कौशलनरेश
प्रसेनजित
काशी के लिए
अजातशत्रु से युद्ध
करने में तीन
बार हार गया।
वह बहुत चिंतित
रहने लगा।
उसके पास कुछ
कमी न थी बड़ा
राज्य था उसके
पास कौशल का
पूरा राज्य
उसके पास था लेकिन
काशी खटकती
थी। काशी पर
किसी और का कब्जा
यह खटकता था।
उसके अपने
कब्जे में
बहुत था लेकिन
जो दूसरे के
कब्जे में था
वह खटकता था।
तीन बार उसने
हमला किया
काशी पर और
तीनों बार हार
गया। बहुत
चिंतित रहने
लगा। जब तीसरी
बार भी हार
हुई तो बात
जरा सीमा के
बाहर हो गयी
उसके दर्प को
बड़ा आघात
पहुंचा। वह
सोचने लगा मैं
दुग्धमुख
लड़के को भी न
हरा सका ऐसे मेरे
जीने से क्या!
और अजातशत्रु
अभी लड़का ही था
अभी उसकी कोई
खास उम्र भी न
थी। और उस
लड़के से बार—
बार हार जाना
पीड़ादायी हो
गया
तो
उसने सोचा कि
मैं दुग्धमुख
लड़के को भी न
हरा सका तो
फिर मेरे ऐसे
जीने से क्या!
इससे तो मौत
ही भली। ऐसा
सोच वह खाना—
पीना छोड्कर बिछावन
पर लेट गया।
लेकिन तब भी
निद्रा कहां!
शांति कहां!
ऐसे कहीं
शांति आती है
ऐसे कहीं निद्रा
आती है।
आत्मघात करने
को उत्सुक
आदमी कहीं
शांत हो सकता
है! उसकी नीदं
भी खो गयी। वह
करीब— करीब
विक्षिप्त हो
गया। वह असह्य
दुख में डूब
गया।
भिक्षुओं ने
इस बात को भगवान
से कहा।
बहुत
दिन से
प्रसेनजित
आया नहीं तो
भिक्षु चिंतित
हुए कभी— कभी
भगवान को
सुनने आता था।
सुनकर भी कहां
लोग सुनते
हैं!
प्रसेनजित
उन्हें सुनने
आता था और फिर
भी यह दौड़
जारी ही रही।
तो भिक्षुओं
ने कहा कि ऐसी—
ऐसी हालत हो
गयी है
प्रसेनजित की
तीन बार हार गया
तो बिछावन पर
लेट गया है न
खाता है न
पीता है न
सोता है न
जगता है पागल
जैसा है।
भगवान
बोले
भिक्षुओं न
जीत में सुख
है न हार में
क्योंकि
दोनों में
उत्तेजना है
उत्तेजना में
कहां शांति
कहां सुख!
व्यक्ति
जीतते हुए वैर
को उत्पन्न
करता है और
हारा हुआ भी
सुख से सो नहीं
सकता।
तब
यह गाथा कही।
'विजय वैर को
उत्पन्न करती
है। '
क्योंकि
जिससे तुम
जीते हो, वह
बदला लेना
चाहेगा।
जिससे तुम
जीते हो, वह
तैयारी
करेगा। वह
तुम्हें
हराएगा। और
फिर जिससे तुम
जीत गए हो, उसके
साथ तुमने जो गहरी
शत्रुता मोल
ले ली है, उसके
प्रतिकार का
क्या करोगे? चिंता
पकड़ेगी—हमला
करेगा, प्रतिशोध
लेगा, क्या
करेगा? तो
जीत वैर को
उत्पन्न करती,
चिंता को
पैदा करती, सुरक्षा का
आयोजन करना
पड़ता।
फिर
पराजित
पुरुष—अगर जीत
न हो,
हार गए, तो
भी सुख नहीं
है। क्योंकि
पराजित पुरुष
सुख की नींद
कहा सो सकता
है? जागने
में बेचैन कि
हार गया, दर्प
टूट गया, अहंकार
खंडित हो गया,
और नींद में
भी बेचैन, करवटें
बदलता है। सुख
की नींद कहां,
दुख की नींद
सोता है। नींद
में तक दुख।
नींद तक में
सुख छिन जाता
है। नींद में
तो प्राकृतिक
सुख है, पशुओं
को भी है, साधारण
आदमियों को भी
है, वह भी
उसके पास नहीं
रह जाता। नींद
में भी दुखस्वप्न
देखता है। वही
छायाएं जिनसे
हार गया और
विकराल
हो—होकर प्रगट
होती हैं।
'लेकिन जो
उपशांत है, वह जय और
पराजय को
छोड्कर सुख की
नींद सोता है।’
उपशांत
शब्द
महत्वपूर्ण
है। उपशांत का
अर्थ होता है,
जिसके जीवन
में 'कोई
उत्तेजना न
रही। न जीत की
इच्छा, न
हार हो जाए तो
कुछ परेशानी।
जीत की इच्छा
छोड़ दी जिसने,
और अगर हार
भी हो जाए तो
उसे परमभाव से
स्वीकार कर
लिया जिसने, ऐसा व्यक्ति
उपशांत। और
उपशांत ही
आनंदित है।
अब
हम इस कथा को
थोड़ा समझें।
कौशलनरेश
प्रसेनजित
काशी के लिए
अजातशत्रु से
युद्ध करने
में तीन बार
हार गया। वह
बहुत चिंतित
रहने लगा।
आदमी एक बार
में नहीं
जागता, दो
बार में नहीं
जागता, तीन
बार में नहीं
जागता। तीन
प्रतीक है।
तीन बार हार
गया। तीन
प्रतीक है कि
अब बहुत हो
गया, आदमी
बिलकुल मूढ़
होना चाहिए।
बुद्ध
अपने शब्दों
को तीन बार
दोहराते थे।
वह किसी को
कुछ कहते तो
कहते, सुना? वह कहता, ही,
भंते! वह
फिर कहते, सुना?
हो, भंते!
वह फिर कहते, सुना? हो,
भंते! वह
तीन बार
दोहराते। वह
कहते कि लोग
इतने मूढ़ हैं
कि तीन बार
में भी नहीं सुनते।
तीन
बार हार गया, फिर
भी उसे समझ न
आयी कि जीत
में कुछ रखा
नहीं है।
जीत
से केवल हार
हाथ में आ रही
है,
यह समझ में
न आया। जिसने
सफलता चाही
उसको असफलता
हाथ आती है, लेकिन समझ
में नहीं आता।
जिसने धन चाहा,
वह और भी
भीतर निर्धन
होता जाता है,
यह समझ में
नहीं आता है।
जिसने सम्मान
चाहा, सब
तरफ अपमान
होने लगता है,
यह समझ में
नहीं आता।
बार—बार होता
है, फिर भी
समझ में नहीं
आता। आंखें
हमारी बिलकुल बंद
हैं। बिजली
कौंध—कौंध
जाती है, फिर
भी हम देखते
नहीं।
तीन
बार हार गया
प्रसेनजित।
चिंतित रहने
लगा। जीत की
आकांक्षा के
कारण हार पैदा
हो रही है, यह
तो न देखा, उलटी
चिंता रहने
लगी। चिंता
क्या? चिंता
यह कि मैं
दुग्धमुख
लड़के को भी
हरा न सका।
ऐसे मेरे जीने
से क्या! जैसे
आदमी के जीने
का इतना ही
अर्थ है कि
जीते। कुछ लोग
हैं जो इसीलिए
जी रहे हैं कि
जीतो।
जीत—जीतकर मर
जाओगे। जीत से
होगा क्या! जीत
से जीवन का
संबंध क्या है?
और जहां जरा
हारे कि आदमी
मरने की सोचने
लगता है।
मनोवैज्ञानिक
कहते हैं कि
ऐसा आदमी
खोजना कठिन है
जिसने अपने
जीवन में कम
से कम एक बार
आत्महत्या की
बात न सोची
हो। न की हो, यह
दूसरी बात है।
लेकिन न सोची
हो, ऐसा
आदमी खोजना
मुश्किल है।
और अनेक लोग
कोशिश भी करते
हैं। सफल नहीं
होते, यह
दूसरी बात है,
लेकिन
कोशिश करते
हैं।
तुम्हारा
जीवन बस जीतता
चला जाए तो
ठीक। हारे कि
बस मरने का मन
होता है। जरा
सी हार कि बस
मौत। तो
तुम्हारे
जीवन का मतलब
क्या है? सिर्फ
जीतना और
हारना? हम
छोटे बच्चों
की भांति हैं।
हम जरा—जरा सी
बात में मरने
को तैयार हो
जाते हैं।
जरा—जरा सी
बात में मारने
को तैयार हो
जाते हैं।
सोचने
लगा,
मर ही जाऊं,
अहंकार को
चोट लग गयी तो
फिर जीवन में
क्या है! हमने
और तो कोई
जीवन जाना ही
नहीं। असली
जीवन तो जाना
नहीं। अहंकार
का जीवन कोई
असली जीवन तो
नहीं!
तुम्हारे
भीतर एक जीवन
है जिसकी मृत्यु
ही नहीं हो
सकती। काश, तुम उसे जान
लो तो फिर तुम
मरने की
सोचोगे भी नहीं।
आत्महत्या का
विचार इसीलिए
आता है कि तुम
सोचते हो, मरना
हो सकता है।
मरना तो हो ही
नहीं सकता। कोई
कभी मरता तो
है ही नहीं, कोई कभी मरा
तो है ही
नहीं। मृत्यु
तो एक झूठी
बात है। मृत्यु
तो कभी होती
नहीं।
तुम्हारे
भीतर जो है, वह शाश्वत
है। वह सदा है,
सदा था, सदा
रहेगा। लेकिन
आत्महत्या की
बात उठती है मन
में—बाजार में
प्रतिष्ठा
खराब हो गयी
है, दिवाला
निकल गया, पत्नी
मर गयी, कि
बेटा धोखा दे
गया, कि
कुछ हो गया
छोटा—मोटा, बस मरने की
बात उठती है।
मरने की बात
उठने का मतलब
ही यही हुआ कि
तुमने अभी
जीवन को जाना
ही नहीं। जीवन
को जान लेते
तो मृत्यु की
सोचते कैसे?
मुझसे
कोई पूछता है
कभी
आत्महत्या के
लिए,
लोग आ जाते
हैं। अभी एक
चार—छह दिन
पहले एक महिला
ने पूछा कि
मुझे तो जीवन
में कोई सार
नहीं दिखायी पड़ता।
उम्र भी उसकी
कोई साठ के
करीब हुई।
चेहरा—मोहरा
भी ऐसा नहीं
है कि अब साठ
वर्ष की उम्र में
किसी से लगाव
बने, कोई
संबंध बने। तो
पश्चिम में तो
बड़ी घबड़ाहट होती
है—पश्चिम से
आयी हुई
स्त्री है, उसे बड़ी
घबड़ाहट हो गयी।
पति ने तलाक
दे दिया, बच्चे
सब बड़े होकर
अपनी— अपनी
दुनिया में
चले गए, अब
कोई उसकी तरफ
देखता भी नहीं,
तो वह मरने
की सोचती है।
दो बार उपाय
भी कर चुकी, नींद की
दवाएं खा लीं,
बमुश्किल
बचायी जा सकी।
वह
मुझसे पूछने
लगी कि मेरे
जीवन में सार
भी क्या है, मैं
मर ही जाऊं!
मैंने उससे
कहा कि तू
कोशिश कर, मर
तो सकती नहीं,
लेकिन मैं
तुझसे एक बात
कहूंगा कि
पहले जीवन को
तो जान ले, फिर
मर जाना। अभी
तो जीवन जाना
भी नहीं है और
मरने की
तैयारी करने
लगी। अगर जीवन
को जान ले तो
फिर मैं मुझे
आज्ञा देता
हूं मरने की, तू मर जाना।
वह
थोड़ी चौंकी
भी। उसने कहा, मैंने
यह सोचा नहीं
था कि आप
आज्ञा देंगे
मरने की, आप
जरूर
समझाएंगे।
मैंने कहा, समझाने में
क्या रखा है? समझाने से
तो तेरी जिद
और बढ़ेगी, तुझे
और रस आएगा कि
मर ही जाएं।
और मजा आएगा।
निषेध करो तो
और निमंत्रण
मिलता है। कहो
किसी से, मत
करो, तो और
करने की इच्छा
होती है।
मुल्ला
नसरुद्दीन की
पत्नी अखबार
पढ़ रही थी। अखबार
पढ़कर उसने कहा
कि सुनो, सुनते
हो, वैज्ञानिक
अणु को तोड़ने
में सफल हो
गए। मुल्ला ने
कहा, इसमें
क्या रखा है? अगर पार्सल
में अणु को
रखकर, ऊपर
लिखकर पार्सल
भेज दी होती
पोस्ट—आफिस में
कि इसे
सम्हालकर
उठाना—कभी का
अणु टूट गया होता।
बस जिस पार्सल
पर लिखा है, सम्हालकर
उठाना, उसी
को लोग पटकते
हैं। कभी का
टूट गया होता,
इतनी
वैज्ञानिकों
को चेष्टा
करने की कोई
जरूरत ही न
पड़ती।
जहां
तुमने देखा कि
मनाही लिखी, है,
वहीं
मुश्किल हो
जाती है।
मैं
एक गांव में
बहुत वर्षों
तक रहा। मेरे
सामने ही एक
सज्जन रहते थे, उनकी
एक बड़ी
दीवाल—वह बड़े
परेशान रहते
थे कि कोई
इश्तहार न लगा
दे, कोई
लिख न दे, कोई
आकर पेशाब न
कर जाए। मैंने
उनसे कहा, तुम
एक तरकीब करो ?r
इस पर लिख
दो तो यह
तुम्हें
रोज—रोज की
फिकर न रहेगी—कि
यहां इश्तहार
लगाना मना है,
यहां पेशाब
करना मना है।
उनको बात जंची,
उन्होंने
लिख दिया।
पांच—सात
दिन बाद मेरे
पास आए कि
आपने भी खूब मुसीबत
कर दी! जो लोग
पहले चुपचाप
निकल जाते थे, वे
भी पेशाब करने
लगे हैं। वह
आपने लिखवाकर
तो झंझट कर
दी। मैंने कहा,
मैं यही
तुम्हें
बताना चाहता
था—कहीं लिख
भर दो कि यहां
पेशाब करना
मना है, तो'
जो भी जा
रहा है, उसको
पहले तो पेशाब
करने का खयाल
तुमने दे दिया,
और यह भी
खयाल दे दिया
कि यह जगह
करने योग्य है,
नहीं तो कोई
लिखता क्यों!
जगह योग्य
स्थान है। डर
के कारण ही
किसी ने लिख
रखा है कि यहां
करना मत, क्योंकि
स्थान तो
बिलकुल योग्य
है।
जहां—जहा
निषेध है, वहा—वहां
निमंत्रण हो
जाता।
तो
मैंने उस
स्त्री को कहा
कि तू मर जाना, कोई
फिकर नहीं, फिर मरना ही
है तो जल्दी
क्या है, थोड़ा
ध्यान कर ले, थोड़ा जीवन
को जान ले।
यही तो जीवन
नहीं है कि कोई
पति था वह
छोड्कर चला
गया, कुछ
बेटे थे वे
छोड्कर चले गए,
अब कोई
उत्सुक भी
नहीं है
तुझमें, यही
तो जीवन नहीं
है, जीवन
एक और भी है।
एक भीतर का
जीवन भी है।
थोड़ा उसका
स्वाद ले ले, फिर मर
जाना।
क्योंकि मैं
जानता हूं
जिसने उसका
स्वाद ले लिया,
वह तो जान
लेता है कि
मरना तो हो ही
नहीं सकता, असंभव है, मृत्यु तो
घटती ही नहीं,
जीवन
शाश्वत है।
सोचने
लगा कि अब मर
जाऊं, खाना—पीना
छोड्कर
बिछावन पर लेट
रहा। सोना चाहता
है, लेकिन
नींद कहां। ये
कोई ढंग हैं
नींद लाने के!
ये कोई ढंग
हैं शांति के!
उसकी नींद भी
खो गयी।
बुद्ध
से जब
भिक्षुओं ने
कहा कि ऐसी
दशा
प्रसेनजित की
हो रही है, तो
उन्होंने कहा,
भिक्षुओ, न जीत में
सुख है न हार
में, सुख
तो भीतर है।
जीत भी बाहर
है, हार भी
बाहर है। जीत
भी संबंध है
दूसरे से—उसकी
छाती पर बैठ
जाने का संबंध
है—और हार भी
संबंध है
दूसरे से। और
सुख तो अपने
से संबंधित
होने में है।
दूसरे का
ध्यान ही न रह
जाए, अपना
ही ध्यान रह
जाए तो सुख की
सरिता बहती है,
तो सुख का
सागर उमगता
है। क्योंकि
दोनों में उत्तेजना
है—हार में और
जीत में—जहां
उत्तेजना है,
वहा शांति
कहां! व्यक्ति
जीतते हुए वैर
को उत्पन्न
करता है हारा
हुआ भी सुख से
सो नहीं सकता
है।
और
तब यह गाथा
कही—
जयं
बेर पसवति
दुक्खं सेति
पराजितो ।
उपसंतो
सुखं सेति
हित्वा
जयपराजयं ।।
सोचना, थोड़े
से अंतर से सब
अंतर पड़ जाता
है। थोड़ी सी दृष्टि
का भेद है।
याचना, दान
मात्र
भंगिमाएं हैं
हथेली की
यह
हथेली देखते
हो?
यह ऐसी सीधी
तुम्हारे
सामने फैल जाए
तो भिक्षा और
यह उलटी
तुम्हारे
सामने फैल जाए
तो दान। इतने
से अंतर से
भिक्षा दान बन
जाती है, दान
भिक्षा बन
जाता है।
याचना, दान
मात्र
भंगिमाएं हैं
हथेली की
और
सुख—दुख भी
भंगिमाएं हैं, सिर्फ
दृष्टि की, सिर्फ आख
की।
अंतर
है नीड़ और
पिंजड़े में
इतना
ही
कि एक
को बनाया है
तुमने
दूसरे
को तुम्हारे
लिए किसी और
ने
ज्यादा
अंतर नहीं है।
कोई दूसरा बना
दे तो पिंजड़ा
और तुम्हीं
बना लो तो
नीड़। दूसरे जो
भी बनाएंगे वह
पिंजडा ही
सिद्ध होगा।
इसलिए दूसरों
के बनाए पर
भरोसा मत रखो, कुछ
अपने भीतर
अपना बना लो।
अंतर
है नीड़ और
पिंजड़े में
इतना
ही
कि एक
को बनाया है
तुमने
दूसरे
को तुम्हारे
लिए किसी और
ने
ज्यादा
अंतर नहीं है।
दस के
हों कि पचास
साल के
सभी
खेलते ही तो
हैं
हां, वय
के अनुसार
चाहिए
उन्हें
खिलौने
अलग—अलग
बस
इतना ही फर्क
पड़ता है लोगों
में। बचपन में
तुम छोटे—छोटे
खिलौनों से
खेलते हो, बड़े
हो गए बड़े
खिलौनों से
खेलते हो, के
हो गए थोडे और
बहुमूल्य
खिलौनों से
खेलते हो, मगर
सब खेल
खिलौनों का
है। कोई शतरंज
बिछाकर राजा—रानियों
को चलाता है, हाथी—घोड़े
चलाता है, कोई
असली
हाथी—घोड़े
चलाता है, मगर
है सब शतरंज
का खेल। शतरंज
में भी
तलवारें खिंच
जाती हैं!
छोटे—छोटे खेल
में पराजय और
जीत हो जाती
है।
मैं
जब
विश्वविद्यालय
में पढ़ता था, तब
कोई मेरे
हास्टल में, मोनोपाली का
खेल ले आया।
मेरे साथ कोई
खेलने को
तैयार न हो।
मैंने पूछा कि
यह बात क्या
है? तो
उन्होंने कहा,
बात यह है
कि न आप हार
में प्रसन्न
होते हैं, न
जीत में
प्रसन्न होते,
न आप सुखी
होते न दुखी
होते, जीत
गए तो ठीक, हार
गए तो ठीक, तो
मजा ही नहीं
आता आपके साथ
खेलने में।
मजा तो तब आता
है कि जब कि
जान की बाजी
लग जाती है।
मोनोपाली का
खेल ही तो चल रहा
है। कौन
एकाधिकार कर
ले!
दस के
हों कि पचास
साल के
सभी
खेलते ही तो
हैं
हां, वय
के अनुसार
चाहिए
उन्हें
खिलौने
अलग—अलग
अनुभवी
किसको कहोगे?
उस
पुरुष को जो
बहुश्रुत
वृद्ध है
बहुदृष्टि
है,
या उसे
जो
अनुभवों का रस
काना जानता है
सारे
अनुभवों में
से रस को
निकाल लो, तो
तुम एक ही बात
रस की पाओगे, मूल पाओगे, अपनी
व्याख्या।
चाहे हार मान
लो, चाहे
जीत मान लो; चाहे सुख
मान लो, चाहे
दुख मान लो।
और
जिस दिन
तुम्हें यह
दिख गया, उसी
क्षण तुम
मुक्त हो। फिर
तुम्हें कौन
बांधेगा? तुम्हारी
अपनी
व्याख्या है।
तुम्हारी
जंजीरें असली
नहीं हैं, तुम्हारी
धारणा की हैं,
तुम्हारी
व्याख्या की
हैं।
आज
इतना ही।
ओशो
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