सूत्र :
प्रारब्धं
सिध्यति तदा
यदा
देहात्मना
स्थिति।
देहात्मभावो
नैवेष्ट:
प्रारब्धं
त्यज्यतामत:।।
56।।
प्रारब्धकल्पनाsप्यस्य
देहस्य अति
रेष हि।। 57।।
अध्यस्तस्य
कुतस्य
असत्यस्य
कुतोजनिः।
अजातस्य
कुतो नाश: प्रारब्धमसत:
कुत:।। 58।।
ज्ञानेनाज्ञानकार्यस्य
समूलस्य लयो
यदि।
तिष्ठत्ययं
कथं देह इति
शङ्कावतो
जडान् ।। 59।।
प्रारब्ध
कर्म तो उसी
समय सिद्ध
होता है, जब देह के
ऊपर
आत्म—बुद्धि
होती है। पर
देह के ऊपर
आत्म—भाव रखना
तो कभी इष्ट
नहीं है, इसलिए
देह के ऊपर की
आत्म—बुद्धि
को तज कर
प्रारब्ध
कर्म का त्याग
करना।
देह की
भ्रांति यही
प्राणी के
प्रारब्ध
कर्म की
कल्पना है। पर
आरोपित अथवा
भ्रांति से जो
कल्पित हो, वह सच्चा
कहां से हो? जो सच्चा
नहीं है, उसका
जन्म कहां से हो? जिसका जन्म
नहीं हुआ उसका
नाश कहां से हो? इस प्रकार
जो असत् है, वस्तु रूप
है ही नहीं, उसको
प्रारब्ध
कर्म कहं। से
हो!
देह यह
अज्ञान का
कार्य है, उसका
ज्ञान द्वारा
जो समूल नाश
हो जाता है तो यह
देह रहती कैसे
है? ऐसी
शंका करने
वाले
अज्ञानियों
का समाधान करने
के लिए ही
श्रुति ने
बाह्य दृष्टि
से प्रारब्ध कहा
है।
(वास्तव में
न तो देह है और
न प्रारब्ध
है।)
सूत्र
के पहले, एक—दो
प्रश्न पूछे
गए हैं, उनकी
बात कर लेनी
उचित है।
एक
मित्र ने पूछा
है कि आप जो कह
रहे हैं वह
बात समझ में
भी आती है, और समझ
में आती भी
नहीं, तो
क्या करें?
उनका
प्रश्न
मूल्यवान है।
ऐसी सभी की
प्रतीति
होगी।
क्योंकि समझ
के दो तल हैं।
एक तो जो मैं
कहता हूं वह
आपकी बुद्धि
की समझ में आ
जाता है, आपकी बुद्धि
को
युक्तिपूर्ण
लगता है, आपकी
बुद्धि को
प्रतीत होता
है कि ऐसा
होगा।
यह
समझ ऊपर—ऊपर
है। यह समझ
प्राण के भीतर
तक नहीं उतर
सकती। यह समझ
आपके पूरे
व्यक्तित्व
की समझ नहीं
है—आत्मिक
नहीं है।
इसलिए ऊपर से
समझ में आता
हुआ लगेगा। और
जब तक यहां
बैठ कर सुन
रहे हैं, तब तक ऐसा
लगेगा, बिलकुल
समझ में आ
गया। फिर यहां
से हटेंगे और समझ
खोनी शुरू हो
जाएगी।
क्योंकि जो
समझ में आ गया
है, वह जब
तक साधा न जाए,
तब तक आपके
प्राणों का
हिस्सा नहीं
हो सकता। जो
समझ में आ गया
है, जब तक
वह आपके खून, मांस, मज्जा
में सम्मिलित
न हो जाए, तब
तक वह ऊपर से
किए रंग—रोगन
की तरह उड़
जाएगा।
फिर, जो समझ
में आ गया है, उसके भीतर
आपकी पुरानी
सब समझ दबी
हुई पडी है।
जैसे ही यहां
से हटेंगे, वह भीतर की
सब समझ इस नई
समझ के साथ
संघर्ष शुरू कर
देगी। वह इसे
तोड़ने की, हटाने
की कोशिश
करेगी। इस नए
विचार को भीतर
प्रवेश करने
में पुराने
विचार बाधा
देंगे, अस्तव्यस्त
कर देंगे; हजार
शंकाएं, संदेह
उठाएंगे। और
अगर उन शंकाओं
और संदेहों में
आप खो जाते
हैं, तो वह
जो समझ की झलक
मिली थी, वह
नष्ट हो
जाएगी।
एक
ही उपाय है कि
जो बुद्धि की
समझ में आया
है, उसे
प्राणों की
ऊर्जा में
रूपांतरित कर
लिया जाए; उसके
साथ हम एक
तालमेल
निर्मित कर
लें। हम उसे
साधें भी, वह
केवल विचार न
रह जाए, वह
गहरे में आचार
भी बन जाए—न
केवल आचार, बल्कि हमारा
अंतस भी उससे
निर्मित होने
लगे। तो ही धीरे—धीरे,
जो ऊपर गया
है, वह
गहरे में
उतरेगा, और
साधा हुआ सत्य,
फिर आपके
पुराने विचार
उसे न तोड़
सकेंगे। फिर वे
उसे हटा भी न
सकेंगे।
बल्कि उसकी
मौजूदगी के
कारण पुराने
विचार धीरे—धीरे
स्वयं हट
जाएंगे और
तिरोहित हो
जाएंगे।
तो
यह बात ठीक है, साधक के
लिए सवाल ऐसा
उचित है। समझ
में आ जाता है,
फिर हम तो
वैसे ही बने
रहते हैं। अगर
हम वैसे ही
बने रहते हैं
तो जो समझ में
आया है, वह
ज्यादा देर
टिकेगा नहीं।
कहां टिकेगा?
किस जगह
टिकेगा न: आप
अगर पुराने ही
बने रहते हैं,
तो जो समझ
में आया है वह
जल्दी ही झड़ जाएगा,
भूल जाएगा,
विस्मृत हो
जाएगा।
ऐसे
तो बहुत बार
आपको समझ में
आ चुका है। यह
कोई पहला मौका
नहीं है। न
मालूम कितनी
बार आप सत्य
के करीब—करीब
पहुंच कर वापस
हो गए हैं। न
मालूम कितनी बार
द्वार
खटखटाना भर था, कि आप आगे
हट गए हैं और
दीवाल हाथ में
आ गई है। भूल
यहीं हो जाती
है कि जो
हमारी समझ में
आता है, उसे
हम तत्काल
जीवन में
रूपांतरित
नहीं करते हैं।
इस
संबंध में यह
बात खयाल लेने
जैसी है कि
अगर आपको कोई
गाली दे, तो आप
तत्काल क्रोध
करते हैं, और
आपको कोई समझ
दे, तो आप
तत्काल ध्यान नहीं
करते हैं। कुछ
बुरा करना हो
तो हम तत्काल
करते हैं, कुछ
भला करना हो
तो हम सोच—विचार
करते हैं। ये
दोनों मन की
बड़ी गहरी तरकीबें
हैं; क्योंकि
जो भी करना हो,
उसे तत्काल
करना चाहिए, तो ही होता
है। क्रोध
करना हो कि
ध्यान करना हो,
इससे कोई
फर्क नहीं
पड़ता। बुरा हम
करना चाहते
हैं इसलिए हम
तत्काल करते
हैं, एक
क्षण रुकते
नहीं; क्योंकि
रुके, तो
फिर न कर
पाएंगे।
कोई
गाली दे, उससे कह आएं
कि चौबीस घंटे
बाद आकर जवाब
दूंगा। फिर
कोई जवाब संभव
नहीं होगा।
चौबीस घंटा तो
बहुत लंबा
वक्त है, चौबीस
क्षण भी अगर
आप चुपचाप
विचार में
व्यतीत कर दें,
तो शायद
क्रोध करने का
मन नहीं रह
जाएगा। शायद
हंसी आ जाए।
शायद उस आदमी
की नासमझी पता
चले। या शायद
वह ठीक ही
गाली दे रहा
है, यह भी
पता चल जाए।
इसलिए समय
खोना उचित
नहीं है, जैसे
ही गाली की
चोट पड़े, तत्काल
उबल पड़ना
जरूरी है, फिर
पछताने का काम
पीछे कर
लेंगे।
आपने
खयाल किया है
कि सभी क्रोधी
पछताते हैं! क्रोध
करने के बाद
पछताते हैं।
अगर थोड़ी देर
रुक जाते, तो क्रोध
करने के पहले
ही पछतावा आ
जाता और क्रोध
कभी न होता।
जिसका पछतावा
क्रोध के बाद
आता है, वह
कभी क्रोध से
मुक्त नहीं हो
पाएगा; जिसका
पछतावा क्रोध
के पहले आ
जाता है, वही
मुक्त हो सकता
है। क्योंकि
जो हो चुका, वह हो चुका; उसे अनकिया
नहीं किया जा
सकता।
लेकिन
जगह कहां है? गाली दी
आपने, इधर
क्रोध भभका, दोनों के
बीच में स्थान
कहां है कि
मैं थोड़ा सोच
लूं? विचार
कर लूं!
विमर्श कर लूं;
देख लूं
अतीत के अपने
संकल्प न
मालूम कितनी
बार किए हैं
कि क्रोध न
करूंगा! खोज
लूं अतीत में,
कितनी बार
क्रोध करके
पछताया हूं!
उतना मौका नहीं
है; समय
नहीं है, स्थान
नहीं है। उधर
गाली, इधर
आग निकलनी
शुरू हो जाती
है। थोड़ी सी
जगह बनाएं, क्रोध
मुश्किल हो
जाएगा।
क्रोध
में तो नहीं
बनाते जगह, लेकिन
ध्यान में
थोड़ी जगह
बनाते हैं।
इसलिए ध्यान
भी मुश्किल हो
जाता है। जब
कोई शुभ और सही
और ठीक बात की
चोट पड़ती है, उसे उसी
क्षण करने में
हम नहीं लग
जाते, हम
राह देखते
हैं। वह जो
बीच का समय है,
वही
अस्तव्यस्त
कर देगा। गरम
लोहे पर चोट
मारनी चाहिए।
तो विचार करते
रहते हैं कि
चोट मारे या न
मारे? तब
तक लोहा ठंडा
हो जाता है।
फिर चोट भी
मारते हैं तो
कोई परिणाम
नहीं होता।
एक
मित्र आज आए
थे। वे कहते
हैं, संन्यास
लेना है।
लेकिन अभी और
थोड़ा समय चाहिए;
सोचना है।
मैंने उनसे
पूछा, और
कितनी बातों
के संबंध में
जीवन में सोचा
है? अगर और
बातों के
संबंध में
सोचा होता, तो संन्यास
कभी का फलित
हो गया होता; क्योंकि सोच—विचार
का अंतिम
परिणाम
संन्यास है।
जो भी आदमी
सोचेगा, विचारेगा,
इस जीवन में
भोग उसके लिए
व्यर्थ हो ही
जाने वाला है।
तो
मैंने उनसे
पूछा, और
कितना सोचा—विचारा
है? किस—किस
बात को सोच—विचार
कर किया है? या कि सिर्फ
संन्यास को
सोच—विचार कर
लेंगे? कितना
समय लगाएंगे
सोचने—विचारने
में? और आप
ही सोचेंगे न?
तो कल आप
सोचते हैं कि
आप कुछ ज्यादा
बुद्धिमान हो
जाएंगे न: तो
जरा पीछे लौट
कर देखें, बुद्धि
कम भला हो गई
हो, ज्यादा
होती मालूम
नहीं होती।
वैज्ञानिक
कहते हैं कि
चौदह साल और
अठारह साल के
बीच में आमतौर
से लोगों की
बुद्धि रुक
जाती है, फिर कभी
बढ़ती नहीं। यह
भी बहुत विशेष
लोगों की बात
है, अठारह
साल तक बुद्धि
जिनकी बढ़ती
हो। नहीं तो और
पहले रुक जाती
है।
पिछले
महायुद्ध में
अमरीका में
जांच—पड़ताल की
भर्ती के लिए
युद्ध के
सैनिकों की, तो औसत
बुद्धि की
उम्र साढ़े
तेरह वर्ष पाई
गई। औसत
बुद्धि का
साढ़े तेरह
वर्ष का आंकड़ा
तय हुआ कि
आमतौर से आदमी
की बुद्धि
साढ़े तेरह
वर्ष पर रुक
जाती है, फिर
कभी बढ़ती—बढ़ती
नहीं।
आप
कहेंगे कि यह
बात जंचती
नहीं।
क्योंकि आपको
लगता है कि जब
आप जवान थे, उससे के
होकर आप
ज्यादा
बुद्धिमान हो
गए हैं। भला
आपको न लगता
हो, लेकिन
अपने बेटों को
आप जंचवाते
रहते हैं कि ज्यादा
बुद्धिमान, मैं का आदमी,
अनुभवी, मेरे
पास बुद्धि
ज्यादा है।
बुद्धि
ज्यादा नहीं
है आपके पास, अनुभव
ज्यादा हो
सकते हैं।
अनुभव तो
संग्रह है।
बुद्धि उस
संग्रह का
उपयोग है, वह
अलग बात है।
बच्चे के पास
संग्रह कम
होता है, आपके
पास ज्यादा
है। मगर उस
संग्रह का जो
उपयोग है, उस
संग्रह का
कैसे उपयोग
करना, वह
बुद्धि है।
बुद्धि
संग्रह नहीं
है।
तो
यह भी हो सकता
है कि एक
बच्चे के पास
के से ज्यादा
बुद्धि हो, यह कभी
नहीं हो सकता
कि एक बच्चे
के पास के से ज्यादा
अनुभव हो, कभी
नहीं हो सकता।
अनुभव तो
बच्चे के पास
कम होगा ही, लेकिन
बुद्धि
ज्यादा हो
सकती है। बूढ़े
के पास अनुभव
ज्यादा होता
है, बुद्धि
ज्यादा नहीं
होती।
उन
मित्र से
मैंने कहा कि
कल आप सोचते
हैं, या
परसों, बुद्धि
थोड़ी ज्यादा
हो जाएगी? इतना
ही होगा कि
अभी इस विचार
की हवा में, अभी इस
ध्यान की तरंग
में, अभी
इतने
संन्यासियों
के आनंद और
मुक्त प्रभाव
में एक खयाल
उठा है मन
में। माउंट
आबू से नीचे
उतरते—उतरते,
जैसे—जैसे
आपकी बस नीचे
उतरने लगेगी,
वैसे—वैसे
इस खयाल से आप
भी नीचे उतरने
लगेंगे। माउंट
आबू रोड
स्टेशन तक यह
विचार टिक जाए,
कठिन है।
माउंट आबू रोड
स्टेशन पर उतर
कर आप ठंडी
गहरी सांस
लेंगे कि
अच्छा हुआ, जैसे के
तैसे वापस लौट
आए। कुछ खोया
नहीं, कुछ
गंवाया नहीं,
किसी झंझट
में न पड़े!
महीने भर बाद
आपको खयाल भी
नहीं आएगा।
वातावरण, अनेक
लोगों की
मौजूदगी, अनेक
लोगों का
सग्रिहक
प्रयास आपको
भी उठा देता
है एक ऊंचाई
पर, जिस पर
होना आपकी आदत
नहीं है। आप
नाच रहे हैं कीर्तन
में। आपको पता
है, अकेले
इस भाव से आप
नाच सकेंगे? आप कम नाच
रहे हैं, इतने
लोग नाच रहे
हैं, उनका
नाच संक्रामक
हो जाता है, वह आपको भी
छू लेता है।
उनकी तरंगें
आपके हृदय को
भी कंपाने
लगती हैं।
उनके पैरों की
गति आपके
पैरों को भी
उछलने का मौका
देने लगती है।
और फिर आपके
सदा के सोचने
का ढंग यह है
कि कोई क्या
कहेगा! और जहा
सभी लोग नाच
रहे हों, एक
बात पक्की है
कि नाचने वाले
से कोई कुछ
कहने वाला
नहीं है, खड़े
रहने वाले से
कोई कुछ भला
कहे। तो गति आ
जाती है, आप
मुक्त अनुभव
करते हैं कि
ठीक है, यहां
कोई अड़चन नहीं
है, यहां
नाचा जा सकता
है।
उतरेंगे
भीड़ में वापस
बाजार की, यह जो एक
ऊंचाई की झलक
मिली थी, एक
छलांग ली थी
और आकाश की
तरफ आंखें
उठाई थीं, वे
फिर जमीन की
तरफ लग
जाएंगी। तो
क्या आशा है कि
कल, परसों
आप निर्णय कर
सकेंगे!
निर्णय तो
आपको करना है,
वह आज भी
किया जा सकता
है।
पर
वे मित्र बोले
कि ऐसा भी
नहीं है कि
मैंने निर्णय
करने की कोशिश
नहीं की, निन्यानबे
परसेंट तो मन
बिलकुल तैयार
है, बस एक
परसेंट रह गया
है।
उनसे
मैंने पूछा कि
जिंदगी में और
भी कोई काम किया
है जिसमें
निन्यानबे
परसेंट मन
तैयार रहा हो
और एक परसेंट
तैयार न रहा
हो? कभी
रुके हैं इस
बात से? और
उनसे मैंने यह
भी पूछा कि
क्या आपको पता
है आप क्या कह
रहे हैं? जब
निन्यानबे
परसेंट मन
संन्यास लेने
को तैयार है’ और
एक परसेंट
नहीं लेने को
तैयार है, तो
आप एक परसेंट
के पक्ष में
निर्णय ले रहे
हैं!
यह
तो आप सोचना
ही. मत कि आप
निर्णय लेने
से बच सकते
हैं। निर्णय
लेने से बचने
का इस जगत में कोई
उपाय ही नहीं
है। चाहे आप न
लेने का लें, वह भी
निर्णय है।
रोकने का लें
कि कल लेंगे, वह भी
निर्णय है।
दुनिया में
आपके लिए
चुनाव की
स्वतंत्रता
है कि आप क्या
निर्णय लें, इसकी कोई
स्वतंत्रता
नहीं है कि आप
निर्णय ही न
लें। इसका कोई
उपाय ही नहीं
है। निर्णय तो
लेना ही
पड़ेगा।
लेकिन
एक मजे की बात
है कि न करने
के निर्णय को हम
निर्णय नहीं
समझते हैं, यह बड़ी
अदभुत बात है।
उनको खयाल में
भी नहीं था कि
नहीं लूंगा
संन्यास, यह
भी निर्णय है।
लूंगा, यह
भी निर्णय है।
अगर दोनों
निर्णय हैं, तो बड़ा
अदभुत मन है
कि एक परसेंट निर्णय
के साथ रुकता
है और
निन्यानबे
परसेंट के साथ
जाने की
हिम्मत नहीं
जुटाता है!
हम
अपने को धोखा
देने में बड़े
कुशल हैं। ऊपर
बुद्धि को समझ
में आ जाता है
संन्यास, तो हम डरते
भी हैं। हम
सोचते हैं, थोड़ा वक्त
मिल जाए। वक्त
इसलिए नहीं कि
हम सोच लेंगे,
वक्त इसलिए
कि यह प्रभाव
क्षीण हो
जाएगा। और वह
जो निन्यानबे
परसेंट है वह
एक परसेंट रह
जाएगा, और
जो एक परसेंट
है वह
निन्यानबे
परसेंट हो जाएगा।
और जब
निन्यानबे
परसेंट था तब
हमने नहीं निर्णय
लिया संन्यास
का, तो जब
एक परसेंट
होगा तब हम
लेने वाले हैं?
तो
आपकी समझ, चूंकि आप
उसे
रूपांतरित
नहीं करते, निर्णय नहीं
बनाते, डिसीजन
नहीं बनाते, कभी गहरी
नहीं जा सकती
है। इसे ठीक
से खयाल में
ले लें। बहुत
बार सुन लेंगे,
समझ लेंगे,
फिर वैसे के
वैसे रह
जाएंगे।
बल्कि इसका एक
खतरा भी है कि
जब बहुत बार
सुन—सुन कर, समझ—समझ कर
आप वैसे के
वैसे रह जाते
हैं, तो
धीरे—धीरे आप
चिकने घड़े हो
जाते हैं, क्योंकि
इतनी चीजें
फिसलती हैं आप
पर से तो चिकनाहट
पैदा होती है।
इतने विचार आप
पर गिरते हैं
और आप वैसे ही
रह जाते हैं!
और विचार गिर
जाते हैं नीचे
और घड़ा अपनी
जगह बैठा रहता
है! घड़ा चिकना
हो जाता है।
तो जितनी बार आप
ऐसी बातें सुन
कर वैसे के
वैसे रह जाते
हैं, उतना
कठिन होता जा
रहा है, क्योंकि
तब बात गिरेगी
नहीं कि फिसल
जाएगी नीचे।
घड़ा बिलकुल
चिकना हो गया
है, रास्ते
बन गए हैं
फिसलने के।
अच्छा
है, अच्छी
बात ही न
सुनें। सुनें,
तो हिम्मत
करें और अपने
को बदलने का
निर्णय लें।
तब आपको लगेगा
कि जो समझ में
आया था, वह
ऊपर—ऊपर नहीं
रहा, प्राणों
का स्वर बन
गया है। और
जिस दिन श्वास—श्वास
में न समा जाए
समझ, उसका
कोई भी मूल्य
नहीं है। उसका
एक ही मूल्य है
कि आप अच्छी
बातें करना
सीख जाएं। हम
सभी जानते हैं,
और हमारा
मुल्क तो इतना
कुशल है अच्छी
बातें करने
में! अध्यात्म
तो हमारी जबान
पर रखा है! बस
जबान पर ही
रखा है, उससे
भीतर कहीं
नहीं है। किसी
से भी पूछ लें,
ब्रह्मज्ञान
तो कोई भी
जानता है! कोई
भी जानता है!
हमारे पूरे
देश की
व्यवस्था, मन
की, चिकने
घड़े की हो गई
है। हजारों—हजारों
साल से
तीर्थंकरों, अवतारों, ऋषियों का
हमने एक ही
उपयोग किया
है. कि सुन—सुन
कर हम चिकने
घड़े हो गए
हैं।
मुझसे
कोई पूछता था, मैं एक
गांव में था, और मुझसे वह
कहने लगा आदमी
कि यह भारत
बड़ी पुण्य—भूमि
है, सारे
अवतार यहीं
हुए, सारे
तीर्थंकर
यहीं हुए, सारे
बुद्ध यहीं
हुए!
मैंने
कहा कि तू फिर
से सोच, यह पुण्य—भूमि
है कि यहां
पापी बड़े
अदभुत हैं कि
इतने सब हुए
फिर भी वे
बिना बदले
बैठे हैं? कि
सब अवतार गए, हमारे चिकने
घड़े पर लकीर न
खींच पाए! कि
सब तीर्थंकर
आए, हमने
कहा कि आओ और
जाओ! हम उनमें
से नहीं हैं
कि बातों में
आ जाएं!
क्या, मतलब
क्या होता है
न: एक घर में
अगर गांव भर
के डाक्टर आएं
तो इसका मतलब
है कि गाव में
वही घर सबसे
ज्यादा बीमार
है। सारे
अवतारों को
यहीं पैदा
होना पड़े! और
कृष्ण ने कहा
है गीता में
कि जब धर्म की
ग्लानि बढती
है, और जब
पाप बढ़ जाता
है, और जब
दुष्टजन बढ़
जाते हैं, तब
मैं आता हूं।
और सब अवतार
यहीं आए। तो
मतलब क्या है?
पुण्य—भूमि
है?
अगर
कृष्ण का
वाक्य सही है, तो जहा
उनको नहीं
जाना पड़ा, पुण्य—भूमि
वहा हो सकती
है। लेकिन
सबको चुकता यहां
आना पड़ा! बात
जाहिर है कि
इस मुल्क की
आत्मा बिलकुल
चिकनी हो गई
है।
हमने
इतनी अच्छी
बातें सुनी
हैं और सुन—सुन
कर हम ऐसे
तल्लीन हो गए
हैं कि करने
की हमने कभी
फिक्र ही नहीं
की है।
समझ
आपकी तब तक
गहरी न हो
पाएगी, पूरी न हो
पाएगी, जब
तक समझ आपकी
अंतरात्मा
में प्रविष्ट
नहीं होती। और
आप कोई निर्णय
लें, तो ही
समझ अंतस में
प्रविष्ट होती
है। निर्णय
द्वार है।
छोटे से
निर्णय भी बड़े
क्रांतिकारी
हैं। किस बात
का निर्णय
लिया, यह
बहुत मूल्य का
नहीं है, निर्णय
लिया। इस लेने
में ही आपके
प्राण इकट्ठे
हो जाते हैं, एकजुट हो
जाते हैं।
निर्णय लेते
ही आप दूसरे आदमी
हो जाते हैं।
वह निर्णय
बिलकुल
क्षुद्र भी हो
सकता है।
मैं
आपसे कहता हूं
कि दस मिनट
खीसें भी
नहीं। बड़ी
अमानवीय बात
मालूम पड़ती है; आपको
खांसी आ रही
है और मैं
खांसने तक
नहीं देता!
दुष्टता
मालूम पड़ती
है। सभा में
आप बैठे हैं, मैं आपको
कहता हूं, खीसें
मत, बिलकुल
खांसी बंद
रखें।
पर
आपको खयाल में
नहीं है, इतना छोटा
सा निर्णय भी
आपके भीतर
आत्मा का जन्म
बनता है : दस
मिनट नहीं
खांसूगा! और
अगर इसमें आप
सफल हो गए, तो
एक खुशी की
लहर रोएं—रोएं
में फैल जाती
है, आपको
पता चलता है
कि मैं कोई
निर्णय लूं तो
पूरा कर सकता
हूं।
खांसी, छींक बड़ी
गड़बड़ चीजें
हैं। उनको रोको
तो और जोर से
आती हैं। रोको
तो सारा ध्यान
उन्हीं पर
केंद्रित हो
जाता है। रोको
तो खांसी भी
बगावत करती
है। वह कहती
है, ऐसा तो
कभी नहीं
किया! यह क्या
नया ढंग सीख
रहे हैं? यह
क्या बात है? यह तो अपना
कभी संबंध
नहीं रहा ऐसा
कि मैं आऊं और
आप रोकें! यह
तो मैं न भी
आऊं, दूसरे
को आ रही हो, तो आप खास
लेते थे! आपको
न भी हो, तो
दूसरे की भी
पकड़ लेते थे!
यह क्या हुआ
है?
लेकिन
अगर दस मिनट
भी आप बिना
खांसे रुक
जाते हैं, तो आपके
और शरीर के
बीच का संबंध
इस छोटी सी बात
से भी बदल रहा
है।
जैसे
मैं आपसे कहता
हूं रुक जाएं।
गुरजिएफ इसका
बड़ा प्रयोग
करता था ध्यान
में। उसने इसके
लिए स्टाप
मेडीटेशन ही
नाम दे रखा
था। आप राजी
हो जाएंगे
थोड़े समय में, तो उस
प्रयोग को हम
पूरा करेंगे।
जब मैं आपसे कहता
हूं रुक जाएं,
तो मेरे इस ’रुक
जाने' में,
अभी मैं आप
पर ज्यादा जोर
नहीं दे रहा
हूं। गुरजिएफ
भी कहता था, रुक जाएं!
लेकिन रुक
जाने का मतलब
था—जैसे हैं, एक पैर ऊपर
है और एक पैर
नीचे है, नाच
रहे थे—तो वह
वहीं रह जाए।
गर्दन आड़ी है
तो वैसी रह जाए,
शरीर झुका
है तो वैसा रह
जाए। फिर जरा
भी कोई फर्क
नहीं करना है;
जो हालत है,
वैसी रह
जाए। चाहे
शरीर धड़ाम से
गिर जाए, पर
आपको कुछ फर्क
नहीं करना है;
शरीर गिरे
तो गिर जाए।
और जैसा गिर
जाए, वैसा
ही रहने देना
है; आपको
भीतर से
इंतजाम नहीं
करना है कि
पैर जरा तिरछा
है तो थोड़ा सा
सीधा करके लेट
जाएं—न।
तो
गुरजिएफ इसको
स्टाप
मेडीटेशन
कहता था। और उसने
हजारों लोगों
को इससे गहरे
अनुभव करवाए।
और यह बड़ा
कीमती प्रयोग
है, क्योंकि
एकदम से रुक
जाना! और धोखा
देने में दूसरे
को कोई सवाल
नहीं है, आप
अपने को दे
सकते हैं।
आपका एक पैर
जरा ऊपर था, आप धीरे से
नीचे रख लें
तो कौन देख
रहा है? बाकी
आप खो गए एक
मौका। कोई
नहीं देख रहा
है, किसी
को मतलब भी
नहीं है, आपका
पैर है, कहीं
भी रखिए। मगर
आपने भीतर एक
अवसर खो दिया,
जहां आत्मा
और शरीर का
संबंध बदल
सकता था, जहा
आत्मा जीत
सकती थी और कह
सकती थी कि
मैं मालिक
हूं। अगर आपने
धीरे से पैर
रख लिया संभाल
कर और फिर
आराम से खड़े
हो गए कि अब
देखो स्टाप का
प्रयोग कर रहे
हैं, तो आप
किसी और को
धोखा नहीं दे
रहे हैं, आपके
शरीर ने आपको
धोखा दै दिया।
छोटे—छोटे
निर्णय, बहुत छोटे—छोटे
निर्णय भी बड़े
परिणामकारी
हैं। छोटे से
कोई संबंध
नहीं है, निर्णय
से संबंध है, डिसीसिवनेस,
निर्णायक
बुद्धि। तो
आपकी समझ धीरे—
धीरे गहरी उतर
जाएगी।
तो
जो मैं कह रहा हूं, उसे
सिर्फ सुन न
लें, उसे
थोड़ा प्रयोग
करें। उपनिषद
बड़े व्यावहारिक
पाठ हैं। इनका
सिद्धात से
कोई संबंध
नहीं है। इनका
आपको बदलने, रूपांतरित
करने की
कीमिया से
संबंध है। ये
तो सीधे सूत्र
हैं, जिनसे
नए मनुष्य का
निर्माण हो जाता
है।
लेकिन
कठिनाई यही है
कि कोई दूसरा
छैनी—हथौड़ी
लेकर आपका निर्माण
नहीं कर सकता।
आप ही मूर्तिकार
हैं, आप
ही पत्थर हैं,
आप ही छैनी—हथौड़ी
हैं; तीनों
काम आपको ही
करने हैं।
अपने ही पत्थर
को, अपने
ही निर्णयों
की छैनी—हथौड़ी
से, अपने
ही संकल्प की
शक्ति से काटना
है, छांटना
है। अपनी ही
समझ के अनुसार
अपनी मूर्ति
को निर्मित
करना है।
इसमें क्षण भर
का भी स्थगन सदा
के लिए स्थगन
हो जाता है।
जिसने कहा कल
करेंगे, वह
फिर कभी भी
नहीं करता है।
और अच्छा होता
कि वह कहता कि
कभी नहीं
करेंगे, वह
भी एक निर्णय
होता।
तो
वे मित्र आए
तो मैंने उनसे
कहा कि यही
निर्णय कर लो
कि संन्यास
कभी न लेंगे—कभी; तो भी
फायदा होगा।
पर तुम कहते
हो कि सोचेंगे,
लेंगे कि
नहीं लेंगे, यह
इनडिसीसिवनेस....।
नहीं लेंगे, यही पक्का
कर लो, तो
भी कुछ निर्णय
तो किया।
लेंगे तो
पक्का कर लो, तो कोई
निर्णय किया।
नहीं लेंगे, यह भीतर की
स्थिति है, लेकिन इसको
भी साफ नहीं
होने देते।
इसको भी कहते
हैं कि नहीं, लेंगे जरूर,
थोड़ा समय।
इस तरह अपने
को धोखा दे
जाते हैं।
संन्यास
एक निर्णय है, एक
संकल्प है।
परिणामकारी
है। लोग मुझसे
पूछते हैं, क्या होगा
गेरुए वस्त्र
पहन लेने से? मैं उनसे
कहता हूं, कुछ
भी न होगा! तो
तीन महीने पहन
डालो! वे कहते
हैं, लोग
हंसेंगे। तो
इतना तो कम से
कम होगा। और
तुम लोगों के
हंसने को तीन
महीने तक शांति
से झेलना, तो
बहुत कुछ हो
जाएगा। लोग
हंसेंगे, इसकी
फिक्र ही
छोड़ना, बहुत
कुछ हो जाने
की शुरुआत हो
जाती है। लोग
मुझसे कहते
हैं, बाहर
की बदलाहट से
क्या होगा? आप तो भीतर
की बदलाहट बता
दें।
मैं
उनसे कहता हूं, बाहर तक
की बदलाहट की
हिम्मत
तुम्हारी
नहीं, तुम
भीतर की
बदलाहट की
बातें कर रहे
हो! कपड़े बदलने
में प्राण
छूटते हैं, चमड़ी अगर
बदलने लगता तो
मुश्किल
पड़ेगी। और
भीतर की तुम
बातें कर रहे
हो?
लेकिन
हम धोखा देने
में कुशल हैं।
हम अपने को धोखा
देने में कुशल
हैं। और जो
आदमी अपने को
धोखा दे रहा
है, वह
कभी धार्मिक
नहीं हो सकता।
खयाल रहे, दूसरों
को धोखा देने
वाला धार्मिक
हो सकता है, खुद को धोखा
देने वाला
धार्मिक नहीं
हो सकता। क्योंकि
फिर कोई
रास्ता ही
नहीं बचता है।
एक
और मित्र ने
पूछा है :
अच्छे कर्म
बुरे कर्मों
को काटते नहीं
हैं बल्कि उन
पर आच्छादित
हो जाते हैं, इसलिए
बुरे तथा
अच्छे सभी
कर्मों का फल
भोगना अनिवार्य
है। क्या बुरे
कर्म तथा
अच्छे कर्म क्रम
से फल देते
हैं या बिना क्रम
के फल देते
हैं? यदि
बुरे कर्मों
का क्षय अच्छे
कर्मों से नहीं
किया जा सकता,
तब अच्छे
कर्म करने का
कोई औचित्य
नहीं हो सकता।
क्या यह
सिद्धात समाज
के लिए उपयोगी
है?
इसे
थोड़ा सा खयाल
में ले लें।
बुरे कर्मों
का क्षय अच्छे
कर्मों से
नहीं किया जा
सकता, तो
उन मित्र को
ऐसी चिंता लगी
होगी कि फिर
कोई अच्छा
कर्म करेगा ही
क्यों! और तब
तो समाज के
लिए बड़ा खतरा
हो जाएगा!
बात
बिलकुल उलटी
है। आपको अगर
पता है कि
बुरे कर्म
अच्छे कर्म से
काटे जा सकते
हैं, तो
आप बुरे कर्म
मजे से किए
जाते हैं, क्योंकि
कभी भी अच्छा
कर लेंगे और
काट लेंगे।
दवा हाथ में
है, तो
बीमारी से डर
क्या है!
गंगास्नान कर
लेंगे, सब
कर्म धुल
जाएंगे! किसी
साधु—संत का
आशीर्वाद ले
लेंगे, सब
कर्म धुल
जाएंगे! चोरी
की है, दान
कर देंगे—उसी
पैसे से! और तो
पैसा है भी
कहा! बड़ा चोर
बडा दानी हो
जाएगा, लाख
चुराका, दस
हजार दान
करेगा! चोरी
में डर नहीं
है फिर कोई, क्योंकि दान
से हम चोरी को
काट लेंगे।
किसी की हत्या
कर देना, फिर
एक बच्चे को
जन्म दे देना!
एक जीवन लिया,
एक दे दिया!
यह
दुनिया इतनी
बुरी सिर्फ
इसलिए है कि
आपको यह पक्का
पता है कि
बुरा भी कट
जाता है। जब
मैंने आपसे कहा
कि बुरे को
काटने का कोई
भी उपाय नहीं, अच्छा
कर्म भी बुरे
कर्म को नहीं
काटेगा, तो
आपको बुरा
कर्म करते
वक्त पुन:
सोचना होगा कि
जो नहीं कट
सकता है और
जिसे भोगना ही
पड़ेगा अनिवार्यतया,
जिसमें कोई
उपाय नहीं है,
न कोई अच्छा
कर्म साथ देगा,
न दान—पुण्य
साथ देगा, न
गंगा, न
तीर्थ, न
गुरु, न
भगवान, कोई
आशीर्वाद साथ
न देगा, जो
किया है, वह
मुझे भोगना ही
पड़ेगा।
तो
करते वक्त
आपको ठीक से
सोच लेना है, क्योंकि
यह बात आखिरी
हुई जा रही है,
इसमें अब
कोई उपाय नहीं
है। इसमें ऐसा
नहीं है कि
रोके भगवान के
सामने कि हम
तो पतित हैं
और तुम
पतितपावन हो,
तो कुछ करो।
हमारा कुछ न
बिगड़ेगा, तुम्हारा
नाम बदनाम
होगा कि तुम
पतितपावन हो।
और हम तो
इसीलिए करते
रहे पाप, कि
न. करेंगे पाप
तो तुम
पतितपावन
कैसे रहोगे! तो
अब दिखाओ अपना
पतितपावन
रूप।
एक
महिला परसों
मेरे पास
पहुंच गई। भीड़
थी बहुत, उस भीड़ में
उसने एकदम से
कहा कि
आशीर्वाद
दीजिए। तो
मैंने कहा, अच्छी बात।
दूसरे दिन वह
वापस आ गई!
उसने कहा, आशीर्वाद
फलेगा तो न:
क्योंकि
अच्छे
महात्मा जो
होते हैं, उनका
आशीर्वाद
फलता है! आपने
आशीर्वाद
दिया था।
मैंने कहा, यह तो
मुश्किल
मामला दिखता
है। दिखता है,
मुझे तू
अदालत में ले
जाएगी! मुझे
पता भी तो चले
कि मामला क्या
है? किस
मामले में
तेरा
आशीर्वाद
फलवाना है?
तो
उसने कहा, लेकिन
आपको खयाल
होना चाहिए कि
अच्छा महात्मा
तो जब भी
आशीर्वाद
देता है तो
फलता ही है।
तो
मैंने कहा, इसमें एक
उपाय है मेरे
लिए कम से कम, अदालत मुझे
नहीं जाना पड़ेगा।
न फले, तो
समझना कि न
मैं अच्छा था,
न महात्मा
था—बात खतम हो
गई। इसमें एक
सुविधा मेरे
लिए तूने बना
दी कि न फले—अब
मुझे पूछना भी
नहीं कि तुझे
क्या चाहिए था—तों
समझ लेना कि
अच्छा भी नहीं
था, महात्मा
भी नहीं था, बात खतम हो
गई।
इसे
हम धार्मिक मन
कहते हैं। उस
महिला का खयाल
है, वह
धार्मिक है!
इस
जगत में नियम
हैं, इस
जगत में एक आंतरिक
अनुशासन है।
जिसको हमने ऋत
कहा है वेदों
में, लाओत्से
ने जिसे ताओ
कहा है। उसमें
कोई अंतर नहीं
पड़ता, उसमें
कोई अपवाद
नहीं होते।
कर्म आप जो
करेंगे, वह
आपको भोगना ही
पड़ेगा—यह
विचार अगर गहन
हो जाए, तो
आपको कर्म की
धारा बदलनी
पड़ेगी। और यही
सत्य है। यह
सत्य स्पष्ट
हो जाए, तो
समाज के लिए
उपयोगी होगा।
आप
कितने दिन से
समझा रहे हैं
लोगों को, समाज
बदलता तो
दिखाई पड़ता
नहीं, पाप
बढ़ते जाते हैं
उलटे।
क्योंकि
सुविधा का खयाल
है हमें कि
कोई उपाय बाहर
निकलने का है।
अगर मैं एक पाप
करता हूं, तो
उस पाप के भवन
में प्रवेश का
द्वार ही नहीं
है, एग्जिट
भी है, उससे
निकला जा सकता
है। तो घुसने
में इतना कोई
डर नहीं है।
मैंने
जो आपसे कहा, उसका
मतलब यह कि
एग्जिट नहीं
है, आपको
भोगना ही
पड़ेगा। भोग कर
ही बाहर निकल
सकते हैं।
काटने का उपाय
नहीं है, भोगना
ही काटना है।
एक ही निर्जरा
है कि उसे भोग
लेना पड़ेगा, तो वह कट
जाएगा। और कोई
निर्जरा नहीं
है उसकी।
और
दूसरी बात
उन्होंने कही
कि फिर अच्छे
कर्म करने का
औचित्य क्या
रह जाता है g:
तो
उनके प्रश्न
से भी जाहिर है
बात कि अच्छे
कर्म का
औचित्य उनकी
नजर में भी
बुरे को काटने
के लिए ही है।
वे पूछते हैं
कि अगर आप ऐसा
कहते हैं तो
फिर अच्छे
कर्म का औचित्य
ही नहीं रह
जाता।
मतलब
एक ही औचित्य
था अच्छे कर्म
का कि बुरे कर्म
को काटे। अगर
बुरा कर्म
नहीं कटता है
तो औचित्य ही
खतम हो गया।
तो उनके
प्रश्न से भी
जाहिर है, जो मै कह
रहा हू र कि
उनका चित्त भी
यही मानता है
कि अच्छे कर्म
का एक ही
औचित्य है, दान का एक ही
औचित्य है कि
चोरी को काटो।
तब तो चोरी
महत्वपूर्ण
हो गई और दान
गौण हो गया।
और अगर दुनिया
में चोरी न हो
तो दान असंभव
हो जाएगा।
इसलिए एक
तथाकथित
विचारशील
व्यक्ति, करपात्री
ने, अपनी
एक किताब में
कहा है कि अगर
समाजवाद आ जाएगा
तो धर्म का
बड़ा हास होगा
क्योंकि न
होगा कोई गरीब,
तो दान
किसको देंगे? इसलिए गरीब
रहना चाहिए, ताकि दान
दिया जा सके।
और दान के
बिना तो मोक्ष
है नहीं! समझे
मतलब आप इसका?
इसका मतलब
हुआ कि नर्क
रहना चाहिए, भूखा आदमी
सड़क पर होना
चाहिए। न होगा
भूखा, रोटी
किसको
दीजिएगा न: और
किसी ने रोटी
आपकी दान की न
ली, तो
फंसे आप, मोक्ष
कहां से
मिलेगा?
तो
आपके अच्छे
कर्म का
औचित्य बुरे
कर्म पर निर्भर
है? उसके
कटने पर? तब
तो इसका मतलब
हुआ कि अच्छा
आदमी बुरे
आदमी का शोषण
कर रहा है, और
अच्छा कर्म
बुरे कर्म की
छाती से फायदा
ले रहा है, खून
पी रहा है।
अच्छे
कर्म का
औचित्य बुरे
कर्म को काटना
नहीं है। बुरे
कर्म का
औचित्य है
उसके दुख में, अच्छे
कर्म का
औचित्य है
उसके सुख में।
अच्छे कर्म से
सुख मिलता है,
वह उसका
औचित्य है। जो
सुख चाहता है,
वह अच्छा
कर्म करता है।
और जो सोचता
है कि बुरा
कर्म करके सुख
पा लूंगा, वह
नासमझी करता
है। वह नियम
के प्रतिकूल
जा रहा है, वह
दुख पाएगा।
अच्छे
कर्म का
औचित्य है
उसके फल में, बुरे
कर्म का
औचित्य है
उसके फल में—या
अनौचित्य, जो
भी कहें। बुरे
कर्म में
अच्छे कर्म का
औचित्य कैसे
हो सकता है, उनका कोई
संबंध नहीं
है। अच्छा
कर्म फल लाता
है, वह है
सुख, बुरा
कर्म फल लाता
है, वह है
दुख। और अगर
हम यह ठीक से
समझा सकें, और यह बात
गहरी बैठ जाए
चित्त में, कि जिसे भी
सुख चाहिए उसे
अच्छे कर्म की
यात्रा करनी
चाहिए, तो
समाज का फायदा
होगा। और जिसे
दुख चाहिए, वह बुरे
कर्म की
यात्रा करे।
और बुरे कर्म
की यात्रा जो
कर रहा है, उसे
दुख का फल
भोगना ही
पड़ेगा। फिर वह
पीछे यह कहने
लगे कि मैं
थोड़ा अच्छा कर
लेता हूं? इससे
मैं लीप—पोत
दूंगा बुरे को,
यह नहीं हो
सकता।
यानी
इसे ऐसा समझिए
कि मैंने आपको
गाली दी, तो मैंने
आपको चोट
पहुंचाई, दुख
पहुंचाया। वह
दुख तो घटित
हो गया। फिर
मैंने माफी मांगी
और आपको सुख
पहुंचाया।
क्या आप सोचते
हैं कि मैंने
माफी मांग कर
जो सुख
पहुंचाया, उससे
वह जो दुख हुआ
था, वह नहीं
हुआ? वह हो
चुका। वह दुख
तो हो चुका, आपको मैंने
जो चोट
पहुंचाई, वह
दुख तो हो
चुका। अब चोट
पहुंचा कर जो
मैंने मलहम—पट्टी
की, यह दुख
को नहीं
मिटाती, सिर्फ
उस चोट के ऊपर
मलहम—पट्टी
करती है।
मैंने
गाली दी, मैंने एक
बुरा कर्म कर
लिया, गाली
देकर मैंने भी
दुख पा लिया।
मैंने माफी
मांगी, मैंने
अच्छा कर्म
किया, अच्छा
कर्म करके
मैंने भी सुख
पा लिया। बुरा
दुख में ले
जाता है, अच्छा
सुख में ले
जाता है।
अच्छा जितना
ज्यादा होता
है, उतना
सुख बढ़ जाता
है, बुरा
जितना ज्यादा
होता है, उतना
दुख बढ़ जाता
है। जिस आदमी
को सुख में रहना
है, उसे
धीरे—धीरे
बुरे को नहीं
करना है और
अच्छे को करते
जाना है।
लेकिन
धर्म का संबंध
सुख से भी
नहीं है।
क्योंकि दुख
से बचना तो हम
सबके मन की आकांक्षा
है, सामान्य।
जब तक आप दुख
से बचने की आकांक्षा
से भरे हैं, तब तक आप
साधारण आदमी
हैं, धार्मिक
नहीं। अभी तो
आपकी चाह सुख
की है। यही
औचित्य है
अच्छे कर्म का
कि आपसे कहा
जाए, अच्छा
कर्म करिए; सुख चाहते
हैं, सुख
मिलेगा। और
दुख चाहते
नहीं हैं, बुरा
कर्म मत करिए,
इससे दुख
मिलेगा। अगर
बुरे और दुख
की अनिवार्यता
ऐसे ही दिखाई
पड़ जाए, जैसे
आग में हाथ
डालने से जलता
है, तो
लोगों के हाथ
आग में जाने
से रुक
जाएंगे। अगर
अच्छे कर्म के
और सुख का
संबंध ऐसे ही
जोड़ दिया जाए
कि हाथ में
फूल आने से
जैसे सुगंध
आती है, अगर
यह इतना साफ
हो जाए, तो
लोग अच्छे
कर्म में उतर
जाएंगे।
लेकिन
धर्म का इससे
कोई अभी संबंध
नहीं है। अभी
यह नीति है, अभी यह तल
समाज की
नैतिकता का
है। लेकिन जो
आदमी सुख का
अनुभव करता है,
धीरे— धीरे
उसे पता चलता
है एक नई बात
का, कि दुख
तो व्यर्थ है
ही, सुख भी
व्यर्थ है।
दुख तो दुख
देता ही है, जब सुख पूरी
तरह मिलता है,
तो वह भी
दुख देने लगता
है, सुख
नहीं देता।
उससे भी ऊब
पैदा हो जाती
है। सुख का जो
दुख है, वह
है ऊब, बोर्डम।
आपने
कभी किसी
जानवर को ऊबा
हुआ देखा है, बोर्ड? कि कोई गधा
खड़ा हो और
दिखाई पड़ जाए
कि ऊबे हुए खड़े
हैं? कि
कोई भैंस खड़ी
हो और ऊबी हुई
खड़ी है?
न, आदमी को
छोड़ कर जमीन
पर कोई जानवर
ऊबता ही नहीं,
सिर्फ आदमी
ऊबता है।
क्यों? क्योंकि
जानवर निरंतर
अपनी सामान्य
जीवन की सुविधा
जुटाने में ही
व्यतीत हो
जाता है, उसे
कभी इतना सुख
अर्जित नहीं
हो पाता कि ऊब
जाए। ऊब का
संबंध सुख, बहुत सुख हो,
तो ही ऊब
आती है।
इसलिए
गरीब आदमी भी
ऊबा हुआ नहीं
दिखाई पड़ता, अमीर
आदमी ऊबा हुआ
दिखाई पड़ता
है। अमीर आदमी
का चेहरा देखो
तो ऊबा हुआ रहता
है; कुछ
सार नहीं, ऐसा
मालूम पड़ता है;
खींचे जा
रहे हैं, कुछ
मतलब नहीं
लेकिन। गरीब
आदमी के पैर
में गति होती
है, चाहे
पैर में ताकत
न हो; खून
भला कम हो, ताकत
भला कम हो, लेकिन
गति होती है।
कहीं पहुंचने
का लक्ष्य होता
है और आशा
होती है। और आंखों में आशा
की झलक होती
है. कल एक मकान
बन जाएगा, परसों
एक दुकान खुल
जाएगी, बेटा
पढ़ लेगा, बड़ा
स्वर्ग मालूम
होता है
भविष्य में।
जिनका बेटा पढ
कर घर आ गया है,
वे जानते
हैं कि बेटा
घर जब पढ़ कर
आता है तो
क्या मतलब
होता है, कैसा
दुख लाता है!
जिनके महल बन
गए हैं, अब
उनको पता चलता
है कि यह महल
तो कारागार हो
गए। जब सुख
पूरा मिल जाता
है, तब
पहली दफा पता
चलता है कि
इससे भी ऊब
रहे हैं हम।
मन सुख से भी
ऊबता है।
इसीलिए
बुद्ध और
महावीर और
कृष्ण और राम
राजाओं के
घरों में पैदा
हुए। गरीब के
घर में पैदा
होकर कोई
तीर्थंकर और
अवतार नहीं हो
पाता है। उसका
कारण है, क्योंकि ऊब
ही नहीं पाता
सुख से।
जैनियों के चौबीस
तीर्थंकर
राजाओं के
बेटे हैं, बुद्ध,
राम, कृष्ण,
सब राजाओं
के बेटे हैं।
कारण है। राजा
के घर में ही पता
चलता है कि
चीजें सब
व्यर्थ हैं।
हों तभी तो
पता चलेगा, हों ही न तो
पता कैसे
चलेगा?
बुद्ध
को अगर पता
चला कि स्त्री
देह में कुछ भी
नहीं है, तो उसका
कारण यह था कि
बुद्ध के पिता
ने, उनके
राज्य में
जितनी सुंदर
लड़कियां थीं,
सब बुद्ध के
हरम में
इकट्ठी कर दी
थीं। तो पता
चला कि कुछ
सार नहीं है।
असार तो तभी
पता चलेगा जब
आपके पास
मौजूद हो कोई
चीज।
इसलिए.
आज अमरीका
सबसे ज्यादा
ऊबा हुआ है।
और भाग रहा है
सारी दुनिया
में अमरीका का
जवान लड़का और
जवान लड़की, कि कहीं
ऊब से छुटकारा
हो जाए; कहीं
भी—चाहे गांजा
हो, अफीम
हो, मारिजुआना
हो—कुछ भी हो।
कोई तरकीब
मिले कि यह जो
ऊब है, यह
मिट जाए।
सुख
से जब ऊब पैदा
होती है और
प्राण जब इस
आकांक्षा से
भर जाते हैं
कि अब हम सुख
के ऊपर कैसे जाएं, तब धर्म
का जन्म होता
है। तो अच्छे
कर्म के औचित्य
दो हुए : एक, अच्छे
कर्म का फल
सुख है। इसलिए
जो लोग बिना
धार्मिक हुए
भी सुख की आकांक्षा
करते हैं—सभी
करते हैं; नास्तिक
हों, अधार्मिक
हों, हिंदू
हों, मुसलमान
हों, कोई
भी हों—जो लोग
सुख की आकांक्षा
करते हैं, अच्छे
कर्म का
औचित्य यह है
कि अच्छे कर्म
से सुख मिलता
है, वह
उसका परिणाम
है। और अच्छे
कर्म का दूसरा
औचित्य यह है
कि जब सुख मिल
जाता है, तब
सुख की
व्यर्थता
दिखाई पड़ती
है। और जब सुख व्यर्थ
होता है तो
आदमी धर्म की
यात्रा पर निकलता
है।
धर्म
की यात्रा का
अर्थ है, सुख से भी
कैसे छुटकारा
हो? दुख से
कैसे छुटकारा
हो, यह
संसार की
यात्रा, और
सुख से भी
कैसे छुटकारा
हो, यह
मोक्ष की
यात्रा। अब हम
सूत्र को लें
'प्रारब्ध
कर्म तो उसी
समय सिद्ध
होता है, जब
देह के ऊपर
आत्म—बुद्धि
होती है। पर
देह के ऊपर
आत्म— भाव
रखना तो कभी
इष्ट नहीं, इसलिए देह
के ऊपर की
आत्म—बुद्धि
को तज कर
प्रारब्ध
कर्म का त्याग
करना।’
कर्म
तो पकड़ता ही
हमें तब है, जब हम
मानते हैं कि
यह शरीर मेरा
है। इसका अर्थ
हुआ कि कर्म
शरीर को पकड़ता
है, हमें
कभी नहीं
पकड़ता। लेकिन
जब हम शरीर को
पकड़ लेते हैं,
तो स्वभावत:,
कर्म की
गिरफ्त में हो
जाते हैं।
कर्म पकड़ता है
शरीर को और हम
भीतर से पकड़
लेते हैं शरीर
को। कर्म पकड़ता
है बाहर से
शरीर को, हम
भीतर से पकड़
लेते हैं शरीर
को। तो कर्म
से हमारा
संबंध जुड़
जाता है, शरीर
के माध्यम से।
कर्म
आत्मा को कभी
नहीं पकड़ता, सदा ही
शरीर को पकड़ता
है। जैसे कि
अगर कोई छुरी
से किसी चीज
को काटे, तो
जहा भी पदार्थ
है, वहा
छुरी से काटा
जा सकता है।
लेकिन आप आकाश
को छुरी से
काटें, तो
नहीं काटा जा
सकता। छुरी
घूम जाएगी और
आकाश अनकटा रह
जाएगा।
कर्म
का जो प्रभाव
है, जो
परिणाम है, वह जो छुरी
है कर्म की, वह पदार्थ
को काट सकती
है। शरीर
पदार्थ है, मन भी
पदार्थ है।
पदार्थ से
पदार्थ की
टक्कर हो सकती
है। लेकिन
भीतर जो
चैतन्य है, वह शून्य
आकाश है, कोई
कर्म उसे
काटता नहीं, छूता नहीं।
लेकिन एक बात
हो सकती है कि
वह जो भीतर
चैतन्य है, वह अगर शरीर
को मान ले
मेरा—इसकी उसे
स्वतंत्रता
है मानने की, चेतना को
स्वतंत्रता
है यह मानने
की कि वह मान
ले कि मेरा—तो
शरीर मेरा है,
यह मानते ही,
शरीर की जो—जो
पीड़ाएं हैं, वे मुझमें
फलित होने
लगेंगी।
इसे
हम ऐसे समझें।
एक घर में, मैंने
सुना, आग
लग गई। तो जो
मकान मालिक है,
वह छाती पीट
कर रो रहा है।
लेकिन तभी एक
पड़ोसी ने आकर
कहा कि क्या
कर रहे हो! तुम
नाहक रो रहे हो,
मकान का तो
इंश्योरेंस
हो चुका है।
कल ही तो
तुम्हारा
लड़का इंश्योरेंस
दफ्तर में सब
करवा रहा था!
लड़का कहां है
तुम्हारा?
लड़का
कहीं बाहर गया
था। बाप ने
कहा, क्या
ठीक, इंश्योरेंस
हो चुका? अरे,
तब तो रोने
की कोई बात ही
नहीं। आंसू
विदा हो गए!
मकान अब भी जल
रहा है, वही
मकान। लेकिन
अब
इंश्योरेंस
हो गया। तो
मकान मेरा है,
इससे संबंध
तत्काल हट कर
वह जो
इंश्योरेंस
से पैसा
मिलेगा, वह
मेरा है। अब
मकान से मेरा
हट गया। लेकिन
तभी लड़का भागा
हुआ आया और
उसने कहा कि
क्या कर रहे
हैं, हंस
रहे हैं खड़े
होकर! मैं गया
जरूर था, लेकिन
हो नहीं पाया।
फिर
आंसू बहने
लगे! फिर आदमी
छाती पीट कर
रोने लगा कि
मर गए, लुट
गए! मकान वही
का वही है, मगर
बीच में क्या
हुआ? मेरा
मकान से अलग
हो गया। फिर
मकान से मेरा
जुड़ गया। शरीर
के साथ हमारा
मेरा भाव ही
हमारे दुख का
कारण है—या
सुख का, हमारे
सब कर्मों का।
मेरा भाव हट
जाए, फिर शरीर
पर होते
कर्मों की
प्रक्रिया का
स्वयं से कोई
संबंध नहीं रह
जाता।
तो
यह सूत्र कहता
है, मेरा
भाव, आत्म—
भाव रखना ही
समस्त कर्मों
की प्रक्रिया
को साथ देना
है, कोआपरेट
करना है, सहयोग
देना है। हट
जाए मेरा भाव,
पता चल जाए
कि मैं कौन
हूं—शरीर नहीं
हूं—तो जैसे
इस आदमी को
पता चला कि यह
मकान मेरा
नहीं है, अब
जलता रहे, ऐसा
ही बुद्ध और
महावीर को पता
चल गया है कि
यह मकान मेरा
नहीं है, जलता
रहे। हट गए
पीछे। उसका
पता चल गया जो
इस मकान में
रहने वाला है।
उसका पता चल
गया जो मकान
में जरूर है, लेकिन मकान
ही नहीं है।
आत्म—भाव का
हटना ही समस्त
प्रारब्ध
कर्म का त्याग
है। फिर कर्म
का कोई अर्थ
नहीं है।
त्याग हो गया।
‘देह
की भ्रांति
यही प्राणी के
प्रारब्ध
कर्म की
कल्पना है। पर
आरोपित अथवा
भ्रांति से जो
कल्पित हो, वह सच्चा
कहा से होगा?'
आरोपित
है, कल्पित
है, लगता
है मेरा है।
आपका
बेटा है। जी—जान
दिए दे रहे
हैं उसके लिए।
कुर्बान हो
सकते हैं खुद।
और फिर एक दिन
एक पत्र मिल
जाए घर में, किसी
पुरानी किताब
में दबा, और
पता चले कि
पत्नी का किसी
से प्रेम रहा—संदिग्ध
हो जाए कि
बेटा मेरा है
कि नहीं है। सब
डावाडोल हो
गया।
बाप
को संदेह सदा
थोड़ा बना भी
रहता है, क्योंकि बाप
बहुत
प्रासंगिक
घटना है, कोई
बहुत
महत्वपूर्ण
घटना नहीं है
बेटे के जन्म
में। उतना ही
मूल्य है बाप
का, जैसे
कि एक
इंजेक्यान का,
इससे
ज्यादा मूल्य
नहीं है। मां
भर असंदिग्ध रूप
से जानती है
कि बेटा उसका
है। बाप को तो
थोड़ा संदेह
बना ही रहता
है। उसी संदेह
को मिटाने के
लिए हमने इतने
सख्त विवाह की
व्यवस्था
बनाई है, कि
वह संदेह बाप
को सताए नहीं,
नहीं तो
जिंदगी भर
मुश्किल हो
जाएगी। जिन
बेटों के लिए
मेहनत करनी, उन पर संदेह
बना रहे कि
पता नहीं अपने
हैं भी कि
नहीं, तो
बड़ी
अस्तव्यस्तता
न हो जाए, इसलिए
विवाह की बड़ी
सख्त
व्यवस्था की
है। और स्त्रियों
की सारी गति
पर रुकावट डाल
दी है कि कहीं
उनका दूसरे
पुरुषों से
कोई संबंध न
आए। संबंध ही
न आए, तो डर
न रहे। और
इसलिए
कुंवारी लड़की
पर बड़ी फिकर
होती है कि
शादी कुंवारी
लड़की से हो।
इसलिए जो और
भी ज्यादा इसमें
बहुत ज्यादा
चिंता में रत
थे, वे बाल—विवाह
कर देते थे, ताकि डर का
कोई उपाय ही न
रह जाए। तो
निश्चित रहे
कि पुत्र मेरा
है। मेरा हो, तो आरोपित
हो जाता हूं
मैं। संदिग्ध
हो, तो
मुश्किल हो
जाता है। जहां
मेरे का आरोपण
है, वहां
लगता है कि बस
मैं जुड़ गया।
और अब मैं सब
कुछ कर सकता
हूं। फिर सब
दुख भी झेलूंगा।
जहां मेरा
हटता है, वहा
लगता है मैं
टूट गया, अलग
हो गया।
यह
सब आरोपित है।
मेरे का सारा
भाव आरोपित
है। मेरा इस
जगत में कुछ
भी नहीं है।
मेरा शरीर भी मेरा
नहीं है। वह
भी मेरे मां—बाप
से मिलता है।
उनका भी नहीं
है, उनके
मां—बाप से
मिलता है।
खोजने अगर हम
जाएं तो अरबों—खरबों
वर्षों की
यात्रा है
छोटे से अणु
की, जिससे
आपका शरीर बना
हुआ है। न
हड्डी आपकी है,
न मांस आपका,
न मज्जा
आपकी—कुछ भी
आपका नहीं है,
न मन आपका।
सिर्फ आप ही
आपके हैं।
लेकिन उस आप का
कोई पता नहीं
है आपको।
वह
कौन है भीतर, जो सिर्फ
जिसे मैं कह
सकूं मेरा? जिसे मैं कह
सकूं मैं g:
मेरे
को हटाते जाएं, छोड़ते
जाएं, इलिमिनेट
करते जाएं।
उपनिषद कहते
हैं, कहते
जाए नेति—नेति,
यह भी मैं
नहीं, यह
भी मैं नहीं, हटाते जाएं,
सब मेरे से
संबंध तोड़
लें। तब अचानक,
जैसे अंधेरे
में ज्योति जल
जाए, उसका
अनुभव होगा जो
मैं हूं। मेरे
से छुटकारा होने
पर मैं का
अनुभव होता
है। और मेरे
के फैलाव को
बढ़ाते जाने से
मैं का अनुभव
क्षीण होता चला
जाता है। तो
जितना बड़ा
मेरे का
विस्तार, उतने
कम मैं का
अनुभव।
इसीलिए
बुद्ध और
महावीर घर छोड़
कर भागे। घर
की वजह से
तकलीफ न थी, बड़ा
विस्तार था
साम्राज्य का,
बहुत कुछ था
जो मेरा था, उस मेरे की
मात्रा इतनी
ज्यादा थी कि
उसमें मैं का
कहीं पता नहीं
चलता था कि
मैं कौन हूं? सारा मेरे
का साम्राज्य
छोड़ कर भाग
गए।
महावीर
ने आत्यंतिक
कोशिश की है
भागने की। वस्त्र
तक छोड़ दिए, नग्न हो
गए, ताकि
कुछ भी कहने
को न बचे कि
मेरा, यह
मेरा है, यह
कपड़ा मेरा है,
यह भी कहने
को न बचे।
क्यों? सिर्फ
एक कारण से।
ताकि यह जो
मेरे के बड़े
विस्तार में
मैं की कोई
अनुभूति नहीं
होती, पता
नहीं चलता, सब को छोड़ कर
भाग जाऊं, खालिस
अकेला रह जाऊं,
तो शायद पता
चले कि मैं
कौन हूं।
मेरे
से तोड़ कर मैं
का पता आसान
है। मेरे से
जोड़ कर मैं का
पता मुश्किल
होता जाता है।
इसलिए जितनी
चीजें जुड़ती
जाती हैं, जितना
परिग्रह होता
जाता है, जितना
विस्तार होता
चला जाता है, उतना ही मैं
का केंद्र
लुप्त होता
चला जाता है, दबता चला
जाता है।
मेरे
का सारा का
सारा जाल
कल्पित है।
सत्य तो हूं
मैं, मेरा
है असत्य।
'जो सच्चा
नहीं है, उसका
जन्म कहां से
होता g: जिसका
जन्म नहीं हुआ,
उसका नाश
कहा होता? इस
प्रकार जो
असत् है, वस्तु
रूप है ही
नहीं, उसको
प्रारब्ध
कर्म कहां से हो!' बड़ी विचारपूर्ण
बातें कही
हैं।
जो
असत् है, जो है ही
नहीं, मेरा,
इसका जन्म
कहां से होता
है? कब
होता है? इसका
अंत कैसे होगा?
कठिन है, क्योंकि
हमें लगेगा कि
जब मेरा है, तो उसका
कहीं से जन्म
तो होता ही
होगा, नहीं
तो होगा कैसे?
और अगर मेरा
कुछ है, तो
कहीं उसकी
मृत्यु तो
होती होगी, नहीं तो फिर
छुटकारा कैसे
होगा?
इस
बात को समझने
के लिए, मैंने पीछे
जो आपसे
मिथ्या की
कोटि कही थी, उसे खयाल
में ले लें।
रस्सी पड़ी है,
सांप दिखाई
पड गया। पास
जाकर देखा, सांप नहीं
है, रस्सी
है। अब सवाल
यह है कि इस
रस्सी में सांप
दिखाई पड़ा, तो सांप का
रस्सी में
जन्म तो हुआ।
दिखाई पड़ा था।
मगर जन्म कहां
हुआ? झूठ
का जन्म कैसे
होगा? और
फिर अब लालटेन
लेकर आए तो
दिखाई पड़ा कि
सांप नहीं है,
तो मृत्यु
भी हो गई।
लेकिन मरी हुई
लाश कहां है
उस सांप की?
जो
दिखाई पड़ता है, और था
नहीं, उसका
जन्म भी नहीं
होता, उसकी
मृत्यु भी
नहीं होती; वह सिर्फ
भ्रांति है।
पर भ्रांति
होती है, भ्रांति
हो सकती है।
भ्रांति
आरोपित है।
रस्सी में
किसी सांप का
कोई जन्म हुआ
ही नहीं था, आपके ही मन
ने प्रक्षेपण
किया था और
रस्सी पर सांप
दिखाई दिया
था।
आप
सिनेमागृह
में बैठते हैं, आपकी पीठ
की तरफ आप लौट
कर नहीं
देखते।
देखेंगे भी
क्या, वहां
कुछ होता भी
नहीं देखने
को! सामने
पर्दे पर सब
होता है, रंग
का, रूप का,
गीत का, संगीत
का प्रवाह
होता है पर्दे
पर सामने। लेकिन
मजे की बात यह
है कि पर्दे
पर कुछ भी
नहीं होता, पर्दा होता
है खाली; केवल
छाया और धूप फेंकती
हुई किरणों का
जाल होता है।
वैसे पर्दा
खाली होता है;
सब कुछ होता
है भीतर, पीछे,
पीठ के पीछे—जहा
प्रोजेक्टर
लगा होता है।
वह
प्रोजेक्टर
शब्द बड़ा
अच्छा है।
जिसे कल्पित
कहा है, जिसे
प्रक्षेपित
कहा है, अंग्रेजी
का शब्द
प्रोजेक्यान
उसका अनुवाद है।
प्रोजेक्टर
पीछे लगा है।
वहां से चीजें
फेंकी जा रही
हैं पर्दे पर।
और पर्दे पर, जहां हैं
नहीं, वहां
दिखाईं पड़ रही
हैं। जहा
दिखाई पड़ रही
हैं, वहां
हैं नहीं, और
जहा हैं, वहा
आप पीठ किए
हैं, वहां
आप देखते
नहीं। रस्सी
में सांप
दिखाई पड़ा; रस्सी केवल
पर्दे का काम
कर रही है और
मेरा मन
प्रोजेक्ट कर
रहा है, मेरा
मन सांप की
छाया भेज रहा
है रस्सी पर।
रस्सी पर सांप
की छाया मेरा
मन डाल रहा है
और रस्सी सांप
मालूम पड़ रही
है। फिर मैं
भाग रहा हूं।
जब
पहली दफा थी
डायमेंशनल
पिक्चर आए, चित्र
बने, तो
पहली दफा बडी
मजेदार
घटनाएं सारी
दुनिया में
घटीं। जब लंदन
में पहली दफा
थी डायमेंशनल
चित्र दिखाया
गया, तो
उसमें एक
घुड़सवार एक
भाले को
फेंकता है। वह
घुड़सवार
भागता हुआ आता
है।
तो
थी डायमेंशनल
पिक्चर का
मतलब है कि
बिलकुल ऐसा
दिखाई पड़ता है
कि असली घोड़ा
आ रहा है, चित्र नहीं
दिखाई पड़ता—
असली घोड़ा! तीनों
आयाम हैं
उसके। घोड़ा
भागता हुआ आता
है, टापें
बढ़ती जाती हैं,
घोड़ा पास
आता है, फिर
घुड़सवार एक
भाला फेंकता
है। पूरा हाल,
पूरा हाल
अपनी— अपनी
गर्दन झुका
लेता है! पूरे
हाल में बीच
में जगह बन
जाती है भाले
के निकलने के
लिए। चीख मच
जाती है, महिलाएं
बेहोश हो जाती
हैं।
क्या
हुआ? कहीं
कोई भाला—वाला
था नहीं। मगर
भाला बिलकुल
वास्तविक मालूम
हो रहा था। और
थी डायमेंशनल
था, तो
बिलकुल लगा कि
निकल जाएगा।
तो उस क्षण
में झुक जाना,
क्योंकि मन
को भीतर क्या
पता कि भाला
असली है कि
नकली! कि
दिखाई पड़ रहा
है, है
नहीं। मन तो
आदतवश झुक गया
कि कहीं भाला
लग न जाए! यह तो
क्षण में हो
गया, इसके
लिए सोचना
थोड़े ही पड़ता
है। फिर पीछे
खुद ही हंसी
आई होगी कि
क्या पागलपन
किया! लेकिन हो
गया।
जब
बुद्ध जगते
हैं तो हंसी
आती है कि
क्या पागलपन
किया! रिंझाई
के संबंध में
कहानी है कि
रिंझाई को जब
ज्ञान हुआ, तो वह
हंसने लगा, वह
खिलखिलाने
लगा। और जब
उसके शिष्यों
ने पूछा कि आप
क्यों हंस रहे
हैं? क्या
हो गया? तो
रिंझाई ने कहा
कि मुझे परम
ज्ञान हो गया।
तो उन्होंने
कहा, परम ज्ञान!
पर हमने कभी
ऐसा सुना नहीं
कि परम ज्ञान
होने के बाद
कोई इस तरह
हंसता है! आप
हंस क्यों रहे
हैं?
तो
रिंझाई लोट—पोट
हुआ जाता है।
उसके पेट में
बल पड़ रहे
हैं। और वह कह
रहा है, मैं इसलिए
हंस रहा हूं
कि खूब बुद्ध
बने, और
व्यर्थ बने।
कुछ भी न था, जिसे पकड़े
थे वह था नहीं
और जिसे छोड़ने
की कोशिश कर
रहे थे वह भी
नहीं था, खुद
हम ही थे
अकेले, हम
ही अपने हाथ
को पकड़े हुए
थे।
जैसा
कभी—कभी रात
में होता है न
कि अपने ही
हाथ से अपनी छाती
दबाए हुए हैं
और अंदर सपना
चल रहा है कि
कोई छाती पर
चढ़ा बैठा है।
और जब आंख
खुलती है तो
कंप रहे हैं
और पसीना छूट
रहा है! अपने
ही हाथ छाती
पर पड़ गए थे।
उनके वजन की
वजह से लग रहा
था। नींद में
सभी
इंद्रियां
बहुत सतेज हो
जाती हैं।
इसलिए जरा सा
वजन बहुत वजन
मालूम पड़ता
है। जरा सा
वजन बहुत वजन
मालूम पड़ता
है! खुद का ही
हाथ, लगता
है कोई छाती
पर चढ़ा बैठा
है!
कभी
कोशिश करें घर
में कोई सोया
हो, जरा
पैर के पास
बर्फ का एक
टुकड़ा धीरे—
धीरे घिस दें—उसके
पैर में। बस
सपना शुरू हो
जाएगा भीतर।
सपना होगा कुछ
ऐसा कि पहाड़
पर चढ़ रहे हैं,
बर्फ ही
बर्फ है, मरे
जा रहे हैं, गले जा रहे
हैं। चीख—पुकार
मच जाएगी
भीतर।
जरा
थोड़ा सा दीया
पास ले जाकर
जरा आंच दे
दें पैर में
किसी सोए आदमी
के। वह समझेगा
कि नर्क में पहुंच
गए, लपटें
जल रही हैं, कढाए हैं, और डाले जा
रहे हैं, निकाले
जा रहे हैं।
क्या, भीतर
क्या हो रहा
है? वह मन
अपनी धारणाएं
रखे बैठा है।
जरा सा इशारा,
और मन अपनी
धारणाओं का
फैलाव शुरू कर
देता है, पर्दा
मिले कि
प्रोजेक्टर
काम शुरू कर
देता है।
जागते
में भी हम जो
कर रहे हैं, वह यही
है। होश से जब
कोई जागता है
वस्तुत:—हमारा
जागरण नहीं, बुद्ध का
जागरण, उपनिषद
के ऋषियों का
जागरण—जब कोई
उस जागरण को
उपलब्ध होता
है, तब उसे
हंसी आती है
कैसी नासमझी
की! जो था नहीं,
उसे देखा!
जो था नहीं, उसे पकड़ा! जो
था नहीं, उसे
छोड़ने की
कोशिश भी की!
और सारा खेल
अपना था। हम
ही सब तरफ से
थे। हमारा मन
ही सब तरफ से
था।
अगर
जीवन की किसी
भी घटना का
ठीक—ठीक
विश्लेषण
करेंगे तो इस
सचाई का अनुभव
हो जाएगा।
किसी भी घटना
का ठीक—ठीक
विश्लेषण
करेंगे, इस सचाई का
अनुभव हो
जाएगा। नहीं
करेंगे विश्लेषण,
तो पीठ की
तरफ मन का
कारोबार जारी
है, और जगत
पर्दा बना हुआ
है, उस पर
सब खेल चल रहा
है, सब
चीजें दिखाई
पड़ रही हैं।
नहीं, इस माया
का न कोई जन्म
है और न कोई
मृत्यु। मिथ्या
का न कोई जन्म
होता है, न
कोई मृत्यु। ‘देह
यह अज्ञान का
कार्य है, उसका
ज्ञान द्वारा
जो समूल नाश
हो जाता है तो
यह देह रहती
कैसे है? ऐसी
शंका करने
वाले
अज्ञानियों
का समाधान करने
के लिए ही
श्रुति ने
बाह्य दृष्टि
से प्रारब्ध
कहा है।
(वास्तव में
न तो देह है और
न प्रारब्ध
है।)’
यह
बड़ी कठिन बात
है। और जो मैं
परसों आपसे, एक—दो दिन
पहले कह रहा
था, और अड़चन
मालूम पड़ी
होगी। मैंने
आपसे कहा था
कि बुद्ध को
झूठ बोलना
पड़ता है, महावीर
को झूठ बोलना
पड़ता है—आपकी
वजह से।
क्योंकि आप
झूठ की ही
भाषा समझते
हैं, और
कोई भाषा नहीं
समझते।
यह
इस सूत्र में
है। यह सूत्र
कह रहा है कि
वास्तव में न
तो देह है और न
प्रारब्ध है।
वस्तुत:, सत्य में, न तो देह है
और न प्रारब्ध
है, न कोई
बुरा कर्म है
और न कोई भला
कर्म है, न
कोई सुख है और
न कोई दुख है।
वास्तव में
संसार नहीं
है। यह तो
वास्तविकता
है, लेकिन
यह कही नहीं
जा सकती।
सूत्र
कहता है,
अज्ञानियों
से यह कहा
नहीं जा सकता।
क्योंकि अगर अज्ञानियों
से कहो कि देह
नहीं है, तो वे
कहेंगे, हटो
भी, आपका
दिमाग ठीक है?
आप अपने
दिमाग का इलाज
करवा लो!
अज्ञानियों
से कहो कि यह
संसार नहीं है,
तो वे आपको
पागलखाने में
भेज देंगे।
ज्ञानी
अज्ञानियों
के बीच वैसी
हालत में है, जैसा
अंधों के बीच
में कोई आंख
वाला हो। वह
कहे बडा
प्रकाश है। और
सब अंधे हंसें।
वे कहें, क्या
बातें कर रहे
हो! मस्तिष्क
तो रास्ते पर है,
ठिकाने पर?
कैसा
प्रकाश? वह
कहे, मुझे
दिखाई पड़ता
है। तो अंधे
सब हंसें कि
दिखाई पड़ने का
मतलब? दिखाई
पड़ने जैसी कोई
चीज सुनी—है
कभी? होती
है कभी? न
हमारे बाप—दादों
को हुई, न
उनके बाप—दादों
को हुई, जरूर
तुम्हारा सिर
फिर गया है!
अंधों
के बीच में आंख
वाले की क्या
गति होगी, आप समझते
हैं? अगर
समझदार होगा,
तो भूल कर
भी वे बातें
नहीं करेगा जो
अंधों को दिखाई
नहीं पड़ रही
हैं। और अगर
अंधों को भी
वह आंख के
रास्ते पर
लाना चाहता है,
तो उसे बहुत
सी डिवाइसेस,
उपाय करने
पड़ेंगे। उसे
सीधा यह कहना
ठीक नहीं होगा
कि मैं आंख
वाला हूं और
तुम सब अंधे
हो, और मैं
तुम्हारी आंख
का इलाज करता
हूं; और
तुम जो हो, वह
नहीं है, कुछ
और है—जो आंख
के खुलने पर
दिखता है, तुम
बिलकुल झूठ
में जी रहे
हो।
तो
अंधों की आंख
का इलाज करने
की बजाए, अंधे मिल कर
उसकी आंख का
इलाज कर
देंगे! कई दफे
हो गया है
जीसस को हमने
सूली पर
लटकाया, मैसूर
को हमने काट
डाला, सुकरात
को जहर पिला
दिया। उसका
कारण कुछ और
नहीं है, उसका
कारण सिर्फ
इतना ही है कि
ये लोग सीधी—सीधी
बातें कहने
लगे जो हमारी
पकड के बाहर
हैं। और इनकी
बातें अगर हम
मान कर चलें
तो हम चल ही
नहीं सकते।
हमारा भी कसूर
नहीं है।
लेकिन
आप जान कर
हैरान होंगे
कि भारत में
हमने किसी
बुद्ध, किसी महावीर,
किसी
रामकृष्ण को
फांसी नहीं
दी। जीसस को
सूली लग गई
जेरुसलम में। मंसूर
को मुसलमानों
ने मार डाला।
सुकरात को
यूनानियों ने काट
डाला। इस
मुल्क में
हमने किसी
बुद्ध, किसी
महावीर, किसी
कृष्ण को कभी
नहीं काटा
मारा, सूली
नहीं दी। आप
जानते हैं, कारण क्या
है?
कारण
बड़ा अदभुत है।
और वह कारण यह
है कि कृष्ण और
बुद्ध और
महावीर, जीसस और
सुकरात से, अंधों के
साथ बातचीत
करने में
ज्यादा कुशल
हैं, और
कोई कारण नहीं
है। कुल कारण
इतना है; ज्यादा
कुशल हैं। और
कुशलता की वजह
है, क्योंकि
इस मुल्क में
हजारों साल से,
हजारों साल
से बुद्धों, महावीरों ने
अंधों से
बातें की हैं।
तो उन्होंने
तरकीबें ईजाद
कर ली हैं।
जीसस
गड़बड़ हालत में
पड़ गए। जीसस
की सारी
शिक्षा तो हुई
भारत में, तो
उन्हें अंदाज
नहीं था। भारत
से वह सब सीख कर
लौटे। और
जेरुसलम में
जाकर
उन्होंने जब
बोलना शुरू
किया, तो
जेरुसलम की
परंपरा में
उसकी कोई भी
जगह न थी।
जीसस बिलकुल
ही विजातीय
मालूम पड़े। और
जीसस की बातें
पागलपन की
मालूम पड़ी।
पुरानी
बाइबिल में
कहा है कि जो
एक आंख फोड़े
तुम्हारी, उसकी
दोनों फोड़
देना। अंधों
की भाषा! और
जीसस ने जाकर
वहां आंख
वालों की भाषा
बोलनी शुरू कर
दी—एकदम, अचानक,
कोई बीच में
सेतु नहीं था।
कहा कि जो
तुम्हारे
बाएं गाल पर
चांटा मारे, दायां भी
उसके सामने कर
देना; कि
जो तुम्हारा
कोट छीने, कमीज
भी उसको दे
देना; कि
जो तुमसे कहे
एक मील बोझ को
ढो चलो, तुम
दो मील तक साथ
चले जाना, हो
सकता है, संकोचवश
उसने एक ही
मील कहा हो।
यह आंख वालों
की भाषा—जहा
नियम था कि जो
ईंट मारे, पत्थर
से जवाब देना—बिलकुल
समझ के बाहर
पड़ गई। असल
में जीसस आंख
वाले की बात
सीधी—सीधी कह
दिए अंधों से।
बुद्ध, महावीर
ज्यादा कुशल
हैं। और लगभग
सत्य ईजाद करने
में उनका कोई
मुकाबला नहीं
है। यही यह
उपनिषद का
सूत्र कह रहा
है। यह साफ ही
कह रहा है। यह-यह
कह रहा है कि न
तो यह देह है, न ये कर्म
हैं, लेकिन
अज्ञानियों
को उनकी शंका
समाधान करने के
लिए बाह्य
दृष्टि से, ऊपर—ऊपर की
दृष्टि से, देह और कर्म
और प्रारब्ध
की बात कही
है। वास्तव
में न देह है
और न प्रारब्ध
है।
बड़ी
मुश्किल बात
है। सच है यह
कि सभी
शास्त्र निन्यानबे
प्रतिशत झूठ
हैं। झूठ इसलिए
कि वे अंधों
को समझाने के
लिए कहे गए
हैं, बाह्य
दृष्टि से, नहीं तो
उनकी समझ में
कुछ भी नहीं
पड़ता है। वे उलझन
में पड़ जाएंगे
उनको सीधा—सीधा
समझाने से।
जैसे
बच्चों को हम
समझाते हैं, कहते हैं
ग गणेश का।
गणेश की कोई
बपौती नहीं है,
गधे का भी ग
है। और जब से भारत
धर्म—निरपेक्ष
हो गया है, तो
पहले स्कूल की
किताबों में—जब
मैं पढ़ता था—तब
तो ग गणेश का
होता था, अभी
मैं सुनता हूं
कि ग गधे का
होता है।
क्योंकि गधा
जो है ज्यादा
निरपेक्ष
जानवर है।
गणेश तो हिंदू
संप्रदाय के
हो जाते हैं, गधा किसी
संप्रदाय का
नहीं है। गधे
सभी
संप्रदायों
में पाए जाते
हैं! पर बच्चे
को हम समझाते
हैं ग गणेश का,
या ग गधे
का। और बच्चा
पकड़ ले, और
फिर जब भी ग आए
कहीं तो पहले
बोले ग गधे का
और फिर आगे
बढ़े, तो
मुश्किल हो
जाएगी। वह तो
सिर्फ सहारा
था। वह बच्चा
गधे को समझ
सकता था, ग
को नहीं समझ
सकता था, इसलिए
ग को जोड़
दिया। फिर
प्रतीक भूल
जाएंगे, चित्र
हट जाएंगे, ग सीधा आ
जाएगा।
वह
जो अज्ञानी है, जहा से
उसे उठाना है,
उसकी ही
भाषा से बात
शुरू करनी
पड़ती है। उससे
कहना पड़ता है.
यह दुख है, यह
सुख है। सुख
चाहते हो तो
अच्छा कर्म
करो, दुख
चाहते हो तो
ही बुरा कर्म करो।
न भी चाहते
होओ दुख, बुरा
करोगे तो बुरा
फल पाओगे; अच्छा
करोगे अच्छा
फल पाओगे। अगर
दोनों से छूट
जाओगे, तो
फिर तुम्हें
कोई फल नहीं
मिलेगा। और जब
कोई फल नहीं
मिलता है तो
तुम मुक्त हो
जाते हो।
लेकिन
यह सारी की
सारी बात, एक बात
मान कर चल रहे
हैं हम, कि
यह सारा
वास्तविक का
जगत है। लेकिन
जब कोई आदमी
जागता है, जब
होश से भरता
है, जब
शरीर से टूट
जाता है और
अज्ञान नाश
होता है, तब
उसे बड़ी हंसी
आती है। जो
छूट गया पीछे,
वह
वास्तविक
नहीं था, एक
बड़ा सपना था।
एक बड़ा सपना
था, वास्तविक
नहीं था। और
जो उपाय हमने
बताए थे, वे
भी सपने के
भीतर सपने थे।
ऐसा समझें तो
आसानी होगी।
रामकृष्ण तो
भक्त थे काली
के, पर बड़े
विनम्र थे। और
कोई भी कोई और
मार्ग बताए, तो सदा पालन
करने को तैयार
रहते थे। फिर
एक वेदांत के
शिक्षक
तोतापुरी का
आगमन हुआ। और
तोतापुरी ने
रामकृष्ण से
कहा कि यह
क्या लगा रखा
है? यह
क्या कीर्तन,
भजन, क्या
इससे होगा? एक को खोजो!
ये तो दो हैं।
भक्त और भगवान
दो नहीं, एक
ब्रह्म!
तो
रामकृष्ण ने—रामकृष्ण
अदभुत थे—उनके
पैरों में सिर
रख दिया और
कहा कि ठीक, मुझे
शिक्षा दें, मुझे
सिखाएं। तो
ध्यान पर
तोतापुरी
रामकृष्ण को
बिठाता है। और
रामकृष्ण आंख
बंद करके खूब
आनंदित होते
हैं।
तोतापुरी कहता
है, क्या
हो रहा है?
तो
वे कहते हैं, मां
दिखाई पड़ती
है। तो
उन्होंने कहा
कि यह सब फिजूल
बकवास, मैं
यहां रुकूंगा
नहीं! अब मां
दिखाई पड़ती है
तो तुम इतने
काहे के लिए
आनंदित हो रहे
हो? यह सब
कल्पना है! यह मा
और यह काली, यह सब
तुम्हारी ही
धारणा है!
रामकृष्ण
कहते हैं, होगी, लेकिन
आनंद बड़ा आता
है। तो
तोतापुरी ने
कहा कि अगर
इसी आनंद में
पड़े रहना है, तो परम आनंद
कभी न आएगा।
तो रामकृष्ण
ने पूछा, क्या
करूं? तो
तोतापुरी ने
कहा कि एक
तरकीब करो, जब काली
भीतर दिखाई पड़े,
उठाओ एक
तलवार और दो
टुकड़े कर. दो।
तो
रामकृष्ण ने
कहा, तलवार
वहा कहा से
लाएंगे?
स्वाभाविक, कहां से
तलवार ले
आएंगे एकदम से?
और भीतर!
अगर बाहर
तलवार हो भी
तो ले कैसे
जाएंगे? और
काली जब दिखाई
पड़ेगी तो कैसे,
कहां है
तलवार?
तो
तोतापुरी ने
कहा कि जिस मन
से काली को
भीतर खड़ा कर
लिया है, उसी मन से एक
तलवार भी खड़ी
कर लेना। जब
तुम काली तक
को भीतर खड़ा
करने में सफल
हो गए हो, तो
छोटी सी तलवार
न कर पाओगे?
यह
सपने के भीतर
सपने की विधि!
समझे मेरा
मतलब? काली
भी एक कल्पना
है भीतर। सुखद
है, पर है
तो कल्पना।
अपना ही फैलाव
है, अपना
ही भाव है, जो
मूर्तिमंत हो
गया भीतर।
अपनी ही चाह
है, अपने
ही रंग हैं, जो हमने ही
डाल दिए भीतर 1
वह जो काली
खड़ी है भीतर
और रामकृष्ण
भीतर जो उसके
चरणों में सिर
रखे पड़े हैं, बड़े मजे की
बात है कि वह
काली भी
रामकृष्ण का ही
भाव है और वह
सिर रखे हुए
भी रामकृष्ण
पड़े हैं! तो
तोतापुरी ने
ठीक कहा कि तलवार
क्या बाहर से
ले जानी पड़ेगी?
काली को कब
बाहर से ले गए
थे? तो जब
भीतर काली बना
ली, एक
तलवार भी बना
लो। और तुम तो
कुशल मालूम
पड़ते हो। जब
काली को देखते
हो, इतने
आनंदित होते
हो, तो
मतलब तुमने
बिलकुल पक्की
मजबूत काली
बना ली है। और
तुम्हें शक—शुबहा
भी नहीं है
उसकी सचाई
में। एक तलवार
और बना लो।
रामकृष्ण
बड़े उदास हो—हो
जाते थे, कि यह कैसे
होगा? तलवार
से मैं खुद ही
काली को काटू!
तो तोतापुरी
ने कहा कि अगर
न कटे तलवार
से, तो फिर
सोचेंगे। तुम
कोशिश तो करो।
पर रामकृष्ण
कहते थे, मैं
ही खुद काटू? तो तोतापुरी
ने कहा कि फिर
मैं रुकूंगा
नहीं। और जब
तुमने
स्वीकार किया
कि साधना में
उतरोगे वेदांत
की, तो
थोड़ी हिम्मत
जुटाओ। यह
क्या बच्चों
जैसा रोते हो!
तो
तोतापुरी एक
काच का टुकड़ा
ले आए और
रामकृष्ण से
कहा कि बैठो, ध्यान
करो! और जब मैं
देखूंगा काली
भीतर आ गई, तो
कहीं तुम भूल
न जाओ, क्योंकि
तुम ऐसे मोहित
दिखते हो कि
तुम भूल जाओगे।
और अगर काली
याद भी रही तो
तुम्हारी
हिम्मत भी
नहीं दिखती कि
तुम तलवार उठा
लोगे। तुम इतने
प्रेम से भरे
दिखते हो कि
तलवार तुम
उठाओगे कैसे?
जैसे कोई
मां अपने बच्चे
को काटे, उससे
भी कठिन
तुम्हें होगा,
यह भी मैं
समझता हूं। तो
फिर मैं
तुम्हें साथ दूंगा।
तुम फिक्र न
करो। जब मैं
समझूंगा काली आ
गई, तो यह
कांच का टुकड़ा
है, इससे
मैं तुम्हारे
तृतीय नेत्र
की जगह को पूरा
का पूरा काट
दूंगा। जब
तुम्हें यहां
दरार मालूम
पड़े, और
लगे खून बहने
लगा और दर्द
उठने लगे, मैं
काटता जाऊंगा,
रगड़ता
जाऊंगा कांच
के टुकड़े से, तब तुम भी
हिम्मत उठा कर
उसी तरह एक
जोर की चोट करना
तलवार की और
दो टुकड़ों में
काली को तोड़ देना।
ठीक
है, अगर
तीसरे नेत्र
पर काच से
काटा जाए, तो
भीतर तीसरे
नेत्र में ही
दिखाई पड़ता है
सब कुछ। वह
चाहे काली हो
और चाहे राम
हों, चाहे
कृष्ण हों—कोई
भी हों—वह
तीसरे नेत्र
में ही उनका
प्रतिबिंब
बनता है। तो
अगर तीसरे
नेत्र को बाहर
से काटा जाए
और भीतर से भी
कोई हिम्मत
जुटाए, तो
तीसरे नेत्र
के कटान के
अनुभव के साथ
ही कोई भी
भीतर की प्रतिमा
टूट कर दो
टुकड़े हो जाती
है।
रामकृष्ण
ने हिम्मत की, प्रतिमा
दो टुकड़े होकर
टूट गई, गिर
गई। रामकृष्ण
ने लौट कर
बाहर कहा, दि
लास्ट बैरियर
हैज फालेन—जो
आखिरी बाधा थी,
वह गिर गई।
मगर
ये सब उपाय
हैं। मैं समझा
यह रहा था कि
काली भी एक
असत्य, भीतर, और
तलवार भी एक
असत्य, भीतर;
लेकिन एक
असत्य से
दूसरा असत्य
कट जाता है।
ये
सारे उपनिषद
के ऋषि, जो नहीं है, उसे काटने
के लिए उपाय
बता रहे हैं।
क्योंकि हमने,
जो नहीं है,
उसे मान रखा
है कि है। तो
कुछ उपाय हमें
दिए जा रहे
हैं, जिनसे
वह कट जाए।
झूठी बीमारी
झूठी दवा की
मांग करती है।
हमारा सारा
भाव—संसार झूठ
है। इसलिए
इतनी विधियों
की जरूरत है।
और इसलिए कोई
भी विधि काम
दे सकती है।
कोई भी विधि
काम दे सकती
है, बस पकड़
जाए आपको।
सपने
के भीतर एक
सपना। सपने से
सपने को
काटना। और कोई
उपाय भी नहीं
है। सत्य से
सत्य नहीं काटा
जाता, कट
भी नहीं सकता।
सत्य से असत्य
भी नहीं काटा
जाता, कट
भी नहीं सकता,
क्योंकि
असत्य और सत्य
का कहीं कोई
मिलन ही नहीं
होगा, कटेगा
कैसे? असत्य
से ही असत्य
कटता है। एक
असत्य से
दूसरा असत्य
कट जाता है।
और जब दोनों
गिर जाते हैं
तो जो शेष रह
जाता है...।
ऐसा
समझें कि एक
काटा लग गया
पैर में, तो एक दूसरा
काटा उठा कर
उसे निकाल
लेते हैं। कांटे
से काटा
निकलता है।
फिर दोनों
काटे फेंक
देते हैं। तो
यह सूत्र कह
रहा है कि न तो
है देह, न
है कर्म, न
है प्रारब्ध,
न है संसार—वास्तव
में।
आपसे
नहीं कह रहा
है कि आप
मानने लगें कि
न है कर्म, न है देह,
न है संसार।
तो अभी आप
मुश्किल में
पड़ जाएंगे—अभी,
इसी वक्त।
नहीं, आपके लिए
अभी है, क्योंकि
अभी आप नहीं
हैं। इसलिए
सभी झूठ अभी सत्य
हैं। अभी सत्य
का पता नहीं
है, इसलिए
सभी झूठ सत्य
हैं। जिस दिन
आपको अपने सत्य
का पता चलेगा,
सभी झूठ
मिथ्या हो
जाएंगे।
स्वयं
को जानते ही
संसार मिथ्या
हो जाता है। स्वयं
को न जानने से
ही मिथ्या
संसार सत्य
मालूम होता
है।
thank you guruji
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