शाक्य
और कोलीय
राज्यों के
बीच रोहिणी
नामक नदी के
पानी को रोककर
दोनों
जनपदवासी
खेतों की सिंचाई
करते थे। एक
बार ज्येष्ठ
मास में फसल
के सूखने को
देखकर दोनों
जनपदवासी
शाक्य और
कोलियों के
नौकर अपने—अपने
खेतों की
सिंचाई करने
के लिए रोहिणी
नदी पर आए।
दोनों ही पहले
अपने खेतों को
सींचना चाहते
हैं अत: दोनों
में झगड़ा हो
चला। यह समाचार
उनके मालिक
शाक्य और
कोलियों को
मिला। क्षत्रिय
तो क्षत्रिय! तलवारें
निकल गयीं। वे
सेना को साथ
लेकर तैयार
होकर युद्ध
करने के लिए
निकल पड़े
भगवान बुद्ध
रोहिणी तट पर
ही ध्यान करते
थे। उन्हें यह
खबर मिली। वे
आकर युद्ध को
तत्पर दोनों
सेनाओं के
मध्य मे खड़े
हो गए। शाक्य
और कोलियों ने
भगवान को
देखकर हथियार फेंक
वंदना की।
भगवान
ने कहा महाराज
यह कैसा झगड़ा
है?
किस बात के
लिए झगड़ा है? दोनों
राज्यों के
राजाओं ने कहा
भंते कारण हम नहीं
जानते। भगवान
ने पूछा फिर
कारण कौन जानता
है? अकारण
तलवारें
निकाल ली हैं!
कारण भी न
पूछा! कारण तो
खोज लेते!
उन्होंने कहा
शायद
सेनापतियों
को पता हो
सेनापतियों
ने उप— सेनापतियों
की ओर इशारा
किया उप—
सेनापतियों
ने सैनिकों की
ओर और अंतत:
बात नौकरों पर
पहुंची तब
कहीं कारण का
पता चला।
नौकरों ने कहा
भंते पानी के
कारण। बुद्ध
ने कहा पानी
के कारण!
पानी तो सदा
से बहता है
यहां लड़े तुम
आज झगडा पानी
के कारण नहीं
हो सकता।
नौकरों ने कहा
समझें भंते
पहले कौन
उपयोग करे। तो
बुद्ध ने. कहा
पहले के कारण!
पानी के कारण
नहीं। प्रथम कौन
हो! पानी को
दोष मत दो।
बुद्ध
हैंसे और
उन्होंने
शाक्यों और
कोलियों के
प्रधानों से
पूछा महाराज
पानी का क्या
मूल्य है?
राजा बहुत
लज्जित हुए
शरमाते बोले
अल्पमात्र
भंते न कुछ।
पानी का क्या
मूल्य है! और
मनुष्यों का बुद्ध
ने पूछा राजा
और भी सकुचाए
और बोले अमूल्य
भंते मनुष्य
से ज्यादा
मूल्यवान और
क्या है!
बुद्ध ने कहा
तो फिर सोचो
अल्पमात्र
मूल्य के लिए
अमूल्य को
मिटाने चले हो?
पानी के लिए
खून बहाने चले
हो? और नदी
ऐसी ही बहती
रहेगी। तुम
गिरोगे कटोगे
मरोने; और
नदी ऐसी बहती
रही ऐसी ही
बहती रहेगी और
नदी को पता भी
न चलेगा। असार
के लिए सार को
गंवाते हो?
कंकड़— पत्थरों
के लिए हीरे—
जवाहरात
फेकने चले हो?
इसीलिए
तुम्हारे
जीवन में दुख
है चिंता है
अंधकार है।
मुझे देखो
मेरे महासुख
को देखो क्या
है इसका राज? यही कि मैं
वैररहित
विहरता हूं
यही कि सार को मैं
सार और असार
को असार देखता
हूं।
और
तब उन्होंने
ये तीन गाथाएं
कहीं।
तो
पहले तो इस
कहानी के
एक—एक शब्द को
समझें। शास्त्रों
में जो
बोधकथाएं हैं, वे
ऐसे ही पढ़
लेने के लिए
नहीं हैं।
उनके शब्द—शब्द
में अर्थ है
और पर्त—पर्त
अर्थ है। एक
पर्त उघाड़ोगे
तो दूसरा पर्त
अर्थ मिलेगा।
और जितने गहरे
जाओगे कथा में,
उतने ही
चौकोगे कि तुम
सीढ़ी दर सीढ़ी
उतरते जा सकते
हो।
पहली
बात,
झगड़ा हुआ
नदी के तट पर
नौकरों में।
झगड़ा हुआ नौकरों
में और मालिक
खिंचे चले आए।
तो नौकर मालिक
मालूम होते
हैं और मालिक
नौकर मालूम होते
हैं। यह पहली
बात खयाल में
लेने जैसी है।
और यह मनुष्य
के संबंध में
बड़ी गहरी बात
है। कहानी में
तुम्हें शायद
सीधी साफ हो
भी न सके, क्योंकि
ये कहानियां
ध्यान के विषय
हैं। इन
कहानियों पर खूब
ध्यान कोई करे
तो इनकी पर्तें
उघड़ती हैं।
पहली
पर्त, आंखें, हाथ, नाक,
कान नौकर
हैं और मालिक
इनके पीछे
खिंचा हुआ चला
आता है। आख ने
कह दिया
सौंदर्य है और
तुम चले, दीवाने
हुए! और
तुम्हें पता
भी नहीं है कि
सौंदर्य है या
नहीं। आख ने
कह दिया, आख
पर भरोसा कर
लिया। कान ने
कह दिया और
कान पर भरोसा
कर लिया, स्वाद
ने कह दिया और
स्वाद पर
भरोसा कर
लिया। ऐसे
नौकर—चाकरों
के वश में
मालिक घिसटता
है। और जिस
दिन तुमसे कोई
पूछेगा गहरे
में कि ऐसा तुमने
क्यों किया, तुम कहोगे, कारण पता
नहीं।
तुमने
देखा नहीं, कोई
आदमी किसी के
प्रेम में पड़
जाए, पूछो
उससे—क्यो? वह कंधे
बिचकाता है।
वह कहता है, क्यों का तो
कुछ पता नहीं!
एक आदमी धन के
पीछे पागल
होकर दौड़ रहा
है, पूछो—क्यों?
शायद वह कहे,
चूंकि सब
लोग दौड़ रहे
हैं, सारी
दुनिया दौड़
रही है, इसलिए।
और भी दौड़ रहे
हैं, इसलिए।
एक आदमी पद के
लिए पागल है, पूछो—क्यों?
शायद साफ
उसे हो ही न।
इंद्रियों ने
कुछ खबरें दी
हैं, इंद्रियों
की खबरों को
मानकर भीतर का
मालिक चल पड़ा
है।
तो
शाक्य और
कोलियों के
राज्य के बीच
रोहिणी नामक
नदी के पानी
को रोककर
दोनों
जनपदवासी खेतों
की सिंचाई
करते थे।
दूसरी बात, यहां
हम सब एक ही
जीवन को भोग
रहे हैं।
इसलिए झगड़ा तो
प्रतिपल हो
सकता है। क्योंकि
हर एक के बीच
वही नदी बह
रही है—उसी से
जल मुझे लेना,
उसी से जल
तुम्हें
लेना। जीवन एक
है। तो हम सब पड़ोसी
हैं।
जीसस
का बहुत
प्रसिद्ध वचन
है. अपने
पड़ोसी को ऐसा
ही प्रेम करो
जैसा अपने को।
और एक दूसरा वचन
है कि अपने
दुश्मन को ऐसा
ही प्रेम करो
जैसा अपने को।
संत अगस्तीन
से किसी ने
पूछा कि दोनों
वचन एक से लगते
हैं और फिर भी
बड़े भिन्न
हैं। एक तरफ
जीसस कहते हैं, अपने
पड़ोसी को ऐसा
प्रेम करो
जैसा अपने को,
और एक दफे
कहते हैं, दुश्मन
को ऐसा प्रेम
करो जैसा अपने
को। तो अगस्तीन
ने कहा, जहा
तक मैं समझता
हूं दुश्मन और
पडोसी दोनों एक
ही के नाम
हैं। जो पडोसी
है, वही तो
दुश्मन है।
तुमने
खयाल किया, तुम्हारा
दुश्मन है कौन?
तुम्हारा
पड़ोसी। जो दूर
है, उससे
तो दुश्मनी
नहीं होती। जो
पड़ोस में है, उससे
दुश्मनी होती
है। क्योंकि
एक ही जीवन की नदी,
उस पर दोनों
दावेदार।
छोटी—छोटी बात
पर झगड़ा हो
जाता है।
बातें ही क्या
हैं! झगड़े के
लिए कारण भी
कहां हैं!
झगड़े योग्य
कारण कहा हैं!
तुम लड़े किन
छोटी—छोटी
बातों पर हो!
कभी किसी ने
आधा फुट जमीन
दबा ली, झगड़ा
हो गया! तुमने
कभी सोचा भी
नहीं है कि
झगड़कर तुम क्या
गंवा रहे हो!
और एक बात तो
स्वीकार करने
की ही है कि यह
जीवन हमारा
साझी का जीवन
है, हम सब
एक ही जीवन जी
रहे हैं।
तो
नदी तो एक है, जल
सबको पीना है,
प्यासे सब
हैं, और
स्वभावत:
छीना—झपटी हो
सकती है।
लेकिन छीना—झपटी
करने में
मूढ़ता है, मूर्च्छा
है। दोनों
जनपदवासी एक
ही नदी के जल
से अपने खेतों
को सींचते हैं।
एक
बार ज्येष्ठ
मास में फसल
के सूखने को
देखकर दोनों
जनपदवासी
शाक्यों और
कोलियों के
नौकर अपने—
अपने खेतों की
सिंचाई के लिए
नदी पर गए। दोनों
ही पहले अपने
खेतों को
सींचना चाहते
थे। अब पहले
से कुछ
लेना—देना
नहीं है खेत
सींचना असली
बात होगी।
असली बात है
कि खेत सूख
रहा है, धूप
घनी है, जेठ
की दुपहरी है,
पानी देना
जरूरी है।
असली बात पानी
देना है, पहले
और पीछे का
कोई भी मूल्य
नहीं है।
लेकिन
जीवन के सारे
झगड़े पहले और
पीछे के झगड़े
हैं। इतना हम
भूल जाते हैं
पहले—पीछे में
कि खेत—मेत तो
एक तरफ पडे रह
गए—जब झगड़ा ही
शुरू हो गया
तो नदी से
किसी ने भी
पानी नहीं
लिया! खेत
प्यासे के
प्यासे खड़े
हैं,
खेत रोते के
रोते खड़े हैं,
यहां दूसरी
ही बात चल
पड़ी। कई बार
ऐसा होता है कि
मूल कारण तो
एक तरफ पडा रह
जाता है, व्यर्थ
की बातें बीच
में आ जाती
हैं। फिर हम
मूल को तो भूल
ही जाते हैं।
फिर हम उन
व्यर्थ पर ही
जूझते रहते
हैं। पहले और
पीछे का सारा
झगड़ा है। सारी
प्रतियोगिता
इस बात की है
कि कौन पहले।
जीसस
का दूसरा
प्रसिद्ध वचन
है कि जो
अंतिम हैं, जो
अंतिम होने
में समर्थ हैं,
वे ही मेरे
प्रभु के राज्य
के मालिक
होंगे। जो
अंतिम होने
में समर्थ हैं।
इस
जगत में सबसे
बड़ी सामर्थ्य
है,
अंतिम होने
की सामर्थ्य।
प्रथम तो कोई
भी पागल होना
चाहता है।
प्रथम होने
में कुछ
विशिष्टता
नहीं है, सभी
प्रथम होना
चाहते हैं।
प्रथम होना तो
बड़ी सार्वजनिक
बीमारी है।
प्रथम होने का
पागलपन तो सभी
पर चढ़ा है। और
यह प्रथम होने
के पागलपन को
ही मैं
राजनीति कहता
हूं।
इसलिए
राजनीति सारे
झगड़ों का मूल
आधार है। जब तक
दुनिया से
प्रथम होने का
रोग नहीं जाता, तब
तक दुनिया से
राजनीति नहीं
जाएगी। और जब
तक राजनीति
नहीं जाती, तब तक युद्ध
नहीं जाएंगे।
तब तक हिंसा
नहीं जाएगी।
लाख समझाओ
अहिंसा, इससे
कुछ भी न
होगा। तुम
हिंसा का
सूत्र पकड़ो, हिंसा का
सूत्र है. मैं
पहले। अहिंसा
का —सूत्र है.
मैं अंतिम
होने को राजी
हूं। क्योंकि
असली सवाल
होने का है।
आखिर में खड़ा
हो जाऊंगा, सबसे पीछे
खड़ा हो जाऊंगा,
वहां खड़ा हो
जाऊंगा जिस
जगह से कोई
धक्का देने को
आए ही नहीं।
पहले
का झगड़ा था।
और जब पहले का
झगड़ा हो तो
पानी भी गौण
हो गया खेत भी
गौण हो गए—खेत
और पानी तो छोड़ो, जिनके
लिए खेत की
सिंचाई की जा
रही थी, वे
मनुष्य भी गौण
हो गए। जिनके
लिए भोजन
जुटाने के लिए
खेत खड़े थे, वे मनुष्य
भी गौण हो गए।
झगड़ा हो चला।
क्या
है झगड़ा सारी
दुनिया में? रूस
का अमरीका का
झगडा क्या
होगा? भारत—पाकिस्तान
का झगड़ा क्या
होगा? चीन—तिब्बत
का झगड़ा क्या
होगा? इजराइल—इजिप्त
का झगडा क्या
है? वही
झगड़ा है। उसी
झगड़े की यह
कहानी है। और
जब इक्का—दुक्का
आदमी पागल
होता है तब तो
हम पहचान लेते
हैं, जब
भीड़ पागल होती
है तो पहचानना
बहुत मुश्किल हो
जाता है। जब
समूह के समूह
पागल हो जाते
हैंतो
पहचानना बहुत
मुश्किल हो
जाता है।
मनोवैज्ञानिक
कहते हैं, जब
तब ही देखते
व्यक्तियों
में हम पागल, पर समूह का
तो पागलपन
नित्यधर्म
है। कभी—कभी
कोई आदमी पागल
होता है, लेकिन
समूह तो सदा
से पागल रहे
हैं। हिंदू
धर्म पर खतरा
है और हिंदू
पागल हैं!
इस्लाम पर खतरा
है और इस्लाम
को मानने वाले
पागल! देर
नहीं लगती
पागल होने
में। आदमी
निजी रूप से
तो पागल कभी—कभी
होता है, लेकिन
सशिहक रूप से
तो पागल है ही।
जब
खबर पहुंची
होगी मालिकों
तक,
राजाओं तक
कि नौकरों में
झगड़ा हो गया, कि उनके
नौकरों ने
हमारे नौकरों
को मार दिया, कि हमारे
नौकरों को
पछाड़ दिया—ऐसी
अफवाहें पहुंची
होंगी। सत्य
तो पहुंच नहीं
सकता, पागलों
के हाथ में
सत्य के
पहुंचने का तो
कोई उपाय नहीं
है। कुछ का
कुछ हो जाता
है। एक मुंह
से दूसरे मुंह
गया कि बदल
जाता है।
एक
स्त्री एक
झगड़े का वर्णन
अपनी पड़ोसिन
को कर रही है।
पड़ोसिन ने बड़ी
उत्सुकता से
सुना। झगडों
में हमें रस
है। बड़ा रस
लेकर सुना।
बेटा उसका रो
रहा है, परेशान
हो रहा है, मगर
उसने फिक्र
छोड़ दी, झगड़े
की बात पहले
सुनी। जब पूरी
बात हो गयी तो
उसने कहा, अरे
और भी कहो, थोड़ा
और विस्तार से
कहो। सुनाने
वाली स्त्री ने
कहा कि जितना
मैंने देखा, उससे दुगुना
तो मैं बता ही
चुकी, अब
और क्या
विस्तार!
बात
बढ़—चढ़कर
पहुंची होगी, खूब
बढ़—चढ़कर
पहुंची होगी,
कि मार—काट
हो गयी, कि
खून बह गया, कि बड़ा
अपमान हो गया।
तलवारें खिंच
गयीं— क्षत्रिय
तो क्षत्रिय!
यह
समाचार जब
मालिकों ने
सुना तो वे
पागल हो उठे।
सेनाएं तैयार
हो गयीं, युद्ध
के बैंड बज गए,
नदी के
दोनों तट पर
सेनाएं खड़ी हो
गयीं। भगवान
ने यह खबर
सुनी। वे पास
ही एक वृक्ष
के नीचे बैठे
यह सब देख रहे
हैं, यह जो
हो रहा है।
यहां जिसे
देखना हो, इस
जगत का खेल, उसे बैठकर
ही देखना पड़ता
है। अगर तुम
इसमें सम्मिलित
हुए तो देख
नहीं सकते।
सम्मिलित
होने वाला तो
अंधा हो जाता
है। सम्मिलित
होने वाले की
आंखें तो
धुंधली हो
जाती हैं।
क्योंकि सम्मिलित
होने वाला
पक्षपात से भर
जाता है।
निष्पक्ष बैठे
थे। दोनों तरफ
उनके प्रेमी
थे। दोनों तरफ
उनको मानने
वाले थे, दोनों
राज्यों में
उनके प्रति
लगाव था। वे
सबके थे। तो
कोई पक्षपात
तो न था।
पक्षपात
हो सकता था, क्योंकि
ऐसे तो वे
शाक्य—कुल से
आते थे। इसलिए
उनका एक नाम
है, शाक्य
मुनि। शाक्य
सम्मिलित थे
इस झगड़े में, एक पक्ष
शाक्यों का था,—
दूसरा
कोलियों का
था। अगर बुद्ध
ने ऐसा देखा होता
कि मैं शाक्य,
तो फिर न
देख पाते, तो
जो देखते वह
गड़बड़ हो जाता।
अगर
तुमने देखा
मैं हिंदू तो
तुम जो देखोगे
वह चूक हो
जाएगी। तुमने
देखा मैं
मुसलमान, तुम
जो देखोगे चूक
जाओगे। तुमने
देखा मैं भारतवासी,
तो
तुम्हारी आख
फिर सच्ची आख
नहीं रह
जाएगी। आख तो
उसी के पास
होती है जिसके
पास कोई
पक्षपात नहीं
है।
बैठे
होंगे वृक्ष
के नीचे शांत, ना—कुछ,
शून्यवत, जैसे दर्पण
होता है। यह
सब देखा, यह
सब मूढ़ता दिखायी
पड़ी। जब भी
तुम शांत होकर
देखोगे, तुम्हें
मूढ़ता दिखायी
पड़ेगी, चारों
तरफ कूता
दिखायी
पड़ेगी। तुम
चकित हो—हो उठोगे
कि यह क्या हो
रहा है! लेकिन
जब तक नौकर लड़ते
थे तब तक ठीक
था, जब
देखा कि अब तो
मालिक भी आ गए,
तलवारें
खिंच गयीं, मार—काट
होने की
तैयारी हो गयी
तो बुद्ध उठे,
बीच में आकर
खड़े हो गए।
शाक्य
और कोलियों ने
भगवान को
देखकर हथियार
फेंक वंदना
की। ऐसी इस
देश की परंपरा
है कि जब बुद्ध
जैसा व्यक्ति
खड़ा हो जाए, तो
क्षणभर को ही
सही, हम
अपना पागलपन
छोड़ते हैं।
क्षणभर को ही
छोड़ते हैं, ज्यादा देर
हम छोड़ नहीं
सकते, क्योंकि
पागलपन हमारे
खून में मिला
है। लेकिन इस
देश की परंपरा
है। अगर ऐसा
बुद्ध ने किसी
और देश में
किया होता, तो खुद भी कट
जाते। वे
तलवारें
गिरने वाली
नहीं थीं। इस
देश के
संस्कार!
बुद्धों के
साथ इस देश का
लगाव, बुद्धों
के साथ इस देश
का सत्संग
पुराना है। वह
भी हमारे खून
में सम्मिलित
हो गया है।
भला हम कितने
ही पागल हों, लेकिन
कभी—कभी एक
क्षण को किरण
उतरती है।
बुद्ध को बीच
में खड़ा देखकर
वे भी भूल गए
कि क्या कर रहे
हैं। और जब
बुद्ध को
प्रणाम करने
हों तो शस्त्र
तो फेंक देने
होते हैं।
शस्त्रों से
भरे हाथ तो
प्रणाम करने
वाले हाथ नहीं
हो सकते।
क्योंकि जहां
हिंसा है वहां
तो प्रणाम
नहीं हो सकता।
जहां हिंसा है
वहा तो
बुद्धपुरुषों
के चरणों में
झुकने का कोई
अर्थ ही नहीं
होता, क्योंकि
हिंसा तो
झुकना जानती
ही नहीं। सिर्फ
अहिंसा झुकना
जानती है।
इसलिए जो
समर्पित है, अहिंसक हो
जाएगा, जो
अहिंसक है, समर्पित हो
जाएगा। एक
क्षण को बिजली
की तरह कौंध
गयी, बुद्ध
को बीच में
देखकर दोनों
ने तलवारें
फेंक दीं।
बुद्ध
ने पूछा, महाराज,
यह कैसा
झगड़ा है! किस
बात के लिए
झगड़ा है? बुद्ध
देख रहे हैं
कि बात न कुछ
है। बात तो
सदा ही न कुछ
है। तुम अपने
जीवन में ही
देखना कि झगड़ा
क्या है?
कभी—कभी
मेरे पास आ
जाते हैं, पति—पत्नी
आ जाते हैं कि
बहुत झगड़ा हो
गया, अला।
होना चाहते
हैं। मैं उनसे
पूछता हूं जरा
कारण भी बताओ।
तो वे दोनों
ही सकुचाते
हैं, कारण
कोई बताना
नहीं चाहता।
वे कहते हैं, अब कारण
क्या है, कारण
तो कुछ खास
नहीं है। जब
मैं जिद्द
करता हूं,
कारण बताओ, तो वे बड़े
हैरान होते
हैं, कि आप
जिद्द क्यों
कर रहे हैं
—कारण, क्योंकि
कारण तो कुछ
भी नहीं है।
कारण बहुत छोटा
हो सकता है।
अगर
तुम अपने जीवन
के उपद्रवों
के कारण की
खोज में जाओगे, तो
आखिर में तुम
सदा ऐसी ही' कोई क्षुद्र
बात पाओगे।
लेकिन
क्षुद्र को तूल
मिल जाता है।
मैंने
सुना है, अमरीका
की एक
अभिनेत्री ने
विवाह किया—वह
उसका दसवा
विवाह था। और
जब चर्च में
उन दोनों ने रजिस्टर
में दस्तखत
किए, तो
दस्तखत करते
ही उसने चर्च
के पादरी से
कहा कि नहीं, मुझे तलाक
चाहिए। अभी
शादी के ही
दस्तखत हुए थे,
अभी
हस्ताक्षर
हुए ही थे!
पादरी भी
चौंका, उसने
कहा कि तलाक
मैंने भी बहुत
देखे हैं, मगर
यह तो बहुत
जल्दी हो गयी।
अभी दस्तखत की
स्याही भी
नहीं सूखी है।
इतनी जल्दी
तलाक का कारण
क्या है? और
मैं मौजूद हूं
अभी कोई
तुममें झगड़ा
भी नहीं हुआ
है। उसने कहा
कि झगड़ा हो
गया। इस आदमी
ने दस्तखत
मुझसे बड़े किए
हैं। यह झंझट
की बात है। इतने
बड़े —बड़े
अक्षर में
दस्तखत किए
हैं, यह
कुछ दिखाना
चाहता है अपना
रोब। यह बात
ही गलत शुरू
हो गयी, इसमें
मैं जाना नहीं
चाहती, इस
झंझट में मैं
पड़ना नहीं
चाहती।
ऐसी
छोटी बात पर
झगडा हो सकता
है कि किसी ने
दस्तखत जरा
बड़े कर दिए
हैं। तुम जरा
जीवन का
निरीक्षण
करना।
बुद्ध
बैठे देख रहे
थे कि बात कुछ
बात जैसी नहीं
है। बतंगड़ है, —बात
नहीं है। पूछा,
महाराज, यह
कैसा झगडा है?
और किस बात
के लिए झगड़ा
है? दोनों
राज्यों के
राजाओं ने कहा,
भंते, कारण
हम नहीं जानते
हैं।
कारण
तो यहां किसी
को भी पता
नहीं है कि
झगड़े क्यों हो
रहे हैं। आदमी
झगड़ना चाहता
है तो कारण
खोज लेता है।
कारणों से
थोड़े ही झगड़
रहा है। झगड़े
के लिए कारण
ईजाद करता है।
फिर कहता है, कारण
है, इसलिए
झगड़ा कर रहा
हूं। लेकिन
तुम कभी खोजना,
अपने ही
भीतर, तुम
जब झगड़ा करने
की वृत्ति में
होते हो, तब
तुम कोई भी
कारण खोज लेते
हो। कोई भी
कारण! घर आए और
सब्जी में नमक
कम है, बस
पर्याप्त
कारण है। कि
तुमने थाली
फेंक दी। हालांकि
इतनी सी बात
से थाली
फेंकने का कोई
अर्थ न था। कि
चाय ठंडी हो
गयी है। कि
सुबह तुम्हें
तुम्हारे
जूते बिस्तर
के पास नहीं
मिले। कोई भी
छोटी बात!
लेकिन अगर तुम
झगड़ा करने को
आतुर हो, तो
पर्याप्त है।
सच
तो यह है कि
अगर तुम्हारी
झगड़े की
आतुरता न होती, तो
शायद बात
तुम्हें
दिखायी भी न
पड़ती। तुम्हारी
झगड़े की
आतुरता के
कारण ही कोई
भी कारण खूंटी
बन जाता है, फिर उस पर
तुम टल देते
हो। और कारण
को तुम बहुत बड़ा
करके बताने
लगते हो। ताकि
जिम्मेवारी
भी अपने ऊपर न
रह जाए।
जिम्मेवारी
भी दूसरे पर
थोप देते हो
कि हम क्या
करें, मजबूरी
थी। दूसरे ने
मजबूर कर दिया
था।
कारण
हम नहीं जानते, उन्होंने
कहा। तो भगवान
ने पूछा, फिर
कारण कौन
जानता है! तो
सेनापतियों
को शायद पता
हो, उन्होंने
कहा। अब तो
उन्हें खुद भी
शक हो गया था, इसलिए कहा, शायद! और
सेनापतियों
ने
उप—सेनापतियों
को और उप—सेनापतियों
ने सैनिकों को,
और आखिर में
बात नौकरों पर
पहुंची।
अब
नौकर राजाओं
को लड़वाते
हैं। पर यही
हो रहा है, पूरे
जीवन में यही
हो रहा है।
नौकर ही
तुम्हें लड़वा
रहे हैं, उलझा
रहे हैं। कोई
ज्यादा खाए
चला जाता है।
डाक्टर कहते
हैं, मत
खाओ, ज्यादा
खाओगे मरोगे,
बीमारी
होगी, यह
होगा, वह
होगा। लेकिन
जीभ की मानता
है, डाक्टर
की नहीं
मानता।
मुल्ला
नसरुद्दीन की
आंखें खराब
हुई जा रही
थीं। तो डाक्टर
ने उससे कहा
कि अब तुम
शराब पीना बंद
कर दो। अगर
तुमने अब शराब
पी,
तो फिर
देखने की
क्षमता खो
दोगे। मुल्ला
उठ बैठा, चलने
को हुआ, तो
डाक्टर ने
पूछा, तुमने
कुछ जवाब नहीं
दिया। मुल्ला
ने कहा, देखो
डाक्टर साहब,
देखने
योग्य जो था
मैं पहले ही
देख चुका हूं
अब देखने को
बचा भी क्या
है! शराब
छोड़ने की मत
कहो, देखने
को बचा ही
क्या है! मगर
शराब की लत!
आंखें
जाएं, प्राण
जाएं, कुछ
भी जाए, हम
छोटी—छोटी
लतों को—और
छोटी—छोटी लते
नौकरों की
डाली हुई लते
हैं। कोई
स्वाद के पीछे
दीवाना है, कोई रूप के
पीछे दीवाना
है, कोई
किसी और चीज
के पीछे
दीवाना
है—दीवानगिया अलग—
अलग होंगी, लेकिन
दीवानगी है।
नौकरों
ने कहा, भंते,
पानी के
कारण। वह भी
बात सच नहीं
है, क्योंकि
पानी तो सदा
से बहता रहा
है, झगड़ा
आज उठा है। और
पानी तो कल भी
बहता रहेगा। तो
झगडा पानी के
कारण नहीं हो
सकता।
इस
पर खयाल देना।
जब तुम किसी
बात को कारण
बताओ तो खयाल
देना वह असली
कारण है? या कि
कारण कहीं और
छिपा है? यह
भी नकली कारण
है। असली कारण
नौकरों को भी
पता नहीं है।
जिनसे झगड़े की
शुरुआत हुई है,
उनको भी
असली कारण पता
नहीं है। इस
जीवन में हम
मूर्च्छित जी
रहे हैं, बेहोश,
नींद में चल
रहे हैं। हमें
कुछ भी पता
नहीं है, हम
क्यों कुछ कर
रहे हैं।
बुद्ध
हंसे और
उन्होंने कहा, पानी
के कारण! या कि
पहले कौन? तब
मूल कारण पकड
में आ गया। और
खयाल रखी, जब
मूल कारण पकड़
में आ जाए तब
बदलाहट संभव
हो जाती है।
पहले कौन? पहले
कौन का अर्थ
है, अहंकार
मूल कारण है।
क्योंकि पहले
जो वही बड़ा, पहले जो वही
शक्तिशाली
है। पीछे जो
वह छोटा। फिर
भी बुद्ध ने
कहा प्रधानों
से कि महाराज,
एक बात
पूछनी है, पानी
का कितना
मूल्य है? राजा
लज्जित हुए, शर्माए—अल्पमात्र,
भंते!
अब
बुद्ध के
सामने झूठ
एकदम बोला भी
नहीं जा सकता।
यही गुरु के
सान्निध्य का
अर्थ है। जिसे
तुम अकेले में
शायद न देख
पाओ,
वह गुरु के
सान्निध्य
में सुगमता से
दिख जाएगा।
जिसे तुम शायद
अकेले में
झुठला देते, शायद अपने
को समझा लेते,
इधर—उधर की
बातों में
उलझा लेते, वह गुरु के
सामने स्पष्ट
हो जाएगा।
बुद्ध की
मौजूदगी में
बात तो
सीधी—साफ थी।
बात तो अकेले
में भी सीधी—साफ
थी, लेकिन
अकेले में तुम
ही बचते, तब
तुम उसे झुठला
लेते, रंग
लेते। लेकिन
बुद्ध के
सामने तो
उन्हें स्वीकार
करना पड़ा।
लज्जित
भाव से
उन्होंने कहा, अल्पमात्र,
भंते! न
कुछ। कुछ
मूल्य पानी का
तो है नहीं।
और मनुष्यों
का, बुद्ध
ने कहा। बहुत
मूल्य है, अमूल्य
हैं मनुष्य, मूल्य कूता
नहीं जा सकता,
इतना मूल्य
है मनुष्य का।
तो उन्होंने
कहा, फिर
सोचो, अल्पमात्र
मूल्य के लिए
अमूल्य को
मिटाने चले हो?
यह कैसा
सौदा! असार के
लिए सार को
गंवाते हो?
पर
हम यही कर रहे
हैं।
तुम्हारी
चेतना तुम कहां—कहां
उलझाए हो!
कूड़े—करकट
में! तुम अपनी
आत्मा को
कहां—कहां
गंवाए हो! जहा
से कुछ मिलने
को नहीं है, जहा
से कुछ कभी
किसी को मिला
नहीं। और तुम
भी जानते हो।
तुम्हारे
भीतर भी
कभी—कभी
बुद्धिमानी
के क्षण झांकते
हैं और तुम
जानते हो कि
वहा से
तुम्हें भी
कुछ न मिलेगा।
सिकंदर को न
मिला, नेपोलियन
को न मिला, अकबर
को न मिला, तुम्हें
कैसे मिलेगा?
किसी को
नहीं मिलता, मिलता ही
नहीं, वहा
है ही नहीं।
लेकिन
धन आदमी
इकट्ठा करता
है और आत्मा
को गवाता है, जीवन
को गंवाता है।
पद पर चढ़ता
चला जाता है
नसैनी लगाकर।
पदों पर चढ़ता
चला जाता है।
इधर हाथ से
जीवन खिसकने
लगता है, वहां
तिजोड़ी भरती
चली जाती है।
एक दिन अचानक
तुम पाते हो, मौत आ गयी।
जीवन भी गया
और जो जोड़ा था
जीवन को देकर,
वह भी गया।
इस
जगत से बहुत
हारे हुए लोग
लौटते हैं।
बुरी तरह हारे
हुए लोग लौटते
हैं।
जिन्होंने
किसी तरह का
संबंध राम से
नहीं जोड़ लिया, वे
बुरी तरह हारे
हुए लौटते
हैं।
जिन्होंने किसी
तरह अपने भीतर
की ज्योति से
संबंध नहीं जोड़
लिया, जो
जागे नहीं, वे बुरी तरह
हारे हुए
लौटते हैं।
असार को पकड़ते
और सार को
छोड़ते! कंकड़—पत्थरों
के लिए हीरे
—जवाहरात
फेंकने चले हो?
इसलिए
तुम्हारे
जीवन में दुख
है, चिंता
है, अंधकार
है।
बुद्ध
ने इस छोटी सी
घटना को खूब
उपयोग का बना लिया।
यही बुद्धों
की कला है। यह
छोटी सी बात थी, उसको
एक उपदेश का
आधार बना
लिया। एक छोटी
सी बात को बड़ा
दूरगामी इशारा
बना लिया, तीर
बना लिया।
कहा, यही
तुम्हारे
जीवन में दुख,
चिंता और
अंधकार का
कारण है। मुझे
देखो, मेरे
महासुख को
देखो यही तो
सारे सदगुरु
कहते रहे हैं,
मुझे देखो,
मेरे
महासुख को
देखो।
क्या
है इसका राज?
यही कि
मैं वैररहित
विहरता हूं।
यही कि
मेरी
किसी
से शत्रुता न
रही।
यही कि
मैं सार को
सार
और
असार को असार
देखता हूं।
इसलिए
कोई चिंता न
रही,
कोई पीड़ा न
रही, कोई
झगड़ा न रहा, कोई वैमनस्य
न रहा।
इस
बात को एक और
गहरे तल पर
देखना। जब
बुद्ध कहते
हैं कि मैं
वैररहित
विहरता हूं? तो
तुम्हारे मन
में इतना ही खयाल
आएगा कि वह
किसी से
शत्रुता नहीं
रखते। इसके एक
भीतर और छिपा
हुआ खयाल
है—वह शत्रुता
ही नहीं रखते।
दूसरे की तो
बात ही छोड़ दो,
अपने भीतर
भी अपने से भी
किसी तरह की
शत्रुता नहीं
रखते। अक्सर
ऐसा होता है
कि तुम अपने
से तो शत्रुता
रखते रहते हो,
दूसरों से
छोड़ देते हो।
जैसे एक आदमी
सब छोड़ देता
है, वह
कहता है, मेरी
किसी से कोई
शत्रुता नहीं
है, अब
किसी से
मुकदमा न
लडूंगा, लेकिन
अपने से लड़ाई
जारी रखता है।
अभी क्रोध है,
इससे लड़ना
है, अभी
मोह है, इससे
लड़ना है; अभी
लोभ है, इससे
लड़ना है, अभी
अहंकार है, इससे लड़ना
है, तो शत्रुता
तो जारी है, दुश्मन बदल
गए।
बुद्ध
यह नहीं कहते
हैं कि मेरे
बाहर दुश्मन नहीं
हैं। बुद्ध
कहते हैं, मैं
वैररहित
विहरता हूं
—इस बात को
समझना—मैं निवैंर
हो गया हूं।
दूसरों से तो
वैर गिर ही गया,
अपने से भी
गिर गया, वैर
ही गिर गया।
ऐसी जो निवैंर
दशा है, वही
महासुख की दशा
है।
पहले
तो दूसरों से
वैर छोड़ना है, ठीक
है। मगर यह मत
सोचना कि
दूसरों से वैर
छोड्कर वैर
अपने से कर
लेना है। एक
आदमी दूसरे को
भूखा मारने
में मजा लेता
है और एक आदमी
उपवास करने
में मजा लेने
लगता है, इन
दोनों में
बहुत भेद नहीं
है। जो दूसरे
को भूखा मारकर
सता रहा है
उसका मजा, और
जो अपने को
भूखा मारकर
सता रहा है
उसके मजे में
कुछ बहुत फर्क
नहीं है।
थोड़ा सा फर्क
है, वह
फर्क बहुत
खतरनाक भी है।
वह फर्क इतना
ही है कि
दूसरा तो भाग
भी सकता था, दूसरा तो लड़
भी सकता था', दूसरा तो
कोई उपाय भी
खोज लेता बचने
का, लेकिन
तुम तो बिलकुल
निरीह हो गए।
तुम्हीं अपने
को भूखा मार
रहे हो तो
कैसे बचोगे, किससे बचोगे,
कहां जाओगे
बचकर? तो
तुमने तो बड़ा
असहाय शत्रु
चुन लिया।
एक
आदमी दूसरों
को पीड़ा देने
में रस लेता
है. मनोवैज्ञानिक
पागलों की दो
कोटियां करते
हैं। एक को वे
कहते हैं
सैडिस्ट और एक
को कहते हैं
मैसोचिस्ट।
एक को वे कहते
हैं
स्वदुखवादी, वह
खुद ही को
सताता है, मैसोचिस्ट।
और एक को वे
कहते हैं
परदुखवादी, वह दूसरे को
सताता है, सैडिस्ट।
तुम
जिनको साधु
—संत कहते हो, उनमें
से अधिक, निन्यानबे
प्रतिशत तो
मैसोचिस्ट
हैं। वे वस्तुत:
साधु—संन्यासी
नहीं हैं।
साधु
—संन्यासी तो
कहेगा, देखो,
मेरे
महासुख को
देखो।
साधु—संन्यासी
का तो सारा
वैर गिर गया।
दूसरे से तो
गिरा ही गिरा,
अपने से भी
गिर गया। वैर
बचा ही नहीं।
निवैंर— भाव
की दशा
संन्यास है।
तब उन्होंने
ये तीन गाथाएं
कहीं—
'वैरियों के
बीच अवैरी
होकर, अहो,
हम
सुखपूर्वक
जीवन बिता रहे
हैं। '
देखना, इन
सूत्रों की
वाका रचना भी
स्पष्ट करती
है जो मैं कह
रहा हूं। पहले
बुद्ध कहते
हैं, 'वैरियों
के बीच अवैरी
होकर, अहो,
हम
सुखपूर्वक
जीवन बिता रहे
हैं।’ फिर
कहते हैं, 'वैरी
मनुष्यों के
बीच अवैरी
होकर हम विहार
करते हैं। '
इसलिए
बुद्ध यह कह
रहे हैं कि जब
तक तुम अपने भीतर
अवैर को
उपलब्ध नहीं
हुए,
तब तक तुम
बाहर भी अवैर
को उपलब्ध
नहीं हो सकते।
अगर भीतर वैर.
बचा है, किसी
के भी प्रति, अपने ही
प्रति सही, तो भी तुम
वैर— भाव से जी
रहे हो। इसलिए
दुबारा बात
कही है—
सुसुखं
वत!
'देखो, अहो,
हम कैसे सुख
में जी रहे
हैं।'
जीवाम
वेरिनेसु
अवेरिनो।
'वैरियों के
बीच अवैरी
होकर.......। '
कौन
वैरी? जिनको
तुम काम कहते,
लोभ कहते, मोह कहते, मद—मत्सर
कहते, जिनको
शास्त्र
तुम्हारे
वैरी कहते
हैं— भीतर के
शत्रु।
'वैरियों के
बीच अवैरी
होकर..। '
इन
सारे शत्रुओं
के बीच हम
अवैरी होकर जी
रहे हैं, इनसे
भी वैर न रहा।
ये भी रहें, इनकी मर्जी!
इनके प्रति भी
तटस्थ— भाव हो
गया, इनके
प्रति भी
उपेक्षा हो
गयी। रहो तो
रहो, जाओ
तो जाओ। जैसी
तुम्हारी
मर्जी!
और
तुम हैरान
होओगे, जिस
क्षण ऐसी दशा
आती है
उपेक्षा की, उसी क्षण ये
वैरी चले जाते
हैं। फिर ये
क्षणभर भी
नहीं रुकते।
क्योंकि
तुम्हारी
उपेक्षा में
तो ये बच ही
नहीं सकते, तुम्हारी
उपेक्षा की
अग्नि इन्हें
जलाकर भस्म कर
देती है।
हा, अगर
तुमने रस
लिया—पहले रस
लिया था
कामवासना को
फैलाने में, फिर रस लिया
कामवासना को
दबाने में—तो
ये वैरी बने
रहेंगे। ये
जाएंगे नहीं,
तुम्हारा
रस कायम है।
दुश्मनी बन
गयी अब—पहले मैत्री
थी—लेकिन
संबंध कायम
है। मित्रता
का संबंध होता
है, शत्रुता
का संबंध होता
है।
तुमने
कभी खयाल किया, तुम्हारा
शत्रु मर जाता
है तो भी
कुछ—कुछ खाली
हो जाता है
भीतर। जैसे
अपना कोई मर
गया, अब
इसके बिना
क्या करेंगे?
मैं
एक आदमी को
जानता हूं
उनका मुकदमा
एक पड़ोसी से
कोई चालीस साल
से—बस
मुकदमेबाजी
मुकदमेबाजी
चलती थी। उनका
सारा काम ही
अदालत, रस ही
अदालत।
पुराने
मालगुजार थे,
पैसे की कोई
तकलीफ न थी।
अगर एक बात
में हारे तो
दूसरा
मुकदमा। कोई
दस—पंद्रह
मुकदमे वे
पडोसी पर
चलाते थे। और
पड़ोसी भी वैसा
ही जिद्दी था,
वह भी
मुकदमे पर
मुकदमा चलाए
जाता था।
फिर
पड़ोसी मर गया।
हार्ट अटैक से
मर गया। तो मैं
उस पड़ोसी के
घर भी बैठने
गया और उसके
बाद मैं उनके
जन्मजात
शत्रु के घर
भी मिलने गया।
तो वह कहने
लगे,
आप, वह
मर गए तो मेरे
घर क्यों आए? मैंने कहा, मैं यह
देखने आया कि
आपकी क्या दशा
है? क्योंकि
अब आप क्या
करोगे? वह
बहुत चौंके।
वह कहने लगे
कि यह तो बात
बड़ी पते की
कही, चिंतित
तो मैं भी
हूं। इसकी वजह
से तो चालीस साल
मजे में बीते,
अब वह सब
मजा खतम हुआ।
यही तो हमारा
रस था, यह
दांव पर दाव
लगाना। और वह
भी एक कारीगर
था, कहने
लगे। उसने भी
हमें काफी
पछाड़ा। ऐसा
नहीं कि
हमीं—हमीं
जीतते थे, वह
भी काफी जीतता
था। उसके बिना
जरूर हम उदास तो
हुए। उसके
बिना कुछ खाली
तो हो गया।
और
छह महीने बाद वह
सज्जन भी मर
गए। तो मुझे
कुछ ऐसा लगा
कि अगर उनका
पड़ोसी जिंदा
रहता तो वह
कुछ देर और
जिंदा रहते।
पड़ोसी मर गया
तो अब रहने
में कोई उनका
अर्थ ही न
रहा। एक ही तो
प्रयोजन था, एक
ही लक्ष्य था,
चालीस साल
उसी पर
उन्होंने दाव
पर लगाए थे, वह आदमी ही
चला गया तो अब
रहने का क्या
मतलब है!
तुम
खयाल रखना, तुम
मित्रों में
ही तो नियोजन
नहीं करते
अपनी ऊर्जा का,
अपने
शत्रुओं में
भी करते हो।
तुम्हारे
मित्र मरेंगे
तो तुम
निश्चित कुछ
खोओगे, तुम्हारे
शत्रु मरेंगे
तो भी तुम कुछ
खोओगे। दोनों
से संबंध बन
जाता है।
'वैरियों के
बीच अवैरी
होकर..। '
संबंध
ही न बनाने का
नाम अवैर है।
अब यहां थोड़ा
फर्क खयाल
लेना। यहां
जीसस की और
बुद्ध की शिक्षाओं
में थोड़ा फर्क
है। जीसस और
महावीर की शिक्षाओं
में भी वही
फर्क है।
जीसस
कहते हैं, शत्रु
को प्रेम करो।
बुद्ध और
महावीर कहते
हैं, शत्रु
से शत्रुता न
रखो, बस।
प्रेम की बात
नहीं उठाते।
क्योंकि
प्रेम तो फिर
संबंध हो गया।
एक संबंध था
घृणा का, उसे
बदलकर तुमने
प्रेम का बना
लिया, लेकिन
संबंध तो जारी
रहा। बुद्ध और
महावीर, दोनों
की आकांक्षा
है, तुम
असंग हो जाओ, असंबंधित हो
जाओ।
यह
शिक्षा प्रेम
की शिक्षा से
भी ऊपर जाती
है,
क्योंकि
जिससे प्रेम
है, उससे
कभी भी घृणा
बन सकती है।
और जिससे घृणा
है, उससे
कभी भी प्रेम
बन सकता है।
वे एक ही
सिक्के के दो
पहलू हैं। तुम
असंबंधित हो
जाओ। असंग हो
जाओ, निसंग
हो जाओ। कोई
संबंध न रह
जाए। इस दशा
का नाम अवैर
है। इसको
बुद्ध मैत्री
कह सकते थे, लेकिन
मैत्री
उन्होंने कहा
नहीं।
उन्होंने
कहा,
'वैरियों के
बीच में अवैरी
होकर, अहो,
हम
सुखपूर्वक
जीवन बिता रहे
हैं। '
बुद्ध
वहा खड़े हैं
उनके बीच, और
वह कहते हैं, जरा देखो
मेरी तरफ, इस
महासुख की
वर्षा को
देखो! हम सुखी
हैं, महासुख
उतरा है, और
एक छोटी सी
बात से उतरा
कि हमने अवैर
साध लिया है।
इतने से सूत्र
से स्वर्ग उतर
आया है।
क्या
आकाश उतर आया
है
दूबों
के दरबार में!
नीली
भूमि हरी हो
आयी
इस
किरणों के
ज्वार में
ऊंचाई
यों फिसल पड़ी
है
नीचाई
के प्यार में
क्या
आकाश उतर आया
है
दूबों
के दरबार में!
जैसे
आकाश से वर्षा
होती और दूब
हरी हो आती। वर्षा
हमें दिखायी
पड़ती, दूब का
हरा होना भी
दिखायी पड़ता
है। बुद्धपुरुषों
का हरा होना
तो दिखायी
पड़ता है, लेकिन
जो अमृत की
वर्षा उन पर
हुई हैं, वह
हमें दिखायी
नहीं पड़ती।
मगर उनकी
हरियाली से ही
तुम जान लेना
कि वर्षा हुई
है, कोई
अदृश्य वर्षा
है। उसी
अदृश्य को वे
कहते हैं—सुसुखं
वत!
यह
शब्द बड़ा
अच्छा है।
इसका अर्थ
होता है, सिर्फ
सुखपूर्वक
नहीं, सुसुखं
वत! सुख जैसे
होकर हम विचर
रहे हैं, महासुख
होकर हम विचर
रहे हैं। सुखी
होकर नहीं, सुख होकर
विचर रहे हैं।
जरा हमारी तरफ
देखो—
'वैरी
मनुष्यों के
बीच हम अवैरी
होकर विहार करते
हैं। '
तो
पहले तो भीतर
के शत्रुओं की
बात कही कि
उनके बीच हमने
निवैंर साध
लिया, फिर
बाहर की बात
कही कि भीतर
जो निवैंर सध
गया, अब वह
बाहर भी फैल
गया है।
'आतुरों के
बीच अनातुर
होकर, अहो,
हम
सुखपूर्वक जीवन
बिता रहे हैं।
आतुर
मनुष्यों के
बीच अनातुर
होकर हम विहार
करते हैं। '
वही
बात खयाल
रखना— भीतर और
बाहर। पहला
सूत्र भीतर के
लिए है। भीतर
पहले, फिर
बाहर।
क्योंकि जो
भीतर घटता है,
वही बाहर
घटता है। तो
ही सच्चा है।
पहले बाहर घटे,
फिर भीतर
घटे तो खतरा
है। पाखंड भी
हो सकता है, जबरदस्ती भी
हो सकती है।
'आतुरों के
बीच अनातुर
होकर..। '
कितनी
प्यासे हैं
तुम्हारे
भीतर, कितनी
भूखे हैं, कितनी
क्षुधाएं
हैं।
कामवासना कुछ
मांगती, स्वाद
कुछ मांगता।
आख कुछ मांगती,
कान कुछ
मांगते, नाक
कुछ मांगती, कितनी
मांगें हैं
तुम्हारे
भीतर! कितने
भिखमंगे हैं
तुम्हारे
भीतर!
'हम आतुरों
के बीच अनातुर
होकर.। '
इन
किसी भी मांग
और क्षुधा में
हम संयुक्त
नहीं, अलग खड़े
हो गए हैं।
यही संन्यास
है। संसार से भाग
जाना नहीं, इन प्यासों
के बीच प्यास
से मुक्त होकर
खड़े हो जाना।
सुसुखं
वत!
जीवाम
आतुरेसु अनातुरा
।
आतुरेसु
मनुस्सेसु
विहराम
अनातुरा !'
'और आतुर
मनुष्यों के
बीच अनातुर
होकर हम विहार
करते हैं। '
चारों
तरफ आतुर
मनुष्य हैं, सावधान!
भीतर आतुर
वासनाएं हैं,
बाहर आतुर
मनुष्य हैं।
अगर खूब जागे
नहीं तो फंस
जाओगे किसी न
किसी प्यास
में, किसी
न किसी उलझन
में। और हम सब
नकल से जीते
हैं।
तुम्हारा पड़ोसी
बड़ा मकान बना
लिया तो तुम
बड़ा मकान बनाने
में लग जाते
हो। फिर चाहे
सब दाव पर
क्यों न लग
जाए! फिर चाहे
कौड़ी—कौड़ी
हालत खराब
क्यों न हो
जाए! लेकिन
पड़ोसी ने अगर
कुछ कर दिया
है तो तुम्हें
भी करके
दिखाना है। हम
सब नकल से
जीते हैं।
पड़ोसी ने एक
तरह के कपड़े
पहन लिए हैं
तो तुम्हें एक
तरह के कपड़े
पहनने हैं।
उसी तरह के
कपड़े चाहिए, उससे बेहतर
कपड़े चाहिए।
हम
जीते हैं नकल
से और नकल
बहुत भटकाती
है। जिसकी
हमें जरूरत
नहीं है, उसको
भी इकट्ठा कर
लेते हैं। तुम
जरा कभी अपने
भीतर, अपने
घर में गौर
करके देखना, तुमने
क्या—क्या
इकट्ठा कर
लिया है!
इसमें ऐसी
कौन—कौन सी
चीजें थीं
जिनके बिना चल
सकता था?
तुम
चौंकोगे।
इसमें बहुत सी
चीजें न होतीं
तो चल जाता और
शायद ज्यादा
सुविधा से
चलता। क्योंकि
ज्यादा जगह
होती, चलने—फिरने,
हिलने—डुलने
के लिए थोड़ा
अवकाश होता।
चिंता कम होती,
अशांति कम
होती। और जहां
चिंता नहीं है,
वहां सुख का
पदार्पण होता
है।
'आसक्तों के
बीच अनासक्त
होकर, अहो,
सुखपूर्वक
हम जीवन बिता
रहे हैं।
आसक्त मनुष्यों
के बीच
अनासक्त होकर
हम विहार करते
हैं। '
सुसुखं
वक्त! जीवाम
उस्सेकेसु अनुस्तुका
।
उस्सेकेसु
मनुस्सेसु
विहराम
अनुस्तुका ।।
ओशो
एस
धम्मो सनंतनो
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