दिनांक 13 मार्च 1975; श्री रजनीश आश्रम, पूना।
योगसूत्र (साधनापाद)
अनित्याशुचिदु:खानात्मसु
नित्यशुचिसुखात्मख्याति:
अविद्या।। 5।।
अविद्या
है—अनित्य को
नित्य समझना, अशुद्ध
को शुद्ध
जानना, पीड़ा
को सुख और
अनात्म
को आत्म जानना।
दृग्दर्शनशक्त्योरेकात्मतेवास्सिता।।
6।।
अस्मिता
है—दृष्टा का
दृश्य के साथ
तादात्म्य।
सुखानुशयी
राग:।। 7।।
आकर्षण
और उसके
द्वारा बना
आसक्ति होती
है।
उस
किसी चीज के
प्रति जो सुख पहुंचाती
है।
दुःखानुशयी
द्वेष:।। 8।।
अविद्या
क्या है? इस
शब्द का अर्थ
है अज्ञान, लेकिन
अविद्या कोई
साधारण
अज्ञान नहीं।
इसे बहुत गहरे
समझना होगा।
अज्ञान है
ज्ञान की कमी।
अविद्या
ज्ञान की कमी
नहीं, बल्कि
जागरूकता की
कमी है।
अज्ञान बहुत
आसानी से मिट
सकता है, तुम
ज्ञान
उपार्जित कर
सकते हो। यह
केवल स्मृति
के प्रशिक्षण
की ही बात
होती है। शान
यांत्रिक
होता है, किसी
जागरूकता की
जरूरत नहीं
होती। वह उतना
ही यांत्रिक
होता है जितना
कि साधारण
अज्ञान।
अविद्या है
जागरूकता की
कमी। व्यक्ति
को ज्यादा और
ज्यादा बढ़ना
होता है चेतना
की ओर, न कि
ज्यादा ज्ञान
की ओर। केवल
तभी अविद्या
मिट सकती है।
अविद्या
ही है जिसे
गुरजिएफ 'आध्यात्मिक
निद्रा' कहां
करता था।
व्यक्ति
घूमता—फिरता
है, जीता
है, मरता
है, न
जानते हुए कि
वह जीता क्यों
है, न
जानते हुए कि
वह आया कहां
से और किसलिए,
न जानते हुए
कि वह कहां
बढ़ता रहा और किसलिए।
गुरजिएफ इसे
कहते हैं 'निद्रा',
पतंजलि इसे
कहते हैं, 'अविद्या'। दोनों का
एक ही अर्थ है।
तुम नहीं
जानते तुम हो
क्यों! तुम यहां
इस संसार में,
इस देह में,
इन अनुभवों
में तुम्हारे
होने का
प्रयोजन जानते
नहीं। तुम
बहुत सारी
चीजें करते हो
बिना यह जानते
हुए कि तुम उन्हें
क्यों कर रहे
हो, बिना
जाने हुए कि
तुम उन्हें कर
रहे हो, बिना
जाने हुए कि
तुम कर्ता हो।
हर चीज ऐसे
चलती है जैसे
गहरी निद्रा
में पड़ी हो।
अविद्या, यदि
मुझे
तुम्हारे लिए
इसका अनुवाद
करना पड़े, तो
इसका अर्थ
होगा सम्मोहन।
आदमी
जीता है एक
गहरे सम्मोहन
में। मैं
सम्मोहन पर
काम करता हूं,
क्योंकि
सम्मोहन को
समझना ही
एकमात्र
तरीका है
व्यक्ति को
सम्मोहन के
बाहर लाने का।
सारी
जागरूकता एक
तरह की सम्मोहननाशक
है, इसलिए
सम्मोहन की
प्रक्रिया को
बहुत—बहुत साफ
ढंग से समझ
लेना है, केवल
तभी तुम उसके
बाहर आ सकते
हो। रोग को
समझ लेना है, उसका निदान
कर लेना है; केवल तभी
उसका इलाज
किया जा सकता
है। सम्मोहन
आदमी का रोग
है, और
सम्मोहन
विहीनता होगी
एक मार्ग। एक
बार मैं काम
करता था एक
आदमी पर और वह
बहुत अच्छा
माध्यम था
सम्मोहन के
लिए। संसार के
एक तिहाई लोग,
तैंतीस
प्रतिशत, अच्छे
माध्यम होते
हैं, और वे
लोग बुद्धि
विहीन नहीं
होते हैं। वे
लोग होते हैं
बहुत—बहुत
बुद्धिमान, कल्पनाशील,
सृजन्त्रत्मक। इसी
तैंतीस
प्रतिशत में
होते हैं सभी
बड़े वैज्ञानिक,
सभी बड़े
कलाकार, कवि,
चित्रकार, संगीतकार।
यदि कोई
व्यक्ति
सम्मोहित हो
सकता है, तो
यह बात यही
बताती है कि
वह बहुत
संवेदनशील है।
इसके ठीक
विपरीत बात
प्रचलित है
लोग सोचते हैं
कि वह व्यक्ति
जो थोड़ा मूर्ख
होता है केवल
वही सम्मोहित
हो सकता है।
यह बिलकुल गलत
बात है। करीब—करीब
असंभव ही होता
है किसी मूढ़
को सम्मोहित
करना, क्योंकि
वह सुनेगा
नहीं, वह
समझेगा नहीं
और वह कल्पना
नहीं कर पाएगा।
बड़ी तेज
कल्पनाशक्ति
की जरूरत होती
है।
लोग
सोचते कि केवल
कमजोर
व्यक्तित्व
के लोग सम्मोहित
किए जा सकते
हैं। बिलकुल
गलत है बात, केवल
बड़े
शक्तिशाली
व्यक्ति
सम्मोहित किए
जा सकते हैं।
कमजोर आदमी इतना
असंगठित होता
है कि उसमें
कोई संगठित
एकत्व नहीं
होता, उसमें
अपना कोई
केंद्र नहीं
होता। और जब
तक तुम्हारे
पास किसी तरह
का कोई केंद्र
नहीं होता, सम्मोहन
कार्य नहीं
करता।
क्योंकि कहां
से करेगा वह
काम, कहां
से व्याप्त
होगा
तुम्हारे
अंतस में? और
एक कमजोर आदमी
इतना
अनिश्चित
होता है हर
चीज के बारे
में, इतना
निश्चयहीन
होता है अपने
बारे में, कि
उसे सम्मोहित
नहीं किया जा
सकता है। केवल
वे ही लोग
सम्मोहित किए
जा सकते हैं
जिनके
व्यक्तित्व
शक्तिशाली
होते हैं।
मैंने
बहुत लोगों पर
काम किया है
और मेरा ऐसा जानना
है कि जिस
व्यक्ति को
सम्मोहित
किया जा सकता
है उसे ही
सम्मोहनरहित
किया जा सकता
है,
और वह
व्यक्ति जिसे
सम्मोहित
नहीं किया जा
सकता, वह
बहुत कठिन
पाता है
आध्यात्मिक
मार्ग पर बढ़ना,
क्योंकि सीढ़ियां
दोनों तरफ
जाती हैं। यदि
तुम आसानी से
सम्मोहित किए
जा सकते हो तो तुम
आसानी से
सम्मोहनरहित
किए जा सकते
हो। सीढ़ी वही
होती है। चाहे
तुम सम्मोहित
हो या कि
असम्मोहित, तुम एक ही
सीढ़ी पर होते
हो; केवल
दिशाएं भेद
रखती हैं।
मैं
एक युवक पर
बहुत वर्षों
तक कार्य करता
रहा था। एक
दिन मैंने उसे
सम्मोहित
किया और जिसे
सम्मोहनविद
कहते हैं
पोस्ट—हिप्नोटिक
सजेशन, सम्मोहनोत्तर सुझाव, एक
दिन वही दिया
उसे। मैंने कहां
उससे, 'कल
ठीक इसी समय—उस
समय सुबह के
नौ बजे थे—तुम
मुझसे मिलने
आओगे।
तुम्हें आना
ही होगा मुझसे
मिलने। कोई
स्पष्ट कारण
नहीं है आने
का, तो भी
ठीक नौ बजे
तुम्हें आना
होगा।’ वह
होश में न था मैंने
कहां उससे, 'जब तुम आओगे
नौ बजे, ठीक
नौ बजे तुम
कूद पड़ोगे
मेरे बिस्तर
में, चूम
लोगे को, आलिंगन
करोगे तकिए का
जैसे कि तकिया
तुम्हारी
प्रेमिका हो।’
निस्संदेह, अगले
दिन वह पहुंच
गया पीने नौ
बजे, लेकिन
मैं अपने
बेडरूम में
नहीं बैठा था,
मैं बरामदे
में बैठा इंतजार
कर रहा था
उसका। वह आया।
मैंने पूछा, 'क्यों आए हो
तुम?' उसने
कंधे उचका
दिए। वह कहने
लगा, 'बस
इत्तफाक से
मैं गुजर रहा
था यहां से और
एक विचार आ
बना क्यों न
आपके पास चलूं?'
उसे होश
नहीं था कि
सम्मोहन वाला
सुझाव काम कर
रहा था, वह
ढूंढ रहा था
कोई व्याख्या।
वह बोला, 'मैं
बस यूं ही
गुजर रहा था
इस रास्ते से।’
मैंने पूछा
उससे, 'क्यों
गुजर रहे थे
तुम इस रास्ते
से? तुम
पहले कभी नहीं
गुजरते, और
यह रास्ता
तुम्हारे
रास्ते से अलग
पड़ता है। जब
तक कि तुम
मेरे ही पास न
आना चाहो, कोई
तुक नहीं है
शहर से बाहरी
इलाके में जाने
की।’ वह
बोला, 'बस
सुबह की सैर
के लिए ही.....'—एक
तर्कसंगत
व्याख्या। वह
नहीं सोच सकता
था कि वह
अकारण आया था,
वरना तो वह
बहुत ही तोड़—बिखेर
देने वाला
अनुभव हो जाता
अहंकार के लिए।’क्या पागल
हुए हैं?' वह
शायद ऐसा सोचे।
लेकिन वह
बेचैन था, असुविधा
में था। वह देख
रहा था चारों
तरफ कारण न
जानते हुए। वह
खोज रहा था
तकिए को और
बिस्तर को और
बिस्तर था
नहीं वहा पर।
और जानबूझ कर
मैं बैठा हुआ
था बाहर जैसे—जैसे
मिनट बीते वह
ज्यादा और
ज्यादा बेचैन
हुआ। मैंने
पूछा उससे, 'क्यों तुम
इतने बेचैन हो?
तुम तो ठीक
से बैठ भी
नहीं सकते।
क्यों तुम जगह
बदलते जाते हो?'
वह बोला, 'पिछली रात
मैं ठीक से सो
नहीं सका'—फिर
भी वही
बुद्धिसंगत
व्याख्या।
आदमी को किसी
न किसी तरह
कारण खोज ही
लेने होते हैं।
वरना तो आदमी
पागल जान
पड़ेगा। तो नौ
बजने के कोई
पाच मिनट पहले
वह बोला, 'बहुत
गर्मी है यहां।’
गरमी थी
नहीं क्योंकि
वह सुबह की
सैर के लिए निकला
था और सर्दी
का मौसम था।’बहुत गर्मी
है यहां। क्या
हम भीतर नहीं
जा सकते?' फिर
वही ठीक कारण
खोजने का
बहाना। मैंने
टालना चाहा इस
बात को और
मैंने कहां, 'गरमी नहीं
है।’
तब
वह अचानक उठ
खड़ा हुआ। नौ
बजने में बस
दो मिनट ही
बाकी थे। उसने
देखा अपनी घड़ी
की ओर, खड़ा हो
गया, और वह
बोला, 'मैं
बीमार अनुभव
कर रहा हूं।’ इससे पहले
कि मैं रोक
सकता, वह
तो भाग। कमरे
की ओर। मैं
उसके पीछे आया।
वह कूद पड़ा
बिस्तर पर, उसने तकिए
को चूमा, आलिंगन
किया तकिए का—
और मैं खड़ा था
वहां पर, जिससे
उसने बहुत
परेशानी, उलझन
अनुभव की।
मैंने पूछा, 'क्या कर रहे
हो तुम?' उसने
रोना शुरू कर
दिया। वह बोला,
'मुझे नहीं
मालूम, पर
कल जब आपसे
अलग हुआ तब से
यह तकिया
लगातार मेरे
मन में बना
रहा है!' वह
नहीं जानता था
कि सम्मोहन
में मैंने ही
वैसा करने को कहां
था। और वह
बोला, 'रात
में भी मैं
फिर—फिर स्वप्न
देखता था, इसी
तकिए को
आलिंगन करता,
अता और यह
एक जरूरत बन
गई, एक मोह
हो गया। सारी
रात मैं सो
नहीं सका। अब
मुझे चैन पड़ा
है, पर मैं
जानता नहीं
क्यों?'
क्या
तुम्हारा
सारा जीवन इसी
भांति नहीं है? हो
सकता है तुम
किसी तकिए को
नहीं चूम रहे
हो, तुम
किसी स्त्री
को चूम रहे
होओगे, लेकिन
क्या तुम्हें
इसका कारण पता
है? उाचानक एक स्त्री
या एक पुरुष
तुम्हें
आकर्षक लगते हैं,
लेकिन
तुम्हें कारण
पता नहीं कि
क्यों! यह किसी
सम्मोहन की
भाति ही है। निस्संदेह
ऐसा
प्राकृतिक है,
किसी ने
तुम्हें
सम्मोहित
नहीं किया है,
प्रकृति ने
ही तुम्हें
सम्मोहित
किया है।
प्रकृति की
सम्मोहित
करने की शक्ति
ही है जिसे कि
हिंदू कहते
हैं 'माया',
भ्रम की
शक्ति। तुम
भ्रम में होते
हो, गहरी
भ्रामकता में
होते हो। तुम
जीते हो निद्राचारी
की भांति, गहरी
नींद में सोए
हुए तुम बातें
करते चले जाते
हो न जानते
हुए कि क्यों;
और जो कुछ
कारण तुम
बताते हो, वे
बुद्धि के
हिसाब ही होते
हैं, वे
सच्चे कारण
नहीं होते।
तुम
एक स्त्री से
मिलते, तुम
प्रेम में पड़
जाते, और
तुम कहते, 'मुझे
प्रेम हो गया
है।’ लेकिन
क्या तुम कारण
बता सकते हो
कि क्यों? क्यों
हुआ है ऐसा? तुम खोज
लोगे कुछ कारण।
तुम कहोगे, 'उसकी आंखें
इतनी सुंदर
हैं। नाक इतनी
सुघड़ है, और चेहरा है
संगमरमर की
प्रतिमा की
भांति!' तुम
खोज लोगे कारण,
लेकिन ये तो
बुद्धि के
तर्क हैं।
वस्तुत: तुम
जानते नहीं, और तुम इतने
साहसी नहीं कि
कह सको कि तुम
जानते नहीं।
साहसी बनी। जब
तुम नहीं
जानते, तो
तुम्हें बोध
होना चाहिए कि
तुम नहीं
जानते। वह एक आघातकारी
बात होगी। तुम
इस सारे भ्रम
से बाहर आ
सकते हो जो
तुम्हें घेरे
रहता है।
पतंजलि इसे
कहते हैं
अविद्या।
अविद्या का
अर्थ है, जागरूकता
की कमी। ऐसा
घट रहा है
जागरूकता की
कमी के कारण।
सम्मोहन
में क्या होता
है?
क्या तुमने
कभी किसी
सम्मोहनविद
को ध्यान से देखा
है, क्या
करता है वह? पहले तो वह
कहता है, 'रिलैक्स।’
'शिथिल हो
जाओ!' और वह
दोहराता है
इसे, वह
कहता जाता है,
'रिलैक्स, रिलैक्स'—'शिथिल हो
जाओ, शिथिल
हो जाओ।’
रिलैक्स
की लगातार
ध्वनि भी बन
जाती है एक
मंत्र, एक ट्रान्सेन्देंटल
मेडिटेशन, ऐसा
ही होता है टी
एम में। तुम
लगातार एक
मंत्र को
दोहराते हो, वह नींद ले
आता है। यदि
तुम्हारे पास
नींद न आने की
समस्या हो, तो टी एम
सबसे अच्छी
बात है करने
की। वह
तुम्हें नींद
देता है और
इसलिए वह इतना
महत्वपूर्ण
हो गया है
अमरीका में।
अमरीका ही एक
ऐसा देश है जो
इतना ज्यादा
पीड़ा भोग रहा
है नींद न आने
के रोग से।
वहां महर्षि
महेश योगी कोई
सांयोगिक
घटना नहीं हैं,
वे एक
आवश्यकता हैं।
जब लोग
अनिद्रा से
पीड़ित होते
हैं तो वे सो
नहीं सकते।
उन्हें चाहिए
शामक दवाएं।
और भावातीत
ध्यान और कुछ
नहीं सिवाय
शामक दवा (ट्रैक्विलाइजर)
के, वह
तुम्हें शांत
करता है। तुम
निरंतर
दोहराते जाते
हो एक निश्चित
शब्द 'राम,
राम, राम।’
कोई भी शब्द
काम देगा, 'कोका—कोला,
कोका—कोला'
काम देगा
वहां, उसका
राम से कुछ
लेना—देना
नहीं है। ’कोका—कोला'
उतना ही
बढ़िया होगा
जितना कि राम,
या कि उससे
भी ज्यादा
प्रासंगिक
होता है। तुम
एक निश्चित
शब्द निरंतर
दोहराते हो।
निरंतर
दोहराव एक ऊब
निर्मित कर
देता है, और
ऊब आधार है
सारी नींद का।
जब तुम ऊब
अनुभव करते हो,
तो तुम
तैयार होते हो
सो जाने के
लिए।
एक
सम्मोहनविद
दोहराता जाता
है,
'शिथिल हो
जाओ।’ वह
शब्द ही
व्याप्त हो
जाता है
तुम्हारे
शरीर और अंतस
में। वह
दोहराए जाता
है उसे और वह
तुमसे सहयोग
देने को कहता
है, और तुम
सहयोग देते हो।
धीरे— धीरे
तुम उनींदापन
अनुभव करने
लगते हो। फिर
वह कहता है, 'तुम उतर रहे
हो गहरी नींद
में, उतर
रहे हो, उतर
रहे हो नींद
के गहरे शून्य
में—उतर रहे
हो।’ वह
दोहराता ही
जाता है और
मात्र
दोहराने से तुम्हें
नींद आने लगती
है।
यह
एक अलग प्रकार
की नींद होती है।
यह कोई साधारण
नींद नहीं
होती, क्योंकि
यह पैदा की
गयी होती है, किसी ने इसे
बहला फुसला कर
निर्मित कर
दिया है तुम
में। क्योंकि
इसे किसी ने
निर्मित किया
होता है, इसकी
एक अलग ही
गुणवत्ता
होती है। पहला
और बहुत
आधारभूत भेद
यह है कि तुम
सारे संसार के
प्रति सोए हुए
होओगे, लेकिन
सम्मोहनविद
के लिए नहीं।
अब तुम किसी
चीज को न सुनोगे,
अब तुम किसी
और चीज को न
सुन पाओगे।
यदि एक बम भी
फट पड़ेगा तो
वह तुम्हारी शांति
भंग न करेगा। रेलगाड़ियां
गुजर जाएंगी,
हवाई जहाज
ऊपर से गुजर
जाएंगे, लेकिन
कोई चीज
तुम्हें अशांत
नहीं करेगी।
तुम कुछ नहीं
सुन पाओगे।
तुम सारे
संसार के
प्रति बंद
होते हो, लेकिन
सम्मोहनविद
के प्रति खुले
होते हो। यदि
वह कुछ कहे तो
तुम तुरंत सुन
लोगे, तुम
केवल उसे ही सुनोगे।
केवल एक
ग्राहकता बच
रहती है—सम्मोहनविद,
और सारा
संसार बंद हो
जाता है। जो
कुछ वह कहता
है उस पर तुम
विश्वास कर
लोगे क्योंकि
तुम्हारी बुद्धि
सोने चली गयी
है।
बुद्धिमत्ता
कार्य नहीं
करती। तुम एक
छोटे बच्चे की
भांति हो जाते
हो—जिसके पास
आस्था होती है।
तो जो कुछ भी
सम्मोहनविद
कहता है, तुम्हें
उसका विश्वास
करना पड़ता है।
तुम्हारा
चेतन मन काम
नहीं कर रहा है।
केवल अचेतन मन
कार्य करता है।
अब किसी
बेतुकी बात पर
भी विश्वास आ
जाएगा।
यदि
सम्मोहनविद
कहता है कि
तुम घोड़े बन
गए हो तो—तुम
नहीं कह सकते, 'नहीं',
क्योंकि
कौन 'नहीं'
कहेगा? गहरी
निद्रा में
विश्वास
संपूर्ण होता
है; तुम
घोड़े बन जाओगे,
तुम घोड़े की
भांति अनुभव
करोगे। और यदि
वह कहता है अब
तुम हिनहिनाओ
घोड़े की भांति,
तो तुम हिनहिनाओगे।
यदि वह कहे, दौड़ो, कूदो—घोड़े की
भाति, तो
तुम कूदोगे
और दौड़ने
लगोगे।
सम्मोहन
कोई साधारण
निद्रा नहीं।
साधारण
निद्रा में
तुम किसी से
नहीं कह सकते
कि तुम घोड़ा
बन गए हो।
पहली तो बात
यदि वह
तुम्हें
सुनता है तो
वह सोया हुआ
नहीं होता।
दूसरी बात यह
कि यदि वह
तुम्हें
सुनता है तो वह
सोया हुआ नहीं
होता और जो
तुम कह रहे हो
वह उस पर
विश्वास नहीं
करेगा। वह आंखें
खोलेगा अपनी
और हंसेगा और
कहेगा, 'क्या
तुम पागल हुए
हो! क्या कह
रहे हो तुम? मैं और एक
घोड़ा?'
सम्मोहन
एक उत्पन्न की
हुई निद्रा
होती है।
निद्रा से
ज्यादा तो वह
किसी नशे की
भांति है। तुम
किसी नशे के
प्रभाव में
होते हो।
नशीला द्रव्य
साधारण
रासायनिक
द्रव्य नहीं होता, बल्कि
वह देह में
बहुत गहरे तक
चला गया एक
रसायन होता है।
किसी एक
निश्चित शब्द
का दोहराव
मात्र ही शरीर
के रसायन को
बदल देता है।
इसलिए मनुष्य
के सारे
इतिहास में
मंत्र इतने ज्यादा
प्रभावकारी
रहे हैं।
निरंतर रूप से
किसी खास शब्द
का दोहराव
शरीर के रसायन
को बदल देता
है क्योंकि एक
शब्द मात्र एक
शब्द ही नहीं
होता; उसकी
तरंगें होती
हैं, वह एक
विद्युत घटना
है। एक शब्द
निरंतर
तरंगित होता
है : राम, राम,
राम; वह
गुजरता है
शरीर के सारे
रसायन में से।
वे तरंगें
बहुत शीतलता
से आती हैं; वे तुम्हारे
भीतर एक मंद—मंद
गुनगुनाहट
बना देती हैं,
उसी भांति
जैसे कि मां
लोरी गा रही
होती है, जब
बच्चा सो नहीं
रहा होता।
लोरी बहुत
सीधी—सरल बात
है। एक या दो
पंक्तियां
लगातार दोहरा
दी जाती हैं।
और यदि मा
बच्चे को अपने
हृदय के समीप
ले जा सकती है,
तब तो
प्रभाव और
जल्दी होगा
क्योंकि हृदय
की धड़कन एक और
लोरी बन जाती
है। हृदय की
धड़कन और लोरी
दोनों साथ—साथ
हों, तो
बच्चा गहरी
नींद सो जाता
है।
यही
सारी तरकीब है
जप की और
मंत्रों की, वे
तुम्हें एक
बढ़िया
प्रभावपूर्ण
नींद में पहुंचा
देते हैं।
उसके बाद तुम
ताजा अनुभव
करते हो।
लेकिन कोई
आध्यात्मिक
बात उसमें
नहीं होती, क्योंकि
आध्यात्मिक
का संबंध होता
है ज्यादा सजग
होने से, न
कि कम सजग
होने से।
ध्यान
से देखना किसी
सम्मोहनविद
को। क्या कर
रहा होता है
वह?
प्रकृति ने
वही किया है
तुम्हारे साथ।
प्रकृति सबसे
बड़ी सम्मोहक
है, उसने
तुम्हें
सम्मोहनकारी
सुझाव दिए
होते हैं। वे
सुझाव
पहुंचाए जाते
हैं क्रोमोसोम्स
द्वारा, तुम्हारे
शरीर के कोशाणुओ
द्वारा। अब
वैज्ञानिक
कहते हैं कि
एक कोशाणु
मात्र करीब—करीब
एक करोड़
संदेश ले आता
है तुम्हारे
लिए। वे उसी
में रचे होते
हैं। जब एक
बच्चा गर्भ
में आता है र
तो दो कोशाणु
मिलते हैं, एक मां की ओर
से और एक पिता
की ओर से। दो
क्रोमोसोम्स
मिलते हैं। वे
ले आते हैं
लाखों—लाखों
संदेश। वे नक्शे
बन जाते हैं
और बच्चा उन आधारभूत
नक्शो—ढांचों
से जन्मता है।
वे दुगुने—चौगुने
होते जाते हैं।
इसी भांति
शरीर बढ़ता
जाता है।
तुम्हारा
सारा शरीर
छोटे—छोटे
अदृश्य
कोशाणुओं से
बना होता है, करोड़ों
कोशाणु होते
हैं। और
प्रत्येक
कोशाणु संदेश
लिए रहता है, जैसे कि
प्रत्येक बीज
संपूर्ण
संदेश ले आता
है संपूर्ण
वृक्ष के लिए :
कि किस प्रकार
के पत्ते
उसमें उगेंगे;
किस प्रकार
के फूल
खिलेंगे
इसमें; वे
लाल होंगे या
नीले होंगे, या कि पीले
होंगे। एक
छोटा— सा बीज
सारा नक्शा
लिए रहता है
वृक्ष के
संपूर्ण जीवन
का। हो सकता
है वृक्ष चार
हजार साल तक
जीए। चार हजार
साल तक उसकी
हर चीज वह
छोटा—सा बीज
लिए ही रहता।
वृक्ष को इसका
ध्यान रखने की
या चिंता करने
की कोई जरूरत
नहीं; हर
चीज
कार्यान्वित
होगी। तुम भी बीज
लिए रहते हो:
एक बीज पिता
से, एक मां
से। और वे आते
हैं पिछले
हजारों
वर्षों से, क्योंकि
तुम्हारे
पिता का बीज
उन्हें दिया गया
था उनके पिता
और मां द्वारा।
इस भांति
प्रकृति
तुममें
प्रविष्ट हुई
है। तुम्हारा
शरीर आया है
प्रकृति से, तुम आए हो कहीं
और से। इस
कहीं और का
मतलब है, परमात्मा।
तुम एक मिलन—बिंदु
हो शरीर और
चेतना के।
लेकिन शरीर
बहुत—बहुत
शक्तिशाली है
और जब तक तुम
इस विषय में कुछ
करो नहीं, तुम
इसकी शक्ति के
भीतर रहोगे, इसके अधिकार
में रहोगे।
योग एक ढंग है
इससे बाहर आने
का। योग ढंग
है शरीर
द्वारा
आविष्ट न होने
का और फिर से
मालिक होने का।
अन्यथा तुम तो
गुलाम बने
रहोगे।
अविद्या
है गुलामी, सम्मोहन
की वह गुलामी,
जो प्रकृति
ने तुम्हें दे
दी है। योग इस
गुलामी के पार
हो जाना और
मालिक हो जाना
है। अब
सूत्रों को
समझने की
कोशिश करें।
सूत्र
का अर्थ हुआ
बीज। इसे बहुत—बहुत
ढंग से समझ
लेना है, तभी
यह तुममें समझ
का वृक्ष
बनेगा। सूत्र
एक बहुत ही
संक्षिप्त
संदेश होता है।
उन दिनों इसे
ऐसा ही होना
था, क्योंकि
जब पतंजलि ने
रचा योग—सूत्रों
को तो कोई
लिखाई न थी।
उन्हें स्मरण
रखना होता था।
उन दिनों तुम
बड़ी—बड़ी किताबें
न लिख सकते थे,
बस सूत्र ही
लिखते। सूत्र
होता है बीज
जैसी चीज, जिसे
आसानी से
स्मरण रखा जा
सके। और
हजारों
वर्षों तक
सूत्रों को
स्मरण रखा गया
शिष्यों
द्वारा, और
फिर उनके
शिष्यों
द्वारा। जब
इन्हें लिखा
गया उसके
हजारों साल
बाद ही ग्रंथ
रचना का
अस्तित्व बना।
सूत्र संकेतकारी
होना चाहिए; तुम बहुत
सारे शब्दों
का प्रयोग
नहीं कर सकते;
तुम्हें
अल्पतम का, कम से कम
शब्दों का
प्रयोग करना
होता है। तो
जब कभी तुम
किसी सूत्र को
समझना चाहो तो
तुम्हें उसे
बढ़ाना पड़ता है।
तुम्हें उसकी
व्याख्याओं
में उतरने के
लिए सूक्ष्मदर्शक
यंत्र का
प्रयोग करना
होता है।
अविद्या
है— अनित्य को
नित्य समझना
अशुद्ध को
शुद्ध जानना
पीड़ा को सुख
और अनात्म को
आत्म जानना।
पतंजलि
कहते, अविद्या
क्या है?—जागरूकता
का अभाव। और
जागरूकता का
अभाव क्या है?
तुम उसे
जानोगे कैसे?
लक्षण क्या
होते हैं? लक्षण
ये हैं: 'अनित्य
को शाश्वत समझ
लेना.....।’
जरा
देखो चारों
तरफ—जीवन एक
प्रवाह है, हर
चीज गतिमय
है। हर चीज
निरंतर
गतिमान हो रही
है, निरंतर
परिवर्तित हो
रही है। चारों
ओर सभी चीजों
का स्वभाव है
परिवर्तन।
परिवर्तन
एकमात्र
स्थायी चीज—जान
पड़ता है।
स्वीकार करो
परिवर्तन को
और हर चीज बदल
जाती है। यह
सागर की लहरों
की भांति ही
होता है। वे
जन्मती, थोड़ी
देर को वे बनी
रहती, और
वे फिर घुल
जातीं और मिट
जातीं। ऐसा
लहरों की
भांति ही होता
है।
तुम
जाते हो सागर
की ओर, तो क्या
देखते हो तुम?
तुम देखते
हो लहरों को, मात्र सतह
को। और फिर
तुम वापस लौट
आते हो और तुम
कहते हो कि
तुम देख आए
समुद्र को और
समुद्र सुंदर
था। तुम्हारी
खबर बिलकुल
झूठ होती है।
तुमने समुद्र
को तो बिलकुल
देखा ही नहीं;
केवल सतह को,
लहरदार सतह
को देखा है।
तुम तो केवल
किनारे पर ही
खड़े रहे।
तुमने देखा समुंद्र
की ओर, लेकिन
वह वस्तुत:
समुद्र न था।
वह केवल
सर्वाधिक
बाहर की परत
थी, केवल
एक सीमा जहां हवाएं
लहरों से मिल
रही थीं।
जैसे
कि तुम मुझसे
मिलने आते और
तुम देखते केवल
मेरे कपड़ों को
ही। फिर तुम
वापस चले जाते
हो और तुम
कहते हो कि तुम
मुझसे मिल लिए।
यह ऐसा ही हुआ
कि तुम मुझे
देखने आए, और
केवल घर भर
में घूमे और
बाहरी
दीवारों को देखा,
फिर वापस गए
और कह दिया—कि
तुमने जान
लिया है मुझे।
लहरें होती
हैं समुद्र
में, समुद्र
होता है लहरों
में, लेकिन
लहरें समुद्र
नहीं हैं। वे
तो सब से
ज्यादा बाहर
की हैं, समुद्र
के केंद्र से,
गहराई से
सर्वाधिक
दूरी की घटना।
जीवन
एक प्रवाह है, हर
चीज बह रही है,
परिवर्तित
हो रही है
दूसरे में।
पतंजलि कहते
हैं कि
विश्वास करना
कि यही जीवन
है यह अविद्या
है, यह
जागरूकता का
अभाव होना है।
तुम बहुत बहुत
दूर हो जाते
हो जीवन से, केंद्र से, उसकी गहराई
से। सतह पर
परिवर्तन
होता है, परिधि
पर गति होती
है, लेकिन
केंद्र पर कोई
चीज नहीं
सरकती। कोई
हलन—चलन नहीं,
कोई
परिवर्तन
नहीं।
यह
तो ऐसे है, जैसे
बैलगाड़ी
का पहिया।
पहिया चलता
जाता और चलता
ही जाता और
चलता ही चला
जाता, लेकिन
केंद्र पर कोई
चीज थिर बनी
रहती। उस थिर
ध्रुव पर
पहिया घूमता
रहता। पहिया
तो शायद संसार
भर में घूमता
रहा होगा, लेकिन
वह किसी ऐसी
चीज पर घूम
रहा था जो कि
नहीं घूम रही
थी। सारी
गतिमयता
निर्भर करती
है शाश्वत पर,
अगति पर।
यदि
तुमने केवल
जीवन की गति
देखी है, तो
पतंजलि कहते
हैं, 'यह है
अविद्या—जागरूकता
का अभाव।’ तब
तुमने
पर्याप्त
नहीं देखा।
यदि तुम सोचते
हो कि कोई
व्यक्ति बालक
है, फिर वह
युवा है, फिर
वृद्ध, फिर
मर गया—तो
तुमने देखा
केवल चक्र को
ही। तुमने
देखा गति को
बालक, युवा,
वृद्ध, मृत,
एक लाश।
क्या उसको
देखा तुमने जो
कि थिर रहा इन
सब गतियों के
बीच? क्या
उसे देखा
तुमने जो बालक
नहीं था, युवा
नहीं था और
वृद्ध नहीं था?
क्या उसे
देखा है, जिस
पर ये तमाम
अवस्थाएं
निर्भर करती
हैं? क्या
उसे देखा है
तुमने जो सभी
को पकड़े
रहता है और
सदा बना रहता
है वही, और
वही, और
वही? जो कि
न तो जन्मता
है और न ही
मरता है? यदि
तुमने उसे
नहीं जाना, यदि तुमने
उसका अनुभव
नहीं किया, तो पतंजलि
कहते हैं—तुम
अविद्या में
पड़े हो
जागरूकता के
अभाव में।
तुम
पर्याप्त रूप
से सजग नहीं
हो,
इसलिए तुम
पर्याप्त रूप
से जान नहीं
सकते।
तुम्हारे पास
पर्याप्त आंखें
नहीं हैं, इसलिए
तुम पर्याप्त
रूप से गहरे
नहीं देख सकते।
एक बार
तुम्हें आंखें
मिल जाएं, वह
दृष्टि वह बोध,
वह
स्पष्टता और
उसकी गहरे
उतरने की
शक्ति तो तुम
तुरंत जान
लोगे कि
परिवर्तन
मौजूद है, लेकिन
वही सब कुछ
नहीं। वस्तुत:
यह तो केवल
परिधि होती है—जो
बदलती, जो
कि सरकती।
बहुत गहरी
नींव में तो
है वही शाश्वत,
नित्य।
क्या
तुमने जाना है
शाश्वत को? यदि
तुमने नहीं
जाना, तो
वह अविद्या है,
तुम
सम्मोहित हुए
हो परिधि
द्वारा।
परिवर्तित
होते दृश्यों
ने तुम्हें
सम्मोहित कर
लिया है। तुम
उसकी पकड़ में
बहुत ज्यादा आ
गए हो।
तुम्हें
जरूरत है अलगाव
की, तुम्हें
जरूरत है थोड़े
से फासले की, तुम्हें
जरूरत है थोड़े
और निरीक्षण
की।’ अस्थायी
को स्थायी समझ
लेना अविद्या
है; अशुद्ध
को शुद्ध समझ
लेना अविद्या
है।’
शुद्ध
क्या है और
अशुद्ध क्या? तुम्हारी
साधारण
नैतिकता से
पतंजलि का कुछ
लेना—देना
नहीं है।
साधारणतया
नैतिकता में
भेद होता है—कोई
चीज भारत में
पवित्र हो
सकती है और
चीन में
अपवित्र हो
सकती है। हो
सकता है कोई
चीज भारत में
अशुद्ध हो और
इंग्लैंड में
शुद्ध हो। या,
यहां पर भी,
कोई चीज हिंदुओं
के लिए शुद्ध
हो सकती है और
जैनों के लिए
अशुद्ध।
नैतिकता अलग
अलग होती है।
वस्तुत: यदि
तुम नैतिकता
की परतो
को बेंधने
लगो, तो वे
अलग—अलग होती
हैं प्रत्येक
व्यक्ति में।
पतंजलि
नैतिकता की
बात नहीं कर
रहे। नैतिकता
तो केवल एक
समझौता है; उसकी
उपयोगिता है,
लेकिन
उसमें कोई
सत्य नहीं। और
जब पतंजलि
जैसा आदमी
बोलता है तो
वह बात करता
है शाश्वत
चीजों की, सीमित
चीजों की नहीं।
हजारों नैतिकताएं
संसार में
अस्तित्व
रखती हैं और
वे बदलती रहती
हैं हर रोज स्थितियां
बदलती हैं, तो नैतिकता
को बदलना पड़ता
है। जब पतंजलि
कहते हैं 'शुद्ध'
और 'अशुद्ध'
तो उनका
अर्थ बिलकुल
ही अलग होता
है।
'शुद्धता'
से उनका
मतलब है
स्वाभाविक; 'अशुद्धता' से उनका
मतलब है
अस्वाभाविक।
और कोई चीज
तुम्हारे लिए
स्वाभाविक हो
सकती है या कि
तुम्हारे लिए
अस्वाभाविक
हो सकती है, इसलिए कोई
कसौटी नहीं हो
सकती। अशुद्ध
को शुद्ध
जानने का अर्थ
हुआ कि अस्वाभाविक
को स्वाभाविक
जानना। यही है
जो तुमने किया
है, जो
सारी मनुष्य—जाति
ने किया है।
और इसलिए तुम
और— और अशुद्ध
हो गये हो।
स्वभाव
के प्रति सदा
सच्चे रहना।
जरा ध्यान दो
कि क्या
स्वाभाविक है, खोज
लो उसे।
क्योंकि
अस्वाभाविक
के साथ तुम
सदा तनावपूर्ण,
असहज, बेचैन
रहोगे। किसी
अस्वाभाविक
में, कोई
भी आराम से
नहीं रह सकता।
और तुम
तुम्हारे
चारों ओर
अस्वाभाविक
चीजें खड़ी कर
लेते हो। फिर
वे बोझ बन
जाती हैं और
वे तुम्हें
नष्ट कर देती
हैं। जब मैं
कहता हूं 'अस्वाभाविक'
तो मेरा
मतलब होता है—तुम्हारे
स्वभाव के
बाहर की कोई
चीज।
इसे
ऐसे समझो: एक
दूध बेचने
वाला आया।
तुमने दूध
लिया और तुम
कहते हो कि वह
दूषित है।
क्यों तुम
कहते हो कि वह
दूषित है? तुम
ऐसा कहते हो, क्योंकि
उसने उसमें
पानी मिलाया
हुआ है। लेकिन
यदि पानी
शुद्ध था और
दूध भी शुद्ध
था, तो दो शुद्धताएं
दुगुनी
शुद्धता बना
देंगी! कैसे
हो सकता है कि
दो शुद्धताएं
मिलें और चीज
अशुद्ध हो जाए?
लेकिन वे
अशुद्ध हो
जाती हैं।
शुद्ध पानी और
शुद्ध दूध
मिले, और
दोनों हो
जाएंगे
अशुद्ध। पानी
हो जाएगा
अशुद्ध, दूध
भी हो जाएगा
अशुद्ध, क्योंकि
कोई अलग चीज, बाहर की कोई
चीज प्रवेश कर
जाती हैं।
जब
मैं विद्यार्थी
था
यूनिवर्सिटी
में तो मेरे
पास एक दूध
बेचने वाला
आता था। वह
बहुत
प्रसिद्ध था
यूनिवर्सिटी
होस्टल में।
लोगों का
विश्वास था कि
वह बहुत साधु—स्वभाव
का आदमी है और
कभी भी पानी न
मिलाता होगा
दूध में—जैसा
चलन भारत में
आमतौर से है।
करीब—करीब
असंभव होता है
शुद्ध दूध
प्राप्त कर
लेना, लगभग
असंभव ही। वह
आदमी सचमुच ही
बहुत अच्छा
आदमी था। वह
एक वृद्ध
व्यक्ति था, एक वृद्ध
ग्रामीण; बिलकुल
ही अनपढ़, पर
बहुत भले दिल
का। अपने साधु—स्वभाव
के कारण सारी
यूनिवर्सिटी
में वह एक संत
के रूप में
जाना जाता था।
एक दिन मैंने
पूछा उससे, जब कि हम
परस्पर
परिचित हो
चुके थे और
हमारे बीच एक
निश्चित
मित्रता बन
चुकी थी, 'संत,
क्या
वास्तव में यह
सच ही है कि
तुम पानी और
दूध कभी नहीं
मिलाते?' वह
कहने लगा, 'बिलकुल
सच है।’ लेकिन
फिर मैंने कहां,
'ऐसा तो
असंभव है।
तुम्हारे दाम
तो उतने ही
हैं जितने कि
दूसरे
ग्वालों के, तुम्हारा तो
सारा धंधा
घाटे में जा
रहा होगा।’ वह हंस पड़ा।
वह कहने लगा, ' आप जानते
नहीं। इसकी एक
तरकीब है।’ मैं बोला, 'बताओ मुझे
वह तरकीब, क्योंकि
मैंने सुना है
कि तुम तो
अपना हाथ भी रख
देते हो रामायण
पर, हिंदू
बाइबल पर, यह
कहते हुए कि
तुम दूध में
पानी कभी नहीं
मिलाते।’ वह
बोला ही, ऐसा
भी किया है
मैंने
क्योंकि मैं
हमेश पानी में
दूध मिलाता
हूं।
कानूनी
तौर पर वह
बिलकुल ठीक है।
तुम शपथ ले
सकते हो, तुम
सौगंध ले सकते
हो; इसमें
कुछ अड़चन नहीं
होगी। लेकिन
चाहे तुम दूध
में पानी मिलाओ
या पानी में' दूध मिलाओ
बात एक ही है, क्योंकि
किसी चीज का
मिश्रण उसे
अशुद्ध बना देता
है।
जब
पतंजलि कहते
हैं,
' अशुद्ध को
शुद्ध जानना
अविद्या है,' तो वे कह रहे
हैं, ' अस्वाभाविक
को स्वाभाविक
जानना
अविद्या है।’
और तुम बहुत—सी
अस्वाभाविक
चीजों को
स्वाभाविक
मान लिए हो, तुम पूरी
तरह भूल चुके
हो कि
स्वाभाविक
क्या है।
स्वाभाविक को
पा लेने के
लिए तुम्हें
स्वयं में
गहरे उतरना
होगा। सारा
समाज तुम्हें
अस्वाभाविक
बना देता है; वह तुम पर
ऐसी चीजें
लादता जाता है
जो कि स्वाभाविक
नहीं होतीं, वह तुम्हें
एक ढांचे में
खलता जाता है।
वह तुम्हें
देता चला जाता
है आदर्श, सिद्धात,
पूर्वाग्रह,
और तरह—तरह
की नासमझियां।
तुम्हें उसे
स्वयं खोज
लेना है जो
स्वाभाविक है।
अभी
कुछ दिन पहले
एक युवक आया
मेरे पास। वह
पूछने लगा, 'क्या
मेरे लिए
विवाह कर लेना
ठीक है? क्योंकि
मेरी
आध्यात्मिक
प्रवृत्ति है,
मैं विवाह
नहीं करना
चाहता।’ मैंने
पूछा उससे, 'क्या तुमने
विवेकानंद को
पढ़ा है? वह
बोला, 'ही, विवेकानंद
तो मेरे गुरु
हैं।’ तब
मैंने पूछा
उससे, 'दूसरी
और कौन—सी
किताबें तुम
पढ़ते रहे हो!' वह बोला, 'शिवानंद,
विवेकानंद और
दूसरे कई
शिक्षकों को।’
मैंने पूछा
उससे, 'विवाह
न करने का
विचार
तुम्हारा है
या विवेकानंद
और शिवानंद
आदि का है?
यह यदि
तुम्हारा है
तो बिलकुल ठीक
है यह।’ वह
बोला, 'नहीं,
क्योंकि
मेरा मन
कामवासना के
बारे में
सोचता ही रहता
है, पर
विवेकानंद ही
ठीक होंगे कि कामवासना
से लड़ना ही
चाहिए। वरना
कैसे सुधरेगा
कोई? व्यक्ति
को
आध्यात्मिकता
उपलब्ध करनी
है।’
यही
है अड़चन। अब
यह विवेकानंद
दूध में मिले
हुए पानी हैं।
विवेकानंद के
लिए ठीक रहा
होगा
ब्रह्मचारी रहना; यह
है उनके अपने
निर्णय की बात।
लेकिन यदि वे
प्रभावित थे
बुद्ध से, रामकृष्ण
से, तो वै
भी
अस्वाभाविक
हुए, अशुद्ध
हुए।
अपने
अंतस का और
स्वभाव का
अनुसरण करना
होता है, और
रहना होता है
बहुत सच्चा और
प्रामाणिक।
क्योंकि जाल
बहुत बड़ा है
और गड्डे
लाखों हैं।
सड़क बंट जाती
है बहुत सारे
आयामों में और
दिशाओं में।
तुम खो सकते
हो। तुम्हारा
मन सोचता है
कामवासना की,
विवेकानंद
का शिक्षण
कहता है, 'नहीं।’
तब तुम्हें
निर्णय लेना
होता है।
तुम्हें चलना
पड़ता है
तुम्हारे मन
के अनुसार।
मैंने कहां उस
युवक से, 'बेहतर
है कि तुम
विवाह कर लो।’
तब मैंने एक
कथा कही उससे।
जितने
सर्वाधिक
पीड़ित पति हुए
उनमें से एक
था सुकरात।
उसकी पत्नी जेनथिपे
बहुत खतरनाक
स्त्रियों
में से एक थी।
स्त्रियां
खतरनाक होती
हैं लेकिन वह
तो सबसे ज्यादा
खतरनाक
स्त्री थी। वह
पीटती थी
सुकरात को। एक
बार तो उसने
सारी चायदानी
उंडेल दी उसके
सिर पर। उसका
आधा चेहरा जला
हुआ ही रहा
जीवन भर। ऐसे
आदमी से पूछना
कि क्या करें!
पूछा था एक युवक
ने,
'मुझे विवाह
करना चाहिए या
नहीं?' निस्संदेह,
वह आशा रखता
था कि सुकरात
कहेगा, 'नहीं'—उसने बहुत
दुख पाया था
इस कारण।
लेकिन वह तो
बोला, 'ही, तुम्हें कर
लेना चाहिए
विवाह।’ युवक
कहने लगा, 'लेकिन
ऐसा कैसे कह
सकते हैं आप? मैंने तो
बहुत सारी
अफवाहें सुनी
हैं आपके बारे
में और आपकी पत्नी
के बारे में।’
वह बोला, 'हां, मैं
तो कहता हूं
तुमसे कि
तुम्हें
विवाह कर लेना
चाहिए। यदि
तुम्हें
अच्छी पत्नी
मिलती हैं तो
तुम प्रसन्न
रहोगे, और
प्रसन्नता द्वारा
बहुत सारी
चीजें विकसित
होती हैं, क्योंकि
प्रसन्नता
स्वाभाविक
होती है। यदि
तुम्हें बुरी
पत्नी मिलती
है, तब निरासक्ति,
त्याग की
भावना विकसित
होगी। तुम मुझ
जैसे महान
दार्शनिक बन
जाओगे। दोनों
ही अवस्थाओं
में तुम्हें
लाभ होगा। जब
तुम मेरे पास
पूछने आए हो कि
विवाह करूं या
नहीं, तो
विवाह का
विचार तुममें
है, वरना
तुम मेरे पास
आते ही क्यों?'
मैंने
कहां इस युवक
से,
'तुम मुझसे
पूछने आए हो।
यह आना ही
बतलाता है कि
विवेकानंद
पर्याप्त
नहीं रहे, अभी
भी तुम्हारा
स्वभाव डोलता
रहता है।
तुम्हें
विवाह कर लेना
चाहिए। दुखी
होओ उससे, आनंदित
होओ उससे; पीड़ा
और सुख दोनों
में से गुजरो
और परिपक्व हो
जाओ अनुभव
द्वारा। एक
बार तुम पक
जाते हो, इसलिए
नहीं कि
विवेकानंद या
कोई दूसरा ऐसा
कहता है, बल्कि
इसलिए कि तुम
प्रौढ़ और
परिपक्व हो ही
चुके हो, कामवासना
की मूढ़ता
गिर जाती है।
वह गिर जाती है,
तब
ब्रह्मचर्य
उदित होता है,
सच्चा
ब्रह्मचर्य
उदित होता है,
शुद्ध
ब्रह्मचर्य
उदित होता है,
लेकिन यही
तो है भेद।’
सदा
स्मरण रखना कि
तुम तुम हो, न
तो तुम
विवेकानंद हो
और न तुम
बुद्ध हो और न
ही मुझ जैसे
हो। बहुत
प्रभावित मत
हो जाना, प्रभाव
है अशुद्धता।
सचेत रहो, सजग
रहो, ध्यान
से देखो, और
जब तक कोई चीज
तुम्हारे स्वाभाव
के अनुरूप
नहीं बैठती, मत ग्रहण
करो उसे। वह
तुम्हारे लिए
नहीं होती या
कि तुम उसके
लिए तैयार ही
नहीं होते। जो
कुछ भी हो बात,
इस क्षण तो
वह चीज
तुम्हारे लिए
नहीं है।
तुम्हें बढ़ना
होता है
तुम्हारे
अपने अनुभव के
द्वारा। एक
परिपक्वता तक,
प्रौढ़ता तक पहुंचने
के लिए
तुम्हें दुख
की जरूरत होती
है। तुम जल्दी
में पड़कर
कोई बात नहीं
कर सकते।
जीवन
अनंत है, उसमें
कहीं कोई
जल्दी नहीं।
समय की कमी
नहीं है। जीवन
तो नितांत
धैर्यवान है,
वहां कोई
अधैर्य नहीं।
तुम बढ़ सकते
हो, तुम्हारी
अपनी गति से। शार्टकट्स
की कोई जरूरत
नहीं, कोई
कभी सफल नहीं
हुआ शार्टकट्स
के द्वारा।
यदि तुम
जल्दबाजी का
रास्ता पकड़ते
हो, तो कौन
तुम्हें
अनुभव देगा
लंबी यात्रा
का? तुम
उसे चूक जाओगे।
और हर संभावना
मौजूद है कि
तुम वहीं लौट
आओगे और सारी
बात ही ऊर्जा
और समय की
क्षति बन
जाएगी। शार्टकट्स
सदा
भ्रांतियां
ही होते हैं।
कभी मत चुनना शार्टकट; सदा
स्वाभाविक को
ही चुनना। हो
सकता है इसमें
ज्यादा समय लग
जाए—तो लगने
दो। इसी भाति
तो जीवन
विकसित होता
है, उसे
जबरदस्ती
लाया नहीं जा
सकता।
जब
पतंजलि कहते
हैं,
'शुद्ध को
अशुद्ध समझ
लेना अविद्या
है, जागरूकता
का अभाव है', तो शुद्धता
का अर्थ होता
है—तुम्हारी
स्वाभाविकता,
जैसे कि तुम
हो—दूसरों के
द्वारा
प्रभावित
नहीं, प्रदूषित
नहीं। किसी को
आदर्श मत बना
लेना। बुद्ध
की भांति होने
की कोशिश मत
करना; तुम
केवल
तुम्हारे
जैसे हो सकते
हो। यदि बुद्ध
तुम जैसे होने
की कोशिश करते,
तो वैसा
संभव न होता।
कोई किसी
दूसरे जैसा
नहीं हो सकता।
प्रत्येक का
अपना होने का
अनूठा ढंग
होता है, और
वही है
शुद्धता। तुम्ह:रे
अपने
अस्तित्व का
अनुसरण करना,
तुम्हारा
स्वयं जैसा हो
जाना शुद्धता
है। यह बहुत कठिन
है, क्योंकि
तुम प्रभावित
हो जाते हो, क्योंकि तुम
सम्मोहित हो
जाते हो। ऐसा
बहुत कठिन है,
क्योंकि
ऐसे तर्कसंगत
व्यक्ति
मौजूद हैं जो कि
तुम्हें
विश्वसनीय
ढंग से
प्रभावित कर
देते हैं। यह
बहुत कठिन है।
बहुत सुंदर
लोग हैं वे; उनकी
सुंदरता
प्रभावित
करती है तुम्हें।
चारों ओर बहुत
बढ़िया लोग हैं,
वे चुंबकीय
रूप से आकर्षक
हैं, उनके
पास बड़ा
आकर्षण है। जब
तुम उनके
आसपास होते हो,
तो तुम खींच
ही लिए जाते
हो, उनके
पास
गुरुत्वाकर्षण
होता है।
तुम्हें
सचेत रहना
पड़ता है, महान
व्यक्तियों
के प्रति
ज्यादा सचेत,
उनके प्रति
ज्यादा सचेत
जिनके पास
चुंबकीय आकर्षण
है, उनके
प्रति ज्यादा
सचेत जो
प्रभावित कर
सकते हैं। वे
प्रभावित कर
सकते हैं, और
तुम्हें बदल
सकते हैं, क्योंकि
वे तुम्हें दे
सकते हैं
अशुद्धता।
ऐसा नहीं है
कि वे तुम्हें
देना ही चाहते
हैं उसे, किसी
बुद्ध पुरुष
ने कभी नहीं
चाहा है किसी
को अपने जैसा
बनाना। वे
नहीं चाहते
ऐसा, लेकिन
तुम्हारा
अपना मूढ़
मन ही अनुकरण
करना चाहेगा,
किसी दूसरे
को आदर्श बना
लेना चाहेगा
और उसके जैसा
होने का
प्रयास करेगा।
यही है सबसे
बड़ी अशुद्धता
जो कि घट सकती
है किसी
व्यक्ति को।
प्रेम
करो बुद्ध से, जीसस
से, रामकृष्ण
से, उनके
अनुभवों
द्वारा
समृद्ध बनो, पर प्रभावित
मत हो जाना।
ऐसा बहुत कठिन
होता है, क्योंकि
भेद बहुत
सूक्ष्म है।
प्रेम करो, सुनो, आत्मसात
करो, पर
अनुकरण मत करो।
ग्रहण करो जो
कुछ तुम ग्रहण
कर सकते हो, लेकिन सदा
ग्रहण करना
तुम्हारे
स्वभाव के अनुसार।
यदि कोई चीज
अनुरूप बैठती
हो तुम्हारे
स्वभाव के तो
ले लेना उसे—मगर
इसलिए नहीं कि
बुद्ध कहते
हैं वैसा करने
को।
बुद्ध
फिर—फिर याद
दिलाते अपने
शिष्यों को, 'कोई
चीज मत मान
लेना क्योंकि
मैं कहता हूं।
मानना तो केवल
इसलिए यदि
तुम्हें उसकी
जरूरत हो तो, यदि तुम उस
स्थान तक
पहुंच गए जहां
कि वह तुम्हारे
लिए
स्वाभाविक हो।’
बुद्ध, बुद्ध
बनते हैं
लाखों—लाखों
जन्मों
द्वारा, शुभ
और अशुभ के, पाप और
पुण्य के, नैतिकता
और अनैतिकता
के, दुख और
सुख के लाखों
अनुभवों
द्वारा।
स्वयं बुद्ध
को गुजरना
पड़ता है लाखों
जन्मों से और
लाखों
अनुभवों से।
और क्या चाहते
हो तुम? बुद्ध
को सुनने
मात्र से, उनके
द्वारा
प्रभावित हो
जाने से, तुम
तुरंत छलांग
लगाते हो और
उनका अनुकरण
करने लगते हो!
वैसा संभव
नहीं है।
तुम्हें
तुम्हारे
अपने मार्ग से
ही चलना होगा।
जो कुछ तुम ले
सकते हो, ले
लेना, लेकिन
हमेशा बढ़ना
तुम्हारे
अपने मार्ग पर
ही।
मुझे
सदा याद आ
जाती है
फ्रेडरिक
नीत्शे की किताब
'दस स्पेक
जरथुस्त्र।’ जब
जरथुस्त्र
अपने शिष्यों
से विदा ले
रहे थे। जो
अंतिम बात
उन्होंने कही,
बड़ी सुंदर
थी। वह अंतिम
संदेश था; वे
कह चुके थे हर
बात।
उन्होंने
अपना संपूर्ण
हृदय दे दिया
था उन्हें और
जो अंतिम बात
कही, वह थी,
' अब सुनो
मुझे और ऐसी
गहराई से सुनो
जैसा तुमने
कभी न सुना हो।
मेरा अंतिम
संदेश है:
जरथुस्त्र से
सावधान रहना!
मुझसे सावधान
रहना।’
यही
अंतिम संदेश
है सारे बुद्ध
पुरुषों का, क्योंकि
वे बहुत
आकर्षक होते
हैं, तुम
प्रभाव में पड़
सकते हो। और
एक बार तुमसे
बाहर की चीज
तुम्हारे
स्वभाव में
प्रवेश कर
जाती है, तो
तुम गलत मार्ग
पर होते हो।
पतंजलि
कहते हैं, 'अशुद्ध
को शुद्ध
जानना, दुख
को सुख जानना—जागरूकता
का अभाव है, अविद्या है।’
तुम
कहोगे, 'जो
कुछ पतंजलि
कहते हैं सच
हो सकता है।
लेकिन हम इतने
मूढ़ नहीं
कि दुख को सुख
मान लें।’ तुम
मूढ़ हो।
हर कोई मूढ़
है—जब तक कि
कोई
संपूर्णतया
जागरूक नहीं
हो जाता।
तुमने बहुत
सारी चीजें
सुखकारी मान
ली हैं जो कि
दुखदायी हैं।
तुम पीड़ा
भोगते हो और
तुम चीखते— चिल्लाते
और रोते हो, लेकिन
फिर भी तुम
नहीं समझते कि
तुमने कुछ ऐसी
चीज की है जो
कि मौलिक रूप
से दुखपूर्ण
है और सुख में
परिवर्तित
नहीं की जा सकती।
रोज
मेरे पास लोग
आते हैं अपने
यौन—संबंधी
मामलों को
लेकर। वे कहते
हैं कि यह तो
बहुत पीड़ा से
भरा है। मैंने
एक भी ऐसा
जोड़ा नहीं
देखा, जिसने
कहा हो मुझसे
कि उनका यौन —जीवन
वैसा ही है
जैसा कि उसे
होना चाहिए—श्रेष्ठ,
सुंदर। बात
क्या है? शुरू
में वे कहते
हैं कि हर चीज
सुंदर है।
शुरू में वह
सदा ही होती
है। हर किसी
के लिए यौन —संबंध
सुंदर होता है
शुरू में, लेकिन
फिर क्यों वह
दुखी और कडुआ
हो जाता है? क्यों थोड़े
समय बाद, हनीमून
के खत्म होने
के पहले ही, वह हताश और
कडुआ होने
लगता है?
जिनके
पास भी मानव
चेतना पर कुछ
गहराई से कहने
को सत्य वचन
हैं, वे
कहते हैं, 'शुरू
—शुरू में जो
सौंदर्य है वह
एक प्राकृतिक
तरकीब है
तुम्हें धोखा
देने की।’ एक
बार तुम धोखे
में आ जाते हो,
फिर
वास्तविकता
उभर आती है।
यह ऐसे है
जैसे कि जब
तुम मछली पकड़ने
जाते हो और
तुम किसी काटे
का प्रयोग
करते हो; शुरू
में जब दो
व्यक्ति
मिलते हैं, तो वे सोचते
हैं कि ' अब
यह संसार का
सबसे बड़ा चरम
अनुभव होगा।’
वे सोचते
हैं कि 'यही
स्त्री सबसे
सुंदर स्त्री
है।’ और
स्त्री सोचती
है कि 'जो
पुरुष हुए उन
में से यह सब
से महान पुरुष
है।’ वे एक
भ्रांति— का
आरंभ करते हैं,
वे' प्रक्षेपित
करते हैं। वे
कोशिश करते
हैं वह देखने
की जो कुछ वे
देखना चाहते
हैं। वे नहीं
देखते असली
व्यक्ति को।
वे नहीं देखते
उसे जो वहा है,
वे तो बस
उनका अपना
सपना
प्रक्षेपित
हुआ ही देखते
हैं। दूसरा तो
केवल एक परदा
बन जाता है और
तुम प्रक्षेपित
करते हो। देर—
अबेर
वास्तविकता आ
बनती है। और
जब कामवासना
की परिपूर्ति हो
जाती है, जब
प्रकृति के
आधारभूत
सम्मोहन की पूर्ति
हो जाती है, तब हर चीज
बेस्वाद हो
जाती है।
तब तुम
दूसरे को ऐसे
देखने लगते हो
जैसा कि वह
होता है, बहुत
सामान्य, कुछ
विशिष्ट नहीं।
शरीर में अब
कोई सुगंध न
रही —उससे तो
पसीना बहता।
चेहरा अब
दिव्य न रहा—वह
पशु जैसा हो
गया। आंखों से
अब ईश्वर नहीं
देख रहा
तुम्हारी ओर,
बल्कि वहा
एक उग्र जानवर,
एक कामुक
पशु है। भ्रम
टूट गया, सपना
बिखर गया। अब
दुख प्रारंभ
हुआ।
और
तुमने तो वादा
किया था कि
तुम सदा इस
स्त्री से
प्रेम करते
रहोगे, स्त्री ने
वादा किया था
कि अगले
जन्मों में भी
वह तुम्हारी
छाया बनी
रहेगी। अब तुम
छले गए हो
तुम्हारे
अपने वादों
द्वारा, जाल
में उलझ गए हो।
अब कैसे तुम
पीछे हट सकते
हो? अब
तुम्हें उसे
चलाए ही चलना
होगा।
पाखंड, दिखावा, क्रोध
प्रवेश कर
जाते हैं।
क्योंकि जब
कभी भी तुम
दिखावा करते
हो, तो देर—
अबेर तुम्हें
गुस्सा आएगा
ही, दिखावा
बड़ा भारी बोझ
होता है। अब
तुम स्त्री का
हाथ पकड़ते
हो और उसे थामे
रहते हो, लेकिन
उससे तो बरन
पसीना ही
छूटता है और
घटता कुछ नहीं
है, कोई
कविता नहीं, केवल पसीना
ही। तुम उसे
छोड़ना चाहते
हो, लेकिन
स्त्री को तो
इससे चोट पहुंचेगी।
वह भी हाथ छोड़
देना चाहती है,
लेकिन वह भी
सोचती है कि
तुम्हें चोट
लगेगी। और
प्रेमियों को
तो हाथों को थामे ही
रहना है! तुम
चूमते हो स्त्री
को, लेकिन
वहा सिवाय
मुंह की बदबू
के कुछ नहीं
होता। हर बात
असुंदर हो
जाती है और तब
तुम प्रतिक्रिया
करते, तब
तुम बदला लेते;
तब तुम
दूसरे पर
जिम्मेदारी
डाल देते, तब
तुम सिद्ध
करना चाहते कि
दूसरा अपराधी
है। उसने कुछ
गलत किया है
या कि उसने
तुम्हें धोखा
दिया है, वह
ऐसा होने का
दिखावा करती
रही है जैसी
कि वह नहीं थी!
और फिर चली
आती है विवाह
की सारी असुंदरता।
ध्यान
रहे,
दुख को सुख
जानना है
जागरूकता का
अभाव होना।
आरंभ में यदि
कोई चीज
सुखदायी होती
है और अंत में
दुखदायी बन
जाती है, तो
ध्यान रहे कि
यह बिलकुल
शुरू से ही
दुखपूर्ण थी;
केवल
जागरूकता के
अभाव ने ही
तुम्हें धोखा
दिया है। किसी
और ने धोखा
नहीं दिया है
तुम्हें, दिया
है तो जागरूकता
के अभाव ने ही।
तुम्हें
पर्याप्त होश
न था चीजों को
उस तरह देखने
का जैसी कि वे
थीं। अन्यथा,
कैसे सुख
बदल सकता था
दुख में! यदि
सचमुच ही सुख
होता, तो
जैसे—जैसे समय
बीतता, तो
वह और— और बड़ा
सुख बन गया
होता। होना तो
उसे ऐसा ही
चाहिए।
तुम
बोते हो आम के
पेडू का बीज
ज्यों—ज्यों
वह बढ़ता है, तो
क्या वह नीम
के पेडू का फल
बन जाएगा, कडुआ
होगा? यदि
पहले ही बीज
आम का था, तो
बनेगा आम का
पेड़, आम वःा
विशाल वृक्ष।
हजारों आम
आएंगे उस पर।
लेकिन यदि तुम
लगाते हो आम
का वृक्ष और
अंत में वह हो
जाता है नीम
का पेडू, कडुआ,
एकदम कडुआ,
तो क्या
अर्थ होता है
इसका? इसका
अर्थ है कि
पेडू ने
तुम्हें धोखा
नहीं दिया, बल्कि तुमने
ही नीम के
पेडू के बीज
को भूल से आम
के पेडू का
बीज जान लिया
था। वरना, सुख
तो और सुखदायी
हो जाता है, प्रसन्नता
और— और
प्रसन्नता
होती जाती है,
अंतत: वह
आनंद का
उच्चतम शिखर
हो जाती है।
लेकिन
व्यक्ति को
सजग रहना होता
है, जब कि
वह बीज बो रहा
होता है। एक
बार तुम बीज
बो देते हो, फिर तुम पकड़
लिए जाते हो, क्योंकि तब
तुम बदल नहीं
सकते। तब
तुम्हें फल
पाना ही होगा।
और तुम फल पा
रहे हो।
तुम
सदा दुख की
फसल पाते हो
और तुम्हें
कभी होश नहीं
आता कि बीज के
साथ ही कुछ
गलत होगा। जब
कभी तुम्हें
दुख भोगना
पड़ता है, तुम
सोचने लगते हो
कि कोई दूसरा
तुम्हें धोखा देता
रहा है—पत्नी,
पति, मित्र,
परिवार, पर
है कोई दूसरा
ही। शैतान या
कोई और
तुम्हारे साथ
चालाकियां चल
रहा है। यह है
उस सच्चाई से
बचना कि तुमने
गलत बीज बोए—हैं।
दुख
को सुख जान
लेना
जागरूकता का
अभाव होना है।
और यही है
कसौटी। पूछो
पतंजलि से, शंकराचार्य
से, बुद्ध
से; यही है
कसौटी : यदि
अंततः कोई बात
दुख बन जाती है,
तो आरंभ से
ही वह दुखदायी
रही होगी। अंत
कसौटी है; अंतिम
फल ही है
कसौटी।
तुम्हें वृक्ष
पहचानना है फल
द्वारा, दूसरा
और कोई उपाय
नहीं पहचानने
का। यदि
तुम्हारा
जीवन दुख का
एक वृक्ष बन
गया है, तो
तुम्हें
जानना चाहिए
कि बीज ही गलत
था; तुमने
कुछ गलत किया,
वापस लौटो।
लेकिन
तुम कभी वैसा
नहीं करते।
तुम फिर वही
गलती दुबारा
करोगे। यदि
तुम्हारी
पत्नी मर जाए
और तुमने बहुत
बार सोचा था
कि यदि वह मर जाए
तो अच्छा ही
होगा ऐसा पति
खोजना कठिन है, जिसने
बहुत बार सोचा
न हो कि यदि
उसकी पत्नी मर
जाए तो यह
अच्छा होगा—'मैंने तोबा
की और मुझे
फिर किसी
स्त्री की तरफ
देखना ही नहीं
है।’—लेकिन
जिस क्षण
पत्नी मरती है,
तुरंत
दूसरी पत्नी
का विचार मन
में आ जाता है।
मन फिर सोचने
लगता है, 'कौन
जाने? यह
स्त्री अच्छी
न हो, लेकिन
दूसरी स्त्री
अच्छी हो सकती
है। यह संबंध
सुंदर अंत तक
नहीं पहुंचा,
लेकिन यह
बात सारे
द्वार ही तो
बंद नहीं कर
देती, दूसरे
द्वार खुले
हैं।’ मन
काम करने लगता
है। तुम फिर
से जाल में
उलझ जाओगे और
तुम फिर पीड़ा पाओगे।
और तुम सदा ही
सोचोगे, 'शायद
यह स्त्री या
कि वह स्त्री.....:।’
यह स्त्री या
पुरुष का सवाल
नहीं, यह
जागरूक होने
का सवाल है।
यदि
तुम्हें होश
होता है, तब जो
कुछ तुम करते
हो, तुम अंत
की ओर देखते
हुए ही करोगे।
तुम्हें इसका
पूरा होश
रहेगा कि अंत
में क्या होने
वाला है। तो
यदि दुखमय
होना चाहते हो,
यदि तुम
पीड़ा और दुख
में जीना ही
चाहते हो, तो
यह चुनना तुम
पर है। लेकिन
तब तुम किसी
दूसरे को
जिम्मेदार
नहीं ठहरा
सकते। तुम
बिलकुल ठीक से
जानते हो कि
तुमने बीज
बोया और अब
तुम्हें उसके
वृक्ष का फल
पाना ही है।
लेकिन कौन ऐसा
मूढ़ है कि
सजग, सचेत
होकर वह कडुवे
बीज बोएगा?
किसलिए?
'और अनात्म
को आत्म जानना
अविद्या है'।’
यही
चीजें हैं
कसौटी।
तुमने
अनात्म को
आत्म जान लिया
है। कई बार
तुम सोचते हो
कि तुम शरीर
हो। कई बार
तुम सोचते हो
कि तुम मन हो।
कई बार तुम
सोचते हो कि
तुम हृदय हो।
ये हैं तीन
उलझाव। शरीर
सबसे ज्यादा
बाहरी परत है।
जब तुम्हें
भूख: लगती है, तब
क्या तुमने
सदा यही नहीं कहां
है कि 'मैं
भूखा हूं?' जागरूकता
का अभाव है यह।
तुम तो मात्र
जानने वाले हो
कि शरीर भूखा
है, तुम
भूखे नहीं
होते हो।
चेतना कैसे
भूखी हो सकती
है? भोजन
कभी भी चेतना
में प्रवेश
नहीं करता है,
चेतना कभी
भूखी नहीं
होती है।
वस्तुत: जब
तुम जान लेते
हो चेतना को, तो तुम जान
लोगे कि वह
सदा परितृप्त
होती है, कभी
भूखी नहीं
होती। वह सदा
संपूर्ण होती
है; उसमें
किसी चीज का
अभाव नहीं
होता। वह है
पहले से ही परमोत्कर्ष,
परम शिखर, अंतिम विकास,
वह भूखी
नहीं होती। और
चेतना कैसे
भूखी हो सकती
है भोजन के
लिए?—उसकी
आवश्यकता
शरीर को है।
होशपूर्ण
आदमी तो कहेगा, 'मेरा
शरीर भूखा है।’
या अगर होश
ज्यादा ही
गहरा चला जाता
है, तो वह
नहीं कहेगा 'मेरा शरीर', वह कहेगा, 'यह शरीर
भूखा है; शरीर
है भूखा।’
एक
बड़े भारतीय
रहस्यवादी
संत अमरीका गए।
उनका नाम था
रामतीर्थ। वे
सदा अन्य
पुरुष में बात—चीत
करते थे। वे
कभी नहीं कहते
थे,
'मैं।’ ऐसा
अजीब लगता कि
वे क्या कह
रहे हैं, क्योंकि
लोग उन्हें
नहीं जानते थे,
नहीं समझते
थे। एक दिन वे
लौटे उस घर
में जहां कि
वे अमरीका में
ठहरे हुए थे।
वे हंसते गए, मजे से, उनका
सारा शरीर एक
भरपूर हंसी
हंस रहा था।
सारा शरीर हिल
रहा था हंसी
सहित। उस
परिवार के
लोगों ने पूछा,
'बात क्या
है, हुआ
क्या? क्यों
आप इतने खुश
हैं? क्यों
हंस रहे हैं
आप?' वे
बोले, 'कुछ
बात ही ऐसी
घटी सड़क पर।
कुछ शरारती
लड़कों ने राम
पर पत्थर
फेंकने शुरू
कर दिए'—राम
तो उन्हीं का
नाम था— 'और
मैंने कहां
राम से, अब
देख लो! और राम
बहुत ज्यादा
गुस्से में था।
वह इसके लिए
कुछ करना
चाहता था, लेकिन
मैंने सहयोग
नहीं दिया, मैं खड़ा रहा
एक ओर।’ परिवार
के लोग कहने
लगे, 'हम
नहीं समझ सके
कि आपका मतलब
क्या है!
किसके बारे
में बात कर
रहे हैं आप?' रामतीर्थ
बोले, 'मैं
राम नहीं हूं;
मैं चैतन्य हूं, जाता हूं।
यह शरीर राम
है और वे लड़के
मुझ पर पत्थर
नहीं फेंक सकते।
कैसे पत्थर
फेंका जा सकता
है चेतना पर? क्या तुम
पत्थर से आकाश
को चोट पहुंचा
सकते हो? क्या
तुम पत्थर से
आकाश को छू
सकते हो?'
चेतना
एक विशाल आकाश
है,
एक खुला
आकाश; तुम
उसे चोट नहीं
पहुंचा सकते।
केवल शरीर को
चोट पहुंचायी
जा सकती है
पत्थर द्वारा,
क्योंकि शरीर
संबंधित है
पदार्थ से, पदार्थ चोट
पहुंचा सकता
है उसे। शरीर
पदार्थ का है,
उसे भोजन की
भूख लगती है।
भोजन उसे
तृप्त कर सकता
है, भूख तो
उसे मार देगी।
चेतना शरीर
नहीं है।
जागरूकता
का अभाव होता
है जब तुम
अपने शरीर को
ही स्वयं मान
लेते हो।
तुम्हारे
जावन के
निन्यानबे
प्रतिशत दुख
इसी कारण हैं; जागरूकता
के अभाववश।
तुम शरीर को
ही 'मैं' मान लेते हो
और तब तुम
पीड़ा पाते हो।
तुम स्वप्न
में पीड़ा भोग
रहे हो। शरीर
तुम्हारा
नहीं है।
जल्दी ही यह
तुम्हारा
नहीं रहेगा।
कहां थे तुम, जब तुम्हारा
शरीर मौजूद न
था? तुम्हारे
जन्म से पहले कहां
थे तुम, तब
तुम्हारा
चेहरा क्या था?
और
तुम्हारा
चेहरा कैसा
होगा? तुम
पुरुष होओगे
या स्त्री? चेतना इन
दोनों में से
कुछ नहीं है।
यदि तुम सोचते
हो कि मैं
पुरुष हूं तो
यह है जागरूकता
का अभाव।
चेतना? चेतना
कैसे बांट दी
जा सकती है
स्त्री—पुरुष
में? उसके
कोई स्त्री—पुरुष
के अंग नहीं
होते हैं। यदि
तुम सोचते कि
तुम बच्चे हो
या युवक या कि
वृद्ध, तो
फिर तुममें
जागरूकता का
अभाव होता है।
कैसे तुम
वृद्ध हो सकते
हो? कैसे
युवा हो सकते
हो? चेतना
इन दोनों में
कुछ भी नहीं।
वह तो शाश्वत
है, वह एक
ही है वह
जन्मती नहीं,
वह मरती
नहीं और बनी
रहती है—वह
स्वयं ही जीवन
है।
या, मन
को लो—वह है
दूसरी, ज्यादा
गहरी परत और
वह ज्यादा
सूक्ष्म होती
है और चेतना
के ज्यादा
निकट होती है।
तुम स्वयं को
मन ही मान
लेते हो। तुम
कहे जाते हो, मैं, मैं,
मैं। यदि
कोई तुम्हारी
धारणा का
विरोध करता है
तो तुम कहते
हो, 'यह
मेरी धारणा है',
और तुम लड़
पड़ते हो उसके
लिए। सत्य के
लिए कोई विवाद
नहीं करता है,
लोग बहस
करते और वाद—विवाद
करते और लड़ते
हैं उनके 'मैं'
के लिए।’मेरी
धारणा का अर्थ
है मैं। कैसे
तुम्हें
हिम्मत पड़ती
है विरोध करने
की? मैं
सिद्ध कर
दूंगा कि मैं
सही हूं।’ सत्य
की किसी को
चिंता नहीं।
कौन फिक्र
करता है?—सवाल
तो यह होता है
कि सही कौन है
सवाल यह नहीं कि
सही क्या है।
लेकिन फिर लोग
तादात्म्य
बना लेते हैं,
और केवल
साधारण लोग ही
नहीं, वे
व्यक्ति भी जो
कि धार्मिक
होते हैं।
एक
आदमी परिवार
त्याग देता है, बच्चे,
बाजार, संसार
छोड़ देता है
और चला जाता
है हिमालय की
ओर। तुम पूछते
हो उससे, 'क्या
तुम हिंदू हो?'
और वह कहता
है, 'ही'।
यह हिंदुत्व
है क्या? क्या
चेतना हिंदू
है, मुसलमान
है, ईसाई
है? यह है
मन। जागरूकता
का अभाव होता
है यदि तुम
अनात्म के साथ
तादात्म्य बना
लेते हो और
सोचते हो कि
वह आत्मा है।
और
फिर है हृदय, चेतना
के सर्वाधिक
निकट, लेकिन
फिर भी बहुत
दूर। तीन तल
हुए—शरीर, विचार
और भाव। जब
तुम्हें भाव
की अनुभूति
होती है, तो
तुम्हें बहुत
होश रखना होता
है, यह
अनुभव करने को
कि वह तुम
नहीं हो जिसे
अनुभूति होती है।
वह बात फिर
यंत्र का ही
हिस्सा है।
निस्संदेह, वह चेतना के
निकटतम है।
हृदय चेतना के
निकटतम है, सिर पड़ता है
बीच में, और
शरीर है सबसे
दूर। लेकिन
फिर भी, तुम
हृदय नहीं हो।
अनुभूति भी एक
घटना है, वह
आती है और चली
जाती है वह एक
तरंग है, वह
उठती है और मर
जाती है। वह
एक भावदशा
है। वह
अस्तित्व
रखती है और
फिर अस्तित्व
नहीं रखती है।
तुम वह हो
जिसका
अस्तित्व सदा
रहेगा—सदा—सदा,
अनंतकाल तक।
'अनात्म को
आत्मा जान
लेना है
जागरूकता का
अभाव होना।’
तो
फिर जागरूकता
है क्या? जागरूकता
है इस बात के
प्रति होश
रखना कि तुम
शरीर नहीं हो।
इसलिए नहीं कि
उपनिषद ऐसा
कहते हैं या
पतंजलि ऐसा
कहते हैं—क्योंकि
तुम, अपने
मन में ऐसा
पूरी
तरह
बैठा सकते हो
कि तुम शरीर
नहीं हो। तुम
हर सुबह और
शाम दोहरा
सकते हो, 'मैं
शरीर नहीं हूं?। उससे मदद न
मिलेगी। यह
दोहराने की
बात ही नहीं
है, यह एक
गहन समझ की
बात है। और
यदि तुम समझते
हो, तो
दोहराने में
सार क्या?
एक
बार एक
संन्यासी, एक
जैन मुनि मेरे
साथ ठहरे। हर
सुबह वह बैठ
जाते और
संस्कृत के
मंत्र का जप
करते 'मैं
शरीर नहीं हूं, मैं मन नहीं
हूं मैं शुद्धतम
ब्रह्म हूं।’
वे जप करते
और जप, और
जप करते सुबह डेढ़ घंटे
तक। तीसरे दिन
मैंने कहां
उनसे, 'क्या
आप जानते नहीं
इसे? तो
क्यों आप जप
करते हैं? यदि
आपने जान लिया
है इसे, तो
यह बात मूढ़ता
की हुई। यदि
आपने इसे नहीं
जाना है, तो
फिर मूढ़ता
ही है क्योंकि
मात्र
दोहराते रहने
से कैसे जान
सकते हैं आप?'
यदि
आदमी दोहराता
चला जाता है, 'मैं
बड़ा क्षमतापूर्ण,
कामक्षमता से भरा हुआ
पुरुष हूं?, तो तुम
निश्चित जान
सकते हो कि वह
नपुंसक है।
क्यों
दोहराना:, 'मैं
पुरुष हूं और
बहुत सक्षम और
शक्तिवान हूं?'
और यदि एक
आदमी हर सुबह
यह बात
दोहराता है डेढ़ घंटे
तक तो इसका
मतलब क्या हुआ?
यह बात
दर्शाती है कि
ठीक कुछ
विपरीत मन में
है; कहीं
भीतर वह जानता
है कि वह
नपुंसक है। अब
वह कोशिश कर
रहा है खुद को
मूर्ख बनाने
की इस बात से
कि मैं बड़ा
बलशाली पुरुष
हूं। यदि तुम
हो, तो तुम
हो ही। उसे
दोहराने की
कोई जरूरत
नहीं।
मैंने
कहां उस जैन
मुनि से, 'इससे
पता चलता है
कि आपने जाना
ही नहीं। यह
एक पूरा संकेत
हुआ कि आप अब
भी शरीर के
साथ तादात्म्य
बनाए हुए हो।
और दोहराने से
कैसे आप इसके
बाहर जा सकते
हो? समझो
कि दोहराना
समझ नहीं है।’
समझने
के लिए, ध्यान
दो। जब भूख
लगती, तब
ध्यान दो कि
वह शरीर में
है या कि
तुममें है। जब
रोग होता है, तो ध्यान
देना कि वह
कहां होता है,
शरीर में या
तुममें? एक
विचार उठता है,
ध्यान देना
कि वह कहां
होता है, मन
में या तुममें?
एक भाव उठता
है, तो
देखना
ध्यानपूर्वक।
अधिकाधिक
ध्यानपूर्ण
होने में तुम
जागरूकता को
उपलब्ध हो
जाओगे।
दोहराने से
किसी ने कभी
नहीं पाया।
तुम
होते हो
तुम्हारी आंखों
के पीछे, बिलकुल
ऐसे खड़े हुए
जैसे कि कोई
खड़ा हो खिड़की के
पीछे और बाहर
देख रहा: हो। खिड़की
से बाहर देख
रहा व्यक्ति
ठीक तुम जैसा
ही है, आंखों
में से झांक
रहा है मेरी
ओर। लेकिन तुम
आंखों के साथ
तादात्म्य
बना सकते हो, तुम दृश्य
के साथ
तादात्म्य
बना सकते हो।
देखना एक
क्षमता है, एक माध्यम। आंखें
मात्र खिड़कियां
हैं, वे
तुम नहीं।
पतंजलि
कहते हैं पांच
इंद्रियों
द्वारा
तुम्हारा
माध्यम के साथ, शरीर
के साथ
तादात्म्य बन
जाता है, और
इन पांचों के
कारण जन्म ले
लेता है
अहंकार।’ अहंकार
एक झूठा
अस्तित्व है।
अहंकार वह सब
कुछ है जो तुम
नहीं हो और
तुम सोचते हो
कि तुम हो।
खिड़की
में खड़ा हुआ
आदमी सोचने
लगता है कि वह
स्वयं खिड़की
है। क्या कर
रहे हो तुम आंखों
के पीछे भू:—तुम
तो देख रहे हो आंखों
के द्वारा। आंखें
खिडकिया
हैं,
कान झरोखे
हैं; तुम
सुन रहे हो
कानों के
द्वारा। तुम
फैला देते हो
तुम्हारा हाथ
मेरी ओर, और
मैं छू लेता
हूं तुम्हें;
हाथ तो बस
एक माध्यम है।
तुम नहीं हो
हाथ और इस बात
को तुम ध्यान
से देख सकते
हो, और
इसका प्रयोग
कर सकते हो।
बहुत
बार ऐसा होता
है कि कोई चीज
घटती है ठीक तुम्हारी
आंखों के
सामने और तुम
चूक जाते हो।
कई बार तुमने
पूरा पृष्ठ पढ़
लिया होता है, और
अचानक
तुम्हें
ध्यान आता कि
तुम पढ़ते रहे
हो, तो भी
तुमने एक शब्द
तक नहीं पढ़ा।
तुम्हें याद
नहीं तुमने
क्या पढ़ा और
तुम्हें फिर
से पीछे जाना
पड़ता है। क्या
घट गया? यदि
तुम आंखें ही
हो तो यह बात
कैसे संभव हो
सकती थी?
तुम
नहीं हो आंखें।
खिड़की खाली थी
पृष्ठ की ओर से
देखती हुई।
खिड़की के पीछे
चेतना मौजूद न
थी,
वह कहीं और
व्यस्त थी।
ध्यान वहां
नहीं था। तुम
शायद आंखें
बंद किए खड़े
हुए होगे
खिड़की पर, या
तुम्हारी पीठ
थी खिड़की की
तरफ, लेकिन
तुम देख नहीं
रहे थे खिड़की
में से। ऐसा
होता है हर
रोज—अकस्मात
तुम जानते हो
कि कुछ घट गया
है और तुमने
देखा ही नहीं,
तुमने पढ़ा
ही नहीं। तुम
मौजूद ही न थे,
तुम कहीं और
थे, किन्हीं
और विचारों पर
विचार कर रहे
थे, किन्हीं
और स्वप्नों
का स्वप्न देख
रहे थे, किन्हीं
दूसरे
संसारों में विचर रहे
थे। खिड़की
खाली थी वहां।
क्या
तुम जानते हो
खाली आंखों को? जाओ
और जरा देखो
पागल आदमी को,
तुम देख
सकते हो वहां
खाली आंख। वह
देखता है
तुम्हारी तरफ
और नहीं भी
देखता। तुम
जान सकते हो
कि वह देखता
है तुम्हारी
तरफ और वह
बिलकुल ही
नहीं देख रहा
होता
तुम्हारी तरफ।
उसकी आंख खाली
होती है। या
तुम जा सकते
हो उस संत के
पास जो उपलब्ध
हो गया हो, फिर
उसकी आंख भी
खाली हांती
है। वह पागल
की आंख की
भांति नहीं
होती, लेकिन
कोई चीज समान
होती है उसके
साथ—वह
तुम्हारे आर—पार
देखता है। वह
तुम पर ठहर
नहीं जाता, वह जाता है
तुमसे पार। वह
नहीं देखता है
तुम्हारे
शरीर को, बल्कि
देखता है
तुमको। वह उसके
पार चला जाता
है। वह एक ओर
हटा देता है
तुम्हारा
शरीर, तुम्हारा
मन, तुम्हारा
हृदय और वह
लांघ जाता है
तुम्हें। और
तुम जानते
नहीं कि तुम
कौन हो।
इसीलिए
एक संत की
दृष्टि
तुम्हारे पार
जाती जान पड़ती
है। वह तुम पर
ठहर नहीं जाता, क्योंकि
संत के लिए
अहंकार नहीं
हो तुम, जैसा
कि तुम सोचते
हो तुम वही हो।
वह एक ओर छोड़
देता है
अहंकार को; वह तो बस झांकता
है तुममें। एक
पागल आदमी
खाली आंख से
देखता है, क्योंकि
उसकी चेतना
वहां नहीं
होती। एक संत
भी खाली आंख
से देखता जान
पड़ता है, क्योंकि
उसकी चेतना
बिलकुल वहीं
होती है। और वह
बहुत गहराई से
तुममें उतरता
है, तुम्हारे
अस्तित्व की
अंतिम
गहराइयों तक,
जहां तुम
अभी तक नहीं
पहुंचे हो।
इसलिए ऐसा जान
पड़ता है जैसे
कि वह
तुम्हारी ओर
नहीं देख रहा
है, क्योंकि
वह तुम, जिसके
साथ कि
तुम्हारा
तादात्म्य बन
गया है, उसके
लिए सत्य नहीं
है; बल्कि
वह तुम, जिसके
प्रति तुम सजग
नहीं हो, सत्य
है उसके लिए।
अहंकार
है द्रष्टा का
माध्यम के साथ, दृश्य
के साथ
तादात्म्य।
यदि तुम
माध्यम के साथ
तादात्म्य
गिरा देते हो,
तो अहंकार
गिर जाता है।
और कोई दूसरा
रास्ता नहीं
है अहंकार
गिराने का।
नहीं बनाओ कोई
तादात्म्य
शरीर के साथ आंखों,
कानों, मन,
हृदय के साथ,
और अचानक
कोई अहंकार बच
नहीं रहता।
तुम होते हो
तुम्हारे
समग्र स्वभाव
में, लेकिन
कोई अहंकार
वहां नहीं
होता। तुम
पहली बार
समग्र
मौजूदगी में
होते हो, लेकिन
कोई अहंकार
नहीं बचता, मैं की कोई
प्रक्रिया
नहीं रहती, कोई नहीं कह रहा
होता, मैं
हूं।
आकर्षण और
उसके द्वारा
बनी आसक्ति
होती है उस किसी
चीज के प्रति
जो सुख पहुंचाती
है। द्वेष
उपजता है किसी
उस चीज से जो
दुख देती है
ये
तुम्हारे इस
संसार में
होने के दो
ढंग हैं तुम
किसी उस चीज
के लिए
आकर्षित होते
हो जो कि
तुम्हें लगता
है कि सुख पहुंचाती
है,
तुम द्वेष
अनुभव करते, घृणा करते
हो उस चीज से
जिससे कि तुम
सोचते हो कि
दुख होता है।
लेकिन यदि तुम
अधिकाधिक होश
पा जाओ, तो
तुम्हारे पास
होगा समग्र
रूपांतरण।
तुम देख पाओगे
कि जिससे सुख
बनता है, उससे
दुख भी बनता है—
आरंभ में सुख,
अंत में दुख।
जो कुछ दुख
देता है, वही
सुख भी देता
है— आरंभ में
दुख, अंत
में सुख। ये
हैं दो ढंग
संसार के। एक
ढंग है गृहस्थ
का। उसे समझने
की कोशिश करना—वह
बात बहुत
ज्यादा
महत्वपूर्ण
है। एक ढंग है
गृहस्थ का। वह
जीता है मोह
द्वारा, आकर्षण
द्वारा—जों
कुछ, वह
अनुभव करता है
कि सुख
पहुंचाता है,
वह सरकता है
उसकी ओर। वह
चिपकता है
उससे और अंततः
वह पाता है
दुख और कुछ भी
नहीं; पीड़ा
के अतिरिक्त
और कुछ नहीं।
ठीक
इसके विपरीत
ढंग है
संन्यासी का, वह
जिसने कि
संसार त्याग
दिया। वह सुख
के साथ चिपकता
नहीं। बल्कि
इसके विपरीत,
वह चिपकने
लगता है दुख
के साथ, कठोर
तपश्चर्या के
साथ पीड़ा के
साथ। वह लेटता
है कीटों की
शय्या पर, उपवास
किए जाता, वर्षों
खड़ा ही रहता, महीनों तक
सोता नहीं। वह
ठीक विपरीत
बात करता है
क्योंकि वह
जान गया है कि
जब कभी
प्रारंभ में
सुख होता है, तो अंत में
दुख ही होता
है। उसने तर्क
को उलटा बैठा
दिया अब वह
खोजता है दुख
को, पीड़ा
को। और ठीक है
वह—यदि तुम
ढूंढते हो दुख
तो अंत में
होगा सुख।
लेकिन
वह व्यक्ति जो
कि अभ्यास
करता है दुख, पीड़ा
का, वह
पीड़ा की
अनुभूति पाने
में असमर्थ हो
जाता है। वह
व्यक्ति जो
सुख के लिए
अभ्यास करता
है, असमर्थ
हो जाता है
छोटी चीजों से
सुख पाने में।
तुम नहीं समझ
सकते। वह आदमी
जो उपवास कर
रहा हो एक
महीने से, उसके
लिए साधारण
रोटी, मक्खन
और नमक बहुत
बड़ी दावत बन
जाती है। एक
आदमी जो लेटा
रहा है काटो
पर, यदि तम
उसे जमीन पर
ही, केवल
जमीन पर ही
लेटने दो, तो
कोई सम्राट भी
इतने सुंदर
ढंग से नहीं
सो सकता होगा।
लेकिन
दोनों बातें
एक ही सिक्के
के दो पहलू हैं, और
दोनों गलत हैं।
संन्यासी ने
ठीक उलट दिया
है प्रक्रिया
को: वह खड़ा हुआ
है शीर्षासन
में, सिर
के बल। लेकिन
आदमी वह वही
है। दोनों
आसक्ति में
पड़े हैं। एक
की आसक्ति है
सुख के साथ, दूसरे की
आसक्ति है दुख
के साथ।
होशपूर्ण
आदमी अनासक्त
होता है। वह न
तो गृहस्थ
होता है और न
ही मुनि होता
है। वह किसी
मठ की ओर नहीं
सरक जाता और
वह नहीं चला जाता
पहाड़ों की ओर।
वह रहता है
वहीं जहां कि
वह होता है—वह
तो बस भीतर की ओर
मुड़ जाता है।
बाहर उसके लिए
कोई चुनाव
नहीं बनता। वह
सुख से चिपकता
नहीं और वह
नहीं चिपकता
दुख से। वह न
तो सुखवादी
होता है और न
ही स्वयं को
पीड़ा पहुंचाने
वाला। वह तो
बढ़ता है भीतर
की ओर, खेल
देखते हुए सुख
और दुख का, प्रकाश
और छाया का, दिन और रात
का, जीवन
और मृत्यु का।
वह दोनों के
पार सरक जाता
है। द्वैत
मौजूद है वह
बढ़ जाता है
दोनों के पार;
वह
अतिक्रमण कर
जाता है दोनों
का। वह बस हो
जाता है सजग
और होशपूर्ण और
उस होश में
पहली बार कुछ
घटता है जो कि
न तो दुख है और
न ही सुख, जो
है आनंद। आनंद
सुख नहीं; सुख
तो सदा
मिलाजुला
रहता है दुख
से। आनंद न तो
दुख है और न ही
सुख, आनंद
दोनों से परे
है।
और
दोनों के पार
तुम हो। जो है
तुम्हारा
स्वभाव, तुम्हारी
शुद्धता, होने
की तुम्हारी
स्वच्छ
पारदर्शी
शुद्धता—एक
इंद्रियातीत
परम अवस्था।
तुम रहते हो
संसार में, लेकिन संसार
गतिमान नहीं
होता है
तुममें।
तुम
अनछुए रहते हो, जहां
कहीं भी तुम
होते हो। तुम
हो जाते हो एक
कमल।
आज
इतना ही।
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