संयम है
संतुलन की परम
अवस्था—(प्रवचन—पच्चीसवां)
दिनांक
9 सितम्बर, 1973;
तृतीय
पर्युषण व्याख्यानमाला,
पाटकर
हाल,
बम्बई
मोक्षमार्ग-सूत्रः 2
जो जीवे वि न जाणे, जीवे वि
न जाणइ।
जीवा
जीवे याणंतो, कहं
सो नाहिइ संजमं।।
जो जीवे वि वियाणाइ, जीवे वि
वियाणइ।
जीवा
जीवे वियाणंतो, सो
हु नाहिइ संजमं।।
जया
गइं बहुविहं, सव्वजीवाण जाणइ।
तया
पुण्णं च पावं च बंधं
मोक्खं च जाणइ।।
जया
पुण्णं च पावं च बंधं
मोक्खं च जाणइ।
तया
निव्विंदए
मोए जे दिव्वे जे
य माणुसे।।
जो न
तो जीव अर्थात
चेतनतत्व
को जानता है, और
न अजीव अर्थात
जड़तत्व
को जानता है, वह जीव-अजीव
के स्वरूप को
न जाननेवाला
साधक, भला
किस तरह संयम
को जान सकेगा?
जो
जीव को जानता
है और जीव को
भी,
वह जीव और
जीव दोनों को
भलीभांति
जाननेवाला साधक
ही संयम को
जान सकेगा।
जब
वह सब जीवों
की नानाविध
गतियों को जान
लेता है, तब
पुण्य, पाप,
बंध और
मोक्ष को भी
जान लेता है।
जब
(साधक) पुण्य, पाप,
बंध और
मोक्ष को जान
लेता है, तब
देवता और
मनुष्य
संबंधी
काम-भोगों की
व्यर्थता जान
लेता
है--अर्थात
उनसे विरक्त
हो जाता है।
आत्मा
का शरीर के
पीछे छाया की
तरह चलना
असंयम है।
आत्मा का
प्रवाह शरीर
की तरफ जाने
से रुक जाये, ठहर
जाये, आत्मा
में ही
फिर लीन हो
जाये; और
आत्मा गुलाम न
रहे, मालिक
हो जाये--उस
अवस्था का नाम
संयम है।
इसे
ठीक से समझ
लेना जरूरी है, क्योंकि
महावीर की
पूरी
साधना-पद्धति
संयम की ही
पद्धति है।
संयम का अर्थ
शरीर को दबा
रखना नहीं है;
क्योंकि
जिसे हम दबाते
हैं, उससे
हम दब भी जाते
हैं।
अगर
किसी व्यक्ति
की छाती पर आप
बैठ जायें उसे
दबाकर, तो आप
छाती पर बैठे
हैं, यह सच
है, और वह
नीचे आपके दबा
है, यह भी
सच है--लेकिन
आप वहां से हट
भी नहीं सकते।क्योंकि
आपके हटते ही
वह व्यक्ति
मुक्त हो
जायेगा। तो
जहां वह पड़ा
है, वहीं
आप भी पड़े
रहेंगे। उसे
दबाये रखने का
अर्थ होगा कि
आप भी उससे
रत्तीभर आगे
नहीं जा सकते।
इसलिए
जो व्यक्ति
शरीर को दबा
लेते हैं, वे
शरीर के मालिक
तो नहीं होते,
मालकियत के
वहम में होते
हैं। और जहां
शरीर को दबाये
रखते हैं, वहीं
उनकी आत्मा भी
रुकी रह जाती
है; अटकी
रह जाती है।
इसलिए
तथाकथित साधु
शरीर से बंधा
हुआ होता है
उसी तरह, जैसा
तथाकथित
गृहस्थ बंधा
होता है।
घर से
बंधे हुए आदमी
का नाम गृहस्थ
है। घर है आपका
शरीर, जहां
चेतना आवास कर
रही है। फिर
इस शरीर की मालकियत
भोग के लिए हो
आपके ऊपर या
योग के लिए हो
आपके
ऊपर--दोनों ही
स्थितियों का
नाम असंयम है।
संयम
का अर्थ हैः
मेरे भीतर ऐसे
साफ हो जाये मेरी
चेतना; शरीर
साफ हो जाये; दोनों के
बीच कोई सेतु
न रह जाये, कोई
संबंध न रह
जाये--न भोग और
न योग का।
इसलिए महावीर
"योग' शब्द
का उपयोग नहीं
करते हैं।
बल्कि बड़ी हैरानी
होगी आपको
जानकर कि
महावीर योग
शब्द का अर्थ
मनुष्य का
परमात्मा से
जुड़ जाना, ऐसा
नहीं करते, जैसा पतंजलि
करते हैं।
महावीर
कहते हैं, योग
का अर्थ है, संसार और
मनुष्य का
शरीर से जुड़
जाना। इसलिए महावीर
ने परम स्थिति
को "अयोगी'
कहा
है--जहां
संबंध टूट
जाता है। योग
का अर्थ है
जोड़। तो तब तक
शरीर और आत्मा
जुड़े हैं, तब
तक योग की
अवस्था है।
जिस दिन शरीर
और आत्मा का
संबंध छूट
जाता है; टूट
जाता है सेतु
बीच से, उस
दिन "अयोग'!
इसलिए
महावीर ने
अयोग को परम
अवस्था कहा है, जहां
कोई संबंध
नहीं रह जाते,
सब जोड़ टूट
जाते हैं।
इस
अयोग को साधने
के लिए दमन, दबाना
मार्ग नहीं हो
सकता। इस संयम
को साधने का
मार्ग बोध
होगा, ज्ञान
होगा--महावीर
ने कहाः
विवेक
होगा--इस बात
का ठीक-ठीक
बोध कि शरीर
अलग है और मैं
अलग हूं।
जिस
व्यक्ति को यह
बोध हो जाता
है,
वह न तो
शरीर को भोगता
है और न शरीर
को दबाता है।
वह शरीर से
कोई संबंध ही
स्थापित नहीं करता।
अगर वह भोजन
भी करता है, तो शरीर ही
भोजन करता
है--वह भीतर
देखता ही रहता
है। अगर वह
बीमार पड़ता है,
तो शरीर ही
बीमार पड़ता
है--वह भीतर
देखता ही रहता
है। वह हर
हालत में अयोग
में ठहरा रहता
है। वह भीतर
साक्षी बना रहता
है। शरीर जीये
कि मरे, कि
भूखा हो कि
पेट भरा हो, कि शरीर को
सुविधा हो कि
असुविधा
हो--सभी कुछ शरीर
को हो रहा है।
इस संसार में
जो भी हो रहा
है, वह
शरीर के साथ
हो रहा है, मेरे
साथ नहीं हो
रहा है।
मेरे
और शरीर के
बीच फासला, स्पेस
पैदा हो
जाये--उस
फासले का नाम
संयम है। न तो
भोगी फासला
पैदा कर पाता
है, क्योंकि
वह शरीर के
माध्यम से
भोगता है। और
जिस माध्यम से
हम भोगते हैं,
उससे हम जुड़
जाते हैं। और
न तथाकथित
योगी फासला
पैदा कर पाता
है, क्योंकि
वह शरीर के
माध्यम से
लड़ता है। और
जिससे हम लड़ते
हैं, उससे
भी जुड़ जाते हैं।
मित्र
से भी संबंध
हो जाता है, शत्रु
से भी।
शत्रुता
संबंध का एक
नाम है। जैसे
मित्रता एक
संबंध है, वैसे
शत्रुता एक
संबंध है। तो
जो शरीर से
मित्रभाव रखे
हुए हैं, भोग
रहे हैं, वे
भी बंधे हैं; जो शरीर से
शत्रु-भाव
रखते है, वे
भी उतने ही
बंधे हैं। एक
का बंधन प्रेम
का है, एक
का बंधन घृणा
का है-- लेकिन
बंधन मौजूद
है।
महावीर
संयम तब कहते
हैं,
जब कोई बंधन
न रहे--न
मित्रता के, न शत्रुता
के। न शरीर
में कोई रस है,
न शरीर से
कोई विरसता
है। न शरीर से
कोई राग है, न कोई विराग
है। शरीर अलग
है, मैं
अलग हूं--ऐसी
स्पष्ट प्रतीति
का नाम संयम
है।
शरीर
में हम
जन्मों-जन्मों
से रह रहे हैं, लेकिन
हमें इस बात
का पता नहीं
कि शरीर में
हम रह रहे
हैं। शरीर के
साथ हमारा तादातमय,
आइडेन्टिटी
हो गयी है; हम
जुड़ गये हैं।
ऐसा लगने लगा
है, मैं
शरीर हूं।
यंत्र के साथ
चैतन्य जुड़
गया और एक हो
गया है!
महावीर
कहते हैं, यह
योग ही संसार
है। इस योग के
पार हो जाना
ही मुक्ति है,
विमुक्ति
है; परम
आनंद और परम
सत्य की
प्रतीति है।
शरीर में हम
कितना ही जीये
हों, इससे
कुछ भी न
होगा। बच्चे
तो बंधे ही
होते हैं--
उनका बंधा
होना
स्वाभाविक
है--बूढ़े भी
बंधे होते हैं!
भोगी तो बंधे
होते हैं--
उनका बंधा
होना स्वाभाविक
है-- जिनको हम
योगी मानते
हैं, वे भी
बंधे होते
हैं!
भोग का
एक तरह का
असंयम है, योग
का दूसरी तरह
का असंयम है।
संयमी वह है, जिसने असंयम
की संभावना ही
तोड़ दी।
संभावना है
शरीर से जुड़े
होना।
संभावना है
शरीर और अपने
को एक मान
लेना। यह एकता
जितनी गहरी हो
जाए, उतना
असंयम होगा।
यह एकता जितनी
कम हो जाए, उतना
संयम होगा। और
जिस दिन यह
एकता बिलकुल
टूट जाये और
साफ हो जाये--
जैसा कि
पुरानी कथाएं
कहती हैं कि
हंस जैसे पानी
और दूध को
अलग-अलग कर लेता
है-- जिस दिन
हमारा विवेक शरीर
और चेतना को
अलग-अलग कर ले
हंस की तरह, उस दिन संयम
की अंतिम सीढ़ी
उपलब्ध होती
है; मंजिल
उपलब्ध होती
है।
इसलिए
ज्ञानियों ने
आत्मा को हंस
भी कहा है; विवेक
को, चेतना
को हंस भी कहा
है; और जो
व्यक्ति इस
स्थिति को
पैदा हो जाता
है, उसे
परमहंस कहा
है। परमहंस का
अर्थ है कि
जिसने अपने
भीतर हंस की
तरह दूध और पानी
को अलग-अलग कर
लिया।
हंस
करता है या
नहीं, पता
नहीं--कविता
की बात है!
लेकिन आदमी कर
सकता है। और
दूध और पानी
चाहे अलग न भी
किये जा सकें--क्योंकि
दूध और पानी
दोनों ही एक
तल के पदार्थ
हैं--शरीर और
चेतना अलग
किये जा सकते
हैं, क्योंकि
अलग हैं ही।
दोनों का आयाम
अलग। दोनों का
ढंग अलग।
दोनों का होना
अलग। दोनों का
मिलना ही
चमत्कार है, दोनों का
अलग होना तो
बड़ा सरल है।
आपने बड़ी मेहनत
की है दोनों
को एक कर लेने
की, तब भी
एक नहीं हो
गये हैं।
सिर्फ
भ्रांति है एक
हो जाने की। सिर्फ
खयाल है एक हो
जाने का।
इसलिए महावीर
कहते हैं, बंधन
सिर्फ मन के
हैं, भाव
के हैं--प्रोजेक्शन
हैं। वस्तुतः
कोई बंधन नहीं
है।
लेकिन
आदमी बूढ़ा हो
जाये, जीवन के
सब दुख-सुख
भोग ले, तो
भी शरीर की
वासना खींचती
ही चली जाती
है। अकसर तो
ऐसा होता है
कि बूढ़ा होते-होते
आदमी और भी
कामवासना से
भर जाता है।
इसलिए
कोई उम्र से
ही कभी मुक्त
नहीं होता; और
न उम्र से कोई
कभी ज्ञानी
होता है; और
न उम्र से कभी
कोई अनुभवी
होता है। उम्र
से तो कोई भी
कितना ही बूढ़ा
हो जाये, लेकिन
जीवन की प्रौढ़ता
उम्र से नहीं
आती। और कितना
ही आपको अनुभव
हो जाये जीवन
का, अनुभव
अकेला आपको
कहीं भी नहीं
ले जाता--हो सकता
है और गर्त
में ले जाये; क्योंकि
जितना हमें
अनुभव होता
जाता है, उतनी
ही हमारी आदत
भी मजबूत होती
जाती है।
मैंने
सुना है कि
मुल्ला नसरुद्दीन
का जवान लड़का
है। बीस वर्ष
उसकी उम्र है, लेकिन
थोड़ा शमला है।
न तो ज्यादा
बोलता है, न
ज्यादा लोगों
से
मिलता-जुलता
है। और उसकी
उम्र में जो
स्वाभाविक है
कि लड़कियों के
पीछे घूमे, वह भी नहीं
करता है--बंद
अपनी किताबों
में, द्वार
बंद किये रहता
है।
लेकिन
एक दिन सांझ
वह अपने कपड़े
पहनकर, ठीक
सज-धज कर नीचे
उतरा सीढ़ियों
से और उसने
बूढ़े नसरुद्दीन
से कहा कि
पिता जी, अब
बहुत हो चुका!
और अब मैं
वहीं करूंगा,
जो मेरी
उम्र में सभी
लोग कर रहे
हैं। और मैं शहर
की तरफ जा रहा
हूं सुंदर
लड़कियों की
तलाश में। और
आज मैं खूब
डटकर पियूंगा
भी ताकि मेरा
यह सारा संकोच
और यह मेरी
सारी जड़ता
टूट जाये। और
आज तो अभियान
और दुस्साहस
की रात है। आज
जो भी हो सकता
है, वह मैं
करूंगा। जो भी
मेरी उम्र के
लोग कर रहे हैं,
वह मैं
करूंगा। और
ध्यान रहे, डोन्ट ट्राइ
ऐण्ड
स्टाप मी, कोशिश
मत करना मुझे
रोकने की!
नसरुद्दीन
उठकर खड़ा हो
गया। उसने कहा, ट्राइ ऐण्ड स्टाप
यू, होल्ड
आन माइ
ब्वाय, आइ
ऐम कमिंग विद
यू--दृढ़ रहना
अपने खयाल पर,
मैं तेरे
साथ आ रहा
हूं। रोकने का
कोई सवाल ही कहां
है!
बाप भी
बेटों से बहुत
भिन्न नहीं
है! बूढ़ा होकर
भी आदमी वहीं
भटकता रहता है, जहां
जवान भटकता
है। जवान का
भटकना क्षम्य
है, बूढ़े
का भटकना
बिलकुल
अक्षम्य हो
जाता है।
लेकिन
कोई सिर्फ
बूढ़ा होकर
मुक्त नहीं हो
पाता वासना
से। कोई हो भी
नहीं सकता।
वासना से तो केवल
वे ही मुक्त
होते हैं, जो
विवेक में गति
करते हैं।
उम्र की गति
से वासना से
मुक्त होने का
कोई संबंध
नहीं है। शरीर
बूढ़ा हो जाये,
वासना कभी बूढ़ी
नहीं
होती--मरते दम
तक पकड़े
रखती है।
वासना तो बूढ़ी
होती है तभी, जब विवेक
जगता है।
विवेक वासना
की मौत है!
इसलिए
बूढ़ा आदमी
वासना को पूरा
करने में अक्षम
हो जाता है, लेकिन
वासना मन को
घेरे रखती
है--घेरे रखती
है; घूमती
रहती है। और
जवान की वासना
में तो एक सौंदर्य
भी होता है, बूढ़े की
वासना बड़ी
कुरूप हो जाती
है और गंदी हो
जाती है। हो
ही जायेगी, क्योंकि
शरीर अब साथ
अपने आप छोड़
रहा है। शरीर
अपने आप आत्मा
से अलग हो रहा
है। लेकिन
वासना के कारण
बूढ़ा आदमी
अपने शरीर को
अभी भी जकड़े हुए
है। मृत्यु
करीब आ रही है
और शरीर आत्मा
से टूट
जायेगा।
अगर
जीवन ठीक से
विकसित हो तो
मृत्यु का
क्षण मोक्ष का
क्षण भी बन
सकता है। अगर
उम्र ही न बढ़े
और शरीर ही न
पके--बोध भी
पके,
विवेक भी
पके और भीतर
समझ भी बढ़ती
चली जाये, और
साक्षी-भाव भी
गहन होता चला
जाये जीवन के
अनुभव कोरे
अनुभव न रहें,
उनके पीछे
विवेक का
जागरण भी
निर्मित होता
चला जाये, तो
मृत्यु के
पहले ही
व्यक्ति
मुक्त हो सकता
है।
और जब
कोई व्यक्ति
मृत्यु के
पहले जान लेता
है कि मैं
शरीर से पृथक
हूं,
उसकी फिर
कोई मृत्यु
नहीं है। तब
वह मर सकता है
ऐसे, जैसे
पुराने
वस्त्र बदले
जा रहे हों।
तब वह मर सकता
है ऐसे, जैसे
ऊपर का कचरा
झड़ रहा हो और
भीतर का सोना निखर रहा
हो। तब मृत्यु
एक मित्र है
एक अग्नि की
भांति, जो
जलायेगी कचरे
को और बचायेगी
मुझे।
और जो
व्यक्ति जीवन
में वासना से
इतना भरा है कि
विवेक को जगने
का मौका नहीं
दिया; और जो हर
क्षण हर तरह
से शरीर के
साथ अंधा होकर
चलने को राजी
है, वह
मरते वक्त
बहुत पछतायेगा;
बहुत पीड़ित
होगा।
क्योंकि जब
मृत्यु छीनने
लगेगी शरीर को,
तब उसकी
पीड़ा का अंत
नहीं रहेगा।
क्योंकि उसने
अपने को शरीर
ही जाना है।
मृत्यु
में कोई भी
दुख नहीं है, हमारे
अज्ञान में
दुख है।
क्योंकि हम
शरीर से अपने
को जोड़े हुए
हैं। और जब
शरीर मिटने
लगता है, तब
हम
चीखते-चिल्लाते
हैं कि मैं
मरा।
मैं
कभी भी नहीं
मरता हूं!
मेरे मरने का
कोई उपाय नहीं
है! लेकिन
जिससे मैंने
अपने को एक
समझ रखा है, जब
वह टूटता है, मिटता है, तो लगता है; मैं मर रहा
हूं। मृत्यु केवल
उनके लिए दुख
है, जो
विवेकशून्य
हैं। जो
विवेकपूर्ण
हैं, उनके
लिए मृत्यु भी
एक आनंद है।
महावीर
के ये सूत्रः
"संयम क्या है'--उसकी
व्याख्या में
हैं। एक-एक
सूत्र को
समझने की
कोशिश करें।
"जो
न तो जीव
अर्थात चेतनतत्व
को जानता है, और न अजीव
अर्थात जड़तत्व
को जानता है, वह जीव-अजीव
के स्वरूप को
न जाननेवाला
साधक, भला
किस तरह संयम
को जान सकेगा?
"जो
जीव को जानता
है और अजीव को
भी, वह जीव
और अजीव दोनों
को भलीभांति
जाननेवाला साधक
ही संयम को
जान सकेगा।'
मनुष्य
दोहरा
अस्तित्व है।
एक है
परिधि--जहां शरीर
है,
पदार्थ है,
मिट्टी का
जोड़ है; और
एक है भीतर का
बोध, चैतन्य,
प्रकाश--जो
पदार्थ नहीं
है, जो
परमात्मा है।
मनुष्य इस दो
का जोड़ है। और
जब तक साफ न हो
जाये कि शरीर
कहां समाप्त
होता है और
कहां मैं शुरू
होता हूं; और
यह बात प्रतीत
न हो जाये कि
शरीर पृथक है
और मैं पृथक
हूं, तब तक,
महावीर
कहते हैं, संयम
असंभव है।
जो जीव
को और अजीव को
अलग-अलग नहीं
जानता; क्या
मेरे भीतर
सिर्फ पदार्थ
है और क्या
मेरे भीतर
चैतन्य है, इसकी जिसे
प्रतीति नहीं;
जिसने भीतर
प्रकाश को
जलाकर यह नहीं
देख लिया कि
मैं दो हूं; और जिसे साफ
नहीं हो गया
है कि परिधि
मेरी नहीं है,
परिधि
संसार से मुझे
मिली है, और
मैं सिर्फ
भीतर बसा हुआ
अतिथि हूं, मेहमान हूं,और यह घर सदा
रहनेवाला
नहीं है, बहुत
बार इस घर में
मैं रहा हूं, बहुत-से घर
मुझे मिले हैं
और छूट गये
हैं।
रोशनी
चाहिए भीतर।
उस रोशनी में
ही यह भेद, यह
भिन्नता
स्पष्ट हो सकती
है। हम अंधेरे
में चल रहे
हैं, जहां
कुछ भी रेखाएं
नहीं दिखाई पड़तीं।
अंधेरे का
मतलब ही होता
है, जहां
भेद दिखाई न
पड़े।
इस
कमरे में
अंधेरा छा
जाये, तो उसका
क्या अर्थ है?
उसका इतना
ही अर्थ है कि
मैं देख न
पाऊंगा कि कौन
कौन है, क्या क्या
है। कहां
कुर्सी समाप्त
होती है, कहां
आप शुरू होते
हैं। कहां आप
समाप्त होते हैं,
कहां आपका
पड़ोसी शुरू
होता है।
अंधेरे
का मतलब है, जहां
भेद खो
जायेंगे और
जहां सीमाएं
दिखाई न पड़ेगी।
अंधरा सारी
सीमाओं को तोड़
देता है और अपने
में लीन कर
लेता है।
प्रकाश
का क्या अर्थ
है?
प्रकाश का
अर्थ है, जहां
सीमाएं फिर
उभर आयेंगी।
कुस कुस
होगी, बैठनेवाला बैठनेवाला
होगा। घर घर
होगा, मेहमान
मेहमान
होगा। घर के
भीतर ठहरनेवाला
अलग होगा, घर
की दीवालें
अलग होंगी।
प्रकाश चीजों
को प्रगट कर
देता है--उनकी
सीमाएं, उनके
लक्षण, उनके
भेद। अंधेरा
सब सीमाओं को
तोड़ देता है।
मैंने
सुना है कि नसरुद्दीन
युवा था; और एक
रात बड़ा सज-धजकर
तैयार था और
अपनी लालटेन
साफ कर रहा
था। तो उसके पिता
ने पूछा कि नसरुद्दीन,
लालटेन
क्यों साफ कर
रहा है? क्या
इरादे हैं? उसने कहा कि
मैं जरा जा
रहा हूं
अभिसार को। पत्नी
की तलाश आखिर
मुझे भी करनी
होगी! तो मैं
जरा पत्नी की
तलाश पर जा
रहा हूं।
उसके
पिता ने कहा
कि पत्नी की
तलाश हमने भी
की थी, बाकी
लालटेन लेकर
हम कभी न गये!
यह लालटेन किसलिए
ले जा रहा है?
नसरुद्दीन ने
कहा कि देखें, दैट
काउन्ट्स
फार इट; लुक
ऐट योर वुमन, माइ
मदर! अंधेरे
में ढूंढ़ोगे
तो ऐसा ही
पाओगे। यह भूल
मैं नहीं
करनेवाला
हूं। मैं ठीक
प्रकाश में
चीजें खोजना
चाहता हूं!
भीतर
भी हम अंधेरे
में ही खोज
रहे हैं। और
अगर हमें वहां
कुछ भी नहीं
दिखाई पड़ता।
कभी
आपने आंख बंद
करके भीतर
देखा है? सिवाय
अंधेरे के कुछ
भी नहीं दिखाई
पड़ता।
लोग
मेरे पास आते
हैं। वे कहते
हैं कि आप
कहते हैं, भीतर
देखो। लेकिन
भीतर देखें
कैसे? आंख
बंद करते हैं,
वहां
अंधेरा है।
वहां कुछ
दिखाई ही नहीं
पड़ता। देखना
क्या है?
रोशनी
बाहर है, अंधेरा
भीतर है। बाहर
सब दिखाई पड़ता
है, भीतर
कुछ दिखाई
नहीं पड़ता। और
बाहर हमने
रोशनी को
बढ़ाने के बड़े
उपाय कर लिये
हैं। कभी आदमी
गहन अंधकार में
था, गुहाओं में था। फिर
आग खोजी तो गुहाओं
का अंधेरा मिट
गया। फिर
विकास होता
चला गया। फिर
आज बिजली है
और रातें
रातों-जैसी
नहीं रह गयी
हैं, दिन
से भी ज्यादा
प्रकाशवान हो
गयी हैं।
बाहर
हमने प्रकाश
की बड़ी खोज कर
ली है। बाहर
भी ऐसा ही
अंधेरा था। पर
हमने वहां रात
मिटा दी। भीतर
हम प्रकाश की
कोई खोज नहीं
करते हैं, अन्यथा
वहां भी
प्रकाश की
संभावना है।
जहां-जहां
अंधेरा है, वहां-वहां
प्रकाश हो
सकता है।
अंधेरे का
मतलब ही यह है
कि जहां
प्रकाश हो
सकता है, इसकी
संभावना है।
सारी
साधना-पद्धतियां
भीतर की अग्नि
खोजने का प्रयास
है। भीतर
रोशनी कैसे
जले। भीतर
कैसे थोड़ा-सा
प्रकाश और
थोड़ी-सी
किरणें पैदा
हो जायें ताकि
वहां भी चीजें
साफ हो सकें
कि क्या क्या
है।
अभी तो
हम आंख बंद
करके बैठ जाते
हैं तो कुछ दिखाई
नहीं पड़ता। और
अगर कुछ दिखाई
भी पड़ता है तो
वह बाहर का ही
होता है--कोई
मित्र की
तस्वीर, कोई
याददाश्त, कोई
घटना, बाजार,
दुकान। आंख
भी बंद करते
हैं तो आंख
बंद होती नहीं,
चित्त तो
बाहर की तरफ
ही खुला रहता
है।
बंद
आंख में भी
तस्वीरें
बाहर की ही
चलती हैं--तो
हम भीतर नहीं
हैं। और इसका
इतना अभ्यास
हो गया है कि
हम यह बात ही
भूल गये हैं
कि भीतर भी
ऐसा कोई क्षण
हो सकता है, जब
बाहर की कोई
तस्वीर न चलती
हो; जब
बाहर का कोई
प्रतिबिंब न
बनता हो; जब
बाहर से हमारा
संबंध ही छूट
जाता हो और हम
निपट भीतर
होते हों।
शुरुआत
में अंधेरा
अनुभव होगा।
क्योंकि बाहर
की रोशनी ने
आंखों को बाहर
की रोशनी का
आदी कर दिया
है।
और
ध्यान रहे, बाहर
की रोशनी को
भीतर ले जाने
का कोई उपाय
नहीं है। आप
दीये को भीतर
नहीं ले जा
सकते; न
बिजली को भीतर
ले जा सकते
हैं। बाहर की
कोई रोशनी
भीतर काम न
देगी, क्योंकि
भीतर के
अंधेरे का
गुण-धर्म अलग
है। बाहर का
अंधेरा और तरह
का अंधेरा है;
और बाहर के
अंधेरे को
मिटाने के लिए
और तरह का प्रकाश
चाहिए। भीतर
का अंधेरा और
तरह का अंधेरा
है--उसे
मिटाने के लिए
और तरह का
प्रकाश चाहिए।
उस प्रकाश का
गुण-धर्म अलग
होगा।
इसलिए
बाहर का
प्रकाश तो
भीतर लाया
नहीं जा सकता, एक
बात। और बाहर
के प्रकाश के
कारण भीतर
हमें गहन
अंधेरा मालूम
पड़ता है, क्योंकि
प्रकाश की
हमें आदत हो
गयी है।
कभी आप
एक अंधेरे
रास्ते से जा
रहे हैं और
अचानक एक कार
निकल जाये
तीव्र प्रकाश
के साथ, तो
कार के निकल
जाने के बाद
रास्ता और भी
अंधेरा हो
जायेगा--जितना
कार के निकलने
के पहले भी
नहीं था! वह
तीव्र रोशनी
आपकी आंखों को
भटका जायेगी।
और उस तीव्र
रोशनी की
तुलना में बाद
में अंधेरा
बहुत भयंकर
मालूम होगा।
ध्यान
रहे,
आदिम
मनुष्य को
भीतर इतना है
अंधेरा, नहीं
मालूम होता था,
जितना
आधुनिक
मनुष्य को
मालूम होता
है। बाहर काफी
रोशनी है।
आदिम मनुष्य
के लिए बाहर
भी अंधेरा ही
था, या
बहुत कम रोशनी
थी। भीतर इतना
अंधेरा नहीं मालूम
होता था।
जितना मनुष्य
की सभ्यता
बाहर के जगत
में विकसित
होती चली जाती
है, उतना
ही भीतर का
अंधेरा घना
मालूम होता
है। वह घना हो
नहीं रहा है, तुलना में घना
मालूम होता
है। क्योंकि
हमारे सभी
अनुभव सापेक्ष
हैं।
तो जिस
व्यक्ति को
भीतर के
प्रकाश की खोज
करनी है, उसे
दो काम करने
होंगे। पहला
तो, उसे
भीतर के
अंधेरे के
प्रति आंखों
को राजी करना
होगा, ऐडजस्ट करना होगा।
चोर
अंधेरे में
ज्यादा देख
पाता है आपकी
बजाय--अंधेरे
का अभ्यास
करता है। और
आप भी जब कमरे
में आते
हैं--अंधेरे
कमरे में बाहर
से--तो बिलकुल
अंधेरा मालूम
पड़ता है। थोड़ी
देर बैठें, कुछ
न करें--कुछ
करने की जरूरत
नहीं, सिर्फ
बैठें और
आंखों को ऐडजंस्ट
होने दें, समायोजित
होने
दें--थोड़ी ही
देर में
अंधेरा कम
मालूम होने
लगेगा, थोड़ी
ही देर में
थोड़ा-थोड़ा
दिखाई पड़ना
शुरू हो
जायेगा।
अगर आप
यह अभ्यास रोज
करते चले
जायें, जो कि
चोर को करना
पड़ता है, तो
आपको इतना
अंधेरा मालूम
नहीं होगा कि
आप किसी चीज
से टकरायें।
आप बिलकुल
अंधेरे कमरे
में भी बिना
टकराये चल
सकेंगे, उठ
सकेंगे, काम
कर सकेंगे।
थोड़े-से आंख
के अभ्यास की
जरूरत है ताकि
आंख अंधेरे
में देखने
लगे।
ध्यान
रहे,
अंधेरा
उतना ही मालूम
होता है, जितना
हमारा अभ्यास
कम है। तो जिंहें
भीतर की रोशनी
खोजनी हो उंहें
भीतर के
अंधेरे के लिए
थोड़े दिन राजी
होना पड़ेगा।
जल्दी नहीं
करनी है, आंख
बंद करके ही
बैठा रहना
चाहिए।
जापान
में झेन फकीर
और झेन गुरु
अपने शिष्यों को
कहते हैं कि
तुम कुछ मत
करो--क्लोज
द आइज ऐण्ड
जस्ट सिट।
मन्त्र
भी मत पढ़ो, किसी
भगवान का
स्मरण भी मत
करो। किसी
मूर्ति, प्रतिमा
के आसपास भी
मन को मत
घुमाओ।
क्योंकि यह भी
सब बाहर की ही रोशनियां
हैं। तुम
सिर्फ आंख बंद
करो और बैठो।
छह महीने, साल
भर झेन गुरु
के पास जो
साधक होता है,
उसको एक ही
साधना करनी
होती है कि वह
दिन में घण्टों
बैठा रहे--कुछ
न करे।
पहले
करने का बहुत
मन होता है, क्योंकि
बिना किये
आपको लगता है,
जिंदगी
बेकार जा रही
है। हालांकि
जिंदगी बेकार
जा रही है
करने में। न
करने से किसी
की जिंदगी
बेकार क्या
जायेगी!
जिंदगी बेकार
जा ही रही
है--कुछ भी करो!
लेकिन आक्युपाइड,
व्यस्त
रहने से ऐसा
लगता है, कुछ
हो रहा है; वहम
बना रहता है
कि कुछ हो रहा
है, कुछ कर
रहे हैं। खाली
बैठने में
बेचैनी लगती
है।
खाली
बैठना साधक की
पहली क्षमता
है--कि वह बिना
कुछ किये बैठा
है। मन कई बार
कहेगा, कुछ
करो; क्या
बैठे हो! और मन
समझायेगा कि
खाली अगर बैठे
रहे तो शैतान
का कारखाना हो
जाओगे।
खाली
बैठे लोगों ने
आज तक कोई
शैतानी नहीं
की,
ध्यान
रखना। जो काफी
कर्मठ हैं, जिनको हम
कर्मयोगी
कहते हैं--सब
उपद्रव उनके
कारण हैं। वे
खाली नहीं बैठ
सकते, उन्हें
कुछ न कुछ
करना है। कुछ
भी हो, उन्हें
कुछ करके
दिखाना है।
कोई कारण नहीं
है, क्योंकि
करके
देखनेवाला
कोई नहीं है; न कोई
प्रयोजन है। न
इस जमीन पर
कहीं रेखा छूट
जाती है करने
वालों की।
लेकिन
बड़ा उपद्रव
है। जब तक
होते हैं, बड़ा
उपद्रव मचा
लेते हैं।
राजनीतिज्ञ
हैं, समाज-सुधारक
हैं, क्रांतिकारी
हैं--बस, करने
में भिड़े
हैं। उनका
सारा जोर करने
पर है।
झेन
गुरु कहते हैं
कि तुम कुछ
करो मत, सालभर तो न करने की
हिम्मत जुटाओ,
सिर्फ बैठे
रहो। तो झेन साधक
छह-छह घण्टे
दिन में बैठा
रहेगा आंख बंद
किये। न
हिलेगा, न डुलेगा; क्योंकि
उतने में भी
मन बाहर जा
सकता है। पहले
तो बड़ी बेचैनी
होगी, सारी
ताकत लगायेगा
मन कि लगो, कुछ
करो। कुछ नहीं
तो कम से कम
सोचो। कोई
दिवास्वप्न
देखो। कोई
योजना करो, कुछ कामना
करो--भीतर कुछ
तो करो।
लेकिन
अगर आप बैठे
ही रहे और कुछ
न किया, और
अगर न करने का
साहस दिखा सके,
तो थोड़े ही
दिन में आप
पायेंगे कि
भीतर का अंधेरा
कम होने लगा।
भीतर कुछ-कुछ
दिखाई पड़ने
लगा। धूमिल
रेखाएं प्रगट
होने लगीं।
छह
महीने और सालभर
का वक्त लग
जाता है, जब
आदमी को पहली
दफा भीतर
धूमिल रेखाएं
प्रगट होती
हैं। और जैसे
ही यह धूमिल
रेखाएं प्रगट
होती हैं, अहोभाव
पैदा होता है,
एक आनंदभाव
पैदा होता है
कि मैं तो
बिलकुल अलग
हूं, यह
शरीर तो
बिलकुल अलग
है।
और
ध्यान रहे, शास्त्र
पढ़ने से यह
पता नहीं
चलेगा। बहुत
लोग यह कर रहे
हैं--कि शास्त्र
पढ़ रहे हैं कि
आत्मा भिन्न
है शरीर भिन्न
है--मैं आत्मा
हूं; मैं
शरीर नहीं हूं,
इसको
शास्त्र में
पढ़ रहे हैं।
और रोज सुबह
बैठकर इसको
दोहरा रहे हैं
कि मैं शरीर
नहीं हूं, मैं
आत्मा हूं।
दोहराने
का मतलब नहीं
है। दोहराने
से कुछ भी न
होगा।
दोहराने से
प्रकाश पैदा
नहीं होता।
दोहराने से तो
केवल इतनी ही
खबर लगती है
कि अभी
तुम्हें पता
नहीं चला; अभी
तुम किसी और
की उधार बात
दोहरा रहे हो।
और तुम दोहरा-दोहराकर
इस भ्रम में
भी पड़ सकते हो
कि तुम्हें
ऐसा लगने लगे
कि शरीर और
आत्मा अलग
हैं। लेकिन यह
तुम्हारे
प्रकाश का भीतरी
अनुभव नहीं
है। इसका कोई
मूल्य नहीं
है। यह दो कौड़ी
का है। तुम
जीवन खराब
किये।
किसी
की मानने की
जरूरत नहीं
है। यह तो
स्वयं अनुभव
हो सकता है।
लेकिन भीतर के
अंधेरे के साथ
आंखों का
समायोजन करना
होगा। और
जन्मों-जन्मों
से हमारा
समायोजन हो
गया है बाहर
की रोशनी के
साथ,
इसे तोड़ना
प्रतीक्षा और
धैर्य की बात
है।
तो
महावीर कहते
हैं: जो न तो
जानता कि चेतन
क्या है, जो न
जानता कि जड़
क्या है; जो
जीव-अजीव को
नहीं पहचानता,
वह साधक भला
किस तरह संयम साधेगा?
लेकिन
कितने लोग
संयम साध रहे
हैं,
जिन्हें
कुछ भी पता
नहीं है कि
जीव क्या है, अजीव क्या
है। जब मैं
कहता हूं, जिन्हें
कुछ भी पता
नहीं है तो
मेरा मतलब यह
नहीं है कि
उन्होंने
शास्त्र से
नहीं सुना है।
शास्त्र में
लिखा है कि
जीव और अजीव
भिन्न-भिन्न
हैं। लेकिन
शास्त्र से
कोई आपका
ज्ञान नहीं
निर्मित
होता।
शास्त्र से तो
सिर्फ आपका अज्ञान
ढंकता
है--रहते तो आप
अज्ञानी हैं;
शास्त्र के
वचनों में छिप
जाते हैं और
भ्रांति पैदा
होती है कि
जान लिया।
अज्ञान
उतना खतरनाक
नहीं है, जितना
थोथा ज्ञान
खतरनाक है।
शास्त्र
जितने लोगों
को डुबाते हैं,
उतनी और कोई
चीज किसी को
नहीं डुबाती।
कई लोग कागज
की नाव में
बैठकर सागर
में उतर जाते
हैं।
शास्त्र
की नाव कागज
की नाव है।
उससे तो बेहतर
है कि बिना
नाव के उतर
जाना।
क्योंकि नाव
का भरोसा न हो
तो कम से कम
अपने हाथ-पैर
चलाने की कुछ
कोशिश होगी।
और जो बिना
नाव के उतरेगा, वह
तैरना सीखकर
उतरेगा। जो
नाव में बैठकर
उतर जायेगा--और
कागज की नाव
में--वह इस
भरोसे में
उतरेगा कि
मुझे क्या
करना है, नाव
पार कर देगी।
वह डूबेगा!
लेकिन
कागज की नाव
में बैठने को
कोई राजी न होगा, शास्त्र
की नाव में
बैठने को
करीब-करीब
पूरी पृथ्वी
राजी हो गयी
है। कोई बाइबिल
की नाव में
बैठा है, कोई
गीता की नाव
में बैठा है, कोई कुरान
की नाव में
बैठा है; कोई
महावीर के
वचनों की नाव
में, कोई
बुद्ध के
वचनों की नाव
में।
लेकिन
नाव लोगों ने
कागज की बना
ली है। इसलिए लोग
डूब रहे हैं
और जगह-जगह दुर्घटनाएं
हैं। और धर्म
के नाम पर
इतना शोरगुल
चलता है, लेकिन
धर्म का कोई
प्रकाश जीवन
में कहीं भी
दिखाई नहीं
पड़ता। तो धर्म
एक उत्सव हो
गया
है--कभी-कभी
मना लेने की
बात; कभी-कभी
शोरगुल मचा
लेने की बात
है कि हम आत्मवादी
लोग हैं; कि
हम पदार्थ को
ही सब कुछ
नहीं मानते, हम आत्मा को
भी मानते हैं।
लेकिन मानने
से कुछ भी
होनेवाला
नहीं है, जानना
जरूरी है।
इसलिए
महावीर कहते
हैं,
जिसे अभी यह
ही पता नहीं
है कि आत्मा
क्या है और
शरीर क्या है,
वह संयम
नहीं साध
सकेगा। लेकिन
आप साधुओं से
जाकर पूछें।
दूसरे साधुओं
को छोड़ दें, महावीर के
ही साधुओं से
जाकर पूछें कि
तुम्हें
अनुभव हुआ है
भीतर कि शरीर
कहां खत्म
होता है और
आत्मा कहां
शुरू होती है?
कहां
सीमांत है? कहां दोनों
मिलते हैं? और कहां
दोनों में
फासला है? और
अगर अनुभव
नहीं हुआ है, तो तुम जो
संयम साध रहे
हो--महावीर तो
कहते हैं, ऐसा
साधक संयम साधेगा
ही कैसे!
लेकिन
साधु संयम साध
रहे हैं। संयम
में उनके कोई
कमी नहीं है।
क्या भोजन
करना, कितना
करना, कब
सोना, कब
उठना, कितनी
सामायिक करनी,
कितना
ध्यान
करना--सब कर
रहे हैं; कितना
प्रतिक्रमण--सब
नियम से चल
रहा है, यंत्रवत।
उसमें कहीं
कोई भूल-चूक
नहीं। संयम पूरा
चल रहा है।
लेकिन
उनका संयम, संयम
नहीं है--हो
नहीं सकता। क्योंकि
महावीर की
पहली शर्त ही
पूरी नहीं हो
पा रही है।
लेकिन
उनकी कोशिश यह
है कि संयम के
द्वारा वे जान
लेंगे कि शरीर
और आत्मा क्या
है। और महावीर
उलटी बात कह
रहे हैं। वे
कह रहे हैं, जो
जान लेगा कि
शरीर और आत्मा
क्या है, उसके
जीवन में ही
संयम हो सकता
है।
हम चीजों
को उलटा लेते
हैं। उलटा
लेने का कारण
है--हम उलटे
खड़े हैं। हमें
हर चीज उलटी
दिखाई पड़ती
है। महावीर को
भी जब हम
देखते हैं, तो
हम उनको उलटा
देखते हैं। जो
पहले है उसे
पीछे कर देते
हैं, जो
पीछे है, उसे
पहले कर देते
हैं। फिर हमें
सुविधा हो जाती
है। अगर हम
महावीर की बात
को वैसा ही
रहने दें, जैसी
वह है, तो
हमारे जीवन को
हमें बदलना
पड़ेगा।
क्या
फर्क है?
महावीर
कहते हैं, भीतरी
बोध पहले होगा,
फिर बाहरी
संयम होगा।
हम
क्या करते हैं?
हम
पहले बाहरी
संयम साधते
हैं,
फिर सोचते
हैं, भीतरी
बोध अपने आप आ
जायेगा।
हमारे लिए बाहर
का मूल्य इतना
ज्यादा है कि
संयम को भी जब
हम साधते हैं
तो बाहर से ही
शुरू करते
हैं। हमारी
आंखें बाहर से
इस तरह आब्सेस्ड
हो गयी हैं, इस तरह बंध
गयी हैं। और
हमारी
वासनाओं ने
हमें बाहर से
इस तरह चिपका
दिया है कि हम
अगर साधना भी
करते हैं तो
भी बाहर से ही
शुरू करते
हैं। और साधना
शुरू ही हो
सकती है भीतर
से। बाहर से
जो शुरू होगी,
वह संसार
में ले
जायेगी।
लेकिन
वासनाएं आदमी को
मूर्च्छित कर
देती हैं।
मैंने
सुना है, मुल्ला
नसरुद्दीन
एक होटल में
ठहरा हुआ है।
वह सांझ को
लौट रहा है
अपने कमरे की
तरफ। एक
दरवाजे के
भीतर से उसे
आवाज सुनाई
पड़ती है एक
स्त्री और एक
पुरुष
की--शायद अपना
हनीमून मनाने
आये होंगे। तो
वह दरवाजे पर
खड़े होकर
सुनता है। तो
वह पति अपनी
पत्नी से कह
रहा है कि
तेरे जैसा
सौंदर्य कभी-कभी
सदियों में
होता है। मैं
चाहूंगा कि इस
जगत का सबसे
श्रेष्ठ
कलाकार तेरी
मूर्ति को या
तेरे चित्र को
निर्मित कर दे
ताकि भविष्य
की पीढ़ियां भी
जान सकें कि
ऐसा सौंदर्य भी
कभी हुआ है।
नसरुद्दीन ने
फौरन दरवाजे
पर दस्तक दी।
पति ने चिढ़कर
पूछा, "कौन है?'
नसरुद्दीन ने
कहा,
"द ग्रेटेस्ट
पेंटर आफ द
वर्ल्ड, पिकासो!'
जब नसरुद्दीन
यह कह चुका
तभी उसको खयाल
आया कि मैं
क्या कह रहा
हूं वह दरवाजा
खुल जायेगा तो
पकड़ा जाऊंगा।
भागा अपने
कमरे में। फिर
बहुत सोचता
रहा कि ऐसा
कैसे हुआ? मैं
पिकासो
नहीं हूं!
लेकिन
सौंदर्य की
चर्चा। शरीर
को देखने का
मन। वासना का
जग जाना। फिर
इस मूर्च्छित
अवस्था में आप
कुछ भी हो सकते
हैं।
तो
निकल गया उसके
मुंह से कि
जगत का सबसे
बड़ा चित्रकार!
खोलो
दरवाजा!
दरवाजा
खुलना
आकांक्षा है।
दरवाजा खुल
जाये, वह
स्त्री दिखाई
पड़ जाये-- वह
वासना है। उस
वासना में
उसके मुंह से
यह भी निकल
गया कि मैं पिकासो
हूं। यह उसने
सोचा नहीं था।
यह उसने कभी
विचारा नहीं
था। इसकी कोई
योजना नहीं
थी। एक क्षण की
वासना में
तादात्म्य
बदल गया।
हम
जहां-जहां
वासना से
घिरते हैं।
वहीं-वहीं हम
वही हो जाते
हैं,
जो होने से
हमारी वासना
तृप्त होगी।
हमारी वासनाएं
हमारे
तादात्म्य को
निर्धारित
करती हैं। अगर
आप पुरुष हो
गये हैं, तो
भी वासना के
कारण; अगर
स्त्री हो गये
हैं, तो भी
वासना के
कारण। अगर आप
मनुष्य हो गये
हैं, तो भी
वासना के
कारण। अगर आप
कीड़े-मकोड़े
थे, पशु-पक्षी
थे, तो भी
वासना के
कारण।
जहां
हमारी वासना
सघन हो जाती
है--महावीर, बुद्ध
और कृष्ण कहते
हैं--उस सघनता
के कारण हम वैसा
ही रूप ग्रहण
कर लेते हैं।
हम वही हो
जाते हैं, जो
हमारी वासना
हो जाती है।
अब तो
वैज्ञानिक भी
कहते हैं कि
मनुष्य के
शरीर की जो
घटना है।
जैसा
डार्विन ने
कहा था कि
मनुष्य इसलिए
इस तरह विकसित
हो रहा है कि
प्रकृति में
एक संघर्ष है, उसमें
श्रेष्ठतम बच
जाता है--सरवाइवल
आफ दि फिटेस्ट।
वह जो सबसे
ज्यादा
ताकतवर है, वह बच जाता
है। लेकिन इधर
डार्विन के
बाद जो काम
हुआ है
विकासवाद पर,
उससे
हालतें
बिलकुल बदल
गयी हैं। नये
विकासवादी
कहते हैं कि
इसका कोई
प्रमाण नहीं
मिलता कि
श्रेष्ठ बच
जाता है। आप
यह भला कह
सकते हैं कि
जो बच जाता है,
उसको आप
श्रेष्ठ कहने
लगे। लेकिन
श्रेष्ठ के बचने
का कोई प्रमाण
नहीं मिलता।
और
आदमी का विकास
संघर्ष के
कारण नहीं
दिखाई पड़ता, भीतरी
वासना के कारण
दिखाई पड़ता
है--बाहरी संघर्ष
के कारण नहीं।
आंखें इसलिए
शरीर पर प्रगट
हुई हैं कि
आदमी देखने की
वासना से भरा
हुआ है। वह
देखने की
वासना जब प्रगाढ़
हो जाती है तो
तीर की तरह
भीतर से छेद
देती है और
आंखें
निर्मित होती
हैं। और आदमी
सुनने की वासना
से भरा हुआ है,
इसलिए कान
निर्मित होते
हैं। आदमी
छूने की वासना
से भरा है, इसलिए
शरीर निर्मित
होता है।
जो-जो
वासना भीतर प्रगाढ़ है, उसके
अनुरूप
पदार्थ चारों
तरफ आत्मा के
इकट्ठा हो
जाता है।
लेकिन यह बड़ी
पुरानी खोज है,
महावीर, बुद्ध
और कृष्ण की
कि आदमी का
जन्म उसकी
वासना से हो
रहा है; उसके
तादात्मय,
उसके रूप, नाम, उसकी
भीतरी वासना
से निर्धारित
हो रहे हैं।
आप जो
भी हैं, वह
अपनी वासना के
फल हैं। इस
वासना को अगर
आप बल देते
चले जाते हैं,
तो आप इसी
चक्कर में
घूमते चले
जायेंगे; यही
वर्तुल
बार-बार घूमता
रहेगा; आप
पुनरुक्त
होते रहेंगे।
लेकिन अगर इस
वर्तुल से
बाहर होना है,
तो भीतर से
वासना का जो
संबंध है शरीर
से, उसे
थोड़ा शिथिल
करना होगा।
आप इस
बुरी तरह जुड़
गये हैं कि
बीच में
जरा-सी जगह भी
नहीं है कि
फर्क दिखाई पड़
सके कि मैं
कौन हूं। इस
फर्क को देखने
के लिए
थोड़ी-सी
शिथिलता
बंधनों की
चाहिए। लेकिन
हम तो बंधन के
लिए बड़े आतुर
रहते हैं। असल
में बंधन जब
तक न मिल जाये
तब तक हमको
चैन नहीं होती
। बंधन में
हमें बड़ी
सुविधा मालूम
पड़ती है। जब
तक बंधन न हो, तब
तक हम परेशान
होते हैं, जैसे
ही बंधन
निर्मित हो
जाये, हम
व्यस्त हो
जाते हैं।
मैने
सुना है, एक
मुसलमान फकीर
एक ट्रेन में
सफर कर रहा
है। सारी
जगहें भरी हुई
हैं। कई लोग
खड़े भी हुए हैं।
और तभी एक
स्त्री, गर्भिणी,
आकर खड़ी हो
गयी है। वह
मुसलमान फकीर
के बिलकुल बगल
में खड़ी है।
बाजार से कुछ रस्सियां
खरीदकर लायी
है, तो
रस्सियों का
बंडल उसके हाथ
में है। फकीर
आंख बंद कर
लेता है उसे
देखकर । उसका
पड़ोसी यात्री
कहता है कि
तुम क्या सो
गये हो या
तबियत खराब है?
तो वह फकीर
कहता है कि
नहीं, यह
बात नहीं। मैं
किसी स्त्री
को खड़े हुए
देखना ट्रेन
में नफरत करता
हूं! इसलिए
आंख बंद कर ली
है--न देखेंगे,
न यह खयाल
उठेगा कि
स्त्री खड़ी है
और मैं बैठा हूं।
तो उस आदमी ने
कहा कि अगर
तुम इतने
दयावान हो, तो उठकर
उसको जगह
क्यों नहीं दे
देते? तो
उस फकीर ने
कहा, मेरे
गुरु ने कहा
है कि जहां भी
बंधन की कोई
व्यवस्था
दिखाई पड़े, वहां जरा
सावधान रहना।
और वह स्त्री
जो हाथ में
रस्सी का बंडल
लिये है, उससे
मैं बोल भी
नहीं सकता; उसकी तरफ
मैं देख भी
नहीं सकता।
बहुत-से
साधु यही कर
रहे हैं।
जहां-जहां
उन्हें बंधन
की संभावना
दिखाई पड़ती है, वहां
वे देखते नहीं;
वहां से भाग
खड़े होते हैं।
लेकिन बंधन
बाहर नहीं है,
जिससे भागा
जा सके; जिससे
आंख बंद की जा
सके। बंधन तो
भीतर की वासना
में है कि मैं
बंधना चाहता
हूं। और
स्त्री से
बचना आसान है,
लेकिन अपने
ही शरीर से
बंधा हुआ हूं,
उसी बंधन
में सारा
संसार
उपस्थित हो
गया है।
मेरा
बंधन मेरे
शरीर के बाहर
कहीं भी नहीं
है। मेरा
संसार भी मेरे
शरीर के बाहर
कहीं भी नहीं
है। बाहर तो
सब एक्सटेंशन्स
हैं। लेकिन
बुनियादी
संसार मेरे
भीतर है। और वहां
से तोड़ने की
बात है।
यह
तोड़ना--महावीर
के हिसाब
से--एक भेद, एक
विवेक, एक
बोध का परिणाम
है। वह बोध
भीतर रुकने की
क्षमता से, अंधेरे में
रुकने की
क्षमता से, धैर्यपूर्वक
अंधेरे में
डूबे रहने की
क्षमता से, प्रतीक्षा
करने से अपने
आप पैदा होना
शुरू हो जाता
है।
ध्यान
रहे चेतना का
अपना प्रकाश
है। हम इस जगत
में जहां-जहां
चीजों पर
देखते है, वहां-वहां
हमारी चेतना
प्रकाश डालती
है, रोशनी
डालती है। यह
रोशनी सिर्फ
सूरज की नहीं है।
सूरज की रोशनी
काफी नहीं है।
हमारी चेतना भी
रोशन करती है
हर चीज को, जिसे
हम देखते हैं।
हमारी आंखों
से भी रोशनी बाहर
जाती है।
और यह
कोई मैटाफिजिकल, कोई
पारलौकिक
सिद्धांत
नहीं है। अब
तो विज्ञान
इसके समर्थन
में है कि जब
भी आप देखते
हैं, तो
आपकी
जीवन-ऊर्जा
जिन चीजों पर
आप फेंकते हैं,
उनको रोशन
करती है। उनके
भीतर गति भी
शुरू हो जाती
है। और देखकर
आप अपनी रोशनी
को पदार्थ से जोड़ते
हैं।
अगर
कोई व्यक्ति न
देखने की
साधना करेः
कुछ समय तक
देखे ही
नहीं--आंख को
बंद ही रखे; सुने
ही नहीं-- कान
को बंद ही रखे;
छुए ही
नहीं--हाथ को
बंद ही रखे, तो जो ऊर्जा
इन
इन्द्रियों
से बाहर जा
रही थी, वह
सारी की सारी
ऊर्जा भीतर
इकट्ठी होने
लगेगी; सघन
होने लगेगी।
उस सघनता में
एक घड़ी आती है,
जब भीतर का
प्रकाश-बिंदु
पैदा हो जाता
है।
यह प्रकाशबिंदु
वैसा ही है, जैसे
हम सूरज की
किरणों को
इकट्ठा कर लें
तो आग पैदा हो
जाये। जैसे ही
भीतर की
किरणें इकट्ठी
हो जाती हैं, भीतर की आग
जल जाती है।
लेकिन
प्रतीक्षा
चाहिए। और कोई
समय पक्का
नहीं हो सकता
कि किसको
कितनी देर
लगेगी--इन्टेन्सिटी
पर, तीव्रता
पर निर्भर
करेगा।
कोई एक
क्षण में भी
इस भीतर के
प्रकाश को
उपलब्ध हो
सकता है अगर
बाहर से अपने
को पूरा का
पूरा रोक ले।
इस रोक लेने की
विधि का नाम
ही "ध्यान' है।
इस रोक लेने
की विधि को
"सामायिक', महावीर
ने कहा है।
सामायिक
शब्द बड़ा
बहुमूल्य है, ध्यान
से भी ज्यादा
बहुमूल्य है।
क्योंकि ध्यान
में थोड़ी-सी
भ्रांति हो
सकती है।
सामायिक जैसा
शब्द सारी
दुनिया की
किसी भाषा में
नहीं है। जब
भी हम कहते
हैं "ध्यान', तो ऐसा लगता
है, किसी
चीज पर ध्यान।
मेरे
पास लोग आते
हैं--उनसे मैं
कहता हूं, "ध्यान
करो!' तो वे
कहते हैं, "किस
चीज पर ध्यान
करें?' तो
ध्यान लगता है,
बहिर्मुखी
है। अंग्रेजी
में शब्द है, मेडिटेट--उसका
मतलब ही होता
है, किसी
चीज पर। तो
किसी से कहो, मेडिटेट करो,
तो वह पूछता
है, आन
व्हाट--ओम पर? राम पर? क्राइस्ट
पर? मैरी पर?किस
पर?
महावीर
ने ध्यान शब्द
का उपयोग नहीं
किया, क्योंकि
ध्यान में
भ्रांति है।
ध्यान का मतलब
ही होता है, किसी चीज पर
ध्यान; बाहर
हो गया।
महावीर ने कहा;
सामायिक।
सामायिक शब्द
उनका अपना है।
"समय' आत्मा
का नाम है
महावीर के
लिए। समय का
अर्थ हैः
आत्मा और
सामायिक का
अर्थ हैः
आत्मा में
होना--टु बी इन वनसेल्फ।
ध्यान
उतना
मूल्यवान
शब्द नहीं है।
लेकिन महावीर
को माननेवाले
भी सामायिक
करते वक्त
ध्यान कर रहे
हैं,
सामायिक
नहीं; नमोकार मंत्र पढ़
रहे हैं--यह
ध्यान हुआ, सामायिक
नहीं हुई।
महावीर-स्वामी
का नाम जप रहे
हैं--यह ध्यान
हुआ, सामायिक
न हुई।
महावीर
कहते हैं:
भीतर की वैसी
अवस्था, जब
तुम ही तुम रह
गये--यू अलोन;
जहां न कोई
शब्द है, न
कोई ध्वनि है,
न कोई रूप
है। जहां कुछ
भी बाहर का
नहीं है। जहां
कुछ भी पराया
नहीं है। जहां
कुछ भी अन्य
नहीं है। जहां
तुम्हारा होना,
अकेला होना
है। जहां होना
मात्र रह गया
है--जस्ट
बीइंग--उस
अवस्था का नाम
सामायिक है।
यह बड़े
मजे की बात
है। इसका अर्थ
यह हुआ कि सामायिक
की नहीं जा
सकती। आप
सामायिक में
हो सकते हैं, सामायिक
कर नहीं
सकते--क्योंकि
करने का मतलब
ही होगा कि
बाहर चले गये।
कृत्य बाहर ले
जाता है।
तो
सामायिक कोई
क्रिया नहीं
है। सामायिक
एक अवस्था
है--अपने में
डूबने की
अवस्था; अपने
में बंद हो
जाने की
अवस्था; अपने
को सब तरफ से
तोड़ लेने की, अलग कर लेने
की अवस्था।
इसके
लिए कोई जंगल
जाना जरूरी
नहीं है। जहां
आप हैं, वहीं
यह कला आप सीख
सकते हैं।
लेकिन थोड़ा-सा
अभ्यास करें।
घड़ी-दो-घड़ी
रोज आंख बंद
कर लें और
भीतर के
अंधेरे में
जीयें। थोड़े
ही दिनों में,
बिना कुछ और
किये, सिर्फ
भीतर के
अंधेरे में
रहने की
क्षमता विकसित
करते-करते आप
अचानक
पायेंगे कि
बीच-बीच में
जैसे झपकी लग
जाती है; आप
अपने में डूब
जाते हैं क्षण
भर को।
और वह
क्षण भी अपने
में डूबना
इतना
आह्लादकारी
है कि आप
अनंत-अनंत
जन्मों के सुख
उसके लिए छोड़
सकते हैं।
जरा-सी झपकी
भीतर; जरा-सी
देर के लिए
डूब जाना; एक
क्षण के लिए
जगत से टूट
जाना; शरीर
से अलग हो
जाना और अपने
में डूब
जाना--वह डुबकी
एक दफा आपको
मिलनी शुरू हो
जाये, फिर
संसार को
छोड़ना नहीं
पड़ता, संसार
कचरा मालूम
होने लगता है।
छोड़ना
तो उसे पड़ता
है,
जिसमें
मूल्य मालूम
पड़े। कचरे को
कोई नहीं छोड़ता।
आप घर के बाहर
जाकर रोज
चिल्लाकर
घोषणा नहीं
करते कि आज
फिर कचरे का
हम त्याग कर
रहे हैं। हां,
जब आप सोने
का त्याग करते
हैं, तब आप
जरूर खबर
चाहते हैं कि
छपे--क्योंकि
सोना आपके लिए
कचरा नहीं है।
लेकिन
जैसे ही भीतर
के सोने का
पता चलता है, बाहर
का सब सोना
कचरा हो जाता
है। और एक
क्षण के लिए
भी वैसी सुरति
बंध जाये, वैसी
स्मृति जग
जाये, वैसी
सामायिक हो
जाये, तो
उसके बाद
शास्त्रों
में नहीं
खोजना पड़ता, आप खुद
जानते हैं कि
शरीर और मैं
अलग हूं।
एक
किरण इस बोध
की कि मैं
शरीर से भिन्न
हूं मैं
चैतन्य हूं और
शरीर पदार्थ
है-महावीर
कहते हैं-फिर
संयम बिलकुल
आसान है। फिर
संयम को तोड़ना
मुश्किल है।
अभी संयम को
साधना
मुश्किल है, फिर
संयम को तोड़ना
मुश्किल है।
अभी गलत से
बचना मुश्किल
है, फिर
गलत को करना
इससे भी
ज्यादा
मुश्किल हो
जायेगा।
'जो जीव को
जानता है और
अजीव को भी, वह जीव और
अजीव दोनों को
भली भांति
जाननेवाला साधक
ही संयम को
जान सकेगा।
संयम
के दो अर्थ
हैं। एक संयम
का बाहरी अर्थ
कि जो गलत है, वह न
हो। और एक
संयम का भीतरी
अर्थ कि जो
मेरी सत्ता है,
उसमें मेरा
होना हो जाये।
संयम का अर्थ
है : बैलेन्स
की, संतुलन
की आखिरी
अवस्था, जहां
दोनों तराजू
के पलड़े
बिलकुल एक
रेखा में आ
जाते हैं और
तराजू का कांटा
जरा भी कंपन
नहीं दिखाता।
संयम का अर्थ
है. बैलेन्स
की आखिरी
अवस्था, जहां
कोई कंपन नहीं
रह जाता।
असंयम
में कंपन है।
इसलिए असंयमी
चित्त हमेशा
कंपित होता
रहता है-कभी
इस तरफ,
कभी उस तरफ;
कभी यह
चाहता है, कभी
वह चाहता है।
और असंयमी
चित्त चाहता
ही रहता है और
कभी शांत नहीं
हो पाता। चाह
का कोई अंत
नहीं, चाह
कंपाती जाती
है। कंपाना एक
दुख में डुबा
देता है।
क्योंकि कंपन
एक पीड़ा है, एक तरह का
बुखार है।
स्वस्थ
चेतना कंपेगी
नहीं,
अकपित होगी। मांग
चलती ही चली
जाती है मन की
और मन कंपता
चला जाता है।
वासना के
झोंके हिलाते
ही रहते
हैं-जड़ों तक को
हिला देते हैं।
और अपेक्षाएं
बढ़ती ही चली
जाती है। और
कुछ भी मिल
जाये, शांति
नहीं
मिलती-क्योंकि
मिलते ही
वासना आगे बढ़
जाती है।
एक
दिन मुल्ला नसरुद्दीन
उदास बैठा है।
कुछ मित्र
मिलने आये हैं।
वे पूछते हैं
कि नसरुद्दीन, बड़े
उदास हो, क्या
कारण आ गया? नसरुद्दीन ने कहा कि
नहीं, कारण
तो ऐसा कुछ
खास नहीं, लेकिन
दो सप्ताह
पहले मेरे
चाचा मर गये!
बड़े गजब के
अच्छे आदमी थे;
भले आदमी थे
और असमय मर
गये। अभी कोई
मरने का वक्त
था! अल्लाह
उनकी आत्मा को
शांति दे!
लेकिन मरने के
पहले पांच
हजार रुपया
मेरे नाम
वसीयत कर गये।
फिर एक सप्ताह
पहले मेरे
मामा मर गये!
बड़े अच्छे
आदमी थे। और
अभी तो जिंदगी
बहुत थी, लेकिन
असमय में
परमात्मा ने
उनको उठा लिया।
भले आदमियों
को परमात्मा
जल्दी उठा
लेता है। और
मरने के पहले
पंद्रह हजार
रुपया मेरे
नाम कर गये।... .ऐष्ठ दिस
वीक नथिंग!
और
यह सप्ताह
पूरा गुजर रहा
है, अभी तक कुछ
भी नहीं
हुआ-इसलिए
उदास हूं!
चाह
दूसरे की मौत
से भी शोषण
करती है।
वासना बस अपने
लिए जीती है।
सारी दुनिया
भी मर जाये, मिट
जाये, तो
भी वासना अपने
लिए जीती है।
वासना एक तरह
की
विक्षिप्तता
है।
और
उसका कोई अंत
नहीं है।
कितना ही मिल
जाये,
हमेशा उदास
होगी।
क्योंकि
जितना मिल
सकता है, उससे
ज्यादा की
कामना की जा
सकती है। आपकी
कामना की कोई
सीमा नहीं है।
संसार की सीमा
है, आपकी
कामना की कोई
सीमा नहीं है।
आप सदा और
ज्यादा के लिए
सोच सकते है, इसलिए दुखी
होंगे।
संयम
का अर्थ है
ऐसा चित्त, जो
मांगता ही
नहीं; जिसकी
कोई मांग नहीं
है; जो
अपने भीतर है;
जो डोलता ही
नहीं; जो
डोलकर कहीं भी
नहीं जाता कि
यह मिल जाये, वह मिल
जाये-यह मिले,
वह मिले; जिसकी कोई
मांग नहीं है;
जिसकी कोई
वासना नहीं है।
लेकिन यह किस
व्यक्ति की
होगी?
महावीर
कहते हैं, उसी
व्यक्ति की जो
शरीर को और
अपने को अलग
जान लेता है।
क्यों? शरीर
और अपने को
अलग जानने से
वासना क्यों
मिट जायेगी? क्योंकि
सारी वासनाएं
शरीर की हैं, आत्मा की
कोई वासना है
ही नहीं। और
जिस दिन आपको
पता चल जाये
कि शरीर की
वासनाओं के
लिए मैं
परेशान हो रहा
था और उसे खो
रहा था जो
मेरी निजी
संपदा
है--जहां परम
आनंद है; जहां
परम प्रकाश है
और जहां अमृत
का झरना है--उसे
मैं खो रहा था
क्षुद्र शरीर
के पीछे चलकर,
उसकी
वासनाओं में पड़कर--वासना
गिर जायेगी।
इसका
यह मतलब नहीं
है कि आप शरीर
की हत्या कर देंगे; मार
डालेंगे।
लेकिन अब शरीर
को आप उतना दे
देंगे, जितना
शरीर के चलने
के लिए जरूरी
है। आवश्यकता
और वासना का
यही फर्क है।
आवश्यकता
नहीं बांधती, वासना
बांधती
है। आवश्यकता
का मतलब है; शरीर यंत्र
है, उसके
लिए जरूरी
है--जैसा कार
को पेट्रोल
जरूरी है और
तेल देना
जरूरी है। और
यंत्र की जो
भी जरूरत है, उसको पूरा
कर देना जरूरी
है। न कम देने
की जरूरत है, न ज्यादा
देने की जरूरत
है। जितना
जरूरी है, उतना
ही देने की
जरूरत है।
जिसकी
वासना हट जाती
है,
वहां
आवश्यकता रह
जाती है।
आवश्यकता में
कोई पीड़ा नहीं
है। आवश्यकता
जरूरत है। और
जरूरत भी तभी तक--महावीर
कहते
हैं--रहेगी, जब तक पिछले
कर्मों का जो मोमेन्टम
है, वह
पूरा नहीं हो
जाता। और जैसे
ही पिछले
कर्मों की
पूरी की पूरी
गति समाप्त हो
जाती है और पिछले
सारे कर्म झड़
जाते
हैं--शरीर से
संबंध अलग हो
जायेगा। फिर
उसे भोजन देने
की भी कोई
जरूरत नहीं
है। फिर शरीर
से छुटकारा
सहज हो
जायेगा। उस
यंत्र की कोई
जरूरत न रही।
हमने उसे छोड़
दिया।
शरीर
और मैं अलग
हूं,
इसका बोध ही
काफी है कि
हमारी
वासनाएं एकदम निजव हो
जायें। मैं
शरीर हूं, यही
वासना का
प्राण है; वासना
का केंद्र है।
"जब वह
सब जीवों की
नानाविध
गतियों को जान
लेता है, तब
पुण्य, पाप,
बंध और
मोक्ष को भी
जान लेता है।'
और
जैसे ही कोई
व्यक्ति अपने
भीतर की
भेद-रेखा को
पहचान लेता है, वह
यह भी जान
लेता है कि
क्या है पुण्य
और क्या है
पाप--क्या है
बंध, क्या
है मोक्ष।
क्यों? जैसे
ही मुझे पता
चलता है कि
मैं अलग और
शरीर अलग, तब
शरीर की मानकर
चलना पाप और
अपनी मानकर
चलना पुण्य; तब शरीर की
मानकर चलकर
पाप करने से
बंधन का जन्म,
और अपनी
मानकर चलने से
मोक्ष का
जन्म।
क्योंकि
शरीर की मैं
जितनी मानूं
उतना वह मनाता
है। हम जितने दबें, उतना
वह दबाता है।
हम जितना
अनुसरण करें,
उतना वह
आश्वस्त हो
जाता है कि
तुम सदा पीछे
आते हो। जितना
हम अपने में
लीन होने लगें,
उतना ही
धीरे-धीरे
शरीर को पता
चलने लगता है
कि मेरी
मालकियत
विसर्जित हो
गयी; अब
मैं मालिक
नहीं हूं।
धीरे-धीरे वह
आपके पीछे आने
लगता है। और जिस
दिन शरीर आपके
पीछे आता है, और आपके
भीतर का
स्वामी, आपके
भीतर का मालिक
प्रगट हो जाता
है--महावीर कहते
हैं उस अवस्था
को मुक्त।
एक
बंधा हुआ मन
है जो चलता
चला जाता है
बिना सोचे-समझे
कि वह क्या
मांग रहा है।
कभी आप विचार
करते हैं
बैठकर कि आपका
मन आपको
कहां-कहां ले
जाता है; क्या-क्या
करवाता है।
ऐसा कोई पाप
नहीं, जो
आप छोड़ते हों।
मनसविद
कहते हैं, ऐसा
आदमी खोजना
मुश्किल है, जिसने वे सब
पाप मन में न
किये हों, जो
मनुष्यता ने
पूरे इतिहास
में किये हैं।
मन में
आप सभी पाप कर
लेते हैं।
हत्या कर लेते
हैं,
व्यभिचार
कर लेते हैं, चोरी कर
लेते हैं--ऐसा
कुछ नहीं है
जो आप छोड़ देते
हैं, जहां
तक मन का
संबंध है।
शरीर से नहीं
कर पाते, क्योंकि
बहुत उपद्रव
बाहर है। अगर
आपको पूरी छूट
हो तो आप जरूर करेंगे।
कभी
सोचें कि अगर
आपको पूरी
स्वतंत्रता
हो,
शक्ति हो और
आपको कोई बाधा
देनेवाला न हो
और न कोई दण्ड
देनेवाला हो,
तो आप
कौन-सा पाप है
जो नहीं
करेंगे? आप
सभी पाप कर
लेंगे।
इसीलिए
पद भ्रष्ट
करता है।
क्योंकि
शक्ति हाथ में
आती है तो
जो-जो पाप
नहीं किये, उनको
करने की
वृत्ति हाथ
में आती है।
लार्ड ऐक्टन ने
कहा है : पावर करप्ट्स ऐण्ड करप्ट्स
ऐब्सोल्यूटली।
वह ठीक कहा है
कि शक्ति आदमी
को दुराचारी
बनाती है, और
बुरी तरह
दुराचारी
बनाती है।
लेकिन सच बात ऐक्टन के
वचन में नहीं
है। सच बात यह
नहीं है कि
शक्ति किसी को
दुराचारी
बनाती है।
दुराचारी लोग
हैं, शक्ति
सिर्फ अवसर
देती है।
तो आप
देखें, जो
राजनीति के पद
पर है उसके
आलोचक, उसके
विरोधी उसकी
निंदा करते
हैं कि वह भोग
रहा है, पैसा
लूट रहा है, रिश्वत ले
रहा है, स्त्रियां
रखे हुए है, व्यभिचारी
है--सब कर रहा
है।
यह जो
विरोधी कह रहा
है,
इससे आप इस
भ्रांति में
पड़ जाते हैं कि
यह ऐसा काम
नहीं करेगा।
इसके पास
शक्ति नहीं
है। जब यह
ताकत में
जायेगा, यह
सब वही काम
करेगा जो ताकत
में पहलेवाले
आदमी ने किये
थे।
यह बड़े
मजे की बात है
कि ताकत में
जाते ही आदमी अपने
दुश्मनों
जैसा हो जाता
है--किसी को भी
शक्ति में
बिठा दें!
क्यों ऐसा
होता है?
इसका
कारण है, हर
आदमी मन से तो
करना ही चाहता
है--सदा करना
चाहता है। यह
विरोध भी
इसीलिए कर रहा
है कि तुम कर
रहे हो और
मुझे मौका
नहीं मिल रहा
है। एक मौका
हमें भी दो।
इसके विरोध का
इतना ही मतलब
है--अब तुम
काफी कर लिये।
लेकिन
यह आपसे ऐसा
कह नहीं सकता।
शायद इसको भी
साफ नहीं है
कि यह ऐसा ही
करना चाहता है।
इसके भी कांशस, चेतन
में यह बात
नहीं होगी। यह
तो अभी यही
चाहता है कि
जनता की सेवा
करनी है, जगत
का उद्धार
करना है, समृद्धि
बढ़ानी है, गरीबी
मिटानी
है--सब करना
है। अभी शायद
चेतन मन इसका
भी यही कह रहा
है। लेकिन अचेतन
का इसे भी पता
नहीं है कि इन
सब बातों के
पीछे अचेतन
वृत्तियां
वही हैं।
क्योंकि जो
इसके पहले
बैठे हैं, वे
भी इसीलिए
वहां तक
पहुंचे हैं।
पहुंचते
ही सारी चीज
बदल जाती है।
सिंहासन पर बैठते
ही दूसरे आदमी
से मिलन होता
है। जिसको हम
जानते थे
सिंहासन के
पहले, वह आदमी
खो ही जाता
है। यह क्यों
होता है? और
इतना
अनिवार्य रूप
से होता है कि
इसमें अपवाद
नहीं है।
यह
इसलिए होता है
कि सिंहासन के
नीचे हर आदमी के
अचेतन में वे
ही वासनाएं
हैं। मौका
नहीं है, धन
नहीं है, ताकत
नहीं है कि जो
भी करना चाहता
है वह कर सके, इसका उपाय
नहीं है। तो
अपने मन को
समझा लेता है
कि जो वह नहीं कर
सकता, वह
करने योग्य
नहीं है।
ध्यान
रहे,
अंगूर
खट्टे हैं, ऐसा समझा
लेता है। जहां
तक पहुंच नहीं
होती है--वह
बात करने
योग्य ही नहीं
है। लेकिन
शक्ति इसे मिल
जाये तो जो-जो
सोया था, जो-जो
दबाया था, वह
सब प्रगट हो
जायेगा।
शक्ति हाथ में
आते ही सब
सक्रिय हो जायेगा।
वैसे ही, जैसे
एक बीज पड़ा है
जमीन में और
पानी न हो, तो
बीज पड़ा
रहेगा--पानी
पड़ा कि अंकुर
फूटा। बीज में
अंकुर छिपा था,
तैयार था, पानी की
प्रतीक्षा
थी--ठीक मौका
और पानी मिलने
पर प्रगट हो
जायेगा।
शक्ति, पद,
सामर्थ्य, धन लोगों को बिगाड़ता
है--इसलिए
नहीं कि धन
किसी को बिगाड़
सकता है। लोग
बिगड़ने के लिए
बिलकुल तैयार
हैं, सिर्फ
धन की
प्रतीक्षा
है। संयोग आते
ही बिगड़ जाते
हैं। और मैं
कहता हूं यह
निरपवाद रूप
से होता है—विदाउट
एक्सेप्शन।
क्यों? क्या
ऐसा कोई भी
आदमी नहीं है
जिसकी कोई दबी
वासना न हो, और जो पद पर
पहुंचे और पद
उसे बिगाड़े
नहीं?
ऐसे
आदमी हैं।
लेकिन ऐसा
आदमी पद पर
जाने की कोशिश
नहीं करता
क्योंकि पद पर
जाने का कोई
धक्का ही नहीं
रह जाता।
धक्का तो भीतर
की वासना से
आता है। ऐसा
आदमी पद पर
जाने की कोशिश
नहीं करता। और
यहां कोशिश
करनेवाले
जहां नहीं
पहुंच पाते, बिना
कोशिश
करनेवाला
कैसे पद पर
पहुंच पायेगा?
उसका
कोई उपाय नहीं
है। जो पद से व्यभिचारित
नहीं होता, वह
पद तक नहीं
पहुंच पाता।
उसके पहुंचने
का कोई कारण
नहीं है। और
जो व्यभिचारित
हो सकता है, वही पहुंचने
की कोशिश करता
है। और जितना
ज्यादा तीव्र
वेग हो दबी
हुई वासना का,
उतनी
तीव्रता से
पहुंचने की
कोशिश करता
है। दबे वेग
शक्ति बन जाते
हैं।
महावीर
कह रहे हैं कि
आप अगर अवसर
से दूर हैं--इसका
नाम संयम नहीं
है। स्त्री
पास नहीं
है--आप ब्रह्मचारी
हैं। धन पास
नहीं है--आप
सादगी से जी रहे
हैं। किसी को
मार नहीं सकते, क्योंकि
डरते हैं।
क्योंकि मार
वही सकता है, जो पिटने
को तैयार है।
आप
ध्यान रखना, जो
पिटने को
तैयार नहीं है,
वह मार नहीं
सकता। मारने
की क्षमता उसी
में आती है, जो पिटने
के लिए बिलकुल
तैयार है। आप पिटने को
तैयार नहीं
हैं, इसलिए
मार नहीं
सकते--तो
सोचते हैं, अहिंसक हैं।
आदमी
ऐसा है कि
अपनी सब
वृत्तियों के
लिए रेशनेलाइजेशन
खोज लेता है।
कायर अपने को
अहिंसक कहता
है। क्योंकि
कायरता तो बड़ा
दुख देती है
कि कोई कहे कि
मैं कायर हूं।
कायर अपने को
अहिंसक कहता
है कि मैं
हिंसा नहीं
करना चाहता।
इसलिए
बड़ी हैरानी की
बात है कि
महावीर खुद
क्षत्रिय थे, जैनों
के बाकी तेइस
तीर्थंकर भी
क्षत्रिय
थे--सब
क्षत्रिय
घरों से आये
चौबीस तीर्थंकर।
और उनको माननेवाले
सब वणिक हैं, बनिया हैं।
यह बड़ी हैरानी
की बात है!
इसमें कोई
तालमेल नहीं
दिखाई पड़ता।
चौबीस तीर्थंकर
क्षत्रिय हों
जिनके, उनके
सब माननेवाले
दुकानदार हों,
इसमें जरूर
कोई न कोई बात
बड़ी
महत्वपूर्ण
है।
असल
में अहिंसा की
बात कायरों को
ठीक लगी--रेशनेलाइजेशन।
उनको जंची
कि यह बात
बिलकुल ठीक
हैः कायर के
कायर रहो और अहिंसक
भी हो जाओ।
कोई कुछ कह भी
नहीं सकता कि तुम
कायर हो।
कायरता को
छिपाने के लिए
अहिंसा का
सिद्धांत--इससे
सुंदर और क्या
हो सकता था!
जो-जो डरते थे, भयभीत
थे, वे
अहिंसा के
भीतर खड़े हो
गये। अहिंसा
उनके लिए कवच
बन गयी।
लेकिन
अहिंसा उसी के
जीवन में फल
सकती है जो कायर
नहीं है।
क्योंकि
अहिंसा आखिरी
वीरता है।
हिंसा बड़ी
वीरता नहीं
है। दूसरे को
मारने की
तैयारी इसी
बात की घोषणा
है कि मैं
कहीं मार डाला
न जाऊं। वह डर
का ही हिस्सा
है। कोई मुझे
मार न दे, इस डर
से मैं पहले
ही मार देता
हूं।
हिंसक
भयभीत
व्यक्ति है।
हिंसक पूरा
बहादुर नहीं
है,
उसकी
बहादुरी
अधूरी है। वह
डरा हुआ है कि
मुझे मार न
डाला जाये। इस
भय से ही उसकी
हिंसा है।
आपके हाथ में
तलवार है, वह
तलवार खबर
देती है कि आप
भीतर कहीं डरे
हुए हैं। वह
डर हिंसा बन
सकता है।
लेकिन
अगर कोई
व्यक्ति डरा
ही हुआ नहीं
है,
तो ही दूसरे
को मारने का
खयाल विदा
होता है। जब
मैं इतना
निर्भय हूं कि
मुझे कोई मारे
तो भी मुझे
मार नहीं सकता,
भीतर मैं
अमृत हूं-- तो
फिर दूसरे को
मारने का कोई
सवाल न रहा।
अहिंसा
आखिरी वीरता
है। लेकिन जगत
में बड़ी विडंबना
है;
जो आखिरी
वीरता है, वह
प्राथमिक
कायरता का कवच
बन गयी है।
ऐसा रोज हो
रहा है। सभी
सिद्धांतों
के साथ ऐसा हो
रहा है। झूठ
आप बोल नहीं
सकते, क्योंकि
फंसने का
डर है। तो आप
सच बोलते हैं,
लेकिन वह सच
निर्जीव है।
उसके पीछे कोई
आत्मा नहीं
है। वह कायर का
सत्य है।
यह जो
हम इस भांति
संयम साध लेते
हैं,
यह संयम
हमें मोक्ष तक
तो नहीं ले
जाता; हमें
संसार से ऊपर
भी नहीं उठाता;
हमें संसार
के भीतर ही
बांध रखता है--
एक कैप्सूल
में। हम एक
अपने ही संयम
के कैप्सूल
में बंद हो
जाते हैं। न
हम संसार को
भोग पाते हैं--
क्योंकि भोग
भी शायद कभी
संयम का मार्ग
बन जाये। क्योंकि
भोगते-भोगते
भी आदमी को ऊब
पैदा होती है।
जिस चीज को हम
बार-बार भोगते
हैं, उससे
ऊब पैदा हो
जाती है।
मुल्ला
नसरुद्दीन
की पत्नी बड़ी
नाराज थी एक
दिन,
क्योंकि नसरुद्दीन
ने थाली नीचे
फेंक दी भोजन
के समय। नसरुद्दीन
की पत्नी ने
कहा, "यह
तुम क्या कर
रहे हो?'
नसरुद्दीन ने
कहा कि मुझे
मार डालेगी!
रोज भिण्डी
का साग!
पर
उसकी पत्नी ने
कहा,
"कैसी बात
कर रहे हो? सोमवार
को तुमने कहा
था कि साग
बहुत अदभुत
है। और
मंगलवार को भी
तुमने कहा कि
साग अच्छा बना
है। और बुधवार
को भी तुमने
पसंद किया और
बृहस्पतिवार
को भी पसंद
किया; शुक्रवार
को भी पसंद
किया-- और आज
शनिवार है; और आज अचानक
तुम कहने लगे
कि मार डालोगी!'
सोमवार
को जो पसंद है, मंगलवार
को कम पसंद हो
जायेगा।
बुधवार को और
कम पसंद हो
जायेगा।
अनुभव भी उबा
देता है।
शनिवार को
थाली फेंकने
की नौबत आ जायेगी।
जो स्वादिष्ट
भोजन था, वह
जहर जैसा
मालूम पड़ने
लगेगा।
लेकिन
पत्नी यह कह
रही है, उसकी
बात बड़ी
तर्कपूर्ण
है। वह यह कह
रही है कि जब
तुमको छह दिन
जो चीज पसंद
थी, तो आज
अचानक सात दिन
का तुम अपना
मन कैसे बदल रहे
हो? तुम
तर्क संगत
नहीं हो। जो
चीज छह दिन
पसंद थी, वह
सातवें दिन और
भी ज्यादा
पसंद होनी
चाहिए।
नहीं, मन
ऊब जाता है।
इसलिए
पति-पत्नी एक
दूसरे से ऊब
जाते हैं।
निरंतर एक का
ही अनुभव उबानेवाला
हो जाता है।
मनोवैज्ञानिक
कहते हैं कि
जब तक
पति-पत्नी जगत
में हैं, तब तक
व्यभिचार को
मिटाना
मुश्किल है।
जब तक विवाह
है, तब तक
व्यभिचार को
मिटाना
मुश्किल है।
वे शायद ठीक
ही कहते हैं, क्योंकि
विवाह उबाता
है। ऊब से
आदमी
यहां-वहां
भागता है, उससे
व्यभिचार
पैदा होता है।
अब यह
बड़ी मुश्किल
की बात है--मनसविद
कहते हैं कि
वेश्याएं
विवाह की
संस्था का अनिवार्य
अंग हैं। और
जब तक विवाह
है तब तक
वेश्याएं
होंगी। और अगर
वेश्याओं को
मिटाना तो ध्यान
रखना, विवाह
मिट जायेगा।
विवाह ही मिट
जाये तो ऊब
मिट जाये, ऊब
मिट जाये तो
फिर कोई सवाल
नहीं है।
लेकिन विवाह
के साथ वेश्या
जुड़ी हुई है।
जिंदगी
बड़ी अजीब है
और बड़ी जटिल
है। तो जो आदमी
भोग से भी
अपने को रोक
लेता है और
आत्मज्ञान को
भी उपलब्ध
नहीं होता, वह
तो संयम की
आखिरी
संभावना भी
बंद किये दे
रहा है। एक
संभावना तो यह
है कि वह दुख
में पड़े, नरक
में उतरे और
भोगे, और
भोग-भोगकर
परेशान हो
जाये--इतना
परेशान हो
जाये कि वह परेशानी
ही उसे बाहर
निकालने
लगे--वह भी बंद
हो गया। और
दूसरा उपाय यह
है कि वह भीतर
के प्रकाश को
जलाये, शरीर
और आत्मा को
पृथकता से देखे--उस
पृथकता के
कारण शरीर की
वासना गिर
जाये। या फिर
शरीर में कोई
इतना जाये कि
ऊब जाये, ऊब
से संयम का
जगत शुरू हो।
लेकिन
जिसको हम
संयमी कहते
हैं,
वह दोनों से
बच जाता है। न
तो वह
आत्मज्ञान को उपलब्ध
हो रहा है, न
तो भोग के नरक
से गुजर रहा
है ताकि नरक
छोड़ने जैसा
मालूम पड़ने
लगे। वह रुका
हुआ है। उसने
अपने चारों
तरफ एक
कारागृह बना
लिया है अपनी
कायरता का, अपने डर का, भय का। वह
उसमें बंद है।
इस भय
में बंद आदमी
को मोक्ष से
सर्वाधिक दूर समझना।
भोगी भी इतना
दूर नहीं है।
यह जो तथाकथित
योगी है, इससे
ज्यादा दूर
मोक्ष से कोई
भी नहीं। भोगी
भी इससे थोड़ा
करीब है। क्योंकि
आज नहीं कल, जिंदगी का
अनुभव ही उसे
बार-बार दुख
देकर बता देगा
कि यह जिंदगी
कुछ सार्थक
नहीं है।
लेकिन इस
संयमी को, तथाकथित
संयमी को
जिंदगी में
जो-जो गलत है, उसका रस बना
ही रहेगा। वह
गलत का रस
इसके संयम से
पैदा हो रहा
है। क्योंकि
जिस-जिस चीज
को आप रोकते हैं,
उस-उस में
रस पैदा हो
जाता है।
आदमी
के अधिक पापों
का कारण संयम
की शिक्षा और
नीति की
शिक्षा है।
जिन-जिन पापों
से आदमी को रोकने
के लिए कहा
जाता है, उन-उन
में रस आ जाता
है। जरा फिल्म
में लगा दें कि
ओनली फार एडल्टस--सिर्फ
वयस्कों के
लिए, फिर
जिनकी मूंछ की
रेखा भी नहीं
आयी, वह भी
दो आने की
मूंछ खरीदकर
लगाकर क्यू
में खड़े हो
जाते हैं। फिर
पत्रिकाएं
निकलती हैं--"ओनली फार
मेन'।
सिर्फ औरतें पढ़ती हैं
उस पत्रिका को,
आदमी पढ़ते
ही नहीं। "ओनली
फार वुमेन'--आदमी पढ़ेगा
ही, स्त्रियां
उसकी फिकर
नहीं करतीं।
क्योंकि वे
उसे जानती हैं
कि स्त्री में
क्या
होनेवाला है।
जहां
निषेध है वहां
रस पैदा हो
जाता है। जिस
चीज में रस
पैदा करना हो
उसका निषेध
करना जरूरी
है। आप बड़े
हैरान
होंगे--इसको
मैं जिंदगी की
बिडंबना
कहता हूं। और
यह समझ में न
आये तो बड़ी
अड़चन हो जाती
है। आपके सब
तथाकथित
साधु-संत आपकी
जिंदगी में
जो-जो गलत चल
रहा है, उसके
लिए
जिम्मेवार
हैं। क्योंकि
वे निषेध किये
चले जाते हैं
और रस पैदा
किये चले जाते
हैं। और जिस
चीज का निषेध
कर दो, बहुत
निषेध करो, उसमें शक
होने लगता है
कि जरूर कोई
बात होनी
चाहिए।
बाप
बेटे को
समझाता है, सिगरेट
मत पीना। अभी
बेटे को खयाल
ही नहीं आया
था। सच तो यह
है कि अगर
बेटे अपने पर
ही छोड़ दिये
जायें तो
हजारों साल लग
जायेंगे उनको
सिगरेट खोजने
में। क्योंकि
धुआं
बाहर-भीतर
करना इतनी
नालायकी का
काम है--इसको
कौन करना
चाहेगा! और किसलिए
करना चाहेगा!
इसमें कुछ भी
तो अर्थ नहीं
मालूम पड़ता।
लेकिन
चारों तरफ समझानेवाले
लोग हैं कि
धूम्रपान है, सिगरेट
मत पीना! बाप
यह भी कहता
हैः क्या करूं,
मेरी तो
खराब आदत कि
मैं पीने लगा,
बाकी तू मत
पीना! बेटे को
रस शुरू होता
है कि जरूर
कुछ न कुछ
मामला है।
जो भी
चीज रोकी जाती
है,
उसमें कुछ
होना चाहिए।
नहीं तो
रोकेगा कौन!
क्यों रोकेगा!
और ये सारे
समाज के
पंडे-पुरोहित क्यों
इसके खिलाफ
पड़ेंगे अगर
कुछ भी नहीं
है! आखिर
साधु-संन्यासी
अपनी आत्मा की
बात छोड़कर क्यों
समझाते रहे
हैं लोगों को
कि धूम्रपान मत
करो, सिगरेट
मत पिओ; यह मत करो।
जरूर सिगरेट
में कोई आनंद
होना चाहिए कि
इतने लोग
दीवाने हैं
करने को। और
इतना समझानेवालों
के बाद भी कोई
रुकता नहींकोई
रुकता नहीं।
एक आदमी को
नहीं बदल पाते
इतना समझाकर!
तो
बच्चे को भी
यह दिखाई पड़ना
शुरू होता है
कि इतने लोग
धुआं
बाहर-भीतर कर
रहे हैं।
अरबों रुपये
की सिगरेट-बीड़ी
पीयी जा
रही है। और
इतने हजारों
साल से
साधु-संत समझा
रहे हैं, कोई
इनकी सुनता
नहीं। जरूर
साधु-संतों
में उतना रस
नहीं है, जितना
इस धूम्रपान
में है।
पहली
दफा जब बच्चा
सिगरेट पीता
है तो जरा भी रस
नहीं आता। वमन
भी हो सकता है, खांसी
आ सकती है, आंख
से आंसू आ
जायेंगे--
क्योंकि बात
ही बेहूदी है।
लेकिन वह
देखता है कि
कोई सुख बिना
दुख के तो
मिलते नहीं तप
के बिना। तो
थोड़ी साधना
करनी पड़ेगी; अभ्यास करना
पड़ेगा। बिना
अभ्यास के
कहीं कुछ हुआ
है! और जब इतने
लोग पा चुके
इस अवस्था को धूम्रपान
का मोक्ष-- मैं
भी कोशिश किये
चला जाऊं।
फिर वह
अभ्यस्त हो
जाता है। नरक
के लिए भी अभ्यस्त
हो सकता है
आदमी! दुख के
लिए भी
अभ्यस्त हो
सकता है! और जब
अभ्यस्त हो
जाता है तब एक
बड़ी मजेदार
घटना घटती है; एक
कंडिशनिंग
हो जाती है।
धूम्रपान एक कंडिशनिंग
है। एक संस्कार
आबद्ध हो गया।
और सारी
दुनिया उसमें
रस देखती है।
जो पीते हैं, वे भी रस
देखते हैं; जो नहीं
पीते हैं, वे
भी रस देखते
हैं। तो सारी
दुनिया की हवा
उसको राजी कर
देती है कि
इसमें जरूर रस
है। और अगर
मुझे नहीं
दिखाई पड़ता; तो अपनी ही
बुद्धि की भूल
है। थोड़ा
अभ्यास! वह कर
लेता है
अभ्यास। जब
अभ्यास हो
जाता है, तो
रस तो बिलकुल
नहीं मिलता, लेकिन अब न पीये तो
दुख मिलता है।
गलत का
यही आधार है।
अगर आप करें
तो कोई सुख नहीं
पाते, न करें
तो दुख पाते
हैं। क्योंकि
न करें तो एक आदत,
एक तलफ, एक
बेचैनी कि कुछ
करना था वह
नहीं किया। तब
फिर इस दुख से
बचने के लिए
आदमी पीये
चला जाता है।
हमारे
जीवन के अधिक
पाप,
हमारे
चारों तरफ पाप
के खिलाफ जो
चर्चा है, उससे
पैदा हुए हैं।
और जब तक यह
चर्चा बंद नहीं
होती, तब
तक उन पापों
का हटाने का
कोई उपाय नहीं
है।
अभी कल
ही मैंने देखा
अखबार में कि
दिल्ली में
साधु-संन्यासियों
ने एक सम्मेलन
किया अश्लील
पोस्टरों के
खिलाफ।
साधु-संन्यासियों
को क्या
प्रयोजन
अश्लील पोस्टरों
से?
इनको क्या
अड़चन है?
कोई
अश्लील
पोस्टर देख
रहा है, यह
उसकी निजी
स्वतंत्रता
है। और उसे
कोई रस आ रहा
है तो वह
हकदार है उस
रस को लेने
का। तुम्हें
रस नहीं आ
रहा--तुम
साधु-संन्यासी
हो गये हो; तुमने
सब छोड़ दिया।
लेकिन अब भी
तुम अब भी तुम
परेशान क्यों हो?
जरूर
ये
साधु-संन्यासी
भी अश्लील
पोस्टर देखते
होंगे। इनको
पीड़ा क्या हो
रही है? और ये
अपना मोक्ष, सामायिक, ध्यान छोड़कर
इस तरह के
सम्मेलन
क्यों करते
हैं? इतनी
अड़चन क्यों
उठाते हैं?
यह बड़े
मजे की बात है
कि "अश्लील
पोस्टर होने चाहिए' इसका
कोई सम्मेलन
नहीं करता, और वे चलते
हैं। और यह
सम्मेलन करते
रहे हजारों
साल से, कोई
रुकता नहीं।
अश्लील
पोस्टर में ये
साधु-संन्यासी
रस को बढ़ाते
हैं, कम
नहीं करते। ये
जिम्मेवार
हैं।
अश्लील
पोस्टर हट
जायेंगे उस
दिन,
जिस दिन हम
कह देंगे, यह
व्यक्ति की
निजी बात है
कि वह नग्न
चित्र देखना
चाहता है, मजे
से देखे। नग्न
चित्रों को न
तो जमीन के नीचे
दबाकर बेचने
की जरूरत है, न छिपाकर
रखने की जरूरत
है। नग्न
चित्रों को तो
प्रगट कर देने
की पूरी जरूरत
है कि लोग
देखकर ही ऊब
जायें कि अब
कब तक देखते
रहें।
मैंने
सुना है कि एक
सर्जन एक आर्ट
एग्जिबिशन
में गया एक
चित्र
खरीदने।
चित्र का उसे
शौक था।
प्रदर्शनी
में बड़े-बड़े
चित्रकारों
की पेंटिग्स
थीं--सब उसे
दिखायी गयी, पर
उसे कोई जंची
नहीं। तब जो
उसे दिखा रहा
था, गाइड, उसने कहा, "फिर ऐसा
करिये, आप
अंडर ग्राउंड पेंटिग्स
देखें। आपको
ये कुछ जंच
नहीं रही हैं,
तो इस
प्रदर्शनी
में छिपा हुआ
हिस्सा भी है
जहां सिर्फ न्यूड्स, नग्न
स्त्रियों के
चित्र हैं--वे
आपको जरूर जंचेंगे।'
तो
उसने कहा, "छोड़ो! मैं सर्जन
हूं मैं इतनी
नग्न
स्त्रियां
देख चुका हूं
कि अब मैं
डरता हूं, जब
फिर से मुझे
नग्न स्त्री
देखनी पड़ती
है। नग्न
स्त्रियां
देख-देखकर
मेरा न केवल
नग्न स्त्रियों
को देखने में
रस खत्म हो
गया है--मेरा सारा
रोमांस, स्त्री
के प्रति मेरा
आकर्षण, काम
वासना का
उद्दाम वेग, वह सब शिथिल
पड़ गया है।'
कपड़े ढांक-ढांककर
हम शरीर में
आकर्षण बढ़ा
रहे हैं। जिस
दिन दुनिया
नग्न होगी, उस
दिन कोई नग्न
पोस्टर लगाने
की जरूरत नहीं
रह जायेगी।
नग्न पोस्टर
तरकीब है। इधर
कपड़े से ढांको,
तो फिर उघाड़कर
दिखाने में रस
आना शुरू हो
जाता है। आदमी
जब तक इस पूरे
भीतरी उलझाव
को, उपद्रव
को न समझ ले, तब तक जीवन
में संयम की
जगह संयम के
नाम पर एक कारागृह
पैदा हो जाता
है।
या तो
भोग के अनुभव
से गुजरो
ताकि ऊब जाओ; और
या फिर भीतर
के विवेक को
जगाओ ताकि
शरीर की पकड़
खो जाये। इन
दोनों से बचकर
साधु तीसरे
काम में लगा
रहता है।
ये
साधु जो
सम्मेलन करते
हैं कि अश्लील
पोस्टर नहीं
होने चाहिए, इनको
जरूर कुछ
बेचैनी है।
बेचैनी यह है
कि तुम सब मजा
ले रहे हो! और
ये बेचारे बड़े
परेशान हैं।
इनकी परेशानी
का अंत नहीं
है।
अगर ये
सच में ही
संयम को
उपलब्ध हुए
होते और अगर
इनको पता चला
होता कि आत्मा
और शरीर अलग
हैं,
तो ये कहते
कि--ठीक है, ये
शरीर के नग्न
चित्र हैं, शरीर कोई
आत्मा नहीं
है--इसमें
चिंता की क्या
बात है?
लेकिन
यह ज्ञानी भी, अगर
स्त्री इसको
छू ले, तो
हटकर खड़ा हो
जाता है। और
यह कहता रहता
है कि शरीर और
आत्मा अलग
हैं! और
स्त्री का
शरीर, तो
बहुत दूर, उसका
कपड़ा छू
जाये तो भी
इसमें रोमांस
पैदा होता है।
यह हटकर खड़ा
हो जाता है।
जो
साधु
स्त्रियों को
अपने पैर नहीं
छूने देता, स्त्रियां
उसमें बड़ी
उत्सुक होती
हैं कि जरूर
गजब का आदमी
है! स्त्री
उसी आदमी में
उत्सुक होती
है जो
स्त्रियों
में उत्सुक न
हो। क्योंकि
तब उसे लगता
है कि जरूर
अदभुत है!
तो
साधु स्त्री
को पैर न छूने
दे,
पास न आने
दे तो स्त्री
भी मानती है, महात्मा
पूरा है।
लेकिन यह
महात्मा को
अभी इतना भी
पता नहीं चल
रहा है कि
स्त्री की
आत्मा तो कुछ
स्त्री होती
नहीं; पुरुष
की आत्मा कोई
पुरुष होती नहीं--शरीर
ही में स्त्री
और पुरुष होते
हैं। और शरीर
में भी क्या
रखा है?
स्त्री-पुरुष
का भेद क्या
है?
अगर
जीवशास्त्री
से पूछें तो
वह कहता है, बच्चा जब
पैदा होता है,
तो उसके
शरीर में
दोनों ही अंग
होते
हैं--स्त्री-पुरुष
के। कोई तीन
सप्ताह बाद
फर्क होना शुरू
होता है। फर्क
भी बड़ा मजेदार
है। फर्क वही
है जो शीर्षासन
में होता है।
पुरुष की
इन्द्रियां बाहर
आ जाती हैं, वे ही
इन्द्रियां
स्त्री में
भीतर की तरफ
मुड़ जाती
हैं--जैसे कोट
के खीसे को आप
उलटा कर लें। बस,
इतना फर्क
है!
जरा भी
फर्क नहीं है।
जो शरीर की
चमड़ी बाहर लटक
जाती है वह
पुरुष की
इन्द्रिय बन
जाती है, वही
चमड़ी भीतर की
तरफ सरक जाती
है तो स्त्री
की इन्द्रिय
बन जाती है।
बस,इतना ही
फर्क हैः कोट
का पाकेट उलटा
या सीधा!
लेकिन
यह शरीर का
जिनको अनुभव
हो रहा है कि
शरीर-आत्मा
अलग हैं, उनको
भी इतने फर्क
में इतना रस
मालूम पड़ता
है। वह रस
उनके रोग की
खबर देता है।
उन्होंने
जबरदस्ती
अपने को रोक
लिया है, कोई
ज्ञान
उत्पन्न नहीं
हुआ।
जबरदस्ती
मुक्त नहीं कर
सकती, सिर्फ
समझ, अंडरस्टेडिंग,
होश मुक्त
कर सकता है।
महावीर
कहते हैं: जब
कोई व्यक्ति
अपने इस
आंतरिक भेद को
जान लेता है
तब पुण्य, पाप,
बंध, मोक्ष
सभी जान लिये
जाते हैं। जब
पुण्य, पाप,
बंध और
मोक्ष जान
लिये जाते हैं,
तब देवता और
मनुष्य
संबंधी
काम-भोगों की
व्यर्थता
स्पष्ट हो
जाती है। उनसे
विरक्ति सहज
फलित होती है।
यह जरा
समझने जैसा
है। क्योंकि
जो आदमी जबरदस्ती
दमन के द्वारा
अपने को संयमी
बना लेता है, भीतर
पूरा अंधेरा
रहता है, बाहर-बाहर
इंतजाम कर
लेता है अपने
को रोकने का, इसकी वासनाइस
जगत से भला यह
अपनी वासना को
भीतर रोक ले, दूसरे जगत
में संलग्न हो
जाती है। यह
स्वर्ग की
कामना करने
लगता है।
आपको
पता होगा, कथाएं
हैं कि जब भी
कोई षि-मुनि
अपनी
तपश्चर्या
में पूर्ण
होने लगता है
तो इन्द्र का
सिंहासन
डोलने लगता
है।
यह बड़े
मजे की बात है
कि इन्द्र का
सिंहासन किसी ऋषि-मुनि
के तपस्या में
ऊपर उठ जाने
से क्यों डोलता
है?
इसमें क्या
संबंध है? और
इन्द्र के
सिंहासन में
ऐसा क्या ऋषि-मुनि
को रस हो सकता
है? और
इन्द्र इतना
भयभीत क्यों
होता है कि एक काम्पटीटर,
एक
प्रतियोगी
पैदा हो गया? और इन्द्र
वहां कर क्या
रहा है--सिवाय
नाच-गाने, खाने-पीने
के और वहां
कुछ हो नहीं
रहा है!
स्वर्ग
का मतलब है :
जहां इस संसार
के सब दुख काट
दिये हैं, और
इस संसार के
सब सुख अपनी
पराकाष्ठा
में रख दिये
हैं।
स्त्रियां
वहां सोलह साल
पर रुक जाती
हैं, उससे
ज्यादा उनकी
उम्र नहीं
बढ़ती।
यहां
भी कोशिश तो
बहुत करती
हैं। मजबूरी
है,
कितनी ही
कोशिश करो, शरीर तो
उम्र पा ही
लेता है।
लेकिन वहां वह
कोशिश सफल हो
गयी है।
स्वर्ग में
सोलह वर्ष पर
सारी अप्सराएं
रुक गयी
हैं--उससे
ज्यादा उम्र
नहीं होती।
शरीर
स्वर्ण-कांचन
के पारदर्शी
हैं। ट्रान्सपेरेन्ट
कपड़े ही नहीं
हैं--"सीथ्रु' कि
कपड़ों के पीछे
से देख लो, शरीर
भी "सीथ्रु',
पारदर्शी
है; सब
दिखाई पड़ेगा।
कल्पवृक्ष
हैं--जिनके
नीचे जो षि-मुनि
तपश्चर्या
करके पहुंच जाते
हैं, वे
बैठे हैं। जो
भी वासना करो,
तत्क्षण
पूरी हो जाती
है। यहां
संसार में समय
लगता है। कोई
वासना करो, मेहनत करो, उपद्रव करो,
भारी
दौड़-धूप
करो--जब तक पहुंचो,
अधमरे हो
चुके होते
हैं। तो वासना
भोगने की क्षमता
उस वासना को
प्राप्त करने
की चेष्टा में
ही नष्ट हो
गयी होती है।
लेकिन वहां
स्वर्ग में, कल्पवृक्ष
के नीचे, वासना
का उठना और
पूरा होना
तत्क्षण है; युगपत है--साइमल्टेनियस!
किन्होंने यह
स्वर्ग-कामना
की है? किन्होंने यह स्वर्ग
बनाया है? किनके
सपनों का यह
साकार रूप है?
संयमी का? तो इसका
मतलब हुआ कि
यहां स्त्रियां
छोड़ो
ताकि वहां
बेहतर
स्त्रियां
मिल सकें।
कहां क्षुद्र
धन की खोज में
पड़े हो, कल्पवृक्ष
की खोज करो।
तो
भोगी कौन है?
दो तरह
के भोगी हुएः
एक जो नासमझ
हैं,
क्षुद्र के
पीछे दौड़ रहे
हैं; एक जो
समझदार हैं, जो शाश्वत
के पीछे दौड़
रहे हैं--जो
ज्यादा चालाक
हैं; ज्यादा
होशियार हैं।
महावीर इसको
संयमी नहीं
कहते।
महावीर
कहते हैं कि
अगर यहां किसी
ने अपने को दबाया, तो
वह किसी परलोक
में भोगने की
कामना से भर
जायेगा। और यह
कामना इतनी
बेहूदी हो
सकती है कि आप
कल्पना भी
नहीं कर सकते।
एक धर्म में न
केवल वहां हूरों
और स्त्रियों
का इंतजाम है,
वहां गिल्मों,
खूबसूरत
लड़कों का भी
इंतजाम
है--बहिश्त
में। क्योंकि
जब वह धर्म
पैदा हुआ तो
उस देश में
होमो-सेक्सुअलिटी
प्रचलित थी।
और पुरुष
पुरुषों से भी
प्रेम कर रहे
थे। जब वह
धर्म पैदा हुआ
तो उसको अपने
स्वर्ग में यह
भी इंतजाम
करना पड़ा कि वहां
हूरें तो
हैं ही
खूबसूरत, लेकिन
गिल्में,
लौंडे भी वहां
उपलब्ध हैं।
जिनके
मन से यह
वासना उठती
होगी, इनको
महावीर संयमी
किस हालत में
कह सकते हैं। यह
संयम नहीं है।
यह तो यहां
दबाना और वहां
इसको पाने की
कोशिश है। यह
तो दमित वासना
का विकृत रूप
है। इसलिए
महावीर कहते
हैं, स्वर्ग
का आकांक्षी
वस्तुतः
धार्मिक
व्यक्ति नहीं
है। मोक्ष का
आकांक्षी
धार्मिक व्यक्ति
है।
यह जरा
समझने-जैसा है
कि महावीर
स्वर्ग और नरक
को तो आपका ही
फैलाव मानते
हैं। उसमें
कोई बहुत फर्क
नहीं है। नरक
वह जगह है, जहां
आप दूसरों को
भेजना चाहते
हैं और स्वर्ग
वह जगह है
जहां आप जाना
चाहते हैं। और
कोई फर्क नहीं
है।
महावीर
कहते हैं कि
मोक्ष वह जगह
है जहां आप हैं--अभी
भी,
इस क्षण भी।
जो आपका
स्वभाव है। वह
कोई स्थान नहीं
है, एक
आंतरिक बोध की
अवस्था है।
इसलिए उस
अवस्था को हम
"बुद्धत्व' कहते हैं।
जहां
बोध पूरा जग
गया,
वहां
बुद्धत्व है।
"जब
साधक पुण्य, पाप, बंध,
और मोक्ष को
जान लेता है, तब देवता और
मनुष्य
संबंधी
काम-भोगों की
व्यर्थता को
जान लेता है।'
तो
देवता भी
व्यर्थ ही भटक
रहे हैं।
इन्द्र भी
इन्द्रियों
के पार नहीं
है। इसीलिए
हमने उसको
"इन्द्र' नाम
दिया है कि वह
इन्द्रियों का
सबसे श्रेष्ठ
रूप है।
इन्द्रियों
को भोगने की
जो पराकाष्ठा
है, वह
इन्द्र है।
और बड़े
मजे बात है; उसने
भी बड़ी
तपश्चर्या से
यह अवस्था
पायी है। इसलिए
जब भी कोई
दूसरा वैसी
तपश्चर्या
करने लगता है,
इन्द्र
घबड़ा जाता है।
तब वह क्या
करता है, तब
वह उर्वशी को
या किसी और
अप्सरा को
भेजता है कि
जाकर जरा इस
साधु महाराज
को थोड़ा डिगाओ;
इन्हें
थोड़ा हिलाओ, मेरा
सिंहासन हिल
रहा है--
इन्हें थोड़ा
हिलाओ तो मेरा
सिंहासन थिर
हो जाये। यह
आदमी प्रतियोगी
मालूम पड़ता
है।
और बड़ा
मजा यह है कि
अप्सराएं
साधु-महात्माओं
को डिगा जाती
हैं। ये उसी
साधु-महात्मा
को डिगा सकती
हैं,
जिसने भीतर
के बोध से
संयम को नहीं
पाया है; जो
भीतर तो
अंधेरे में
खड़ा है, जिसने
बाहर से
जबरदस्ती थोप
लिया है।
तो आप
स्त्रियों से
बच सकते हैं थोपकर, अप्सराओं से नहीं बच
सकते; क्योंकि
अप्सराएं
बाहर खड़ी नहीं
होती, मन
में खड़ी होती
हैं।
अप्सराएं
कल्पना के रूप
हैं। इसलिए जो
साधु जिस चीज
का दमन करता
है, उसी के
सपने आने शुरू
हो जाते हैं।
अब यह
बड़े मजे की
बात है, जिन
समाजों मेंजैसे
यहूदी हैं, वे अपने
साधु को भी
विवाह का मौका
देते हैं। तो
एक भी यहूदी
संत के जीवन
में ऐसा
उल्लेख नहीं
है कि जब वह परमज्ञान
के पास आया, तो अप्सराओं
ने उसे परेशान
किया। करने का
कोई कारण नहीं
है। अप्सराएं
पहले ही काफी
परेशान कर
चुकी हैं। अब
कोई अप्सरा
परेशान नहीं
कर सकती।
तो
यहूदी धर्म एक
बहुत
वैज्ञानिक
बात मानता है
कि उसके
पुरोहित तो
शादी-शुदा होने
ही चाहिए; उनका
संत तो
शादी-शुदा
होना ही चाहिए,
नहीं तो वह
स्त्रियों के
पार नहीं जा
पायेगा। और तब
फिर आखिर में
स्त्रियां
सताती हैं।
जिन-जिन
धर्मों ने
स्त्री से
बचने को संयम
का प्राथमिक
चरण बना दिया, उन-उन
धर्मों में
स्त्रियां
सताती हैं।
निश्चित ही
कोई कारण है।
कारण
साफ हैः जो
दबाया जाता है
बाहर से, वह
भीतर से उभरना
शुरू हो जाता
है। जिसे हम
बाहर से छोड़
देते हैं, वह
भीतर कल्पना
में, स्वप्न
में पकड़ लेता
है। वह वहां सताने
लगता है।
अप्सराएं
कहीं आती नहीं
बाहर से। उनके
घुंघरू षियों
को ही सुनाई
पड़ते हैं।
उन्हीं के पास
ग्वाले अपनी
गायें चरा रहे
हैं, उनको
सुनाई नहीं
पड़ते; उनको
दिखाई नहीं पड़तीं वे
अप्सराएं--षि
ही परेशान
होते हैं।
दमित
वासना विकृत
होकर स्वप्न
बन जाती है।
जो अपने को
उपवास की
साधना में लगा
देते हैं बिना
भीतर के ज्ञान
के,
उनको भोजन सताने
लगता है। उनके
सारे स्वप्न
भोजन से भर
जाते हैं। आप
जरा किसी दिन
उपवास करके
देखें, बात
साफ हो
जायेगी। दिन
में उपवास
करें, रात
सम्राट, जो
अब बचे ही
नहीं, वे
आपको
निमंत्रण
देंगे--राज-भोज!
वहां छप्पन प्रकार
के व्यंजन
आपके लिए
तैयार हैं।
ये
छप्पन प्रकार
के व्यंजन षि-मुनियों
ने देखे नहीं, सिर्फ
उपवास में
इन्हें दिखाई
पड़े हैं। यह
कहीं हैं
नहीं। फिर
उनका रंग और
उनकी
सुगंध--बात ही
और है! वह
अलौकिक है। वह
इस लोक की है
नहीं। इस
पृथ्वी से
उसका कोई
संबंध नहीं
है।
दमित
चित्त विकृत
हो जाता है।
महावीर की
साधना में
कहीं भी दमन
नहीं है--बोध
पर जोर है, विवेक
पर जोर है, जागरूकता
पर जोर है।
लेकिन
यह हुआ नहीं
है। उनकी
परंपरा में जो
हुआ है, वह
दमन है। और
जितना उनके
पीछे चलनेवालों
ने दमन किया, इस जमीन पर
किसी दूसरी
धार्मिक
परंपरा ने नहीं
किया। जितना
दमित जैन साधु
है, उतना
दमित कोई भी
नहीं है।
दमन
आसान है, जागरण
कठिन है। जो
आसान है वह हम
कर लेते हैं, जो कठिन है
उसे बाद के
लिए पोस्टपोन
करते चले जाते
हैं। लेकिन जब
तक वह कठिन न
हो जाये, तब
तक सब किया
हुआ व्यर्थ
है। उससे कोई
मोक्ष की तरफ
नहीं जाता और
नये जन्मों के
बंधंनों
की तरफ उतर
जाता है।
आज
इतना ही।
पांच
मिनट कीर्तन
करें; फिर
जायें।
एक धर्म में न केवल वहां हूरों और स्त्रियों का इंतजाम है, वहां गिल्मों, खूबसूरत लड़कों का भी इंतजाम है--बहिश्त में। क्योंकि जब वह धर्म पैदा हुआ तो उस देश में होमो-सेक्सुअलिटी प्रचलित थी। और पुरुष पुरुषों से भी प्रेम कर रहे थे। जब वह धर्म पैदा हुआ तो उसको अपने स्वर्ग में यह भी इंतजाम करना पड़ा कि वहां हूरें तो हैं ही खूबसूरत, लेकिन गिल्में, लौंडे भी वहां उपलब्ध हैं।
जवाब देंहटाएंosho bhi us dharm ka nam lene se darta hai.