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रविवार, 14 दिसंबर 2014

पतंजलि: योगसूत्र--(भाग--2) प्रवचन--30

जीवन को बनाओ एक उत्‍सव—(प्रवचन—दसवां)

दिनांक 10 मार्च 1975; श्री रजनीश आश्रम, पूना।

प्रश्‍न—सार

1—इक्कीस मार्च उन्नीस सौ तिरपन को आपको सबीज समाधि घटित हुई थी अथवा कि       निर्बीज?

 2—कृपया समझाइये कि निर्बीज समाधि में बीज कैसे जल जाता है?

 3—आपके पास कई गंभीर संन्यासी इकट्ठे हो गये हैं, आप उनके लिए क्या कहना चाहेंगे?

 4: मैं कभी सजग होता हूं और कभी असजग! ऐसा क्यों है?

 5— प्रेम और ध्यान पर बातें करते समय बहुत बार असंगत क्यों हो जाते हैं?

 6:' क्या आप फिर से एक और जन्‍म ले सकते है? 


पहला प्रश्न:

श्री रजनीश को क्या घटित हुआ 2? मार्च को? उन्होंने सबीज समाधि उपलब्ध की या निर्बीज समाधि?

 ह केवल तुम्हारा प्रश्न ही नहीं है, यह मेरा भी है। तब से, मैं भी आश्चर्य करता रहा हू कि इस व्यक्ति रजनीश को क्या घटा था। उस रात एक क्षण को वह वहीं था, और अगले क्षण वह वहा नहीं था। तब से मैं उसे खोजता रहा हूं बाहर— भीतर, लेकिन एक निशान तक भी पीछे नहीं छूटा, कोई पदचिह्न नहीं। यदि कभी मुझे मिल जाए वह, तो मैं याद दिलाऊगा तुम्हारा प्रश्न। या, यदि ऐसा होता है कि तुम कहीं मिल जाते हो उसे, तो तुम मेरी ओर से भी पूछ ले सकते हो प्रश्न।
ऐसा किसी स्‍वप्‍न की भांति ही होता है। सुबह तुम जागे हुए होते हो, तुम देखते हो चारों ओर, तुम स्वप्न को खोजते हो बिस्तर की चादरों में, बिस्तर के नीचे और वह वहां नहीं। तुम विश्वास नहीं कर सकते उस पर। क्षण भर पहले ही तो वह वहां था, इतना रंगीन, इतना वास्तविक और अचानक वह बिलकुल ही नहीं मिलता है और कोई रास्ता नहीं है उसे ढूंढ निकालने का। वह केवल एक आभास था। वह कोई वास्तविकता न थी, वह तो एक स्वप्न मात्र था। कोई जाग जाता है और स्वप्न तिरोहित हो चुका होता है। स्वप्न को कुछ नहीं होता।
रजनीश को भी कुछ नहीं हुआ। पहली बात तो यह कि वह वहां कभी था ही नहीं। मैं सोया हुआ था, और इसलिए ही वह वहां था। मैं जाग गया और मैं नहीं पा सका उसे। और ऐसा हुआ इतने अप्रत्याशित तौर से कि प्रश्न पूछने को समय ही न था। व्यक्ति तो एकदम खो गया, और कोई संभावना नहीं दिखती है उसे फिर से खोज लेने की। केवल एक संभावना होती है—यदि मैं फिर से सो जाता हूं केवल तभी मैं पा सकता हूं उसे। और यह बात असंभव है।
एक बार तुम समग्र रूप से चैतन्य हो जाते हो तो अचेतन की बिलकुल जड़ ही कट जाती है। बीज जल जाता है। तुम फिर से अचेतन में नहीं गिर सकते।
रोज तुम रात को गिर सकते हो अचेतन में, क्योंकि अचेतन वहां मौजूद होता है। लेकिन जब तुम्हारा संपूर्ण अस्तित्व बोधमय हो जाता है, चेतन हो जाता है, तो तुम्हारे भीतर कोई स्थान नहीं रहता, कोई अंधेरा कोना नहीं रहता, जहां कि तुम जा सको और सो सकी। और बिना नींद के कहीं कोई सपने नहीं होते।



रजनीश एक स्वप्न था जो कि मुझे घटित हुआ। रजनीश को कुछ नहीं घट सकता है। स्वप्न को क्या घट सकता है? या यह वहां होता है, यदि तुम सोए हुए हो तो, या यह वहा नहीं होता जब कि तुम जागे हुए होते हो। सपने को कुछ नहीं घट सकता। वास्तविकता को स्वप्न घट सकता है, वास्तविकता नहीं घट सकती स्वप्न को। रजनीश मुझे घटा स्वप्न की भांति।
अत: यही मेरा भी प्रश्न है। यदि तुम्हारे पास कान हैं तो सुनना और यदि तुम्हारे पास आंखें हैं तो तुम देख सकते हो! अचानक, एक दिन अब वह पुराना आदमी नहीं मिलता है घर के भीतर—मात्र एक शून्यता है, कोई नहीं है वहां। तुम बढ़ते हो, तुम खोजते हो, पर वहां कोई नहीं है। वहां केवल है एक केंद्रविहीन, सीमाविहीन विशाल विस्तार चैतन्य का। जब व्यक्तित्व खो जाता है—और सारे नाम संबंधित होते हैं व्यक्तित्व से—तब पहली बार संपूर्ण व्यापकता उदित होती है तुममें। नाम—रूप का संसार, नाम का और रूपाकारों का संसार तिरोहित हो चुका होता है, और अकस्मात निराकार आ पहुंचता है।
ऐसा तुम्हें भी घटने वाला है। इससे पहले कि ऐसा :घटे, यदि तुम्हारे कुछ प्रश्न हों पूछने को, तो पूछ लेना अपने व्यक्तित्व से, क्योंकि एक बार ऐसा घट जाता है, तो फिर तुम नहीं पूछ सकते। कोई होगा नहीं वहां पूछने को। एक दिन, अचानक तुम तिरोहित हो जाओगे। ऐसा घटे इससे पहले तुम पूछ सकते हो, लेकिन वह भी कठिन होता है, क्योंकि इसके घटने से पहले, तुम इतनी गहन निद्रा में होते हो कि कौन पूछेगा? यह घटे इससे पहले कोई होता नहीं पूछने को, और जब ऐसा घट चुका होता है तो कोई बचता नहीं जिससे कि पूछा जाए!

 दूसरा प्रश्न:

कृपया समझाइए कि अंतिम समाधि में बीज कैसे जल जाता है?

 तुम हमेशा शब्दों से चिपक जाते हो! ऐसा स्वाभाविक है, मैं जानता हूं। जब तुम 'समाधि', 'निर्बीज समाधि', 'बीज जल चुका, अब कोई बीज न रहा,' इन शब्दों को सुनते हो, तो तुम शब्दों को सुनते हो और प्रश्न उभरते हैं तुम्हारे मन में। लेकिन यदि तुम मुझे समझ जाते हो, तब ये प्रश्न अप्रासंगिक हो जाएंगे। बीज जल जाता है, इसका यह अर्थ नहीं होता कि वैसा कुछ सचमुच ही घटता है, जो घटता है सीधा होता है। वह बस यही है : जब निर्विचार समाधि उपलब्ध होती है, विचार समाप्त हो जाते हैं। अकस्मात कोई बीज नहीं रहता जलने के लिए। वह कभी वहा था ही नहीं, तुम ही भ्रांति में थे।
यह एक रूपक है और धर्म बात करता है रूपकों में, प्रतीकों में, क्योंकि उन चीजों के बारे में बोलने का कोई रास्ता नहीं है, जो कि अज्ञात से संबंधित हैं। यह एक प्रतीकात्मक रूपक है। जब ऐसा कहां जाता है कि बीज जल गया, तो मात्र इतना ही अर्थ होता है कि अब कोई इच्छा न रही जन्म लेने की, कोई इच्छा नहीं रही मरने की, कोई इच्छा नहीं रही न मरने की। बिलकुल कोई इच्छा रही ही नहीं। इच्छा ही है बीज, और इच्छा कैसे बनी रह सकती है जब कि विचार समाप्त हो चुके हों? इच्छा केवल सोचने द्वारा, सोच—विचार के रूप में ही अस्तित्व रख सकती है। जब विचार नहीं रहते मौजूद, तो तुम इच्छा रहित होते हो। जब तुम इच्छा रहित होते हो, तो जीवन और मृत्यु खो जाते हैं। तुम्हारी इच्छा के साथ ही जल जाता है वह बीज। ऐसा नहीं कि वहां कोई अग्नि होती है, जिसमें कि तुम जला देते हो बीज। मूढ़ मत बनो। बहुत से लोग शिकार बन गए हैं प्रतीकों के। यह तो कवितामय ढंग है कुछ चीजों को प्रतीक— भरे रूपक द्वारा कहने का।
केवल समझ लेना परमावश्यक तत्व को। सार—तत्व यह है कि इच्छा तुम्हें ले जाती है समय में, इस संसार में। तुम कुछ न कुछ हो जाना चाहोगे, भविष्य निर्मित हो जाता है, समय निर्मित हो जाता है, इच्छा के द्वारा। समय इच्छा की परछाईं के सिवाय और कुछ नहीं है। अस्तित्व में कहीं कोई समय नहीं है। अस्तित्व शाश्वत है। उसने कभी किसी समय को नहीं जाना है। समय तो निर्मित हो जाता है तुम्हारी इच्छा के द्वारा, क्योंकि इच्छा को सरकने के लिए स्थान चाहिए। अन्यथा, यदि कहीं कोई भविष्य नहीं होता, तो कहां सरकेगी इच्छा? तुम सदा रहोगे दीवार के सामने, तो तुम निर्मित करते हो भविष्य को। तुम्हारा मन निर्मित करता है समय के आयाम को, और तब इच्छा के घोड़े तेजी से सरपट दौड़ते हैं।
इच्छा के कारण तुम भविष्य को निर्मित करते हो, न ही केवल इस जन्म में बल्कि दूसरे जन्मों में भी। तुम जानते हो इच्छाएं बहुत सारी होती हैं, और इच्छाएं ऐसी होती हैं कि वे पूरी नहीं की जा सकती हैं। यह जीवन पर्याप्त न होगा, ज्यादा जन्म चाहिए। यदि यही एकमात्र जीवन है, तब तो समय बहुत थोड़ा है। बहुत सारी चीजें हैं करने को, और इतने कम समय में तो कुछ नहीं किया जा सकता है। तब तुम निर्मित कर लेते हो भविष्य के जन्मों को।
यह तुम्हारी इच्छा होती है जो कि बन जाती है बीज, और इच्छा के द्वारा तुम बढ़ते जाते—एक स्वप्न से दूसरे स्वप्न तक। जब तुम एक जन्म से दूसरे जन्म तक बढ़ते हो तो वह एक स्वप्न से दूसरे स्वप्न तक बढ़ने के अतिरिक्त और कुछ नहीं होता। जब तुम गिरा देते हो सारे विचार और बस बने रहते हो वर्तमान क्षण में ही, तो अचानक समय तिरोहित हो जाता है।
वर्तमान क्षण समय का हिस्सा बिलकुल नहीं होता। तुम समय को बांट देते हो तीन कालों में: अतीत, वर्तमान और भविष्य में। वह गलत है। अतीत और भविष्य समय हैं पर वर्तमान समय का हिस्सा नहीं होता, वर्तमान होता है अस्तित्व का हिस्सा। अतीत होता है मन में—यदि तुम्हारी स्मृति गिर जाती है, तो कहां रहेगा अतीत? भविष्य होता है मन में—यदि तुम्हारी कल्पना गिर जाती है, तो कहां रहेगा भविष्य? केवल रहेगा वर्तमान। वह तुम पर और तुम्हारे :मन पर निर्भर नहीं करता है। वर्तमान अस्तित्वगत होता है। हां, केवल यही क्षण सत्य है। दूसरे सारे क्षण या तो संबंध रखते हैं अतीत से या भविष्य से। अतीत चला गया, अब न रहा, और भविष्य अभी तक आया नहीं। दोनों गैर— अस्तित्व हैं। केवल वर्तमान है सत्य, वर्तमान का एक क्षण ही है सत्य। जब इच्छाएं समाप्त हो जाती हैं और विचार समाप्त हो जाते हैं, तो अचानक तुम फेंक दिए जाते हो वर्तमान क्षण पर, और वर्तमान क्षण से द्वार खुलता है शाश्वत का। बीज जल जाता है। इच्छा के गिरने के साथ बीज तिरोहित हो जाता है अपने से ही। वह निर्मित हुआ था इच्छा के द्वारा।

 तीसरा प्रश्न :

अपेक्षाकृत नए संन्यासी के रूप में थोड़ा चिंतित हूं आपके आस— पास के उन बहुत गंभीर चिंताग्रस्त दिखते संन्यासियों के बारे में क्या आप इस विषय में आश्वस्त कर सकते हैं?

 हां, बहुत सारी चीजें समझ लेनी हैं। पहली, 'धार्मिक' व्यक्ति सदा गंभीर होते हैं। मैं धार्मिक व्यक्ति नहीं हूं, लेकिन बहुत सारे धार्मिक व्यक्ति, मुझे गलत समझ आ पहुंचते हैं मेरे पास। धार्मिक व्यक्ति सदा गंभीर रहते हैं, वे बीमार होते हैं। वे हताश होते हैं जीवन के प्रति, इतने हताश, इतनी पूरी तरह से असफल कि उन्होंने खो दी होती है आनंद मनाने की क्षमता। जीवन में उन्हें पीड़ा के सिवाय और कुछ नहीं मिला है। जीवन में वे कभी उत्सव मनाने के योग्य नहीं रहे। जीवन की हताशा के कारण वे धार्मिक बन गए हैं, फिर वे होते हैं गंभीर। उनका ऐसा रवैया होता है कि वे कोई बहुत बड़ी चीज कर रहे हैं। वे कोशिश कर रहे होते हैं अपने अहंकार को सांत्वना देने की तुम शायद असफल हो गए हो जीवन में, लेकिन फिर भी तुम सफल हो रहे हो धर्म में। तुम शायद असफल हो गए हो बाहरी जीवन में, लेकिन आंतरिक जीवन में तुम हो गए हो साक्षात आदर्श रूप! वस्तुओं के संसार में असफल हुए होओगे तुम, लेकिन तुम्हारी कुंडलिनी जाग्रत हो रही है! फिर वे क्षतिपूर्ति करते हैं निंदात्मक दृष्टि से दूसरों को देखने के द्वारा।तुम से ज्यादा पवित्र हूं? वाली दृष्टि होती है उनकी और सारे पापी होते हैं। केवल वे ही बचने वाले हैं, दूसरा हर कोई नरक में फेंक दिया जाने वाला है। इन धार्मिक लोगों ने नरक निर्मित कर दिया है दूसरों के लिए, और अपने लिए भी। वे जी रहे हैं एक प्रतिकारी जीवन। यह वास्तविक नहीं है, बल्कि काल्पनिक है। ये लोग गंभीर होंगे।
मेरा उनसे कुछ लेना—देना नहीं है। लेकिन यह सोचकर कि मैं भी उसी प्रकार का धार्मिक आदमी हूं कई बार वे मेरे साथ आ बंधते हैं। मैं तो पूरी तरह ही अलग तरह का धार्मिक व्यक्ति हूं यदि तुम मुझे किसी तरह धार्मिक कह सकते हो, तो मेरे लिए धर्म एक आनंद है। मेरे लिए धार्मिकता एक उत्सव है। मैं धर्म को कहता हूं— 'उत्सवमय आयाम।वह ऐसे धार्मिक व्यक्तियों के लिए नहीं है, गंभीर लोगों के लिए नहीं है। गंभीर लोगों के लिए मनसचिकित्सा होती है। वे बीमार होते हैं, और वे किसी और को नहीं, बल्कि स्वयं को ही धोखा दे रहे होते हैं।
मेरे देखे, धर्म की समग्र रूप से एक अलग ही गुणवत्ता होती है। ऐसा नहीं है कि तुम जीवन में असफल हो गए हो और इसलिए तुम धर्म की ओर चले आए हो, बल्कि इसलिए आए हो, क्योंकि तुम जीवन के द्वारा परिपक्व हो गए हो। तुम्हारी असफलताएं भी जीवन के कारण नहीं हैं; असफलताएं हैं तुम्हारी इच्छाओं के कारण। तुम हताश इसलिए नहीं हुए कि जीवन हताशा देने वाला है, बल्कि इसलिए कि तुमने बहुत ज्यादा आशा बनाई थी। जीवन तो सुंदर होता है; कष्ट तो तुम्हारे मन ने निर्मित कर लिया। तुम्हारी महत्वाकांक्षा बहुत ज्यादा थी। यह सुंदर और विशाल जीवन भी उसे पूरा नहीं कर सकता था।
साधारण धार्मिक व्यक्ति संसार को त्याग देता है; वास्तविक धार्मिक व्यक्ति महत्वाकांक्षा छोड़ देता है, आशा छोड़ देता है, कल्पना छोड़ देता है। अनुभव द्वारा यह जान कर कि हर आशा उस स्थल तक आ पहुंचती है, जहां यह बन जाती है आशा विहीनता, और हर स्वप्न उस स्थल पर आ पहुंचता है, जहां यह बन जाता है एक दुखस्वप्न, और हर इच्छा उस बिंदु तक आ पहुंचती है, जहां असंतुष्टि के सिवाय तुममें और कुछ नहीं बचता है? अनुभव द्वारा यह जान कर व्यक्ति पक जाता है, प्रौढ़ हो जाता है। व्यक्ति गिरा देता है महत्वाकांक्षा की। या, इस विकास के कारण, महत्वाकांक्षा गिर जाती है अपने से ही। तब व्यक्ति धार्मिक हो जाता है।
ऐसा नहीं है कि वह संसार को त्याग देता है। संसार तो सुंदर है! वहां त्यागने को कुछ है नहीं। वह त्याग देता है सारी अपेक्षाएं। और जब कोई अपेक्षा नहीं होती, तो हताशा कैसे हो सकती है? और जब कोई माग नहीं होती, तो हताशा कैसे हो सकती है? और जब कोई माग नहीं होती, तो अतृप्ति कैसे हो सकती है? और जब कोई महत्वाकाक्षा नहीं होती, तो कैसे आ पहुंच सकता है कोई दुखस्वप्न? व्यक्ति एकदम बन जाता है मुक्त और स्वाभाविक। व्यक्ति वर्तमान क्षण को जीता है और कल की फिक्र नहीं करता है। व्यक्ति इसी क्षण को जीता है और उसे इतने संपूर्ण रूप से जीता है, क्योंकि भविष्य में कहीं कोई आशा और इच्छा नहीं होती। व्यक्ति अपना संपूर्ण अस्तित्व ले आता है इस क्षण तक, और तब संपूर्ण जीवन हो जाता है रूपांतरित। वह एक आनंद होता है, वह एक त्यौहार होता है, वह एक उत्सव होता है। फिर तुम नृत्य कर सकते हो और तुम हंस सकते हो और गा सकते हो, और मेरे देखे ऐसी ही होनी चाहिए धार्मिक—चेतना—स्व नृत्य—मग्न चेतना। यह चेतना बच्चों की चेतना जैसी ज्यादा होती है, मरी हुई लाश की चेतना जैसी कम होती है। तुम्हारे चर्च, तुम्हारे मंदिर, तुम्हारी मस्जिदें; कब्रों की भांति ही हैं—बहुत ज्यादा गंभीरता है।
तो निस्संदेह बहुत लोग हैं मेरे आसपास, जो गंभीर हैं, उन्होंने मुझे बिलकुल ही नहीं समझा है। हो सकता है वे अपने मन प्रक्षेपित कर रहे होंगे मुझ पर, जो कुछ मैं कहता हूं वे उसकी व्याख्या कर रहे होंगे उनके अपने विचारों के अनुसार, लेकिन मुझे समझा नहीं है उन्होंने। वे गलत लोग हैं। या तो उन्हें बदलना होगा या उन्हें चले जाना होगा। अंततः केवल वे ही व्यक्ति रहेंगे मेरे साथ, जो समग्र रूप से जीवन का उत्सव मना सकते हैं, बिना किसी शिकायत के, बिना किसी दुर्भाव के। दूसरे चले जाएंगे। जितनी जल्दी वे जाएं, उतना बेहतर। लेकिन यह होता है यह सोच कर कि मैं धार्मिक हूं पुराने ढंग के धार्मिक लोग भी कई बार आ जाते हैं मेरे पास, और एक बार वे आ जाते हैं तो वे उनके अपने मन ले आते हैं उनके साथ, और वे यहां भी गंभीर रहने की कोशिश करते हैं।
एक आदमी आया मेरे पास, एक का आदमी। वह एक बहुत प्रसिद्ध भारतीय नेता था। एक बार उसने शिविर में भाग लिया था, और उसने देख लिया कुछ संन्यासियों को ताश खेलते हुए। तुरंत वह चला आया मेरे पास और कहने लगा, 'यह तो बहुत गलत हुआ। संन्यासी ताश खेलते हैं?' मैं बोला, 'क्या गलत हुआ है इसमें? ताश के पत्ते सुंदर हैं, और वे किसी को कोई हानि नहीं पहुंचा रहे हैं। वे तो बस आनंद मना रहे हैं ताश खेलने का।यह आदमी एक राजनीतिज्ञ था, और वह राजनीति में ताश खेल रहा था और जुआ खेल रहा था, पर तो भी इसे वह नहीं समझ सकता था। लोगों के ताश खेलने की बात सीधी—साफ है, वे उत्सव भर मना रहे हैं इस क्षण का। और यह आदमी पत्तों के खेल खेलता रहा था अपनी पूरी जिंदगी— भर, बड़े खतरनाक ताश के खेल, आक्रामक; लोगों के सिरों पर पैर रखकर, हर वह चीज करते हुए जो कि एक राजनीतिज्ञ को करनी होती है। लेकिन वह तो स्वयं को धार्मिक समझ रहा था। और बेचारे संन्यासी, केवल ताश के पत्ते खेलने से, निंदित होते हैं वे। वह कहने लगा, 'इसकी तो मैंने कभी अपेक्षा न की थी!' मैंने कहां उससे कि मेरे लिए कुछ गलत नहीं है इसमें।
जब तुम किसी को नुकसान नहीं पहुंचा रहे होते तो कुछ गलत नहीं होता है। जब तुम नुकसान पहुंचाते हो किसी को, तो गलत होती है वह बात। जो चीजें गलत समझी जाती रही हैं; कई बार वे उतनी गलत नहीं होती हैं। उदाहरण के लिए तुम किसी आदमी से कुछ अनाप—शनाप बोल रहे होते हो और कूड़ाकबाड़ ही फेंक रहे होते हो उसके सिर में—और तुम केवल कूड़ाकबाड़ ही फेंक सकते हो क्योंकि तुम्हारे पास कोई और चीज है नहीं—तुम सोचते हो, वैसा ठीक ही है। लेकिन जो व्यक्ति एक कोने में बैठा है और सिगरेट पी रहा है—वह गलत है? वह कम से कम किसी के सिर के ऊपर या किसी के सिर में कूड़ा तो नहीं फेंक रहा होता है। उसने होठों के लिए एक विकल्प ढूंढ लिया होता है, वह बोलता नहीं है, वह सिगरेट पीता है। हो सकता है वह खुद को नुकसान पहुंचा रहा हो लेकिन वह किसी दूसरे को तो नुकसान नहीं पहुंचा रहा है। हो सकता है वह मूढ़ हो, फिर भी वह पापी नहीं है।
सदा अपनी सोच इसी दिशा के समानांतर रखने की कोशिश करना कि यदि तुम किसी को नुकसान पहुंचा रहे होते हो, केवल तभी गलत होती है बात। यदि तुम किसी को नुकसान पहुंचा रहे होते हो—और यदि थोड़ा—सा सजग रहते हो, तो इस 'किसी' में तुम भी सम्मिलित होओगे—यदि तुम किसी को नुकसान नहीं पहुंचा रहे, अपने को भी नहीं, तो हर चीज सुंदर है। तब तुम कर सकते हो अपना काम। मेरे लिए संन्यास कोई बड़ी गंभीर बात नहीं है। वस्तुत: यह ठीक विपरीत बात है: यह एक छलांग है अ—गंभीरता में। गंभीरता से तो तुम जी लिए बहुत जन्म। क्या पाया है तुमने? सारा संसार तुम्हें गंभीर होने की, तुम्हारा कर्तव्य पूरा करने की, नैतिक होने की, यह कुछ या वह कुछ करने की सीख देता है। मैं तुम्हें सिखाता हूं आनंदित होना; मैं तुम्हें सिखाता हूं उत्सवपूर्ण होना। मैं तुम्हें उत्सव मनाने के अतिरिक्त और कुछ नहीं सिखाता। केवल एक बात याद रखना तुम्हारा उत्सव किसी दूसरे के लिए नुकसान देने वाला नही होना चाहिए, बस इतना ही।
अहंकार की ही है समस्या। यदि तुम जीवन को आनंद के रूप में लेते हो, और किसी त्यौहार की भांति इसका उत्सव मनाते हो, तो तुम्हारा अहंकार तिरोहित हो जाएगा। अहंकार केवल तभी बना रह सकता है, जब तुम गंभीर होते हो। बच्चे की भांति होते हो, तब अहंकार तिरोहित हो जाता है। तो तुम दुखी से लगते हो, तुम तन कर चलते हो; तुम कुछ बहुत गंभीर बात कर रहे जो कि दूसरा कोई और नहीं कर रहा: सारे संसार को सुधारने में मदद देने की कोशिश कर रहे हो तुम। तुम सारे संसार का बोझ ढोते हो अपने कंधों पर। हर कोई अनैतिक है; केवल तुम्हीं हो नैतिक! हर कोई पाप कर रहा है, केवल तुम्हीं हो पुण्यात्मा! तब अहंकार बहुत अच्छा— अच्छा अनुभव करता है।
उत्सवमयी भावदशा में अहंकार जीवित नहीं रह सकता। यदि उत्सव तुम्हारे अस्तित्व की ही आबोहवा बन जाता है तो अहंकार मिट जाएगा। कैसे तुम बनाए रख सकते हो अपना अहंकार, जब तुम हंस रहे होते हो, नाच रहे होते हो, आनंद मना रहे होते हो? ऐसा कठिन होता है। तुम बनाए रख सकते हो अपने अहंकार को जबकि तुम शीर्षासन कर रहे होते हो, सिर के बल खड़े हुए होते हो, या कि कठिन, मूढ़ता— भरी मुद्राएं बना रहे होते हो। तब तुम बनाए रख सकते हो अहंकार को, तुम एक महान योगी हो! या चारों ओर से दूसरे सारे मुर्दा शरीरों के साथ मंदिर में या चर्च में बैठ कर, तुम स्वयं को अनुभव कर सकते हो बहुत, बहुत महान, उच्च।
खयाल में ले लेना यह बात, मेरा संन्यास इस प्रकार के लोगों के लिए नहीं है, लेकिन तो भी आ जाते हैं वे। आने में कुछ गलत भी नहीं। या तो वे परिवर्तित हो जाएंगे, या फिर उन्हें चले जाना होगा। उनकी फिक्र मत करो। मैं आश्वासन देता हूं तुम्हें कि मैं गंभीर नहीं हूं। मैं ईमानदार हूं पर गंभीर नहीं।
ईमानदारी पूरी तरह से एक अलग ही गुणवत्ता है। गंभीरता एक रोग ही है अहंकार का, और ईमानदारी एक गुणवत्ता है हृदय की। ईमानदार होने का अर्थ है सच्चे होना, गंभीर होना नहीं। ईमानदार होने का अर्थ है प्रामाणिक होना। जो कुछ भी कर रहे होते हो, तुम उसे किसी कर्तव्य की भांति नहीं कर रहे होते हो, बल्कि प्रेम की भांति कर रहे होते हो। संन्यास कोई तुम्हारा कर्तव्य नहीं है, वह है तुम्हारा प्रेम। यदि तुम लगा देते हो छलांग, तो तुम लगाते हो तुम्हारे प्रेम के कारण, तुम्हारी प्रामाणिकता के कारण। तुम ईमानदार रहोगे उसके प्रति, पर गंभीर नहीं।
गंभीरता उदास होती है। ईमानदारी प्रफुल्ल होती है। एक ईमानदार व्यक्ति सदा प्रफुल्ल रहता है। केवल दिखावटी व्यक्ति उदास होता है, क्योंकि वह बड़ी झंझट में पड़ जाता है। यदि तुम दिखावटी होते हो, तो एक दिखावट तुम्हें ले जाएगी दूसरी दिखावट में। यदि तुम निर्भर करते हो एक झूठी बात पर, तुम्हें निर्भर करना पड़ेगा और झूठी बातो पर। धीरे— धीरे झूठी बातो की एक भीड़ इकट्ठी हो जाती है तुम्हारे आसपास। तुम्हारा दम घुटने लगता है तुम्हारे अपने झूठे चेहरों के द्वारा और फिर तुम हो जाते हों उदास। तब जिंदगी झंझट की भांति जान पड़ती है। तब तुम उससे आनंदित नहीं हो सकते, क्योंकि तुमने तो सारा सौंदर्य ही नष्ट कर दिया होता है उसका। तुम्हारे अपने झूठे मन के अतिरिक्त अस्तित्व में कोई और चीज असुंदर नहीं है, हर चीज सुंदर है।
ईमानदार बनो, प्रामाणिक बनो और सच्चे बनो, और जो कुछ करो, तुम वह प्रेमवश ही करो, अन्यथा मत करो उसे। यदि तुम संन्यासी होना चाहते हो, तो प्रेमवश ही होना; अन्यथा, मत लगाना छलांग—प्रतीक्षा करना, सही घड़ी को आने देना, लेकिन इस बारे में गंभीर मत हो जाना। ऐसा कुछ नहीं, गंभीरता जैसा कुछ नहीं।
मेरे देखे, गंभीरता एक रोग है, वह मामूली औसत मन जो जीवन में असफल हुआ है, उसका रोग है। वह असफल हुआ है क्योंकि वह औसत है। संन्यास तुम्हारी प्रौढ़ता का चरम शिखर होना चाहिए; तुम्हारी असफलताओं, सफलताओं का, हर वह चीज जो तुमने देखी है और जो है, और हर वह चीज जिसके द्वारा तुम विकसित हुए हो उसका शिखर, चरम बिंदु। अब तुम ज्यादा समझ रखते हो और जब तुम ज्यादा समझते हो तो तुम ज्यादा आनंदित हो सकते हो।
जीसस धार्मिक हैं। ईसाई धार्मिक नहीं हैं। जीसस उत्सवमय हो सकते हैं, ईसाई नहीं हो सकते। चर्च में तुम्हें जाना होता है एक बड़ा गंभीर चेहरा, उदास चेहरा लेकर। क्यों? क्योंकि क्रॉस एक प्रतीक बन गया है धर्म का। क्रॉस को प्रतीक नहीं बनना चाहिए; मृत्यु से संबद्धता नहीं होनी चाहिए। एक धार्मिक व्यक्ति इतने गहरे रूप से जीता है कि वह किसी मृत्यु को नहीं जानता। मृत्यु को जानने के लिए ऊर्जा बचती ही नहीं। कोई वहां होता नहीं मृत्यु को जानने के लिए। जब तुम इतने गहरे रूप से जीते हो जीवन को, तो मृत्यु मिट जाती है। मृत्यु केवल तभी अस्तित्व रखती है, यदि तुम सतह पर जीते हो। जब तुम गहरे रूप से जीते हो, तो मृत्यु भी जीवन बन जाती है। जब तुम जीते हो सतह पर, तो जीवन भी मृत्यु बन जाता है। क्रॉस नहीं होना चाहिए: प्रतीक धर्म का।
भारत में हमने क्रॉस जैसी चीजों को कभी नहीं ढाला है प्रतीकों में। हमारे पास कृष्ण की बांसुरी है या शिव का नृत्य है प्रतीकों के रूप में। यदि कभी तुम समझना चाहते हो कि धार्मिक चेतना को किस तरह विकसित होना चाहिए, तो कोशिश करना कृष्ण को समझने की। वे आनंदपूर्ण हैं, उत्सवपूर्ण हैं, नृत्यमय हैं। अपने होंठों पर बांसुरी और गान लिए वे प्रेमी हैं जीवन के। क्राइस्ट सचमुच ही पुरुष थे कृष्ण जैसे। वस्तुत: यह शब्द 'क्राइस्ट' आया कृष्ण से। जीसस है उनका नाम: जीसस कृष्ण, जीसस क्राइस्ट। कृष्ण के बहुत रूप हैं। भारत में, बंगाल में, उनका एक रूप है जो है 'कृष्टो'कृष्टो से ग्रीक में वह बन जाता है 'कृष्टोस' और वहां से वह बढ़ता है और बन जाता है 'क्राइस्ट'
जीसस जरूर कृष्ण जैसे रहे होंगे, पर ईसाई कहते हैं कि वे कभी हंसे ही नहीं। यह बड़ी बेतुकी बात जान पड़ती है। यदि जीसस नहीं हंस सकते, तो फिर कौन हंस सकता है? उन्होंने उन्हें चित्रित किया है इतने गंभीर रूप में। वे हंसे होंगे जरूर। वस्तुत: वे प्रेम करते थे स्त्रियों को, अंगूरी शराब को। यही थी अड़चन, इसीलिए यहूदियों ने सूली पर चढा दिया उनको। उनका प्रेम था स्त्रियों पर, मेरी मेग्दालिन और दूसरी स्त्रियों पर, और मेरी मेग्दालिन एक वेश्या थी। वे जरूर एक अदभुत व्यक्ति रहे होंगे, एक बड़े ही विरल धार्मिक व्यक्ति। वे प्रेम करते थे भोजन को; वे सदा आनंदित होते थे उत्सवमय प्रीतिभोजों से। और क्राइस्ट के साथ भोजन करने की बात जरूर किसी दूसरी दुनिया की चीज ही रही होगी।
ऐसा हुआ कि क्राइस्ट की मृत्यु हो गई क्रॉस पर। तो कहां जाता है कि तीन दिनों के बाद वे पुनजार्वित हो उठे। यह एक बड़ी ही सुंदर कथा है। वे पुनजार्वित हो उठे और सबसे पहले मेरी मेग्दालिन ने देखा था उन्हें। क्यों?—क्योंकि केवल प्रेम की दृष्टि ही समझ सकती है पुनजग़ॅवत होने को, क्योंकि प्रेम—दृष्टि ही देख सकती है अंतस को, अमरत्व को। बहुत सारे अनुयायी गुजरे थे जीसस के निकट से, जो कि वहा खड़े हुए थे और वे नहीं देख सके थे। प्रतीक सुंदर है केवल प्रेम ही देख सकता है अंतस की उस गहनतम मृत्यु—विहीनता को। तब मेरी मेग्दालिन आयी शहर में और उसने बताया लोगों को। उन्होंने सोचा, वह पागल हो गई; कौन विश्वास करता है एक स्त्री का? लोग कहते हैं कि प्रेम पागल होता है, प्रेम अंधा होता है। कोई नहीं विश्वास करता था उसका, जीसस के शिष्य भी नहीं। जीसस के निकटतम शिष्य भी हंसने लगे और बोले, 'क्या तू पागल हो गयी है?' वे विश्वास करते इसका जब उन्होंने देखा होता तो।
फिर ऐसा हुआ कि दो शिष्य जा रहे थे दूसरे शहर की ओर, जीसस उनके पीछे आए। वे बोले उनके साथ, और उन्होंने बातें की जीसस के सूली चढ़ने के बारे में और इस बारे में कि क्या—क्या घटा था। वे दोनों बड़े दुखी थे और जीसस चल रहे थे उनके साथ और बातचीत कर रहे थे उनके साथ, और उन्होंने पहचाना ही नहीं उनको। फिर वे पहुंच गए शहर में। उन्होंने बुला लिया उस अजनबी को उनके साथ भोजन करने के लिए। जब जीसस रोटी का टुकड़ा तोड़ रहे थे, तब अकस्मात उन्होंने पहचान लिया उन्हें, क्योंकि जीसस के अतिरिक्त किसी ने उस ढंग से न तोड़ी होती रोटी।
मुझे यह कथा बहुत ज्यादा प्यारी रही है। उन्होंने बातें की और पहचान न सके उन्हें; वे मीलों—मीलों तक एक साथ चले और पहचान न सके उन्हें; लेकिन जीसस के रोटी तोड्ने का वही ढंग और अचानक उन्होंने पहचान लिया उन्हें। उन्होंने कभी न जाना था ऐसे व्यक्ति को, जो इतने उत्सवपूर्ण भाव से रोटी तोड़ता हो। उन्होंने भोजन का उत्सव मनाने वाले किसी व्यक्ति को नहीं देखा था। अकस्मात, उन्होंने पहचान लिया उन्हें और बोले, 'आपने बताया क्यों नहीं कि आप पुनजयॅवत हो गए जीसस हैं? वही ढंग!' ईसाई कहते हैं कि यह आदमी कभी हंसा ही नहीं। ईसाइयों ने संपूर्णतया नष्ट ही कर दिया जीसस को, विकृत कर दिया। यदि वे कभी वापस लौटते हैं—और मुझे डर है कि वे आएंगे नहीं इन ईसाइयों के कारण—तो वे उन्हें आने न देंगे चर्चों में।
यही बात मेरे साथ भी संभव है। जब मैं नहीं रहूं तो ये गंभीर लोग खतरनाक हैं। वे बना सकते हैं मालकियत, क्योंकि वे चीजों पर मालकियत जमाने की खोज में सदा ही रहते हैं। वे बन सकते हैं मेरे उत्तराधिकारी और फिर वे नष्ट कर देंगे। इसलिए स्मरण रख लेना यह बात एक अज्ञानी व्यक्ति भी बन सकता है मेरा उत्तराधिकारी, लेकिन हंसने और उत्सव मनाने में उसे सक्षम होना चाहिए। यदि कोई संबोधि को उपलब्ध कर लेने का दावा भी करता हो, तो जरा देख लेना उसके चेहरे की ओर और यदि वह गंभीर हो, तो वह नहीं बनने वाला मेरा उत्तराधिकारी। इसे ही बनने देना कसौटी : एक मूड भी चलेगा, लेकिन उसे हंसने और आनंदित होने और जीवन का उत्सव मनाने में सक्षम होना चाहिए। लेकिन गंभीर लोग सदा ही सत्ता की तलाश में रहते हैं। जो लोग हंस सकते हैं, वे सत्ता के विषय में चिंतित नहीं होते—यही है अड़चन। जीवन इतना अच्छा है कि कौन फिक्र करता है पोप बनने की? सहज—स्वाभाविक लोग, अपने सीधे—सरल तरीकों में प्रसन्न होते हैं, राजनीतियों की चिंता नहीं करते।
जब कोई बुद्ध—पुरुष देह रूप में मिट जाता है, तो फौरन, जो लोग गंभीर होते हैं वे लड़ रहे होते हैं उत्तराधिकारी बनने को। और उन्होंने सदा ही विनाश किया है, क्योंकि वे हैं गलत लोग, लेकिन गलत लोग सदा ही महत्वाकांक्षी होते हैं। केवल सही व्यक्ति ही कभी नहीं होते महत्वाकांक्षी, क्योंकि जीवन इतना कुछ दे रहा है कि महत्वाकांक्षा की कोई जरूरत नहीं—उत्तराधिकारी बनने की, पोप बनने की या कि कुछ न कुछ बन जाने की। जीवन इतना सुंदर है कि ज्यादा की मांग नहीं की जाती है; लेकिन लोग जिनके पास आनंद नहीं, वे चाहते हैं सत्ता; लोग जो चूक गये हैं प्रेम को, वे आनंदित होते हैं मान—सम्मान से; जो लोग किसी न किसी ढंग से चूक गये हैं जीवन के उत्सव को और नृत्य को, वे हो जाना चाहेंगे पोप—ऊंचे, सत्तावान, नियंत्रणकर्ता। सावधान रहना उनसे। वे सदा रहे हैं विनाशकारी, विषदायक लोग। उन्होंने नष्ट कर दिया बुद्ध को, उन्होंने मिटा दिया क्राइस्ट को, उन्होंने मिटा दिया मोहम्मद को और वे सदा रहते हैं आसपास। मुश्किल है उनसे छुटकारा पाना, बहुत बहुत मुश्‍किल है, क्योंकि वे इतने गंभीर ढंग से हैं मौजूद कि तुम छुटकारा नहीं पा सकते उनसे।
लेकिन मैं आश्वासन देता हूं तुम्हें कि मैं सदा प्रसन्नता और उल्लास की ओर, नृत्य—गान के जीवन की ओर, आनंद की ओर हूं, क्योंकि मेरे देखे वही है एकमात्र प्रार्थना। जब तुम प्रसन्न होते हो, प्रसन्नता से आप्लावित होते हो, तो प्रार्थना मौजूद रहती है। और कोई दूसरी प्रार्थना है ही नहीं। अस्तित्व सुनता है केवल तुम्हारी अस्तित्वगत प्रतिसंवेदना को, न कि तुम्हारे शाब्दिक संप्रेषण को। जो तुम कहते हो, महत्व उसका नहीं, बल्कि उसका है जो कि तुम हो।
यदि तुम सचमुच ही अनुभव करते हो कि परमात्मा है, तो उत्सव मनाओ। तब एक भी पल गंवाने में कोई सार नहीं। अपने समग्र अस्तित्व के साथ, यदि तुम अनुभव करते कि परमात्मा है, तो नृत्य करो! क्योंकि केवल जब तुम नृत्य करते हो और गाते हो और तुम प्रसन्न होते हो, या यदि तुम बैठे भी होते हो शांतिपूर्वक, तो तुम्हारी सत्ता का वह रूप, वह परिवर्तनशीलता ही दे देती है जीवन के प्रति इतनी शांतिपूर्ण, गहन संतुष्टि। वही है प्रार्थना; तुम धन्यवाद दे रहे होते हो। तुम्हारा धन्यवाद तुम्हारी प्रार्थना है। गंभीर लोग? मैंने कभी नहीं सुना कि गंभीर लोगों ने कभी स्वर्ग में प्रवेश किया हो। वे नहीं प्रवेश कर सकते।
ऐसा हुआ एक बार कि एक पापी की मृत्यु हुई और वह पहुंच गया स्वर्ग में। एक संत की भी मृत्यु हुई उसी दिन और दूत ले जाने लगे उसे नरक की ओर। वह संत कहने लगा, 'ठहरो! कहीं कुछ गलत हो गया है। तुम उस पापी को ले जा रहे हो स्वर्ग की ओर, और मैं उसे जानता हूं खूब अच्छी तरह। मैं ध्यान करता रहा हूं और ईश्वर से प्रार्थना करता रहा हूं चौबीसों घंटे, और मुझे ले आया गया है नरक में! मैं ईश्वर से ही पूछना चाहूंगा। यह क्या है? क्या यह न्याय है गुम ' तो उसे ले आया गया ईश्वर के पास ही, और शिकायत की उस आदमी ने और कहने लगा, 'यह तो बिलकुल अविश्वसनीय बात है—कि यह पापी पहुंचा है स्वर्ग में। और मैं खूब अच्छी तरह जानता हूं उसे। वह पड़ोसी था मेरा। कभी प्रार्थना नहीं की उसने; उसने जीवन में कभी एक बार भी नाम नहीं लिया है आपका। मैं प्रार्थना करता रहा हूं दिन में चौबीसों घंटे। मेरी नींद में भी मैं जपता रहा, राम, राम, राम और यह क्या हो रहा है?'
ऐसा कहां जाता है कि ईश्वर ने कहां, 'क्योंकि तुमने मुझे मार ही डाला तुम्हारी निरंतर उबाऊ राम—राम से। तुमने तो मुझे लगभग मार ही दिया, और मैं नहीं चाहूंगा तुम्हारे निकट होना। जरा सोचो, चौबीस घंटे! तुम मुझे एक पल भी न दोगे आराम—चैन का। यह दूसरा आदमी भला है। कम से कम कभी तकलीफ नहीं दी उसने मुझे। मैं जानता हूं उसने कभी प्रार्थना नहीं की, लेकिन उसका तो पूरा जीवन ही था एक प्रार्थना। वह तुम्हें दिखाई पड़ता है पापी जैसा, क्योंकि तुम सोचते कि मात्र प्रार्थना करने से और मुंह की बकबक करने से नैतिकता चली आती है। वह जीया और प्रसन्नतापूर्वक जीया। हो सकता है वह सदा ही भला न रहा हो, लेकिन वह सदा प्रसन्न रहा था और वह सदा रहता था आनंदपूर्ण। हो सकता उसने गलतियां की हों यहां—वहा की, क्योंकि गलतियां करना मानवीय बात है, लेकिन वह अहंकारी न था। उसने कभी प्रार्थना नहीं की, लेकिन उसके अस्तित्व के गहनतम तल से सदा ही उठता था धन्यवाद। उसने जीवन का आनंद मनाया और उसने धन्यवाद दिया इसके लिए।
स्मरण रहे, गंभीर लोग पूरे नरक में ही होते हैं। शैतान बहुत प्यार करता है गंभीरता से। स्वर्ग किसी चर्च की भाति नहीं होता है, और यदि वह होता है तो जिसके पास थोड़ा होश है वह कभी नहीं जाएगा उस स्वर्ग की ओर। तब बेहतर है नरक चले जाना। स्वर्ग है जीवन, लाखों—लाखों आयामों से भरपूर जीवन। जीसस कहते हैं अपने शिष्यों से, ' आओ मेरे पास और मैं तुम्हें दूंगा भरपूर जीवन।स्वर्ग एक कविता है, एक निरंतर गान है, नदी के प्रवाहित होने जैसा, बिना किसी रुकाव का एक निरंतर उत्सव। जब तुम यहां हो मेरे साथ, तो स्मरण में ले लेना यह बात, तुम मुझे चूक जाओगे यदि तुम गंभीर हो तो, क्योंकि कोई संपर्क न बनेगा। केवल जब तुम प्रसन्न होते हो तो तुम मेरे पास रह सकते हो। प्रसन्नता द्वारा एक सेतु निर्मित होता है। गंभीरता द्वारा सारे सेतु टूट जाते हैं। तुम बन जाते किसी द्वीप की भांति—पहुंच के बाहर।

 चौथा प्रश्न :

कई बार मैं सजग हुआ अनुभव करता हूं और कई बार नहीं सजगता धड़कती हुई जान पड़ती है। यह सजग धड़कन धीरे— धीरे मिटती है या क्या यह अकस्मात खो जाती है?

जीवन में हर चीज एक लय है। तुम प्रसन्न होते हो और फिर पीछे चली आती है अप्रसन्नता। रात और दिन, गर्मी और सर्दी; जीवन एक लय है दो विपरीतताओ के बीच की। जब तुम सजग होने का प्रयास करते हो तो वह लय वहा होगी : कई बार तुम जागरूक हो जाओगे और कई बार नहीं।
समस्या मत खड़ी कर लेना, क्योंकि तुम समस्याएं खड़ी करने में इतने कुशल हो कि बेबात ही तुम बना सकते हो कोई समस्या। और एक बार जब तुम बना लेते हो कोई समस्या तब तुम उसे सुलझा लेना चाहते हो। फिर ऐसे लोग हैं, जो तुम्हें दे देंगे उत्तर। गलत समस्या सदा ही उत्तर पाती है किसी गलत उत्तर द्वारा। और फिर यही बात चली चल सकती है अनंतकाल तक; एक गलत उत्तर फिर बना लेता है प्रश्नों को। एकदम आरंभ से ही असम्यक ' समस्या न बनने देने के लिए सजग होना होता है। अन्यथा पूरा जीवन ही चलता चला जाता है असम्यक दिशा की ओर।
समस्या न बनाने की बात को सदा ही समझने की कोशिश करना। हर चीज स्पंदित होती है लय में। और जब मैं कहता हूं हर चीज, तो मेरा मतलब होता है हर एक चीज से ही। प्रेम होता है, और मौजूद होती है घृणा, सजगता—और मौजूद होती है असजगता। मत खड़ी कर लेना कोई समस्या; दोनों से आनंदित होना।
जब सजग होते हो, तो आनंद मनाना सजगता का, और जब असजग होते हो तो आनंद मनाना असजगता का। कुछ गलत नहीं है, क्योंकि असजगता है विश्राम की भांति। अन्यथा, सजगता हो जाएगी एक तनाव। यदि तुम जागते रहते हो चौबीस घंटे, तो तुम क्या सोचते कि कितने दिन जी सकते हो तुम? बिना भोजन के आदमी जी सकता है तीन महीने तक, बिना नींद के वह तीन सप्ताह के भीतर पागल हो जाएगा। वह कोशिश करेगा आत्महत्या करने की। दिन में तुम जागते रहते, रात में तुम विश्राम करते और वह विश्राम तुम्हारी मदद करता दिन में ज्यादा सचेत और ज्यादा ताजा रहने में। ऊर्जाएं गुजर चुकी होती है विश्राम—अवधि में से, जिससे कि वे सुबह फिर ज्यादा जीवंत होती हैं।
यही बात घटेगी ध्यान में कुछ पलों के लिए तुम संपूर्णतया जागरूक होते हो, शिखर पर होते हो, और कुछ पलों के लिए तुम होते हो घाटी में, विश्राम कर रहे होते हो—जागरूकता समाप्त हो चुकी ' होती है, तुम भूल चुके होते हो। पर क्या गलत है इसमें? यह सीधी—साफ बात है। अजागरूकता द्वारा, जागरूकता फिर से उदित होगी, ताजी, युवा, और यही चलता चला जाएगा। यदि तुम दोनों से आनंदित हो सकते हो, तो तुम तीसरे बन जाते हो, और यही सार—बिंदु है समझने का।
यदि तुम दोनों से आनंदित हो सकते हो, तो इसका मतलब होता है कि तुम न तो जागरूकता हो और न ही अजागरूकता हो। तुम एक वह हो जो दोनों से आनंदित होता है। पार का कुछ प्रवेश करता है। वस्तुत: यही है असली साक्षी। प्रसन्नता से तुम आनंदित होते—क्या गलत है इसमें? जब प्रसन्नता चली जाती है और तुम उदास हो जाते हो, तो क्या गलत है उदासी में? प्रसन्न होओ उससे। एक बार तुम सक्षम हो जाते हो उदासी का आनंद मनाने में, तब तुम दोनों में से कुछ नहीं होते।
और मैं कहता हूं तुमसे, यदि तुम आनंद मनाते हो उदासी का, तो उसके अपने सौंदर्य होते हैं। प्रसन्‍नता थोड़ी सतही होती है; उदासी बड़ी गहन होती है, उसकी अपनी एक गहराई होती है। जो व्‍यक्ति कभी उदास नहीं रहा होता, वह सतही होगा, सतह पर ही होगा। उदासी है अंधेरी रात की भांति—बहुत गहन। अंधकार का अपना एक मौन होता है और उदासी का भी। प्रसन्नता फूटती है बूदबूदाती है; उसमें एक ध्वनि होती है, वह होती है पर्वतो की नदी की भांति, ध्वनि निर्मित हो जाती है। लेकिन पर्वतो में नदी कभी नहीं हो सकती बहुत गहरी। वह सदा उथली होती है। जब नदी पहुंचती है मैदान में, वह हो जाती है गहरी, पर ध्वनि थम जाती है। वह चलती है, जैसे कि न चल रही हो। उदासी में एक गहराई होती है।
क्यों बनानी अड़चन? जब प्रसन्न होते हो, तो प्रसन्न रहो, आनंद मनाओ उसका। तादात्म्य मत बनाओ उसके साथ। जब मैं कहता हूं प्रसन्न रहो तो मेरा मतलब होता आनंदित होओ उससे। उसे होने दो एक आबोहवा, जो गतिमय होगी और परिवर्तनशील होगी। सुबह परिवर्तित हो जाती है दोपहर में, दोपहर परिवर्तित हो जाती है सांझ में और फिर आती है रात्रि। प्रसन्नता को तुम्हारे चारों ओर की एक आबोहवा बनने दो। आनंद मनाओ उसका, और फिर जब उदासी आती है, तो उससे भी आनंदित होना। जो कुछ भी हो अवस्था मैं तो तुम्हें सिखाता हूं आनंद मनाना। शांत होकर बैठ जाना और आनंदित होना उदासी से, और अचानक उदासी फिर उदासी नहीं रहती; वह बन चुकी होती है मौन शांतिमय पल, अपने में सौंदर्यपूर्ण। कुछ गलत नहीं होता उसमें।
और फिर आती है अंतिम कीमिया, वह स्थल, जहां तुम अकस्मात जान जाते हो कि तुम न तो प्रसन्नता हो और न ही उदासी। तुम देखने वाले हो, साक्षी हो। तुम देखते शिखरों को, तुम देखते घाटियों को, लेकिन तुम इनमें से कुछ भी नहीं हो।
एक बार यह दृष्टि उपलब्ध हो जाती है तो तुम हर चीज का उत्सव मना सकते हो। तुम उत्सव मनाते हो जीवन का, तुम उत्सव मनाते हो मृत्यु का। तुम उत्सव मनाते हो प्रसन्नता का और तुम उत्सव मनाते हो अप्रसन्नता का। तुम हर चीज का उत्सव मनाते हो। तब तुम किसी ध्रुवता के साथ तादात्म्य नहीं बनाते। दोनों ध्रुवताएं, दोनों छोर साथ—साथ उपलब्ध हो गए हैं तुम्हें और तुम आसानी से एक से दूसरे तक पहुंच सकते हो। तुम हो जाते हो तरल, तुम बहने लगते हो। तब तुम कर सकते हो उपयोग दोनों का, और दोनों ही तुम्हारे विकास में मदद बन सकते हैं।
इसे स्मरण रखना: मत बनाना समस्याएं। स्थिति को समझने की कोशिश करना, जीवन की ध्रुवता को समझने की कोशिश करना। गर्मियों में गर्मी होती है, सर्दियों में सर्दी होती है, तो कहां है कोई समस्या? सर्दियों में आनंदित होना सर्दी से, गर्मियों में आनंदित होना गर्मी से। गर्मियों में आनंद मनाना सूर्य का। रात्रि में आनंद मनाना सितारों का और अंधकार का, दिन में सूर्य का और प्रकाश का। तुम आनंद को बना लेना तुम्हारी निरंतरता। जो कुछ भी घटता है उसके बावजूद तुम आनंद मनाते रहना। तुम प्रयास करना इसका, और अकस्मात हर चीज बदल जाती है और रूपांतरित हो जाती है।

 पांचवां प्रश्न:

अभी पिछले दिनों ही आपने कहां कि यदि तुम प्रेम नहीं कर सकते तो ध्यान तुम्हें ले जाएगा प्रेम की ओर और यदि तुम ध्यान नहीं कर सकते तो प्रेम तुम्हें ले जाएगा ध्यान की ओर। जान पड़ता है आपने अपना मन बदल लिया है।

 मेरे पास कोई मन है ही नहीं बदलने को। तुम बदल सकते हो, यदि तुम्हारे पास हो तो, तुम कैसे बदल सकते हो इसे यदि तुम्हारे पास यह हो ही नहीं?
कभी कोशिश मत करना दो पलों की तुलना करने की, क्योंकि हर पल स्वयं में अतुलनीय होता है। ही, कई दिनों मैं होता हूं सर्दियों की भांति और कई दिनों मैं होता हूं गर्मियों की भांति, लेकिन तो भी मैंने नहीं बदला होता मन। मेरे पास कोई मन है नहीं। इसी तरह घटती है यह बात।
तुम पूछते हो कोई प्रश्न, मेरे पास उसके लिए कोई बना—बनाया उत्तर नहीं होता है। तुम पूछते हो कोई प्रश्न और मैं उसका उत्तर देता हूं। मैं नहीं सोचता कि मैं अपने पिछले कथनों के अनुरूप हूं या नहीं। मैं अतीत में नहीं जीता हूं और मैं नहीं सोचता हूं भविष्य की—कि जो कुछ मैं कह रहा हूं क्या भविष्य में भी मैं इसी बात को कह पाऊंगा। नहीं, कोई अतीत नहीं और नहीं है कोई भविष्य।
बिलकुल इसी क्षण तुम पूछते हो प्रश्न और जो कुछ घटता है, घटता है। मैं प्रतिसंवेदित होता हूं। वह एक सहज—स्वाभाविक प्रत्युत्तर होता है, वह कोई उत्तर नहीं होता है। अगले दिन तुम फिर वही प्रश्न पूछते हो, लेकिन मैं उसी ढंग से प्रत्युत्तर नहीं दूंगा। मैं इस विषय में कुछ नहीं कर सकता। मेरे पास बने—बनाए तैयार उत्तर नहीं रहते हैं। मैं हूं दर्पण की भांति: जो चेहरा तुम ले आते हो, वह प्रतिबिंबित होता है। यदि तुम क्रोधित होते हो तो वह प्रतिबिंबित करता है क्रोध को, यदि तुम प्रसन्न होते हो, तो वह प्रतिबिंबित करता है प्रसन्नता को। तुम नहीं कह सकते दर्पण को, 'क्या बात है? कल मैं था यहां और तुमने झलकाया क्रोधी चेहरा, आज मैं हूं यहां और तुम झलका रहे हो एक बहुत प्रसन्न चेहरा। बात क्या है तुम्हारे साथ? क्या तुमने बदल दिया तुम्हारा मन?' दर्पण के कोई मन नहीं होता, दर्पण तो बस तुम्हें ही झलका देता है।
तुम्हारा प्रश्न ज्यादा महत्वपूर्ण है मेरे उत्तर से। वस्तुत: तुम्हारा प्रश्न ही मुझमें उत्तर निर्मित कर देता है। आधा भाग तो तुम्हारे द्वारा ही भेज दिया जाता है, दूसरा आधा भाग होता है मात्र एक प्रतिध्वनि। तो यह निर्भर करता है—यह निर्भर करेगा तुम पर, यह निर्भर करेगा तुम्हें घेरने वाले वृक्षों पर, यह निर्भर करेगा आबोहवा पर, यह निर्भर करेगा अस्तित्व पर, उसकी समग्रता में। तुम पूछते हो प्रश्न, और मैं यहां कुछ नहीं हूं मात्र एक माध्यम। यह ऐसा है जैसे कि समष्टि तुम्हें उत्तर देती हो। जो कुछ भी होती है तुम्हारी आवश्यकता, वैसा ही होता है उत्तर जो कि चला आता है तुम तक।
मत कोशिश करना तुलना करने की, अन्यथा तुम गड़बड़ी में पड़ जाओगे। कभी कोशिश न करना तुलना करने की। जब कभी तुम अनुभव करो कि कोई चीज तुम्हारे अनुकूल पड़ती है, तो बस उसका अनुसरण करना, उसे कर लेना। यदि तुम करते हो उसे तो जो कुछ बाद में चला आता है, तुम समझ पाओगे। तुम्हारा करना मदद देगा, तुलना मदद न देगी। तुम पूरी तरह पागल हो जाओगे, यदि तुम तुलना ही करते गए तो।
हर क्षण मैं कई बातें कहता जाता हूं। बाद में, अपनी जिंदगी भर बोल चुकने के बाद, जो अध्ययन 'करेंगे उनका, और जो यह जांचने—छांटने का प्रयत्न करेंगे कि मैं क्या कहता हूं वे बिलकुल पागल ही हो जाएंगे। वे वैसा कर नहीं पाएंगे, क्योंकि इसी तरह तो यह अभी घट रहा है। वे हैं दार्शनिक; मैं नहीं हूं दार्शनिक। उनके पास एक निश्चित विचार होता है तुम पर आरोपित करने का। वे फिर—फिर उसी विचार पर जोर दिए चले जाते हैं। उनके पास कुछ है, जिसमें कि वे तुम्हें सिद्धांतबद्ध करना चाहेंगे। वे तुम्हारे मन को निश्चित अवस्था में डाल देना चाहेंगे, एक निश्चित दर्शन में। वे तुम्हें कुछ सिखा रहे होते हैं।
मैं शिक्षक नहीं हूं। मैं तुम्हैं कुछ सिखा नहीं रहा। बल्कि इसके विपरीत, मैं तुम्हें अनसीखा होने में मदद देने की कोशिश कर रहा हूं।
जो कुछ अनुकूल पड़ता हो तुम्हारे, अनुसरण करना उसका। मत सोचना कि वह सुसंगत है या नहीं। यदि वह तुम्हारे अनुकूल हो तो वह अच्छा है तुम्हारे लिए। यदि तुम अनुसरण करते हो उसका तो जल्दी ही तुम समझ पाओगे मेरी सारी असंगतियों की अंतर—सुसंगतता को। मैं सुसंगत हूं। हो सकता है मेरे कथन न हों, लेकिन वे आते हैं एक ही स्रोत से। वे आते हैं मुझसे, अत: उन्हें होना ही चाहिए सुसंगत। वरना यह ऐसा कैसे संभव होता। वे आते हैं एक ही स्रोत से। आकारों में भिन्नता हो सकती है, शब्दों में भेद हो सकता है, लेकिन गहन तल पर वहा सुसंगतता जरूर व्याप्त होती है, जिसे तुम देख पाओगे, जब तुम स्वयं में गहरे उतर जाते हो।
तो जो कुछ तुम्हें अनुकूल पड़ता हो उसे करना। इस बारे में तो बिलकुल चिंता ही मत करना कि मैंने इसके विरुद्ध कुछ कहां है या नहीं। यदि तुम वैसा 'करते' हो, तो तुम्हें अनुभव होगी मेरी सुसंगतता। यदि तुम केवल 'सोचते ' हो, तो तुम कभी कोई कदम नहीं बढ़ा पाओगे, क्योंकि हर दिन मै बदलता जाऊंगा। मैं और कुछ कर नहीं सकता, क्योंकि मेरे पास कोई ठोस—जड़ मन, चट्टान जैसा मन नहीं है, जो कि सदा एक जैसा ही रहता है।
मैं हूं पानी और हवा की भांति, चट्टान की भांति नहीं। लेकिन तुम्हारा मन तो फिर—फिर सोचेगा कि मैंने यह कहां, और फिर मैंने वह कहां, तो ठीक क्या है? ठीक वह है जो आसानी से पहुंच जाता है तुम तक। सहज—सरल होता है ठीक, तुम्हें अनुकूल बैठे, वही ठीक होता है, सदा ही।
हमेशा इस ढंग से सोचने की कोशिश करना कि तुम्हारी सत्ता और मेरा कथन—यह सोचने की कोशिश करना कि वे अनुकूल बैठते हैं या नहीं। यदि वे अनुकूल नहीं होते, तो मत करना चिंता। मत सोचना उनके बारे में, मत व्यर्थ करना समय—आगे बढ़ जाना। कुछ ऐसी चीज आती होगी जो तुम्हारे अनुकूल पड़ती होगी।
और तम हो बहुत सारे, इसीलिए मुझे बोलना पड़ता है बहुत लोगों के लिए। उनकी आवश्यकताएं अलग— अलग हैं, उनकी अपेक्षाएं अलग हैं, उनके व्यक्तित्व अलग हैं—उनके पिछले जन्मों के कर्म अलग हैं। मुझे बोलना है बहुतो के लिए। केवल तुम्हारे लिए ही नहीं बोल रहा हूं। तुम तो केवल एक बहाना हो। तुम्हारे द्वारा मैं बोल रहा हूं सारी दुनिया से।
इसलिए मैं कई तरह से बोलूंगा, मैं बहुत तरीकों से बनाऊंगा चित्र और मैं गाऊंगा बहुत—से गीत। तुम तो सोचना तुम्हारे बारे में ही—जो अनुरूप हो तुम्हारे, तुम गुनगुनाना वही गीत और भूल जाना दूसरों को। उस गीत को गुनगुनाने से, धीरे— धीरे, कोई चीज स्थिर हो जाएगी तुम्हारे भीतर, एक समस्वरता उदित होगी। उस समस्वरता से गुजरते हुए तुम समझ पाओगे मेरी सुसंगतता को, सारी असंगतियों के बावजूद। असंगति रह सकती है केवल सतह पर ही, लेकिन मेरी सुसंगति है अलग गुणवत्ता की। एक दार्शनिक जीता है सतह पर। जो कुछ वह कहता है—वह देखता अतीत में, उसे जोड़ता है अपने कथनों से। देखता है भविष्य में, उसे जोड़ता है भविष्य के साथ—वह एक शृंखला निर्मित कर लेता है सतह पर। उस प्रकार की सुसंगतता तुम मुझ में न पाओगे।
सुसंगति की एक अलग गुणवत्ता होती है, जिसे समझना कठिन होता है, जब तक कि तुम उसे जीयो नहीं, फिर धीरे— धीरे जो तरंगें असंगत थीं, खो जाती हैं और तुम पहुंच जाते हो सागर की गहराई तक, जहां निवास करती है शांति, सदा सुसंगत। चाहे सतह पर तूफान हो या न हो, बड़ी ऊंची लहरें और बड़ी अशांति हो या न हो—गहराई में होती है शांति। कोई लहर नहीं, एक तरंग भी नहीं। वह ज्वार हो कि भाटा हो, इससे कोई अंतर नहीं पड़ता है; गहन तल पर सागर सुसंगत होता है, एक समान होता है। मेरी सुसंगतता है अंतस की—शब्दों की नहीं। लेकिन जब तुम उतरते हो तुम्हारे अपने भीतरी सागर में, तब तुम समझ पाओगे उसे। बिलकुल अभी, तुम उसकी फिक्र मत लेना।
जब कोई विशेष जूता तुम्हारे ठीक बैठता हो, तो खरीद लेना उसे और पहन लेना उसे। दुकान के दूसरे जूतो को लेकर चिंतित मत होना। वे तुम्हें पूरे नहीं आते : कोई आवश्यकता नहीं उनके बारे में चिंता करने की। वे तुम्हारे लिए नहीं बने। लेकिन दूसरे और लोग हैं; कृपा करके जरा उनका भी स्मरण कर लेना। कोई है कहीं, जिसे पूरे आ जाएंगे वे जूते। बस देखना अपने पैरों को और तलाश करना अपने जूतो की ही, क्योंकि यह प्रश्न है अनुभूति का, बुद्धि का नहीं।
जब तुम जाते हो जूतो की दुकान पर, तो क्या करते हो तुम? दो तरीके होते हैं : तुम नाप ले सकते हो अपने पैरों का और तुम नाप ले सकते हो जूतो का—वह एक बुद्धिजनित प्रयास होगा, एक गणितीय प्रयास यह देखने का कि वह पूरे आते हैं या नहीं। दूसरी बात होती है : तुम बस पहन ही लेते हो जूते तुम्हारे पैरों में, चलते हो, और अनुभव करते हो कि वे पूरे आते हैं या नहीं। यदि वे पूरे आते हैं, तो वे ठीक बैठते हैं। हर चीज ठीक है, तुम फिक्र छोड़ सकते हो इसकी। गणित के अनुसार तो बिलकुल ठीक हो सकता है और हो सकता है कि जूता ठीक ही न बैठे, क्योंकि जूते किसी गणित को नहीं जानते। वे तो बिलकुल अनपढ़ होते हैं। मत चिंता करना इस बारे में।
मुझे याद है : ऐसा हुआ कि जिस आदमी ने एवरेज का, औसत का नियम खोजा था, एक महान गणितज्ञ, एक ग्रीक, बहुत भरा हुआ था औसत के नियम के अपने आविष्कार से।
एक दिन वह पिकनिक पर जा रहा था अपनी पत्नी और अपने सात बच्चों के साथ। उन्हें एक नदी पार करनी पड़ी तो वह बोला, 'ठहरो।वह गया नदी में और चार या पांच स्थानों पर उसने नदी की गहराई नापी। कुछ स्थानों पर वह एक फुट थी, कई स्थानों पर वह थी तीन फीट, कई स्थानों पर वह केवल छ: इंच गहरी थी। नदियों की संगति नहीं बैठती गणित के साथ। रेत पर उसने गणना की और औसत पायी डेढ़ फीट की। उसने नापा था अपने सारे बच्चों को और औसत पायी थी दो फीट की। वह बोला, 'चिंता मत करो, उन्हें जाने दो। नदी तो है डेढ़ फीट, बच्चे हैं दो फीट।जहां तक गणित का प्रश्न है, बिलकुल ठीक है बात; लेकिन न तो बच्चे और न ही नदी परवाह करती है गणित की।
पत्नी तो थोड़ी डरी, क्योंकि स्त्रियां कभी नहीं चलती गणित के अनुरूप। और यह अच्छा है कि वे ऐसी नहीं होती हैं, क्योंकि वे देती हैं संतुलन। अन्यथा, पुरुष तो पागल हो जाता। वह थोड़ी—भयभीत हो गयी थी। वह बोली, 'मैं नहीं समझती तुम्हारे एवरेज के नियम को। मुझे तो ऐसा जान पड़ता है कि कुछ बच्चे बहुत छोटे हैं और नदी बहुत गहरी दिखायी पड़ती है।वह बोला, 'तुम चिंता मत करो। मैंने एवरेज के नियम को प्रमाणित कर दिया है महान गणितज्ञों के सामने। तुम कौन होती हो इस बारे में संशय, संदेह करने वाली? तुम जरा देखो कैसे काम करता है यह।
गणितज्ञ आगे चल दिया। स्त्री भयभीत थी, वह पीछे—पीछे चली, ताकि वह देख सके कि क्या हुआ बच्चों को, क्योंकि कुछ बच्चों को लेकर चिंतित थी वह। एक छोटा तो पानी में डूबने ही लगा। वह चिल्लायी, 'देखो, डूब रहा है बच्चा।तो भी गणितज्ञ दौड़ा दूसरे किनारे की रेत की तरफ, उस बच्चे की ओर नहीं, जो कि डूब रहा था। वह कहने लगा, 'तो जरूर कुछ गलती रही होगी मेरी गणना में।वह स्त्री दौड़ी दूसरे किनारे की तरफ—'मेरे साथ गणितबाजी मत चलाओ! मैं गणितज्ञ नहीं हूं और मैं विश्वास नहीं करती एवरेज के किसी नियम में।
हर व्यक्ति एक अद्वितीय व्यक्ति होता है। कोई औसत आदमी अस्तित्व नहीं रखता है। मैं बहुतो से बातें कर रहा हूं और तुम्हारे द्वारा लाखों लोगों से बातें कर रहा हूं। मैं दो चीजें कर सकता हूं या तो मैं ढूंढ सकता हूं कोई औसत सिद्धात, तो मैं सदा रहूंगा समरूप, मैं सदा बात करूंगा दो फीट की। लेकिन मैं देखता हूं कि कुछ सात फीट के हैं, और कुछ केवल चार फीट के ही हैं, और मुझे संभालने पड़ते हैं बहुत प्रकार के जूते और बहुत प्रकार की विधियां। तुम तो बस ध्यान रखो तुम्हारे पैरों का; जूते को खोज लो और भूल जाओ सारी दुकान को। केवल तभी किसी दिन तुम समझ पाओगे कि सुसंगतता अस्तित्व रखती है मेरे भीतर। अन्यथा, मैं तो इस पृथ्वी पर सर्वाधिक असंगत व्यक्ति हूं।

 अंतिम प्रश्न:
 एक बार आपने कहां था कि यदि इसकी आवश्यकता हुई तो आप एक और जन्म लेंगे। लेकिन यदि आप निर्बीज समाधि को उपलब्ध हो चुके हैं तो कैसे आप एक और जन्म ले सकते हैं? आप शायद इसे एक प्रासंगिक व्यक्तिगत प्रश्न नहीं समझते होंगे लेकिन जिस रफ्तार से मेरा आध्यात्मिक विकास बढ़ता हुआ जान पड़ रहा है यह प्रश्न मेरे लिए संगत है।

हां, एक बार मैंने कहां था कि यदि इसकी आवश्यकता हुई तो मैं आऊंगा वापस। लेकिन अब मैं कहता हूं कि ऐसा असंभव है। अत: कृपा करना, थोड़ी जल्दी करना। मेरे फिर से आने की प्रतीक्षा मत करना। मैं यहां हूं केवल थोड़े—से और समय के लिए ही। यदि तुम सचमुच ही सच्चे हो तो जल्दी करना, स्थगित मत करना। एक बार मैंने कहां था वैसा, लेकिन मैंने कहां था उन लोगों से, जो उस क्षण तैयार न थे। मैं सदा ही प्रत्युत्तर देता रहा हूं; मैंने ऐसा कहां था उन लोगों से जो कि तैयार न थे। यदि मैंने उनसे कहां होता कि मैं नहीं आ रहा हू तो उन्होंने एकदम गिरा ही दी होती सारी खोज। उन्होंने सोच लिया होता कि, 'फिर यह बात संभव ही नहीं है। मैं ऐसा एक जन्म में नहीं कर सकता, और वे वापस नहीं आ रहे हैं, तो बेहतर है कि शुरू ही न करना। एक जन्म में उपलब्ध होने के लिए यह एक बहुत बड़ी चीज है।लेकिन अब मैं तुमसे कहता हूं कि मैं यहां और नहीं आ रहा; वैसा संभव नहीं। मुझे लग रहा है कि अब तुम तैयार हो इसे समझने के लिए, और गति बढ़ा देने के लिए।
तुम यात्रा आरंभ कर ही चुके हो। किसी भी घड़ी, यदि तुम गति बढ़ा देते हो, तो तुम पहुंच सकते हो परम सत्य तक। किसी घड़ी संभव है ऐसा। अब स्थगित करना खतरनाक होगा। यह सोचकर कि मैं फिर आऊंगा, तुम्हारा मन विश्राम कर सकता है और स्थगित कर सकता है बात को। अब मैं कहता हूं मैं नहीं आ रहा हूं।
एक कथा कहूंगा मैं तुमसे। ऐसा हुआ एक बार कि मुल्ला नसरुद्दीन कहता था अपने बेटे से, 'मैं जंगल में गया शिकार करने और न केवल एक, दस शेर अकस्मात कूद पड़े मेरे ऊपर।वह लड़का
बोला, ठहरो पापा। पिछले साल तो आपने कहां था पांच शेर, और इस साल आप कहते हैं कि दस शेर।मूल्ला नसरुद्दीन ने कहां, 'ही, पिछले साल तुम पर्याप्त रूप से प्रौढ़ न थे, और तुम बहुत डर गए होते दस शेरों से। अब मैं तुम्हें सच्ची बात बतलाता हूं। तुम विकसित हो गये हो और यही मैं कहता हूं तुमसे।पहले मैंने तुमसे कहां था कि मैं आऊंगा। क्योंकि तुम पर्याप्त रूप से विकसित न थे। लेकिन अब तुम थोड़े विकसित हो गए हो, और मैं तुम्हें बतला सकता हूं सच्ची बात। बहुत बार मुझे कहनी पड़ती हैं झूठी बातें तुम्हारे ही कारण, क्योंकि तुम नहीं समझ सकोगे सच को। जितना तुम विकसित होते हो, उतना ज्यादा मैं गिरा सकता हूं झूठी बातो को और उतना ज्यादा मैं हो सकता हूं सच। जब तुम सचमुच। ही विकसित हो जाते हो, तब मैं तुम्हें बताऊंगा वास्तविक सच। तब झूठ बोलने की कोई आवश्यकता न रहेगी यदि तुम विकसित नहीं होते, तब सत्य विनाशकारी होगा।
तुम्हें असत्य की आवश्यकता है उसी भाति जैसे कि बच्चों को आवश्यकता होती खिलौनों की। खिलोने झूठी बातें हैं। तुम्हें असत्य की जरूरत होती है, यदि तुम विकसित नहीं होते। और यदि करुणा होती है, तब वह व्यक्ति जिसके पास गहरी करुणा होती है वह चिंतित नहीं होता इस बारे में कि वह झूठ बोलता है या कि सच। उसका पूरा अस्तित्व तुम्हारी मदद करने को ही होता है, लाभ पहुंचाने को होता है, तुम्हें आशीष देने को होता है। सारे बुद्ध झूठ बोलते हैं। उन्हें बोलना पड़ता है, क्योंकि इतने ज्यादा करूणावान होते हैं वे। और कोई बुद्ध परम सत्य को नहीं बतला सकता, क्योंकि किसको कहेगा वह इसे? केवल किसी दूसरे बुद्ध से ही कहां जा सकता है इसे, लेकिन किसी दूसरे बुद्ध को इसकी। अवश्यकता नहीं होगी।
झूठी बातो के द्वारा धीरे— धीरे सद्गुरु तुम्हें ले आता है प्रकाश की ओर। तुम्हारा हाथ थामकर कदम—दर—कदम, उसे तुम्हारी मदद करनी पड़ती है प्रकाश की ओर जाने में। संपूर्ण सत्य तो बहुत ज्यादा हो जाएगा। तुम एकदम धक्का खा सकते हो, बिखर सकते हो। संपूर्ण सत्य को तुम अपने में समा नहीं सकते; वह विनाशकारी हो जाएगा। केवल झूठ द्वारा ही तुम्हें लाया जा सकता है मंदिर के द्वार तक, और केवल द्वार पर ही तुम्हें दिया जा सकता है संपूर्ण सत्य, केवल तभी समझोगे तुम। तब तुम समझोगे कि वे तुमसे झूठ क्यों बोले। न ही केवल समझोगे तुम, तुम अनुगृहीत होओगे उनके प्रति।

 आज इतना ही।




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