शांति पाठ
ओम शं नो
मित्र: शै
वरुण:। शै नो
भवर्त्यम।। शं
न इंद्रो
बृहस्पति:। शं
नो
विष्णुरुक्रम:।
नमे। क्यणे।
नमस्ते वाये।।
त्वमेव
प्रत्यक्ष
ब्लासि
त्वमेव
प्रत्यक्ष
क्ल
वादिष्यामि।
ऋत वादिष्यामि।
सत्यं
वादिष्यामि।
तन्मामवतु।
ऋक्लारमवतु।
अवतु माम्।
अवतु
वक्तारम्।
ओम
शांतिः शांतिः
शांति:।
ओम, हमारे लिए
सूर्य देवता
कल्याणकारी
हों। वरुण
कल्याणकारी
हों, अर्यमा
कल्याणकारी हों,
इंद्र और
बृहस्पति भी
कल्याणकारी
हों, विष्णु
कल्याणकारी
हों।
उस ब्रह्म
को नमस्कार हो।
हे वायु!
तुम्हारे लिए
नमस्कार है, क्योंकि
तुम
प्रत्यक्ष
ब्रह्म हो।
मैं
तुम्हें ही
प्रत्यक्ष
ब्रह्म
कहूंगा; सत्य
और ऋत के नाम
से भी कहूंगा।
'वे मेरी
रक्षा करें।
आचार्य की भी
रक्षा करें।
ओम शांतिः
शांति: शांति:।
जीवन के
द्वार की
कुंजी :
मैं
वही कहूंगा जो
मैं जानता हूं; वही
कहूंगा जो आप
भी जान सकते
हैं। लेकिन
जानने से मेरा
अर्थ है, जीना।
जाना बिना जीए
भी जा सकता है।
तब ज्ञान होता
है एक बोझ।
उससे कोई डूब
तो सकता है, उबरता नहीं।
जानना जीवंत
भी हो सकता है।
तब जो हम
जानते हैं, वह हमें
करता है
निर्भार, हलका,
कि हम उड़
सकें आकाश में।
जीवन ही जब
जानना बन जाता
है, तभी
पंख लगते हैं,
तभी
जंजीरें
टूटती हैं, और तभी
द्वार खुलते
हैं अनंत के।
लेकिन
जानना कठिन है, ज्ञान
इकट्ठा कर
लेना बहुत
आसान। और
इसलिए मन आसान
को चुन लेता
है और कठिन से
बचता है।
लेकिन जो कठिन
से बचता है वह
धर्म से भी
वंचित रह
जाएगा। कठिन
ही नहीं, जो
असंभव से भी
बचना चाहता है,
वह कभी भी
धर्म के पास
नहीं पहुंच
पाएगा। धर्म
तो है ही उनके
लिए, जो
असंभव में
उतरने की
तैयारी रखते
हैं। धर्म है
जुआरियों के
लिए, दुकानदारों
के लिए नहीं।
धर्म कोई सौदा
नहीं है। धर्म
कोई समझौता भी
नहीं है। धर्म
तो है दांव।
जुआरी लगाता
है धन को दांव
पर, धार्मिक
लगा देता है
स्वयं को। वही
परम धन है। और
जो अपने को ही
दांव पर लगाने
को तैयार नहीं,
वह जीवन के
गुह्य
रहस्यों को
कभी भी जान
नहीं पाएगा।
सस्ते
नहीं मिलते
हैं वे रहस्य, ज्ञान तो
बहुत सस्ता
मिल जाता है।
ज्ञान तो मिल
जाता है किताब
में, शास्त्र
में, शिक्षा
में, शिक्षक
के पास। ज्ञान
तो मिल जाता
है करीब—करीब
मुफ्त, कुछ
चुकाना नहीं
पडता। धर्म
में तो बहुत
कुछ चुकाना
पडता है। बहुत
कुछ कहना ठीक
नहीं, सभी
कुछ दाव पर
लगा दे कोई, तो ही उस
जीवन के द्वार
खुलते हैं। इस
जीवन को जो
दाव पर लगा दे
उसके लिए ही
उस जीवन के
द्वार खुलते
हैं। इस जीवन
को दाव पर लगा
देना ही उस
जीवन के द्वार
की कुंजी है।
लेकिन
ज्ञान बहुत
सस्ता है।
इसलिए मन
सस्ते रास्ते
को चुन लेता
है; सुगम
को। सीख लेते
हैं हम बातें,
शब्द, सिद्धात,
और सोचते
हैं जान लिया।
अज्ञान बेहतर
है ऐसे शान से।
अज्ञानी को कम
से कम इतना तो
पता है कि
मुझे पता नहीं
है। इतना सत्य
तो कम से कम
उसके पास है।
जिन्हें
हम ज्ञानी
कहते हैं, उनसे
ज्यादा असत्य
आदमी खोजने
मुश्किल हैं।
उन्हें यह भी
पता नहीं है
कि उन्हें पता
नहीं है। सुना
हुआ, याद
किया हुआ, कंठस्थ
हो गया धोखा
देता है। ऐसा
लगता है, मैंने
भी जान लिया।
मैं
आपसे वही
कहूंगा जो मैं
जानता हूं।
क्योंकि उसके
कहने का ही
कुछ मूल्य है।
क्योंकि जिसे
मैं जानता हूं, अगर आप
तैयार हों, तो उसकी
जीवंत चोट
आपके हृदय के
तारों को भी हिला
सकती है। जिसे
मैं ही नहीं
जानता हूं जो
मेरे कंठ तक
ही हो, वह
आपके कानों से
ज्यादा गहरा
नहीं जा सकता।
जो मेरे हृदय
तक हो, उसकी
ही संभावना
बनती है, अगर
आप साथ दें तो
वह आपके हृदय
तक जा सकता है।
आपके
साथ की तो फिर
भी जरूरत होगी, क्योंकि
आपका हृदय अगर
बंद ही हो, तो
जबरदस्ती
उसमें सत्य
डाल देने का
कोई उपाय नहीं
है। और अच्छा
ही है कि उपाय
नहीं है।
क्योंकि सत्य
भी अगर जबरदस्ती
डाला जाए तो
स्वतंत्रता
नहीं बनेगा, परतंत्रता
बन जाएगा।
सभी
जबरदस्तियां
परतंत्रताएं
बन जाती हैं।
इसलिए इस जगत
में सभी चीजें
जबरदस्ती
आपको दी जा
सकती हैं, सिर्फ
सत्य नहीं
दिया जा सकता,
क्योंकि
सत्य कभी भी
परतंत्रता
नहीं हो सकता;
सत्य का
स्वभाव
स्वतंत्रता
है। इसलिए एक
चीज भर है इस
जगत में जो
आपको कोई जबरदस्ती
नहीं दे सकता,
जो आपके ऊपर
थोपी नहीं जा
सकती, जो
आपको पहनाई
नहीं जा सकती,
ओढ़ाई नहीं
जा सकती। आपका
राजी होना
अनिवार्य
शर्त है, आपका
खुला होना, आपका ग्राहक
होना, आपका
आमंत्रण, आपका
अहोभाव से भरा
हुआ हृदय।
जैसे पृथ्वी
वर्षा के पहले
पानी के लिए
प्यासी होती
है और दरारें
पड़ जाती हैं—इस
आशा में
पृथ्वी जगह—जगह
अपने ओंठ खोल
देती है कि
वर्षा हो —ऐसा
जब आपका हृदय
होता है, तो
सत्य प्रवेश
करता है।
अन्यथा
अन्यथा सत्य
आपके द्वार से
भी आकर लौट
जाता है। बहुत
बार लौटा है; बहुत जन्मों—जन्मों
में।
आप
कुछ नए नहीं
हैं। इस
पृथ्वी पर कुछ
भी नया नहीं
है, सभी
बहुत पुराने
हैं। आप बुद्ध
के चरणों में
भी बैठ कर
सुने हैं, आपने
कृष्ण को भी
देखा है, आप
जीसस के पास
भी उठे —बैठे
हैं, लेकिन
फिर भी वंचित
रह गए हैं!
क्योंकि कभी
भी आपका हृदय
तैयार नहीं था।
आपके पास से
बुद्ध की
सरिता बहती
निकल गई है, महावीर की
सरिता बहती
निकल गई है, आप प्यासे
रह गए हैं।
आनंद
रो रहा था, जिस दिन
बुद्ध के
प्राण छूटने
को थे, और
छाती पीट रहा
था। और बुद्ध
ने उससे कहा
कि तू रोता
क्यों है? जरूरत
से ज्यादा मैं
तेरे पास था, चालीस वर्ष!
और अगर चालीस
वर्ष में भी
नहीं हो पाई
वह घटना, तो
अब रोने से
क्या होगा!
मेरे मिटने से
इतना परेशान
क्यों हो रहा
है?
तो
आनंद ने कहा
है, इसलिए
परेशान हो रहा
हूं कि आप
मौजूद थे और
मैं न मिट
पाया। अगर मैं
मिट जाता तो
आपको मेरे भीतर
प्रवेश मिल
जाता। चालीस
साल नदी मेरे
पास बहती थी
और मैं प्यासा
रह गया हूं।
और अब मैं
रोता हूं
क्योंकि
जरूरी नहीं है
कि यह नदी कब, किस जन्म
में दुबारा
मुझे मिलेगी।
आप
कुछ नए नहीं
हैं। आपने
बुद्धों को
दफनाया, महावीरों को
दफनाया, जीसस,
कृष्ण, क्राइस्ट,
सबको आप
दफना कर जी
रहे हैं। वे
हार गए आपसे, आप काफी
पुराने हैं।
जब से जीवन है,
तब से आप हैं।
अनंत—अनंत
यात्रा है।
कहां
हो जाती होगी
चूक?
बस
यहीं हो जाती
है कि आप खुले
ही नहीं हैं, बंद हैं।
मैं
तो आपसे वही
कहूंगा, जो मैंने
जाना है। अगर
आप भी अपने को
एक खुलापन बना
सकें, तो
आप भी उसे जान
लेंगे। और ऐसा
नहीं है कि
कोई कठिनाई है
बहुत! एक ही कठिनाई
है और वह आप
हैं। कुछ लोग
कुतूहल से
चलते हैं।
जैसे राह चलते
बच्चे पूछ
लेते हैं, इस
वृक्ष का नाम
क्या है? और
अगर आप उत्तर
न दें, तो
तत्थण भूल
जाते हैं कि
उन्होंने
पूछा भी था! वे
दूसरी बात
पूछने लगते
हैं कि यह
पत्थर यहां
क्यों पड़ा है?
पूछने के
लिए पूछते हैं,
जानने के
लिए नहीं
पूछते। बिना
पूछे नहीं रह
सकते हैं, इसलिए
पूछते हैं; जानने के
लिए नहीं
पूछते।
जो
लोग कुतूहल से
जी रहे हैं, वे अभी भी
बचकाने हैं।
अगर आप ऐसे ही
पूछ लेते हैं
कि ईश्वर क्या
है, जैसे
कि कोई बच्चा
राह चलते
दुकान देख कर
पूछ लेता हो
कि यह खिलौना
क्या है, तो
आप अभी बच्चे
हैं। और बच्चा
तो माफ किया
जा सकता है, आप माफ नहीं
किए जा सकते।
कुतूहल
नहीं चलेगा।
धर्म कोई
खिलवाड़ नहीं
है बच्चों का।
और फिर उत्तर
भी मिल जाए तो
उससे कोई
प्रयोजन नहीं
है। बच्चे का
मजा पूछने में
है। उसने पूछा, यही उसका
मजा है। आप
उत्तर देंगे
भी, तो उस
उत्तर में उसे
कोई बहुत रस
नहीं है। क्या
बात है?
मनसविद
कहते हैं कि
बच्चे नया—नया
बोलना सीखते
हैं, तो
अपने बोलने का
अभ्यास करते
हैं पूछ—पूछ
कर। जैसे बच्चा
नया—नया चलना
सीखता है, तो
बार —बार उठ कर
चलने की कोशिश
करता है।
बोलना सीखता
है, तो बार—बार
बोलने की
कोशिश करता है।
इसलिए बच्चे
एक ही बात को
कई दफा कहते
हैं। इसीलिए
कई दफा कहते
हैं, क्योंकि
उन्हें बोलने
का एक नया
अनुभव, एक
नया आयाम मिला
है। उस नए
आयाम में वे
तैर कर अभ्यास
कर रहे हैं।
इसलिए कुछ भी
पूछते हैं, कुछ भी
बोलते हैं।
अगर
आप भी धर्म की
दुनिया में
कुछ भी पूछ
रहे हैं, कुछ भी बोल
रहे हैं, कुछ
भी सोच रहे
हैं—और कोई
गहरी
जिज्ञासा
नहीं है, बस
कुतूहल है—तो
अभी आप और कुछ
बुद्धों को
दफनाके! अभी
और न मालूम
कितने
बुद्धों को
आपके साथ मेहनत
करनी पडेगी!
कुतूहल
से सत्य का
कोई संबंध
नहीं है।
कुछ
लोग कुतूहल से
थोड़ा आगे बढ़ते
हैं और जिज्ञासा
करते हैं।
जिज्ञासा में
थोड़ी ज्यादा
गहराई है।
लेकिन बस थोड़ी
ज्यादा।
जिज्ञासा भी
बहुत गहरी
नहीं है, वह भी उथली
है, क्योंकि
जिज्ञासा है
केवल बौद्धिक।
और बुद्धि भी
ऐसी है, जैसी
खाज होती है।
खुजलाएं, तो
थोड़ा रस आता
है। ऐसा
बुद्धि को भी
खाज होती रहती
है ईश्वर है? आत्मा है? मोक्ष है? ध्यान क्या
है? करने
के लिए नहीं, ईश्वर क्या
है, जानने
के लिए नहीं—चर्चा
के लिए, बातचीत
के लिए। एक
बौद्धिक मजा
है, एक
बौद्धिक
व्यायाम है!
तो
लोग ऊंची
बातें करते
हैं, लेकिन
उन बातों पर
कभी भी कोई
दाव नहीं
लगाते। ईश्वर
है या नहीं, इससे कोई
प्रयोजन नहीं
है। और ईश्वर
हो तो, ईश्वर
न हो तो, वे
जैसे हैं वैसे
ही बने रहते
हैं।
यह
बड़े मजे की
बात है। एक आदमी
मानता है कि
ईश्वर है और
एक आदमी मानता
है कि ईश्वर
नहीं है, और दोनों की
जिंदगी बराबर
एक सी! कोई
गाली दे तो
उसे भी क्रोध
आता है जो
मानता है कि
ईश्वर है और
उसे भी क्रोध
आता है जो
मानता है कि
ईश्वर नहीं
है! बल्कि कई
दफा तो यह
देखा जाता है
कि जो मानता
है ईश्वर है, उसे ज्यादा
क्रोध आता है!
क्योंकि जो
मानता है कि
ईश्वर नहीं है,
वह ज्यादा
से ज्यादा
क्या कर सकता
है आपका? गाली
दे सकता है, मार सकता है,
हत्या कर
सकता है!
लेकिन जो
मानता है
ईश्वर है, वह
आपको नर्क तक
में सड़ा सकता
है! उसके पास
ज्यादा उपाय
हैं क्रोधित होने
के।
अगर
ईश्वर के
मानने और न
मानने से कोई
भी अंतर जीवन
में न पड़ता हो, तो उसका
अर्थ है कि यह
ईश्वर से कोई
संबंध नहीं है,
बौद्धिक
बातचीत है।
ऐसी जिज्ञासा
हो तो आदमी
दार्शनिक हो
जाता है, चिंतन—मनन
करने लगता है,
शास्त्र
अध्ययन करने
लगता है, बहुत
सिद्धात
इकट्ठे कर
लेता है, पक्ष
में, विपक्ष
में सोच लेता
है, वाद—विवाद
करता है, शास्त्रार्थ
करता है, लेकिन
जीता कभी नहीं।
अगर
आप भी सिर्फ
जिज्ञासा से
भरे हैं, तो यात्रा
नहीं होगी।
जिज्ञासा से
भरे हुए लोग
वे हैं, जो
मील के पत्थर
के पास बैठ
जाते हैं और पूछते
हैं, मंजिल
क्या है? कितनी
दूर है? और
सदा यही पूछते
हैं, लेकिन
कभी उठ कर
चलते नहीं।
जानते
तो आप भी
कितना हैं!
क्या कमी है
जानने में!
करीब—करीब सभी
कुछ जानते हैं।
जो बुद्ध ने
जाना हो, महावीर ने, कृष्ण ने
जाना हो, वह
सभी आप भी तो
जानते हैं!
गीता में पढ़ कर
आपको ऐसा नहीं
लगता कि ये
बातें तो हमें
भी मालूम हैं?
मालूम
आपको भी हैं, पर सिर्फ
बुद्धि तक हैं।
आपके हृदय तक
उनका बीज नहीं
पहुंचा है। और
बुद्धि पर रखे
हुए विचार
वैसे ही होते
हैं, जैसे
पत्थर पर कोई
बीज को रख दे।
बीज तो होता
है, लेकिन
पत्थर पर रखा
रहता है।
अंकुर नहीं
फूट सकता।
अंकुर फूटना
हो तो बीज को
पत्थर से
गिरना पड़े, जमीन खोजनी
पड़े। और जमीन
की भी ऊपर की
सतह ठीक नहीं
है, क्योंकि
और गीली जगह
चाहिए। तो
थोड़ा जमीन के
भीतर पहुंचना पड़े,
जहां थोड़ी
पानी की
सुविधा हो, थोड़ा रस
बहता हो।
बुद्धि
पर पत्थर की
तरह बीज रख
जाते हैं।
हृदय तक जब तक
न गिर जाएं, तब तक
गीली जगह नहीं
मिलती। हृदय
में थोड़ा रस
बहता है; थोड़ा
प्रेम। वहा
थोड़ा पानी है।
वहा कोई बीज
गिरे तो
अंकुरित होता
है, नहीं
तो कभी
अंकुरित नहीं
होता।
जिज्ञासु
व्यक्तियों
के पास बहुत
कुछ होता है, लेकिन
पत्थर पर रखे
हुए बीजों की
भाति। जमीन भी
ज्यादा दूर
नहीं होती, लेकिन थोड़ी
यात्रा भी
मुश्किल है।
चलना बिलकुल
नहीं है, तो
पत्थर पर ही
बीज रखा रह
जाता है। इतनी
यात्रा तो
करनी ही पड़ेगी
कि बीज पत्थर
से नीचे गिरे,
जमीन पर आए,
जमीन में
जगह खोजे, थोड़ी
गीली भूमि को
पाए, थोड़ा
छिप जाए
अंधेरे में।
ध्यान
रहे, जगत
में जो ली
जन्म पाता है,
वह गहन मौन,
एकांत, अंधेरे
को चाहता है।
बुद्धि में तो
जितनी चीजें
रखी हैं, वे
सब खुले
प्रकाश में
रखी हैं। वहा
अंकुर नहीं
होते। हृदय
आपके भीतर
गीली जमीन है,
छिपी हुई।
वहां कुछ पैदा
होता है।
इसलिए
जो सिर्फ
जिज्ञासा से
जीते हैं, वे
विद्वान बन
जाते हैं, पंडित
बन जाते हैं, ज्ञानी बन
जाते हैं, लेकिन
कुछ अंकुरित
नहीं होता
उनके भीतर, कोई नया
जन्म, कोई
नया जीवन, कोई
नए फूल—कुछ भी
नहीं।
एक
और—जिससे
संबंध है
हमारा—एक और
भी दिशा है
खोज की, उसे हम कहते
हैं, मुमुक्षा।
जानने की
फिक्र नहीं है,
जीने की
फिक्र है।
जानने की
फिक्र नहीं है,
होने की
फिक्र है। यह
सवाल नहीं है
कि ईश्वर है, सवाल यह है
कि क्या मैं
ईश्वर हो सकता
हूं? अगर
ईश्वर हो भी
और मैं ईश्वर
न हो सकूं तो
कोई सार नहीं
है। सवाल यह
नहीं है कि
मोक्ष है, सवाल
यह है कि क्या
मैं भी मुक्त
हो सकता हूं? अगर मैं
मुक्त हो ही न
सकूं और मोक्ष
हो भी कहीं, तो क्या
अर्थ है? यह
बात नहीं है
कि आत्मा है
भीतर या नहीं,
हो या न हो, सवाल असली
यह है कि क्या
मैं आत्मा हो
सकता हूं?
मुमुक्षा
है होने की
खोज। और जब
कोई होना
चाहता है, तब दाव पर
लगना पडता है।
इसलिए कहता
हूं, धर्म
है जुआरियों
का काम। वही
कहूंगा जो मैं
जानता हूं जो
जीया है। अगर
आप तैयार हुए
दाव पर लगाने
को, तो जो
मेरा अनुभव है
वह आपका अनुभव
भी बन सकता है।
अनुभव
किसी के नहीं
होते, जो
भी लेने को
तैयार हो, उसी
के हो जाते
हैं। सत्य पर
किसी का कोई
अधिकार नहीं।
जो भी मिटने
को राजी है, वही उसका
मालिक हो जाता
है। सत्य तो
उसका है, जो
भी उसे मागने
की तैयारी
दिखलाता है; जो भी अपने
हृदय के द्वार
खोलता है और
उसे पुकारता
है।
इस
उपनिषद को
इसीलिए चुना
है। यह उपनिषद
अध्यात्म का
सीधा साक्षात्कार
है। सिद्धात
इसमें नहीं
हैं, इसमें
सिद्धों का
अनुभव है।
इसमें उस सब
की कोई बातचीत
नहीं है जो
कुतूहल से
पैदा होती है,
जिज्ञासा
से पैदा होती
है। नहीं, इसमें
तो उनकी तरफ
इशारे हैं जो
मुमुक्षा से भरे
हैं, और
उनके इशारे
हैं
जिन्होंने पा
लिया है।
कुछ
ऐसे लोग भी
हैं कि
जिन्होंने
नहीं पाया, लेकिन
फिर भी मार्ग—दर्शन
देने का मजा
नहीं छोड़ पाते।
मार्ग—दर्शन
में बड़ा मजा
है। सारी
दुनिया में
अगर सबसे
ज्यादा कोई
चीज दी जाती
है, तो वह
मार्ग—दर्शन
है! और सबसे कम
अगर कोई चीज
ली जाती है, तो वह भी
मार्ग—दर्शन
है! सभी देते हैं,
लेता कोई भी
नहीं है! जब भी
आपको मौका मिल
जाए किसी को
सलाह देने का,
तो आप चूकते
नहीं। जरूरी
नहीं है कि आप
सलाह देने
योग्य हों।
जरूरी नहीं है
कि आपको कुछ
भी पता हो, जो
आप कह रहे हैं।
लेकिन जब कोई
दूसरे को सलाह
देनी हो, तो
शिक्षक होने
का मजा छोड़ना
बहुत मुश्किल
हो जाता है।
शिक्षक
होने में मजा
क्या है? आप तत्काल
ऊपर हो जाते
हैं मुफ्त में
और दूसरा नीचे
हो जाता है।
अगर कोई आपसे
दान मांगने आए,
तो दो पैसे
देने में
कितना कष्ट
होता है! क्योंकि
कुछ देना पडता
है जो आपके
पास है। लेकिन
सलाह देने में
जरा भी कष्ट
नहीं होता; क्योंकि जो
आपके पास है
ही नहीं, उसको
देने में कष्ट
क्या! आपका
कुछ खो ही
नहीं रहा है।
बल्कि आपको
कुछ मिल रहा
है। मजा मिल
रहा है।
अहंकार मिल
रहा है। आप भी
सलाह देने की
हालत में हैं
आज, और
दूसरा लेने की
हालत में है।
आप ऊपर हैं, दूसरा नीचे
है।
इसलिए
कहता हूं कि
इस उपनिषद में
कोई सलाह, कोई
मार्ग—दर्शन
देने का मजा
नहीं है, बड़ी
पीड़ा है।
क्योंकि
उपनिषद का ऋषि
जो दे रहा है, वह जान कर दे
रहा है। वह
बांट रहा है
कुछ—बहुत
हार्दिक, बहुत
आतरिक।
संक्षिप्त
इशारे हैं, लेकिन गहरे
हैं। बहुत
थोड़ी सी चोटें
हैं, लेकिन
प्राण—घातक
हैं। और अगर
राजी हों, तो
तीर सीधा हृदय
में चुभ जाएगा
और जान लिए बिना
न रहेगा। जान
ही ले लेगा।
इसलिए
थोड़ा सावधान!
थोड़ा सचेत!
क्योंकि यह
सौदा ही
खतरनाक है।
इसमें पागल
हुए बिना कोई
मार्ग ही नहीं
है। इसमें
अपने को मिटाए
बिना पाने का
कोई उपाय ही
नहीं है। यहां
तो खोने वाले
ही बस पाने
वाले बनते हैं।
और इसीलिए इस
उपनिषद को भी
चुन लिया है।
ऐसे तो सीधा
ही आपसे कह
सकता हूं र
कोई कारण इस उपनिषद
को चुनने का
नहीं है—बहाना!
आडू! क्योंकि
तीर सीधा मारो, आदमी बच
सकता है, उपनिषद
की आडू से
थोड़ी सुविधा
रहेगी। इसलिए
चुन लिया है
कि आपको ऐसा
भी पता नहीं
लगेगा कि मैं
कोई सीधा ही
आपको तीर मार
रहा हूं! तो
बचने का जरा
उपाय कम हो
जाता है। सभी
शिकारी जानते
हैं कि थोड़ी
आडू से शिकार
ठीक होता है।
यह उपनिषद
सिर्फ आडू है,
और इससे कुछ
लेना—देना
ज्यादा नहीं
है।
जो
मैंने जाना है
वही कहूंगा, लेकिन
उसमें और
उपनिषद में
कोई अंतर नहीं
है, क्योंकि
इस उपनिषद के
ऋषि ने जो कहा
है वह जान कर
ही कहा है।
यह
उपनिषद
अध्यात्म के
सूक्ष्मतम
रहस्यों का
उदघाटन है।
लेकिन अगर मैं
उपनिषद पर ही
बात करता रहूं
तो डर है कि
बात—बात ही रह
जाए। इसलिए
चर्चा तो
पृष्ठभूमि
होगी, इस
चर्चा के साथ—साथ
प्रयोग! जो
कहा है, जो
इस ऋषि ने
देखा है या जो
मैं कहता हूं
मैंने देखा है,
उस तरफ आपके
चेहरे को
मोड़ने की
कोशिश, उस
तरफ आपकी भी आंखें
उठानी, उस
तरफ आपकी भी आंखें
उठाने का
प्रयास—वही
मुख्य होगा।
उपनिषद की बात
तो सिर्फ हवा
पैदा करने के
लिए होगी कि
आपके चारों
तरफ वे तरंगें
पैदा हो जाएं
कि आप भूल
जाएं बीसवीं
सदी को, पहुंच
जाएं उस लोक
में जहां यह
ऋषि रहा होगा।
मिट जाए यह
जगत जो चारों
तरफ बहुत
बेरौनक और बहुत
कुरूप हो गया
है, और याद
आ जाए उन
दिनों की जब
यह ऋषि जिंदा
रहा होगा। एक
हवा, एक
वातावरण, बस
उसके लिए
उपनिषद। पर
उतना काफी
नहीं है—जरूरी
है, काफी
नहीं है।
तो
जो मैं कहता
हू, अगर आप
उसको सुन कर
ही रुक जाते
हैं, तो
मैं मानूंगा
आपने सुना भी
नहीं; क्योंकि
सुन कर जो
चलता नहीं है,
मैं नहीं
मान सकता कि
उसने सुना है।
अगर आप सोचते
हैं कि सुन कर
आपकी समझ में
आ गया—इतनी
जल्दी मत करना।
सुन कर समझ
में आता होता
तो हम कभी के
समझ गए होते।
सुन कर ही समझ
में आता होता
तो इस दुनिया
में समझदारों
की कमी न होती;
नासमझ
खोजना
मुश्किल हो
जाता। मगर
नासमझ ही
नासमझ हैं!
सुन
कर कुछ भी समझ
में नहीं आता।
सुन कर सिर्फ
शब्दों पर
मुट्ठियां
बंध जाती हैं।
सुन कर नहीं, करके ही
समझ में आता
है। इसलिए
सुनना करने के
लिए—समझने के
लिए नहीं।
सुनना करने के
लिए, करना
समझने के लिए।
सुन कर ही
सीधा मत सोच
लेना कि समझ
गए। वह बीच की
कड़ी के बिना
कोई भी उपाय
नहीं है, कोई
भी रास्ता
नहीं है।
लेकिन मन कहता
है कि समझ गए, अब करने की
क्या जरूरत
है! मंजिलें
चल कर पहुंची
जाती हैं। सब
भी समझ लिया
हो, यात्रा—पथ
पूरा स्मृति
में आ गया हो, पूरा नक्शा
जेब में हो, फिर भी बिना
चले कोई मंजिल
तक कभी
पहुंचता नहीं
है।
लेकिन
सपना देखा जा
सकता है। कोई
आदमी यहीं सो
जाए, और
सपना देख सकता
है कहीं भी
पहुंचने का।
मन सपना देखने
में बड़ा कुशल
है।
और
ऐसा मत सोचना
कि आप ही ऐसे
सपने देखते
हैं। जिनको आप
बहुत
बुद्धिमान
कहते हैं, वे भी इसी
तरह के सपने
देखते रहते
हैं। साधु हैं,
संन्यासी
हैं, महात्मा
हैं, वर्षों—वर्षों
से खोज में
लगे हैं, लेकिन
कहीं इंच भर
नहीं पहुंचते।
यात्रा ही
नहीं करते! वे
जो वर्षों से
खोज में लगे
हैं, वह
सारी की सारी
खोज
वर्तुलाकार
है। बुद्धि
में ही वर्तुल
बन जाता है, भंवर बन
जाता है। उसी
भंवर में
घूमते रहते
हैं। फिर उस
भंवर में सब
समा जाता है—वेद
समा जाते हैं,
उपनिषद समा
जाते हैं; कुराने,
बाइबिलें
समा जाती हैं—उस
भंवर में सब
समा जाता है, लेकिन एक
इंच भी गति
नहीं होती।
उपनिषद
की हम चर्चा
करेंगे—उपनिषद
समझाने के लिए
नहीं, उपनिषद
बन जाने के
लिए। यहां सुन
कर कुछ कंठस्थ
हो जाए और आप
भी बोलने लगें,
तो मैंने
आपका नुकसान
किया, मैं
फिर आपका
मित्र साबित न
हुआ। यहां सुन
कर आप, जो
सुना है वह
बोलने लग जाएं,
तो कोई
मूल्य नहीं है।
यहां सुन कर
आपको भी वह हो
जाए, आप भी
वह देख लें, वह आख आपकी
भी खुल जाए—तो
ही।
ऐसा
समझें, एक कवि गीत
गाता है किसी
फूल के संबंध
में। गीत में
बड़ा माधुर्य
हो सकता है, छंद हो सकता
है, लय हो
सकती है, संगीत
हो सकता है।
गीत की अपनी
खूबी है।
लेकिन
गीत कितना ही
गाए उस फूल को, और कितना
ही गुनगुनाए,
तो भी गीत
गीत है, फूल
नहीं है। और
लाख हो गति, और लाख हो
छंद, तो भी
गीत गीत है, फूल की
सुगंध नहीं है।
और आप उसी गीत
से तृप्त हो
जाएं तो आप
भटक गए।
उपनिषद
गीत है किसी
फूल का, जिसे आपने
देखा नहीं अभी।
गीत गजब का है,
गाने वाले
ने देखा है।
पर गीत से
तृप्त मत हो
जाना, गीत
फूल नहीं है।
ऐसा
भी हो जाता है
कि कभी—कभी आप
फूल के पास भी
पहुंच जाते
हैं—कभी—कभी!
कभी—कभी फूल
की एक झलक भी
मिल जाती है—अचानक, आकस्मिक!
क्योंकि फूल
कोई विजातीय
नहीं है, आपका
स्वभाव है, आपके बिलकुल
निकट है, किनारे—किनारे
है। कभी—कभी
छू जाता है—बिना
आपके, बावजूद
आपके। कभी—कभी
फूल एक झलक दे
जाता है। कोई
बिजली कौंध
जाती है। किसी
क्षण में, आकस्मिक,
अनुभव में आ
जाता है : कुछ
और भी है इस
जगत में, यही
जगत सब कुछ
नहीं है। इस
पथरीले जगत के
बीच कुछ और भी
है, जो
पत्थर नहीं
फूल है —जीवंत,
खिला हुआ।
जैसे किसी
स्वभ में देखा
हो या अंधेरी
रात में चमकी
हो बिजली और
कुछ दिखा हो
और फिर खो गया
हों—ऐसा कभी—कभी
आपके जीवन में
भी हो जाता है।
कवियों के
जीवन में
अक्सर हो जाता
है।
चित्रकारों
के जीवन में
अक्सर हो जाता
है। फूल की
झलक बिलकुल
पास आ जाती है।
फिर
भी, फूल
कितने ही पास
हो और कितनी
ही झलक मिल गई
हो, पास
होना भी दूर
होना ही है।
और कितने ही
पास आ जाए फूल,
तो भी फासला
तो बना ही
रहता है। और
मैं बिलकुल
हाथ से भी छू
लूं फूल को, तो भी पक्का
नहीं है कि जो
अनुभव मुझे
होता है वह
फूल का है, क्योंकि
हाथ खबर लाने
वाला है। और
हाथ अगर बीच
में गलत खबर
दे दे, तो
कुछ भरोसा
नहीं। और हाथ
सही ही खबर
देगा, इसको
मानने का कोई
कारण नहीं।
फिर हाथ जो
खबर देगा, वह
फूल के संबंध
में कम और हाथ
के संबंध में
ज्यादा होगी।
फूल ठंडा
मालूम पड़ता है,
जरूरी नहीं
कि फूल ठंडा
हो। हो सकता
है हाथ गरम हो,
इसलिए फूल
ठंडा मालूम
पड़ता है। खबर
हाथ के संबंध
में है, क्योंकि
खबर जब भी
किसी माध्यम
से आती है तो सापेक्ष
होती है।
पक्का नहीं
हुआ जा सकता।
पोपो
का मैं एक
संस्मरण पढ
रहा था। पोपोफ
एक साधिका थी
और गहरी
साधिका थी। और
पियोत्तर
दिमित्रोविच
आसपेंस्की के
पास साधना
करती थी। एक
दिन बैठी थी
पास, एक
सज्जन ने आकर
आसपेंस्की से
पूछा कि ईश्वर
है या नहीं? तो
आसपेंस्की ने
कहा कि ईश्वर?
नहीं, ईश्वर
नहीं है!
फिर
आसपेंस्की
थोड़ी देर रुका
और उसने कहा, लेकिन
मैं कोई
गारंटी भी
नहीं कर सकता,
क्योंकि जो
भी मैं जानता
हूं वह सब
माध्यम से जाना
गया है। कभी
आख से देखा है,
लेकिन आख का
भरोसा क्या!
कभी कान से
सुना है, लेकिन
कान गलत सुन
सकते हैं! कभी
हाथ से छुआ है,
लेकिन हाथ
का क्या कहना!
अभी तक सीधा
नहीं देखा है।
अभी तक आमने—सामने
नहीं हुआ हूं;
इसलिए कोई
गारंटी भी
नहीं है। अभी
तक जो भी जाना
है, उसमें
मुझे ईश्वर का
कोई अनुभव
नहीं हुआ।
लेकिन जरूरी
नहीं है कि
ईश्वर न हो।
इससे सिर्फ
मेरी खबर
मिलती है कि
मेरे अनुभव क्या
हैं। इसलिए
मैं कोई
गारंटी नहीं
कर सकता कि
नहीं ही है।
इसलिए मुझ पर
भरोसा करके मत
रुक जाना, खोजना।
जब
भी माध्यम से
कुछ घटता है, तो भरोसे
का नहीं है।
अगर फूल के
बिलकुल पास भी
पहुंच जाएं, तो भी आख
देखती है, हाथ
छूते हैं, सुगंध
नाक में आती
है, यह भी
दूरी का अनुभव
है।
तो
कभी—कभी कोई
कवि उस परम
फूल के इतने
पास पहुंच जाता
है कि उसके
गीत में उतर
आती है गज
उसकी। लेकिन
फिर भी बुद्ध
नहीं है वह, महावीर
नहीं है वह।
महावीर
कौन है? बुद्ध कौन
है?
बुद्ध
है वह चैतन्य, जो फूल ही
हो गया, इतनी
भी दूरी न रही
कि फूल को
देखा हो—फूल
ही हो गया।
फूल होकर ही
पूरी तरह जाना
जा सकता है, क्या है।
उपनिषद
के ऋषि की बात
है। गीत है
किसी फूल के
संबंध में।
उसे
गुनगुनाना।
मिठास है बड़ी
उसमें, स्वाद है
उसमें बहुत।
लेकिन वह फूल
नहीं है, गीत
ही है। अगर
प्रयास
करेंगे तो कभी—कभी
झलक भी मिलेगी।
मेरे पास लोग
आते हैं। वे
कहते हैं, ध्यान
में बड़ी झलक
मिली, लेकिन
फिर खो गई।
अनंत प्रकाश
हो गया था, फिर
खो गया। आनंद
ही आनंद हो
गया था, लेकिन
अब कहां है? अब खोजते
हैं और नहीं
मिलता।
झलक
का मतलब है, पास
पहुंच गए थे।
झलक तो खो ही
जाएगी। इसलिए
ध्यान ज्यादा
से ज्यादा झलक
ही दे सकता है।
उस पर भी मत
रुक जाना, कि
उसी झलक को
पकड़ कर बार—बार
खोजते रहना है।
ध्यान का तो
मूल्य ही इतना
है कि झलक मिल
जाए। फिर आगे
जाना है समाधि
में, ताकि
आप फूल ही हो
जाएं।
ध्यान
में है झलक, समाधि
में है हो
जाना। झलकों
पर मत रुकना।
झलकें बडी
प्रीतिकर हैं।
सारा जगत बासा
मालूम पड़ने
लगता है—एक
झलक ध्यान में
मिल जाए उस
जीवंत की, फूल
की, उस
खिलावट की जो
भीतर है, तो
सारा जगत फीका
और व्यर्थ हो
जाता है।
लेकिन
फिर कुछ लोग झलकों
को पकड़ लेते
हैं और उन्हीं
को दोहराने लगते
हैं और सोचते
हैं सब हो गया।
नहीं, जब
तक आप ही न हो
जाएं, ईश्वर
ही जब तक आप न
हो जाएं, तब
तक भरोसा मत
करना कि ईश्वर
है। हो सकते
हैं, क्योंकि
हैं ही। खोलना
है जरा, उघाड़ना
है जरा; छिपे
हैं, मौजूद
हैं अभी और
यहीं, थोड़े
से वस्त्र हैं,
और बड़े झीने
वस्त्र हैं कि
चाहें तो अभी
उतार कर फेंक
दें और नग्न
हो जाएं, और
ईश्वर हो जाएं।
लेकिन बडी पकड़
है, झीने
तो हैं, लेकिन
पकड़ गहरी है।
क्यों
है यह पकड़
इतनी? यह
पकड़ है, क्योंकि
हम सोचते हैं,
ये वस्त्र
ही हमारा होना
है, यही हम
हैं, इसके
अलावा हमें
कुछ और किसी
अस्तित्व का
पता नहीं। इस
उपनिषद में
इशारे होंगे
उस अस्तित्व
के, जो
वस्त्रों के
पार है। और इस
उपनिषद के साथ—साथ
हम करेंगे
ध्यान, ताकि
मिले झलक। और
आशा बांधेंगे
समाधि की, ताकि
हम भी हो जाएं
वही, जिसे
हुए बिना न
कोई संतोष है,
न कोई शाति
है, न कोई
सत्य है।
उपनिषद शुरू
होता है
प्रार्थना से।
प्रार्थना है
समस्त जगत से।
'सूर्य
कल्याणकारी
हों। वरुण, अर्यमा, इंद्र
और बृहस्पति,
विष्णु
कल्याणकारी
हों। उस
ब्रह्म को
नमस्कार हो।
हे वायु!
तुम्हारे लिए
नमस्कार, क्योंकि
तुम
प्रत्यक्ष
ब्रह्म हो।
मैं तुम्हें
ही प्रत्यक्ष
ब्रह्म
कहूंगा। सत्य
और ऋत, वे
सब मेरी रक्षा
करें, आचार्य
की भी।'
इस
प्रार्थना से
शुरू होता है।
धर्म
की यात्रा
प्रार्थना से
शुरू होगी ही।
प्रार्थना
का अर्थ है —आस्था, आशा।
प्रार्थना
का अर्थ है—इस
सारे जगत के
साथ हमारे
जुड़े हुए होने
का भाव।
प्रार्थना
का अर्थ है—मुझ
अकेले से क्या
होगा!
मुझ
अकेले से होता
तो हो गया
होता। मुझ
अकेले से तो
क्षुद्र भी
नहीं सध पाया!
चाहा था धन
मिल जाए, वह भी नहीं
मिला! चाहा था
पद मिल जाए, वह भी नहीं
मिला! कैसी—कैसी
चाहें की थीं,
बड़ी छोटी
थीं, वे भी
पूरी न हुईं।
मुझ अकेले से
तो संसार भी न
सधा, तो
सत्य की यह
महायात्रा
मुझ अकेले से
हो सकेगी? अकेले—अकेले
तो मैं संसार
में भी हार
गया हूं।
सभी
हारे हुए हैं
संसार में। जो
जीते हुए
दिखाई पडते
हैं, वे
भी। बस वे
दूसरों को ' जीते हुए
दिखाई पड़ते
हैं, खुद
तो बिलकुल
हारे हुए हैं।
आप
भी अपने को
हारे हुए
दिखाई पड़ते
होंगे, औरों को तो
आप भी जीते
हुए दिखाई
पड़ते हैं।
आपसे भी पीछे
लोग हैं, जो
आपको समझते
हैं, पा
लिया आपने, जीत गए
संसार में।
लेकिन भीतर से
अगर हम आदमी
को देखें तो
एक—एक आदमी
हारा हुआ है।
संसार
पराजय की लंबी
कथा है? वहा जीत
होती ही नहीं।
वहा जीत हो ही
नहीं सकती; वह संसार का
स्वभाव नहीं
है। वहा हार
ही नियति है।
किसी की नहीं,
किसी
व्यक्ति की
नहीं, संसार
में होने की
नियति ही हार
है। वहा हारना
ही होगा। वहा
कोई कभी जीतता
नहीं है।
वहा
हम नहीं जीत
पाए जहा
क्षुद्र था, स्वप्न
था, शंकर
कहते हैं माया
है। वह माया
में भी हार गए!
सपना था, भ्रम
था, वहा भी
तो जीत न पाए!
जब भ्रम में
भी हार गए, सपने
में भी न जीते,
तो यथार्थ
में, सत्य
में अकेले से
क्या होगा?
प्रार्थना
का अर्थ है, संसार
में पराजित
हुए व्यक्ति
का यह अनुभव
कि जन्मों—जन्मों
तक चेष्टा
करके मैं हार
गया क्षुद्र
में, तो
विराट में
मेरी
सामर्थ्य?
इसलिए
प्रार्थना।
इसलिए
सारे जगत को
पुकारा है ऋषि
ने कि मुझे साथ
देना।
सूर्य
को पुकारा है, वरुण को
पुकारा है।
ये
सब नाम हैं, प्रतीक
हैं जीवन की
समस्त
शक्तियों के।
सूर्य
को पहले
पुकारा है, क्योंकि
सूर्य हमारा
जीवन है। उसके
बिना हम नहीं
होंगे। हमारे
भीतर सूर्य ही
जीता है, जलता
है। उधर सूर्य
बुझ जाए, यहौ
हम बुझ जाएं।
सूर्य ही
हमारा प्राण
है, इसलिए
पुकारा। कहा : 'वायु को
नमस्कार है। '
विशेष
रूप से वायु
को नमस्कार
कहा है इस
प्रार्थना
में।
'क्योंकि तुम
प्रत्यक्ष
ब्रह्म हो। '
अजीब
सी बात है!
थोड़ा सोचें।
बड़े मजे की
बात है; क्योंकि
वायु है
बिलकुल
अप्रत्यक्ष, और सब चीजें
प्रत्यक्ष
हैं। सूर्य को
कहा होता
प्रत्यक्ष
ब्रह्म हो, जीते—जागते,
जलते, प्रखर—समझ
में आता।
सूर्य को नहीं
कहा
प्रत्यक्ष
ब्रह्म, कहा
वायु को जो
बिलकुल दिखाई
पड़ती नहीं, बिलकुल
अप्रत्यक्ष
है।
कहां
है प्रत्यक्ष
वायु? सिर्फ
अनुमान है कि
है, लगता
है कि है, भासता
है कि है, दिखाई
तो पड़ती नहीं,
आंख के
सामने कहा है?
प्रत्यक्ष
का मतलब है, आंख के
सामने है जो। आंख
के सामने वायु
बिलकुल नहीं
है। पत्थर, पहाड़, सब आंख
के सामने हैं,
वायु नहीं
है।
लेकिन
ऋषि कहता है 'हे वायु!
नमस्कार
तुम्हें, क्योंकि
तुम
प्रत्यक्ष
ब्रह्म हो। '
इसलिए
कहा कि वायु
जैसे दिखाई
नहीं पड़ती और
है, और आंख
को दिखाई नहीं
पड़ती फिर भी आंख
को छू रही है
प्रतिपल—ऐसा
ही परम सत्य
है, दिखाई
नहीं पड़ता, छू रहा है
प्रतिपल।
वायु दिखाई
नहीं पड़ती, क्योंकि
हमारे पास
देखने वाली आंख
नहीं है। वायु
तो यहां है।
वायु के बिना
तो हम भी नहीं
हो सकते हैं।
वही तो हमारी
श्वास में
हमें सम्हाले
है। उसका ही
आवागमन तो
हमारा सारा
जीवन है। जो
इतनी निकट है,
श्वास है जो
हमारी, वह
भी दिखाई नहीं
पड़ती; क्योंकि
हमारे पास आंखें
बड़ी स्थूल हैं।
तो हम जो बहुत
मोटा—मोटा है, स्थूल—स्थूल
है, वह देख
लेते हैं, जो
सूक्ष्म है, वह हमें
दिखाई नहीं
पड़ता।
वायु
सूक्ष्मतम है, हमारे
सामने मौजूद
है; भीतर
मौजूद है, बाहर
मौजूद है, रोएं—रोएं
में मौजूद है—और
दिखाई नहीं
पड़ती! इसलिए
कहा कि तुम
प्रत्यक्ष
ब्रह्म हो, तुम ठीक
ब्रह्म जैसी
हो। वह भी
यहां मौजूद है
और दिखाई नहीं
पड़ता! और रोएं—रोएं
में वही समाया
है, रोआं—रोआं
वही है और फिर
भी उसका कोई
पता नहीं
चलता! इसलिए
वायु को
नमस्कार किया
है, कि हम
वायु को तो
जानते हैं, ब्रह्म को
नहीं जानते।
वायु से एक
धागा जोडा है
कि ब्रह्म भी
ठीक वायु जैसा
है।
'इसलिए मैं
तुम्हें
प्रत्यक्ष
ब्रह्म कहूंगा',
ऋषि कहता है
वायु को, 'सत्य
और ऋत के नाम
से भी कहूंगा।
'क्योंकि
तुम ठीक उस
जैसी हो—जो है
और जिसका हमें
पता नहीं है, जो हम स्वयं
हैं और जिसका
हमें पता नहीं
है, जो अभी
और यहां सदा
से मौजूद है
और हमें उसका
पता नहीं है।
लेकिन यह खोज
पूरी हो सके, अगर सब
देवता रक्षा
करें।
देवता
से अर्थ है, सदा से, जीवन की
अनंत— अनंत
शक्तियां। और
जीवन है एक
विराट जाल
अनंत
शक्तियों का।
आपका होना भी
एक विराट जाल
है अनंत
शक्तियों का।
मिलता है
आपमें सूर्य,
मिलता है
वरुण, मिलता
है इंद्र, मिलती
है वायु, मिलती
है अग्नि, मिलती
है पृथ्वी, सब कुछ
मिलता है, आकाश,
सब आपमें
मिलते हैं।
अगर एक
व्यक्ति को हम
पूरा का पूरा
जान लें, तो
हमने बीज—रूप
में समस्त अस्तित्व
को जान लिया।
सब कुछ उसमें
है। सबका दान
उसमें है। सब
मिल कर ही
उसका
अस्तित्व है।
इन सबकी
सहायता की
प्रार्थना है।
लेकिन
क्या सूर्य
सहायता करेगा? यह सवाल
उठता ही है।
प्रार्थना भी
की तो क्या
सूर्य सहायता
करेगा? प्रार्थना
भी की तो क्या
वायु सहायक हो
जाएगी? प्रार्थना
भी की तो
पृथ्वी क्या
सहायता करेगी?
पृथ्वी
की सहायता और
सूर्य की
सहायता का
सवाल नहीं है,
आपने
प्रार्थना की,
यही बडी
सहायता है।
इसे थोड़ा ठीक
से समझ लें।
कोई सूर्य आकर
आपको सहायता
नहीं करेगा।
लेकिन आपने
प्रार्थना की,
इसका जो
परिणाम है वह
सूर्य पर नहीं
होगा, आप
पर होगा।
क्योंकि
प्रार्थना
करने वाला
चित्त हो जाता
है विनम्र।
प्रार्थना
करने वाला
चित्त हो जाता
है असहाय।
प्रार्थना
करने वाला
चित्त
स्वीकार कर
लेता है इस
बात को कि मुझ
अकेले से नहीं
होगा।
प्रार्थना
करने वाला
चित्त मिटने
को तैयार हो
जाता है।
प्रार्थना
करने वाला
चित्त अपने
अहंकार को, इस भाव को कि
मैं कर सकता
हूं, छोड
देता है। इसके
परिणाम होते
हैं।
प्रार्थना
का सारा
परिणाम आप पर
होता है।
प्रार्थना से
सूर्य नहीं
बदलता, आप बदलते
हैं।
प्रार्थना से
जगत नहीं
बदलता, आप
बदलते हैं।
लेकिन आपके
बदलते ही
दूसरे जगत में
आपका प्रवेश
हो जाता है।
प्रार्थना
आमतौर से जब
आप करते हैं
तो यही सोचते
हैं कि कोई
कुछ करेगा, इसलिए
प्रार्थना कर
रहे हैं। न, प्रार्थना
है एक उपाय, एक डिवाइस।
हाथ तो आप
जोड़ते हैं
किसी और के
सामने, लेकिन
जो परिणाम
होता है वह
होता है भीतर—जिसने
हाथ जोड़े हैं,
उस पर।
इसलिए
बड़ी कठिनाई
होती है। अगर
आप वैज्ञानिक
के सामने कहें
कि हे सूर्य, सहायता
कर! तो वह
कहेगा, मूढूता
की बात है; क्या
सूर्य
तुम्हारी
सहायता करेगा?
और कब किसकी
सहायता की? कि हे इंद्र,
वर्षा कर!
पागल हो गए हो?
प्रार्थनाओं
से कहीं
वर्षाएं हो गई
हैं?
वैज्ञानिक
ठीक कहता है।
न तो सूर्य
आपकी सुनेगा, न बादल
आपकी सुनेंगे,
न हवा आपकी
सुनेगी; कोई
आपकी नहीं
सुनेगा।
लेकिन आपने
पुकारा, यह
आपको बदल
जाएगा। आपने
कितनी जोर से
पुकारा, उतनी
गहरी स्प आपके
भीतर प्रवेश
हो जाएगी। अगर
आपके पूरे
प्राण पुकार
उठे, तो आप
दूसरे ही आदमी
हो जाएंगे।
इसलिए
है प्रार्थना।
thank you guruji
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