो। क्योंकि बिना भोजन खिलाए प्रेम का पता कैसे चलेगा। जो तुम्हें बहुत प्रेम करता है, वह तुम्हारे लिए भोजन बनाता है। जब कोई स्त्री अपने प्रेमी के लिए भोजन बनाती है, तो सिर्फ भोजन ही नहीं होता, उसमें प्रीति भी होती है। होटल के भोजन में प्रीति तो नहीं हो सकती। तो शरीर तो तृप्त हो जाएगा, लेकिन कहीं प्राण खाली—खाली रह जाएंगे।
मां जब अपने बेटे के लिए भोजन बनाती है तो चाहे भोजन रूखा—सूखा ही हो, फिर भी उसमें एक स्वाद है। वह प्रीतिभोज है। कहीं किसी ने कितना ही अच्छा भोजन खिलाया हो, लेकिन खिलाने का मन न रहा हो, बेमन से खिलाया हो, तो पचेगा नहीं। पचा भी तो शरीर से गहरा न जाएगा।
इस देश में तो हमने हजारों साल पहले इस बात का बोध कर लिया था कि प्रेम कहीं अनिवार्यरूप से भोजन का हिस्सा है। और इसलिए जहां प्रेम न हो वहां भोजन स्वीकार न करना। अगर तुम्हारी पत्नी क्रोध में भोजन बना रही हो तो उस भोजन को स्वीकार मत करना। अगर तुम भोजन बना रहे हो क्रोध में तो मत बनाना, क्योंकि क्रोध में जब भोजन बनाया जाता है तो विषाक्त हो जाता है। आज परिणाम नहीं होगा, कल परिणाम होगा। कल नहीं होगा, परसों होगा, जहर इकट्ठा होगा।
जब तुम भोजन करने बैठो, अगर क्रोध में हो तो मत करना भोजन। क्योंकि जब तुम प्रेम से भरे होते हो, तभी बाहर से बहते प्रेम को भी तुम भीतर ले जाने में समर्थ होते हो। प्रेम से प्रेम का तालमेल होता है, संयोग होता है। प्रेम की तरंग प्रेम की तरंग को भीतर ले जाती है। अगर तुम क्रोधित बैठे भोजन कर रहे हो तो तुम भोजन तो कर लोगे, लेकिन प्रेम की तरंग भीतर नहीं जा सकेगी। और फिर क्रोध में जो तुम भोजन करोगे वह भी विषाक्त हो जाएगा।
इसलिए इस देश में तो हमने बड़े नियम बनाए थे कि क्रोध में कोई भोजन न करे, क्रोध में बनाया भोजन न करे। किसके हाथ का बनाया भोजन करे, किसके हाथ का बनाया भोजन न करे। किस घड़ी में कोई भोजन बनाए।
इस देश में तो चार दिन के लिए स्त्रियां—जब उनका मासिक— धर्म हो—तो भोजन के लिए मना कर दिया था। अब संभव है कि भविष्य फिर वितान के आधार से मना करे। क्योंकि जब चार दिन स्त्रियों का मासिक— धर्म होता है तो उनके शरीर में इतने रूपांतरण होते हैं, इतना हार्मोनल अंतर होता है कि उनके भीतर सब प्रीतिसुख सूख जाता है—इतनी पीड़ा होती है। उस पीड़ा और दर्द में आशा नहीं है कि उनका प्रेम बह सके, इसलिए उस घडी में भोजन बनाना ठीक नहीं है। उस घड़ी में बनाया गया भोजन विषाक्त हो जाएगा।
इस पर तो प्रयोग भी चले हैं। इंग्लैंड की एक प्रयोगशाला डिलाबार में उन्होंने प्रयोग किए हैं। अगर जिस स्त्री को मासिक— धर्म के समय बहुत पीड़ा होती है, पेट में बहुत दर्द होता है, उस समय अगर वह गुलाब का फूल अपने हाथ में ले ले, तो दुगुनी गति से गुलाब का फूल सूख जाता है—दुगुनी गति से। वही स्त्री जब मासिक— धर्म में न हो, तब गुलाब के फूल को हाथ में लेती है, तो अगर उसको सूखने में घंटाभर लगे, मुर्झाने में घटाभर लगे, तो मासिक— धर्म के समय आधा घंटे में मुर्झा जाता है। तो गुलाब के फूल तक पर तरंगें पहुंच जाती हैं। तो भोजन में भी तरंगें उतर जाएंगी।
यह जो हम हैं, केवल शरीर ही नहीं हैं, आत्मा भी हैं। तो आत्मा का भी कुछ भोजन होगा, जैसे शरीर का कुछ भोजन है। इसीलिए तो प्रेम के लिए इतनी लालसा होती है। आदमी भूखा रह ले, लेकिन प्रेम के बिना नहीं रहा जाता। आदमी गरीब रह ले, लेकिन प्रेम के बिना नहीं रहा जाता। बिना धन के रह ले, निर्धन रह ले, लेकिन बिना प्रेम के नहीं रहा जाता। प्रेम की एक गहन प्यास है। वह प्यास इतना ही बता रही है कि आत्मा कहीं अतृप्त है। आत्मा को जो मिलना था, नहीं मिला, आत्मा का भोजन नहीं मिला।
तो यह बौद्धों की जो धारणा है, बड़ी महत्वपूर्ण है। एक ऐसा देवलोक— देवलोक का मतलब ही होता है, वहां जहा शरीर नहीं रहा। सिर्फ आत्माएं हैं। यह कल्पना भी हो तो भी महत्वपूर्ण है, समझने जैसी है। तुम्हारे जीवन में दृष्टि बनेगी। इस बात को कोई ऐसा मत मान लेना कि ऐसा कहीं कोई स्वर्गलोक है या होना चाहिए, यह कोई ऐतिहासिक तथ्य नहीं है। यह तो सिर्फ प्रतीक है। अगर कहीं कोई ऐसा लोक हो जहां शरीर तो गिर गए हैं और सिर्फ आत्माओं का वास हो, तो वहां भोजन की तो कोई जरूरत न होगी, वहां प्रेम की जरूरत होगी। प्रीतिभक्सा, वहां तो लोग प्रीतिभोज करेंगे। वहां प्रेम ही प्रेम बांटेंगे, परोसेंगे। बुलाएंगे और प्रेम देंगे और प्रेम लेंगे। वहां प्रेम का लेन—देन चलेगा। वहां खूब प्रेम का आदान—प्रदान होगा। प्रीतिभक्सा।
तो बुद्ध ने कहा कि आज ऐसा सुअवसर मिला, मार, हम भी प्रीतिभक्सा होंगे। आज तो प्रेम में ही जीएंगे।
अब हम इस कहानी को समझें—
क दिन भगवान पंचशाला नामक ब्राह्मणों के गांव में भिक्षाटन के लिए गए। ब्राह्मणों का गांव, यह खयाल में रखना। खतरनाक गांव है। सब पंडित—ज्ञानी हैं। जब भी बुद्धपुरुष हुए हैं तो पंडितों ने उन्हें इनकार किया है। जिन्होंने जीसस को सूली दी, वे पंडित थे, ब्राह्मण थे, पुरोहित थे। जेरूसलम के बड़े मंदिर का प्रधान पुरोहित उसमें सम्मिलित था। पुरोहितों की कौंसिल ने निर्णय किया था। जितने बड़े पंडित थे यहूदियों के, सबने यह निर्णय दिया था कि यह आदमी मार डालने योग्य है, यह आदमी खतरनाक है।
पंडित ज्ञान के पक्ष में नहीं होता। यह थोड़ा समझना कि क्या बात है! होना तो चाहिए पंडित को ज्ञान के पक्ष में, लेकिन पंडित ज्ञान के पक्ष में नहीं होता। क्यों? क्योंकि अगर बुद्ध सही हैं तो फिर पंडित का सारा ज्ञान थोथा सिद्ध हो जाता है। वह तो शास्त्र से पाया, वह तो किताब से पाया। और बुद्ध उसे अपने भीतर जगाए हैं, अपने भीतर उठाए हैं। बुद्ध का शास्त्र उनकी चेतना में है और पंडित का शास्त्र तो बाहर है, किताबी है। इस किताबी ज्ञान को ही वह अब तक ज्ञान मानता रहा है।
तो जब असली ज्ञान सामने खड़ा होगा तो उसका ज्ञान एकदम फीका पड़ जाता है। असली सिक्के को देखकर नकली सिक्का अगर नाराज होता हो तो आश्चर्य तो नहीं। और फिर नकली सिक्के बहुत हैं। इसलिए नकली सिक्के अगर इकट्ठे हो जाते हों असली सिक्के के खिलाफ, तो भी कुछ आश्चर्य नहीं। और सभी नकली सिक्के अगर मिलकर असली सिक्के की हत्या कर देते हों, तो भी कुछ आश्चर्य नहीं।
तो पहली बात—पंचशाला नामक ब्राह्मणों का गांव। जिसमें ब्राह्मण ही ब्राह्मण बसते थे। अगर कोई एकाध भी ऐसा आदमी होता जो पंडित न होता तो शायद दया खा जाता। पंडित से क्या दया की आशा! और दूसरे मजे की बात है—जीसस ने कहा है किं शैतान भी शास्त्रों के उद्धरण देता है। तो मार ने, जो कि बौद्धों की शैतान की धारणा है, अगर पंडितों को राजी कर लिया हो बुद्ध के खिलाफ, तो कुछ आश्चर्य नहीं, क्योंकि शैतान खुद भी महापंडित है।
तुम्हें शायद पता न हो, ईसाइयत की यही धारणा है—शैतान देवता है, लेकिन उसे स्वर्ग से निकाल दिया गया है, क्योंकि वह ईश्वर से भी वाद—विवाद करने को उत्सुक था। पंडित रहा होगा, ब्राह्मण रहा होगा। तो शैतान बातें तो बड़ी शास्त्रीय बोलता है। इसलिए शास्त्र जानने वालों से उसका तालमेल हो जाता है। इसलिए सारे पुरोहित और पंडित शैतान की सेवा में लग जाते हैं। मंदिर बनते तो भगवान के नाम पर हैं, लेकिन करते शैतान की सेवा हैं। पुरोहित पूजा का थाल तो सजाते हैं भगवान के लिए, लेकिन उतरती है आरती शैतान की।
तो कथा कहती कि भिक्षाटन के लिए ब्राह्मणों के इस गांव में गए। मार ने पहले ही ग्रामवासियों में आवेश कर ऐसा किया कि भगवान को किसी ने कलछी मात्र भी भिक्षा न दी। ऐसी दुर्घटनाएं रोज घटती रही हैं। फिर हजारों साल तक हम बुद्धों के लिए रोते हैं, आसू बहाते हैं; और कभी हम ऐसा भी करते हैं कि एक कलछी भेंट भी, भिक्षा भी उनको नहीं देते। कभी हमसे सिर्फ अपमान ही मिलता है उनको, और फिर हम सदियों तक रोते और सम्मान करते। उस सम्मान से भी वह अपमान पोंछा नहीं जा सकता। क्योंकि वह अपमान बुद्धों का अपमान नहीं, अंततः अपना ही अपमान है। क्योंकि वह अपने भीतर ही बुद्धत्व को अस्वीकार करना है। वह अपने भीतर जागने की संभावना को इनकार करना है।
फिर जब भगवान खाली पात्र गांव से बाहर आने लगे तब मार आया होगा पूछने कि कहो, कैसी रही! क्या श्रमण! कुछ भी भिक्षा नहीं मिली? इनको तुम भीतर के प्रतीक समझो। ऐसा कोई बाहर शैतान आकर खड़ा हो गया होगा, ऐसा नहीं है। मन के ही शैतान ने भीतर कहा होगा कि अरे! तुमने इतना ज्ञान पाया है, इतनी समाधि लगायी, इतना बुद्धत्व पाया और इन दुष्टों ने भीख भी न दी। इन पापियों ने भीख भी न दी। यह कोई बाहर खड़ा हो गया शैतान, ऐसा नहीं है। यह शैतान सबके भीतर सोया पड़ा है। यह तुमसे भी रोज—रोज इसकी मुलाकात होती है। शैतान ने कहा होगा, अभिशाप दे दो कि नष्ट हो जाए यह गांव। ये आदमी आदमी कहलाने योग्य नहीं। भड़काया होगा।
यही शैतान उन आदमियों के भीतर बैठा है, इसी शैतान ने उन्हें भड़काया है। इसी शैतान ने उनसे कहा है, यह बुद्ध आ रहा है, यह अपने को ढोंगी समझता है कि हम ज्ञान को उपलब्ध हो गए हैं, कि हम भगवान हो गए हैं। यह पाखंडी है। एक तो क्षत्रिय है। पहली तो बात ब्राह्मण नहीं है। दूसरी बात, वेद को नहीं मानता है। तीसरी बात, विधि—विधान को नहीं मानता है। चौथी बात, यह घोषणा करता है कि मैंने पा लिया जो कभी किसी ने नहीं पाया, अपूर्व समाधि मुझे उपलब्ध हुई है। यह सब अहंकार है। यह सब व्यर्थ की बातें हैं। यह लोगों को भरमाता है, भटकाता है, धर्म से भ्रष्ट करता है। ऐसा भीतर के शैतान ने गाव के लोगों को कहा होगा। इसको भिक्षा भी मत देना, इसको भिक्षा देना पाप है, क्योंकि तुम्हारी भिक्षा से जीएगा और लोगों को भटकाका, भरमाएगा, तो तुम भी साझीदार हुए। इसको देना ही मत। इसको साफ पता चल जाए कि इसका यहां कोई स्वीकार नहीं है। इसका अपमान पूर्ण हो।
और यही शैतान बुद्ध के भीतर बोला होगा। मन शैतान है। मन गलत की तरफ ले जाने की चेष्टाएं करता है। मन संसार की तरफ ले जाने की आकांक्षाओं को जगाता है। तो शैतान ने कहा, क्या श्रमण! कुछ भी भिक्षा नहीं मिली? अरे तुम, तुम जो कि बुद्धत्व को उपलब्ध हो गए और तुम्हें भीख भी नहीं मिल रही! यह बात क्या है!
बुद्ध ने कहा, नहीं, नहीं मिली भीख। तू भी सफल रहा और मैं भी सफल हूं। मार समझा नहीं। मन तर्क तो समझता है, तर्क के पार नहीं समझता। शैतान तर्क तो समझ लेता है, लेकिन तर्कातीत शैतान की सीमा के बाहर है। इसीलिए तो सभी धर्म कहते हैं, जब तक तुम तर्कातीत न हो जाओगे तब तक मन के पार न हो सकोगे। श्रद्धा का अर्थ है, तर्कातीत हो जाना।
बुद्ध ने जब यह कहा कि मैं भी सफल, तू भी सफल, तू भी खुश हो, हम भी खुश हैं। शैतान की बात में कुछ किसी तरह का व्याघात बुद्ध को पैदा न हुआ, तो शैतान पूछने लगा, यह कैसे? या तो मैं सफल या आप सफल। मन तो सदा द्वंद्व में मानता है। या तो मैं सफल या आप सफल, या तो हम जीते या तुम जीते। मन ऐसा तो कभी मानता ही नहीं कि हम दोनों जीत जाएं। लेकिन कुछ ऐसी घड़ियां हैं जब दोनों जीत जाते हैं। समझ हो तो हार होती ही नहीं। हार में भी हार नहीं होती। इसी समझ का सूत्र है इस कथा में।
बुद्ध ने कहा, नहीं, यह बात तर्कहीन नहीं, तर्कातीत भला हो। मगर तर्क स्पष्ट है—तू सफल हुआ लोगों को भ्रष्ट करने में, भ्रमित करने में। वही तेरा काम है। तेरी सफलता पूरी रही। तू खुश हो, तू जा नाच, गा, आनंद कर। तू सफल हुआ। लोगों ने तेरी मान ली। और मैं सफल हुआ अप्रभावित रहने में। अपमान भारी था। द्वार—द्वार भीख मांगने गया और दो दाने भिक्षापात्र में न पड़े।
तुम जरा सोचो, एक सम्राट का बेटा, जिसके पास सब था, जो हजारों —लाखों भिक्षुओं को भोजन रोज करा सकता था, वह आज भिक्षापात्र लेकर भिखारियों के गांव में गया है—ब्राह्मण यानी भिखारी—सम्राट भिखारियों के सामने भीख मांगने गया और भिखारियों ने भी न दिया। चोट तो लगती होगी! पीड़ा तो होती होगी!
लेकिन बुद्ध ने कहा, मैं अप्रभावित ही रहा, इसलिए सफल हुआ, खूब सफल हुआ। तूने एक सौभाग्य का अवसर जुटा दिया, अपनी सफलता को जानने का एक मौका बना दिया। और यह भोजन से भी ज्यादा पुष्टिदायी है। भोजन से तो ठीक, शरीर भरता है, लेकिन यह अप्रभावित रहना, इससे मेरी आत्मा बड़ी पुलकित हुई है।
इसको मैं कहता हूं दृष्टि, दर्शन; इसको मैं कहता हूं आख। असली आख तो अंधेरे को भी रोशनी में बदल लेती है और कांटे को फूल बना लेती है, जहर को अमृत कर लेती है। बीमारी. औषधि बन जाती। और आख न हो तो अमृत भी जहर हो जाता है और फूल भी कांटे हो जाते हैं। सारी बात आख की है, सारी बात देखने की है, देखने के ढंग की है, फिर तुम्हारी व्याख्या!
इसलिए मैंने आज की चर्चा तुमसे शुरू की कि जीवन न तो सुख है, न दुख, जीवन है व्याख्या। अब इस घड़ी में बुद्ध यह भी व्याख्या कर सकते थे कि मेरा बड़ा अपमान हुआ! और तब बड़े दुखी हो जाते। और इस घड़ी में उन्होंने कैसी व्याख्या की, कैसी अनूठी व्याख्या की, कैसी अपूर्व! न पहले सुनी, न पहले कभी देखी, ऐसी अपूर्व व्याख्या की। काटे को बदल दिया तत्‍क्षण। मिट्टी सोना हो गयी।
कहा कि मैं अप्रभावित हुआ, अप्रभावित रहा। मुझ पर कुछ अंतर ही न पडा। लोगों ने द्वार—दरवाजे मेरे मुंह पर बंद कर दिए। लोगों ने कहा, आगे जा! लोगों ने कहा, यहां न मिलेगा कुछ। गाव से मैं खाली पात्र लौट आया हूं लेकर अपने हाथ में। लेकिन यह खाली पात्र तेरी दृष्टि से खाली है, मेरी दृष्टि से भरा है। क्योंकि मैं अप्रभावित लौट आया हूं। एक अपूर्व रस इसमें भरा है। और मैं प्रसन्न हूं खूब प्रसन्न हूं। यह भोजन से भी ज्यादा पुष्टिदायी है।
मार ने कहा, तो भंते, फिर प्रवेश करें। क्योंकि मार को तो यह बात समझ में आयी नहीं। मार ने तो यह बात सुनी नहीं सुनी बराबर हो गयी। उसने तो कहा, तो फिर एक मौका और लेना चाहिए अगर यह अभी तक क्रोधित नहीं हुआ, नाराज नहीं हुआ। नाराज हो जाता तो मन के प्रभाव में आ जाता, नाराज हो जाता तो मार का प्रभाव शुरू हो जाता। यह नाराज नहीं हुआ! एक दफा और समझा—बुझाकर इसको गांव में भेज दें। क्योंकि गांव के ब्राह्मणों पर तो भरोसा है, वे तो फिर इसको इनकार करेंगे, शायद और भी जोर से दुतकारेंगे कि तू फिर आ गया! और हमने कह दिया कि नहीं कुछ मिलेगा!
तो दुबारा अपमान की चोट शायद और भी ज्यादा होगी। तो बुद्ध को फुसलाने लगा कि आप ऐसा करें, फिर प्रवेश करें गांव में, शायद भिक्षा मिल ही जाए, दिनभर भूखे रहने में सार भी क्या है—इन बातों में क्या रखा है! ये तो उसे बातें ही मालूम होती हैं कि अप्रभावित रहा, या आनंद का रस भरा हुआ है पात्र में! उसने पात्र देखा होगा, पात्र बिलकुल खाली है, उसको कुछ समझ में न आया होगा। मन को तो आनंद की बात समझ में आती ही नहीं। मन तो एक ही भाषा जानता है, वह दुख की भाषा है।
बुद्ध ने कहा, नहीं, जो बात गयी सो गयी। बुद्ध लौटकर नहीं देखते हैं, बुद्ध लौटकर नहीं जाते। जो होना था हो गया। जो नहीं होना था नहीं हुआ। यह बात आयी गयी हो गयी। पुनरुक्ति में बुद्धों को कोई रस नहीं है। बुद्ध सदा नए में प्रवेश करते हैं। फिर आज का सुअवसर हम आभास्वर लोक के ब्रह्माओं की भांति प्रीतिसुख से ही बिताएंगे। और तब यह गाथा कही—
'जिनके पास कुछ भी नहीं है, अहो, वे कैसा सुख में जीवन बिता रहे हैं।वह भिक्षापात्र खाली शैतान के सामने करके बुद्ध ने कहा होगा, देख, जिनके पास कुछ भी नहीं है, अहो, वे कैसा सुख में जीवन बिता रहे हैं।

            सुसुखं वत! जीवामयेसं नो नत्थि किज्चिना ।

नहीं जिनके पास कुछ भी है, उनके सुख का कोई पारावार नहीं। क्योंकि जिनके पास कुछ है, उनके सुख की सीमा है। तुम्हारे पास हजार रुपये हैं तो उस हजार रुपये के योग्य सुख। तुम्हारे पास दस हजार रुपये हैं तो दस हजार रुपये के योग्य सुख। लेकिन खयाल रखना, जिसके पास हजार रुपये हैं, हजार रुपये उसके सुख की सीमा है, और अरबों—खरबों जो हो सकते थे, नहीं हैं, वे उसका दुख होंगे। दुख ज्यादा होगा, दुख सदा ज्यादा होगा। एक स्त्री है तुम्हारे पास, उसका सुख, और करोड़ों जो सुंदर स्त्रियां हैं, वे तुम्हारे पास नहीं हैं, उनका दुख होगा, उनकी पीड़ा होगी।
ज्यां पाल सार्त्र का एक पात्र कहता है कि जब भी मैं किसी सुंदर स्त्री को देखता हूं तो भोगना चाहता हूं। मैं दुनिया की सारी स्त्रियों को भोगना चाहता हूं। मगर यह कैसे संभव हो! इसलिए मैं दुखी हूं। एक स्त्री ही भोगोगे, दो स्त्री भोगोगे, दस स्त्रियां भोगोगे, लेकिन अनंत स्त्रियां हैं, अनंत रूप हैं, वह जो तुम नहीं भोग पाओगे, उनकी पीड़ा तो पीछा करेगी।
कितना धन इकट्ठा करोगे! बहुत रह जाएगा जो नहीं इकट्ठा कर पाए। पूरी पृथ्वी के मालिक हो जाओ तो चांद—तारे रह जाएंगे, अनंत—अनंत चांद—तारे, उनकी मालकियत हमारे हाथ में नहीं है। फिर दुख होगा। अभाव पकड़े रहेगा।

इसलिए बुद्ध के सूत्र को समझना—

            सुसुखं वत! जीवामयेसं नो नत्मि किन्चिना ।

उसके सुख का क्या कहना, उसके सुख की कोई सीमा ही नहीं, जिसके पास कुछ भी नहीं है! जिसके पास कुछ भी नहीं है, उसके सुख की क्षुद्र सीमा टूट गयी, उसका सुख विराट हुआ। और जो कुछ भी नहीं में राजी हो गया, फिर उसको दुख कैसे हो सकता है! यही भिक्षु का अर्थ है, संन्यासी का अर्थ है—न कुछ में राजी हो जाना, न कुछ में परिपूर्ण रसमग्न हो जाना। खाली भिक्षापात्र को रस भरा देख लेना।
स्वामी राम अमरीका गए वह अपने को. बादशाह कहते थे। था उनके पास तो कुछ भी नही—दो लंगोटिया थीं, एक भिक्षापात्र था। अमरीका में किसी ने पूछा कि और सब तो ठीक है आप जो कहते हैं, मगर यह अपने आपको बादशाह कहना, यह जरा जंचता नहीं! आपके पास कुछ है तो है ही नहीं। ये दो लंगोटी और एक भिक्षापात्र। राम ने कहा, इन्हीं दो लगोटियो और भिक्षापात्र के कारण मेरी बादशाहत थोड़ी सी कम है। जरा सी कम है—ये दो लंगोटी और यह पात्र! जरा सी अटकी है।
मैंने तुमसे पीछे कहा न—डायोजनीज नग्न रहने लगा। सिर्फ एक भिक्षापात्र रखता था। एक नदी पर भागा गया पानी पीने को, नदी से पानी भरा, और तभी एक कुत्ता आया और भागा हुआ पानी में छलांग लगाकर—डायोजनीज से पहले छलांग लगा ली, डायोजनीज तो अपना बर्तन साफ करके पानी पीने की तैयारी कर रहा था—उसने पानी झटपट पीया और जाने लगा। डायोजनीज ने तो पात्र फेंक दिया नदी में, पकड़ लिए कुत्ते के पैर कि गुरुदेव! कहां जाते हो? कुत्ता भी चौंका होगा कि यह मामला क्या है! और डायोजनीज ने कहा, खूब, खूब याद दिलायी, खूब वक्त पर आए, मैं नाहक ही यह बर्तन घिस रहा। तुम जब बिना बर्तन के जी सकते हो मजे से, तो मैं क्यों नहीं जी सकता! उसने बर्तन फेंक दिया नदी में। उस दिन डायोजनीज ने कहा कि मेरी बादशाहत पूरी हो गयी। एक छोटे से पात्र से थोड़ी सी अटकी थी।
राम ने कहा, ये दो लंगोटी और यह भिक्षापात्र, थोड़ी सी बादशाहत में कमी है। लेकिन अर्थ समझना
बादशाह वही है जो न कुछ में भी आनंदित है। क्योंकि न कुछ की कोई सीमा नहीं है, न कुछ असीम है। न कुछ का कहीं अंत नहीं है। न कुछ में सब आ गया। राम ने और एक जगह कहा है कि जिस दिन मैंने एक घर छोड़ दिया, सारे घर मेरे हुए। एक छोटा आंगन छोड़ दिया और सारा आकाश मेरा हुआ।
तुम खयाल रखना, एक तरफ से संन्यासी भिक्षु हो जाता है, एक तरफ से स्वामी हो जाता है। इसलिए हिंदुओं ने उसे स्वामी कहा है, बौद्धों ने भिक्षु कहा है, दोनों बातें सच हैं। भिक्षु होकर स्वामी हो जाता है। बौद्धों ने भिक्षु शब्द चुना, वह भी ठीक है। क्योंकि सब कह देता है मेरा कुछ भी नहीं है, अब मैं न कुछ में जीयूंगा। और हिंदुओं ने स्वामी शब्द चुना, क्योंकि जो न कुछ में जीता है, उसकी मालकियत पूरी हो गयी, वह सम्राट हो गया, वह स्वामी हो गया।

            सुसुखं वत! जीवामयेसं नो नत्थि किन्चिना।   

'जिनके पास कुछ भी नहीं, अहो, वे कैसा सुख में जीवन बिता रहे हैं!'
बुद्ध ने कहा, तू देख पागल, तू नाहक दुखी हुआ जा रहा है, खुद भी दुखी होता है, दूसरों को भी दुखी करता, इधर हम हैं कि बड़े सुख में जी रहे हैं। सुख रूप होकर विहर रहे हैं। हमारे पास कुछ भी नहीं है। यह भिक्षापात्र देख बिलकुल खाली है। यही खालीपन हमारा सुख है।
इसलिए बुद्ध कहते हैं शून्य समाधि है। जब तुम भीतर भी खाली हो जाओगे, कोई विचार न बचा, कोई वासना न बची, कोई आसक्ति, कोई आतुरता न बची, जब भीतर भी भिक्षापात्र खाली हो गया, तो वहां भी समाधि का सुख झरने लगेगा। जो शून्य हो जाता है, उसमें पूर्ण उतर जाता है।
'आभास्वर के देवताओं की भांति हम भी प्रीतिभोजी होंगे। '

            पीतिभक्खा भविस्साम देवा आभस्सरा यथा ।

अब तो आज का दिन ब्रह्मा की तरह बिताएंगे। ऐसा स्वर्गीय दिन तूने जुटा दिया मार, तेरा धन्यवाद! तू भी सफल हुआ, हम भी सफल हुए।
इस देखने की कला को समझना। इस सूत्र को सम्हालकर रख लेना हृदय में। यह रोज—रोज काम पड़ सकता है। यह चीज ऐसी है कि रोज—रोज काम में लाने की है।
ओशो
एस धम्‍मो सनंतनो




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