सूत्र
:
इत्थं
वाक्यैस्तदर्थानसंधानं
श्रवणं भवेत।
युक्ता
सभावितत्वा
संधानं मननं
तु तत्।। 33।।
ताभ्यां
निर्विचिकित्सेकत्सेध्थें
चेतस:
स्थायितस्य
तत्।
एकतानत्वमेतीद्ध
निदिध्यासनमुच्यते।।
34।।
ध्यातृध्याने
परित्यज्य
क्रमाद्धयैयैकगे।चरम्।
निवातदीपवच्चितं
समाधिरभिंधीयतै।।
35।।
इस प्रकार’तत्त्वमसि' आदि
वाक्यों
द्वारा जीव—ब्रह्म
की एकतारूप
अर्थ का
अनुसंधान
करना, यह
श्रवण है। और
जो कुछ सुना
गया है उसके
अर्थ को
युक्तिपूर्वक
विचार करना, यह मनन है।
इस श्रवण और
मनन द्वारा
निस्संदेह
हुए अर्थ में
चित्त को
स्थापित करके
एकतान बनना, यह
निदिध्यासन
है।
फिर ध्याता
तथा ध्यान का
त्याग करके
चित्त केवल एक
ध्येय को ही
विषय रूप माने
और वायुरहित स्थान
में रखे हुए
दीए के समान
निश्चल बन जाए, उसको
समाधि कहते
हैं।
चार
शब्दों का
प्रयोग हुआ
है। एक—एक
शब्द अपने आप
में एक—एक जगत
है। वे चार
शब्द हैं
श्रवण, मनन, निदिध्यासन
और समाधि। इन
चार शब्दों
में सत्य की
सारी यात्रा
समाहित हो
जाती है। ये
चार चरण जो
सम्यकरूपेण, ठीक—ठीक
पूरा कर ले, उसे कुछ और
करने को शेष
नहीं रह जाता
है। इन चार
शब्दों के आस—पास
ही समस्त
साधना विकसित
हुई है। इसलिए
एक—एक शब्द को
बारीकी से, गहराई से, सूक्ष्मता
से समझ लेना
उपयोगी है।
पहला
शब्द है, श्रवण।
श्रवण का अर्थ
मात्र सुनना
नहीं है। सुनते
हम सभी हैं।
कान होना काफी
है सुनने के लिए।
सुनना एक
यांत्रिक
घटना है।
ध्वनि हुई, कान पर आवाज
पड़ी, आपने
सुना। श्रवण
इतना ही नहीं है।
श्रवण का अर्थ
है, सिर्फ
कान से न सुना
गया हो, भीतर
जो चैतन्य है
उस तक भी गंज
पहुंच जाए। इसे
थोड़ा समझ लें।
आप रास्ते से
गुजर रहे हैं;
आपके घर में
आग लग गई है, आप भाग रहे
हैं। रास्ते
पर कोई
नमस्कार करता
है। कान
सुनेंगे, आप
नहीं
सुनेंगे।
दूसरे दिन आप
बता भी न
सकेंगे कि
किसी ने
रास्ते पर
नमस्कार किया
था। घर में आग
लगी थी, रास्ते
पर कोई गीत
गाता हो, कान
सुनेंगे, आप
नहीं
सुनेंगे।
कान
का सुनना आपका
सुनना नहीं
है। जरूरी
नहीं है कि
कान ने सुना
हो तो आपने भी
सुना हो। कान
सुनने के लिए
जरूरी है, काफी
नहीं है, आवश्यक
है, पर्याप्त
नहीं है। कुछ
और भी भीतर
चाहिए। जब आपके
घर में आग लगी
होती है, तो
नमस्कार किया
गया सुनाई
नहीं पड़ता; क्यों? कान
का यंत्र तो
वैसा का ही
वैसा है।
लेकिन भीतर
ध्यान कान के
साथ टूट गया
है। ध्यान, मकान में आग
लगी है, वहा
चला गया है।
कान सुन रहा
है, लेकिन
कान ने जो
सुना है, उसे
चैतन्य तक
पहुंचाने के
लिए ध्यान का
जो सेतु चाहिए,
वह नहीं है।
वह सेतु हट
गया है। वह
वहा लगा है, जहां मकान
में आग लगी
है। इसलिए कान
सुनते हैं, आप नहीं सुन
पाते। आप और
कान के बीच
में जो संबंध
है, वह टूट
गया है।
श्रवण
का अर्थ है, कान भी
वहा हों और आप
भी वहा हों।
तो श्रवण घटित
होता है। कठिन
बात है। कान
के साथ होना
साधना की बात
है। श्रवण का
अर्थ है कि जब
आप सुनते हों
तो आपकी सारी
चेतना कान हो
जाए; सुनना
ही रह जाए, बाकी
कुछ भी न हो; भीतर कोई
विचार न चले।
क्योंकि भीतर
अगर विचार
चलता है, तो
आपका ध्यान
विचार पर चला
जाता है, कान
से हट जाता
है।
ध्यान
बड़ी सूक्ष्म, नाजुक
चीज है। जरा
सा विचार भीतर
चल रहा हो, तो
ध्यान वहां
चला जाता है।
पैर में चींटी
काट रही हो, आप मुझे सुन
रहे हैं और
आपको पैर में
चींटी काट रही
हो—मकान में
आग लगना जरूरी
नहीं है, पैर
में चींटी काट
रही हो—तो
जितनी देर के
लिए आपको पता
चलता है कि
पैर में चींटी
काट रही है, उतनी देर तक
श्रवण खो जाता
है, सुनना
होता है।
ध्यान हट गया।
ध्यान
की और तकलीफ
है कि ध्यान
एक साथ दो
चीजों पर नहीं
हो सकता, एक चीज पर
एकबारगी होता
है। जब दूसरी
चीज पर होता
है, एक से
तत्काल हट
जाता है। आप
ऐसा कर सकते
हैं कि छलांग
लगा सकते हैं।
हम छलांग
लगाते रहते
हैं। पैर में
चींटी ने काटा,
ध्यान वहां
गया; फिर
वापस ध्यान
लौटा, सुना।
खुजली आ गई, ध्यान वहा
गया, फिर
सुना। तो बीच—बीच
में जब ध्यान
हट जाता है, तो गैप, अंतराल
पड़ जाते हैं
श्रवण में।
और
इसलिए जो आप
सुनते हैं, उसमें से
बहुत अर्थ
नहीं निकल
पाता, क्योंकि
उसमें बहुत
कुछ खो जाता
है। और कई बार
जो अर्थ आप
निकालते हैं,
वह आपका ही
होता है फिर, क्योंकि
उसमें बहुत
कुछ खो गया
है। फिर जोड़
कर आप जो सोच
लेते हैं, वह
आपका ही है।
अभी
मैं
आस्पेंस्की
की एक शिष्या
की किताब देख
रहा था। उसने
लिखा है कि
आस्पेंस्की
के साथ जब काम
शुरू किया
साधना का, तो एक बात
से बड़ी दिक
होती थी कि
आस्पेंस्की एक
बात पर बहुत
ही जोर देता
था और वह समझ
में नहीं पड़ती
थी, इतने
जोर देने लायक
बात नहीं
मालूम पड़ती थी!
और
आस्पेंस्की
जैसा आदमी
इतनी छोटी बात
पर इतना जोर
क्यों देता है,
यह भी समझ
में नहीं आता
था! और आदमी
इतना अदभुत है
कि जोर देता
है तो मतलब तो
होगा ही! और
बुद्धि
बिलकुल पकड़ती
नहीं थी, इसमें
क्या मतलब है!
और वह जोर यह
था, वह हर
बार, दिन
में पचास दफे
उस पर जोर
देता था। जैसे
कल
आस्पेंस्की
ने कुछ कहा, तो उसके
शिष्यों में
से कोई उससे
आकर कहेगा कि
कल आपने ऐसा
कहा था। तो वह
कहेगा, ऐसा
मत कहो, इतना
कहो कि कल
आपने जो कहा
था उससे मैंने
ऐसा समझा था।
यह कहो ही मत
कि आपने ऐसा
कहा था। हर वाक्य
के सामने वह
जोर देता था
कि यह कहो कि
आपने जो कहा
था, उससे
मैंने ऐसा
समझा था, यह
मत कहो सीधा
कि आपने यह
कहा था।
तो
उसकी उस
शिष्या ने
लिखा है कि हम
बड़े परेशान
होते थे कि हर
वाक्य के
सामने यह
लगाना कि आपने
ऐसा कहा था
ऐसा मैंने
समझा था, आपके कहे
हुए से मैंने
ऐसा समझा था, इसकी क्या
जरूरत है? आपने
कहा था, बात
खतम हो गई।
धीरे
छलांग धीरे
उसे समझ में
आया कि ये दो
बातें अलग हैं।
जो
कहा गया है
उसे तो वही
समझ सकता है
जो श्रवण को
उपलब्ध हो। जो
कहा गया है, अगर आप
सिर्फ सुन रहे
हैं, तो आप
वही समझेंगे
जो आप समझते
हैं, समझ
सकते हैं—वह
नहीं, जो
कहा गया है।
क्योंकि बीच
में बहुत कुछ
खो जाएगा। और
वह जो खो
जाएगा, उसको
आप भर देंगे
अपने से, क्योंकि
खाली जगह भर
दी जाती है।
आप
सुनते हैं, बीच—बीच
में जहां—जहां
ध्यान हट जाता
है, वहां—वहां
खाली जगह कौन
भरेगा? वह
खाली जगह आप
भर देंगे।
आपका मन, आपकी
स्मृति, आपकी
जानकारी, आपका
ज्ञान, अनुभव,
वह उसमें
समा जाएगा।
फिर जो अंतिम
रूप बनेगा, उसके
निर्माता आप
ही हैं—जो
सुना था, वह
नहीं जिसने
कहा था वह
जिम्मेवार
नहीं है।
श्रवण
का अर्थ है, कान के
पास ही चेतना
आ जाए। विचार
कोई भीतर न चलता
हो, कोई
चिंतन न चलता
हो, कोई
तर्क न चलता
हो।
इसका
यह मतलब नहीं
कि जो कहा जाए
उसको आप बिना समझे
स्वीकार कर
लें। श्रवण
में स्वीकार
का कोई अर्थ
नहीं है।
श्रवण का अर्थ
है सिर्फ सुन लें, स्वीकार—अस्वीकार
बाद की बात है;
जल्दी न
करें।
हम
क्या करते हैं? सुनते
हैं, उसी
वक्त स्वीकार—
अस्वीकार
करते रहते हैं।
लोगों के सिर
हिलते रहते
हैं! कोई ही
भरता रहता है
कि बिलकुल ठीक,
कोई कहता है
कि नहीं, जंच
नहीं रहा! वह
उनको भी पता
नहीं कि उनका
सिर हिल रहा
है, मैं
देख रहा हूं, कि बिलकुल
ठीक।
इसका
मतलब यह कि आप, जो मैंने
कहा, उसे
सुनने के साथ
निर्णय भी ले
रहे हैं भीतर।
तो जितनी देर
आप निर्णय
लेंगे उतनी
देर श्रवण चूक
जाएगा। आपको
भी पता नहीं
कि आपका सिर
हिला। मगर
भीतर सहमति
हुई, उसकी
वजह से सिर
हिला। जब मैं
कोई बात कहता
हूं जो आपको
नहीं जंच रही,
तो आपका सिर
हिलता रहता है
कि नहीं, जंच
नहीं रही। वह
सिर ही नहीं
हिल रहा है, भीतर ध्यान
हिल रहा है।
उस ध्यान की
वजह से सिर
हिल रहा है।
उतने कंपन में
आपका श्रवण खो
गया।
जब
हम कहते हैं
कि श्रवण करते
दफे सोचें मत, तो उसका
यह मतलब नहीं
है कि जो भी
कहा जाए उसे आंख
बंद करके गटक
लें। नहीं, अभी स्वीकार—अस्वीकार
का सवाल ही
नहीं है। अभी तो
यही सुन लेना
है कि क्या
कहा गया, ठीक
से वही सुन
लेना है जो
कहा गया। तब
तो आप निर्णय
कर सकेंगे
पीछे कि
स्वीकार करूं
या अस्वीकार
करूं?
तो
स्वीकार—अस्वीकार
की प्रक्रिया
को सुनते समय
बीच में ले आना, श्रवण से
चूक जाना है।
सुनना यानी
सिर्फ सुनना।
अभी
हम सुन रहे
हैं। अभी हम
साथ—साथ सोचते
हुए न चलेंगे।
मन दो काम
नहीं कर सकता।
सुनें या
सोचें! जो
सोचते हैं वे
सुन नहीं पाते, जो सुनते
हैं उन्हें
सोचने के लिए
उस समय कोई उपाय
नहीं है। मगर
जल्दी भी नहीं
है कोई, सोचना
बाद में हो
सकता है।
और
यही
न्यायसंगत भी
है कि पहले सुन
लिया जाए, फिर सोचा
जाए। क्योंकि
सोचेंगे किस
पर आप? अगर
आपने ठीक से
सुना ही नहीं
है, या जो
सुना है उसमें
अपना जोड दिया
है, या जो
सुना है उसमें
बीच—बीच में
अंतराल रह गए
हैं, तो आप
सोचेंगे क्या
खाक! जो आप
सोचेंगे, उसका
कोई मूल्य
नहीं रह जाता।
सम्यक सुना न गया
हो तो सोचना
व्यर्थ हो
जाता है।
इसलिए
पहली सीढ़ी
ऋषियों ने कही
है, श्रवण।
बुद्ध
के पास कोई
आता तो वे
बहुत जोर देते, महावीर
के पास कोई
आता तो वे
पहले कहते कि
तुम ठीक से
श्रावक बनो।
श्रावक का
मतलब है सुनने
वाले बनो। अभी
भी जैनी वही
विभाजन किए
जाते हैं : साधु—साध्वी,
श्रावक—श्राविका।
न कोई श्रावक
है, न कोई
श्राविका है।
क्योंकि
श्रावक—
श्राविका का
अर्थ है
श्रवण। सुनने
की कला जिसे आ
गई हो वह
श्रावक है। तो
न श्रावक—
श्राविका हैं,
न कोई सुनने
वाला है, न
कोई सुनने का
कोई कारण है।
मंदिरों
में जाकर
देखें श्रावक—श्राविकाओं
को। अक्सर सोए
हुए पाएंगे, सुनना तो
बहुत दूर की
बात है। दिन
भर के थके—मांदे
वहां विश्राम
करते हैं, सोते
हैं। अगर नहीं
भी सोते, तो
सुनते नहीं
हैं, अपने
ऊहापोह में, अपने सोच—विचार
में लगे रहते
हैं।
आपका
मन बिलकुल रुक
जाना चाहिए, उसकी
धारा रुक जानी
चाहिए, तो
श्रवण घटित
होता है। और
श्रवण पहली
सीढ़ी है। और
जितनी
महत्वपूर्ण
बात हो, उतना
ही श्रवण
प्रगाढ़ हो, तभी समझी जा
सकेगी। इसलिए
यह सूत्र कहता
है.
'तत्त्वमसि
आदि वाक्यों
द्वारा जीव—ब्रह्म
की एकतारूप
अर्थ का
अनुसंधान
करना, यह
श्रवण है।’
महावाक्य
है तत्त्वमसि।
दो—चार ही
महावाक्य हैं
जगत में, लेकिन इससे
बड़ा महावाक्य
कोई भी नहीं है।
तत्त्वमसि का
अर्थ है—तू भी
वही है, दैट
आर्ट दाऊ।
वह
जिसकी हम कल
बात कर रहे थे
तत्, कह
रहे थे
परमात्मा का
नाम है तत्—वह।
यह तत्त्वमसि
का अर्थ है, वह कोई दूर
अलग चीज नहीं
है, तू ही है।
वह जिसे हमने
कहा था तत्, वह। उससे
ऐसा लगता है
कि कहीं दूर, वह, कहीं
दूर का इशारा
है।
तत्त्वमसि
का अर्थ है, वह तू ही
है। वह दूर
नहीं है, बहुत
पास है, पास
से भी ज्यादा
पास है। तेरा
होना ही वही
है। यह
महावाक्य है।
महावाक्य का
अर्थ होता है
कि अगर इस एक
वाक्य को भी
पकड़ कर कोई
पूरा
अनुसंधान कर
ले, तो
जीवन की परम
स्थिति को
उपलब्ध हो
जाए। इसलिए
इसको
महावाक्य
कहते हैं। फिर
किसी शास्त्र की
कोई भी जरूरत
नहीं है, और
किसी वेद और
किसी कुरान और
बाइबिल की कोई
जरूरत नहीं
है।
तत्त्वमसि
पर्याप्त वेद
है। इस एक
वाक्य का कोई
ठीक से श्रवण
कर ले, मनन
कर ले, निदिध्यासन
कर ले, समाधि
कर ले, तो
किसी और
शास्त्र की
कोई जरूरत
नहीं है।
महावाक्य
का अर्थ है.
पुंजीभूत, जिसमें
सब आ गया हो।
जैसे कि
केमिस्ट्री
में फार्मूले
होते हैं। या
जैसे
आइंस्टीन की
रिलेटिविटी
का फार्मूला
है। बस दो—तीन शब्दों
में पूरी बात
आ जाती है। यह
महावाक्य आध्यात्मिक
केमिस्ट्री
का फार्मूला
है। इसमें तीन
बातें कही हैं
तत्, वह, त्वम्, तू;
दोनों एक
हैं—तीन बातें
हैं। वह और तू
एक हैं, बस
इतना ही यह
सूत्र है।
लेकिन सारा वेदांत,
सारा अनुभव
ऋषियों का, इन तीन में आ
जाता है। यह
जो गणित जैसा
सूत्र है वह—अस्तित्व,
परमात्मा—और
तू वह जो भीतर
छिपी चेतना है
वह, ये दो
नहीं हैं, ये
एक हैं। इतना
ही सार है
समस्त वेदों
का, फिर
बाकी सब फैलाव
है।
इसलिए
इस तरह के
वाक्य को
उपनिषदों में
महावाक्य कहा
गया है। इस एक
से सारे जीवन
की चितना, साधना, अनुभूति, सब निकल
सकती है। इस
तरह के वाक्य
पूर्ण मौन में
सुने जाने
चाहिए। इस तरह
के वाक्य ऐसे
नहीं सुने
जाने चाहिए, जैसे कोई
फिल्मी गाने
को सुन लेता
है। सुनने की
क्वालिटी, सुनने
की गुणवत्ता
और होनी चाहिए,
तभी ये
वाक्य भीतर
प्रवेश
करेंगे।
रास्ते पर चलते
आप बातें सुन
लेते हैं, ये
वाक्य उस तरह
नहीं सुने जा
सकते।
इसलिए
हजारों साल तक
भारत में
ऋषियों का
आग्रह रहा कि
जो परम शान है, वह लिखा न
जाए। उनका
आग्रह बड़ा
कीमती था।
लेकिन उसे
पूरा करना
असंभव था।
लिखना पड़ा।
हजारों साल तक
यह आग्रह रहा
कि जो परम
ज्ञान है, वह
लिखा न जाए।
बहुत
लोग, विशेषकर
भाषाशास्त्री,
लिंग्विस्ट
सोचते हैं कि
चूंकि लिपि
नहीं थी, लिखने
का उपाय नहीं
था, इसलिए
बहुत दिन तक
वेद और उपनिषद
नहीं लिखे गए।
वे
गलत सोचते
हैं। क्योंकि
जो तत्त्वमसि
जैसा अनुभव
उपलब्ध कर
सकते थे, जो इस
महावाक्य को
अनुभव में ला सकते
थे, वे
लिखने की कला
न खोज लेते, यह असंभव
मालूम पड़ता
है। जिनकी
प्रतिभा ऐसी ऊंचाई
के शिखर छू
लेती थी, वे
लिखने जैसी
साधारण बात भी
न खोज पाते, यह उचित
नहीं मालूम
पड़ता।
लिखने
की कला तो थी, लेकिन वे
लिखने को राजी
नहीं थे।
क्यों? क्योंकि
ऐसे महावाक्य
लिख दिए जाएं,
तो हर कोई
हर किसी हालत
में पढ़ लेता
है। और पढ कर
इस भ्रांति
में पड़ जाता
है कि समझ गए।
इन वाक्यों को
सुनने और पढ़ने
के लिए जो एक
मनोदशा चाहिए,
वह मनोदशा
के बिना भी
पढ़ा जा सकता
है। तत्त्वमसि
पढ़ने में
क्या दिक्कत
है! पहली
क्लास का
बच्चा पढ़ सकता
है। और पढ कर
इस भ्रांति
में भी पड
जाएगा कि मैं
समझ लिया कि
ठीक है, मैं
भी वही हूं।
यह मतलब हो
गया इस वाक्य
का। बात खतम
हो गई। फिर
इसको कंठस्थ
कर लेता है।
फिर जीवन भर
दोहराए चला
जाता है। चूक
गई बात। बात
ही चूक गई! वह
जो असली बिंदु
था, खो
गया।
ये
वाक्य किसी
विशेष गुण, किसी
विशेष अवस्था,
चित्त की
कोई विशेष
परिस्थिति
में ही सुनने
योग्य हैं।
तभी ये
प्राणों में
प्रवेश करते
हैं। हर कभी
सुन लेने पर
खतरा है। खतरे
दो हैं एक तो
यह याद हो
जाएगा, और
लगेगा मैंने
जान लिया, और
दूसरा खतरा यह
है कि इस
जानकारी के
कारण आप शायद
ही कभी उस
मनःस्थिति को
बनाने की
तैयारी करें,
जिसमें इसे
सुना जाना
चाहिए था। बीज
डालने का वक्त
होता है, समय
होता है, मौसम
होता है, घड़ी
होती है, मुहूर्त
होता है। और
ये बीज तो
महाबीज हैं, इन्हें हर
कहीं नहीं।
इसलिए गुरु
इन्हें शिष्य
के कान में.।
थोड़ा
समझना, हम सब सुनते
हैं कि मंत्र
कान में दिया
जाता है। और
हम यही समझते
हैं कि कान के
पास लाकर मंत्र
फुसफुसा देता
होगा। नासमझी
की बात है।
गुरु
शिष्य के कान
में इन
महाबीजों को
देता था। उसका
मतलब कि जब
शिष्य बिलकुल
कान हो जाता था, उसका
सारा
व्यक्तित्व
जब सुनने के
लिए तैयार हो
जाता था, जब
वह कान से ही
नहीं सुनता था,
रोआं—रोआं
सुनता था, जब
उसका पूरा
प्राण कान के
पीछे इकट्ठा
हो जाता था, जब उसकी
सारी आत्मा
सारी
इंद्रियों से
हट कर कान में
नियोजित हो
जाती थी, तब
गुरु उसे कान
में दे देता
था। कहता वह
यही था
तत्त्वमसि।
शब्द यही थे।
इन शब्दों में
कोई फर्क नहीं
पडता था। लेकिन
जो शिष्य था
सामने, उसकी
चैतन्य का गुण,
उसकी
चैतन्य की
क्षमता और थी।
कान फूंक देने
का मतलब।
अभी
भी न मालूम
कितने नासमझ न
मालूम कितने
नासमझों के
कान फूंकते
रहते हैं! कान
में मंत्र दे
देते हैं!
बिना इसकी
फिक्र किए कि
कान का मतलब
क्या है!
जो
कान आपकी
खोपड़ी में लगे
हैं, उनसे
बहुत मतलब
नहीं है। कान
से मतलब है, आपके
व्यक्तित्व
का एक ढंग।
आपके
व्यक्तित्व
का एक खुलाव।
एक शांति भीतर,
एक मौजूदगी,
सुनने की एक
तैयारी, आतुर
प्यास, अभीप्सा;
सारे प्राण
तैयार हैं
सुनने को। तब गुरु
कान में इन
महावाक्यों
को डाल देता
था।
और
कभी—कभी ऐसा
होता था कि इस
वाक्य का
पहुंचना ही घटना
हो जाती थी।
बहुत
लोग हैं जो
केवल सुन कर
ज्ञान को
उपलब्ध हो गए
हैं, बाकी
तीन चरणों की
जरूरत भी नहीं
पड़ी। यह जान कर
आपको हैरानी
होगी! बाकी
तीन चरणों की
जरूरत भी नहीं
पड़ी; केवल
सुन कर भी
ज्ञान को
उपलब्ध हो गए
हैं!
लेकिन
आसान मामला
नहीं है, आप सोचेंगे
अगर ऐसा होता
हो कि सुन कर
ही और शान को
हम उपलब्ध हो
जाएं, तो
फिर काहे
दूसरे उपद्रव
में पड़े!
क्यों? सुना
दें और हम जान
को उपलब्ध हो
जाएं!
सुन
कर ज्ञान को
वही उपलब्ध हो
सकता है, जिसकी
समग्रता
सुनने में
नियोजित हो गई
हो। एक रत्ती
भर हिस्सा
पीछे न रह गया
हो खड़ा। सुनने
वाला बचा ही न
हो, सुनने
की किया ही रह
गई हो। ऐसा
खयाल भी न रहा
हो भीतर कि
मैं सुनने
वाला हूं। मैं
हूं यह भी न रहा
हो, बस
सुनना ही हो
गया हूं; सुनने
की प्रक्रिया
ही रह गई हो।
सब मौन हो गया
भीतर, शून्य
हो गया! उस
शून्य में
इतनी सी चोट—तत्त्वमसि,
प्राणों का
विस्फोट कर
देती है। इतनी
सी चोट!
मगर
एक बात और
इसमें ध्यान
रखने जैसी है
कि शिष्य की, सीखने
वाले की, साधक
की, इतनी
तैयारी चाहिए
कि वह शून्य
हो। लेकिन हर
कोई उसके कान
में
तत्त्वमसि कह
दे तो भी काम
नहीं चलेगा।
कोई भी कह
सकता है। आदमी
की भी जरूरत नहीं
है, टेपरिकार्ड
पर लिख कर रख
लिया—टाइप—वह
कान में गज
जाएगा। उससे
भी काम नहीं
चलेगा।
क्योंकि
शब्दों की भी
शक्ति है। और
शक्ति होती है
बोलने वाले पर
निर्भर, शब्दों
में नहीं
होती। कितने
गहरे से शब्द
आते हैं; और
उन शब्दों में
कितने प्राण
समाविष्ट हैं,
और उन
शब्दों में
कितना अनुभव
का रस भरा है, और उन
शब्दों को जो
कह रहा है, वह
भी कहते समय
मिट गया हो, हो ही न कहने
वाला, सिर्फ
आत्मा से गूंज
उठी हो
तत्त्वमसि।
और सुनने वाला
भी न हो, सिर्फ
आत्मा तक गंज
गई हो
तत्त्वमसि—वह
तू ही है। तो
इस मिलन के
बिंदु पर बिना
कुछ किए भी—काफी
करना हो गया
यह—क्रांति
घटित हो जाती
है, विस्फोट
हो जाता है, वह जो
अज्ञानी था, अचानक
ज्ञानी हो
जाता है।
ऐसी
घटनाएं हैं
इतिहास में, जब कि
केवल सुन कर
बात हो गई।
हमें भरोसा
नहीं आता, क्योंकि
हम बहुत करते
हैं तब भी वह
बात नहीं होती,
बहुत उपाय
करते हैं, तब
भी लगता है
कुछ नहीं हो
रहा।
मिलन
दो ऐसी
चेतनाओं का कि
बोलने वाला
मौजूद न हो और
वाणी प्रकट हो, और सुनने
वाला मौजूद न
हो और वाणी
प्रवेश करे, तो श्रवण से
भी यात्रा पूरी
हो जाती है।
लेकिन
ऐसा संयोग
खोजना कठिन
है। ऐसा संयोग
मिल भी जाए तो
उसका उपयोग
करना कठिन है।
बहुत बारीक है
संयोग। इसलिए
शिष्य वर्षों
तक गुरु के पास
रहता था, इस संयोग की
प्रतीक्षा
में—कब मौका आ
जाए? कब
तैयारी हो? तो वर्षों
तक, वर्षों
तक चुप रहने
की ही साधना
चलती थी।
श्वेतकेतु
अपने गुरु के
पास गया। तो
वर्षों तक
गुरु ने पूछा
ही नहीं, कैसे
आए हो? श्वेतकेतु
ने कहा कि जब
गुरु पूछेगा,
तब बता
देंगे।
वर्षों तक
गुरु ने पूछा
ही नहीं! बड़ी
मीठी कथा है
कि गुरु की जो
सुबह से यश की
अग्नि जलती थी,
हवन जलता था,
वह हवनकुंड
भी अधैर्य से
भर गया!,
बड़ी
मीठी कथा है
कि श्वेतकेतु
आया, हवनकुंड
को भी दया आने
लगी
श्वेतकेतु पर
कि कितने वर्ष
हो गए इसे आए
और अब तक गुरु
ने यह भी नहीं
पूछा कि कैसे
आए हो! वह लाकर
लकड़ी काटता, आग जलाता, दूध दुहता, गुरु के पैर
दाबता। रात हो
जाती, वहीं
गुरु के चरणों
में सो जाता।
सुबह उठ कर
फिर काम में
लग जाता! वह जो
हवन जलता रहता
चौबीस घंटे, उस अग्नि को
भी दया आने
लगी कि अब यह
क्या होगा? यह
श्वेतकेतु
अपनी तरफ से
कहता नहीं कि
मैं किसलिए
आया हूं, और यह
उद्दालक है कि
पूछता नहीं कि
किसलिए आए हो!
ऐसी
प्रतीक्षा, ऐसा
धैर्य, इतनी
चुप्पी अपने
आप श्रावक बना
देती थी। धीरे—धीरे—धीरे—धीरे—
धीरे गुरु की
वाणी तो दूर, गुरु की
श्वास भी
सुनाई पड़ने
लगती थी। उसकी
हृदय की धड़कन
भी—इतनी
प्रतीक्षा
में, इस
मौन में—सुनाई
पड़ने लगती थी।
वह कुछ कहे, यह जरूरी भी
न था, उसका
हिलना—डुलना
भी सुनाई पड़ने
लगता था। और
जब ठीक क्षण
आता, तो वह
कह देता। जब
ठीक क्षण आता,
तो कहने की
घटना घट जाती,
न तो गुरु
को चेष्टा
करनी पड़ती थी
कहने की और न शिष्य
को चेष्टा
करनी पड़ती थी
कुछ जानने की;
ठीक क्षण
में घटना घट
जाती थी।
श्रवण
बड़ा कीमती चरण
है। आपके लिए
दो—तीन बातें
खयाल में ले
लेनी चाहिए।
एक, सुनते
समय सुनना ही
हो जाएं।
सुनने वाला
भूल जाए, कान
ही रह जाएं; फैल जाएं
कान। आपका
सारा शरीर कान
बन जाए; सब
तरफ से सुनने
लगें, और
भीतर कोई
चिंतन न हो।
सारा चित्त
एकाग्र रूप से
सुनने में डूब
जाए। तो भीतर
कोई विचार न चलाएं।
हम
सबको डर लगता
है कि अगर
विचार न
करेंगे तो पता
नहीं, न
मालूम कोई गलत
बात हमारे
भीतर डाल दे! न
मालूम कोई
हमारी
मान्यताओं को
खंडित कर दे!
तो हम सुरक्षा
में लगे रहते
हैं कि क्या
तुम कह रहे हो,
जांच—पड़ताल
करके भीतर
जाने देंगे; अपने मतलब
का होगा तो
जाने देंगे, अपने मतलब
का नहीं होगा
तो नहीं जाने
देंगे।
आप
जान कर हैरान
होंगे कि
मनसविद कहते
हैं कि आपसे
अगर सौ बातें
कही जाएं, तो आपका
मन पांच बातों
को मुश्किल से
भीतर जाने
देता है!
पंचानबे को
बाहर लौटा
देता है—घुसने
ही नहीं देता।
क्यों? क्योंकि
आपकी
मान्यताएं
अतीत की
निर्भर हैं, तय हैं। कोई
मुसलमान है, कोई हिंदू
है, कोई
जैन है, कोई
ईसाई है—वह
भीतर है, वह
बैठा है वहा
भीतर आपका मन
अतीत में
संगृहीत किया
हुआ। वह पूरे
वक्त जांच—पड़ताल
रखता है कि
अपने से कुछ
मेल खाता हो, अपने को कोई
मजबूत करता हो,
तो उसे भीतर
ले लो। अपने
से मेल न खाता
हो, अपने
को मजबूत न
करता हो, तो
उसे भीतर आने
ही मत दो, उसे
बाहर ही रोक
दो। इस तरह
सुन लो किं
जैसे सुना ही
नहीं, या
सुन कर भी
तत्काल उसका
विरोध कर दो, ताकि भीतर
प्रवेश न कर
सके।
आप
जरा अपने मन
का खयाल करना
कि क्या आप
पूरे वक्त
भीतर ही और न
कहते रहते हैं? कौन कह
रहा है यह हां
और न? आप
नहीं कह रहे
हैं, यह
आपका मन है, जो आपने
इकट्ठा किया
है। तो मन
अपने अनुकूल
को चुनता है
और प्रतिकूल
को छोड़ देता
है। तब बड़ी
कठिनाई है!
इसी मन को
मिटाना है; और यह
अनुकूल को
चुनता है और
प्रतिकूल को
सुनता नहीं, यह मिटेगा कैसे?
यही मन है
दुश्मन और यही
है आपका
नियंता; इसी
को मिटाने चले
हैं और इसी के
सहारे मिटाने
चले हैं; तो
कभी न मिटा
पाएंगे। तो
जरा सी एक बात
आपको खटक जाए,
कि यह बात
नहीं जंचती
आपकी
मान्यताओं
में, बस मन
आपका द्वार
बंद कर लेता
है कि सुनो ही
मत अब, अनसुना
कर दो या
विरोध करते
जाओ भीतर। हम
सुरक्षा में
लगे हैं अपनी,
जैसे कोई
संघर्ष चल रहा
है। श्रवण
नहीं हो पाएगा
फिर। फिर एक
कलह चल रही
है।
मगर
श्रवण का अर्थ
कोई अंधा
स्वीकार नहीं
है। श्रवण का
स्वीकार से
कोई संबंध ही
नहीं है। श्रवण
का संबंध
सिर्फ इस बात
को ठीक से सुन लेने
से है कि क्या
कहा गया है।
दूसरा
चरण है, मनन।
जो
कहा गया है
उसे सुन कर
मनन करना है, जो कहा
गया है उसकी
प्रामाणिकता
में सुन कर मनन
करना है। यह
मनन की पहली
शर्त है। आपने
अपने मतलब का
चुन लिया, उस
पर मनन किया, वह मनन नहीं
है, वह
धोखा है।
तो
मनन की पहली शर्त.
सुन लिया, बिना ही—न
किए। निंदा, प्रशंसा, स्वीकार—अस्वीकार—कुछ
भी नहीं, कोई
मूल्यांकन
नहीं, कोई
निर्णय नहीं—पक्ष
न विपक्ष; मौन,
तटस्थ सुन
लिया, क्या
कहा है। उसे
उतर जाने दिया
हृदय के आखिरी
कोने तक, ताकि
उससे परिचय हो
जाए। जिससे
परिचय है, उसी
का तो मनन हो
सकता है।
यही
चिंतन और मनन
का फर्क है।
चिंतन हम उसका
करते हैं, जिसका
कोई ठीक से
परिचय ही नहीं
है। चिंतन है अपरिचित
के साथ बुद्धि
की प्रक्रिया,
व्यायाम।
मनन है परिचित
के साथ—जिसे
आत्मसात किया,
डुबा लिया
अपने में भीतर,
उस पर
विचार।
दोनों
में बड़ा फर्क
है। चिंतन में
कलह है, मनन में
सहानुभूति
है। चिंतन में
द्वंद्व है, मनन में
विमर्श है। ये
बड़े फर्क हैं।
चिंतन का मतलब
है, आप लड़
रहे हैं किसी
चीज से। अगर न
जीत पाए, तो
मान लेंगे।
लेकिन मानने
में पीडा
रहेगी।
इसलिए
जब आप किसी से
विवाद करते
हैं, और
उससे तर्क
नहीं कर पाते,
और आपको
मानना पड़ता है,
तो आपको पता
है, भीतर
कैसी पीड़ा
होती है! मान
लेते हैं, क्योंकि
अब तर्क नहीं
कर सकते हैं; लेकिन भीतर?
भीतर
तैयारी रहती
है कि आज नहीं
कल, उखाड़
कर फेंक देंगे
यह सब, आज
नहीं कल, अस्वीकार
कर देंगे।
इसलिए
इस दुनिया में
किसी भी आदमी
को तर्क से
रूपांतरित
नहीं किया जा
सकता; क्योंकि
तर्क का मतलब
है, पराजय।
अगर उसको तर्क
से कोई चीज
सिद्ध भी कर दी,
तो वह हारा
हुआ अनुभव
करेगा, बदला
हुआ नहीं।
हारा हुआ
अनुभव करेगा
कि ठीक है, मैं
कुछ जवाब नहीं
दे पा रहा हूं,
तर्क
नहीं खोज पा
रहा हूं; जिस
दिन तर्क खोज
लूंगा, देखूंगा।
हारा हुआ
अनुभव करेगा।
और
ध्यान रहे, हारा हुआ
आदमी कभी भी
बदला हुआ आदमी
नहीं होता। तो
आप किसी को
चुप कर सकते
हैं तर्क से, रूपांतरित
नहीं कर सकते।
और बात भी ठीक
है, तर्क
से रूपांतरित
किसी को होना
भी नहीं चाहिए।
क्योंकि जब दो
व्यक्ति विवाद
करते हैं, तो
जो हार जाता
है, जरूरी
नहीं है कि वह
गलत रहा हो, जो जीत जाता
है, जरूरी
नहीं है कि
सही रहा हो।
इतना ही जरूरी
है कि जो जीत
गया है, वह
ज्यादा तर्क
कर सकता था; जो हार गया
है, वह कम
तर्क कर सकता
था। इससे
ज्यादा कुछ भी
पक्का नहीं
है। तो
स्वाभाविक है
कि तर्क से
कोई कभी बदलता
नहीं; क्रांति
कोई घटित नहीं
होती। तर्क से
आघात लगता है
अहंकार को, और अहंकार
बदला लेना
चाहता है।
तर्क एक संघर्ष
है।
चिंतन
में एक संघर्ष
है भीतर। जो
भी आप चिंतन करते
हैं, उससे
आप जूझते हैं,
लड़ते हैं; एक भीतरी
लडाई चलती है।
आप अपनी सारी
अतीत की
स्मृति और
सारे अतीत के
विचारों को
उसके खिलाफ
खड़ा कर देते
हैं। फिर भी
अगर हार जाते
हैं, तो
मान लेते हैं;
लेकिन
मानने में एक
पीड़ा, एक
दंश, एक
कांटा चुभता
रहता है। वह
मानना मजबूरी
का है। उस
मानने में कोई
प्रफुल्लता
घटित नहीं होती।
उस मानने से आपका
फूल खिलता
नहीं है, मुर्झाता
है।
तो
चिंतन, विचारक जो
करते रहते हैं
सारी दुनिया
में, इसलिए
विचारकों के
चेहरे पर
बुद्ध की
प्रफुल्लता
नहीं दिखाई
पड़ेगी। क्या
फर्क है? महावीर
का प्रमुदित
व्यक्तित्व
दिखाई नहीं पड़ेगा
विचारकों
में।
विचारकों के
चेहरे पर चिंतन
की रेखाएं
दिखाई पड़ेगी,
मनन के फूल
नहीं दिखाई
पड़ेंगे।
विचारक के माथे
पर धीरे—धीरे
झुर्रिया
पड़ती जाएंगी;
एक—एक रेखा
खिंच जाएगी, उसने जिंदगी
भर जो मेहनत
की है उसकी!
लेकिन वह जो
बुद्ध या किसी
महावीर के
भीतर घटित
होता है, वह
जो खिलावट है,
वह दिखाई
नहीं पड़ेगी।
विचार बोझ दे
जाएगा; कमर
झुक जाएगी।
विचारक
चिंतित मालूम
पड़ने लगेगा।
चिंतन
और चिंता में
कोई गुणात्मक
फर्क नहीं है।
सब चिंतन
चिंता का ही
रूप है।
बेचैनी है उसमें
छिपी हुई; एक तनाव
है। क्योंकि
एक भीतरी
संघर्ष है, कलह है, लड़ाई
है एक। इसलिए
विचारक का
होते—होते, होते—होते, झुक जाता है
बोझ से! विचार
के ही बोझ से
झुक जाता है।
बुद्ध
और महावीर के
साथ उलटी घटना
घटती है। जैसे—जैसे
ये के होते
हैं, भीतर
जैसे कुछ युवा
होता जाता है;
कोई ताजगी!
यह मनन है।
मनन
और चिंतन का
फर्क है।
चिंतन शुरू
होता है तर्क
से, मनन
शुरू होता है श्रवण
से। चिंतन
शुरू होता है
संघर्ष से, मनन शुरू
होता है श्रवण
से। श्रवण
ग्राहकता है,
कोई संघर्ष
नहीं है। तो
मनन और चिंतन
का पहला फर्क।
स्वभावत:, चिंतन चूंकि
कलह से शुरू
होता है, इसलिए
तर्कणा उसका
आधार है, सहानुभूति
वहां नहीं है।
विरोध, शत्रुता
वहां आधार है,
विवाद। मनन
शुरू ही होता
है श्रवण से, इसलिए
सहानुभूति
वहा आधार है।
सहानुभूति
का क्या अर्थ
है? सहानुभूतिपूर्ण
विचारणा! जो
हम सोच रहे
हैं, जिस
संबंध में हम
सोच रहे हैं, बड़े सहानुभूति
से और बड़े
प्रेम से सोच
रहे हैं।
क्या
फर्क पड़ता
होगा
क्वालिटी में
चिंतन की, मनन की?
जब
आप किसी चीज
को सहानुभूति
से सोचते हैं, तो आपकी
पूरी आंतरिक आकांक्षा
यह होती है कि
जो मैं सुना
हूं वह सही हो
सकता है; और
सही हो, तो
मेरे लाभ का
हो सकता है।
इसलिए आप
खोजते हैं
पहले वे बिंदु,
जो सही हों।
जब आप चिंतन
करते हैं, तो
आप यह मान कर
चलते हैं कि
जो सुना है, वह गलत है।
खोजते हैं
पहले वे बिंदु,
जो गलत हों।
ऐसा
समझें कि कोई
आदमी गुलाब के
वृक्ष के पास, फूलों की
क्यारी के पास
खड़ा है। अगर
वह चिंतन कर
रहा है तो
पहले वह कांटे
गिनेगा, अगर
वह मनन कर रहा
है तो पहले वह
फूल गिनेगा। और
इससे
बुनियादी फर्क
पड़ता है. कहां
से आप शुरू
करते हैं?
क्योंकि
जो आदमी पहले
काटे गिनेगा, उसका
विरोधी रुख
जाहिर है।
पहले वह कांटे
गिनेगा, हजारों
काटे
निकलेंगे। और
कांटे गिनने
में हाथ में
कांटे
चुभेंगे भी, खून भी
निकलेगा। वह
काटो का चुभना
और कीटों की
संख्या और खून
का बह जाना फूलों
की खिलाफत के
लिए आधार बन
जाएगा। और फिर
जब लाख कांटे
गिन लेगा और
एकाध—दो फूल
दिखाई पड़ेंगे,
तो मन कहेगा
कि ये फूल
धोखे के हैं, ये सच नहीं
हो सकते।
क्योंकि जहां
इतने काटे हैं,
वहां फूल हो
कैसे सकते हैं
इतने कोमल!
मैं कोई धोखा
खा रहा हूं।
स्वाभाविक, यह उचित
मालूम होगा।
इतने काटे
जहां हैं, जहा
लहू बहा देने
वाले कांटे
हैं, वहां
ये कोमल फूल
खिल कैसे सकते
हैं! यह असंभव मालूम
पडता है। और
फिर अगर मान
भी लेगा कि
फूल हैं भी, तो वह कहेगा,
कोई मूल्य
नहीं है। लाख
काटो में एक
फूल का मूल्य
भी क्या है? बल्कि ऐसा
लगता है, यह
कीटों का
षड्यंत्र है,
ताकि एक फूल
के बहाने लाख
काटे दुनिया
में बने रहें।
यह धोखा है।
यह फूल जो है, काटो को
छिपाए हुए है।
यह उनके
षड्यंत्र का
भागीदार है।
जो
आदमी फूल से
शुरू करेगा—मनन, फूल से
शुरू करेगा—पहले
फूलों को
छुएगा, फूलों
की सुवास उसके
हाथों में भर
जाएगी; फूलों
का रंग उसकी आंखों
में उतर जाएगा;
फूलों की
कोमलता उसके
स्पर्श में
लीन होने लगेगी,
फूल का
सौंदर्य उसे
आच्छादित कर
लेगा। फिर वह काटो
के पास आएगा—फूलों
को देखने के
बाद, फूलों
को जानने, जीने
के बाद; प्रेम
में गिर गया
वह उस झाड़ी के—
अब वह कांटों
के पास आएगा।
इसकी दृष्टि
में काटे और
ही तरह के
होंगे।
जो
आदमी फूलों को
समझ कर काटो
के पास जाएगा, वह
समझेगा कि
काटे फूलों की
रक्षा के लिए
हैं। फूलों के
दुश्मन नहीं
है; फूलों
के विपरीत
नहीं हैं। जो
रस फूलों में
बह रहा है, वही
रस कीटों में
बह रहा है, और
काटे फूल की
रक्षा के लिए
हैं। और जिसको
फूल दिखाई पड़
गए हैं—एक फूल
भी जिसे दिखाई
पड़ गया है ठीक
से—लाख काटे
बेकार हो
जाएंगे।
क्योंकि एक
फूल का होना
भी काफी है
लाख काटो को
बेकार करने के
लिए। और अगर
इतने काटो के
बीच फूल खिल
सकता है, तो
असंभव
चमत्कार है!
असंभव भी हो
सकता है! और जब
इतने काटो के
बीच फूल खिल सकता
है, तो इस
आदमी को दिखाई
पड़ेगा कि मैं
जरा और खोज करूं,
और खोज करूं,
शायद काटे
भी फूल ही
सिद्ध हों!
तो
मनन सहानुभूति
से शुरू होता
है; चिंतन
विरोध से शुरू
होता है।
श्रवण की शर्त
पूरी हो जाए
तो सहानुभूति
जग जाती है।
सहानुभूति जग
जाए तो चिंतन
की धारा ही
विपरीत हो
जाती है, मनन
बन जाती है।
मनन का अर्थ
भी अंधे होकर
स्वीकार कर
लेना नहीं है।
इसलिए
ऋषि ने कहा है’जो
सुना गया है, श्रवण
हुआ है उसके
अर्थ को
युक्तिपूर्वक
विचार करना, यह मनन है।'
तो
कोई यह न सोचे
कि मनन का
अर्थ अंधे
होकर स्वीकार
कर लेना है। न
तो श्रवण का
अर्थ स्वीकार
कर लेना है, न मनन का
अर्थ स्वीकार
कर लेना है, युक्ति का
उपयोग करना
है। लेकिन
युक्ति का उपयोग
भी बदल जाता
है। युक्ति
अपने आप में
तटस्थ है।
जैसे एक तलवार
मेरे हाथ में
है, तलवार
तो तटस्थ है।
चाहूं किसी की
जान ले लूं, चाहूं किसी
की जान बचा
लूं; तलवार
तटस्थ है।
युक्ति तटस्थ
है। अलग—अलग
ढांचे में
युक्ति का
अर्थ बदल जाता
है। अगर
दुश्मनी से, विरोध से, संघर्ष से
भरा हुआ चित्त
हो, तो
तर्क
हिंसात्मक हो
जाता है। अगर सहानुभूति
से, श्रवण
से, प्रेम
से, सत्य
की खोज और
अभीप्सा से
भरा चित्त हो,
तो युक्ति
रक्षा करने
वाली तलवार बन
जाती है। युक्ति
अपने में बुरी
नहीं है।
इसलिए
हमने इस देश
में दो तरह के
तर्क माने हैं
: एक को तर्क
कहा और एक को
कुतर्क कहा।
कुतर्क भी
तर्क है। और
कभी—कभी तो
कुतर्क तर्क
से भी ज्यादा
तर्कपूर्ण
मालूम पड़ता है, क्योंकि
उसमें धार
होती है, और
पैनी धार होती
है, और
काटने के लिए,
मारने के
लिए सक्षम
होती है। तो
कुतर्क कभी—कभी
बिलकुल ही
गहरा तर्क
मालूम पड़ता
है। फर्क कैसे
करेंगे कि
क्या कुतर्क
है और क्या
तर्क है?
यही
फर्क है कि
अगर तर्क शुभ
की, सत्य
की खोज के लिए
है, सहानुभूति
से भय है, फूलों
से शुरू करता
है, फिर
कांटों पर
जाता है..।
कोई
बात मैं आपसे
कहता हूं, आप कहां
से शुरू करते
हैं, इस पर
खयाल करना। कई
दफे मैं हैरान
होता हूं! एक
घंटे बोला, पीछे कोई
आदमी मेरे पास
आता है। घंटे
भर में जो
मैंने कहा, उसे कुछ
खयाल में नहीं
आया, कोई
एक बात की
खिलाफत उसको
पकड़ जाती है।
वह एक बात को
चुन लेता है, वह उसकी
खिलाफत करने आ
जाता है। वह
जो घंटे भर में
और कहा, उससे
उसे कोई संबंध
नहीं रह जाता।
बस, उतनी
बात! और वह बात
भी तोड़ लेता
है सारे संदर्भ
से, क्योंकि
संदर्भ में उसका
और अर्थ था।
अलग तोड़ कर वह
बिलकुल कोई और
अर्थ ले लेती
है। पर उसने
सुना उसी को।
उसकी तैयारी
वही रही होगी।
वह तैयार ही
होकर आया होगा
कि कुछ गलत
खोज लिया जाए।
अगर आप गलत
खोजने को ही
सुन रहे हों, तो आप कभी भी
मनन न कर
पाएंगे।
और
ध्यान रहे, कितना ही
गलत खोज डालें
आप, गलत की
खोज आपके
भीतरी विकास
में कोई तरह
का सहारा नहीं
बनेगी। आप
कितना ही तय
कर लें, कहां—कहां
गलत है, आप
सारी दुनिया
की सारी
गलतियां जान
लें, फिर
भी आपकी कोई
इनर ग्रोथ, कोई आंतरिक
विकास उससे
नहीं होगा।
तो
जो खोज में
लगा है और
अपने विकास
में उत्सुक है, वह इसकी
चिंता नहीं
करता कि क्या
गलत है, वह
इसकी चिंता
करता है कि
क्या ठीक है।
ठीक से शुरू
करता है। और
जो ठीक से
शुरू करता है,
किसी दिन जो
उसे गलत दिखाई
पड़ता था, शायद
उस जगह पहुंच
जाए कि जहां
ठीक से शुरू
करने के बाद
उसे पता लगे
कि उसका भी
कोई अर्थ है, उसका भी कोई
मूल्य है। और
वह जो पहले
गलत मालूम
पड़ता था, वह
पीछे ठीक
मालूम पड़ सके।
एस्फेसिस, जोर
का फर्क है।
कुतर्क
गलत को खोजता
है, वहीं
से यात्रा
शुरू करता है।
युक्ति, तर्क—सुतर्क
कहें—ठीक से
शुरू करता है।
एक
आदमी को कुरान
दे दें पढ़ने
को। अगर वह
हिंदू है, तो कुरान
में जो—जो
महत्वपूर्ण
है, वह
उसको दिखाई ही
नहीं पड़ेगा, जो—जो गलत है,
वह
अंडरलाइन
करके ले आएगा
कि यह देखो, यह लिखा हुआ
है! हम पहले ही
कहते थे कि
कुरान भी कोई
धर्मशास्त्र
है! मुसलमान
को गीता दे
दें। बराबर
निकाल लाएगा
कि क्या—क्या
गलत है! और अगर
यह कला सीखनी
हो, आर्यसमाजियों
से सीख लेनी
चाहिए! कहा—कहां
क्या—क्या गलत
है, उसमें
जैसे वे कुशल
हैं, उतना
कोई भी कुशल
नहीं है!
मन
को आर्यसमाजी
बनने से बचाना, तो ही मनन
हो सकेगा; नहीं
तो मनन नहीं
हो सकता, क्योंकि
खोज ही गलत को
रहे हैं। तो
गलत काफी मिल
जाएगा। काटो
की कोई कमी है!
पर काटो से
प्रयोजन क्या
है? कोई
काटो की
मालाएं बनानी
हैं न: गले में
डालनी हैं? प्रयोजन
फूलों से है, काटो से
प्रयोजन क्या
है?
तो
अगर युक्ति हो, तो कुरान
में से भी फूल
चुन लिए
जाएंगे, और
वे फूल किसी
गीता से कम
फूल नहीं हैं।
अगर युक्ति हो,
तो गीता में
से भी वे फूल
चुन लिए
जाएंगे, वे
फूल किसी
कुरान, किसी
बाइबिल से कम
नहीं हैं। मनन
करने वाला व्यक्ति
फूलों की खोज
में है; चिंतन
करने वाला
व्यक्ति काटो
की खोज में
है। वह आपको
तय कर लेना
चाहिए। एक बात
खयाल रखना कि
जो आप खोजेंगे,
उसी से घिर
जाएंगे। काटे
खोजेंगे, काटो
से घिर जाएंगे;
फूल
खोजेंगे, फूलों
से घिर
जाएंगे।
तो
ध्यान रखना कि
काटे खोज कर
आप किसी और का
अहित नहीं कर
रहे हैं, अपना ही
अहित कर रहे
हैं; क्योंकि
जो खोजेंगे, वही मिलेगा।
हम सब काटो के
खोजी हैं। कोई
भी आदमी मिले,
तो उसमें
क्या भूल है, उसकी खोज की
कुशलता का कोई
अंत ही नहीं
है, तत्काल
वह दिखाई पड़ती
है। फिर
धीरे—धीरे
सबमें हम
भूलें देख
लेते हैं, उन्हीं
के बीच रहना
पड़ता है, जगत
नर्क हो जाता
है। क्योंकि
सब गलत आदमी
चारों तरफ
मालूम पड़ते
हैं, ठीक
आदमी कोई
दिखाई नहीं
पड़ता। इसलिए
नहीं कि ठीक
आदमी नहीं हैं,
बल्कि
इसलिए कि आपकी
खोज ही गलत
आदमी की है।
किसी
से कहो कि
फलां आदमी
बहुत अच्छी
बांसुरी बजाता
है। वह कहेगा, क्या
बांसुरी
बजाएगा? चोर!
बेईमान! वह
क्या बांसुरी
बजाएगा?
अब
चोर और बेईमान
से बांसुरी
बजाने का क्या
विरोध है? होगा बेईमान,
लेकिन
बेईमान
बांसुरी नहीं
बजाता यह
किसने कहा? कि नहीं बजा
सकता यह किसने
कहा? किसने
यह संबंध जोड़ा?
चोर में भी
तो फूल खिल
सकता है
बांसुरी
बजाने का।
चोरी काटा
होगी, बांसुरी
बजाना फूल
होगा। जब काटो
में फूल खिल सकते
हैं, तो
चोर बांसुरी
क्यों नहीं
बजा सकता?
लेकिन
नहीं, यह
मानने में बड़ी
पीड़ा होती है
कि कोई कुछ भी
अच्छा कर सकता
है। फौरन कह
देंगे कि चोर
है, बेईमान
है, वह
क्या बांसुरी
बजाएगा!
मनन
वाले आदमी की
वृत्ति दूसरी
होगी। अगर आप
कहेंगे उससे
कि फला आदमी
चोर है, बेईमान है।
वह कहेगा, होगा,
लेकिन
बांसुरी गजब
की बजाता है।
यह
चुनाव का फर्क
है। और जब कोई
आदमी बांसुरी गजब
की बजाता है, तो उसका
चोर होना और
बेईमान होना
भी संदिग्ध होने
लगता है। और
जब कोई आदमी
चोर और बेईमान
गजब का होता
है, तो
उसका बांसुरी
बजाना
संदिग्ध होने
लगता है। जो
हम पकड़ते हैं,
उससे दूसरी
बात पर प्रभाव
पड़ता है।
क्या
जरूरत है कि
वह चोर है या
बेईमान है! हम
अपने पड़ोसी को
चोर और बेईमान
चाहते हैं? तो हमें
वही खोजना
चाहिए। हम
अपने पड़ोसी को
सुगंधित
बांसुरी
बजाने वाला
चाहते हैं, तो हमें वही
खोजना चाहिए।
जिंदगी में
दोनों हैं।
वहा रात भी है
और दिन भी, और
वहा बुरा भी
है और भला भी।
आप यह मत
सोचना कि स्वर्ग
कहीं और है
जमीन से और
नर्क कहीं और
है, आपकी
दृष्टि में
निर्भर है।
इसी जमीन पर
लोग स्वर्ग
में रहते हैं
और इसी जमीन
पर लोग नर्क में
रहते हैं। आप
क्या खोजते
हैं, वही
आपका जगत बन
जाता है।
मनन
फूलों से
यात्रा शुरू
करता है; सहानुभूति
से। गलत पर
जल्दी से हमला
नहीं करता, सही को पहले
आत्मसात कर
लेता है। और
जब सही पूरी
तरह आत्मसात
हो जाता है, तो ही जो
पहले गलत जैसा
दिखा था, उस
पर सोचता है।
और
ध्यान रहे, इस
दृष्टि के
रूपांतरण के
बुनियादी
अंतर बाद में
दिखाई पड़ने
शुरू होते
हैं। ऐसा आदमी
धीरे—धीरे
विकसित होता
है, अंकुरित
होता है, सही
को आत्मसात
करते—करते सही
हो जाता है।
और गलत की खोज
करते—करते, गलत को
आत्मसात करते—करते
गलत हो जाता
है। जो आदमी
दूसरों में
बेईमानी और
चोरी और गलत
ही देखता है, ज्यादा दिन
तक ईमानदार
नहीं रह सकता।
सच तो यह है कि
पहले से ही
ईमानदार नहीं
हो सकता।
असल
में कोई चोर
किसी दूसरे
आदमी को मान
नहीं सकता कि
चोर नहीं है।
या कि मान
सकता है? चोर यह मान
ही नहीं सकता
कि दूसरे लोग
अचोर हैं। चोर
के सोचने का
सारा ढंग चोरी
का हो जाता है।
वह दूसरों में
भी तत्काल
चोरी खोजता है,
देखता है।
व्यभिचारी यह
नहीं मान सकता
कि कोई चरित्रवान
है। मान ही
नहीं सकता।
उसका अनुभव बाधा
बनता है मानने
में।
यह
बड़ी मजेदार
बात है।
व्यभिचारी
मान नहीं सकता
कि कोई
ब्रह्मचारी
है—मान ही
नहीं सकता! यह
बात ठीक है।
अगर कोई सच में
ही
ब्रह्मचारी
है, तो वह
भी नहीं मान
सकता कि कोई
व्यभिचारी है!
लेकिन यह बड़े
मजे की बात है
व्यभिचारी तो
कभी नहीं मानते
कि कोई
ब्रह्मचारी
है और
ब्रह्मचारी भी
नहीं मानते कि
कोई
ब्रह्मचारी
है!
तब
बड़ी झंझट की
बात है।
व्यभिचारी का
न मानना तो
तर्कसंगत है
कि कोई
ब्रह्मचारी
हो नहीं सकता, जब मैं ही
नहीं हो सका, तो कौन हो
सकता है!
लेकिन
ब्रह्मचारी
भी मानने को
तैयार नहीं
होता कि कोई
दूसरा
ब्रह्मचारी है।
तब मामला
संदिग्ध है, तब वह भी
ब्रह्मचारी
नहीं है; क्योंकि
उसका भी भीतरी
अनुभव यह है
कि ब्रह्मचर्य
वगैरह सब ऊपर—ऊपर
है, भीतर
व्यभिचार है।
वह भी नहीं
मानता।
इसलिए
अगर आपको कोई
साधु मिले जो
दूसरों को असाधु
मानता हो, तो समझ
लेना कि अभी
साधु साधु हो
नहीं पाया है।
साधु होने का
मतलब ही यह है
कि सारा जगत तत्क्षण
साधु हो
जाएगा। सारी
बात ही बदल गई,
क्योंकि
देखने का ढंग
बदल गया। एक
आदमी जब भीतर
साधु हो जाता
है तो सारे
जगत में उसे
साधुता दिखाई
पड़ने लगती है,
क्योंकि जो
भीतर है, वही
बाहर दिखाई
पड़ता है। अगर
आपको सब में
असाधुता
दिखाई पड़ती हो,
चोर, बेईमान,
बदमाश
दिखाई पड़ते
हों, तो
उनकी फिक्र
छोड़ कर अपनी
फिक्र में
लगना। जो
दिखाई पड़ता है,
वह आपके
भीतर है। वही
आपको दिखाई
पड़ता है। वही
तत्काल दिखाई
पड़ता है, क्योंकि
उसकी संगति
बैठ जाती है, भीतर से
तत्काल संगति
बैठ जाती है।
मनन, जीवन का
जो सुध, शुक्ल
पक्ष है, उससे
शुरू होता है।
चिंतन, जीवन
का जो कृष्ण, अंधेरा पक्ष
है, उससे
शुरू होता है।
यह ध्यान में
रहे तो फिर युक्ति
का बड़ा मजा
है। विचार, तर्क बड़े
सहयोगी हैं।
तब पूरी
निष्ठा से
युक्ति की जा सकती
है। और युक्ति
से फिर नुकसान
नहीं होता। फिर
युक्ति
सहयोगी बन
जाती है, मित्र
बन जाती है।
इस
श्रवण। और मनन
द्वारा
निस्संदेह
हुए अर्थ में
चित्त को
स्थापित करके
एकतान बनाना
सुना
महावाक्य
तत्त्वमसि—तू
ब्रह्म है।
सुना पूरे
प्राणों से, फिर सहानुभूति
से सोचा, विमर्श
किया, खोजा
इस वाक्य के
अर्थ को, इसकी
अनेक— अनेक
निष्पत्तियों
को, अंतर्निहित
गहराइयों को
अनेक— अनेक
मार्गों से
टटोला, स्पर्श
किया, स्वाद
लिया, डुबाया
अपने में, मनन
किया—और फिर
पाया कि सही
है। पाया ही
जाएगा कि सही
है, क्योंकि
जिन्होंने
कहा, उन्होंने
पाकर कहा है।
ये कोई
विचारकों के
निष्कर्ष
नहीं हैं, अनुभवियों
की वाणी है।
यह जिन्होंने
सोचा, और
सोच—सोच कर
कुछ तय किया, उनकी बात
नहीं है, जिन्होंने
जाना, जीया,
डूबे, पाया,
उनकी खबरें
हैं। पाएंगे
ही। अगर मनन, श्रवण ठीक
चला, तो
पाएंगे ही कि
ठीक है यह
बात। अगर ठीक
है, तो फिर
इस ठीक से
एकतान हो जाना
निदिध्यासन
है। अगर यह
ठीक है कि मैं
ब्रह्म ही हूं,
तो
फिर ब्रह्म
जैसे ही होकर
जीने लगना निदिध्यासन
है। आचरण, व्यवहार,
सब तरफ
एकतान हो जाना।
फिर कोशिश
करना कि जो
ठीक है, उसमें
और मुझमें भेद
न रह जाए।
क्योंकि अगर
यह वाक्य ठीक
है, तो फिर
मैं गलत हूं।
दो ही बातें
हो सकती हैं. या
तो मैं सही
हूं? तो यह
वाक्य गलत है,
अगर यह
वाक्य सही है,
तो फिर मैं
गलत हूं।
हम
सबकी कोशिश
क्या है? इसे थोड़ा
समझ लें।
हमारी सदा यह
कोशिश है कि
मैं सही हूं!
यही हमारा
उपद्रव है।
हमारे जीवन की
सबसे बड़ी झंझट,
सबसे बड़ी
परेशानी और
संताप यही है
कि हम मान कर
चलते हैं कि
मैं सही हूं।
यह तो हमारी
शुरुआत है हर
बात में कि
मैं सही हूं।
इसी से हम कसते
हैं। यह हमारा
निकष है, कसौटी
है, कि मैं
सही हूं। अब
जो मेरे
अनुकूल न पड़े
वह गलत है।
इसको
तय कर लेना
चाहिए; साधक को यह
तय कर लेना
चाहिए कि यह
मूढ़तापूर्ण
विचार
प्रस्थान न
बने कि मैं
सही हू। अगर
आप सही ही हैं,
तो अब खोज
की कोई जरूरत
ही नहीं है।
यह
बहुत मजेदार
है! कल एक
महिला मेरे
पास आईं।
उन्होंने कहा
कि मैं कोई
बीस वर्ष पहले
किसी स्वामी
से दीक्षा ली
हूं कुंडलिनी
मेरी जाग्रत
हो गई है।
लेकिन चैन
बिलकुल नहीं
है, बड़ी
बेचैनी है।
कुंडलिनी
जाग्रत हो गई
हो तो यह
बेचैनी कैसे है? और अगर
बेचैनी है तो
कृपा करके
कुंडलिनी को
मानो कि सोई
है, अभी
जगी नहीं है।
मगर नहीं, दोनों
बात चलती हैं!
आप
अगर सही हैं, तो फिर तो
कुछ बची ही
नहीं खोज, बात
खतम हो गई। हर
आदमी यह मान
कर चलता है
मैं सही हूं
और फिर कहता
है मुझे सत्य
की खोज करनी है!
सत्य की खोज
करनी है तो
निर्णय
स्पष्ट हो जाना
चाहिए चेतना
के सामने कि
मैं गलत हू।
तो ही खोज हो
सकती है। जब
मैं गलत हूं, तब
किसी सत्य में
प्रवेश हो
सकता है; मैं
पहले से ही
सही हू र तो
सत्य ही गलत
मालूम पड़ेगा।
क्योंकि जब
गलत आदमी अपने
को सही मान रहा
हो, तो सही
को सही कभी
नहीं देख
सकता।
मन
की व्यवस्था
यही है मान कर
चलने का कि
मैं सही हूं।
मेरा विचार, मेरी
दृष्टि, मेरा
धर्म, मेरा
शास्त्र, मैं
सही हूं—यहां
से अगर शुरू
करना है तो
शुरू करने की
कोई जरूरत
नहीं, आप
मंजिल पर
पहुंच ही गए
हैं, अब
नाहक मेहनत कर
रहे हैं।
पाएंगे भी
कहां मंजिल; मंजिल पर आप
खड़े ही हैं।
आप खुद ही
मंजिल हैं।
यह
साफ कर लेना
चाहिए। अगर
ऐसा पागलपन आ
गया हो कि मैं
सही हूं, तो खतम हो गई
बात फिर कुछ
खोज—बीन नहीं
करनी चाहिए।
खोज—बीन का
मतलब ही है कि
मैं गलत हूं।
दुख है, संताप
है पीड़ा है, तनाव है, परेशान
हू बीमार हूं;
और सब तरह
से घिर गया
हूं अपनी
बीमारियों
से। इन्हीं सब
बीमारियों का
जोड़ मैं हूं—ऐसा
जो मान कर
चले। और यही
सच है। आप
बीमारी का जोड़
हैं, ज्यादा
कुछ भी नहीं
हैं। एक बंडल
है, जिसमें
सब तरह की
बीमारियां
हैं, अनेक—अनेक
तरह की
बीमारियां
हैं। और हर
आदमी आविष्कारक
है, निजी
बीमारियां
खोज लेता है।
और इन
बीमारियों के बीच
में भी यह भाव
बनाए रखता है
कि मैं सही
हूं।
निदिध्यासन
का अर्थ है, यह
महावाक्य
दिखाई पड़ा कि
सही है। सुना,
सोचा, देखा
कि सही है।
चित्त को उसका
सही होना
दिखाई पड़ गया,
चेतना को
प्रतीति होने
लगी उसके सही
होने की। अब
व्यक्तित्व
को भी उसी के
अनुकूल ढाल
देना निदिध्यासन
है, जो
दिखा हो सही, फिर उसी को
जीना शुरू कर
देना।
और
ध्यान रहे, दिख जाए
सही, तो
जीने में कोई
कठिनाई नहीं
है। दिखते ही
जीना शुरू हो
जाता है। कौन
आग में हाथ
डालता है जान
कर? अज्ञान
में ही हाथ
डाले जाते हैं
आग में। कौन बुरा
करता है जान
कर? अज्ञान
में ही बुरा
किया जाता है।
कौन
विक्षिप्तता
ओढ़ता है जान
कर? अज्ञान
में ही
विक्षिप्तता
ओढ़ी जाती है।
जब दिखाई पड़ने
लगे कि सही
क्या है, उसकी
दिखाई पड़ने की
झलक ही आपको
भीतर से बदलने
लगेगी। आपकी
सारी तरंगें,
अब धीरे—धीरे
जो आपको दिखाई
पड़ा है, उसके
साथ तालमेल
बिठाने
लगेंगी।
इस
एकतानता, इस हार्मनी
का नाम
निदिध्यासन
है।
फिर
अगर, फिर
अगर एकतानता न
बने, कठिन
मालूम पड़े, तो भी साधक
जानता है कि
यह मेरी ही
कठिनाई है। तो
अपने को
पिघलाता है।
अगर जटिल
मालूम पड़े यात्रा,
तो समझता है
कि यह जटिलता,
काप्लेक्सिटी
मेरी है। तो
अपने को
सुलझाता है।
लेकिन जो आदमी
अपने को ठीक
मान कर चलता
है, अगर दो
कदम चले, और
कोई यात्रा
में फल आता न
दिखाई पड़े, तो वह समझता
है कि यह, यह
जो सोचा था
तत्त्वमसि, यह ही गलत है,
छोड़ो!
मेरे
पास लोग आते
हैं। कल एक
मित्र आए; कल ही
पहली दफा
ध्यान किया।
कल ही आए हैं और
पहली दफा
ध्यान किया।
और कल ही मेरे
पास पहुंच गए
कि कुछ हुआ
नहीं!
आदमी
की मूढ़ता की
भी कोई सीमा
है! इस जगत में
ब्रह्म और
मूढ़ता, दो ही चीजें
असीम मालूम
पड़ती हैं!
इनका कोई अंत
नहीं मालूम
पड़ता।
कल
ही आए हैं
पहली दफा!
सुबह थोड़ा उछल—कूद
लिए होंगे!
दोपहर पहुंच गए, कि अभी तक
कुछ हुआ नहीं
है! कहने लगे, इस पद्धति
में कोई सार
नहीं दिखाई
पडता। अभी तक
कुछ हुआ नहीं!
मैंने पूछा कि
कितने जन्मों
से कर रहे हैं
इस पद्धति को?
बोले, जन्म
वगैरह नहीं, आज ही आया
हूं! थोड़ा तो
मौका दो
पद्धति को!
थोड़ी कृपा करो
पद्धति पर, थोड़ा मौका दो!
आदमी
अपने को सही
ही मान कर चल
रहा है! इसलिए
जहां भी अड़चन
आती है, दूसरी चीज
ही गलत होगी, वह अपने
सहीपन को कायम
रख कर यात्रा
पर निकल जाता
है। भटकेंगे
फिर तो जन्मों—जन्मों
तक, कभी भी
कोई बात बैठ
नहीं पाएगी।
क्योंकि एकतान
करना श्रम है,
एकदम नहीं
हो जाएगा। क्योंकि
जन्मों—जन्मों
के संस्कार
हैं पीछे, उनको
तोड़ना पड़ेगा।
आज आपको दिखाई
भी पड जाए
एकदम, एक
क्षण में, साफ
कि क्या सही
है, तो भी
आपके पैरों की
चलने की आदत
है, शरीर
की आदत है, मन
की आदत है। उन
आदतों का बड़ा
जाल है, वह
जाल एकदम आज
नहीं छूट
जाएगा। उस जाल
को तोड़ने का
श्रम करना
पड़ेगा। सवाल
पद्धतियों का
नहीं है, सवाल
आपका है, पद्धति
तो कोई भी काम
कर सकती है।
पर आप!
खयाल
करें, जीवन
हमारा आदत है।
छोटी—छोटी
बातों से लेकर
बड़ी—बड़ी बातों
तक सब आदत है।
उस आदत की
लंबी रेखा है।
और हमारी
चेतना उसी
रेखा को बांध
कर, पकड कर बहने
की आदी हो गई
है। आज अचानक
दिख भी जाता
है कि यह
रास्ता गलत है,
तो दूसरा
रास्ता पकड़ने
में रास्ता
बनाना पड़ेगा।
और ध्यान रहे,
पिछली जो
आदत थी, उससे
ज्यादा गहरा
रास्ता बनाना
पड़ेगा। तभी यह
पानी की धार
उस यात्रा—पथ
को छोड़ कर नए
यात्रा—पथ को
ग्रहण करेगी।
मगर बस आपने
सोच लिया कि
बस ठीक है, तो
इससे कुछ हल
नहीं हो जाने
वाला।
निदिध्यासन
का अर्थ है जो
सुना, जो
समझा कि ठीक
है, उसके
अनुकूल जीवन
को रूपांतरित
करना। उसके अनुकूल,
वक्त
लगेगा। मन
अड़चन डालेगा,
शरीर
बाधाएं खड़ी
करेगा, सब
होगा, लेकिन
जब ठीक दिखाई
पड़ गया हो, तो
फिर सब भांति
उस ठीक की
यात्रा पर
अपने को झोंक
देना—यह
हिम्मत
आवश्यक है।
फिर बैठने से
काम नहीं चल पड़ेगा।
दिख
गया हो तारा—बहुत
दूर हो, लेकिन दिख
गया तारा—तो
फिर यात्रा पर
निकल जाना। और
यह मत सोचना कि
एक कदम बढ़ाया,
अभी तो तारे
तक पहुंचे
नहीं! दो कदम
उठा लिए, अभी
तक तारे तक
नहीं पहुंचे!
कोई फिक्र
नहीं, दो
कदम पहुंचे, इतना भी कुछ
कम नहीं है।
दो कदम चले, इतना भी कुछ
कम नहीं है।
क्योंकि अनेक
तो हैं, बैठे
ही हैं जन्मों
से; वे उठे
ही नहीं; वे
यह भूल ही गए
हैं कि उठना
भी होता है, चलना भी
होता है!
बुद्ध
ने कहा है, तुम चलो।
कितनी ही भूल
करो, चिंता
नहीं है; चले,
इतना ही
काफी है। चले,
भूल की, भूल
सुधार लेंगे।
भटके, कोई
फिक्र नहीं।
पैरों में गति
आ गई। आज
भटकाव की तरफ
गए, कल ठीक
की तरफ आ
जाओगे। एक ही
भूल है, बुद्ध
ने कहा कि तुम
चलो ही न और
बैठे रहो।
यद्यपि
जो बैठा रहता
है उससे कोई
भूल नहीं
होती। बैठे ही
हैं तो भूल क्या
होगी? दुनिया
में भूल तो
उससे होती है,
जो चलता है।
भूल तो उससे
होती है, जो
कुछ करता है।
उनसे कहीं कोई
भूल होती है
जो कुछ करते
ही नहीं और
बैठे हैं!
बिलकुल
निर्मूल होते
हैं वे। लेकिन
एक ही भूल है
दुनिया में, बैठे रहना।
उठ
कर चल पड़ना, जो ठीक
लगे उसकी
यात्रा पर।
अगर वह कल गलत
भी सिद्ध हुआ,
तो भी कम से
कम एक लाभ तो
होगा कि चलना
आ जाएगा। वह
जो चलना आ
जाएगा, तो
कल ठीक दिशा
भी पकड़ी जा
सकती है। असली
चीज दिशा नहीं
है, असली
चीज
गत्यात्मकता
है; वह
चलने की
क्षमता है।
निदिध्यासन
प्रयास है
एकतान होने
का। यह शब्द बहुत
अदभुत है।
'श्रवण और
मनन द्वारा
निस्संदेह
हुए अर्थ में चित्त
को स्थापित
करके एकतान
बनाना, यह
निदिध्यासन
है।'
फिर
जो दिखाई पड़
रहा है, उसके साथ
चित्त का
तालमेल हो
जाए। वह हमारी
झलक न रह जाए
सिर्फ, हमारा
चित्त ही बन
जाए। वह ऐसा न
लगे कि एक
विचार है
हमारा, बल्कि
ऐसा हो जाए कि
यही हमारा मन
है अब।
जैसे
एक आदमी ने
संन्यास लिया, तो
संन्यास एक
विचार की तरह
भी लिया जा
सकता है कि
ठीक लगता है, समझ में आता
है—ले लिया।
पर एक विचार
है मन में, और
हजार विचार
हैं। तो
एकतानता पैदा
नहीं होगी
अभी। धीरे—धीरे—
धीरे—धीरे—धीरे,
यह जो एक
विचार की तरह
प्रवेश किया
था, इसका
रंग हमारे सब
विचारों पर
फैल जाए। सब
विचारों पर
फैलने का मतलब
यह है कि भोजन
करते वक्त भी
एक संसारी के
भोजन और एक
संन्यासी के
भोजन में अंतर
पड़ जाना चाहिए;
वह रंग जो
संन्यास का है,
भोजन करने
की क्रिया पर
भी फैल जाए।
संन्यासी ऐसे
भोजन करे, जैसे
मैं भोजन नहीं
कर रहा हूं; संन्यासी
ऐसे चले, जैसे
मैं नहीं चल
रहा हूं
संन्यासी ऐसे
उठे कि मैं
नहीं उठ रहा
हूं सारा
कर्तृत्व छोड़
दे।
तो
एक तो संन्यास
एक विचार की
तरह ले लिया, और एक फिर
पूरे जीवन की
एकतानता साधी;
फिर चित्त
ही संन्यासी
हो गया।
तो
बुद्ध ने कहा
है कि भिक्षु
सोए भी, एक भिक्षु
सो रहा हो और
एक गृहस्थ सो
रहा हो, तो
देखने वाला
बता सके कि
कौन भिक्षु है,
कौन गृहस्थ
है। सोने की
क्वालिटी, सोने
का ढंग भिक्षु
का बदल जाना
चाहिए, संन्यासी
का बदल जाना
चाहिए।
क्योंकि
जिसका चित्त
बदल गया हो
पूरा, उसकी
सभी क्रियाओं
में उसकी छाया,
और रंग, और
ध्वनि फैल
जानी चाहिए।
फैल ही जाएगी।
तो
एक विचार की
तरह नहीं, एकतानता
की तरह
निदिध्यासन।
और—
'फिर ध्याता
तथा ध्यान का
त्याग करके, चित्त केवल
एक ध्येय को
ही विषय रूप
माने और
वायुरहित
स्थान में रखे
हुए दीए के
समान निश्चल
बन जाए, उसको
समाधि कहते
हैं।'
समाधि
परम घटना है।
ये तीन उसकी
तरफ पहुंचने के
चरण हैं, चौथा चरण
समाधि है।
उसके पार शब्द
का जगत नहीं
है। उसके पार,
कहा जा सके,
उसका जगत
नहीं है।
समाधि तक की
बात कही जा
सकती है। उस
तरफ, उस
तरफ जो है, उसके
बाबत कभी कुछ
कहा नहीं गया,
और कभी कुछ
कहा नहीं जा
सकेगा।
पर
समाधि के
द्वार पर जो खड़ा
हो जाता है, वह उसे
देख लेता है, जो दिखाई
नहीं पड़ता; उसे जान
लेता है, जिसे
जानना असंभव
है, उससे
उसका मिलन हो
जाता है, जिसके
बिना मिले ही
सारा दुख सारी
पीड़ा, सारा
संताप है। वह
जो अज्ञेय है,
वह ज्ञेय बन
जाता है। और
वह जो रहस्य
है, खुल
जाता है प्रकट
हो जाता है।
सब ग्रंथियां
टूट जाती हैं।
खुले आकाश की
भांति सत्य के
बीच, सत्य
में एक हो
जाता है
चैतन्य।
समाधि
निदिध्यासन
के बाद की बात
है। जिसने
अपने चित्त को
ऐसे
महावाक्यों
के साथ—तत्त्वमसि
अहं
ब्रह्मास्मि, सोऽहम्—ऐसे
महावाक्यों
के साथ एकतान
कर लिया, जिसका
चरित्र और
जिसका चित्त
इनकी
अभिव्यक्ति
बन गया। जो
उठता है तो
उसके उठने में
स्वर है
तत्त्वमसि का,
उसके उठने
में भी वह
मुद्रा और वह
गेस्चर और वह
खबर है कि वह
ब्रह्म के साथ
एक होकर डोल रहा
है, ऐसा
व्यक्ति
समाधि को
उपलब्ध हो
पाता है।
ध्याता
और ध्यान, दोनों ही
खो जाएं, सिर्फ
ध्येय रह जाए—यह
समाधि है।
इसे
समझ लें। तीन
शब्द हैं
ध्याता, ध्यान, ध्येय।
उदाहरण के लिए,
तत्त्वमसि,
तू वही है—यह
ध्येय है। इसी’महावाक्य
को हम समझ रहे
हैं। यह ध्येय
है। यह पाने
जैसा है। यही
पाने जैसा है।
यही है लक्ष्य।
यही अंतिम
गंतव्य है।
फिर मैं हूं—जो
ध्याता है, जो इस ध्येय
को सोच रहा है,
इस ध्येय को
विचार रहा है,
इस ध्येय की
अभीप्सा कर
रहा है, इस
ध्येय के लिए
प्यासा है, आतुर है—कैसे
इस ध्येय तक
पहुंच जाए!
ध्येय
है वह मैं ही
हूं। यह मैं
हूं,
ध्याता; इस
ध्येय की तरफ
जा रही चेतना।
और जब ध्याता
ध्येय की तरफ
दौड़ने लगता है;
और सारी तरफ
दौड़ बंद हो
जाती है, बस
एक ही दौड़ रह
जाती है चेतना
की, ध्येय
की तरफ, तो
उस दौड का नाम
ध्यान है। जब
चेतना की सारी
धारा ध्येय की
तरफ एकजुट
होकर बहने
लगती है, अलग—
अलग पच्चीस
धाराओं में
नहीं बहती; सभी तरफ से
चेतना इकट्ठी
होकर एक ही
धार बन जाती
है और ध्येय
की तरफ तीर की
तरह बहने लगती
है, सतत—इस
बहती हुई
चेतना का नाम
ध्यान है।
समाधि, उपनिषद
कहता है कि जब
यह ध्यान सारे
के सारे
प्राणों को
उलीच कर ध्येय
में डूब जाए
और जब ध्याता
कीं—वह जो
ध्यान कर रहा
था—ध्याता की,
मेडिटेटर
की सारी ऊर्जा,
सारी चेतना,
इस ध्यान की
विधि में
यात्रा करके
ध्येय के साथ
एक हो जाए, और
ऐसी घड़ी आ जाए
कि ध्याता को
पता न रहे कि
मैं हूं—आती
है—पता न रहे
कि मैं हूं, ध्याता को
यह भी पता न
रहे कि ध्यान
है, सिर्फ
तत्त्वमसि, वह जो ध्येय
है, वही
मात्र रह जाए,
उसको
उपनिषद ने कहा
समाधि। एक ही
रह जाए, तीन
न रहें; ध्याता
ध्यान, ध्येय—तीन
न रहें, एक
ही रह जाए।
इसे
थोड़ा समझ लें।
क्योंकि अलग—अलग
साधना—पद्धतियों
ने, कौन
एक रह जाए, इसका
अलग—अलग चुनाव
किया है।
उपनिषद
कहते हैं, ध्येय रह
जाए, ध्याता
और ध्यान खो
जाएं। महावीर
कहते हैं, ध्याता
रह जाए, ध्यान
और ध्येय खो
जाएं; आत्म
भर रह जाए; शुद्ध
मैं रह जाऊं।
विपरीत मालूम
पड़ता है। सांख्य
कहता है, ध्याता
और ध्येय
दोनों खो जाएं,
ध्यान रह
जाए; सिर्फ
चैतन्य रह जाए,
सिर्फ बोध,
सिर्फ
अवेयरनेस।
लगता है कि
बड़ी विपरीत
बातें हैं।
जरा भी विपरीत
नहीं हैं, और
पंडित बड़ा
विवाद करते
रहे हैं!
पंडितों के विवाद
बड़े
हास्यास्पद
हैं, हंसने
योग्य हैं।
बड़ा विवाद
करते रहे हैं;
विवाद होगा
भी। जो शब्द
को ही समझते
हैं, वे
विवाद करेंगे
कि ये तीनों
तो विपरीत
बातें हैं।
उपनिषद कहते
हैं ध्येय रह
जाए, कोई
कहता है ध्यान
रह जाए, कोई
कहता है
ध्याता रह जाए,
तो समाधि
क्या है फिर? यह तो तीन
तरह की समाधि
हो गई! और अगर
ध्येय रह जाए
यह समाधि है, तो ध्याता
रह जाए वह फिर
कैसे समाधि
होगी? तो
तय करना पड़ेगा,
सही समाधि
कौन सी है। दो
गलत होंगी, एक ठीक
होगी।
पंडित
शब्दों में
जीता है, अनुभवों में
नहीं। अनुभव
का बड़ा मजा और
है। ये तीनों
एक ही बात
हैं। क्यों? क्योंकि ये
तीनों के साथ
एक मजा है कि
दो खो जाएं—कोई
भी दो खो जाएं—एक
बच जाए, तो
उस एक का नाम
देना बिलकुल
कृत्रिम है।
वह कौन सा नाम
आप देते हैं, आप पर
निर्भर है।
ये
तीन हैं अभी.
ध्याता है, ध्यान है,
ध्येय है।
साधक के लिए, निदिध्यासन
वाले साधक के
लिए ये तीन
हैं। जब इन
तीनों का खोना
हो जाता है और
एक बचता है, तो इन तीन
में से वह कोई
भी एक नाम
चुनता है। वह
चुनाव बिलकुल
निजी है।
उसमें कोई
फर्क नहीं पड़ता
कि उसको क्या
नाम आप देते
हैं। चाहें तो
उसको चौथा नाम
भी चुन सकते
हैं। अनेक
उपनिषदों ने
उसको चौथा ही
नाम दे दिया, तीनों ही खो
जाते हैं; झगड़ा
नहीं रखा। कि
इन तीन में से
चुनेंगे, तो
लगेगा कि वह
कोई पक्षपात
है. दो छोड़े और
एक बचा। तो उन्होंने
कहा, तुरीय—दि
फोर्थ।
उन्होंने
चौथे को भी
सिर्फ चौथा ही
नाम दिया।
उसको नाम भी
नहीं दिया
ताकि झंझट खड़ी
हो कोई। कहा, चौथा।
लेकिन
झंझट करने
वालों को कोई
अड़चन नहीं है।
वे कहते हैं, तीन थे, चौथा आया
कहां से? यह
चौथा कौन है? उन तीन में
से कौन है? या
कि वे तीनों
ही खो गए, यह
चौथा बिलकुल
अलग है? या
कि तीनों का
जोड़ है? यह
चौथा क्या है?
उससे
कोई फर्क नहीं
पड़ता, जिसको
विवाद करना है,
उसके लिए
कोई भी चीज
विवाद शुरू
करने के लिए काफी
है। जिसको
साधना करनी है,
उसकी
यात्रा
बिलकुल अलग
है।
इन
तीन में से एक
नाम उपनिषदों
ने चुन लिया, ध्येय बच
जाता है।
महावीर ने
चुना, ध्याता
बच जाता है।
सांख्य ने कहा,
ध्यान बच
जाता है। ये
सिर्फ नाम
हैं। एक बच जाता
है, यह तय
है। तीन नहीं
रह जाते, एक
रह जाता है, यह तय है।
नाम कृत्रिम
हैं, कोई
भी नाम दे
दें। इतना ही
याद रखें कि
जब एक बच जाता
है, तो
समाधि है! जब
तक दो बचे हैं,
तब तक जानना
कि तीन बचे
हैं। क्योंकि
दो जब तक बचते
हैं, दोनों
को जोड़ने वाला
एक तीसरा बीच
में खड़ा रहता
है।
दो
अकेले नहीं बच
सकते। दो का
मतलब सदा तीन
होता है।
इसलिए जो लोग
बहुत गणित की
भाषा में
सोचते हैं, वे जगत को
द्वैत नहीं
कहते, वे
त्रैत कहते
हैं। जो बहुत
व्यवस्था में
सोचते हैं और
गणित के ढंग
से सोचते हैं,
वे जगत को
कहते हैं, जगत
है त्रैत—द्वैत
नहीं।
क्योंकि दो
होंगे तो
तीसरा होगा ही।
क्योंकि दो को
जोड़ेगा कौन? या दो को अलग
कौन करेगा? दो के बीच
तीसरा
अनिवार्य हो
जाता है। तीन
अस्तित्व का
ढंग है।
इसलिए
हमने
त्रिमूर्ति
बनाई। वह
त्रैत की सूचक
है, कि
जगत तीन से
मिल कर बना
है। लेकिन तीन
चेहरे बनाए
हैं एक ही
आदमी के; वह
है चौथा। ये
तीनों चेहरों
के भीतर से
कहीं से भी
प्रवेश करें,
भीतर जब
पहुंचेंगे तो
तीनों चेहरे न
रह जाएंगे।
लेकिन साधक
जहां से
प्रवेश करेगा,
वहा से पसंद
करेगा। कोई
विष्णु के
मुंह से प्रवेश
करे भीतर, कोई
ब्रह्मा के, कोई महेश
के। तो जहां
से वह प्रवेश
करेगा, वही
नाम वह जो
भीतर
पहुंचेगा, तो
दे देगा चौथे
को; कहेगा
कि विष्णु, कहेगा कि
महेश, कहेगा
कि ब्रह्मा।
मगर भीतर
पहुंच कर
तीनों चेहरे
खो जाते हैं।
भीतर कोई
चेहरा नहीं है,
भीतर एक है।
यह
त्रिमूर्ति
सिर्फ मूर्ति
नहीं है, यह हमारी
परम साधना की
निष्पत्ति
है।
तीन
हैं आखिरी
छलांग के पहले, तीन बच
जाते हैं :
ध्याता, ध्यान,
ध्येय। और
इन तीन में से
जिसने छलांग
लगाई—एक बच
जाता है। उसे
जो नाम देना
चाहें, मर्जी;
नाम से कोई
अंतर नहीं
पड़ता। न देना
चाहें, मर्जी।
चौथा कहना
चाहें, सुंदर।
कुछ न कहना
चाहें, चुप
रह जाएं, उससे
बेहतर कुछ भी
नहीं।
सुनें, सुनने को
श्रवण बनाएं।
सोचें, सोचने
को मनन बनाएं।
मनन करें, निष्पत्ति
लें, निष्पत्ति
को
निदिध्यासन
बनने दें, एकतानता
लाएं।
एकतानता—एकतानता
ही न रहे, अंत
में ऐक्य बन
जाए।
फर्क
समझ लें।
एकतानता का
अर्थ है, अभी दो बाकी
हैं और दोनों
के बीच तालमेल
बैठ गया है; लेकिन दो
बाकी हैं।
ऐक्य का अर्थ’दो
खो गए, तालमेल
ही रह गया।
एकतानता
है
निदिध्यासन
और एकता है
समाधि।
आज इतना ही।
THANK YOU GURUJI
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