वासनाsनुदयो
भोग्ये
वैरण्यस्य
तदाsविधि:।
अहंभावावोदयभावो
बोधक्य
परमावधि:।।
41।।
लीनवृत्तेरनुत्पीत्तर्मर्यादोपरतेस्तु
सा।
स्थिऋज्ञो
यतिरयं य:
सदानन्दमश्नुते।।
42।।
ब्रह्मण्येव
विलीनात्मा निर्विकारो
विनिक्रिय:।
ब्रह्मात्मनो
शोधितयोरेकभावावगाहिनी।।
43।।
निर्विकल्पा
व चिन्मात्रा
वृत्तिःप्रज्ञेति
कथ्यते।
सा सर्वदा
भवेद्यस्य स
जीवन्मुक्त
इष्यते।। 44।।
देहेन्द्रियेच्छंभाव
इदंभावस्तदन्यके।
यस्य नो भवत:
क्यापि स
जींवन्मुक्त
इष्यते।। 45।।
भोगने लायक
पदार्थ के ऊपर
वासना जाग्रत
न हो, तब
वैराग्य की
अवधि जान लेनी;
और अहं—भाव
का उदय न हो, तब ज्ञान की
परम अवधि
समझना।
इसी प्रकार
लय को प्राप्त
हुई
वृत्तियां
फिर से
उत्पन्न न हों, वह उपरति
की अवधि है।
ऐसा
स्थितप्रज्ञ
यति सदा आनंद
को पाता है।
जिसका मन
ब्रह्म में ही
लीन हुआ हो, वह
निर्विकार और
निष्क्रिय
रहता है।
ब्रह्म और
आत्मा (जीव )
शोधा हुआ और
दोनों के
एकत्व में लीन
हुई वृत्ति
विकल्परहित
और मात्र
चैतन्य रूप
बनती है, तब
वह प्रज्ञा
कहलाती है।
यह प्रज्ञा
जिसमें
सर्वदा होती
है, वह
जीवन्मुक्त
कहलाता है।
देह तथा
इंद्रियों पर
जिसको अहं—भाव
न हो, और
इनके सिवाय
अन्य
पदार्थों पर
यह मेरा है, ऐसा भाव
जिसको न हो, वह
जीवन्मुक्त
कहलाता है।
भोगने
लायक पदार्थ
पर वासना
जाग्रत न हो, तब समझना
वैराग्य की
अवधि, और
अहं— भाव का
उदय न हो, तब
समझना ज्ञान
की परम अवस्था।’
वैराग्य
से साधारणत:
लोग समझते हैं, विराग।
राग है, उसके
विपरीत विराग
है।
राग
का अर्थ है, वस्तुओं
को देख कर
भोगने की आकांक्षा
का जगना।
सौंदर्य
दिखाई पड़े, स्वादिष्ट
वस्तु दिखाई
पड़े, सुखद
परिस्थिति
दिखाई पड़े, तो उसे भोग
लेने का, उसमें
डूबने का, लीन
होने का जो मन
पैदा होता है,
वह है राग।
राग का अर्थ
है जुड़ जाने
की इच्छा, अपने
को खोकर किसी
वस्तु में डूब
जाने की इच्छा।
अपने से बाहर
कोई सुख दिखाई
पड़े, तो
अपने को सुख
में डुबा देने
की आकांक्षा
राग है। विराग
का अर्थ है, कोई वस्तु
दिखाई पडे
भोगने योग्य,
तो उससे
विकर्षण का
पैदा हो जाना;
उससे दूर
हटने का मन
पैदा हो जाना;
उसकी तरफ
पीठ कर लेने
की इच्छा हो
जाए।
आकर्षण
है राग, विकर्षण है
विराग— भाषा
की दृष्टि से।
जिसकी तरफ
जाने का मन हो,
वह है राग, और जिससे
दूर हटने का
मन हो, वह
है विराग।
विराग का अर्थ
हुआ विपरीत राग।
एक में खिंचते
हैं पास, दूसरे
में हटते हैं
दूर। विराग
राग से पूरी
तरह मुक्ति
नहीं है, उलटा
राग है। कोई
धन की तरफ
पागल है, धन
मिल जाए तो
सोचता है सब
मिल गया। कोई
सोचता है धन
छोड़ दूं तो सब
मिल गया!
लेकिन दोनों
की दृष्टि धन
पर है। कोई
सोचता है
पुरुष में सुख
हैं, स्त्री
में सुख है; कोई सोचता
है स्त्री—पुरुष
के त्याग में
सुख है। बाकी
दोनों का केंद्र
स्त्री या
पुरुष का होना
है। कोई सोचता
है संसार ही
स्वर्ग है और
कोई सोचता है
संसार नर्क है,
लेकिन
दोनों का
ध्यान संसार
पर है।
भाषा
की दृष्टि से
विराग राग का
उलटा रूप है, लेकिन
अध्यात्म के
नेजी के लिए
वैराग्य राग का
उलटा रूप नहीं,
राग का अभाव
है। इस फर्क
को ठीक से समझ
लें। शब्दकोश
में देखेंगे
तो राग का
उलटा विराग है,
अनुभव में
उतरेंगे तो
राग का उलटा
विराग नहीं है,
राग का अभाव,
एब्सेंस, विराग है।
फर्क थोड़ा
बारीक है।
स्त्री
के प्रति
आकर्षण है, यह राग
हुआ। स्त्री
के प्रति
विकर्षण पैदा
हो जाए, कि
स्त्री को पास
सहना मुश्किल
हो जाए, स्त्री
से दूर भागने
की वृत्ति
पैदा हो जाए, स्त्री से
दूर—दूर रहने
का मन होने
लगे, यह
हुआ विराग—
भाषा, शब्द,
शास्त्र के
हिसाब से।
अनुभव, समाधि
के हिसाब से
यह भी राग है।
समाधि
के हिसाब से
विराग तब है, जब
स्त्री में न
आकर्षण हो, न विकर्षण
हो, न
खिंचाव हो और
न विपरीत।
स्त्री का
होना और न होना
बराबर हो जाए,
पुरुष का
होना, न
होना बराबर हो
जाए। गरीबी और
समृद्धि
बराबर हो जाए;
चुनाव न रहे,
अपना कोई
आग्रह न रहे
कि यह मिलेगा
तो स्वर्ग, यह छूटेगा
तो स्वर्ग; बाहर के
मिलने और
छूटने से कोई
संबंध ही न रह
जाए सुख का, सुख अपना ही
हो जाए; बाहर
कोई मिले, न
मिले—ये दोनों
बातें गौण, ये दोनों
बातें व्यर्थ
हो जाएं—तब
वैराग्य।
वैराग्य
का अर्थ यह
हुआ कि हमारी
दृष्टि ही पर
पर जानी बंद
हो जाए न
अनुकूल, न प्रतिकूल;
न आकर्षण
में, न
विकर्षण में।
दूसरे से पूरा
छुटकारा
वैराग्य है।
दूसरे से दो
तरह के बंधन
हो सकते हैं
मित्र मिलता
है तो सुख
होता है, शत्रु
मिलता है तो
दुख होता है; शत्रु जब
छूट जाता है
तो सुख होता
है, मित्र
छूट जाता है
तो दुख होता
है।
बुद्ध
ने कहा है—बड़ा
गहरा मजाक
किया है—बुद्ध
ने कहा है कि
शत्रु भी सुख
देते हैं, मित्र भी
दुख देते हैं।
मित्र जब
छूटते हैं तब
दुख देते हैं,
शत्रु जब
मिलते हैं तब
दुख देते हैं।
फर्क क्या है?
लेकिन
शत्रु से भी
हमारा लगाव
रहता है, मित्र से भी
लगाव रहता है।
शत्रु मर जाए
आपका, तो
भी आपके भीतर
कुछ टूट जाता
है, खाली
हो जाती है
जगह। कई बार
तो मित्र से
भी ज्यादा
खाली जगह हो
जाती है शत्रु
के मरने से, क्योंकि
उससे भी एक
राग था—उलटा
राग था, उसके
होने से भी आप
जुड़े थे।
मित्र से भी
जुड़े हैं, शत्रु
से भी जुड़े
हैं। तो जिन
चीजों से आपका
विरोध हो गया
है, उनसे
भी संबंध है।
वैराग्य
का अर्थ है, संबंध ही
न रहा, असंग
हो गए, असंबंधित
हो गए। तो
वैराग्य की
परम अवधि की
परिभाषा की है
इस सूत्र में
कि भोगने लायक
पदार्थ के ऊपर
वासना जाग्रत
न हो।
भाषा
में, शब्द
में जो विराग
का अर्थ है, उसका अर्थ
है भोगने लायक
पदार्थ को छोड़
कर चले जाना।
वैराग्य का
अर्थ है, भोगने
लायक पदार्थ
हो, मौजूद
हो, निकट
हो, तो भी
उसके भोगने की
आकांक्षा न
कानी। भोग भी
रहे हों तो भी
भोग की आकांक्षा
न जगनी। जनक
रह रहे हैं
अपने महल में,
सब कुछ वहा
है भोगने
योग्य, लेकिन
भोगने की
वासना नहीं
है। आप जंगल
भाग जाएं; कुछ
भी नहीं है
भोगने योग्य
वहा, लेकिन
भोगने की
वासना सपने
बनेगी, वृत्तियां
उठाएगी, मन
दौड—दौड़ कर
वहा जाएगा
जहां भोगने
योग्य पदार्थ
होंगे।
तो
भोगने योग्य
पदार्थ की
उपस्थिति या
गैर—उपस्थिति
का सवाल नहीं
है, वासना
का सवाल है।
और यह बड़े मजे
की बात है कि जहां
पदार्थ न हों,
वहां वासना
ज्यादा प्रखर
रूप से मालूम
पड़ती है, जहा
पदार्थ हों
वहां उतनी
प्रखर मालूम
नहीं पड़ती।
अभाव में और
भी ज्यादा खटक
पैदा हो जाती है।
यह
सूत्र कहता है
कि जो आदमी सब
छोड़ कर चला
आया हो, सब छोड़ दिया
हो उसने, यह
भी वैराग्य की
परम अवधि नहीं
है, यह भी
वैराग्य का
चरम रूप नहीं
है, क्योंकि
हो सकता है
राग भीतर रहा
हो। यह भी हो सकता
है कि छोड़ कर
भागना राग का
ही एक अंग रहा
हो।
तो
परम परिभाषा
क्या होगी? सब भोगने
योग्य मौजूद
हो और भीतर
भोगने की वासना
न हो।
कौन
तय करेगा यह? यह
व्यक्ति को
स्वयं ही
निर्णय करना
है। दूसरों के
निर्णय की बात
नहीं है, आप
अपने
निर्णायक
हैं। भीतर
वासना न जगती
हो, भोगने
योग्य पदार्थ
मौजूद हों और
भीतर कोई वासना
न दौड़ती हो—पक्ष
में या विपक्ष
में; इधर
या उधर मन
भागता ही न हो;
आप डावाडोल
न होते हों, आप वैसे ही
हों, जैसे
बाहर कुछ भी
नहीं है; पदार्थ
हो बाहर, और
भीतर
प्रतिबिंब
किसी तरह का
रस या विरस
पैदा न करता
हो—तो वैराग्य
की अवधि।
हमारे
लिए अति कठिन
मालूम पड़ेगा, क्योंकि
हम सबने विराग
का राग से
विपरीत रूप समझ
रखा है। एक
आदमी अपने
पत्नी—बच्चे,
घर—परिवार
को छोड़ कर भाग
जाता है, हम
कहते हैं
विरागी है।
लेकिन भागता
है, उससे
खबर देता है
कि राग अभी जुड़ा
था। कोई भागता
है तो मकान से
डर कर नहीं
भागता, अपने
भीतर की वासना
से ही डर कर
भागता है। मकान
क्या भगाएगा!
और अगर मकान
अभी भगा सकता
है, तो अभी
आत्म—स्थिति
बनी नहीं है।
एक आदमी खोज
रहा है मकान बड़े,
और मकान उसे
भगा रहा है, दौड़ा रहा
है। और एक
आदमी मकान से
डर कर जंगलों में
भाग रहा है, मकान उसे भी
दौड़ा रहा है।
पीठ मकान की
तरफ है, लेकिन
जुड़ा मकान से
ही है।
न, एक आदमी
को वस्तुएं
भगाना बंद कर
देती हैं, दौड़ाना
बंद कर देती
हैं। वस्तुओं
की कोई भी चुनौती
आदमी के ऊपर
नहीं रह जाती।
वह वस्तुओं की
चुनौती ही
स्वीकार नहीं
करता है। तब
तो वैराग्य का
अर्थ हुआ आत्म—स्थिति;
अपने में
ठहर गया जो।
हम
में से कोई भी
अपने में ठहरा
हुआ नहीं है।
पुरानी
कहानियां हैं, बच्चों
की कहानियों
में अभी भी उस
तरह की घटना
घटती है, कि
कोई राजा है, उसके प्राण
किसी तोते में
बंद हैं। राजा
को मारो, मरेगा
नहीं, जब
तक कि तोते को
न मार दो। तो
प्राण तोते
में छिपा रखे
हैं। जब तक
तोता बचा है, राजा बचा
रहेगा। यह
कहानी नहीं है
सिर्फ, हम
सबके भी प्राण
कहीं और बंद
हैं। आपकी
तिजोड़ी में हो
सकते हैं आपके
प्राण बंद हों,
तोते में न
हों। तिजोड़ी
चली जाए..।
उन्नीस
सौ तीस में, इकतीस
में अमरीका
में वाल
स्ट्रीट के
अमरीका के बड़े—बड़े
करोड़पतियों
में से कई ने
आत्महत्या कर
ली—एकदम से!
क्योंकि
अमरीका में
हास हुआ मुद्रा
का। इतना
तीव्रता से
हुआ कि सटोरिए
और बड़े
करोड़पति एकदम
दीन—हीन हो
गए। उनके बैंक
बैलेंस एकदम
खाली हो गए।
तो पचास मंजिल
से, साठ
मंजिल से कूद
कर उन्होंने
तत्काल
आत्महत्या कर
ली। क्या हुआ
इन
व्यक्तियों
को? क्या
घटना घटी कि
अचानक इनको
मरने के सिवाय
कोई रास्ता न
सूझा?
इनके
प्राण
तिजोरियों
में बंद थे; तिजोरी
में प्राण थे।
तिजोरी मर गई,
ये मर गए।
यह जो कूदना
था, कुछ और
नहीं हुआ था, दुनिया सब
वैसी थी; लेकिन
बैंक में कुछ
आंकड़े खो गए।
आंकड़े! किसी
के नाम पर दस
के आंकड़े थे, वे दो के रह
गए। जहा बड़ी
लंबी कतार थी
आंकड़ों की, वहां शून्य
हो गया। यह सब
बैंक में हुआ।
यह सब कागज पर
हुआ। पर इनके
प्राण वहां
बंद थे। वही इनका
प्राण था।
इनको मार
डालते, ये
न मरते।
तिजोरी खाली
हो गई, ये
मर गए!
किसी
का किसी से
प्रेम है।
प्रेमी मर जाए, प्राण
निकल गए।
हम
सब अगर अपनी
खोज करें तो
हमारे प्राण
कहीं न कहीं, किन्हीं
न किन्हीं
तोतों में बंद
हैं। जब तक आपके
प्राण कहीं और
बंद हैं, तब
तक आप आत्म—स्थित
नहीं हैं।
आपके प्राण
वहां नहीं हैं
जहां होने
चाहिए। आपके
भीतर होने
चाहिए, वहा
नहीं हैं, कहीं
और हैं।
यह
कहीं और होना
बहुत तरह का
हो सकता है।
एक आदमी सोचता
है कि उसकी
आत्मा उसको
शरीर है, तो यह भी
कहीं और है।
कल यह का होने
लगेगा, तो
पीड़ित होगा, दुखी होगा, क्योंकि
शरीर दीन—हीन
होने लगा, झुर्रियां
पड़ने लगीं, कुरूप होने
लगा—रुग्ण, जीर्ण। यह
मरने के पहले
मरा हुआ अनुभव
करेगा। क्योंकि
इसने जिस जवान
शरीर में अपने
प्राण रखे थे
वह जा रहा है।
कहां
आप अपने प्राण
रख लिए हैं, इसमें
भेद हो सकता
है, लेकिन
कहीं आपके
प्राण हैं, बाहर, तो
आप रहा में जी
रहे हैं। राग
का मतलब है.
आत्मा अपनी
जगह नहीं, कहीं
और है। फिर
इसके उलटे भी
आप भाग सकते
हैं, लेकिन
आत्मा कहीं और
है।
आत्मा
अपने भीतर है, मैं अपने
में ठहरा हुआ हूं,
कोई
चीज खींचती
नहीं और मेरे
भीतर किसी तरह
की तरंगें
पैदा नहीं
करती, वैराग्य
की यही
परिभाषा है।
इसलिए
वैराग्य आनंद
का द्वार है।
क्योंकि जो
अपने में ठहर
गया, उसे
दुखी करने का
कोई उपाय
नहीं।
और
ध्यान रहे, वे
कहानियां
बच्चों की ठीक
कहती हैं। जो
अपने में ठहर
गया, जिसके
प्राण अपने
में आ गए, उसे
मारने का भी
कोई उपाय नहीं
है। प्राण
नहीं मरते कभी
भी, तोते
मर जाते हैं।
जहां—जहां
रखते हैं, वे
चीजें खिसक
जाती हैं, वे
मर जाती हैं।
इसलिए खुद
आदमी अपने को
मरा हुआ अनुभव
करता है।
आत्मा तो अमृत
है, लेकिन
हम उसे मृत
वस्तुओं के
साथ जोड़ देते
हैं। वे मृत
वस्तुएं, आज
नहीं कल, बिखरेगी।
वह उनका
स्वभाव है। जब
वे बिखरेगी तब
यह भ्रम पैदा
होगा कि मैं
भी मर गया। यह
स्वयं का मर
जाना एक भ्रम
है, जो
पैदा होता है
मरणधर्मा
वस्तुओं से
स्वयं को जोड़
लेने से।
वैराग्य
का अर्थ है, जिसने
सारे संबंध
तोड़ कर उसको
जान लिया, जो
सदा सबंधित
होता रहा था। ‘ भोगने
लायक पदार्थ
के ऊपर वासना
जाग्रत न हो।’
विपरीत
वासना जाग्रत
हो नहीं, वासना ही
जाग्रत न हो, किसी भी
अर्थ की। तब
वैराग्य की
अवधि जान लेना।
यह खुद के लिए
सूत्र दिया जा
रहा है। इससे
दूसरे की जांच
करने मत जाना।
हम
सब बहुत
होशियार हैं!
हमें
परिभाषाएं
मिल जाएं तो
हम दूसरे की
जांच करने
जाते हैं कि
अच्छा, तो फलां
आदमी विरागी
है या नहीं?
आपका
कोई प्रयोजन
नहीं है, दूसरे से
आपका कोई लेना—देना
नहीं है; राग
मे होगा तो
दुख भोगेगा, विराग में
होगा तो आनंद
भोगेगा; आपका
कोई भी संबंध
नहीं है।
लेकिन
हम इतने कुशल
हैं स्वयं के
साथ धोखा करने
में, कि
अगर हमारे हाथ
में कोई
परिभाषा, कोई
कसौटी लगे, तो हम
दूसरों को
कसने निकल
जाते हैं, खुद
को कसने की
फिक्र नहीं
करते।
अपने
को कसना, यह सूत्र
आपके लिए है।
यह सूत्र किसी
और पर चिंतन
करने के लिए
नहीं है : कि
महावीर
विरागी हैं या
नहीं? कि
कृष्ण विरागी
हैं या नहीं?
होंगे
या न होंगे, कुछ भी
लेना—देना
नहीं है। यह
उनकी अपनी बात
है। होंगे विरागी
तो आनंद
पाएंगे, नहीं
होंगे तो दुख
पाएंगे, आप
कहीं बीच में
आते नहीं हैं।
मेरे
पास लोग आते
हैं। वे कहते
हैं, कैसे
पता चले कि
कोई आदमी
वस्तुत: ज्ञान
को उपलब्ध हो
गया? जरूरत
क्या है कि
कोई आदमी
वस्तुत: ज्ञान
को उपलब्ध हो
गया है, इसका
आपको पता चले?
आप हुए हैं
कि नहीं, इतना
पता चलता रहे,
काफी है।
दूसरा हो भी
गया हो, तो
उसके होने से
आप नहीं हो
जाते। दूसरा न
भी हुआ हो, तो
उसके न होने
से आपको कोई
बाधा नहीं पड़ती।
लेकिन
क्यों हम ऐसा
सोचते हैं? उसके
कारण हैं। हम
पक्का कर लेना
चाहते हैं कि
कोई वैराग्य
को उपलब्ध
नहीं हुआ।
उससे हमको राहत
मिलती है कि
फिर कोई हर्ज
नहीं, हम भी
न हुए, तो
कोई हर्ज नहीं,
कोई उपलब्ध
नहीं हुआ!
इससे मन को
सांत्वना मिलती
है, इससे
मन को आधार
मिलता है कि
हम जैसे हैं, ठीक हैं, क्योंकि
कोई कभी
उपलब्ध नहीं
हुआ, हम भी
नहीं हो रहे
हैं!
इसीलिए
हमारा मन कभी
मानने का नहीं
करता कि कोई
वैराग्य को
उपलब्ध हुआ।
हम खोजते हैं
तरकीब कि पता
चल जाए कि
नहीं हुआ। अगर
कोई वैराग्य
को उपलब्ध हुआ
है तो हमें
अड़चन होती है
भीतरी। वह
अड़चन यह है कि
कोई और हो गया उपलब्ध, तो मैं भी
हो सकता हूं, लेकिन
हो नहीं पा
रहा। इससे
ग्लानि पैदा
होती है।
इसलिए
दुनिया में
कोई भी आदमी
दूसरे का ठीक
होना स्वीकार
नहीं करता।
दूसरे से कोई
मतलब नहीं है।
दूसरे के ठीक
होना स्वीकार
न करने से
अपनी बुराई को
स्वीकार करने
में आसानी
होती है। अगर
सारी दुनिया
चोर है, तो आपको चोर
होने में कोई
आत्मग्लानि
नहीं होती।
अगर सारी
दुनिया बुरी
है, तो
आपका बुरा
होना भी सहज मालूम
पड़ता है। अगर
सारी दुनिया
भली है, तो
फिर आपका बुरा
होना आपको
काटे की तरह
गड़ने लगता है।
फिर एक आत्मदंश
शुरू होता है;
ग्लानि
पैदा होती है,
अपराध
मालूम पड़ता है,
और लगता है
कि जो होना
चाहिए वह नहीं
हो पा रहा है।
और आपके जीवन
में बेचैनी
पैदा होती है।
वह
बेचैनी पैदा न
हो, हम
नींद में गहरे
सोए रहें, इसलिए
हम कभी दूसरे
में भला नहीं
देखते। अगर कोई
आकार कहे कि
फलां आदमी
वैराग्य को
उपलब्ध हुआ, आप कहेंगे
कि नहीं, वैराग्य
को उपलब्ध
नहीं हुआ। आप
पच्चीस आधार
खोज लेंगे कि
नहीं हुआ। यह
हमारे मन के
गहरे जाल का
एक हिस्सा है।
इसके प्रति
सावधान होना
जरूरी है। दूसरे
से कोई
प्रयोजन ही
नहीं है।
एक
मित्र तीन दिन
से मेरे पास
पहुंचते थे।
समय ज्यादा वे
चाहते थे।
कहते थे, संन्यास तो
मुझे लेना है,
लेकिन
संन्यास के
पहले कोई दो—तीन
जरूरी सवाल
पूछने हैं।
सोचा
कि जरूरी सवाल
होंगे। एक भी
सवाल जरूरी
नहीं था। सवाल
दूसरों के
संबंध में थे, उनके
संबंध में न
थे। संन्यास
उन्हें लेना
था, सवाल
दूसरे के
संबंध में थे
कि क्या कृष्ण
वस्तुत: शान
को उपलब्ध हुए
हैं? तो
फिर जैनों ने
उनको नर्क में
क्यों डाला
हुआ है?
जैनों
ने कृष्ण को
नर्क में डाला
हुआ है अपने
शास्त्रों
में, क्योंकि
जैनों की अपनी
व्याख्या और
परिभाषा है
वैराग्य की; उसमें कृष्ण
नहीं आते। छोड़
कर जाना चाहिए
सब, वह
उनकी परिभाषा
है। और कृष्ण
तो कुछ छोड़ कर
गए नहीं!
इसलिए अड़चन
है।
कृष्ण
की परिभाषा
यही है कि अगर छोड़
कर ही भागते
हो, तो
अभी विरागी
नहीं हुए।
इसलिए
हिंदुओं ने
अपने
शास्त्रों में
महावीर का
उल्लेख भी
नहीं किया।
कोई उल्लेख
करने योग्य
बात नहीं
मानी। कम से
कम जैनियों ने
थोड़ा प्रेम
दर्शाया है
कृष्ण के
प्रति; नर्क
में डाला है!
हिंदुओं ने
उल्लेख ही
नहीं किया
महावीर का।
बात ही करने
लायक नहीं समझी।
नर्क में भी
डाला, तो
थोड़ी फिक्र तो
ली है! वे
कृष्य को एकदम
छोड़ नहीं सके,
कुछ न कुछ
वक्तव्य, कृष्ण
के लिए कोई न
कोई जगह बनानी
पड़ी है। नर्क
ही सही! लेकिन
महावीर को
हिंदुओं ने
नर्क में तक
नहीं डाला!
बात ही छोड़
दी। क्योंकि
अगर कृष्ण की
परिभाषा को
कोई पकड़ कर
चले, तो
अड़चन हो जाती
है।
लेकिन
ध्यान रहे, सब
परिभाषाएं
आपके लिए हैं,
साधक के लिए
हैं, ताकि
वह अपने भीतर
खोज—बीन करता
रहे। एक निकष
हाथ में रहे, कसौटी, तौलता
रहे। और हम सब
होशियार हैं,
उस कसौटी पर
हम दूसरों को
कसने जाते
हैं! दूसरों
से कोई लेना—देना
नहीं है।
कृष्ण नर्क
में होंगे तो
वे समझें, इससे
किसी को क्या
लेना—देना है!
आप कोई कृष्ण
की जगह नर्क
में पड़ने को तैयार
हो नहीं सकते,
कि हम जगह
लिए लेते हैं
आपकी, आप
मोक्ष चले
जाओ! और कृष्ण
मोक्ष में
होंगे तो आपका
मोक्ष
निर्मित नहीं
होता है। आपके
अतिरिक्त
आपकी सारी
चितना दूसरे
के संबंध में
व्यर्थ है।
एक
दूसरे मित्र
आए थे पूछने
कि अगर आपको
और कृष्णमूर्ति
को मिलने की
व्यवस्था की
जाए, तो
क्या आप मिलने
को राजी हैं?
अब
यह मेरे और
कृष्णमूर्ति
के बीच की बात
है! इसमें इन
मित्र को क्या
प्रयोजन हो
सकता है?
फिर
उन्होंने
पूछा हुआ था
कि अगर आप
दोनों का
मिलना हो तो
नमस्कार कौन
पहले करेगा?
अब
यह भी मेरे और
कृष्णमूर्ति के
बीच का मामला
है!
चित्त
दूसरों के
चिंतन में लगा
है। चित्त अपना
चिंतन कर ही
नहीं रहा है।
साधक को
निर्णय कर लेना
चाहिए कि ये
सब व्यर्थ की
चितनाएं हैं।
मेरे
अतिरिक्त, और मेरे
भीतरी विकास
के अतिरिक्त,
सब बातें
साधक के लिए
नहीं हैं।
व्यर्थ हैं। उन
जिज्ञासाओं
में, कुतूहल
में उलझना ही
नहीं चाहिए।
उससे कुछ भी लेना—देना
नहीं है। उससे
कुछ आपके जीवन
में होगा भी
नहीं।
तो
यह ध्यान रखें, ये
परिभाषाएं
आपके लिए हैं।
और अपने भीतर
आप तौलते रहें,
इसलिए
उपनिषद ने
आपको मापदंड
दिए हैं, ताकि
भीतर के अगम
रास्ते पर
आपको कठिनाई न
हो। अपने भीतर
देखते रहना, जब तक
वस्तुओं को
देख कर वासना
जगती हो, तब
तक समझना कि
वैराग्य
उपलब्ध नहीं
हुआ है। और
वैराग्य के
सतत श्रम में
लगना, उस
श्रम की हम
धीरे— धीरे
बात कर रहे
हैं।
'अहं—भाव का
उदय न हो तब
शान की परम
अवधि समझना।’
बड़े
अजीब लोग हैं
उपनिषद के
ऋषि! वे यह
नहीं कहते कि
परमात्मा का
दर्शन हो जाए
तो जान की अवधि
समझना।
परमात्मा तक
के दर्शन की
बात को उन्होंने
शान की अवधि
नहीं कहा, कि आपके
बिलकुल सब
चक्र खुल जाएं
और कुंडलिनी
जाग्रत हो जाए
और सहस्र दल कमल
खिल जाए तो
ज्ञान की परम
अवधि समझना।
नहीं! कि आप
सातों स्वर्ग
चढ़ जाएं—और न
मालूम कितने
हिसाब जारी है—कि
सारे चौदह
खंडों की
यात्रा पूरी
हो जाए और सच—खंड
में प्रवेश हो
जाए, तो भी
उपनिषद कहते
हैं कि इस
सबसे कोई मतलब
नहीं है।
कसौटी की बात
एक है कि अहं—
भाव का उदय न
हो।
कुंडलिनी
से भी अहं— भाव
का उदय होता
है। साधक को
लगता है कि
हमारी कुंडलिनी
जाग्रत हो गई!
अब हम कोई
साधारण आदमी
नहीं! किसी को
लगता है कि
हमारा
आज्ञाचक्र जग गया, ज्योति
के दर्शन होने
लगे, हम
कोई साधारण आदमी
नहीं! किसी को
लगता है कि
हृदय में
नीलमणि प्रकट
हो गई, नीली
ज्योति दिखाई
पड़ने लगी, अब
हम मुक्त हो
गए, अब
हमारे लिए कोई
संसार नहीं! ध्यान
रहे, जिस
चीज से भी मैं
निर्मित होता
हो वह अज्ञान का
ही हिस्सा है,
चाहे नाम आप
कुछ भी देते
चले जाएं।
उपनिषद कहते
हैं, अहं—
भाव जब तक
पैदा हो—कारण
कोई भी हो—जब
तक ऐसा लगे कि
मैं कुछ हो
गया, तब तक
जानना कि अभी
शान पका नहीं,
अभी ज्ञान
में फूल नहीं
खिले, अभी
ज्ञान का
विस्फोट नहीं
हुआ। एक ही
सूत्र दिया है
कि अहं— भाव
पैदा न हो।
तो
यह भी हो सकता
है कि दुकान
पर बैठा हुआ
आदमी—न जिसकी
कुंडलिनी जगी
हो, और न
जिसने नील—ज्योति
देखी हो, और
न सच—खंडों की
यात्रा की हो—कुछ
भी न किया हो, सीधा दुकान
पर बैठ कर
अपना काम कर
रहा हो, लेकिन
अहं—भाव न
जगता हो, तो
वह भी शान की
परम अवधि को
पहुंच गया। और
बडा योगी हो, और हिमालय
के ऊंचे शिखर
पर खड़ा हो; और जितना
हिमालय का
ऊंचा शिखर हो,
उतना ही
भीतर अहंकार
का भी शिखर हो;
और सोचता हो
कि मैं पहुंच
गया और कोई
नहीं पहुंचा,
सोचता हो
मैंने पा लिया
और किसी ने
नहीं पाया—तो
समझना कि अभी
ज्ञान की घटना
नहीं घटी है।
एक ही कसौटी
है कि ऐसी घड़ी
आ जाए भीतर, कि कोई भी
चीज अहं—भाव
को निर्मित न
करती हो। कुछ
भी होता रहे—खुद
परमात्मा
सामने आकर खड़ा
हो जाए—तो भी
यह भाव पैदा न
हो कि
अहोभाग्य
मेरे, पा
लिया
परमात्मा को
भी! यह
परमात्मा
सामने खड़े हैं,
दर्शन हो
रहा है।
मैं
की वृत्ति
निर्मित न हो
तो शान की परम
अवधि समझना।
इसको
भी भीतर खोजते
रहना, नहीं
तो हर चीज से
अकड़ आनी शुरू
हो जाती है—हर
चीज से! मन बड़ा
कुशल है, और
हर चीज में से
अहं— भाव को
निकाल लेता है;
इतना कुशल
है कि
विनम्रता तक
में से अहं—
भाव को निकाल
लेता है! कि एक
आदमी कहने
लगता है कि
मुझसे ज्यादा
विनम्र और कोई
भी नहीं! मुझसे
ज्यादा
विनम्र और कोई
भी नहीं! मगर
वह मुझसे
ज्यादा कोई भी
नहीं। वह कुछ
भी हो—चाहे धन
हो, चाहे
यश हो, चाहे
पद हो, चाहे
शान हो, चाहे
मुक्ति हो, चाहे
विनम्रता हो—मुझसे
ज्यादा कोई भी
नहीं। वह जो
मैं है, निर्मित
होता चला जाता
है।
तो
भीतर जांचते
रहना, खोजते
रहना, नहीं
तो
आध्यात्मिक
तलाश भी
सांसारिक
तलाश हो जाती
है।
आध्यात्मिक
और सांसारिक
खोज में वस्तुओं
का भेद नहीं
है, आध्यात्मिक
और सांसारिक
खोज में
अहंकार का भेद
है। एक आदमी
संसार में धन
के ढेर लगा
लेता है तो
अहंकार मजबूत
होता है। एक
दूसरा आदमी
सारे धन का
त्याग कर देता
है और त्याग
से अहंकार को
मजबूत कर लेता
है। दोनों की
यात्रा सांसारिक
है।
आध्यात्मिक
यात्रा तो
शुरू होती है
अहंकार के
विसर्जन से।
एक ही त्याग
है करने जैसा,
और वह मैं
का त्याग है।
बाकी सब त्याग
फिजूल हैं, क्योंकि उन
त्याग से भी
मैं भर लेता
है।
कल
ही एक सज्जन
मुझे मिलने आए
थे। वे कहते
हैं कि चौदह
साल से मैंने
अन्न नहीं
लिया! और उनकी
अकड़ देखने
लायक थी। अन्न
लेने से भी
इतनी अकड़ पैदा
नहीं होती, जितनी
उनको अन्न न
लेने से पैदा
हो गई है! तो यह अन्न
का न लेना तो
जहर हो गया।
उनकी अकड़ ही
और थी! चौदह
साल से अन्न
नहीं लिया, होने ही
वाली है अकड़।
अब किस पर
कृपा की है
आपने अन्न
नहीं लिया तो?
न लें!
लेकिन इसको वे
बताते फिर रहे
हैं कि चौदह
साल से अन्न
नहीं लिया! अब
यही अहंकार बन
रहा है। अन्न
से भी अहंकार
इतना नहीं
भरता, यह न
अन्न से भरा
जा रहा है!
मेरे
पास लोग आते हैं, वे कहते
हैं कि हम दूध
ही ले रहे हैं
वर्षों से! दूध
उनके लिए जहर
मालूम हो रहा
है। वे जमीन
पर नहीं चल
रहे हैं, क्योंकि
वे दूध ले रहे
हैं। क्या
फर्क कर रहे हैं
आप? कौन सी
बड़ी क्रांति
हुई जा रही है
कि दूध ले रहे
हैं?
मगर
उसका कारण है।
क्योंकि
उन्हें लगता है, वे कुछ
विशेष कर रहे
हैं जो दूसरे
नहीं कर रहे हैं।
बस जहां विशेष
का खयाल आया, अहंकार
निर्मित होना
शुरू हो जाता
है, फिर वह
कोई भी विशेष
हो। किसी भी
कारण से आप विशिष्टता
पैदा कर लें
अपने लिए, तो
अहंकार
निर्मित होता
है।
तो
साधक का क्या
अर्थ हुआ? साधक का अर्थ
हुआ कि अपने
भीतर से
विशेषता पैदा
करना बंद करता
जाए; धीरे—धीरे
ऐसा हो जाए कि
नोबडी, कोई
भी नहीं वह।
धीरे—धीरे
इतना सामान्य
हो जाए भीतर, कि यह भाव ही
पैदा न हो कि
मैं भी कुछ
हूं; ना—कुछ
हो जाए। जिस
दिन साधक ना—कुछ
हो जाता है, ज्ञान की
परम अवधि आ
जाती है। ज्ञान
के संग्रह से
नहीं, अहंकार
के विसर्जन
से।
जानकारी
के संग्रह से
नहीं, मैं
की मृत्यु से।
'इसी प्रकार
लय को प्राप्त
हुई वृत्तियां
फिर से
उत्पन्न न हों,
वह उपरति की
अवधि है। ऐसा
स्थितप्रज्ञ
यति सदा आनंद
को पाता है।'
'लय को
प्राप्त हुई
वृत्तियां
फिर से उत्पन्न
न हों।'
बहुत
बार वृत्तियां
लय हो जाती
हैं, बहुत
बार। लेकिन वह
लय होना, वापस—वापस
लौट आता है।
एक दिन लगता
है कि मन
बिलकुल शांत हो गया, दूसरे दिन
फिर अशांत हो जाता
है। एक दिन
लगता है बड़ा
आनंद है, दूसरे
दिन फिर दुख
में घिर जाते
हैं।
मन
के कुछ नियम
हैं, वे
समझने चाहिए।
एक नियम तो मन
का यह है कि वह
सतत एक जैसा
कभी नहीं रहता,
परिवर्तन
उसका स्वभाव
है। तो जो शांति
मिले और खो
जाए, समझना
कि वह
आध्यात्मिक शांति
नहीं है, मन
की ही शांति
थी—एक बात। जो
आनंद मिले और
खो जाए, समझना
कि वह
आध्यात्मिक
आनंद न था, मन
का ही आनंद
था। जो भी बने
और बिखर जाए, वह मन का है।
जो आए और चला
जाए, वह मन
का है। जो आए
और फिर कभी न
जाए; जो आए
तो बस आ जाए, और जाने का
कोई उपाय न
रहे; आप
चेष्टा भी
करें और उसे
हटा न पाएं।
खयाल रखें
फर्क मन में शांति
आ जाए, तो
आप लाख चेष्टा
करें कि बनी
रहे, बनी
नहीं रहेगी, बदलेगी ही, और आत्मिक शांति
आ जाए, तो
आप लाख चेष्टा
करें उसे नष्ट
करने का, तो
भी आप नष्ट
नहीं कर सकते,
वह बनी ही
रहेगी। मन में
प्रयास से भी
सातत्य नहीं
रह सकता, और
आत्मा में
प्रयास से भी
सातत्य तोड़ा
नहीं जा सकता।
तो
जो वृत्तियां
उठनी बंद हो जाएं, जल्दी मत
करना, यह मत
सोच लेना कि
पहुंच गए।
प्रतीक्षा
करना कि वे
दुबारा तो
नहीं उठती
हैं। अगर
दुबारा उठती हैं
तो समझना कि
कम अभी मन के
तल पर ही चल
रहा है। और मन
की शांति का
क्या मूल्य है?
वह तो आएगी
और चली जाएगी
और फिर अशांति
आ जाएगी। मन
में तो
प्रतिपल
विपरीत की तरफ
गति होती रहती
है। जब आप अशांत
होते
हैं तो मन शांति
की तरफ गति
करता है, और
जब शांत होते
हैं तो अशांति
की तरफ गति
करता है। मन
द्वंद्व है।
इसलिए विपरीत
हमेशा मौजूद
रहेगा और गति
करता रहेगा।
कैसे
अनुभव करेंगे
कि जो हो रहा
है वह मन का है न:
अगर
मन शांत हो, तो एक
बुनियादी
खयाल रखना जब
मन शांत हो—जब
मन ही शांत हो और
भीतर के तल पर शांति
न पहुंची
हो—तो शांत होते
ही एक वासना
पैदा हो जाएगी
कि यह शांति बनी
रहे, मिट न
जाए। अगर यह
वासना पैदा हो
तो समझना कि यह
मन का मामला
है, क्योंकि
मिटने का डर
मन में ही
होता है। शांति
आ जाए और यह डर
न आए कि मिट तो
नहीं जाएगी, तो समझना कि
यह मन की नहीं
है।
दसरी
बात मन हर चीज
से ऊब जाता है—हर
चीज से! दुख से
ही नहीं, सुख से भी ऊब
जाता है। यह
मन का यह
दूसरा नियम है
कि मन किसी भी
थिर चीज से ऊब
जाता है। अगर
आप दुख में
हैं तो दुख से
ऊबा रहता है और
कहता है सुख
चाहिए। पर
आपको पता नहीं
है कि यह मन का
नियम है कि
सुख मिल जाए, तो सुख से ऊब
जाता है। और
तब भीतरी दुख
की मांग करने
लगता है।
ऐसा
मैं निरंतर, इतने
लोगों पर
प्रयोग चलते
हैं तो देखता
हू, कि
उनको अगर सुख
भी ठहर जाए
थोड़े दिन, तो
वे बेचैन होने
लगते हैं, अगर
शांति भी थोड़े
दिन ठहर जाए, तो वे बेचैन
होने लगते हैं,
क्योंकि
उससे भी ऊब
पैदा होती है।
मन
हर चीज से ऊब
जाता है। मन
सदा नए की
मांग करता
रहता है। नए
की मांग से ही
सब उपद्रव
पैदा होता है।
मन के बाहर—आत्मिक
तल पर—नए की
कोई मांग नहीं
है; पुराने
की कोई ऊब
नहीं है : जो है,
उसमें इतनी
लीनता है, कि
उसके
अतिरिक्त
किसी की कोई
भाग नहीं है।
सूत्र
कहता है कि लय
को प्राप्त
हुई वृत्तियां
फिर से
उत्पन्न न हों, तो उपरति
की अवधि है।
तो समझना कि
विश्राम मिला।
वे फिर—फिर पैदा
होती रहें, तो समझना कि
सब मन का ही
जाल है।
क्यों, इसको सोच
रखने की जरूरत
क्यों है? क्योंकि
मन के साथ
हमारा इतना
गहरा संबंध है
कि हम मन की ही शांति
को अपनी शांति
समझ लेते हैं।
उससे बड़ा कष्ट
होता है।
क्योंकि वह खो
जाती है। क्या
करें हम? साक्षी
के सूत्र का
प्रयोग करना
उपयोगी है। तो
मन के बाहर
जाने का
रास्ता बनता
है और परम
उपरति उपलब्ध
होती है।
करते
क्या हैं हम? जब मन अशांत
होता
है तो हम उससे
हटना चाहते
हैं, और जब
मन शांत होता
है तो हम उससे
जुड़ना चाहते हैं।
शांति को हम
बचा रखना
चाहते हैं, अशांति को
हटाना चाहते
हैं। जब मन
दुखी होता है,
तो हम मन को
फेंक देना
चाहते हैं कि
कैसे छुटकरा
हो जाए मन से!
और जब मन सुखी
होता है, तो
हम उसका
आलिंगन कर
लेते हैं और
उसको बचा लेना
चाहते हैं। तब
तो आप मन से
कभी न छूट
पाएंगे, क्योंकि
यह तो मन की
व्यवस्था ही
है कि दुख से
छूटो, सुख
को पकड़ो।
मन
से छूटने का
उपाय यह है कि
जब सुख मन दे
रहा हो, तब भी
साक्षी बने
रहना और उसको
पकड़ना मत।
जैसे आप यहां
ध्यान कर रहे
हैं, ध्यान
में कभी अचानक
शांति का झरना
फूट पड़ेगा। तो
उस वक्त उसको
आलिंगन मत कर
लेना, खड़े
देखते रहना
दूर, कि शांति
घट रही है, मैं
साक्षी हूं।
सुख का झरना
टूट पड़ेगा, भीतर रोएं—रोएं
में सुख
व्याप्त हो
जाएगा किसी
क्षण, तो
उसको भी दूर खड़े
होकर ही देखते
रहना, उसको
पकड़ मत लेना
जोर से कि ठीक
आ गई मुक्ति, उसको खड़े
होकर साक्षी—
भाव से देखते
रहना, कि
मन में सुख घट
रहा है, पकडूगां
नहीं।
मजे
की बात यह है
कि जो सुख को
नहीं पकड़ता, उसके दुख
समाप्त हो
जाते हैं; जो
शांति को नहीं
पकड़ता, उसकी
अशांति सदा के
लिए मिट जाती
है। शांति को
पकड़ने में ही
अशांति का
बीजारोपण है,
और सुख को
पकड़ने में ही
दुख का जन्म
है। पकड़ना ही
मत। पकड़ का
नाम मन है। क्लिगिंग,
पकड़ का नाम
मन है। कुछ न
पकड़ना। खुली
मुट्ठी! और आप
मन के पार हट
जाएंगे और
उसमें प्रवेश
हो जाएगा, जहां
से फिर
वृत्तियां
दुबारा जन्म
नहीं पातीं; परम लय हो
जाता है। उस
परम लय को कहा
है उपरति, विश्राम।
'ऐसा
स्थितप्रज्ञ
यति सदा आनंद
को पाता है।’
स्थितप्रज्ञ
बड़ा मीठा शब्द
है। अर्थ है
उसका जिसकी
प्रज्ञा अपने
में ठहर गई, जिसका
बोध अपने में
रुक गया, जिसकी
चेतना स्वयं
को छोड़ कर
कहीं भी नहीं
जाती। ठहर गई
चेतना जिसकी,
ऐसा यति, ऐसा साधक, ऐसा
संन्यासी, सदा
आनंद को पाता
रहता है।
मन
के तल पर है
सुख और दुख, द्वंद्व;
शांति—अशांति,
द्वंद्व; अच्छा—बुरा,
द्वंद्व, जन्म—मृत्यु,
द्वंद्व; मन के पीछे
हटते ही
निर्द्वंद्व
है, आनंद
है। आनंद के
विपरीत कोई
शब्द नहीं है,
वह द्वंद्व
के बाहर है।
और जो द्वंद्व
के बाहर है, ऐसा यति सदा
आनंद को पाता
रहता है।
हमारी
बड़ी तकलीफ है!
हमारी तकलीफ
यह है कि आनंद
तो हम भी पाना
चाहते हैं। और
इस तरह की
बातें सुन कर
हमारा लोभ
जगता है कि
अगर आनंद सदा
मिले, तो
फिर हम भी
पाना चाहते
हैं। कोई
रास्ता बता दे,
तो सदा आनंद
को हम भी पा
लें।
लेकिन
ध्यान रखना, यह जो
परिभाषा है, यह केवल
स्थिति—सूचक
है। अगर इससे
वासना का जन्म
होता है तो आप
इस स्थिति को
कभी न पाएंगे।
इसका फर्क ठीक
से समझ लें।
एक
मित्र मेरे
पास आए. जल्दी
से मुक्ति हो
जाए; ध्यान
लग जाए; समाधि
आ जाए—जल्दी
से! तो मैंने
उनको कहा कि
जितनी जल्दी करिएगा,
उतनी देर हो
जाएगी।
क्योंकि
जल्दी करने
वाला मन शांत हो ही
नहीं सकता।
जल्दी ही तो अशांति
है।
और
हम सब अनुभव
करते हैं कि
कभी—कभी जल्दी
में कैसी
मुश्किल हो
जाती है। ट्रेन
पकड़नी है और
जल्दी में
हैं। तो जो
काम दो मिनट
में हो सकता
था वह पांच
मिनट लेता है!
कोट के बटन
उलटे लग जाते
हैं! फिर खोलो, फिर
लगाओ। चश्मा
हाथ में उठाते
हैं, छूट
जाता है, टूट
जाता है! चाबी
बंद कर रहे
हैं सूटकेस की,
चाबी ताले
में ही नहीं
जाती! जल्दी!
जल्दी में तो
निरंतर ही देर
हो जाती है।
क्योंकि
जल्दी का मतलब
यह है कि
चित्त बहुत
अस्तव्यस्त
है, और भूल—चूक
हो जाएगी। तो
जब छोटी—छोटी
चीजों में
जल्दी देर
करवा देती है,
तो इस विराट
की यात्रा पर
तो जल्दी बहुत
देर करवा
देगी।
तो
उन मित्र से
मैंने कहा कि
जल्दी मत करो, नहीं तो
देर हो जाएगी।
यहां तो
तैयारी रखो कि
अनंत काल में
कभी भी हो
जाएगा तो हम
राजी हैं, कोई
जल्दी नहीं, तो शायद
जल्दी भी हो
जाए। तो
उन्होंने कहा,
ऐसा! अगर हम
अनंत काल के
लिए तैयारी
रखें, तो
जल्दी हो
जाएगी न?
यहां
मन दिक्कत
देता है। वे
तैयार हैं
इसके लिए भी!
लेकिन जल्दी
के लिए ही। यह
भी उपयोग कर
रहे हैं वे।
अब इनको कैसे
समझाया जाए? वे कहते
हैं, हम
प्रतीक्षा
करने को भी
राजी हैं, मगर
आप भरोसा
दिलाते हैं कि
इससे जल्दी हो
जाएगी न? तब
यह प्रतीक्षा
झूठी हो
जाएगी। और
जल्दी का क्या
मतलब रहा फिर?
प्रतीक्षा
अगर आप अनंत
करेंगे, तो जल्दी
परिणाम है, आप जल्दी की
वासना नहीं
बना सकते। इस
फर्क को समझ
लें। अगर आप
प्रतीक्षा
करने को तैयार
हैं तो जल्दी
होगी, लेकिन
वह प्रतीक्षा
करने वाले
चित्त का परिणाम
है। अगर आप
कहते हैं कि
इसीलिए हम
प्रतीक्षा
करेंगे कि
जल्दी हो जाए,
तो आप
प्रतीक्षा कर
ही नहीं रहे, और जल्दी
कभी नहीं
होगी। जल्दी
की वासना से
प्रतीक्षा
कैसे निकल
सकती है? यही
तकलीफ रोज—रोज
की है। हम
सबको लगता है
कि आनंद तो
हमें भी
चाहिए। तो हम
कैसे आनंद को
पा लें! कैसे
आनंद को पा
लेने का जो
विचार और वासना
है, वह तो
बाधा है आनंद
के लिए। आनंद
परिणाम है। उसको
आप वासना मत
बनाएं। वह
घटेगा। आप मौन
चुपचाप
यात्रा करते
जाएं, वह
घटेगा।
इसलिए
बड़ी कठिनाई
घटती है, और वह यह, कि
इन सूत्रों को
पढ़ कर अनेक
लोग
वासनाग्रस्त हो
जाते हैं आनंद
की। न मालूम
कितने लोग
सदियों से इस
तरह के
सूत्रों को पढ़
कर वासना से
भर जाते हैं!
और ये सूत्र
जो हैं
वासनामुक्ति
के लिए हैं।
और नई वासना
पकड़ लेती है
कि कैसे मिले
आनंद? कैसे
हो जाएं
स्थितप्रज्ञ?
कैसे आ जाए
उपरति? कैसे
आ जाए वैराग्य?
इस वासना से
भर जाते हैं।
और तब वे
दौड़ते रहते हैं
जन्मों—जन्मों,
और कभी यह
घटना नहीं
घटती उनके
जीवन में। तब
उन्हें संदेह
होने लगता है।
तब उन्हें
संदेह होने
लगता है कि
कहीं ये सब
बातें झूठी तो
नहीं हैं, क्योंकि
कहा तो था कि
आनंद आ जाएगा,
वह अभी तक
नहीं आया!
इस
संदर्भ में
आपको एक बात
बता दूं। रोज
हम दुनिया को
अधार्मिक
होते हुए
देखते हैं, रोज। लोग
ज्यादा से
ज्यादा
अधार्मिक
होते चले जाते
हैं और उनकी
निष्ठा धर्म
पर कम होती चली
जाती है। कारण
आपको पता है? कारण इस
सूत्र में है।
आप में से हर
एक ने आनंद की,
मोक्ष की, परमात्मा की
कई जन्मों में
वासना कर ली
है—और आनंद
नहीं मिला, मोक्ष नहीं
मिला, परमात्मा
नहीं मिला।
उसका जो
परिणाम होना
था, वह हो
गया है। वह
परिणाम यह हुआ
है कि अब आपको
लगता है कि ये
कोई मिलने
वाली चीजें ही
नहीं हैं।
आपकी वासना
निष्फल चली
गई। इन
सूत्रों पर से
भरोसा उठ गया
है।
दस
हजार साल से
ये सूत्र आदमी
को पता हैं।
इस दस हजार
साल में सभी
लोगों ने करीब—करीब, कोई
बुद्ध के पास,
कोई कृष्ण
के पास, कोई
क्राइस्ट के
पास, कोई
मोहम्मद के
पास—सभी लोगों
ने करीब—करीब
इस पृथ्वी पर,
यह आनंद की
वासना कर ली
है, इसके
लिए प्रयास कर
लिए हैं; कभी
ध्यान किया, कभी योग
किया, कभी
तंत्र साधा, कभी मंत्र
साधा, सब
कर चुके हैं।
जब मैं लोगों
को उनके भीतरी
तल पर देखता हूं,
तो
मुझे ऐसा आदमी
अब तक नहीं
मिला, जो
किसी न किसी
जन्म में कुछ
न कुछ न कर
चुका हो। हर
आदमी किसी न
किसी जन्म में
साधना के पथ
पर चल चुका है—लेकिन
वासनाग्रस्त
होकर। उस
वासना के कारण
ही साधना
निष्फल चली गई
है, और
भीतर गहरी
चेतना में वह
असफलता बैठ गई
है। उसका कारण
है कि सारी
दुनिया में
अधर्म बढ़ता हुआ
दिखाई पड़ता
है। क्योंकि
धर्म अधिक
लोगों के लिए
असफल हो गया
है।
आपको
याद भी नहीं
है, लेकिन
आप धर्म को
असफल कर चुके
हैं अपने
भीतर। और कारण
आप हैं।
क्योंकि आपने,
जिसकी
वासना नहीं की
जा सकती, उसकी
वासना करके
भूल कर ली है।
ये परिणाम
हैं। आप साधना
से गुजरेंगे
तो ये परिणाम
घटते हैं।
इनकी आपको
चिंता नहीं करनी
है, न इनका
विचार करना है,
और न इनकी आकांक्षा
करनी है, और
न जल्दी करनी
है कि ये घट
जाएं। उस
जल्दी से ही
सब विपरीत हो
जाता है।
दुनिया
में अधर्म तब
तक बढ़ता ही
चला जाएगा, जब तक हम
धर्म की भी
वासना करते
हैं। और आप
कोई नए नहीं
हैं। इस जमीन
पर कोई भी नया
नहीं है। सब
इतने पुराने
और प्राचीन
हैं, जिसका
हिसाब नहीं।
और सब इतने—इतने
रास्तों पर, इतने—इतने
मार्गों पर चल
चुके हैं, जिसका
हिसाब नहीं।
और उन सबमें
असफलता पाकर आप
निराश और हताश
हो गए हैं। वह
हताशा
प्राणों में
गहरे बैठ गई
है। उस हताशा
को तोड़ना ही
आज सबसे बड़ी कठिनाई
की बात हो गई
है। और अगर
कोई तोड़ना चाहे,
तो एक ही
उपाय दिखता है
कि फिर आपकी
वासना को कोई
जोर से जगाए, और कहे कि
इससे यह हो
जाएगा, तभी
आप थोड़ा
हिम्मत
जुटाते हैं।
लेकिन वही, वासना का
जगाना ही तो
सारे उपद्रव
की जड़ है।
बुद्ध
ने एक अनूठा
प्रयोग किया
था। और बुद्ध
के समय में भी
हालत यही थी, जो आज हो
गई है। यह
हमेशा हो जाती
है। और जब भी दुनिया
में बुद्ध या
महावीर जैसे
लोग पैदा होते
हैं तो उनके
पीछे हजारों
साल तक एक
छाया का काल
व्यतीत होता
है। होगा ही।
जब बुद्ध या
कृष्ण जैसा
कोई व्यक्ति
पैदा होता है,
तो उसको देख
कर, उसके
अहसास में, उसके संपर्क
में, उसकी
हवा में
हजारों लोग
वासना से भर
जाते हैं धर्म
की। और उनको
लगता है कि हो
सकता है। भरोसा
जगता है देख
कर, कि जब
बुद्ध को हो
सकता है, तो
हमें भी हो
सकता है। और
अगर इन्होंने
भूल कर ली और
इस होने को
वासना बना
लिया, तो बुद्ध
के बाद ये
व्यक्ति
हजारों साल तक
उस वासना के
कारण धीरे—धीरे
परेशान होकर
अधार्मिक हो
जाएंगे।
शर्त
समझ लें! आनंद
उपलब्ध हो
सकता है, लेकिन आप
उसको लक्ष्य न
बनाएं। वह
लक्ष्य नहीं
है। परम शांति
हो सकती है, लेकिन
लक्ष्य न
बनाएं। वह
लक्ष्य नहीं
है। लक्ष्य तो
बनाएं आप
ज्ञान को, समझ
को; लक्ष्य
तो बनाएं आप
ध्यान को, लक्ष्य
तो बनाएं आप
अपने भीतर
थिरता को, लक्ष्य
बनाएं रुक
जाने को, अपने
भीतर आ जाने
कों—परिणाम
में आनंद चला
आएगा। वह उसके
पीछे आ ही जाता
है। उलटा न
करें; आनंद
को लक्ष्य न
बनाएं। जिसने
आनंद को लक्ष्य
बनाया, बस
वह मुश्किल
में पड़ गया।
परिणाम—परिणाम
हैं—लक्ष्य
नहीं हैं।
ऐसा
समझें, सामान्य
जीवन से कोई
उदाहरण ले लें,
तो आसानी हो
जाए। आप कोई
खेल खेलते
हैं। फुटबाल
खेलते हैं, हाकी खेलते
हैं, टेनिस
खेलते हैं—कुछ
भी खेलते हैं,
कबड्डी
खेलते हैं—कोई
खेल खेलते हैं,
बड़ा आनंद
अनुभव होता
है। किसी से
आप कहें कि
कबड्डी खेलता
हूं, टेनिस
खेलता हूं, बड़ा आनंद
आता है! वह
आदमी कहे, आनंद
तो हमें भी
चाहिए, कल
हम भी आकर
देखेंगे खेल
कर कि आनंद
आता है कि नहीं।
वह आदमी खेलने
आए, और सतत
इस बात का
खयाल रखे, कि
आनंद आ रहा है
कि नहीं? तो
आनंद आ रहा है
कि नहीं, इस
खयाल की वजह
से पहली तो
बात यह कि खेल
में लीन ही
नहीं हो पाएगा;
खेल हो
जाएगा गौण, आनंद हो
जाएगा
प्रमुख। हर
बार जब वह तू—तू
करके कबड्डी
में प्रवेश
करेगा, तो
वह तू—तू रह
जाएगी गौण, भीतर खोजता
रहेगा अभी तक
आनंद आया
नहीं! यह आनंद
आ नहीं रहा, यह मैं क्या
कर रहा हूं तू—तू?
इससे क्या
होने वाला है?
अभी तक आनंद
आया नहीं! खेल
के बाद वह
सिर्फ थकेगा
और कहेगा कि
कुछ आनंद
वगैरह मिलता
नहीं, यह
क्या है?
आनंद
जो खेल में
पाने जाएगा—खेल
भी खराब हो
जाएगा, आनंद तो
मिलेगा नहीं।
आनंद है बाइ—प्रॉडक्ट।
खेल में पूरे
लीन हो जाएं, तो आनंद
घटता है। आनंद
का ही खयाल
बना रहे तो लीन
नहीं हो पाते।
लीन नहीं हो
पाते तो आनंद
कैसे घटेगा!
यह
पूरा जीवन ऐसा
है। यहां सब
चीजें बाइ—प्रॉडक्ट
हैं। जो भी
महत्वपूर्ण
है, वह
चुपचाप घटता
है। जो भी
गहरा है, उसका
लक्ष्य नहीं
बनाना होता।
लक्ष्य बनाने
से ही उसका
द्वार बंद हो
जाता है।
अनायास घटता
है आनंद, आकस्मिक
घटता है आनंद।
सचेत कोई बैठा
रहे, तो वह
सचेत बैठने
में ही इतना
तनाव हो जाता
है कि द्वार
बंद हो जाते
हैं, दीवाल
बन जाती है
तनाव की, और
आनंद नहीं
घटता है।
इस
सूत्र पर खयाल
रखना, यह
सूत्र खतरनाक
है। यह सूत्र
सभी
शास्त्रों में
है। और जिन—जिन
ने उन
शास्त्रों को
पढ़ा है, उनकी
वासना जग गई
है। और वे खोज
में लगे हैं
कि कैसे हथिया
लें मोक्ष को!
मोक्ष हथियाए
नहीं जाते; लीन होकर
मोक्ष मिलता
है। कैसे पा
लें आनंद को!
कैसे आनंद
नहीं पाया
जाता। कुछ करें,
जिसमें
इतने डूब जाएं
कि अपनी भी
खबर न रहे, आनंद
की भी खबर न
रहे—और अचानक
जाग कर पाया
जाता है कि
आनंद ही आनंद रह
गया है, आप
जो खोजते थे, जो खोज—खोज
कर नहीं मिलता
था, वह मिल
गया है।
बुद्ध
के जीवन में
बड़ी साफ बात
है। बुद्ध छह
साल तक कोशिश
करते रहे—अथक—मिल
जाए मोक्ष, मिल जाए शांति,
मिल जाए
सत्य। नहीं
मिला। सब
गुरुओं के
चरणों को टटोल
आए। गुरु भी
उनसे थक गए।
क्योंकि वे आदमी
तलाशी थे, पक्के
थे, क्षत्रिय
की जिद्द थी, कि खोज कर
रहूंगा, क्षत्रिय
का अहंकार था,
कि ऐसी क्या
चीज हो सकती
है जो हो और न
मिले! असंभव
नहीं मानता है
क्षत्रिय।
वही क्षत्रिय
का अर्थ है।
तो जिन—जिन
गुरुओं के पास
गए, वे भी
उनसे मुसीबत
में पड़ गए।
क्योंकि गुरु
जो भी कहते, बुद्ध
तत्काल करके
दिखा देते।
कितना ही कठिन
हो, कितना
ही शीर्षासन
करना पड़े, कितना धूप—वर्षा
में खड़ा रहना
हो, कितना
उपवास करना हो—जो
भी कोई कहता—पूरा
करके बता देते
और कुछ भी न
होता! वे गुरु
भी थक गए।
उन्होंने कहा,
हम भी क्या
करें!
गुरु
साधारण शिष्य
से नहीं थकता; क्योंकि
साधारण शिष्य
कभी मान कर
चलता ही नहीं।
इसलिए कभी ऐसी
नौबत नहीं आती
कि गुरु को यह कहना
पडे अब हम
क्या करें, जो हम कर
सकते थे, कर
चुके! बुद्ध
जैसा शिष्य
मिले तो बहुत
मुश्किल खड़ी
हो जाती है; क्योंकि
बुद्ध, जो
भी गुरु कहता,
पूरा करते।
उसमें गुरु भी
भूल नहीं
निकाल सकता
था। और कुछ
होता नहीं!
आखिर एक गुरु
कहता है कि अब
मैं जो कर
सकता था, जो
बता सकता था, मैंने बता
दिया, इसके
आगे मुझे भी
पता नहीं है, अब तुम कहीं
और चले जाओ!
सब
गुरु उनसे ऊब
गए! और वे
जिद्दी पक्के
थे। छह वर्ष
तक, जिसने
जो कहा—सही, गलत संगत, असंगत—सब
उन्होंने
पूरा किया, और बडी
निष्ठा से
पूरा किया। एक
भी गुरु यह नहीं
कह सका कि तुम
पूरा नहीं कर
रहे, इसलिए
नहीं हो रहा
है। क्योंकि
वे इतना पूरा
कर रहे थे कि गुरुओं
तक ने उनसे
क्षमा मांगी.
कि जब तुम्हें
हो जाए कुछ और
ज्यादा, हमको
भी खबर करना।
क्योंकि जो भी
हम जानते थे, वह पूरा बता
दिया है। कुछ
भी नहीं हो
रहा है!
ऐसा
नहीं था कि जो
बताया था, उससे उन
गुरुओं को
नहीं हुआ था, उससे उनको
हुआ था। किया
बराबर बुद्ध
भी वही कर रहे
थे, जो
गुरु ने की थी
और पाया था।
तो गुरु भी
मुश्किल में
था, कि यही
क्रिया पूरी
कर रहे हो, मुझसे
भी ज्यादा
पूरी कर रहे
हो, इतनी
निष्ठा से
मैंने भी कभी
नहीं किया था,
फिर क्यों
नहीं हो रहा!
पर
कारण था। उस गुरु
को हुआ होगा, क्योंकि
उसने क्रिया
की थी बिना
किसी लक्ष्य के
खयाल के।
बुद्ध को
लक्ष्य
प्रगाढ़ था। कर
रहे थे वे, लेकिन
नजर लक्ष्य पर
थी कि कब सत्य,
कब आनंद, कब मोक्ष
मिले! तो
क्रिया पूरी
कर देते थे, लेकिन वह जो
लक्ष्य था, वह बाधा बन
रहा था।
आखिर
बुद्ध भी थक
गए। छह वर्ष
के बाद एक दिन
उन्होंने सब
छोड़ दिया।
संसार तो पहले
ही छोड़ चुके
थे, फिर
संन्यास भी
छोड़ दिया। भोग
तो पहले ही
छोड़ चुके थे, ये छह साल
योग में
बर्बाद किए थे,
फिर योग भी छोड़
दिया। और एक
रात उन्होंने
तय कर लिया कि
अब कुछ भी
नहीं करना; अब खोजना ही
नहीं। समझ
लिया कि कुछ
है नहीं मिलने
वाला। तनाव पर
पहुंच गए थे
आखिरी खोज के।
श्रम, प्रयास
चरम हो गया था;
छोड़ दिया।
उस रात वृक्ष
के नीचे सो
गए।
वह
पहली रात थी
अनेक—अनेक
जन्मों में, जब बुद्ध
ऐसे सोए कि
सुबह करने को
कुछ भी बाकी नहीं
था। कुछ था ही
नहीं बाकी
करने को!
राज्य छोड़
चुके थे, घर
छोड़ चुके थे, संसार की
सारी आयोजना
छोड़ चुके थे, दूसरी योजना
पकड़ी थी, वह
भी व्यर्थ हो
गई थी, अब
कोई हाथ में
था ही नहीं
काम सुबह। कल
उठें तो ठीक, न उठें तो
ठीक, जन्म
रहे तो बराबर,
मृत्यु हो
जाए तो बराबर—अब
कोई अंतर न था,
कल सुबह
करने को कुछ
बचा ही नहीं
था; कल का
कोई मतलब ही
नहीं था।
और
जब कोई रात
ऐसे सो जाता
है कि जिस रात
में सुबह की
कोई योजना न
हो, तो
समाधि घटित हो
जाती है।
सुषुप्ति
समाधि बन जाती
है; क्योंकि
सुबह की कोई
वासना ही न थी,
कोई लक्ष्य
शेष न रहा था, कुछ पाने को
नहीं था, कहीं
जाने को नहीं
था, सुबह
होगी तो क्या
करेंगे—यह
सवाल था। अब
तक करना था, करना था, करना
था। अब करना
बिलकुल नहीं
था। बुद्ध रात
ऐसे सोए कि
सुबह उठेंगे
तो क्या
करेंगे? सूरज
ऊगेगा, पक्षी
गीत गाएंगे, मैं क्या
करूंगा? शून्य
था उत्तर।
लक्ष्य
जब नहीं होते, भविष्य
नष्ट हो जाता
है। लक्ष्य जब
नहीं होते, समय व्यर्थ
हो जाता है।
लक्ष्य जब
नहीं होते, योजनाएं टूट
जाती हैं, मन
की यात्रा बंद
हो जाती है।
क्योंकि मन की
यात्रा के लिए
योजना चाहिए;
मन की
यात्रा के लिए
लक्ष्य चाहिए;
मन की
यात्रा के लिए
कुछ पाने का
बिंदु चाहिए;
मन की यात्रा
के लिए भविष्य
चाहिए, समय
चाहिए। सब
नष्ट हो गया।
बुद्ध
उस रात सो गए, जैसे कोई
आदमी जिंदा जी
मर गया हो।
जीते थे, मौत
घट गई। सुबह
पाच बजे आंख
खुली। तो
बुद्ध ने कहा
है, मैंने आंख
नहीं खोली।
क्या करेंगे आंख
खोल कर भी? न
कुछ देखने को
बचा, न कुछ
सुनने को बचा,
न कुछ पाने
को बचा, क्या
करेंगे आंख
खोल कर भी? इसलिए
बुद्ध ने कहा,
मैंने आंख
नहीं खोली, आंख खुली।
थक गई बंद
रहते—रहते, रात भर बंद
थी, विश्राम
पूरा हो गया, पलक खुल गई।
शून्य था
भीतर। जब
भविष्य नहीं
होता, भीतर
शून्य हो जाता
है। उस शून्य
में बुद्ध ने
रात का आखिरी
तारा डूबता
हुआ देखा। और
उस आखिरी तारे
को डूबते देख
कर बुद्ध परम
जान को उपलब्ध
हो गए। उस
डूबते तारे के
साथ बुद्ध का
सब अतीत डूब
गया। उस डूबते
तारे के साथ
सारी यात्रा
डूब गई, सारी
खोज डूब गई।
बुद्ध
ने कहा है कि
मैंने पहली
दफा
निष्प्रयोजन
आकाश में डूबते
तारे को देखा—निष्प्रयोजन।
कोई प्रयोजन
नहीं था। न
देखते तो चलता, देखते तो
चलता। इस तरफ,
उस तरफ
चुनने की भी
कोई बात न थी। आंख
खुली थी, इसलिए
तारा दिख गया।
डूब रहा था, डूबता रहा।
उधर तारा
डूबता रहा, उधर आकाश
तारों से खाली
हो गया, इधर
भीतर मैं
बिलकुल खाली था,
दो खाली
आकाशों का
मिलन हो गया।
और बुद्ध ने कहा
है जो खोज—खोज
कर न पाया, वह
उस रात बिना
खोजे मिल गया।
दौड़ कर जो न
मिला, उस
रात बैठे—बैठे
मिल गया, पड़े—पड़े
मिल गया। श्रम
से जो न मिला, उस रात
विश्राम से
मिल गया।
पर
क्यों मिल गया
वह? आनंद,
जब आप भीतर
शून्य होते
हैं, उसका
सहज परिणाम
है। आनंद के
लिए जब आप
दौड़ते हैं, शून्य ही
नहीं हो पाते,
वह आनंद ही
दिक्कत देता
रहता है, शून्य
ही नहीं हो
पाते, इसलिए
सहज परिणाम
घटित नहीं
होता है।
'जिसका मन
ब्रह्म में
लीन हुआ हो, वह
निर्विकार और
निष्क्रिय
रहता है।
ब्रह्म और
आत्मा शोधा
हुआ, और
दोनों के
एकत्व में लीन
हुई वृत्ति
विकल्परहित
और मात्र
चैतन्य रूप
बनती है, तब
प्रज्ञा
कहलाती है। यह
प्रज्ञा
जिसमें
सर्वदा होती है,
वह जीवनमुक्त
है।
ऐसा
जब भीतर का
आकाश बाहर के
आकाश में एक
हो जाता है, जब भीतर
का शून्य बाहर
के शून्य से
मिल जाता है, तब सब
निर्विकार और निष्क्रिय
हो जाता है।
विकार उठ ही
नहीं सकते
बिना विचार के;
विचार ही
विकार है। और
विचार उठता ही
इसलिए है कि
कुछ करना है, ध्यान रखना!
लोग
मेरे पास आते
हैं, वे
कहते हैं कि
विचार से
छुटकारा नहीं
होता।
विचार
से होगा नहीं
छुटकारा। आपको
कुछ करना है।
कुछ करना है
तो विचार से
छुटकारा कैसे
होगा? वह
कुछ करना है, उसकी योजना
विचार है। अगर
आपको विचार से
छुटकारा भी
करना है, तो
भी छुटकारा
नहीं होगा; क्योंकि वह
उसकी योजना
में विचार लगा
रहेगा।
लोग
मुझसे कहते
हैं कि हम
बैठते हैं, बड़ी
कोशिश करते
हैं कि
निर्विचार हो
जाएं।
निर्विचार
होने की योजना
विचार के लिए
मौका है। तो
मन यही सोचता
रहता है, कैसे
निर्विचार हो
जाएं? अभी
तक निर्विचार
नहीं हुए! कब
होंगे? होंगे
कि नहीं होंगे?
ध्यान
रखिए, वासना
है कोई भी—स्वर्ग
की, मोक्ष
की, प्रभु
की—तो विचार
जारी रहेगा। विचार
का कोई कसूर
नहीं है।
विचार का तो
इतना ही मतलब
होता है कि आप
जो वासना करते
हैं, मन
उसका चिंतन
करता है कि
कैसे पूरा
करे। जब तक
कुछ भी पाने
को बाकी है, विचार जारी
रहेगा। जिस
दिन आप राजी
हैं इस बात के
लिए कि मुझे
कुछ पाना ही
नहीं—निर्विचार
भी नहीं पाना—आप
अचानक पाएंगे
कि विचार विदा
होने लगे; उनकी
कोई जरूरत न
रही। जब भीतर
सब शून्य हो
जाता है, कोई
योजना नहीं
रहती, कुछ
पाने को नहीं
बचता, कहीं
जाने को नहीं
रहता, सब
यात्रा
व्यर्थ मालूम
पड़ने लगती है।
और चेतना बैठ
जाती है
रास्ते के
किनारे, मंजिल—वंजिल
की बात छोड़
देती है—मंजिल
मिल जाती है।
'ब्रह्म में
लीन हुआ
निर्विकार और निष्क्रिय
रहता है।’
फिर
ऐसा व्यक्ति
निर्विकार और निष्क्रिय
रहता है। उसके
भीतर कुछ भी
नहीं उठता।
दर्पण खाली
रहता है। उस
पर कुछ भी
बनता नहीं। और
निष्क्रिय
रहता है। करने
की कोई वृत्ति
नहीं रहती।
इसका
यह मतलब नहीं
है कि वह कोई
मुर्दे की तरह
पड़ा रहता है।
क्रियाएं
घटित होती हैं; लेकिन
क्रियाओं की
कोई योजना
नहीं होती।
इस
फर्क को ठीक
से समझ लें।
यहां
मैं आया।
उपनिषद के इस
सूत्र पर मुझे
बोलना है। अगर
इसकी मैं
योजना करके
आऊं, सोच
कर आऊं कि
क्या बोलना है
और क्या नहीं
बोलना है, तो
चित्त में
विचार चलेगा
और विकार होगा;
और चित्त
में क्रिया
चलेगी। आ जाऊं;
सूत्र को
देख लूं र और
बोलने लग; और
जो भी निकल
जाए, उससे
राजी रहूं; तो यह
क्रिया
क्रिया नहीं
है।
फिर
बोल कर चला
जाऊं; फिर
रास्ते में यह
खयाल आए कि जो
बोला वह ठीक
नहीं था, अच्छा
होता कि यह
बोल देता, या
वह बोल देता; अच्छा होता
कि यह छोड़
देता; तो
विकार है। बोल
कर चला जाऊं; और जैसे ही
बोलना बंद हो
जाए, भीतर
उस बोलने के
संबंध में कुछ
और न रह जाए, कोई धारा न
चले, तो
निर्विकार
है।
सुना
है मैंने
अब्राहम
लिंकन के
बाबत। लौटता
था एक रात
अपनी पत्नी के
साथ, एक
व्याख्यान
देकर। घर लौटा
तो बच्चों ने
लिंकन को पूछा
कि व्याख्यान
कैसा रहा? तो
लिंकन ने कहा,
कौन सा
व्याख्यान? जो देने के
पहले मैंने
तैयार किया, वह? या जो
मैंने दिया, वह? या
देने के बाद
जो मैंने सोचा
कि देना चाहिए
था, वह? कौन
सा व्याख्यान?
तीन दे चुका
हूं। एक तो
जीने के पहले
जो दे रहा था
अपने मन ही मन
में। और फिर
एक वस्तुत: जो
दिया। और फिर
एक जो पीछे
पछताता रहा और
सोचता रहा कि
यह कहना था, और यह कहना
था, और यह
छोड़ दिया।
तो
यह व्याख्यान
क्रिया हो गई।
व्याख्यान में
क्रिया नहीं
है, उसकी
आयोजना में।
तो
अगर चित्त तय
करता है पहले
से, चित्त
लौट कर विचार
करता है, तो
विकार है।
क्रिया अगर
घटित होती है—न
तो पूर्व
आयोजित होती
है, और न
पश्चात चिंतन
होता है—तो निष्क्रिय
से निकलती है
क्रिया।
क्रिया तो
जारी रहेगी। बुद्ध
बुद्ध हो गए, फिर भी जारी
रहेगी। लेकिन
फर्क पड़ गया।
कृष्ण कृष्ण
हो गए, फिर
भी जारी
रहेगी। लेकिन
फर्क पड़ गया।
गीता
इसी अर्थ में
कीमती है कि
गीता में जो
भी कृष्ण ने
कहा है, वह एकदम सहज
है। युद्ध के
मैदान पर कोई
व्याख्यान की
तैयारी करके
जाता भी नहीं।
सोचा भी नहीं
होगा, कृष्ण
को कभी खयाल
भी न होगा कि
इस मुसीबत में
पड़ेंगे युद्ध
के मैदान पर।
कल्पना में भी
नहीं हो सकता।
कोई योजना
नहीं हो सकती।
अचानक, अनायास
एक घटना, आकस्मिक,
और कृष्य के
झरने का फूट
पड़ना।
यह
बोलना नहीं है, यह अबोल
से निकला हुआ
बोलना है। यह
क्रिया नहीं
है, यह निष्क्रिय
से जन्मी हुई
क्रिया है।
इसीलिए गीता
इतनी कीमती हो
गई। इतनी
आकस्मिक थी, इसलिए इतनी
कीमती हो गई।
दुनिया में
बहुत शास्त्र
हैं, लेकिन
गीता जैसी
आकस्मिक
परिस्थिति
किसी शास्त्र
की नहीं है।
युद्ध का
मैदान है, शंख
बज चुके हैं, योद्धा
तैयार हैं
मरने—मारने को,
वहां
ब्रह्मचर्चा!
कोई, कहीं
कोई संगति
नहीं बैठती।
गीता किसी
आश्रम में, किसी
गुरुकुल में
दी गई होती, समझ में आती
थी। चूंकि
इतनी सहज है, इसीलिए इतनी
गहरी भारतीय
मन में उतर
गई। निष्क्रिय
से निकली है।
बिना आयोजना
के निकली है।
इसीलिए हमने
उसे भगवत्
गीता कहा है, उसे हमने
कहा, प्रभु
का गीत। उसमें
कोई योजना
आदमी की नहीं
है। उसमें
कृष्ण आदमी
जैसे व्यवहार
ही नहीं कर रहे
हैं। गहरी
भगवत्ता से
निकला हुआ
संदेश है।
तो
जब सारी
क्रियाएं
भीतर की निष्क्रियता
से जन्मती हों, और विचार
भी निर्विचार
से आता हो, और
शब्द भी मौन
में जन्म लेता
हो, ऐसा
व्यक्ति जीवनमुक्त
कहलाता है।
एक
तो— भारत में
दो तरह की
मुक्ति की
धारणा है—एक
तो मुक्त है जीवनमुक्त, जो जीते
जी मुक्त है।
और एक है
मुक्त, जो
मृत्यु के साथ
मुक्त होता
है। ये दोनों
घटनाएं घटती
हैं।
एक
व्यक्ति जीवन
भर खोज करता
है, खोज
करता है, खोज
करता है। जैसे
मैंने बुद्ध
का कहा; खोज
करते हैं, करते
हैं, करते
हैं—और थक
जाते हैं एक
दिन खोज से और
घटना घट जाती
है। ऐसा कभी—कभी
ऐसा होता है
कि आदमी जीवन
भर खोज करता
है—छह साल
नहीं, जीवन
भर—और थकता
नहीं और खोजता
जाता है, खोजता
जाता है। और
जब मौत आती है,
तभी उसे
अनुभव होता है
कि सब खोज
व्यर्थ गई, कुछ पाया
नहीं। और मौत
के क्षण में
सारी खोज शिथिल
हो जाती है।
मरने
के पहले अगर
सारी खोज
शिथिल हो जाए, और सारी
योजना बंद हो
जाए, और
भविष्य न रहे,
तो जो बुद्ध
को घटना घटी
बोधि—वृक्ष के
नीचे, वह
मृत्यु के
वृक्ष के नीचे
घट जाती है।
तब मृत्यु और
मुक्ति एक साथ
घटित हो जाती
है। क्योंकि
मृत्यु बहुत
रिलैक्स कर
सकती है, अगर
खोज व्यर्थ हो
गई हो। अगर
आपको यह अनुभव
आ गया हो
पक्का कि सब
खोजना बेकार
है, कहीं
कुछ मिला नहीं—न
संसार में कुछ
पाया, न
साधना में कुछ
पाया—कुछ भी
नहीं पाया, अगर यह
बिलकुल साफ हो
जाए, और मन
में कोई मन न
रह जाए आगे के
लिए, कि अब
आगे भी जीवन
चाहिए कुछ
पाने को; यह
भी भाव न रह
जाए कि अभी न
मरूं, दो
दिन बच जाऊं
तो कुछ कर लूं—मौत
आती है, राजी
हो जाएं।
अगर
सब व्यर्थ हो
गया, तो
आदमी मौत के
लिए राजी हो
जाता है। जैसे
बुद्ध उस सांझ
सो गए, सुबह
क्या करेंगे,
यह भी सवाल
न रहा। ऐसे ही
अगर कोई मरते
क्षण में मर
जाए, बिना
यह सोचे कि अब
मर गए, कुछ
काम अधूरे रह
गए, कुछ
करने को पूरा
था, वह
पूरा नहीं हुआ,
दो दिन बच
जाते तो कुछ
पूरा कर लेते—ऐसा
कोई भाव न हो, मृत्यु सहज
उतर आए, जैसे
सांझ उतर आती
है और आदमी सो
जाता है—तो
मृत्यु भी
मुक्ति बन
जाती है। ऐसे
व्यक्ति को
मुक्त कहा है।
लेकिन
यह घटना कभी
जीवन के बीच
में भी घटती
है, और
आदमी मुक्ति
के बाद भी बच
जाता है। बचना
अलग कारणों पर
निर्भर है।
जब
आप पैदा होते
हैं तो शरीर
एक सीमित जीवन
लेकर पैदा
होता है।
सत्तर साल
चलेगा, अस्सी साल
चलेगा, लेकिन
अगर चालीस साल
की उम्र में
वह घटना घट जाए,
तो वे जो
चालीस साल बच
गए हैं, वह
शरीर तो पूरा
करेगा। आप तो
मर गए चालीस
साल में, लेकिन
शरीर तो अस्सी
साल में
मरेगा। आप तो
खतम हो गए
चालीस साल में,
लेकिन शरीर
चालीस साल और
चलेगा। वह
उसकी अपनी
योजना है, उसके
अपने अणुओं की
अपनी
व्यवस्था है।
वह जन्म के
साथ अस्सी साल
चलने की
क्षमता लेकर
पैदा हुआ, वह
अस्सी साल
चलेगा।
तो
बुद्ध मर गए, महावीर
मर गए चालीस
साल में, और
चालीस साल
शरीर और चला।
भीतर तो चलना
बंद हो गया, लेकिन शरीर
चलता रहा। ऐसे
ही, जैसे
कि आपके हाथ
पर घड़ी बंधी
है, आपने
उसमें चाबी भर
दी है, वह
सात दिन चलने
वाली है। और
आप जंगल में
भटक गए और गिर
गए और मर गए—आप
मर गए और घड़ी
चलती रही। घडी
में सात दिन
की चाबी थी, आपके मरने
से कोई फर्क
नहीं पड़ता।
घड़ी चलती रही
और टिक—टिक
करती रही।
आपका
शरीर तो एक
यंत्र है। आप
अगर परम ज्ञान
को उपलब्ध हो
जाएं तो आज ही
मर गए, लेकिन
शरीर टिक—टिक
करता रहेगा।
चालीस साल तक
वह जो शरीर
टिक—टिक करता
रहेगा और भीतर
की चेतना ऐसे
हो गई जैसे
नहीं है, ऐसी
अवस्था को जीवनमुक्त
कहा है।
'ब्रह्म और
आत्मा शोधा
हुआ, और
दोनों के
एकत्व में लीन
हुई वृत्ति
विकल्परहित
और मात्र
चैतन्य रूप
बनती है, तब
प्रज्ञा
कहलाती है।’
जब
बुद्धि किसी
और के संबंध
में नहीं
सोचती, सोचती ही
नहीं, असोच
हो जाती है, जब विचार
गिर जाते हैं
और केवल
विचारणा की
शक्ति भीतर रह
जाती है, जब
बुद्धि किसी
विषय के साथ
नहीं जुडती, शुद्ध! जैसे
कि कोई दीया
जल रहा हो, और
दीए से कोई
चीज प्रकाशित
न होती हो, बस
अकेला शून्य
में दीया जल
रहा हो—ऐसी जब
चेतना हो जाती,
तो उसके लिए
भारतीय शब्द
है प्रज्ञा।
तब आप
वास्तविक शान
की ज्योति को
उपलब्ध हुए।
और जिसमें ऐसी
प्रज्ञा सदा
जलती रहती है,
वह जीवनमुक्त
है।
'देह तथा
इंद्रियों पर
जिसको अहं—
भाव न हो, और
इनके सिवाय
अन्य
पदार्थों पर
यह मेरा है, ऐसा भाव न हो,
वह जीवनमुक्त
कहलाता है।’
ये
भाव तो गिर ही
जाएंगे। मेरा, मैं, ये
तो कब के गिर
गए। अहंकार के
गिरने के साथ
ही तो ज्ञान
हुआ। अब उसे
कुछ मेरा, कुछ
मैं से जुड़ा
हुआ नहीं
मालूम होता।
ऐसा चैतन्य यह
भी नहीं कहता
है कि
मैं
आत्मा हूं।
मैं की कहीं
भी कोई वृत्ति
नहीं जोड़ता; होना ही
शेष रह जाता
है। हम कहते
हैं मैं हूं ऐसा
व्यक्ति कहता
है हूं। मैं
गिर जाता है।
बस होना, शुद्ध
होना, प्योर
एमनेस, हूं—यही
स्थिति रह
जाती है। इस
हूं—पन को, इस
एमनेस को, जीवनमुक्त
अवस्था कहा
है। मैं तो
मिट जाए और
होना रह जाए, तो आप जीते
जी मोक्ष को
उपलब्ध हो गए।
प्रयास
इस दिशा में
वासनारहित हो, तो अभी यह
घटना घट सकती
है; वासनापूर्ण
हो, तो देर
लगती है।
आज इतना ही।
thank you guruji
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