दिनांक 14 मार्च 1975; श्री रजनीश आश्रम, पूना।
प्रश्नसार:
1—पश्चिम में
चल रहे मन और
स्वप्नों
के विश्लेषण—कार्य
को
आप
ज्यादा महत्व
क्यों नहीं
देते?
2—आपने कहा कि
सब आरोपित
प्रभावों से
मुक्त हो जाना
है।
तो
धार्मिक होने
के लिए क्या सभ्यता
और संस्कृति
से भी मुक्त
होना होगा?
3—आपके
व्यक्तित्व
और शब्दो से
प्रभावित हुए
बिना
कोई खोजी
आपका शिष्य
कैसे हो सकता
है?
4—अहंकार के शिकार
होने से बचकर
कैसे अपने स्वभाव
को पहचाने?
5—यदि
शार्टकट की
बात गलत है, तो फिर आप
छलांग की बात
क्यों करते
है?
पहला
प्रश्न:
परसों
आपका एक उत्तर
सुन कर मुझे
ऐसा लगा कि पश्चिम
में जागरण की
एक विधि की
तरह जो
स्वप्नों का
उपयोग किया
जाता है उसको
आप अधिक मूल्य
नहीं देते।
मैं विशेषकर
ला की विधि की
सोच रहा हूं
उसके आत्म—
साक्षात्कार
के
मनोविज्ञान
के अंतर्गत।
हां 'मैं ज्यादा
मूल्य नहीं
देता फ्रायड
को, का को, एडलर या
असागोली को।
फ्रायड, जुग,
एडलर और ऐसे
दूसरे लोग, समय की रेत
पर खेलते हुए
बच्चे ही हैं।
उन्होंने
सुंदर कंकड़ —पत्थर
इकट्ठे कर लिए
हैं, सुंदर
रंगीन पत्थर,
लेकिन यदि
तुम परम शिखर
की ओर देखते
हो, तो वे
कंकड़ों और
पत्थरों से
खेलते हुए
मात्र बच्चे
हैं। वे पत्थर
सच्चे हीरे
नहीं होते हैं।
और जो कुछ
उन्होंने
पाया है, वह
बहुत ज्यादा
अपरिष्कृत, आदिम है।
इसे समझने को
तुम्हें मेरे
साथ बहुत धीरे
— धीरे चलना
होगा।
कोई
आदमी शारीरिक
रूप से बीमार
हो सकता है, तब वैद्य
की, डाक्टर
की जरूरत होती
है। व्यक्ति
मनोवैज्ञानिक
रूप से बीमार
हो सकता है, तब फ्रायड
और जुग और
कईयों द्वारा
थोड़ी मदद की
जा सकती है।
लेकिन जब
व्यक्ति
अस्तित्वगत
रूप से बीमार
होता है, तो
न तो डाक्टैर
और न ही
मनोवैज्ञानिक
कोई मदद दे
सकता है।
अस्तित्वगत
रोग
आध्यात्मिक
होता है। वह न
तो शरीर का
होता है और न
ही मन का होता
है, वह
समग्र का होता
है— और समग्र
सभी हिस्सों
के पार का
होता है।
समग्र का कोई
संघटन मात्र
ही नहीं होता
है; वह
हिस्सों का
संघटन नहीं है।
वह हिस्सों के
पार की कोई ब! त
होती है। वह
कुछ ऐसी बात
है जो कि सारे
हिस्सों को
स्वयं में पकड़
रखती है। वह
हर चीज के परे
होती है।
और रोग
अस्तित्वगत
है। व्यक्ति
आध्यात्मिक
रोग से पीड़ित
होता है।
स्वप्न किसी
काम के न
होंगे।
वस्तुत:
स्वप्न कर
क्या सकते हैं? ज्यादा
से ज्यादा वे
तुम्हारे
अचेतन को थोड़ा
और समझने में
तुम्हारी मदद
कर सकते हैं।
स्वप्न अचेतन
की भाषा हैं, प्रतीक हैं,
लक्षण हैं,
इशारे हैं
और अचेतन के
संकेत हैं; चेतन के
प्रति अचेतन
का संदेश हैं।
स्वप्नों की
व्याख्या
करने में
मनोविश्लेषक
तुम्हारी मदद
कर सकते हैं।
वे माध्यम बन
सकते हैं, वे
तुम्हें बता
सकते हैं कि
तुम्हारे
स्वप्नों का
अर्थ क्या है।
निस्संदेह, यदि तुम
अपने स्वप्न
का अर्थ समझ
सको, तो
तुम थोड़ा और
निकट आ जाओगे
तुम्हारे
अचेतन के। यह
बात तुम्हें
मदद देगी
तुम्हारे
अचेतन के साथ
और ज्यादा
अनुकूलित
होने में। तुम्हें
थोड़ी मदद
मिलेगी।
तुम्हारे
दोनों हिस्से,
चेतन और
अचेतन, बहुत
ज्यादा दूर
नहीं रहेंगे;
वे थोड़े और
निकट होंगे।
तुम पहले की
तरह उतने
विखंडित न
रहोगे। थोड़ा
एकत्व, एक
प्रकार का
एकत्व तुममें
बना रहेगा।
तुम ज्यादा
सामान्य हो
जाओगे, लेकिन
सामान्य होने
में कुछ नहीं
है। सामान्य
होना तो बात
करने जैसी बात
भी नहीं है।
सामान्य होने
का तो मतलब
हुआ कि तुम
वैसे हो जैसे
कि तुम्हें
साधारणतया
होना चाहिए; कुछ और नहीं
घटा है, पार
का कुछ तुममें
उतरा ही नहीं
है। समाज में
भी तुम ज्यादा
अनुकूलित
व्यक्ति बन जाओगे।
निस्संदेह, तुम थोड़े
बेहतर पति बन
जाओगे, थोड़ी
बेहतर मां, थोड़े बेहतर
मित्र, लेकिन
केवल थोड़े से
ही
लेकिन
यह कोई आत्म—साक्षात्कार
नहीं है। और
जब हा बात
करता है आत्म—साक्षात्कार
की स्वप्न के
विश्लेषण
द्वारा, तो वह बहुत
नासमझी भरी
बात करता है।
यह आत्म—साक्षात्कार
नहीं है, क्योंकि
आत्म —साक्षात्कार
केवल तभी होता
है जब मन नहीं
बचता।
व्याख्यायित
स्वप्न, व्याख्यायित
नहीं होते, वे मन से
संबंधित होते
हैं, वे मन
का हिस्सा
होते हैं। और
पश्चिम का कोई
मनोविज्ञान—सिवाय
गुरजिएफ, इकहार्ट
और जेकब बोहमे
के—पश्चिम का
कोई
मनोविज्ञान
मन के पार
नहीं जाता। और
ये थोड़े से
लोग, जेकब
बोहमे, इकहार्ट
और गुरजिएफ, वस्तुत:
पश्चिम से
संबंधित ही
नहीं हैं, वे
संबंधित हैं
पूरब से। उनका
सारा
दृष्टिकोण ही
पूरब का है।
वे पैदा हुए
हैं पश्चिम
में, लेकिन
उनका
दृष्टिकोण, उनके जीवन
का ढंग, उनकी
पूरी समझ पूरब
की है। जब मैं
कहता हूं 'पूरब
की' तो सदा
याद रखना कि
भौगोलिक रूप
से मैं अर्थ नहीं
करता।
मेरे
देखे, पूरब
एक दृष्टि है।
पश्चिम भी एक
दृष्टि है।
भूगोल से मेरा
कोई संबंध
नहीं। पश्चिम
तो चीजों को
देखने का एक
ढंग है, पूरब
भी एक ढंग है
चीजों को
देखने का। जब
पूरब देखता है
चीजों को तो
वह देखता है
समग्र की ओर, और जब
पश्चिम देखता
है चीजों को, वह सदा
देखता है एक
हिस्से की ओर।
पश्चिमी
दृष्टि
विश्लेषणात्मक
है—वह
विश्लेषण
करती है।
पूर्वीय
दृष्टि
संश्लेषणात्मक
है—वह
संश्लेषण
करती है, वह
अनेक में एक
को खोजने का
प्रयास करती
है। पश्चिमी
दृष्टि एक में
अनेक को खोजने
का प्रयास
करती है।
पश्चिमी
दृष्टि
विश्लेषण
करने में, चीर—फाड़
करने में, चीजों
को अलग— अलग
करने में बहुत
होशियार हो गई
है। असागोली
की
साइकोसिन्थसिस
जैसी
कार्यविधि भी
सच्चा
संश्लेषण
नहीं है, क्योंकि
असली दृष्टि
का ही अभाव है।
पहले फ्रायड
और का ने
चीजों को अलग
किया है, उन्होंने
समग्र को तोड़ा
है, और अब
असागोली
कोशिश कर रहा
है किसी तरह
उन हिस्सों को
जोड्ने की।
तुम
आदमी की चीर—फाड
कई हिस्सों
में कर सकते
हो, जब
वह जीवंत था; जब तुम उसकी
चीर—फाड़ कर
देते हो, तो
फिर वह जीवंत
नहीं रहता। अब
तुम फिर से
हिस्सों को
वापस रख सकते
हो, लेकिन—
जीवन नहीं
लौटेगा। वहां
मृत लाश होगी।
और हिस्सों को
भी फिर से
मिलाकर रख
दिया जाए तो
वह समग्र नहीं
बन जाएगा।
फ्रायड और कं
ने जो किया, असागोली
उसके लिए पछता
ही रहा है। वह
हिस्सों को
फिर से मिला रहा
है, लेकिन
वह होती है
लाश। उसमें
कोई संश्लेषण
नहीं होता।
तुम्हें
देखना होता है
समग्र को, और समग्र
एक बिलकुल ही
अलग चीज है।
अब तो जीव —शास्त्री
भी जान गए हैं,
चिकित्सा—शास्त्र
भी हर रोज
अधिकाधिक बोध
पा रहा है इस बात
का कि जब तुम
आदमी का रक्त
लेते हो परखने
को, तो वह
वही रक्त नहीं
रहता जो कि
आदमी में. बह
रहा था, क्योंकि
अब वह मृत
होता है। तुम
किसी और ही
चीज का
परीक्षण कर
रहे होते हो।
जो रक्त घूम—फिर
रहा होता है
आदमी में वह
जीवंत होता है।
वह संबंध रखता
है समग्र से, एक
सुव्यवस्थित
कम से, वह
बहता है उसमें
से। वह उतना
ही जीवंत होता
है जितना कि
शरीर का हाथ।
तुम काट दो
हाथ को, तो
फिर वही हाथ
नहीं रहता। जब
कि तुम उसे
शरीर में से
निकाल लेते हो
तो रक्त वैसा
ही कैसे रह
सकता है? लैबर
में ले जाओ
उसे और
परीक्षण करो
उसका, फिर
वह वही रक्त
नहीं रहता।
जीवन
समग्र इकाई की
भाति
अस्तित्व
रखता है, और पश्चिमी
दृष्टि है चीर—फाड़
करने की, हिस्सों
में जाने की, हिस्से को
समझने की और
हिस्से के
द्वारा समग्र
को समझने, जोड्ने
की कोशिश करने
की। तुम सदा
चूकोगे। यदि
तुम असागोली
की भांति जोड़—जाड़
भी कर सको, तो
वह समाविष्ट
करने का बोध
लाश की भांति
ही होगा. जो
किसी तरह
इकट्ठा तो
किया हुआ होता
है, लेकिन
कोई जीवंत
एकत्व उसमें
नहीं होता।
फ्रायड
और जुग
स्वप्नों पर
काम करते थे।
पश्चिम में वह
एक आविष्कार
था, एक
तरह से बहुत
बड़ा आविष्कार,
क्योंकि
पश्चिमी मन
बिलकुल भूल ही
चुका था नींद
के बारे में, स्वप्नों के
बारे में।
पश्चिम का
आदमी कम से कम
तीन हजार वर्ष
जीया स्वप्नों
और नींद के
बारे में बिना
कुछ विचार किए।
पश्चिम का
आदमी सोचता
रहा जैसे कि
केवल जागने का
समय ही जीवन
है, लेकिन
जागने के घंटे
तो केवल दो
तिहाई भाग में
ही होते हैं।
यदि तुम साठ
वर्ष तक जीते
हो, तो तुम
सोए रहोगे बीस
वर्ष तक। एक
तिहाई जीवन
होगा
स्वप्नों में
और निद्रा में।
यह एक बड़ी
घटना है, यह
तुम्हारे
जीवन का एक
तिहाई भाग ले
लेती है। इसे
यूं ही अलग
नहीं निकाल
दिया जाएगा, कोई चीज घट
रही है वहां'। वह
तुम्हारा
हिस्सा है, और कोई छोटा
हिस्सा नहीं
बल्कि एक बड़ा
हिस्सा।
फ्रायड और का
यह अवधारणा
लौटा लाए कि
आदमी को समझना
होगा उसके
स्वप्नों और
उसकी निद्रा
सहित, और
बहुत कुछ
कार्य किया
गया है इसी
विषय पर।
लेकिन जब का
सोचने लगता है
कि यह कोई
आत्म—साक्षात्कार
जैसी चीज है, तो बहुत दूर
की सोच बैठता
है।
यह अच्छा
है।
मनोवैज्ञानिक
स्वास्थ्य के
लिए यह बात
सहायक हो सकती
है, लेकिन
मनोवैज्ञानिक
स्वास्थ्य
अस्तित्वगत
स्वास्थ्य
नहीं होता है।
शारीरिक
रूप से तुम
स्वस्थ हो
सकते हो, तुम
मनोवैशानिक
रूप से स्वस्थ
हो सकते हो, तो भी तुम
शायद
अस्तित्वगत
रूप से बिलकुल
स्वस्थ न होओ।
बल्कि इसके
विपरीत, जब
तुम
मनोवैज्ञानिक
रूप से और
शारीरिक रूप से
स्वस्थ होते
हो तो पहली
बार तुम
अस्तित्वगत जिज्ञासा
के विषय में
सचेत होते हो,
भीतर की
व्यथा का बोध
होता है। इससे
पहले तो तुम
शरीर, मन
और रोग के साथ
ही इतने जुड़े
हुए थे कि आंतरिक
सत्ता की ओर
देख ही न सकते
थे। जब हर चीज
ठीक बैठ जाती
है, शरीर
ठीक कार्य
करता है, मन
किसी अड़चन में
नहीं रहता, अकस्मात तुम
संसार की सबसे
बड़ी जिज्ञासा
के प्रति सजग
हो जाते हो—जो
अस्तित्वगत
है, आध्यात्मिक
है। अचानक.
तुम पूछने
लगते हो—इस
सबका मतलब
क्या है? मैं
यहां क्यों
हूं? किसलिए
हूं? इस
बात का खयाल
किसी बीमार
व्यक्ति को
कभी नहीं आता,
क्योंकि वह
बीमारी से
बहुत घिरा हुआ
होता है। पहले
तो उसे ध्यान
रखना पड़ता है
शरीर का, फिर
वह कुछ और
सोचेगा। फिर
उसे ध्यान
रखना पड़ता है
मन का, फिर
वह कुछ और
सोचेगा। शरीर
और मन यदि
स्वस्थ हों, तो पहली बार
वे तुम्हें
वास्तविक
तकलीफ में उतरने
देंगे। और वह
तकलीफ होगी
आध्यात्मिक।
जब जुग
आत्म—साक्षात्कार
तक पहुंचने की
विधि की तरह
अपने विश्लेषणपरक
मनोविज्ञान
की बात करता
है, तो
उसे पता नहीं
कि वह क्या कह
रहा है। वह
स्वयं आत्म—साक्षात्कार
को उपलब्ध व्यक्ति
नहीं है। का
के जीवन में, फ्रायड के
जीवन में गहरे
उतरो, और
तुम उन्हें
साधारण
मनुष्यों की
भाति ही पाओगे।
फ्रायड उनकी
भांति ही
क्रोध करता था,
साधारण
मनुष्यों से
भी ज्यादा ही
क्रोध करता था।
वह उन्हीं की
भाति घृणा
करता था। वह
ईर्ष्या करता
था, इतनी
ज्यादा कि जब
उसे ईर्ष्या
का दौरा पड़ता
तो वह जमीन पर गिर
पड़ता और बेहोश
हो जाता। ऐसा
बहुत बार हुआ फ्रायड
के जीवन में।
जब कभी
ईर्ष्या उस पर
चढ़ बैठती, वह
इतना बेचैन हो
जाता कि उसे
गश आ जाता, मूर्च्छा
आ जाती। यह
आदमी और आत्म—साक्षात्कार
को उपलब्ध? तो फिर
बुद्ध का क्या
होगा? तब
तुम बुद्ध को
कहा रखोगे?
फ्रायड
जीया साधारण
मानवीय
आकांक्षा
सहित; एक
राजनैतिक मन।
वह कोशिश कर
रहा था
मनोविश्लेषण
को साम्यवाद
की ही भांति
एक आंदोलन बना
देने की, और
उसने कोशिश की
उस पर
नियंत्रण
करने की। उसने
किसी लेनिन और
स्टालिन की
भांति ही उस
पर नियंत्रण
करने की कोशिश
की, कुछ
ज्यादा ही
सत्तापूर्ण।
उसने तो का को
अपना
उत्तराधिकारी
भी घोषित कर
दिया था। और
जरा जुग के
चित्रों को
देखो। जब कभी
कं का चित्र
मेरे सामने
पड़ता है, मैं
सदा बहुत
ध्यान से
देखता हूं; वह बहुत
असाधारण चीज
है। हमेशा गौर
से देखना जुग
के चित्रों को,
तुम हर बात
चेहरे पर लिखी
पाओगे एक
अहंकार! उसकी
नाक को देखना,
आंखों को, चालाकी है, क्रोध है; हर बीमारी
चेहरे पर लिखी
है। वह जीता
है साधारण, भयग्रस्त
आदमी की भांति
ही। वह बहुत
भयभीत था प्रेतों
से, और
बहुत
ईर्ष्यालु था,
प्रतिस्पर्धा
से भरा था।
विवादी, झगड़ालु
था।
वस्तुत:
पश्चिम जानता
नहीं कि आत्म—साक्षात्कार
क्या है, इसलिए कोई
भी चीज आत्म—साक्षात्कार
बन जाती है।
पश्चिम जानता
नहीं कि आत्म—साक्षात्कार
का क्या अर्थ
होता है। उसका
अर्थ है इतनी
परम शाति जो
किसी चीज से
बिगाड़ी न जा सके।
ऐसा परम अन—
अस्तित्व।
मालकियत, महत्वाकांक्षा,
ईर्ष्या
कैसे बनी रह
सकती है उसमें? अ—मन के साथ
कैसे तुम
अधिकार जमा
सकते हो, कैसे
तुम शासन
जमाने की
कोशिश कर सकते
हो न: आत्म—साक्षात्कार
का अर्थ है—अहंकार
का संपूर्ण
तिरोहित हो
जाना। और अहंकार
के साथ, हर
चीज तिरोहित
हो जाती है।
ध्यान
रहे, अहंकार
स्वप्नों की
व्याख्या
द्वारा तिरोहित
नहीं हो सकता
है। इसके
विपरीत, अहंकार
ज्यादा मजबूत
हो सकता है, क्योंकि
चेतन और अचेतन
के बीच का
अंतराल कम होगा।
तुम्हारा
अहंकार मजबूत
हो जाएगा।
जितनी कम
तकलीफ होती है
मन में, उतना
ज्यादा मजबूत
हो जाएगा मन।
अहंकार के लिए
तुम्हारे पास
नई भूमि होगी,
तो
मनोविश्लेषण
तुम्हारे लिए
ऐसा कर सकता
है कि
तुम्हारा
अहंकार
ज्यादा जड़ पकड़
ले, ज्यादा
केंद्र में आ
जाए; तुम्हारा
अहंकार
ज्यादा मजबूत
हो जाए; तुम
ज्यादा
निश्चयपूर्ण
हो जाओ।
निस्संदेह पहले
की अपेक्षा
तुम संसार में
बेहतर ढंग से
जी पाओगे, क्योंकि
संसार अहंकार
में विश्वास
रखता है। जीवित
रहने के
संघर्ष में
लड़ने के लिए
तुम ज्यादा
सक्षम हो
जाओगे।
तुम्हारे
स्वयं के बारे
में तुम
ज्यादा
आश्वस्त हो
जाओगे, कम
घबडाओगे।
यदि
तुम भीतर
तकलीफ में हो
और अचेतन भीतर
निरंतर एक
संघर्ष में हो, तो उस
स्थिति की
अपेक्षा अब
तुम कुछ
महत्वाकांक्षाओं
को ज्यादा
आसानी से पूरा
कर पाओगे। लेकिन
यह आत्म—
साक्षात्कार
नहीं है। इसके
विपरीत यह तो
अहंकार—साक्षात्कार
है।
पश्चिम
का अब तक का
सारा
मनोविज्ञान
निर— अहंकार
के तत्व तक
नहीं पहुंचा
है। वह अब भी
अहंकार की
भाषा में ही
सोचता रहा है, कि
अहंकार को और
ज्यादा मजबूत
कैसे बनाया
जाए; केंद्र
में कैसे लाया
जाए; अहंकार
को कैसे
ज्यादा पोषित,
स्वाभाविक,
समायोजित
किया जाए।
पूरब तो स्वयं
अहंकार को ही
एक रोग की
भांति समझता
है, सारा
मन ही एक रोग
है; उस के
लिए कुछ चुनाव
नहीं चेतन और
अचेतन दोनों
को जाने देना
होता है।
उन्हें चले ही
जाना चाहिए और
इसीलिए पूरब
ने व्याख्या
करने की कोशिश
नहीं की है।
क्योंकि यदि
किसी चीज को
जाना ही है तो
क्यों उसकी
व्याख्या की
चिंता करनी; क्यों समय
गंवाना; उसे
हटाया जा सकता
है। जरा भेद
की ओर ध्यान
देना, पश्चिम
किसी न किसी
भांति चेतन और
अचेतन का समायोजन
करने की और
अहंकार को
मजबूत करने की
कोशिश कर रहा
है, ताकि
तुम समाज के
ज्यादा
अनुकूलित
सदस्य बन जाओ,
और भीतर भी
ज्यादा अनुकूलित
व्यक्ति बन
जाओ। दरार जुड़
जाने से
तुम्हें मन का
मिल जाएगा।
पूरब कोशिश करता
मन को हटा
देने की, उसके
पार जाने की।
यह समाज के.
साथ अनुकूलित
होने का
प्रश्न नहीं
है, यह
स्वयं
अस्तित्व के
ही साथ
समायोजित
होने का
प्रश्न है। यह
चेतन और अचेतन
के बीच के
समायोजन का
प्रश्न नहीं
है; यह
प्रश्न है उन
सारे हिस्सों
के समायोजन का
जो तुम्हारी
सारी सत्ता को
बनाते हैं।
स्वप्न
महत्वपूर्ण
होते हैं। यदि
आदमी बीमार
होता है, तो स्वप्न
महत्वपूर्ण
होते हैं —वे
बीमारी के
लक्षणों को
दिखा देते हैं।
लेकिन तुम उस
व्यक्ति के
बारे में नहीं
जानते जिसके
पास स्वप्न
नहीं। स्वप्न
अपने में एक
रोगशास्त्र
हैं, स्वप्न
स्वयं एक रोग
है। बुद्ध ने
कभी स्वप्न
नहीं देखे।
फ्रायड ने
क्या किया
होता? यदि
फ्रायड उस समय
होता, तो
उसने क्या
किया होता
बुद्ध के साथ?
उनके विषय
में उसने कौन
सी व्याख्या
की होती? व्याख्या
करने को कुछ
था ही नहीं।
यदि फ्रायड
बुद्ध के भीतर
गया होता, तो
उसने कोई चीज
न पाई होती
व्याख्या
करने को। उसका
सारा
मनोविज्ञान
बिलकुल ही
व्यर्थ हो चुका
होता।
ऐसा
हुआ कि अमरीका
में एक
व्यक्ति था जो
कि बहुत
ज्यादा कुशल
था दूसरे
व्यक्तियों
के विचारों को
पढ़ने में —मन
को पढ़ लेता था।
वह सदा सौ
प्रतिशत सच ही
कहता था। वह
बैठ जाता
तुम्हारे
सामने, तुम आंखें
बंद कर लेते
और सोचने लगते,
और वह आदमी
अपनी आंखें
बंद कर लेता
और सोचने लगता
कि तुम क्या
सोच रहे हो।
उस पल जो कुछ
तुम सोचो वह
विचार
संप्रेषित हो जाता
और वह उसे
ग्रहण कर लेता।
यह एक कला
होती है। बहुत
लोग जानते हैं
इसे। यह सीखी
जा सकती है, तुम पा सकते
हो इसे, क्योंकि
विचार एक
सूक्ष्म तरंग
है। यदि तुम
ग्राहक होते
हो तो दूसरा
मस्तिष्क प्रसारण—केंद्र
बन जाता है, तुम
ग्रहणकर्ता
बन जाते हो।
विचार एक
प्रसारण है, क्योंकि
व्यक्ति के
चारों ओर की
विद्युत में
तरंगें उठती
हैं, यदि
तुम पर्याप्त
रूप से शात
होते हो, ग्राहक
होते हो, तुम
उन्हें पकड़
लोगे।
जब
मेहर बाबा
अमरीका में थे, तो कोई ले
आया उसी आदमी
को मेहर बाबा
के पास जो बहुत
वर्षों तक रहे
थे मौन में।
वह आदमी बैठ
गया मेहर बाबा
के सामने, अपनी
आंखें मूंद लीं
और ध्यान ही
ध्यान करता
गया। फिर—फिर
वह आंखें खोल
लेता अपनी, और देख लेता
मेहर बाबा को।
इसमें बहुत
देर होती गई, लोग चिंतित
हो उठे। वे
बोले, 'तुमने
इतना समय तो
कभी नहीं लिया।’वह आदमी
बोला, 'हा, तो क्या
करूं? यह
आदमी तो
बिलकुल सोच ही
नहीं रहा है।
कोई विचार
मौजूद नहीं।’
यदि
फ्रायड या का
बुद्ध के पास
होते, या
यदि वे मेरे
पास आ गए होते
तो उन्होंने
कुछ भी न पाया
होता
व्याख्यायित
करने को, उन्होंने
कोई विचार न
पाया होता
पकड़ने को।
पूरब
कहता है, 'स्वप्न
स्वयं एक रोग
है।’ वह एक
प्रकार की
बीमारी है; वह एक अव्यवस्था
है। जब तुम
सचमुच ही मौन
होते हो तो दिन
का सोचना
तिरोहित हो
जाता है और
रात के स्वप्न
तिरोहित हो
जाते हैं।
विचार और
स्वप्न एक ही
चीज के दो
पहलू हैं. दिन
में जब कि तुम
जागे हुए होते
हो, तब
विचार चलते
रहते हैं, और
रात को जब कि
तुम सोए हुए
होते हो, तो
स्वप्न होते
हैं। स्वप्न
सोचने का एक
आदिम ढंग है, चित्रों के
रूप में सोचना,
जैसा कि
बच्चे सोचते
हैं। इसलिए
बच्चों की किताबों
में हमें बहुत
से रंगीन
चित्र बनाने
पड़ते हैं, बच्चे
शब्दों के साथ
बहुत ज्यादा
नहीं बढ़ सकते।
धीरे— धीरे ही
वे बढ़ेंगे।
तुम्हें एक
बड़ा—सा आम
चित्रित करना
पड़ता है, और
लिखना पड़ता है
छोटे—छोटे
अक्षरों में '
आम '।
पहले वे
देखेंगे
चित्र को, और
फिर वे जुड़
जाएंगे शब्द
के साथ। धीरे—
धीरे, चित्र
छोटा और छोटा
होता जाएगा और
तिरोहित हो जाएगा।
तब आम शब्द ही
काम देगा।
एक
अपरिष्कृत मन
चित्रों की
भाषा में
सोचता है जैसा
कि बच्चे करते
हैं। जब तुम
सोए हुए होते
हो, तुम
आदिम होते हो।
सारी सभ्यता
तिरोहित हो जाती
है, संस्कृति
तिरोहित हो
जाती है, समाज
तिरोहित हो
जाता है। अब
तुम समकालीन
संसार के
हिस्से नहीं
रहते, तुम
आदिम मनुष्य
जैसे होते हो
एक गुफा में।
क्योंकि अचेतन
मन अपरिष्कृत
रहता है, तुम
चित्रों की
भाषा में
सोचना शुरू कर
देते हो।
स्वप्न और
विचार दोनों
एक ही होते
हैं। जब स्वप्न
थम जाते हैं, तो विचार थम
जाते हैं, जब
विचार थम जाते
हैं, तो
स्वप्न थम
जाते हैं।
पूरब का सारा
प्रयास यही
रहा है। सारी
बात ही किसी
तरह गिरा दें।
हम इसकी चिंता
नहीं करते कि
कैसे उसे
अनुकूलित
करें या कि
कैसे उसकी
व्याख्या करें,
बल्कि यह कि
कैसे उसे गिरा
दें। और यदि
यह गिरायी जा
सकती है, तो
क्यों चिंता
करनी किसी
व्याख्या की?
क्यों
व्यर्थ करना
समय?
देर—अबेर
पश्चिम इसे
जान ही लेगा, क्योंकि
अब ध्यान की
विधियां
पश्चिम में
फैल रही हैं।
ध्यान ढंग है
स्वप्नों को,
सोचने को, मन की सारी
जटिलता को
गिरा देने का।
और एक बार वे
गिर जाती हैं
तो तुम मन की
स्वस्थता को
ही उपलब्ध
नहीं होते, तुम किसी
ऐसी चीज को
उपलब्ध कर
लेते हो, बिलकुल
अभी तो जिसकी
तुम्हारे मन
में कोई
कल्पना भी
नहीं। तुम
उसकी कल्पना
भी नहीं कर
सकते वह किस
तरह की अवस्था
होगी जब तुम
कुछ सोचते ही
नहीं, जब
तुम स्वप्न
नहीं देखते, जब तुम्हारा
होना मात्र ही
होगा।
मनोविश्लेषण
या दूसरी
प्रचलित
प्रणालियां बहुत
लंबा समय लेती
हैं. पांच
वर्ष, तीन
वर्ष, बस
स्वप्नों की
व्याख्या
करते हैं।
सारी बात इतनी
उबाऊ जान पड़ती
है, और
केवल बहुत
थोड़े लोग इसे
अपना सकते
हैं। और वे भी
जो कि इसे
क्रियान्वित
कर सकते हैं, क्या पाते
हैं इससे?
बहुत
लोग आए हैं
मेरे पास जो
मनोविश्लेषण
से गुजरे हैं; कोई आत्म—ज्ञान
घटित नहीं हुआ
है। बहुत वर्ष
वे
मनोविश्लेषण
में जीए। न ही
केवल उनका
मनोविश्लेषण
हुआ, उन्होंने
बहुत से दूसरे
लोगों का भी
मनोविश्लेषण
किया और कुछ
घटित नहीं हुआ;
वे वैसे ही
हैं, अहंकार
वही है। इसके
विपरीत, वे
कुछ ज्यादा
दृढ़ हुए हैं, मजबूत हुए
हैं। और
अस्तित्वगत
चिंताएं बनी रहती
हैं।
हां, मैं कोई
बहुत ज्यादा
मूल्य नहीं
मानता फ्रायड
और जुग का, क्योंकि
मेरा
दृष्टिकोण है
: मन को कैसे
गिराना? वह
गिराया जा
सकता है और
उसे गिराने
में कम समय
लगता है, उसे
गिराना कहीं
ज्यादा आसान
है। वस्तुत:
उसे गिराया जा
सकता है बिना
किसी की मदद
के भी।
पूरब
ने इस सत्य को
पा लिया था
कोई पांच हजार
वर्ष पहले।
उन्होंने
व्याख्या की
होगी, क्योंकि
पूरब की
पुरानी
पुस्तकों में
स्वप्नों की
व्याख्या है।
अब तक मेरे
सामने एक भी
ऐसी नई खोज
नहीं आई जो पहले
से ही कहीं
अतीत में पूरब
द्वारा न खोज
ली गई हो।
फ्रायड और
जूंग तक भी कोई
नए नहीं। यह
तो फिर से
पुराने
क्षेत्र को
पुनराविष्कृत
करने के जैसा
ही है। पूरब
में उन्होंने
जरूर इसका
आविष्कार कर
लिया होगा, लेकिन साथ
ही उन्होंने
खोजा था कि
तुम मन की व्याख्या
किए चले जा
सकते हो और
उसका कोई अंत
नहीं। वह
स्वप्न देखता
ही जाता है, वह फिर—फिर
नए स्वप्न
निर्मित करता
चला जाता है।
वस्तुत:
कोई
मनोविश्लेषण
कभी संपूर्ण
नहीं होता है।
पांच वर्षों
के बाद भी वह
पूरा नहीं
होता। कोई
मनोविश्लेषण
कभी पूरा हो
नहीं सकता, क्योंकि
मन नए स्वप्न
बुनता चलता है।
तुम व्याख्या
किए जाते हो, वह नए
स्वप्न बुनता
जाता है। उसके
प्रास असीम
क्षमता होती
है, वह
बहुत
सृजनात्मक
होता है, बहुत
कल्पनाशील।
वह केवल जीवन
के साथ ही
समाप्त होता
है या ध्यान
के साथ ही तुम
छलांग लगा
लेते हो और
तुम अपने से
मर जाते हो तब
वह खत्म होता
है।
मन को
मिटने की
आवश्यकता है, मनोविश्लेषण
की नहीं। और यदि
मृत्यु संभव
है तो
विश्लेषण में
क्या सार? ये
दो नितांत अलग—
अलग चीजें हैं
और तुम्हें
जागरूक रहना
होता है। जुंग
और फ्रायड भटक
गए; प्रतिभाशाली
हैं, बड़े
बौद्धिक, लेकिन
अपना समय खराब
कर रहे हैं।
और समस्या यह
है कि
उन्होंने मन
के विषय में इतनी
सारी चीजें
खोजी हैं, लेकिन
तो भी स्वयं
उसका प्रयोग
नहीं कर सकते —और
यही होनी
चाहिए कसौटी।
यदि
मैं खोजता हूं
ध्यान की कोई
विधि और मैं स्वयं
ध्यान नहीं कर
सकता, तो
मेरी खोज क्या
अर्थ रख सकती
है? लेकिन
पूरब और
पश्चिम में वह
बात भी गलत है।
पश्चिम में वे
कहते हैं, 'डाक्टर
शायद स्वयं को
ठीक नहीं कर
सकता, लेकिन
वह तुम्हें
ठीक कर सकता
है।’ पूरब
में हम सदा कह
रहे हैं, ' अरे
वैद्य, पहले
स्वयं को
स्वस्थ करो।’
वही बात
कसौटी बनेगी
कि तुम वैसा
दूसरों के प्रति
कर सकते हो या
नहीं। पश्चिम
में वे पूछते
नहीं, वे
वैसी बात
पूछते नहीं।
पश्चिम में
विज्ञान अपने
से चलता है।
निजी प्रश्न
नहीं पूछे
जाते हैं, क्योंकि
विज्ञान को एक
वस्तुगत
अध्ययन माना जाता
है, आत्मपरकता
से उसका कोई
संबंध नहीं
होता। —ऐसा हो
सकता है
विज्ञान के
साथ, लेकिन
मनोविज्ञान
एकदम वस्तुगत
नहीं हो सकता
है। उसे
आत्मगत
(सब्जेक्टिव)
भी होना पड़ता
है, क्योंकि
मन आत्मपरक
होता है।
पहली
बात जो का के
विषय में
पूछनी चाहिए
वह है, क्या
आपने अपने को
जान लिया है? लेकिन वह
सचमुच ही बहुत
अहंकारी था।
वह सोच रहा था,
उसने जान
लिया। वह भारत
में आने से
हिचकता था।
केवल एक बार
आया वह, और
वह हिचकता था
किसी
संन्यासी के
पास जाकर उससे
मिलने से।
यहां तक कि
रमण महर्षि
जैसे संत
पुरुष से मिलने
में भी हिचकता
था। उसकी
मर्जी न थी, वह नहीं गया।
उसके लिए वहा
सीखने को क्या
था? उसके
पास पहले से
ही सब मौजूद
था। और वह कुछ
नहीं जानता था,
कुछ
स्वप्नों के
कुछ टुकड़े मात्र
थे जिनकी
व्याख्या
उसने की—और
उसने सोचा कि
उसने जीवन की
व्याख्या कर
दी।
तुम
स्वप्नों की
व्याख्या किए
चले जाते हो, और तुम
सोचते हो कि
स्वप्न
वास्तविकता
हैं। पूरब में
हमारा
दृष्टिकोण
एकदम विपरीत
है। हम जीवन
में झांकते
रहे हैं और
हमने पाया कि
जीवन स्वयं एक
सपना है। तुम
सोचते हो कि
स्वप्नों की
व्याख्या
करके तुम सत्य
की व्याख्या
कर देते हो।
ठीक इसके विपरीत,
हमने झांका
है जीवन में
और पाया है कि
वह स्वप्न के
अतिरिक्त और
कुछ नहीं।
और यह
हिचकिचाहट
क्यों? का के लिए
पूरब एक भय
था। वह भयभीत
था पूरब से और
कारण था इसका
कुछ। वह था
भयभीत पूरब से
क्योंकि पूरब
उदघाटित कर
देता उसकी
अपनी समझ की
सच्चाई को—कि
वह झूठ था।
यदि वह गया
होता रमण के
पास, यदि
वह गया होता
पूरब के किसी
और संत के पास,
तो वह तुरंत
जान गया होता
कि जो कुछ
उपलब्ध किया
है उसने, वह
कुछ नहीं था।
वह तो मात्र मंदिर
की सीढ़ियों पर
था। अभी वह
प्रविष्ट
नहीं हुआ था
मंदिर में।
लेकिन पश्चिम
में कोई भी चीज
चल जाती है।
बिना उसके
जाने कि आत्म—ज्ञान
क्या है, वे
उसे आत्म—ज्ञान
कह देते हैं।
तुम उसे कुछ
भी कह सकते हो,
वह तुम पर
निर्भर करता
है।
आत्म—ज्ञान
है अनात्म तक
चले आना, भीतर के
नितांत शून्य
तक आ पहुंचना,
उस बिंदु तक
आ पहुंचना
जहां तुम नहीं
होते। बूंद
समुद्र में खो
जाती है और
केवल समुद्र
का अस्तित्व
होता है। तो
कौन देखता है
स्वप्न? तो
कौन बचता है
वहां स्वप्न
देखने को? घर
खाली होता है,
वहां कोई
नहीं बचता।
दूसरा
प्रश्न—
आपने
कहा कि किसी
प्रकार की नकल
बुद्ध की भी नकल
शुद्ध चेतना
के लिए
प्रतिकूल
होती है। लेकिन
हम देखते कि
हमारा
सांस्कृतिक
जीवन नकल के अतिरिक्त
और कुछ नहीं
उस अवस्था में
क्या स्वयं
संस्कृति ही
प्रतिकूल है
धर्म के लिए?
हां, संस्कृति,
समाज, सभ्यता,
सभी कुछ प्रतिकूल
है धर्म के
लिए। धर्म एक
क्रांति है, तुम्हारी
सांस्कृतिक
संस्कार—बद्धताओं
के लिए एक
क्रांति, तुम्हारी
सामाजिक
अनुकूलन की
क्रांति, वे
सारे जीवन—
क्षेत्र
जिन्हें
तुमने जीया और
तुम जी रहे हो
उनमें आयी एक
क्रांति।
हर
समाज धर्म के
विरुद्ध होता
है। मैं तुम्हारे
मंदिरों और
मसजिदों और
चर्चों की बात
नहीं कर रहा
हूं जिन्हें
कि समाज ने
निर्मित किया
होता है। वे
तो चालाकियां
हैं। वे
तुम्हें मूर्ख
बनाने की
बातें हैं। वे
धर्म के झूठे
परिपूरक हैं, वे धर्म
नहीं। वे
तुम्हें
दिग्भ्रमित
करने के लिए
हैं। तुम्हें
चाहिए धर्म, वे कहते हैं,
'ही, आओ
मंदिर में, चर्च में, गुरुद्वारे
में—यहां है
धर्म। तुम आओ
और प्रार्थना
करो और उपदेशक
है वहा जो कि
सिखाएगा
तुम्हें धर्म।’
यह एक
चालाकी होती
है। समाज ने
झूठे धर्म बना
दिए हैं वे
धर्म हैं—ईसाइयत,
हिंदुत्व, जैन। लेकिन
कोई बुद्ध, कोई महावीर
या जीसस या
मोहम्मद, सदा
समाज के बाहर
अस्तित्व
रखते हैं। और
समाज सदा उनसे
झगड़ता है। जब
वे नहीं रहते,
तब समाज
उन्हें पूजने
लगता है, तब
समाज मंदिर
निर्मित करता
है। और तब कुछ
नहीं बचता; सत्य जा
चुका होता है,
ज्योति
विलीन हो चुकी
होती है। बुद्ध
अब नहीं रहे
बुद्ध की
मूर्ति में।
मंदिरों में
तुम पाओगे
समाज को, संस्कृति
को, पर
धर्म को नहीं
पाओगे। तो फिर
धर्म है क्या?
पहली
बात, धर्म
एक निजी घटना
है। वह कोई
सामाजिक घटना
नहीं है। तुम
अकेले उतरते
हो उसमें, तुम
समूह के साथ
नहीं उतर सकते
उसमें। कैसे
तुम किसी
दूसरे को साथ
लेकर समाधि
में उतर सकते
हो? तुम्हारे
एकदम निकट का
भी, तुम्हारा
बिलकुल
समीपतम भी
तुम्हारे साथ
न होगा। जब
तुम भीतर की
ओर बढ़ते हो, तो हर चीज
छूट जाएगी.
समाज, संस्कृति,
सभ्यता, शत्रु,
प्रेमी, प्रेमिकाएं, बच्चे, पत्नी,
पति—हर चीज
छूट जाती है
धीरे — धीरे।
और एक घड़ी आती
है जब तुम भी
छूट जाओगे।
केवल तभी होती
है परम खिलावट,
तभी होता है
रूपांतरण।
क्योंकि तुम
भी समाज का एक
हिस्सा हो, समाज के
सदस्य हो :
हिंदू हो, कि
मुसलमान हो, कि ईसाई हो; भारतीय हो, चीनी हो, जापानी
हो। पहले, दूसरे
छूट जाएंगे; फिर धीरे —
धीरे, अपने
लोग छूट
जाएंगे, ज्यादा
निकट के छूट
जाएंगे।
अंततः तुम
स्वयं तक आ
पहुंचोगे। वह
भी समाज का एक
हिस्सा है।
समाज द्वारा
प्रशिक्षित
हुआ, समाज
द्वारा
संस्कारित
हुआ तुम्हारा
मस्तिष्क, तुम्हारा
मन, तुम्हारा
अहंकार —समाज
द्वारा दिया
हुआ। उसे भी
मंदिर के बाहर
छोड़ देना है।
तब तुम अपने
परम स्वात में
प्रवेश करते
हो। कोई नहीं
होता वहां, तुम भी नहीं।
धर्म
आत्मगत होता
है। और धर्म क्रांतिमय
होता है। धर्म
एकमात्र क्रांति
है संसार की।
दूसरी सारी क्रांतिया
झूठी होती हैं, नकली
होती हैं, खेल;
वे क्रांतिया
नहीं होतीं।
वस्तुत:
उन्हीं क्रांतियों
के कारण, सच्ची
क्रांति सदा
स्थगित हो
जाती है। वे
प्रति —क्रांतिया
होती हैं।
एक
साम्यवादी
आता है और वह
कहता है, 'कैसे तुम
स्वयं को बदल
सकते हो, जब
तक कि सारा
समाज ही न बदल
जाए?' और
तुम अनुभव
करते हो कि 'ठीक है, कैसे
मैं स्वयं को
बदल सकता हूं?
कैसे मैं
अस्वतंत्र
समाज में एक
स्वतंत्र जीवन
जी सकता हूं?' तर्क तो
संगत जान पड़ता
है। एक दुखी
समाज में तुम
सुखी कैसे हो
सकते हो? कैसे
तुम आनंद पा
सकते हो जब कि
हर कोई पीड़ित
है? साम्यवादी
चोट करता है, वह आकर्षित
करता है।’हा',
तुम कहते, 'जब तक कि
सारा समाज
सुखी न हो जाए,
मैं कैसे
सुखी हो सकता
हूं?' फिर
एक साम्यवादी
कहता है, 'आओ
पहले तो हम क्रांति
लाएं समाज में।’
फिर तुम कूच
करना शुरू
करते मोर्चा,
घेराव सभी
प्रकार की
नासमझिया।
तुम पकड़ लिए
गए एक जाल में।
अब तुम बदलने
ही वाले हो
सारे संसार
को!
लेकिन क्या
तुम भूल गए कि
कितने दिन
जीने वाले हो
तुम? और
जब सारा संसार
बदल जाता है, तो उस समय तक
तुम नहीं
रहोगे यहां।
तुम खो चुके
होओगे
तुम्हारा
जीवन। बहुत से
मूर्ख लोग
अपना सारा
जीवन गंवा रहे
हैं, इस या
उस बात के
विरुद्ध
अभियान चला कर।
इसकी या उसकी
खातिर; सारे
संसार को
रूपांतरित
करने की कोशिश
कर रहे हैं और
उस एकमात्र
रूपांतरण को
स्थगित कर रहे
हैं जो कि
संभव है, और
जो है आत्म—रूपांतरण।
और मैं
कहता हूं
तुमसे, तुम
अस्वतंत्र
समाज में
स्वतंत्र हो
सकते हो, तुम
सुखी हो सकते
हो दुखी संसार
में। दूसरों
की ओर से कोई
बाधा नहीं है,
तुम
रूपांतरित हो
सकते हो। कोई
तुम्हें नहीं
रोक रहा, सिवाय
तुम्हारे
स्वय के। कोई
व्यक्ति कोई
बाधा नहीं बना
रहा है। समाज
की और संसार
की फिक्र मत
करो। क्योंकि
संसार तो चलता
रहेगा। और वह
ऐसा ही बना
हुआ है हमेशा—हमेशा
से। बहुत —सी
क्रांतियां
आती हैं और
चली जाती हैं
और संसार वैसा
ही बना रहता
है।
यदि
सारे
क्रांतिकारी
अपनी कब्रों
में से फिर
जीवित किए जा
सकते—लेनिन और
मार्क्स —वे
विश्वास न कर
पाते कि संसार
वैसा ही बना
हुआ है और क्रांति
घट चुकी है।
रूस में या कि
अमरीका में
कोई अंतर नहीं, बस एक
औपचारिक —सा
अंतर है। रूप
भेद रखते हैं;
आधारभूत
सत्य वैसा ही
बना रहता है, मनुष्य की
मौलिक पीड़ा
वैसी ही बनी
रहती है। समाज
कभी नहीं
पहुंचेगा
किसी आदर्श तक।
वह शब्द 'यूटोपिएया'
बहुत सुंदर
है। इस शब्द
का अर्थ ही है :
कि जो कभी
नहीं आता।
शब्द यूटोपिया
का अर्थ होता
है : कि जो कभी न
आए। वह सदा आ
रहा होता है, लेकिन वह
आता कभी नहीं,
वचन सदा
होता है लेकिन
चीजें कभी
पहुंचाई नहीं
जातीं। और यह
ऐसा ही रहेगा।
ऐसा ही रहा है।
केवल एक
संभावना है.
तुम
परिवर्तित हो
सकते हो।
राजनीति
सामाजिक है, धर्म
व्यक्तिगत
होता है। और
जब कभी धर्म
सामाजिक बनता
है, वह
राजनीति का
हिस्सा होता
है; वह
धर्म नहीं रह
जाता। इसलाम
और हिंदू और
जैन धर्म, वे
राजनीतिया
हैं। वे अब
धर्म नहीं रहे;
वे समाज हो
गए हैं।
यह एक
व्यक्तिगत
समझ होती है।
तुम
तुम्हारे
गहनतम अंतर
में जानते हो
कि परिवर्तन
की आवश्यकता
है, जैसे
तुम हो, तुम
गलत हो; जैसे
तुम हो, तुम
नरक बना रहे
हो तुम्हारे
चारों ओर, जैसे
तुम हो, तुम
बीज ही हो दुख
का। तुम इसे
जानते हो
तुम्हारी
सत्ता के
गहनतम गर्भ
में, और वह
जानना ही एक
परिवर्तन बन
जाता है। तुम
गिरा देते हो
बीज को; तुम
बढ़ते हो एक
अलग दिशा में।
यह बात
व्यक्तिगत
होती है, यह
कोई
सांस्कृतिक
बात नहीं होती।
और
इसीलिए
तुम्हारे लिए
बहुत कठिन
होता है धार्मिक
होना। तुम
चाहोगे समाज
तुम्हें
सिखाए। यदि
धर्म सिखाया
जा सकता है, तो तुम
सभी धार्मिक
हो गए होते।
लेकिन धर्म
सिखाया नहीं
जा सकता है।
वह कोई शिक्षा
नहीं, वह
छलांग है
अज्ञात में।
उसके लिए साहस
की आवश्यकता
है, सीखने
की नहीं। और
कौन सिखा सकता
है तुम्हें
साहस? और
साहस सिखाया
कैसे जा सकता
है? या तो
वह तुम्हारे
पास होता है
या वह
तुम्हारे पास
नहीं होता।
इसलिए पता लगा
लेना कि साहस
तुम्हारे पास
है भी? और
तुम पता लगाने
की कोशिश करो
तो हर कोई
पाएगा कि
उसमें कहीं न
कहीं बड़ी
विशाल
संभावना छिपी
रहती है साहस
की। क्योंकि
साहस के बगैर
जीवन संभव
नहीं।
प्रतिपल
जीवन एक जोखम
होता है। बिना
साहस के तुम
कैसे रह सकते
हो? बिना
साहस के तुम
सांस कैसे ले
सकते हो? साहस
होता है मौजूद,
लेकिन
तुम्हें पता
नहीं होता।
साहस को खोज
लो, व्यक्तिगत
प्रतिबद्धता
की
जिम्मेदारी
जानो। संसार
को और आदर्श
मान्यताओं को
भूल जाओ, और
स्वयं को बदलो।
और यही है
सौंदर्य यदि
तुम बदलते हो
स्वयं को तो
तुमने संसार
को बदलना शुरू
ही कर दिया
होता है।
क्योंकि तुम्हारे
बदलाव के साथ
संसार का एक
हिस्सा बदल चुका
होता है। तुम
संसार के अंग
हो। यदि एक भी
हिस्सा बदलता
है, तो वह
संपूर्ण को
प्रभावित
करेगा
क्योंकि संपूर्ण
एक है, हर
चीज संबंधित
है।
यदि
मैं बदलता हूं; तो मैं एक
ढंग से सारे
संसार को
बदलता हूं।
संसार फिर कभी
वैसा ही न
होगा।
क्योंकि एक
हिस्सा—करोड़वां
भाग, पर
फिर भी एक
हिस्सा—बदल ही
चुका है, बिलकुल
अलग बन गया है;
अब वह इस
संसार का नहीं
रहा। एक दूसरा
संसार मेरे
द्वारा
व्याप्त हो
चुका है।
शाश्वतता समय
में प्रवेश कर
चुकी है।
परमात्मा
उतरा है, मानव
शरीर में बसने
को; कुछ भी
वैसा ही नहीं
रह सकता, हर
चीज बदल जाएगी
मेरे द्वारा।
इसे
याद रखना और
यह भी याद
रखना कि धर्म
कोई नकल नहीं
है। तुम
धार्मिक
व्यक्ति की
नकल नहीं कर
सकते। यदि तुम
नकल करते हो
तो यह छद्य—
धर्म होगा—नकली, झूठा।
तुम कैसे मेरी
नकल कर सकते
हो? और यदि
तुम नकल करते
हो तो कैसे
तुम स्वयं के
प्रति सच्चे
रह सकते हो? तुम स्वयं
के प्रति झूठे
हो जाओगे। तुम
यहां मेरे
जैसे होने को
नहीं हुए हो।
तुम यहां हो
बिलकुल
तुम्हारे
जैसे होने को।
मेरे जैसे
होने को तुम यहां
नहीं हो; तुम
यहां हो
बिलकुल अपने
जैसे होने के
लिए—अपने ही
जैसे।
मैंने
सुना है एक
यहूदी फकीर
जोसिया के
बारे में। वह
मर रहा था और
किसी ने कहा, 'जोसिया
मोजेज की
प्रार्थना
करो और मांगो
उनसे कि
तुम्हारी मदद
करें।’जोसिया
ने कहा, 'भूल
जाओ मोजेज के
बारे में।
क्योंकि जब
मैं मर जाऊंगा,
तो
परमात्मा
मुझसे यह न
पूछेगा कि मैं
मोजेज जैसा
क्यों न हुआ।
वह पूछेगा, मैं जोसिया
जैसा क्यों
नहीं हुआ। वह
नहीं पूछेगा
मुझसे कि तुम
मोजेज जैसे
क्यों नहीं? वह मेरी
जिम्मेदारी
नहीं, मोजेज
जैसा होना।
यदि परमात्मा
मेरा होना
मोजेज जैसा
चाहता, तो
उसने मुझे
मोजेज बना
दिया होता। वह
पूछेगा मुझसे,
जोसिया तुम
जोसिया जैसे
क्यों नहीं? और यही है
मेरी मुसीबत.
सारी जिंदगी
मैं किसी दूसरे
की भांति होने
का प्रयास
करता रहा।
लेकिन कम से
कम अब अंतिम
घड़ी मुझे
अकेला छोड़ दो,
मुझे मुझ
जैसा ही रहने
दो, क्योंकि
वही चेहरा
मुझे
परमात्मा को
दिखाना चाहिए।
और केवल वही
चेहरा है
जिसके लिए
परमात्मा
प्रतीक्षा कर
रहा होगा।
प्रामाणिक
रूप से स्वयं
जैसे हो जाओ।
तुम नकल नहीं
कर सकते। धर्म
प्रत्येक को
अद्वितीय बना
देता है। कोई
भी गुरु जो कि
सच्चा गुरु है
इस पर जोर नहीं
देगा कि तुम
उसकी नकल करो।
वह तुम्हें
स्वयं जैसा
होने में
तुम्हारी मदद
करेगा, वह उसी के
जैसा होने के
लिए तुम्हारी
मदद नहीं
करेगा।
और
सारी सभ्यता
एक नकल है।
सारा समाज नकल
करने वाला है।
इसीलिए सारा
समाज सत्य की
अपेक्षा एक
नाटक की भाति
है। हिंदू इसे
कहते हैं, 'माया' —एक खेल, एक
खेल—तमाशा, पर सत्य
नहीं। माता—पिता
बच्चों को उन्हीं
के जैसा होने
की सीख दे रहे
हैं। हर कोई
हर दूसरे को
अपने जैसा
करने के लिए
धकेल रहा है
और खींच रहा
है —चारों ओर
पूरी अराजकता
बनी है।
मैं
ठहरा हुआ था
एक परिवार क़े
साथ, और
मैं बैठा था
लॉन पर। घर का
स्व छोटा
बच्चा आया, और मैं
पूछने लगा, 'तुम अपने
जीवन में क्या
बनने की सोचते
हो?' वह
बोला, 'कहना
मुश्किल है, क्योंकि
मेरे पिता
मुझे डाक्टर
बनाना चाहते हैं।
मेरी मां
चाहती हैं कि
मैं इंजीनियर
बनूं; मेरे
चाचा, वे
चाहते हैं मैं
एडवोकेट बनूं
क्योंकि वे एक
एडवोकेट हैं।
और मैं उलझन
में हूं। मैं
नहीं जानता कि
मैं क्या
बनूंगा।’ मैंने
पूछा उससे, 'तुम क्या
बनना चाहते हो?'
वह बोला, 'पर यही तो
मुझसे किसी ने
पूछा ही नहीं।’
मैंने कहा
उससे, 'तुम
सोचो इस बारे
में। कल तुम
मुझे बताना।’
अगले दिन वह
आया और वह
बोला, 'मैं
एक नृत्यकार
होना चाहूंगा,
लेकिन मेरी
मां ऐसा न
होने देगी, मेरे पिता
ऐसा न होने
देंगे।’वह
कहने लगा
मुझसे, 'मेरी
मदद कीजिए, वे आपकी
सुनेंगे।’
हर
बच्चा धकेला
जा रहा है और
खींचा जा रहा
है कुछ और ही
बनाये जाने के
लिए। इसीलिए
इतनी ज्यादा
असुंदरता है
चारों ओर। कोई
स्वयं जैसा
नहीं। यदि तुम
संसार के सबसे
बड़े इंजीनियर
भी बन जाओ, तो वह बात
भी कोई
परितृप्ति न
देगी, यदि
वह तुम्हारी
अपने मन की
बात न रही हो।
और मैं कहता
हूं तुमसे, तुम शायद
संसार के सबसे
बड़े बेकार
नृत्यकार होओगे,
उससे कुछ
अंतर नहीं
पड़ता। यदि वह
तुम्हारी
अपनी
अंतःप्रेरणा
थी, तो तुम
प्रसन्न और
परितृप्त
रहोगे।
मैंने
सुना है एक
बड़े
वैज्ञानिक के
बारे — में
जिसे कि नोबल
पुरस्कार
मिला था। वह
संसार के जाने
—माने बड़े —बड़े
शल्यचिकित्सकों
में से एक था।
और जिस दिन
उसे नोबल
पुरस्कार
मिला, किसी
ने कहा, 'आपको
तो खुश होना
चाहिए। आप
इतने उदास
क्यों लग रहे
हैं? यह
सबसे बड़ा
पुरस्कार है;
सबसे बड़ा' इनाम जिसे
कि संसार
तुम्हें दे
सकता है; सबसे
बड़ा सम्मान।
आप खुश क्यों
नहीं हो? और
आप तो संसार
के सबसे बड़े
शल्यचिकित्सकों
में से हैं।’वह बोला, 'सवाल
यह नहीं है, जब नोबल
पुरस्कार
मुझे दिया गया
था, तो मैं
अपने बचपन की
बात सोच रहा
था। मैं कभी भी
सर्जन नहीं
बनना चाहता
था। जबरदस्ती
यह बात मुझ पर
लादी गई। मेरी
सारी जिंदगी
एक व्यर्थ बात
रही है। क्या
करूंगा मैं इस
नोबल
पुरस्कार को
लेकर? मैंने
चाहा था
नृत्यकार
बनना। चाहे
सबसे बेकार
नृत्यकार ही
सही, उससे
काम चल गया
होता, मैं
परितृप्त हो
गया होता। वह
मेरी अंतर की
पुकार थी।'
याद
रखना इसे, क्यों
तुम इतना
असंतुष्ट
अनुभव करते हो,
तुम क्यों
सदा बिलकुल ही
किसी कारण के
बिना इतना
असंतोष अनुभव
करते हो?—यदि
सारी बात ठीक
भी चल रही हो।
कुछ चूक रहा
होता है। क्या
चूक रहा होता
है?—तुमने
अपनी अंतस
सत्ता को कभी
नहीं सुना। किसी
दूसरे ने
तुम्हें
होशियारी से
संचालित किया
है, तुम्हें
प्रभावित
किया है, किसी
दूसरे ने
तुम्हें
शासित किया
होता है, किसी
दूसरे ने
तुम्हें
जिंदगी के ऐसे
ढांचे में
बैठा दिया है
जो कि
तुम्हारा कभी
न था, जिसे
तुमने कभी न
चाहा था। मैं
कहता हूं
तुमसे, यदि
ऐसा घट भी जाए
कि तुम भिखारी
बन जाओ, तो
फिक्र मत करना
यदि वह भी हो
तुम्हारी
अंतःप्रेरणा।
अंतस की पुकार
का पता लगा
लेना और उसी
का अनुसरण
करना, क्योंकि
ईश्वर नहीं
पूछेगा, 'तुम
महावीर क्यों
नहीं हो, तुम
मोहम्मद
क्यों नहीं हो,
या कि तुम
जरथुस्त्र
क्यों नहीं हो?'
वह पूछेगा 'जोसिया, तुम
जोसिया क्यों
नहीं हो?
तुम्हें
कुछ होना है, और सारा
समाज एक बड़ी
नकल है, एक
झूठा दिखावा।
इसीलिए इतनी
ज्यादा
असंतुष्टि है
हर चेहरे पर।
मैं देखता हू
तुम्हारी आंखों
में और मैं
पाता हूं—असंतोष,
अतृप्ति।
हवा का एक
झोंका भी तुम
तक नहीं आता जो
कि तुम्हें
प्रसन्नता दे
जाए, आनंद
दे जाए, ऐसा
संभव नहीं। और
आनंद संभव
होता है। वह
एक सरल घटना
है स्वाभाविक
हो जाओ और
निर्मुक्त हो जाओ
और तुम्हारी
अपनी अंत:रुचि
का अनुसरण करो।
मैं
यहां हूं,
तुम्हारे
स्वयं जैसा हो
जाने में
तुम्हारी मदद
करने ' को।
जब तुम शिष्य
हो जाते हो, जब मैं
तुम्हें
दीक्षा देता हूं, तो मैं
तुम्हें
अनुकरणकर्ता
होने की
दीक्षा नहीं
दे रहा होता
हूं। मैं तो
तुम्हारी मदद
कर रहा होता
हूं तुम्हारे
स्वयं के
अस्तित्व का पता
लगाने में, तुम्हारे
अपने
प्रामाणिक
अस्तित्व का
पता लगाने में—क्योंकि
तुम इतने
ज्यादा
भ्रमित हो, तुम्हारे
इतने ज्यादा
चेहरे हैं कि
तुम भूल ही गए
हो कि कौन—सा
चेहरा मौलिक
है। तुम नहीं
जानते
तुम्हारी असली
अंतःप्रेरणा
क्या है।
समाज
ने तुम्हें
बिलकुल उलझा
दिया है, तुम्हें
दिग्भ्रमित
कर दिया है।
अब तुम्हें इसका
कुछ पक्का पता
नहीं कि तुम
कौन हो। जब
मैं तुम्हें
दीक्षा देता
हूं तो जो
एकमात्र बात
मैं करना
चाहता हूं,
वह यह कि
तुम्हारे
अपने घर तक आ
जाने में तुम्हारी
मदद करूं। एक
बार जब तुम
अपनी अंतस
सत्ता में
केंद्रित हो
जाते हो, तो
मेरा कार्य
समाप्त हो
जाता है। तब
तुम आरंभ कर
सकते हो। वस्तुत:
एक गुरु को
उसे अनकिया
करना पड़ता है
जो कि समाज ने
किया होता है।
गुरु को वह
अनकिया करना
पड़ता है जिसे
संस्कृति ने
क्रियान्वित किया
होता है। उसे
तुम्हें फिर
से एक कोरा
कागज बना देना
होता है।
यही है
गुरु द्वारा
तुम्हें
पुनर्जीवन
दिए जाने का
अर्थ फिर से तुम
बच्चे बन गए; तुम्हारा
अतीत साफ हो
गया, तुम्हारी
स्लेट धुल गई।
कैसे तुम उस
पहली जगह पहुंच
सकते हो, जहां
से तुम इस
संसार में प्रविष्ट
हुए थे, चालीस,
पचास वर्ष
पहले? और
समाज ने
तुम्हें पकड़
लिया, तुम्हें
फीस लिया, तुम्हें
भटकाया गया।
पचास वर्ष तक
तुम भटके—और
अब अचानक तुम
मेरे पास आ गए
हो। मुझे केवल
एक ही बात
करनी है : उसे
धोकर साफ कर
देना है जो कुछ
तुम्हारे साथ
हुआ है; तुम्हें
अपने बचपन तक
ले आना है, उस
आरंभिक
अवस्था तक, जहां से
तुमने यात्रा
शुरू की थी, और यात्रा
को फिर से
शुरू होने
देने में
तुम्हारी मदद
करनी है।
तीसरा
प्रश्न :
आपने
कहा कि किसी
के द्वारा
प्रभावित हो
जाना अशुद्ध
और
अस्वाभाविक
हो जाना है।
लेकिन आपके
व्यक्तित्व
और शब्दों
द्वारा प्रभावित
हुए बिना कोई
खोजी आपका
शिष्य कैसे?
यदि तुम
शब्दों
द्वारा और
व्यक्तित्व
द्वारा प्रभावित
होते हो तो
तुम कभी भी
शिष्य नहीं हो
सकते; तुम
नकल करने वाले
बन जाओगे। और
एक शिष्य नकल
करने वाला
नहीं होता है।
लेकिन मैं
समझता हूं
तुम्हारी
तकलीफ—तुम
जुड्ने का
केवल एक ही
ढंग जानते हो,
और वह है —प्रभावित
हो जाना। यही
कुछ किया है
समाज ने
तुम्हारे साथ।
यदि तुम
प्रभावित
होते हो, तो
तुम सोचते हो
कि तुम जुड़े
हुए हो। तो
तुम नहीं
जानते कि
शिष्य कैसे
हुआ जाए। तुम
केवल यही
जानते हो कि
विद्यार्थी
कैसे बना जाए—स्व
छाया घटना।
जब तुम
सुनते हो मुझे, तो भूल
जाना
प्रभावित
होने के बारे
में। जब तुम
सुनते हो मुझे,
तो बस केवल
सुनो। मेरे
साथ रहो, खुले
हुए; किसी
भी ढंग से
निर्णय देने
की कोशिश मत
करना। जो कुछ
कह रहा हूं
मैं, तुम
तो बस खुले
रहो और सुनो, उसे आने दो, मुझे तुममें
व्यापने दो, लेकिन
निर्णय मत दो।
मत कहना कि 'ही, यह
ठीक है।’ क्योंकि
तब तुम
प्रभावित हुए।
यदि तुम कहते
हो, 'नहीं, यह ठीक नहीं
है', तब तुम
प्रभावित न
होने की कोशिश
कर रहे होते हो।
एक तो विधायक
प्रभाव है, दूसरा
नकारात्मक
प्रभाव, और
दोनों प्रकार
गलत होंगे।
मुझे 'ही' मत कहना, मुझे
'ना' मत
कहना। बिना ही
या ना कहे, तुम
बस यहां मौजूद
क्यों नहीं हो
सकते? सुनो,
देखो, चीजों
को घटने दो।
यदि तुम कहते
हो, 'ही', उस
'ही' का
अर्थ होता है :
अब तुम अनुकरण
करने को तैयार
हो। यदि तुम 'ना' कहते
हो तो इसका
अर्थ होता है :
नहीं, तुम
मेरा अनुकरण
नहीं करोगे, तुम कहीं जा
रहे हो किसी
दूसरे का
अनुकरण करने
को। तुम्हारा
कोई और गुरु
है; कोई और
ही है गुरु
जिसका अनुकरण
तुम करोगे। यह
व्यक्ति
तुम्हारे लिए
नहीं। तुम
किसी उसको खोज
रहे हो जो कि
तुम्हारे लिए एक
आदर्श बन सके,
और तुम बन
सको एक छाया।
और तुम बहुतों
को पा सकते हो —बहुत
से हैं जो
आदर्श बनकर
आनंदित होते
हैं, क्योंकि
अहंकार बहुत
ज्यादा अच्छा
महसूस करता है।
जब बहुत से
लोग एक
व्यक्ति का
अनुकरण करते
हैं, तो
अहंकार को यह
बात बड़ी सुखद
मालूम पड़ती है—'मैं आदर्श
हूं इतने सारे
लोगों का! मैं
बिलकुल ठीक
होऊंगा, वरना
क्यों इतने
सारे लोग मेरा
अनुसरण कर रहे
हैं?' जितनी
ज्यादा भीड़
आदमी के पीछे
होती है, अहंकार
उतना ज्यादा
मजबूत होता है।
तो ऐसे
लोग हैं, जो चाहेंगे
कि तुम अनुकरण
करो, लेकिन
मैं उनमें से
नहीं हूं; मैं
ठीक विपरीत
हूं। मैं
तुम्हारे
अनुकरण करने
से खुश नहीं
होता। जब कभी
तुम ऐसा करने
लगते हो, मुझे
तुम पर बहुत
अफसोस होने
लगता है। मैं
हर ढंग से इसे
अनुत्साहित
करने की कोशिश
करता हूं।
मेरा अनुकरण
मत करो। केवल
देखो, सुनो,
अनुभव करो।
इसे सुनने में,
देखने में,
अनुभव करने
में, यहां
मेरे साथ
मात्र जागरूक
होने से ही, धीरे — धीरे
तुम्हारी
ऊर्जा
तुम्हारे
अपने केंद्र पर
उतरने लगेगी।
क्योंकि मुझे
सुनने से मन
ठहर जाता है, देखने से मन
ठहर जाता है।
मन के उस
ठहरने में ही,
घटना घट रही
होती है —तुम
अपने
अस्तित्व के
स्रोत तक लौट
रहे होते हो, तुम अपने
केंद्र में
उतर रहे होते
हो। मन की
अव्यवस्था
वहां नहीं
रहती; अचानक
तुम एक संतुलन
पा लेते हो, तुम केंद्रित
हो जाते हो।
और यही
मैं चाहूंगा।
तुम्हारे
अपने स्रोत और
केंद्र में
उतरने से तुम्हारा
जीवन उदित
होगा। लेकिन
यह मेरे
प्रभाव के
कारण न होगा, मैं कोई
प्रभाव छोड़ना
नहीं चाहता।
और यदि वे छूट
जाते हैं, तो
मैं
जिम्मेदार
नहीं। तुमने
स्वयं ही कुछ
किया होगा।
तुम चिपकते
रहे होओगे उन
शब्दों से, प्रभावों से।
यह सूक्ष्म
होता है बिना
निर्णय दिए ही
रहना, केवल
सुनते रहना, देखते रहना,
मौजूद रहना,
मेरे साथ
बैठे रहना।
मेरा
बोलना और कुछ
नहीं है सिवाय
मेरे साथ बैठने
में तुम्हारी
मदद करने के, यहां
मेरे साथ होने
में तुम्हारी
मदद करने के।
मैं जानता हूं
क्योंकि मैं
तो मौन में
बैठ सकता हूं, लेकिन तब
तुम्हारा मन
बातचीत करेगा।
तुम मौन नहीं
रहोगे। इसलिए
मुझे बोलना
पड़ता है, ताकि
तुम्हारे मन
को न बोलने
दिया जाए। तुम
सुनने में
तल्लीन हो
जाते हो, संलग्न
हो जाते हो, मन ठहर जाता
है। उस अंतराल
में तुम अपने
स्रोत तक
पहुंच जाते हो।
मैं
हूं तुम्हारे
केंद्र को
खोजने में
तुम्हारी मदद
करने को, और यही है
सच्चा
शिष्यत्व। यह
बात सचमुच ही
नितांत अलग है
उससे जिसे कि
लोग शिष्यत्व
समझते हैं। यह
अनुसरण नहीं,
यह गुरु को
आदर्श बना
लेने की बात
नहीं। यह उस
तरह की बात ही
नहीं। यह है
तुम्हारे
अपने केंद्र
तक उतरने में
गुरु को
तुम्हारी मदद
करने देना।
चौथा
प्रश्न—
आप
कहते हैं वही
करो जो
तुम्हारे
अपने स्वभाव के
अनुकूल पड़ता
हो। लेकिन
मेरे लिए यह
जानना कठिन है
कि जो मैं करता
हूं वह मेरे
स्वभाव के
अनुकूल है या
मेरे अहंकार
के कैसे कोई
अहंकार के
बहुत— से
स्वरों के बीच
अपने स्वभाव
के स्वर को
पहचान लेता है?
जब कभी तुम
अहंकार की
आवाज को सुनते
हो, तो
देर — अबेर
मुसीबत तो
होगी। तुम दुख
के जाल में जा
पड़ोगे। इस पर
तुम्हें
ध्यान देना है
अहंकार सदा
दुख में ले
जाता है, सदा
ही, बिना
शर्त, सदा
ही सुनिश्चित
रूप से, बिलकुल
ही। और जब कभी
तुम स्वभाव की
सुनते हो, यह
बात तुम्हें
स्वास्थ्य की
ओर ले जाती है —संतोष
की ओर, मौन
की ओर, आनंद
की ओर। तो यही
होनी चाहिए
कसौटी।
तुम्हें बहुत—सी
गलतियां करनी
होंगी; और
दूसरा कोई
उपाय नहीं।
तुम्हें
ध्यान देना
होगा
तुम्हारे
अपने चुनाव पर,
कि कहां से
आ रही है आवाज,
और फिर
तुम्हें
देखना होगा कि
क्या घटता है—क्योंकि
फल ही कसौटी
है।
जब तुम
कुछ करते हो
तो ध्यान देना, सजग रहना,
और यदि वह
बात दुख की ओर
ले जाती हो, तब तुम
भलीभांति
जानते कि वह
तो अहंकार था।
तब अगली बार
सजग रहना, उस
आवाज को सुनना
ही मत। यदि वह
स्वाभाविक हो,
तो वह
तुम्हें मन की
आनंदमयी
अवस्था तक ले
जाएगी।
स्वभाव सदा
सुंदर होता है,
अहंकार सदा
असुंदर होता है।
दूसरा कोई और
उपाय नहीं
सिवाय
परीक्षण के और
गलती के। मैं
तुम्हें कोई
कसौटी नहीं दे
सकता जिससे कि
तुम हर चीज पर
निर्णय दे सको,
नहीं। जीवन
सूक्ष्म है और
जटिल है और
सारी
कसौटियां
छोटी पड़ती हैं।
निर्णय देने
को तुम्हें
अपने से ही
प्रयास करने
होंगे। तो जब
कभी तुम कुछ
करो, भीतर
की आवाज को
सुन लेना। उस
पर ध्यान देना
किं वह कहां
ले जाती है।
यदि वह पीड़ा
की ओर ले जाती
है, तो
निश्चित ही
अहंकार से आयी
थी।
यदि
तुम्हारा
प्रेम पीड़ा
में ले जाता
है, तो
वह अहंकार
द्वारा आया था।
यदि तुम्हारा
प्रेम सुंदर
मंगलमयता की
ओर ले जाता है,
एक धन्यता
की ओर ले जाता
है, तो वह
स्वभावगत था।
यदि तुम्हारी
मित्रता, यहां
तक कि
तुम्हारा
ध्यान भी, तुम्हें
पीड़ा मैं ले
जाता है तो वह
तुम्हारा अहंकार
ही था। यदि
बात स्वभावगत
होती है तो हर
चीज अनुकूल बैठेगी,
हर चीज
समस्वरता से
भरी होगी।
स्वभाव बहुत
अच्छा होता है,
स्वभाव
सुंदर होता है,
लेकिन
तुम्हें उसे
समझना होगा।
सदा इस
पर ध्यान देना
कि तुम क्या
कर रहे हो और वह
बात तुम्हें
कहां ले जाती
है। धीरे —
धीरे तुम जान
जाओगे कि
अहंकार क्या
चीज है, और स्वभाव
क्या चीज है; कौन—सी चीज
असली है और
कौन—सी चीज
नकली है।
इसमें समय
लगेगा और
सजगता की, ध्यान
देने की जरूरत
पड़ेगी। और
स्वयं को धोखा
मत देना—क्योंकि
पीड़ा की ओर
अहंकार ही ले
जाता है, और
कोई चीज नहीं।
किसी दूसरे पर
जिम्मेदारी
मत फेंक देना;
दूसरा तो
अप्रासंगिक
होता है।
तुम्हारा
अहंकार पीड़ा
में ले जाता
है, कोई और
दूसरा
तुम्हें पीड़ा
में नहीं ले
जाता है।
अहंकार नरक का
द्वार है, और
स्वाभाविक, प्रामाणिक,
सच्ची बात
जो तुम्हारे
केंद्र से आती
है, स्वर्ग
का द्वार है।
तुम्हें उसे
खोजना होगा और
उसे
कार्यान्वित करना
होगा।
यदि
तुम उसे बहुत
ध्यानपूर्वक
समझते हो, तो जल्दी
ही तुम्हें
बिलकुल
निश्चित हो
जाएगा कि
स्वभावगत
क्या है, और
अहंकार से
क्या आया है।
तब अहंकार के
पीछे मत चल
देना।
वस्तुत:
तब तुम स्वयं
ही अहंकार का
अनुसरण नहीं
कर रहे होओगे।
प्रयास करने
की कोई
आवश्यकता ही न
रहेगी; तुम तो बस
स्वाभाविक
चीज के पीछे
ही चल रहे होओगे।
स्वाभाविक
बात दिव्य
होती है। और
स्वभाव में
परम स्वभाव
छिपा होता है।
यदि तुम
स्वभाव का
अनुसरण करते
हो तो बाद में,
धीरे— धीरे,
बिना कोई
शोर किए ही
अचानक एक दिन
स्वभाव तिरोहित
हो जाएगा और
परम स्वभाव
प्रकट हो
जाएगा।
स्वभाव ले
जाता है
परमात्मा की
ओर, क्योंकि
परमात्मा
छिपा है
स्वभाव में।
पहले
तो स्वाभाविक
हो जाओ। तब
तुम स्वभाव की
नदी में बह
रहे होओगे। और
एक दिन नदी
उतर जाएगी परम
स्वभाव के
सागर में।
पांचवां
प्रश्न—
आपने
कहा शार्टकट
लेने की कोई
जरूरत नहीं
होती। क्या
आपके ध्यान
शार्टकट नहीं
हैं? क्योकि
इधर पहले आपने
कहा कि आपके
ध्यान तुरंत
छलांग लगा
देने वाले हैं।
तुरंत छलांग
लगाना सबसे
लंबा मार्ग है।
क्योंकि
तुरंत छलांग
के लिए तैयार
होने में बहुत
वर्ष लगेंगे; यहां तक
कि बहुत से
जीवन लग
जाएंगे इसके
लिए तैयार
होने में। तो
जब मैं कहता
हूं 'तुरंत
छलांग', तो
क्या तुम तुरंत
लगाते हो उसे?
मेरे कहने
मात्र से ही
तुमने ऐसा
किया नहीं होता।
मैं कहता हूं
तुरंत, लेकिन
तुम्हारी
दृष्टि से
तुरंत में
बहुत सारे
जन्म लग सकते
हैं।
छलांग
कभी भी
शार्टकट नहीं
होती, क्योंकि
छलांग मार्ग
नहीं है। लंबे
मार्ग हैं और
छोटे मार्ग
हैं। छलांग
बिलकुल नहीं
है मार्ग; वह
एक अचानक हुई
घटना है।
छलांग के लिए
तैयार होने का
अर्थ है—मरने
के लिए तैयार
होना। छलांग
लगाने को
तैयार होने का
अर्थ है—अज्ञात
में, असुरक्षा
में अपरिचित
में छलांग
लगाने को तैयार
होना। इस
तैयारी में
बहुत से वर्ष
लगेंगे।
मत
सोचना कि
तुरंत छलांग
कोई शार्टकट
है—ऐसा नहीं
है।
शार्टकट्स
होते हैं जब
कोई तुमसे
कहता है, 'मंत्र ले लो,
मंत्र का जप
सुबह पंद्रह
मिनट करो और
शाम को पंद्रह
मिनट करो, और
फिर तुम्हें
कोई और चीज
करने की जरूरत
नहीं। पंद्रह
दिन के भीतर
तुम ध्यानी हो
जाओगे।’
पश्चिम
में लोग समय के
प्रति इतने
सचेत होते हैं
कि वे सदा इस
बात के शिकार
होते हैं। कोई
आता है और
कहता है, 'यही है
शार्टकट।
मेरा रास्ता
बैलगाड़ी का
रास्ता नहीं
बल्कि जेट का
रास्ता है।’जैसा कि
महर्षि महेश
योगी कहते
हैं। वे कहते
हैं, 'मैं
तुम्हें
शार्टकट देता
हूं। बस एक
मंत्र जिसका
जप तुम प्रात:
पंद्रह मिनट
करो और शाम को
पंद्रह मिनट
करो। और दो
सप्ताह के
भीतर तुम संबोधि
पा ही लेते हो!'
पश्चिम
में लोगों को
इतनी जल्दी है
वे चाहते हैं
इंस्टैंट
काफी; वे
चाहते हैं
इंस्टैंट
सेक्स, वे
चाहते हैं
इंस्टैंट
परमात्मा; शार्टकट,
सजे पैकेट
में रखा हुआ, कि हर चीज
पहले से ही
गढ़ी हुई हो।
पश्चिमी दिमाग
पर समय बहुत
ज्यादा सवार
है, बहुत
ज्यादा, और
वे भीतर बहुत
सारे तनाव
बनाए जा रहे
हैं। कोई भी आ
सकता है और कह
सकता है, 'यही
है रामबाण और
हर चीज
सुलझायी जा
सकती है पंद्रह
मिनट के भीतर
ही।’ और
तुम क्या करते
हो?—तुम
बैठ जाते हो
और जप किए ही
जाते हो मंत्र
का।
पूरब
लाखों वर्षों
से मंत्रों का
जप करता रहा है
और कुछ घटित
नहीं हुआ। और
टी एम. शिक्षण
के दो
सप्ताहों में, तुम
प्रज्ञावान
हो जाते हो? इस तरह की
मूढ़ताएं चलती
जाती हैं, क्योंकि
तुम जल्दी में
हो। कोई न कोई
तुम्हारा
शोषण करेगा।
अभी एक
रात मैं एक
किताब पढ़ रहा
था, रिचर्ड
चर्च के लघु
निबंधों का एक
संग्रह। पुस्तक
का नाम है— 'ए
स्ट्रोल
बिफोर दि
डार्क।' उस
पुस्तक में वह
एक घटना याद
करता है जो कि
उसके एक मित्र
के साथ घटी।
एक
मित्र जिस पर
कि समय का भूत
सवार था
रेलगाड़ी से
यात्रा कर रहा
था। अचानक उसे
ध्यान आया कि वह
अपनी हाथघडी
तो भूल ही आया, तो बहुत
चिंतित हो गया
वह। रेलगाड़ी
एक छोटे से
स्टेशन पर
ठहरी। मित्र
ने खिड़की से
झांका तो कुली
गुजर रहा था
वहां से। उसने
कुली से समय
के विषय में
पूछा। कुली ने
कहा, 'मुझे
नहीं पता।’ वह मित्र
बोला, 'क्या!
तुम एक रेलवे
के आदमी और
तुम नहीं
जानते कि समय
कितना हुआ? क्या
तुम्हारे
यहां स्टेशन
पर घड़ी नहीं
है?' कुली
बोला, 'हां,
घड़ी तो है।
लेकिन मैं
क्यों परेशान
होऊं समय को
लेकर? क्यों
मैं परेशान
होऊं समय को
लेकर, घड़ी
है, उससे
मुझे क्या
लेना—देना!'
यह बात
अदभुत है, कुली का
यह कहना, 'क्यों
मैं परेशान
होऊं समय के
संबंध में?' लोग समय के
लिए कष्ट पाते
हैं और पश्चिम
में तो बहुत
ज्यादा कष्ट
पाते हैं—समय
और समय और
समय। वे कहते
कि समय धन है, और समय बह
रहा है, लगातार
हाथ से निकला
जा रहा है, इसलिए
शार्टकट की
जरूरत है। कोई
तुरंत मांग की
पूर्ति कर
देता है।
समय कम
नहीं पड़ रहा
है। समय
शाश्वत है, कहीं कोई
जल्दी नहीं।
अस्तित्व
बहुत आराम—पसंद
ढंग से चलता
है। अस्तित्व
बहुत धीमे
चलता है। जैसे
कि गंगा बहती
मैदान में —
धीमी, जैसे
कि बिलकुल बह
ही न रही हो।
फिर भी
पहुंचती है
सागर तक।
समय
थोड़ा नहीं है, भगदड़ में
मत पड़ो। समय
पर्याप्त है।
तुम आराम से
रहो। यदि तुम
शात रहते हो, तो सबसे
लंबा मार्ग भी
सबसे छोटा हो
जाएगा। यदि
तुम बदहवास हो,
जल्दबाजी
में होते हो, तो छोटा
मार्ग भी बहुत
लंबा हो जाएगा—क्योंकि
जल्दबाजी में
ध्यान असंभव
हो जाता है।
जब तुम भाग —दौड़
मचाते हो, जल्दी
में होते हो
तो वह जल्दी
ही बाधा हो
जाती है। जब
मैं कहता हूं, 'छलांग
लगा दो' — और
तुम तुरंत लगा
सकते हो छलांग—तों
मैं शार्टकट
या लांगकट की
बात नहीं कर
रहा। मैं
मार्ग की तो
बिलकुल बात ही
नहीं कर रहा, क्योंकि छलांग
कोई मार्ग
नहीं। छलांग
की घड़ी एक
साहसिक घड़ी
होती है —वह एक
अचानक घटना है।
लेकिन
मेरा यह मतलब
नहीं कि तुम
बिलकुल अभी ऐसा
कर सकते हो।
मैं जोर देता
रहूंगा, 'तुरंत छलांग
लगा दो, जितनी
जल्दी संभव हो।’यह जोर इसके
लिए तैयार
होने में
तुम्हारी मदद देने
को ही है।
किसी दिन शायद
तुम तैयार हो
जाओ। कोई
बिलकुल अभी
तैयार हो सकता
है —क्योंकि
तुम नए नहीं
हो, बहुत
जन्मों से तुम
कार्य कर ही
रहे हो। जब
मैं कहता हूं, 'तुरंत
लगा दो छलांग',
तो हो सकता
है कोई ऐसा हो
जो बहुत
जन्मों से कार्य
कर रहा हो, और
बस किनारे पर
ही खड़ा हुआ हो,
विशाल
शून्य के
किनारे, और
भयभीत हो। वह
साहस कर सकता
है और लगा
सकता है छलांग।
कोई जो बहुत
दूर होता है, सोचता है कि
तुरंत छलांग
संभव है, वह
आशा से भर
जाएगा और चलने
लगेगा।
जब मैं
कुछ कहता हूं
तो वह एक उपाय
होता है —कई
प्रकार की
स्थितियों
में पड़े कई
प्रकार के
लोगों के लिए।
लेकिन तो भी
मेरा मार्ग
शार्टकट नहीं
है। क्योंकि
कोई मार्ग हो
नहीं सकता है
शार्टकट। यह
शब्द ही धोखा—धड़ी
का है। जीवन
किसी
शार्टकट्स से
परिचित नहीं
होता क्योंकि
जीवन का कोई
आरंभ नहीं।
परमात्मा
किन्हीं
शार्टकट्स को
नहीं जानता।
परमात्मा को
कोई जल्दी
नहीं—शाश्वतता
का अस्तित्व
है।
तुम
धीरे — धीरे इस
पर काम कर
सकते हो। और
जितने ज्यादा
धैर्य से, जितने
धीरे से, जितने
ज्यादा
अशीघ्र —रूप
से तुम काम
करते हो, उतने
ज्यादा जल्दी
तुम पहुंचोगे।
यदि तुम इतने
धैर्यवान हो
सकते हो, इतने
असीम रूप से
धैर्यवान कि
तुम्हें
बिलकुल चिंता
ही नहीं पहुंचने
की, तो तुम
बिलकुल अभी
पहुंच सकते हो।
आज
इतना ही।
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