सूत्र :
ज्ञत्वा
स्वयं
प्रत्यगात्मनं
ब्रुद्धितद्वृत्तिसाक्षिणम्।
सौध्हमित्येव
तद्वृत्या स्वान्यत्रात्ममीतं
व्यजेत्।।2।।
लोकानुवर्तनं
त्यक्त्वा
त्यक्त्वा
देहानुवर्तनम्।
शास्त्रानुवर्तनम्
त्यक्त्वा
स्वाध्यासापनयं
करु।।3।।
स्वात्मन्येव
सदा स्थित्या
क्यों नश्यीत
योहीनः।
यक्त्या
श्रुत्या
स्वानभत्या
ज्ञात्वा सावत्म्यिमात्मन:।।4।।
निंद्राय
लोकवार्ताया
शब्दादेरात्मीवस्मृते:।
क्वचिन्नावसरं
दत्वा
चिन्तयात्मानमात्मनि
।।5।।
अपने को बुद्धि
और उसकी
वृत्ति का
साक्षी—प्रत्यगात्मा
जान कर वह मैं
ही हूं—ऐसी
वृत्ति
द्वारा
(अपने सिवाय )
सब पदार्थों
के ऊपर से
आत्म—बुद्धि
का त्याग करना।
लोक का
अनुसरण करना
छोड कर देह का
अनुसरण भी छोड़
देना, इसके पश्चात
शास्त्र का
अनुसरण छोड़ कर
आत्मा के ऊपर
का अध्यास भी
छोड़ देना।
अपनी ही
आत्मा में
स्थित 'होकर युक्ति,
श्रवण तथा
स्वानुभव
द्वारा अपने
को ही सबका आत्मरूप
जान कर योगी
का मन नाश
होता है।
निद्रा को, लोगों की
बातों को, शब्द,
स्पर्श, रूप,
रस, गंध
आदि विषयों को
तथा आत्मा के
विस्मरण को किसी
स्थल पर अवसर
दिए बिना हृदय
में आत्मा का
चिंतन करना।
कैसे
कोई सत्य में
प्रवेश करे, कैसे उस
परम रहस्य को
जान पाए; जो
निकट है फिर
भी नहीं जाना
जाता; और
जो सदा से पास
है फिर भी खो गया
है, उस तक
हम कैसे
पहुंचें, उस
तक कोई भी कभी
कैसे पहुंचा
है, इस
सूत्र में उस
वितान की
व्याख्या है,
उस मर्ण की
विधि है।
अध्यास
के संबंध में
थोडी बात हमने
समझी। अध्यास
का अर्थ है, जैसा
नहीं है वैसा
देखना। और
सत्य का अर्थ
है, जैसा
है वैसा ही
देखना। हम जो
भी देखते हैं,
वह अध्यास
है। हमारी
दृष्टि में हम
सम्मिलित हो
जाते हैं और
जो भी हमारा
अनुभव है, वह
वस्तुगत, आब्जेक्टिव
नहीं होता, सब्जेक्टिव,
आत्मगत हो
जाता है। जो
वहा बाहर है, जैसा है, वैसा
ही हम तक नहीं
पहुंचता; हमारा
मन उसे विकृत
कर लेता है।
सजा—संवार
लेता है, सजावट
कर देता है; आभूषण पहना
देता है; काट
—छांट कर देता
है; छोटा, बड़ा, बहुत—बहुत
रूपों में उसे
रूपांतरित कर
देता है।
जो
बड़े से बड़ा
रूपांतरण है, जो गहरे
से गहरा
अध्यास है, वह है. हम
प्रत्येक चीज
के साथ अपने
को जोड़ लेते
हैं, जिससे
हम जुड़े हुए नहीं
हैं। जुड़ते ही
चीज की जो
वस्तु—स्थिति
है वह खो जाती
है और जो
स्वप्न—स्थिति
है वह सही
मालूम पड़ने
लगती है।
जैसे, जहां—जहां
हम कहते हैं
मेरा कह्ते
हैं, मेरा
मकान! मकान हम
न थे तब भी था, हम न होंगे
तब भी होगा।
जो हमारे होने
से पहले हो
सकता है, और
जो हमारे होने
के बाद भी बना
रहेगा, और
जो हमारे
मिटने के साथ
मिटता नहीं है,
वह मेरा
कैसे हो सकता
है? मैं
इसी क्षण मर
जाऊं तो मेरा
मकान मिटता
नहीं है। मेरे
मकान को मेरे
मिटने का पता
भी नहीं चलेगा।
तो
मुझ से जोड़ ही
क्या है मेरे
मकान का? संबंध क्या
है? कल कोई
और रहेगा उस
मकान में और
वह भी उसे
मेरा कहेगा।
कल कोई और
रहता था, वह
भी उसे मेरा
कहता था। न
मालूम कितने
लोगों ने अपने
मैं को उस
मकान पर
चिपकाया है और
विदा हो गए
हैं! लेकिन वह
मैं चिपक नहीं
पाता, वह
मकान किसी का
हो नहीं पाता।
मकान हो भी
नहीं सकता
किसी का। मकान
अपना है, मकान
खुद का है।
इस
जगत में
प्रत्येक
वस्तु स्वयं
है। इसे हम
ठीक से समझ
लें तो अध्यास
को तोडने में आसानी
हो जाएगी।
जमीन का एक
टुकड़ा है, आप कहते
हैं मेरा खेत,
मेरा बगीचा।
आज नहीं कल, चांद पर
दावा खड़ा होगा।
अमरीका कहेगा
मेरा या रूस
कहेगा मेरा।
कल तक चांद
किसी का भी न
था। बस चांद
था। चांद का
ही था। लेकिन
अब कोई न कोई
दावा होगा। और
आज नहीं कल, संघर्ष खड़ा
होगा। अभी
सूरज सिर्फ
सूरज का है, कल उस पर भी
दावा हो सकता
है।
आदमी
जहां भी पैर
रखता है वहीं
अपने मैं की
छाप लगा देता
है। प्रकृति
उसकी छाप को
मानती नहीं; लेकिन
दूसरे
आदमियों को
मानना पडता है,
अन्यथा
संघर्ष खड़ा
होता है। और
वे दूसरे लोग
भी इसीलिए
मानते हैं उस
छाप को कि वे
भी वैसी छाप
लगाना चाहते
हैं। तो मकान
किसी का हो
जाता है, जमीन
किसी की हो
जाती है।
और
हमारी इतनी
आतुरता क्यों
होती है कि हम
इस मैं की छाप
को कहीं लगा
दें? आतुरता
इसलिए होती है
कि जितनी जगह
हम यह छाप लगा
देते हैं, हस्ताक्षर
कर देते हैं, जितना हमारा
मेरे का
विस्तार बड़ा
हो जाता है, उतना ही बड़ा
मैं हमारे
भीतर हो जाता
है। मैं उतना
ही बड़ा होगा, जितनी चीजों
पर उसकी छाप
लगी है। अगर
कोई आदमी कहता
है कि एक एकड
जमीन मेरी, तो निश्चित
ही उसके पास
उतना बड़ा मैं
कैसे होगा!
दूसरा आदमी
कहता है, एक
हजार एकड़ जमीन
मेरी। मेरे के
विस्तार के
साथ मैं बड़ा
होता मालूम पडता
है। मेरे का
विस्तार कम
होता है तो
मैं छोटा, कम
होता है। तो
मैं की एक—एक
ईंट मेरे से
निर्मित होती
है। तो जितना
ज्यादा मैं कह
सकूं मेरा, उतना बड़ा
मैं का महल
खड़ा हो जाता
है।
इसलिए
सारे जीवन हम
एक ही दौड़ में
होते हैं कि कितनी
ज्यादा चीजों
पर छाप लगा
दें अपनी, कह पाएं
कि मेरी हैं।
इस छाप लगाने —लगाने
में चीजों पर
छाप लग भी
जाती है और हम
छाप लगाते —लगाते
विदा हो जाते
हैं। और जिसे
हमने कहा था
मेरा, उस
पर कोई और छाप
लगाना शुरू कर
देता है।
वस्तुएं
अपनी हैं, किसी की
भी नहीं।
उपयोग उनका हो
भी सकता है, मालकियत
नहीं हो सकती।
मालकियत भ्रम
है। और उपयोग
जब हम करते
हैं तब
अनुग्रह का
भाव होना
चाहिए, क्योंकि
जो हमारा नहीं
है उसका हम
उपयोग कर रहे
हैं। लेकिन जब
हम कहते हैं
मेरा तो
अनुग्रह का
भाव भी चला
जाता है और
मेरे का एक
जगत निर्मित
हो जाता है।
उसमें धन है, पद है, प्रतिष्ठा
है, शिक्षा
है, सब
सम्मिलित है।
और
ये ही
सम्मिलित हों
तो भी आश्चर्य
नहीं, जिन
चीजों का मैं
से कोई भी
संबंध नहीं
होता, वे
भी सम्मिलित
हो जाती हैं।
हम कहते हैं
मेरा धर्म, मेरा ईश्वर,
मेरा देवता,
मेरा मंदिर;
जिनसे कि
मैं का कोई भी
संबंध नहीं हो
सकता। और अगर
हो, तो फिर
इस जगत से
छुटकारे का
कोई उपाय नहीं।
क्योंकि अगर
हर्ग्म भी
मेरा और तेरा
हो सके, और
ईश्वर भी मेरा
और तेरा हो
सके, तब तो
बड़ी कठिनाई है;
फिर तो इस
मेरे के बाहर
जाने का मार्ग
कहा मिलेगा!
ईश्वर भी इसके
भीतर आ जाता
हो, तो फिर
बाहर जाने के
लिए कोई जगह
भी नहीं बचती।
लेकिन हम मेरे
की छाप मंदिर
और मस्जिद पर
भी लगा देते
हैं, हम
ईश्वर पर भी
लगा देते हैं।
आदमी जहा भी
जाता है, वहां
मेरे को लेकर
पहुंच जाता है।
और
इसके
अनुषांगिक
हिस्से समझ
लें मैं बडा
होता है मेरे
से, लेकिन
जितना मेरे का
फैलाव होता है,
उतना दुख भी
बढ़ जाता है।
अकेला मैं ही
बड़ा होता, तब
भी कोई कठिनाई
न थी। मैं की
बढ़ती दुख की
भी बढ़ती है, क्योंकि मैं
है एक घाव। और
जितना बड़ा मैं
होता है, उतने
ही आप चोट के
लिए खुले हो
जाते हैं, उतनी
बड़ी जगह हो
जाती है जिस
पर चोट की जा
सकती है। जैसे
कि बड़ा घाव हो
तो उस पर
दिन
भर चोट लगे; कहीं से
भी उठें—बैठें
और चोट लगे।
घाव है बड़ा, जगह है बड़ी, कुछ भी
इशारा चोट बन
जाता है।
जितना बड़ा मैं
हो, उतनी
बड़ी चोट लगने
लगती है, उतना
दुख होता है।
मेरे
के विस्तार से
मैं बढता है, रस आता है।
मैं बढ़ता है, दुख भी बढ़ता
है। इधर लगता
है सुख बढ़ रहा
है, उधर
साथ —साथ दुख
भी बढ़ता जाता
है। जितना हम
सुख बढ़ाते हैं,
उतना दुख
बढ़ता चला जाता
है। और इन
दोनों के बीच
में एक अध्यास,
एक भ्रम चल
रहा है। जहां
मेरे का कोई
उपाय नहीं
कहने का, वहा
हम व्यर्थ ही,
झूठ ही मेरा
कहे चले जा
रहे हैं।
यह
हाथ जिसको आप
मेरा कहते हैं, शरीर
जिसको आप मेरा
कहते हैं, यह
भी आपका नहीं
है। आप नहीं
थे तब भी इस
हाथ की हड्डी,
इस हाथ की
चमड़ी, इस
हाथ का खून
कहीं था, और
आप नहीं होंगे
तब भी यह होगा।
आपके शरीर में
जो हड्डियां
हैं, वे न
मालूम कितने
शरीरों में
हड्डियां रह
चुकी हैं। जो
आज आपका खून
है, कल
किसी पशु में
बहता था, परसों
किसी वृक्ष
में बहता था।
और न मालूम
कितनी लंबी
यात्रा है
उसकी अरबों —खरबों
वर्षों की। आप
नहीं होंगे तब
भी आपके शरीर
में एक—एक कण
कोई भी नष्ट
होने वाला
नहीं है। वह
सब बना रहेगा।
वह किन्हीं और
शरीरों में
बहेगा।
इसे
ऐसा समझें कि
जो सास अभी
आपके भीतर है, एक क्षण
पहले आपके
पडोसी के भीतर
थी। जो आपके
पास में बैठा
है, उसने
जो सांस छोड़
दी है, वह
अब आपकी सांस
हो गई है।
क्षण भर पहले
वह कहता था
मेरी सांस, क्षण भर बाद
उसकी नहीं रही,
किसी और की
हो गई है। और
अब दूसरा भी
कह न पाएगा
मेरी सांस कि
दूसरे की हो
जाएगी।
जिंदगी
प्रतिपल किसी
का दावा स्वीकार
नहीं करती, बही चली
जाती है। और
हम दावे
ठोंकते चले
जाते हैं। यह
दावे का जो
भ्रम है, यह
मनुष्य का
गहरे से गहरा
अध्यास है। तो
जब भी कोई
आदमी कहता है
मेरा, तब
अइगन में
गिरता है।
यह
सूत्र इस
अध्यास को
तोड़ने के लिए
है।
जमीन
तो मेरी है ही
नहीं, मकान
तो मेरा है ही
नहीं, धन
तो मेरा है ही
नहीं, शरीर
भी मेरा नहीं
है। आपका जो
शरीर है वह
आपके मां और
पिता के अणुओं
से बना है। वे
आपके पहले थे।
और वे अणु
लंबी यात्रा
करके आ रहे
हैं, वे
आपके माता—पिता
के माता—पिता
के पास थे।
हजारों —लाखों
वर्षों की
यात्रा उन
अणुओं की है।
उनसे आपका
शरीर बना है।
वह शरीर भी एक
क्षेत्र है, एक जमीन है, जिसमें आप
स्थापित हैं,
लेकिन आप
हैं नहीं। आप
वही नहीं हैं,
उससे अलग
हैं।
यह
सूत्र कहता है, मनुष्य
शरीर भी नहीं
है। इतना ही
नहीं, यह
सूत्र और गहरे
जाता है और
कहता है, मनुष्य
मन भी नहीं है।
क्योंकि मन भी
तो संग्रह है।
आपके
पास कोई भी
ऐसा एक विचार
है जो आपका हो? जिसको आप
कह सकें मेरा?
कोई
विचार नहीं है।
कोई परंपरा से
आया, कोई
शास्त्र से
आया, कोई
किसी से सुन
कर, कहीं
से पढ़ कर, कहीं
न कहीं से आया
है। अगर आप
अपने एक—एक
विचार की
जन्मपत्री की
खोज करें, और
एक—एक विचार
की यात्रा
देखें, तो
आप पाएंगे
आपके पास एक
भी विचार अपना
नहीं है, सब
विचार उधार
हैं; सब
कहीं से आए
हैं।
कोई
विचार मौलिक
नहीं होता, ओरिजनल
नहीं होता, सब विचार
उधार होते हैं।
पर विचार को
भी हम कहते
हैं, मेरा!
वहां भी हम,।
ध्यान
रहे, श्वास
तक मेरी नहीं
कही जा सकती, विचार और भी
सूक्ष्म बात
है। लेकिन उसे
भी मेरा नहीं
कहा जा सकता।
इस विश्लेषण
में गहरे
उतरते—उतरते
कहां पहुंचता
है आदमी? उपनिषद
कहां पहुंचे
हैं न: बुद्ध
कहा पहुंचते हैं?
महावीर
कहां पहुंचते
हैं?
इस
विश्लेषण को
करते —करते, इस काट को
करते—करते—यह
भी मैं नहीं
हूं, यह भी
मैं नहीं हूं, यह भी
मैं नहीं हूं —आखिर
में जब काटने
को कुछ भी
नहीं बचता; जब कुछ भी
नहीं बचता
जिसको मैं सोच
भी सकूं कि मेरा
है या नहीं, तब भी जो बच
रहता है, जब
सब काट डाला
जाता है और
काटने का कोई
उपाय नहीं रह
जाता; जब
सब तोड़ दिए
जाते हैं
संबंध और कोई
संबंध बचता
नहीं जिसे
तोड। जाए, तब
भी जो बच रहता
है, उसी को
उपनिषद
साक्षी कहते
हैं; वही
है विटनेस।
यह
बड़ा संसार है
चारों तरफ, यह मेरा
नहीं है। और
सिकुड़ कर पास
आता हूं,
यह शरीर भी
मेरा नहीं है।
और भीतर उतरता
हूं, यह मन
भी मेरा नहीं
है। फिर कौन
है जिसको मैं
कहूं मैं? या
कि मेरे भीतर
कोई भी नहीं
है जिसको मैं
कहूं मैं! मैं
हूं या नहीं
हूं? सब
मेरे को तोड़ते
—तोड़ते
शुद्धतम क्या
बचता है भीतर?
एक चीज बच
रहती है जो
नहीं कटती।
जिसको काटने
का कोई भी
उपाय नहीं है।
पश्चिम
में एक विचारक
हुआ, देकार्त।
गहरा विचारक
था। और उसने
तय किया कि तब
तक कोई बात न
मानूंगा जब तक
कि असंदिग्ध
सत्य उपलब्ध न
हो जाए; जिस
पर संदेह न
किया जा सके।
तो उसने चिंतन
शुरू किया।
बड़ी मेहनत की
उसने और सारी
चीजें
संदिग्ध मालूम
पडी। कोई कहे
ईश्वर है, संदेह
किया जा सकता
है। हो या न हो,
लेकिन
संदेह तो किया
जा सकता है।
कोई कहे
स्वर्ग है, मोक्ष है, संदेह किया
जा सकता है।
देकार्त कहता
था कि मैं तो
जिस पर संदेह
ही न किया सके—ऐसा
नहीं कि जिसको
सिद्ध किया जा
सके, तर्क
किया जा सके—नहीं,
संदेह ही न
किया जा सके; इनडघुबिटेबल,
असंदिग्ध हो,
तभी
मानूंगा।
बहुत
खोज करके, लेकिन एक
जगह आकर वह भी
रुक गया। उसने
सब इनकार कर
दिया; ईश्वर,
स्वर्ग, नर्क,
सब फेंक दिए;
लेकिन एक
जगह आकर अटक
गया—मैं। मैं
हूं या नहीं?
देकार्त
ने कहा, इस पर संदेह
नहीं किया जा
सकता।
क्योंकि अगर
मैं यह भी
कहूं कि मैं
नहीं हूं र तो
यह कहने के
लिए भी मेरे
होने की जरूरत
पड़ जाती है।
यह तो ऐसे ही
होगा, जैसे
घर के भीतर
कोई आदमी हो
और वह आपसे
कहे कि मैं
अभी बाहर गया
हूं या मैं
अभी घर पर
नहीं हूं र आप
थोड़ी देर बाद
आएं तब मैं
आपको मिलूंगा,
तब तक मैं
घर लौट आऊंगा।
तो उसका यह
कहना ही उसके
होने का
प्रमाण हो
जाएगा। इसलिए
मेरे होने की
तो स्थिति
असंदिग्ध है।
इतना तो साफ
है कि मैं हूं।
लेकिन क्या
हूं यह इतना
साफ नहीं है।
शरीर हूं कि
मन हूं र क्या
हूं र यह इतना
साफ नहीं है।
उपनिषद
इसी की खोज
में चलते हैं।
साफ करते चले
जाते हैं; एक—एक चीज
को अलग करते
जाते द्रे, जैसे कोई
प्याज के
छिलके को
उघाड़ता चला
जाए। और जब तक
छिलके बचते
हैं, उघाडते
ही चले जाते
हैं। अगर
प्याज के
छिलके उघाडते
चले जाएं तो
पीछे आपके हाथ
कुछ भी न
लगेगा। प्याज
छिलका त्ऐ;।
है, वस्त्र
ही वस्त्र; निकालते चले
जाएं तो भीतर
कुछ भी न मिलेगा।
जैसे किसी ने
कपड़ों की एक गुड़िया
बनाई हो, और
हम एक—एक कपड़ा
निकालते चले
जाएं। एक कपड़े
को निकालें, दूसरा कपड़ा
बचे। उसे
निकालें, तीसरा
निकल आए।
निकालते चले
जाएं, लेकिन
कपड़े की ही
गुड़िया हो तो
आखिर में सब
कपड़े निकल
जाएंगे, गुड़िया
पीछे बचेगी
नहीं। आखिर
में शून्य हाथ
लगेगा।
तो
बड़ी खोज यही
है मनुष्य की
कि आदमी भी
कहीं पर्तों
का ही एक जोड़
तो नहीं है? कि हम
उघाडते चले
जाएं और भीतर
फिर कुछ बचे
ही न! कह दें कि
शरीर भी मैं
नहीं हूं और
मन भी मैं नहीं
हूं; और यह
भी नहीं और यह
भी नहीं; फिर
कहीं ऐसा न हो
कि प्याज की कहानी
हो जाए! आखिर
में कुछ भी न
बचे जिसको हम
कह सकें कि
मैं हूं।
लेकिन
उपनिषद कहते
हैं, अगर
यह भी हो तो भी
सत्य को जान
लेना जरूरी है।
अगर यह भी
सत्य हो कि
भीतर कुछ भी
नहीं है, तो
भी जान लेना
जरूरी है, क्योंकि
सत्य को जान
लेने के
परिणाम
महत्वपूर्ण
हैं। लेकिन
खोज करने पर
अंततः पता
चलता है कि
नहीं, वस्त्रों
का जोड ही
नहीं है आदमी,
मात्र पर्त
और पर्त और
पर्त ही नहीं
है, पर्तों
के भीतर भी
कुछ है जो
पर्तों से
भिन्न है।
लेकिन उसका
पता तभी चलता
है जब हम सब
पर्तों को
उखाड़ कर भीतर
पहुंच जाएं।
उस
तत्व का नाम
उपनिषद कहते
हैं साक्षी।
यह बड़ा कीमती
शब्द है, और बड़ा
मूल्यवान। और
पूरब का सारा
चिंतन, सारी
मनीषा, सारी
प्रतिभा, इस
एक छोटे से
शब्द में
निहित हो गई
है। इससे
महत्वपूर्ण
शब्द पूरब ने
दूसरा दुनिया को
नहीं दिया है—साक्षी।
साक्षी
का मतलब क्या
है? साक्षी
का मतलब है :
देखने वाला, गवाह।
मैं
शरीर नहीं हूं, ऐसा
किसको अनुभव
होता है? मैं
मन नहीं हूं
ऐसा किसको
अनुभव होता है?
ऐसा कौन
इनकार करता चला
जाता है कि
मैं यह नहीं
हूं, मैं
यह नहीं हूं
मैं यह नहीं
हूं?
एक
तत्व है हमारे
भीतर दर्शन का, दृष्टि
का, द्रष्टा
का, देखने
का। हम देख
रहे हैं, हम
जांच रहे हैं।
वह जो देख रहा
है, वही है
साक्षी; जो
दिखाई पड़ रहा
है, वही है
जगत। जो देख
रहा है, वही
हूं मैं; और
जो दिखाई पड़
रहा है, वही
है जगत।
अध्यास का
अर्थ है कि जो
देख रहा है, वह भूल से यह
समझ लेता है
कि जो दिखाई
पड़ रहा है वह
मैं हूं। यह
अध्यास है।
एक
हीरा मेरे हाथ
में रखा है।
उसे मैं देख
रहा हूं। अगर
मैं यह कहने
लग कि मैं
हीरा हूं तो
अभ्यास होगा।
क्योंकि हीरा
मेरे हाथ पर
रखा है, दिखाई पड़
रहा है, आब्जेक्ट
है, एक
विषय है, और
मैं देखना
वाला हूं अलग
हूं। देखना
वाला सदा ही
अलग है उससे
जो दिखाई पड़ता
है। देखने
वाला कभी भी
दृश्य के साथ
एक नहीं है।
देखने वाला
सदा ही दिखाई
पड़ने वाले से
भिन्न है। मैं
आपको देख रहा
हूं क्योंकि
आपसे भिन्न
हूं आप मुझे
देख रहे हैं
क्योंकि मैं
आपसे भिन्न हूं।
जो भी दिखाई
पड़ता है वह
आपसे भिन्न है।
उसको ही अपने
से अभिन्न समझ
लेना अध्यास
है। जिसको आप
देख रहे हैं
उसके साथ इतने
मोहित हो जाना
कि लगने लगे
यह मैं ही हूं
यही भांति है।
इस भ्रांति को
तोड़ना है और
अंततः उस
शुद्ध तत्व को
खोज लेना है
जो सदा ही
देखने वाला है
और कभी दिखाई
नहीं पडता।
यह
थोड़ा कठिन है।
जो देखने वाला
है वह कभी
दिखाई नहीं पड
सकता।
क्योंकि वह
किसको दिखाई
पड़ेगा? आप सारी
चीजों को देख
सकते हैं जगत
की, सिर्फ
अपने को छोड़
कर। आप अपने
को कैसे
देखिएगा? क्योंकि
देखने में दो
की तो जरूरत
पड़ेगी ही—जो
देखे और जो
दिखाई पड़े। आप
सब कुछ देख
सकते हैं, अपने
भर को आप नहीं
देख सकते हैं।
कैसे देखिएगा?
किसी चमीटे
से हम उसी
चमीटे को
पकड़ने की
कोशिश करने
लगें! सब पकड़
सकते हैं उस
चमीटे से, सिर्फ
उसी चमीटे को
पकड़ने की
कोशिश असफल
जाएगी। और तब
बडी मुश्किल
होगी कि यह
चमीटा भी कैसा
पागल है! सब
कुछ पकड़ लेता
है तो अपने को
क्यों नहीं
पकड़ पाता?
हम
सब कुछ देख
लेते हैं, अपने को
नहीं देख पाते।
देख भी नहीं
पाएंगे। और
जिसको भी हम
देख लेंगे, जान लेना कि
वह हम नहीं
हैं। तो जिस
चीज को भी आप
देखने में
समर्थ हो जाएं,
आप समझ लेना
कि इतनी बात
तय हो गई कि यह
मैं नहीं हूं।
कोई आदमी अगर
ईश्वर का
दर्शन कर ले, तो समझ लेना
एक बात पक्की
हो गई कि आप
ईश्वर नहीं
हैं। आपको
भीतर प्रकाश
का दर्शन हो
जाए, तो
समझ लेना एक
बात पक्की हो
गई कि आप
प्रकाश नहीं
हैं। आपको
भीतर आनंद का
अनुभव हो जाए,
तो आप एक
बात पक्की समझ
लेना कि आप
आनंद नहीं हैं।
जिस चीज का भी अनुभव
हो जाए वह आप
नहीं हैं। आप
तो वह हैं
जिसको अनुभव
होता है।
तो
जो भी चीज
अनुभव बन जाती
है, उसके
आप पार हो
जाते हैं।
इसलिए एक कठिन
बात समझ लेनी
उपयोगी होगी,
कि
अध्यात्म कोई
अनुभव नहीं है।
दुनिया में सब
चीजें अनुभव
हैं, अध्यात्म
कोई अनुभव
नहीं है।
अध्यात्म तो
उसकी तरफ
पहुंच जाना है
जिसको सब
अनुभव होता है
और जो स्वयं
कभी अनुभव
नहीं बनता—अनुभोक्ता,
साक्षी, द्रष्टा।
आपको
मैं देखता हूं; उधर आप
हैं, इधर
मैं हूं। उधर
आप हैं जो
दिखाई पड़ रहा
है; इधर
मैं हूं जो
देख रहा है।
ये दो हैं।
अपने को
बांटने का कोई
उपाय नहीं है
कि मैं अपने
को दो टुकड़े
में कर लूं? और एक देखे
और एक दिखाई
पडे। अगर
टुकड़ा हो सके—दों
टुकड़े हो सकें—तों
जो टुकड़ा
देखेगा, वही
मैं हूं; और
जो टुकड़ा
दिखाई पडेगा,
वह मैं नहीं
रहा। वह बात
समाप्त हो गई।
वह मुझसे टूट
गया। वह अलग
हो गया।
उपनिषद
की व्यवस्था, प्रक्रिया,
विधि यही है
नेति—नेति। जो
भी दिखाई पड़
जाए, कहो
कि यह भी नहीं।
जो भी अनुभव
में आ जाए, कहो
यह भी नहीं।
और हटते जाओ
पीछे, हटते
जाओ पीछे, हटते
जाओ पीछे। उस
समय तक हटते
जाओ, जब तक
कि कोई भी चीज
इनकार करने को
बाकी रहे।
एक
ऐसी घडी आती
है, सब
दृश्य खो जाते
हैं। एक ऐसी
घड़ी आती है, सब अनुभव
गिर जाते हैं —सब।
ध्यान रखना, सब।
कामवासना का
अनुभव तो
गिरता ही है, ध्यान का
अनुभव भी गिर
जाता है।
संसार के, राग
—द्वेष के
अनुभव तो गिर
ही जाते हैं, आनंद, समाधि,
इनके भी
अनुभव गिर
जाते हैं। बच
रहता है खालिस
देखने वाला।
कुछ भी दिखाई
नहीं पडता, शून्य हो
जाता है चारों
तरफ। रह जाता
है केवल देखने
वाला और चारों
तरफ रह जाता
है खाली आकाश।
बीच में खड़ा
रह जाता है
द्रष्टा, उसे
कुछ भी दिखाई
नहीं पड़ता, क्योंकि
उसने सब इनकार
कर दिया। जो
भी दिखाई पड़ता
था, हटा
दिया मार्ग से।
अब उसे कुछ भी
अनुभव नहीं
होता। हटा दिए
सब अनुभव। अब
बच रहा अकेला,
जिसको
अनुभव होता था।
जब
कोई भी अनुभव
नहीं होता, और कोई
दर्शन नहीं
होता, और
कोई दिखाई
नहीं पडता, और कोई विषय
नहीं रह जाता,
और जब
साक्षी अकेला
रह जाता है, तब कठिनाई
है भाषा में
कहने की कि
क्या होता क्।
क्योंकि
हमारे पास
अनुभव के
सिवाय कोई
शब्द नहीं है।
इसलिए इसे हम
कहते हैं आत्म—
अनुभव लेकिन
अनुभव शब्द
ठीक नहीं है।
हम कहते हैं
चेतना का
अनुभव या
ब्रह्म—अनुभव।
लेकिन यह शब्द,
कोई भी शब्द
ठीक नहीं है; क्योंकि
अनुभव उसी
दुनिया का
शब्द है, जिसको
हमने तोड़ डाला।
अनुभव उस द्वैत
की दुनिया में
अर्थ रखता है
जहां दूसरा भी
था, यहां
अब कोई अर्थ
नहीं रखता।
यहां सिर्फ अनुभोक्ता
बचा, साक्षी
बचा।
इस
साक्षी की
तलाश ही
अध्यात्म है।
ध्यान देना, ईश्वर की
तलाश
अध्यात्म
नहीं है।
पुराने योग—सूत्रों
ने ईश्वर की
चर्चा ही नहीं
की, बात ही
नहीं उठाई; कोई जरूरत न
थी। बाद में
योग—सूत्रों
ने ईश्वर की
चर्चा भी की
तो उसको भी एक
अध्यात्म की
खोज का साधन
कहा, साध्य
नहीं। उसे भी
कहा कि यह
साधना में
सहयोगी होता
है इसलिए
ईश्वर को मान
लेना अच्छा है।
साधना में
सहयोगी होता
है, अध्यात्म
की खोज में, इसलिए मान
लेना अच्छा है।
एक उपकरण है, ईश्वर भी एक
विधि है, बस।
इसलिए
बुद्ध ने
इनकार कर दिया, महावीर
ने ईश्वर को
इनकार कर दिया।
उन्होंने
दूसरी विधिया
खोज लीं।
उन्होंने कहा,
इस विधि की
कोई भी जरूरत
नहीं है। अगर
विधि ही है
ईश्वर, तो
फिर दूसरी
विधियों से भी
काम चल सकता
है।
लेकिन
बुद्ध और
महावीर भी
साक्षी को
इनकार नहीं कर
सकते; ईश्वर
को इनकार कर
सकते हैं। सब
कुछ इनकार
किया जा सकता
है, लेकिन
अध्यात्म की
जो आत्यंतिक
आधारशिला है वह
साक्षी है, उसे इनकार
नहीं किया जा
सकता। इसलिए
चाहे ईसाइयत,
चाहे
इस्लाम, चाहे
हिंदू चाहे
जैन, चाहे
बौद्ध, एक
बात आप खोज
लेना — अगर
किसी भी धर्म
में साक्षी की
कोई बात हो, तो समझना कि
वह धर्म है; अगर साक्षी
की बात ही न हो,
तो समझना कि
उसका धर्म से
कोई भी संबंध
नहीं है। और
सब बातें गौण
हैं; और सब
बातें उपयोगी,
गैर—उपयोगी
हैं, और सब
बातों में
मतभेद हो सकता
है, साक्षी
के मामले में
मतभेद नहीं हो
सकता।
इसलिए
अगर किसी दिन
दुनिया में
धर्म का विज्ञान
निर्मित होगा
तो उसमें
ईश्वर, आत्मा, ब्रह्म,
इन सबकी
चर्चा नहीं
होगी, क्योंकि
ये सब स्थानीय
बातें हैं, कोई धर्म
मानता है, कोई
नहीं मानता; लेकिन
साक्षी की
चर्चा जरूर
होगी, क्योंकि
साक्षी
स्थानीय घटना
नहीं है। धर्म
ही नहीं हो
सकता बिना
साक्षी के। तो
साक्षी भर एक
वैज्ञानिक
आधारशिला है
समस्त धर्म—
अनुभव की, समस्त
धर्म की खोज
और यात्रा की।
और इस साक्षी
पर ही सारे
उपनिषद घूमते
हैं, इर्द —गिर्द।
सारे सिद्धात
और सारे इशारे
इस साक्षी को
दिखाने के लिए
हैं।
थोड़ा
हम समझने की
कोशिश करें।
क्योंकि शब्द
से तो समझ में
आ जाता है कि
साक्षी का
क्या मतलब है, लेकिन
साधना में बड़ी
जटिल बात है।
हमारा
जो मन है वह एक
तीर की तरह है, जिसमें
एक तरफ फल लगा
हुआ है तीर का।
तीर को आपने
देखा है? तीर
दो तरफ नहीं
चल सकता। अगर
आप तीर को चला
दें, तो एक
ही तरफ जाएगा।
या कि आप
सोचते हैं दो
तरफ भी जा
सकता है? तीर
के दो तरफ
जाने का कोई
भी उपाय नहीं
है। तीर जाएगा
अपने निशाने
की तरफ, एक
तरफ।
तो
जब प्रत्यंचा
पर कोई तीर को
चढ़ाता है, और
प्रत्यंचा से
तीर छूटता है,
तो दो बातें
खयाल में ले
लें।
प्रत्यंचा, जहां वह चढ़ा
था, वहा से
छूट जाता है, दूर हटने
लगता है, और
जहा वह नहीं
था—साध्य, लक्ष्य—उस
तरफ बढ़ने लगता
है। एक स्थिति
यह थी कि
प्रत्यंचा पर
चढा था तीर, दूर बैठा था
पक्षी वृक्ष
पर, उसकी
छाती में नहीं
चुभा था तीर, तीर था
प्रत्यंचा पर,
पक्षी पर
नहीं था, फिर
छूटा तीर, प्रत्यंचा
से दूर होने
लगा और पक्षी
के पास होने
लगा। फिर एक
स्थिति आई कि
पक्षी की छाती
में चुभ गया; प्रत्यंचा
खाली रह गई और
तीर पक्षी की
छाती में हो
गया।
ध्यान, पूरे समय
हम यही कर रहे
हैं कि जब भी
हमारे ध्यान
का तीर छूटता
है तो हमारी
प्रत्यंचा से
खाली हो जाता
है, भीतर
से, और
जिसकी तरफ
जाता है उस पर
जाकर टिक जाता
है।
कोई
चेहरा आपको
सुंदर लगा, तीर छूट
गया ध्यान का।
भीतर नहीं है
अब तीर, अब
ध्यान भीतर
नहीं है, अब
ध्यान भागा और
दौड़ा और सुंदर
चेहरे से जाकर
लग गया। सड़क
पर हीरा पड़ा
है, तीर
छूट गया
प्रत्यंचा से।
अब ध्यान भीतर
नहीं है, अब
ध्यान भागा, दौड़ा और
जाकर चुभ गया
हीरे की छाती
में। अब ध्यान
हीरे में है, अब आप में
नहीं है; या
ध्यान अब कहीं
और है। तो
आपके सब ध्यान
के तीर कहीं, कहीं, कहीं,
कहीं जाकर
छिद गए हैं।
आपके पास भीतर
कोई ध्यान
नहीं है, हमेशा
बाहर जा रहा
है।
तीर
तो इकतरफा ही
हो सकते हैं, लेकिन
ध्यान दोतरफा
हो सकता है।
और वही हो जाए,
तो साक्षी
का अनुभव होता
है। ध्यान का
तीर दोतरफा हो
सकता है, उसमें
दो फल हो सकते
हैं। और जब
आपका ध्यान
किसी की तरफ
जाए, तो आप
अगर इतना कर
पाएं, तो
आपको साक्षी
का अनुभव किसी
न किसी दिन हो
जाएगा।
जब
आपका ध्यान
किसी पर जाए, रास्ते
से गुजरी कोई
सुंदर युवती,
कोई सुंदर
युवक—आपका
ध्यान अटक गया।
तब आप अपने को
बिलकुल भूल गए।
यहां भीतर
ध्यान न रहा।
अब आप होश में
नहीं हैं। अब
आप बेहोश हैं,
क्योंकि
आपका होश तो
किसी और के
पास चला गया।
अब आपका होश
तो उसकी छाया
बन गया। अब आप
होश में नहीं
हैं।
अगर
आप यह काम कर
सकें कि कोई
आपको सुंदर
दिखाई पड़ा, ध्यान उस
पर गया, उस
समय इस पर भी
भीतर ध्यान
जाए जहा से
प्रत्यंचा से
तीर छूट रहा
है, उसकी
तरफ भी हम एक
साथ ही अगर
देख पाएं; जहां
से ध्यान जा
रहा है वह
स्रोत और
जिसकी तरफ
ध्यान जा रहा
है वह लक्ष्य,
अगर दोनों
हमारे ध्यान
में एक साथ आ
जाएं, तो
आपको पहली दफा
पता चलेगा कि
साक्षी का
क्या अर्थ है।
कहा से ध्यान
जा रहा है, उस
स्रोत का
अनुभव होना
चाहिए—कहां से
ध्यान पैदा हो
रहा है!
वृक्ष
हमें दिखाई
पड़ता है, शाखाएं
दिखाई पड़ती
हैं, फूल—पत्ते
दिखाई पड़ते
हैं, फल लग
जाते हैं वे
दिखाई पड़ते
हैं; जड़ें
हमें नहीं
दिखाई पड़ती, जड़ें अंधेरे
में छिपी हैं।
लेकिन वहीं से
वृक्ष रस ले
रहा है। आपका
ध्यान फैलता
है चारों तरफ,
जगत का बड़ा
वृक्ष
निर्मित हो
जाता है।
लेकिन जहा से
ध्यान निकलता
है, जिस
स्रोत से, जिस
चैतन्य के
सागर से
निकलता है, उस तरफ का
आपको कोई भी
पता नहीं है।
उन जड़ों का भी
बोध साथ—साथ
होने लगे, एक
साथ आपको
दोनों बात
दिखाई पड़ने
लगें.।
इसे
ऐसा समझें।
मैं बोल रहा
हूं, तो आपका
ध्यान मेरे
बोलने पर लगा
है। इसको
दोहरा तीर बना
लें। यह दोहरा
तीर अभी, इसी
वक्त भी बन
सकता है। जब
मैं बोल रहा
हूं, तो आप
केवल मैं जो
बोल रहा हूं
वही न सुनें, आपको यह भी
स्मरण रहे कि
मैं सुन रहा
हूं। बोलने
वाला कोई और
है, वह बोल
रहा है, मैं
सुनने वाला हूं, मैं सुन रहा
हूं। अगर आप
एक क्षण को भी—अभी,
यहीं—ये
दोनों बातें
एक साथ कर लें
सुनें भी और
सुनने वाले का
स्मरण भी, रिमेंबरिग
भी भीतर बनी
रहे कि मैं
सुन भी रहा हूं।
शब्द
दोहराने की
जरूरत नहीं है।
अगर आप कहें
कि मैं सुन
रहा हूं तो
उतनी देर में
आप सुन न
पाएंगे, जो मैंने
कहा वह चूक
जाएगा। भीतर
शब्द बनाने की
जरूरत नहीं है
कि मैं सुन रहा
हूं मैं सुन
रहा हूं। अगर
आपने ऐसा किया
तो उतनी देर
आप बहरे हो
जाएंगे। उस
सेकेंड आप
अपनी भीतर की
आवाज सुनेंगे
कि मैं सुन
रहा हूं,
लेकिन जो मैं
बोल रहा हूं
यहां से वह
आपको सुनाई
नहीं पड़ेगा।
मैं
जो बोल रहा
हूं वह सुनाई
पड़ता रहे, और साथ ही
आपको यह भी
स्मरण हो जाए—शब्दों
में नहीं—यह
भी आपकी
प्रतीति साफ
हो जाए कि इधर
सुनने वाला भी
बैठा है। इधर
सुनने वाला है,
उधर बोलने
वाला है। ये
दोनों एक साथ
आपकी चेतना
में झलक जाएं,
तत्क्षण
आपको साक्षी
का अनुभव हो
जाएगा कि
साक्षी क्या
है। साक्षी वह
है जो इन
दोनों को देख
रहा है। और
थोड़ा भीतर
प्रवेश करें।
आप सुन रहे
हैं, मैं
बोल रहा हूं र
साक्षी वह है
जो दोनों का
अनुभव कर रहा
है कि बोला जा
रहा है, सुना
जा रहा है। जब
आपकी चेतना का
तीर दोहरा हो
जाता है तो
तत्क्षण आप
तीसरे बिंदु
पर खड़े हो
जाते हैं।
मैंने
बोला; यह
एक बिंदु हुआ।
साधारणत: आपका
ध्यान इसी पर
लगा रहता है।
आपने सुना भी,
आप सुनने
वाले हैं, ऐसी
भी आपको
प्रतीति हुई,
एहसास हुआ,
अनुभव हुआ;
यह दूसरा
बिंदु हो गया।
यह दूसरा
बिंदु पाना
बहुत कठिन है।
अगर यह दूसरा
बिंदु आपको
मिल जाए तो
तीसरा बिंदु
पाना बहुत सरल
है। वह तीसरा
बिंदु यह है
कि बोलने वाला
है अ, सुनने
वाला है ब, फिर
आप कौन हैं
भीतर जो कि
दोनों को
अनुभव कर रहे
हैं—बोलने
वाले को भी और
सुनने वाले को
भी! आप तीसरे
हो गए, दि
थर्ड प्वाइंट।
वह जो तीसरा
बिंदु है, वही
साक्षी है।
इस
तीसरे के पार
नहीं जाया जा
सकता। यह
तीसरा आखिरी
बिंदु है। और
यह है त्रिकोण
जीवन का। दो
बिंदु विषय और
विषयी। और
तीसरा बिंदु
दोनों का
साक्षी; दोनों को
अनुभव करने
वाला, दोनों
को भी देख
लेने वाला; दोनों का भी
गवाह।
इस
सूत्र को अब
हम समझें।
'अपने को
बुद्धि और
उसकी वृत्ति का
साक्षी जान कर
वह मैं ही हूं, ऐसी वृत्ति
द्वारा सब
पदार्थों के
ऊपर से आत्म—बुद्धि
का त्याग करता
है।'
खोजी, इस सत्य
का अन्वेषक, मुमुक्षु, ऐसा अनुभव
करके कि मैं सदा
साक्षी हूं
कभी कर्ता
नहीं, सदा
साक्षी हूं, कभी भोक्ता
नहीं, समस्त
चीजों के ऊपर
से अपनी वासना
का, अस्मिता
का, मेरे —पन
का भाव छोड़
देता है। हटता
जाता है भीतर
उस बिंदु तक, जिसके आगे
हटने का फिर
और कोई उपाय
नहीं।
‘लोक का
अनुसरण करना
छोड़ कर......।
ऐसा
व्यक्ति फिर
लोक का अनुसरण
करना छोड़ देता
है।
लोक
का अर्थ है.
समाज, संस्कृति,
सभ्यता, लोग
जो आपके चारों
तरफ हैं, भीड़।
जब
तक आपको
साक्षी का
अनुभव न हो, तब तक लोक
का अनुसरण
छोड़ना खतरनाक
भी है, क्योंकि
लोक के साथ
जुड़ी है नीति,
जुड़ा है
नियम, जुड़ी
है मर्यादा, जुड़ी है
व्यवस्था, अनुशासन।
तो जो अभी
अपना मालिक
नहीं है, निश्चित
ही, समाज
उसका मालिक
होगा। जो अपना
ही मालिक नहीं
है, किसी
को उसे
नियंत्रित
करना होगा।
कोई अनुशासन
चाहिए, अन्यथा
विक्षिप्त हो
जाएगी अवस्था,
अराजक हो
जाएगी। लेकिन
जिसे अपने
होने का अनुभव
हो गया, जिसे
साक्षी का
अनुभव हो गया,
इस जगत में
अब वह अपना
मालिक स्वयं
है।
यह
बड़े मजे की
बात है। जो सब
मालकियत छोड़
देता है, वह अपना
मालिक हो जाता
है; और जो
सब मालकियत
इकट्ठी करता
रहता है, वह
केवल खबर देता
है कि अपनी
मालकियत उसके
पास नहीं है।
इसका
मतलब यह हुआ
कि जो इस कोशिश
में लगा है कि
मेरा हो मकान, मेरी हो
जमीन, मेरा
हो राज्य, मेरा
हो यह, मेरा
हो वह, एक
बात पक्की है
कि वह खुद का
नहीं है; क्योंकि
जिसे अपने
भीतर का राज्य
मिल जाए, उसे
फिर सब राज्य
फीके और
व्यर्थ हो
जाते हैं, और
जो अपने
साम्राज्य को
पा ले, फिर
उसकी कोई आकांक्षा
किसी
साम्राज्य की
नहीं रह जाती।
उसके पास
साम्राज्य भी
हो, तो भी
व्यर्थ हो
जाता है। अगर
उसकी बाहर के
साम्राज्य की
वासना प्रबल है
तो वह इस बात
की खबर है, इंगित
है, इशारा
है, कि
भीतर के मालिक
का उसे कुछ भी
पता नहीं, उसी
की कमी पूर्ति
कर रहा है।
भीतर मालिक
नहीं है, चीजों
की मालकियत
बना कर भरोसा
बिठा रहा है
अपने पर कि
मैं मालिक हूं।
देखो, इतनी
है मेरी जमीन!
इतना है मेरा
धन! इतना है मेरा
फैलाव! ऐसा
करके वह अपने
को भरोसा दिला
रहा है कि
नहीं, कौन
कहता है कि
मैं मालिक
नहीं हूं? इतनी
चीजों का
मालिक हूं!
यह
मालकियत झूठी
है, क्योंकि
चीजों का कोई
जगत में कभी
मालिक नहीं होता।
भर्तृहरि
राज्य छोड़ कर
चला गया। तो
बड़ी मीठी घटना
घटी। राज्य
छोड़ कर जंगल
में चला गया, साधना
करने लगा, ध्यान
में लीन रहने
लगा। एक दिन
अचानक ऐसा हुआ
कि बैठा है
अपनी गुफा के द्वार
पर, एक घुड़सवार
अचानक रास्ते
पर आया। उसके
आते देरी भी
नहीं हुई थी
कि एक दूसरा
घुड़सवार भी
दूसरे मार्ग
से उसी के
सामने गुफा के
द्वार पर आ
गया। दोनों की
तलवारें एकदम
खिंच गईं!
भर्तृहरि को
कुछ समझ में न
आया। दोनों की
तलवारें जमीन
पर टिक गईं, तब उसने
नीचे की तरफ
गुफा से देखा,
वहा एक बड़ा
हीरा पड़ा है!
पहले घुड़सवार
ने कहा कि नजर
मेरी पहले पड़ी,
इसलिए हीरा
मेरा है!
दूसरे
घुड़सवार ने
कहा कि मेरी
तलवार की तरफ
देखते हो!
मेरी भुजाओं
की तरफ देखते
हो! नजर कब
किसकी पड़ी, इससे क्या
लेना—देना है?
जो मालिक हो
सकता है, वह
मालिक है!
मालिक मैं
हूं! तलवारें
खिंच गईं!
गर्दनें कट
गईं! क्षण भर
बाद ही दोनों
गर्दनें जमीन
पर कटी हुई पड़ी
थीं, दोनों
शरीर रक्त से
भरे हुए जमीन
पर पड़े थे, हीरा
अपनी जगह पड़ा
था!
भर्तृहरि
ने कहा कि बड़ी
हैरानी की बात
है! जिस हीरे
के लिए दोनों
ने मालकियत की
और दोनों मिट
गए, उस हीरे
को पता भी
नहीं होगा कि
क्या—क्या हो
गया उसके
आस—पास! और पता
नहीं इस हीरे
के आस—पास
कितना—कितना
नहीं हो गया
होगा! और हीरा
वहीं पड़ा है!
और कितने लोग
कटते—पिटते
रहेंगे उस
हीरे के लिए!
और हीरा वहीं
पड़ा रहेगा!
मालकियत
की कोशिश
वस्तुओं पर इस
बात की खबर है
कि अपने पर
मालकियत नहीं
है। और जब कोई
व्यक्ति
साक्षी का
अनुभव करने
लगता है तो
अपना मालिक हो
जाता है, मालकियत की
वासना गिर
जाती है। अब
वह किसी का
मालिक नहीं
होना चाहता, क्योंकि वह
जानता है, कोई
उपाय ही नहीं
है किसी और के
मालिक होने का।
इसे दोहरा दूं, कोई उपाय ही
नहीं है किसी
और के मालिक
होने का।
पति
अगर सोचता हो
कि पत्नी का
मालिक है, तो
विक्षिप्त है।
पत्नी अगर
सोचती हो कि
पति की मालिक
है, तो
उसके
मस्तिष्क के
इलाज की जरूरत
है। कोई मालिक
किसी का हो
नहीं सकता, क्योंकि सभी
अपने मालिक
पैदा हुए हैं।
स्वभाव से
सबकी मालकियत
भीतर छिपी है।
उसे किसी भी
हिसाब से
हटाया नहीं जा
सकता। और जब
तक वह हटे न, तब तक दूसरा
कोई मालिक
कैसे हो
सकेगा!
इसलिए
एक मजे की
घटना घटती है।
पति सोचता है
मैं मालिक हूं, पत्नी
हंसती है भीतर
मन ही मन में
और वह जानती है
कि मालिक मैं
हूं। इसीलिए
कलह है, चौबीस
घंटे कलह है।
वह कलह इसी
बात की है कि
प्रतिपल तय
करना पड़ता है
कि मालिक कौन
है? कौन है
अधिकार में? भरोसा पक्का
नहीं है। कभी
भी पक्का
भरोसा नहीं है।
किसी चीज का
कोई भरोसा
नहीं है, तो
व्यक्तियों
का तो बिलकुल
भरोसा नहीं है।
हीरे तक की
मालकियत नहीं
हो सकती, तो
जीवित
व्यक्ति की
मालकियत कैसे
हो सकती है!
साक्षी
जिसको अनुभव
हुआ, वह
सब मालकियत
छोड़ देता है, क्योंकि
अपना मालिक हो
जाता है। जो
मालकियत हो
सकती है, वह
उसकी हो जाती
है, जो
नहीं हो सकती,
उस पागलपन
में वह नहीं
पड़ता। ऐसी अवस्था
में वह लोक की
चिंता छोड़ दे
सकता है, छोड़
देता है।
क्योंकि अब
कोई नियंत्रण
उसके ऊपर नहीं
है, अपना
नियंता है। अब
अपने पैर से
ही यात्रा कर
सकता है, अब
अपने ही
प्रकाश में चल
सकता है; अब
किसी उधार
प्रकाश की कोई
भी जरूरत नहीं
है।
'लोक का
अनुसरण करना
छोड़ कर वह देह
का अनुसरण
करना भी छोड़
देता है। '
दूसरों
का अनुसरण तो
छोड़ ही देता
है, जैसे
ही साक्षी की
प्रतीति गहरी
होती है, वह
देह की गुलामी
भी छोड़ देता
है। फिर देह
उससे नहीं
कहती कि ऐसा
करो तो वह करे।
उसे जो करना
होता है वही
करता है, और
देह छाया की
तरह उसके पीछे
चलती है।
अभी
आपकी देह छाया
की तरह नहीं
चलती, आप
छाया की तरह
देह के पीछे
चलते हैं। देह
कहती है ऐसा
करो, वैसा
आपको करना
पडता है। देह
कहती है ऐसा
मत करो, वैसा
आपको रोकना
पडता है। देह
मालिक है, उसके
इशारे आपको
चलाते हैं।
होगी ही।
क्योंकि जो
अपना मालिक
नहीं है, समाज
उसका मालिक
होगा, और
प्रकृति उसकी
मालिक होगी।
समाज है हमारे
चारों तरफ
फैला हुआ
मनुष्यों का
समूह, और
देह है हमारी
पृथ्वी से, प्रकृति से
जुड़ी हुई। जो
अपना मालिक
हुआ वह लोगों
के समूह की
व्यवस्था से
भी मुक्त हो
जाता है और
प्रकृति की
व्यवस्था से
भी। फिर देह
उसे नहीं
बताती कि ऐसा
करो, फिर
वही चलता है
और देह उसका
अनुसरण करती
है।
देह
के अनुसरण
करने की घटना
बडी मूल्यवान
है। हमें तो
खयाल में भी
नहीं आ सकता
कि कैसे अनुसरण
कर सकती है! हम
सोच भी नहीं
सकते कि जब
देह को भूख
लगेगी—तो
महावीर को? तभी भूख
लगेगी न जब
देह को भूख
लगेगी! और जब
देह कहेगी कि
भूख लगी है, तभी तो महावीर
भोजन की तलाश
पर निकलेंगे
भिक्षा के
लिए! देह कैसे
पीछा करेगी? क्या महावीर
कह देंगे कि
ठीक, अब
मुझे भूख लगी
है, तो देह
को भूख लग
जाएगी? क्या
मतलब देह के
अनुसरण का?
गहरी
कीमिया है।
निश्चित ही, महावीर जब
तक राजी न हों
तब तक देह को
भूख नहीं
लगेगी।
लगने
का क्या मतलब
है? देह
को क्या होता
है, देह को
क्या
प्रतीतिया
होती हैं, यह
महावीर जब सुनने
को राजी होंगे,
तभी देह बता
पाएगी।
महावीर
तय करते हैं
कि मैं एक
महीना उपवास
करूंगा। आप तय
करें कि मैं
आज उपवास
करूंगा, तो आप चौबीस
घंटे भोजन
करेंगे, मन
ही मन में
भोजन चलेगा।
क्योंकि देह
कहेगी, मालिक
कौन है. मुझसे
बिना पूछे
उपवास! तो ठीक
है। तो देह
चौबीस घंटे
खबर देगी— भूख,
भूख, भूख।
और आपकी पूरी
चेतना भूख से
आच्छादित हो
जाएगी। ऐसे
भूखे रहने में
ज्यादा देह
दिक्कत नहीं
देगी; अगर
एक भोजन न
करें, तो
देह इतना
परेशान न
करेगी। सुबह
से तय कर लें।
यह
बडे मजे की
बात है। अगर
आप रोज एक बजे
भोजन करते हैं, तो सुबह
से एक बजे तक
भोजन करते ही
नहीं हैं, रोज
एक बजे भोजन
करते हैं। कल
सुबह छह बजे
उठ कर तय कर
लें कि आज उपवास
करेंगे, सुबह
छह बजे से ही
भोजन शुरू हो
जाएगा! एक बजे
तक तो रुकना चाहिए
था देह को कम
से कम! लेकिन
देह को इशारा
मिल गया कि आप
मालकियत करने
की कोशिश कर
रहे हैं। देह
सुबह से ही
उपद्रव शुरू
कर देगी, एक
बजना तो बहुत
दूर का मामला
है। कभी ऐसा न
होता था, एक
बजे ही भूख
लगती थी, आज
सुबह छह बजे
से शुरू हो
जाएगी! देह की
मालकियत पुरानी
है, हजारों
—हजारों
जन्मों की है।
और जिसकी भी
मालकियत हो, कोई अपनी
मालकियत इतनी
आसानी से नहीं
छोड़ता।
महावीर
कहते हैं
महीने भर
उपवास करूंगा, तो महीने
भर के लिए देह
चुप हो जाती
है; कोई
खबर नहीं देती।
देह अनुसरण
करती है, इसका
अर्थ यह है, देह कोई खबर
नहीं देती।
महीने भर के
बाद ही देह
खबर देगी कि
भूख लगी कि नहीं
लगी, महीने
भर तक देह चुप
होगी।
मगर
इसका क्या
मतलब है? क्या अभ्यास
करने से ऐसा
हो जाएगा? कि
रोज—रोज
अभ्यास करते
रहें, जैसा
कोई व्यायाम
करता है, ऐसा
रोज—रोज
अभ्यास करते
रहें उपवास का
तो धीरे—धीरे
आदत हो जाएगी?
इस गलती में
मत पड़ना।
अभ्यास और आदत
का सवाल नहीं
है, साक्षी
के अनुभव का
सवाल है। अगर
साक्षी का
अनुभव होगा तो
देह, महीना
नहीं अगर साल
भर के लिए भी
महावीर कह दें,
तो देह चाहे
सूख जाए, मर
जाए, समाप्त
हो जाए, लेकिन
महावीर को खबर
पहुंचाने की
जरूरत नहीं होगी,
हिम्मत
नहीं होगी, कि महावीर
को खबर
पहुंचाए कि
भूख लगी है।
यह काम देह का
नहीं है कि वह
खबर पहुंचाए।
यह तो एक दफे
तय करने की
बात है कि
मालिक कौन है।
जब तक देह को
पता है कि
मालिक मैं हूं
तब तक वह मालकियत
करती है, जब
आपका साक्षी
अनुभव में आ
जाता है, देह
की मालकियत
तत्क्षण मिट
जाती है।
कानून ही बदल
जाता है भीतर
का। देह आपके
पीछे चलने
लगती है। और
तब बड़े अनूठे
अनुभव हैं।
महावीर
के पीछे
हजारों लोगों
ने उपवास किए, लेकिन
महावीर जैसे
उपवास की बात
मुश्किल है। न
मालूम कितने
जैन साधु
उपवास में लगे
हुए हैं!
लेकिन महावीर
का शरीर देखा?
उनकी
मुर्ति देखी?
जैन साधुओं
के शरीर को
उनके सामने
रखें, तो
पता चलेगा कि
मामला—फर्क कहां
होगा। इनकी
देह तो पूरी
खबर दे रही है।
उनको ही नहीं,
आप तक को
खबर दे रही है
कि भूख लगी है!
महावीर की देह
खबर नहीं देती।
उनको तो खबर
देती ही नहीं,
आपको भी खबर
नहीं देती कि
भूख लगी है।
महावीर
जैसी सुंदर
काया खोजनी
मुश्किल है।
वह सुंदर काया
कह रही है कि
भीतर कोई
मालिक हो गया
है और अब देह
परेशान करने
का सामर्थ्य
नहीं रखती है।
अब देह कुछ कह
नहीं सकती है
कि ऐसा करो, वैसा मत
करो। यह देह
का मामला नहीं
है, यह
भीतर के जानने
वाले का मामला
है। वह जैसा
तय करे, जो
तय करे।
निर्णय उसके
हाथ में है।
वह मरना चाहे
तो मरे, जीना
चाहे तो जीए; लेकिन देह
बीच में अडंगा
नहीं डाल सकती।
वह सिर्फ छाया
की तरह पीछा
करेगी।
'लोक का अनुसरण
छूट जाता है।
देह का अनुसरण
भी छोड़ देता
है। इसके
पश्चात
शास्त्र का
अनुसरण छोड़
कर आत्मा के
ऊपर का अध्यास
भी छोड़ देता
है। '
ऐसे
छोड़ता चला
जाता है : लोक
को, देह
को, शास्त्र
का अनुसरण छोड़
देता है।
जिसको साक्षी
का अनुभव हुआ,
उसके लिए
शास्त्र
व्यर्थ हो जाते
हैं। यह जरा
जटिल मामला है।
इसे हम उलटा
भी कह सकते
हैं कि जिसे
साक्षी का अनुभव
हुआ, उसके
लिए शास्त्र
सार्थक हो
जाते हैं। ऐसा
भी कह सकते
हैं कि जिसको
साक्षी का
अनुभव हुआ, उसके लिए
शास्त्र
व्यर्थ हो
जाते हैं।
और
इन दोनों का
मतलब एक है।
इनका मतलब एक
इसलिए है कि
जब तक आपको
साक्षी का
अनुभव नहीं
हुआ, तब
तक आपके लिए
कोई भी
शास्त्र
सार्थक नहीं
है। आप कंठस्थ
कर ले सकते
हैं, आपको
पूरा वेद
कंठस्थ हो
सकता है, लेकिन
सार्थक नहीं
है; क्योंकि
अर्थ शब्द में
नहीं होता, अर्थ अनुभव
में होता है।
आपको खुद का
कोई अनुभव
नहीं है। आप
तोते की तरह
रटते रह सकते
हैं कि साक्षी,
साक्षी, साक्षी।
जब आप रट रहे
हैं, तब भी
कोई साक्षी
भीतर नहीं है
जो इसको सुन
रहा हो।
शास्त्र
तब तक व्यर्थ
है, जब
तक आपको अपना
अनुभव नहीं
हुआ; लेकिन
तभी तक सार्थक
मालूम पड़ता है,
जब तक आपको
अपना अनुभव
नहीं हुआ। जिस
दिन आपको अपना
अनुभव हो जाता
है, तब आप
स्वयं ही
शास्त्र हो
जाते हैं। जब
आप अपने स्वयं
ही शास्त्र हो
गए, तो अब
शास्त्र की
क्या
सार्थकता?
तो
शास्त्र जिस
दिन सार्थक
होता है उसी
दिन व्यर्थ हो
जाता है। जान
लिया आपने ही
वह, जो
शास्त्र
जनाते हैं। अब
शास्त्र का
क्या मूल्य है?
पहुंच गए
मंजिल पर, हो
गई यात्रा। तो
वह जो नक्यग़
ढोए रखते थे
अब तक, उसका
अब क्या अर्थ!
उसको फेंक दे
सकते हैं। उस
नक्यो को अब
क्या करिएगा?
बुद्ध
कहा करते थे
कि कोई नदी
पार करता है
नाव पर। पार
होते ही नदी
नाव व्यर्थ हो
जाती है। फिर
उसे वहीं छोड़
कर चल देता है।
लेकिन बुद्ध
कहते थे कि एक
दफा चार
गंवारों ने भी
नदी पार की।
तो पार कर ली
उन्होंने, फिर उतर
कर नाव अपने
सिर पर रख ली।
गाव के लोगों
ने बहुत
समझाया कि
हमने और पार करने
वाले भी देखे,
नाव वहीं
छोड़ देते हैं,
यह तुम क्या
करते हो? तो
उन्होंने कहा,
जिसने इतना
सहारा दिया, उसको हम ऐसे
ही छोड़ दें? हम ऐसे
गंवार नहीं!
फंस
गए! नाव ने नदी
तो पार करवा
दी, अब
नाव कैसे पार
हो? अब
उसको सिर पर
लिए घूमने
लगे! अब उस नाव
से छुटकारा न
हो।
और
ऐसा मत सोचना
कि वे लोग मर
गए! वे मर गए, लेकिन
उनकी औलाद! वह
नावों को ढोती
रहती है! वे
कहते हैं, हमारे
बाप इसी
शास्त्र को
ढोते थे, हम
भी इसको ढोके!
उनके बाप के
बाप ने भी यही
किया था, अब
हम क्या कर
सकते हैं, मजबूरी
है! यह सदा
हमारे बाप—दादों
के सिर पर रहा,
हम भी इसको
सिर पर
रखेंगे! और
फिर यह
शास्त्र नाव
है, इससे कितने
ऋषि—मुनि पार
नहीं हो गए
हैं!
जिस
दिन स्वयं का
अनुभव होता है, उस दिन
शास्त्र में
कुछ भी नहीं
बचता—यह भी
ठीक है, उसी
दिन शास्त्र
सार्थक होता
है—यह भी ठीक
है। क्योंकि
उसी दिन पता
चलता है, जो
शास्त्र ने
कहा था वह ठीक
है।
यह
पैराडाक्सिकल, विरोधाभासी
वक्तव्य
मालूम पड़ेगा।
जिस दिन
शास्त्र पता
चलता है सही
है, उसी
दिन बेकार हो
जाता है। उसको
छोड़ देता है, असली
अध्यात्म का
पथिक शास्त्र
को छोड़ देता है।
और
अंतिम बात
उपनिषदों ने
कमाल की कही
है। सिर्फ
बुद्ध ने उतनी
हिम्मत की और
कह दिया कि आत्मा
भी मैं नहीं
हूं। उपनिषद
का यह आखिरी
सूत्र अदभुत
है। इसमें
बुद्ध का सारा
सार आ गया है।
'और अंत में
जब शास्त्र भी
छोड देता है
तो आत्मा के
ऊपर का भी
अध्यास छोड
देता है।'
फिर
वह यह भी नहीं
कहता कि मैं
आत्मा हूं।
मैं मकान नहीं
हूं, यहौ
से शुरू हुई
थी बात। मैं
शरीर नहीं हूं, मैं मन नहीं
हूं यहा गहरी
गई थी। यह
आखिरी छलांग
है कि मैं
आत्मा भी नहीं
हूं। इसका
क्या मतलब
होगा? इसका
मतलब यह होगा
कि अब मैं कोई
भी अपनी सीमा बनाऊं,
वह नासमझी
है।
जब
हम कहते हैं
मैं आत्मा हूं, तो आपकी
आत्मा अलग हो
जाती है, मेरी
अलग हो जाती
है। जब मैं
कहता हू मैं
आत्मा हू,
तो मैं
व्यक्ति हो
जाता हूं और
यह सारी समष्टि
मुझसे अलग हो
जाती है।
आखिरी अध्यास
यह भी टूट
जाता है कि
मैं अलग हूं, कि मैं
व्यक्ति हूं।
तब यह सारी
समष्टि और
मेरे बीच के
सारे फासले, सारी सीमाएं
गिर जाती हैं।
तब बूंद सागर
हो जाती है।
तो बूंद यह भी
कैसे कहे कि
मैं बूंद हूं!
तब बूंद गिर
कर सागर हो
जाती है। तो
बूंद कैसे कहे
कि मैं बूंद
हूं! आखिर में
जब सब छूट
जाता है तब यह
भी छूट जाता
है कि मैं आत्मा
हूं।
इसका
अर्थ? इसका
अर्थ यह नहीं
कि आत्मा नहीं
है। इसका यह
अर्थ है कि
मैं परमात्मा
हूं। आत्मा भी
होने से काम
नहीं चल सकता
है।
यह
घोषणा बड़ी
कठिन है। और
यह घोषणा जब
भी कि जाती है, तब
कठिनाई खड़ी
हो जाती है।
अलहिल्लाज
मैसूर ने कहा
मुसलमानों से
कि मैं परमात्मा
हूं।
उन्होंने
फौरन उसे सूली
दे दी कि कैसी
कुफ्र की बात
करते हो! पाप
की बात करते
हो! तुम और
परमात्मा!
कितने ही ऊंचे
हो जाओ, सिद्ध से
सिद्ध हो जाओ,
लेकिन कोई
परमात्मा
नहीं हो सकता,
क्योंकि
परमात्मा
होने का मतलब
है आखिरी बात! आदमी
मिट्टी से
पैदा हुआ, इतनी
ऊंची उड़ान! यह
नहीं होगा।
तो
मंसूर को
उन्होंने काट
डाला। और जब
मंसूर काटा जा
रहा था, तब भी मंसूर
हंस रहा था।
किसी आदमी ने
भीड़ में से
पूछा कि तुम
क्यों हंस रहे
हो? तो
मंसूर ने कहा,
मैं इसलिए
हंस रहा हूं
कि जिसे ये
काट रहे हैं, उसको तो मैं
पहले ही कह
चुका था कि
मैं नहीं हूं।
ये किसको काट
रहे हैं? यह
तो हम पहले ही
कह चुके
नासमझो, कि
यह मैं नहीं
हूं। और जब हम
यह कहे, तभी
तो हमें पता
चला कि हम
परमात्मा हैं।
मैं परमात्मा
हूं।
वह
मरते दम तक, आखिरी दम
तक उसकी जुबान
से अनलहक, अनलहक—मैं
हूं ब्रह्म, मैं हूं
ईश्वर—ये
आखिरी शब्द
उसके मुंह से
गूंजते रहे।
सरमद
हुआ एक फकीर।
सूफी सरमद को
बड़े आदर से
देखते हैं। और
आदमी भी, दों—चार—दस, इने—गिने
आदमियों में
एक हुआ जमीन
पर। औरंगजेब
के पास शिकायत
पहुंची सरमद
की, कि वह
जरा अजीब सी
बातें कहने
लगा है।
मुसलमानों
का मंत्र है.
कोई नहीं
अल्लाह के सिवाय, एक
अल्लाह ही है।
लेकिन यह जो
सरमद था, यह
सिर्फ इतना ही
कहता था कोई
नहीं अल्लाह।
आधा। यह तो
उलटा ही हो
गया मतलब! कोई
नहीं अल्लाह
के सिवाय, एक
ही अल्लाह है—यह
पूरा सूत्र है।
और सरमद इतना
ही कहता था.
कोई नहीं
अल्लाह। यह
क्या हुआ
मामला! यह तो
सब बात ही
बिगड़ गई!
औरंगजेब
ने सरमद को
बुला कर कहा
कि हद हो गई! तुम
सूफी कहते हो
अपने को! फकीर
कहते हो! ईश्वर
का प्रेमी
कहते हो! और
तुम कहते हो, कोई नहीं
अल्लाह!
तो
सरमद ने कहा, हम अभी
यहीं तक
पहुंचे हैं, आगे अभी
यात्रा करनी
है। आप पूरा
सूत्र कहते
हैं कोई नहीं
अल्लाह के सिवाय,
एक ही
अल्लाह है।
अभी हम वहां
तक नहीं
पहुंचे हैं।
बढ़ने दो, धीरे—
धीरे शायद
पहुंच जाएं।
बाकी जहां तक
हम पहुंचे हैं,
वहीं तक हम
बोलते हैं। और
झूठ हम न
बोलेंगे। अभी
हमें इतना ही
पता चला है 'कोई नहीं
अल्लाह। 'वह—'के सिवाय, एक ही है
अल्लाह'—जरा
रुको, कोशिश
करने दो। और
तुम्हें पता
चल गया हो
पूरा, तो
बोलो!
निश्चित
ही, यह
कुफ्र की बात
थी। और यह
आदमी नास्तिक
है। और इस
नास्तिक के
पीछे न मालूम
कितने और लोग
बरबाद हो रहे
हैं। सरमद की
बड़ी
प्रतिष्ठा थी
दिल्ली में।
लाखों लोग
उसके चरण छूते
थे इस आदमी के,
जो कहता था
कोई नहीं
अल्लाह! इसको
कहते हैं चमत्कार!
जब कोई आदमी
कहता है कोई
नहीं अल्लाह,
और लाखों
आदमी उसमें
अल्लाह को देख
लेते हैं!
ऐसा
हुआ है। बुद्ध
के साथ हुआ, महावीर
के साथ हुआ, सरमद के साथ
हुआ। महावीर
ने कहा कोई
नहीं
परमात्मा, और
लाखों लोगों
ने महावीर को
कहा भगवान। और
बुद्ध ने कहा
कोई न
परमात्मा है,
न कोई आत्मा,
और लाखों
लोगों ने
बुद्ध के
चरणों में सिर
रख कर पूछा कि
रास्ता बताओ,
कैसे
पहुंचें उस
जगह, जहा न
कोई आत्मा है,
न कोई
परमात्मा!
सरमद
को औरंगजेब ने
कहा कि तीन
दिन का समय
देता हूं
सुधार कर लो, और यह
वाक्य पूरा कर
लो, नहीं
तो हम गर्दन
कटवा देंगे।
सरमद
ने कहा कि तीन
दिन का क्या
भरोसा, हम बचें न बचें
और तुम गर्दन
काटने से
वंचित रह जाओ!
और यह भी कुछ
पक्का नहीं कि
हम तीन दिन
में पहुंच पाएं
पूरे सूत्र तक,
और जब तक न
पहुंचें तब तक
यह जबान
दोहराने वाली
नहीं। अनुभव
हो तो ही हम
कहेंगे। तो
तुम आज ही
कटवा दो।
और
कहते हैं कि
सरमद ने कहा
कि यह भी हो
सकता है कि
गर्दन कटने से, जो बाकी
यात्रा है, वह पूरी हो
जाए। वह जो
हमें अभी आगे
का पता नहीं
है, शायद
यह गर्दन ही
बाधा बन रही
है।
औरंगजेब
तो शायद ही
समझा होगा!
सम्राटों और
अकल का वैसे
कोई संबंध
नहीं है! उसने
उसी दिन कटवा
दी गर्दन सरमद
की। दिल्ली
में जो जामा
मस्जिद है, उसमें
उसकी गर्दन
काटी गई। और
जामा मस्जिद
की सीढ़ियों पर
जब उसकी गर्दन
गिरी और
सीढ़ियों पर
लुढ़कने लगी, तो हजारों
लोगों ने यह
आवाज सुनी जो
वहा गवाह थे, कि वह गर्दन
चिल्ला कर कह
रही थी कोई
नहीं अल्लाह
के सिवाय, एक
ही है अल्लाह।
इसके चश्मदीद
गवाह हैं।
लाखों लोगों
ने सामने सुनी
यह आवाज।
औरंगजेब
बहुत पछताया, लेकिन तब
तो कोई उपाय न
था। सरमद के
शिष्यों से
उसने पूछा। तो
वे हंस रहे थे
और वे कह रहे
थे, सरमद
कहता था कि जब
तक मैं बचा
हूं थोड़ा भी, तब तक आगे की
बात कैसे हो
सकती है!
अल्लाह तो उस दिन
होगा, जिस
दिन मैं न रहूंगा।
तो यह गर्दन
थोडी बाधा है,
यह कट जाए।
औरंगजेब की
बड़ी कृपा है, कटवाए देता
है। ऐसे तो हम
भी काट लेते, लेकिन वक्त
लगता। वह
जल्दी किए दे
रहा है।
आदमी
जब मिटता है
पूरा, तो
यह भी नहीं
कहता कि आत्मा
है। तब आखिरी
अध्यास भी गिर
जाता है। जब
तक आपको पता न
चल जाए कि आप
परमात्मा हो,
तब तक जानना
अध्यास बाकी
है, भ्रम
बाकी है। जब
तक यही अनुभव
न हो जाए कि
मैं ही ब्रह्म
हूं तब तक
समझना कि अभी
अज्ञान बाकी
है, और उसे
काटते ही चले
जाना। लोक से
छूट जाना, देह
से छूट जाना, शास्त्र से
छूट जाना—और
फिर अपने से
भी, और फिर
स्वयं से भी
छूट जाना।
'अपने में ही
स्थित होकर, युक्ति, श्रवण
और स्वानुभव
के द्वारा
अपने को ही
सबका आत्मरूप
जान कर योगी
का मन नाश
होता है। '
मन
दब तो जाता है, कठिनाई
पड़ती है दबाने
में भी, छिप
तो जाता है, छिपाना भी
मुश्किल है
मामला। लेकिन
नाश, मनोनाश,
आखिरी बात
है।
आपका
मन शांत भी हो
जाए, तो
कल फिर अशांत
हो जाता है, फिर जाग आता
है, जाग—जाग
आता है। बार —बार
अंकुर फूट
जाते हैं; बीज
बना ही रहता
है। कितना ही
ध्यान करें, कितनी ही
प्रार्थना, कितना ही
प्रभु—स्मरण,
कितना ही
नाम। कभी लगता
है सब ठीक, और
क्षण भर में
लगता है सब
बिगड़ गया। कभी
लगता है आ गई
जगह, आ गया
मकान, और
फिर सब खो
जाता है।
यह
खेल ऐसा मालूम
होता है, जैसे बच्चे
खेलते हैं
लड़ो का खेल।
उसमें
सीढ़ियां भी
रहती हैं और
सांप भी रहते
हैं। सीढ़ियों
पर से चढ़ते
हैं, और
फिर किसी सांप
के मुंह पर पड़
गए, वापस
लौट कर नीचे
उतर आए। ऐसा
होता ही रहता
है, चढ़ते
हैं, उतरते
हैं।
करीब
—करीब मन के
साथ ऐसा ही
चलता है। कभी
लगता है चढ़ गए—सब
ठीक, बिलकुल
ठीक। ऐसा लगता
है पहुंच गए, यही तो कहा
है संतों ने।
यहीं, इसी
जगह की बात
कही। और इतना
खयाल भी नहीं
आया कि संतों
का नाम खयाल
में आया कि
पकड़े सांप के
मुंह में, आ
गए नीचे। पता
चला हम वहीं
हैं। वे संत
वगैरह सब झूठ
ही कहते रहे
होंगे, कि
वहम हो गया
होगा। एक खयाल
आ गया था कि सब
ठीक हो गया, यह तो सब
गड़बड़ है!
मेरे
पास निरंतर, रोज—रोज
सीढ़ियों से
चढने वाले, सांपों से
उतरने वाले
लोगों की भीड़
है। एक दिन
आकर मुझे खबर
देते हैं, गजब
हो गया!
फैंटेस्टिक!
बस अब कुछ
करने को नहीं
रहा। दूसरे
दिन सुबह
कुटे—पिटे चले
आ रहे हैं! वह
हर सीडी के
पास सांप टिका
हुआ है।
मन, बहुत बार
लगेगा कि गया,
और लौट आएगा।
झलकें
मिलेंगी।
इतनी देर को
भी जाता है, तो भी मन के
पार की जरा सी
झलक मिलती है।
जरा सी देर को
भी मन हट जाता
है, तो जगह
खाली हो जाती
है। उस खाली
जगह में से
खुला आकाश और
आकाश के तारे दिखाई
दे जाते हैं, एक खिड़की
खुल जाती है।
लेकिन ज्यादा
देर यह नहीं
चलता।
योगी
तो तभी सिद्ध
होता है जब
मनोनाश हो
जाता है।
मनोनाश तभी
होता है जब
ऐसा अनुभव में
आ जाए कि मैं
आत्मा भी नहीं
हूं।
जब
तक मुझे ऐसा
लगता है कि
नहीं शरीर, नहीं मन,
लेकिन
आत्मा तो मैं
हूं; जब तक
मेरे मैं को
कोई भी सहारा
बाकी है, तब
तक मेरा मन
बीज—रूप में
बना रहेगा। जब
तक मेरे मैं
को कोई भी
सहारा, कोई
भी सहारा बाकी
है, कि
आत्मा, तो
भी मेरा मन 'बीज —रूप में
बना रहेगा। और
कभी भी वर्षा
की एक बूंद
पड़ेगी और बीज
चिटक जाएगा; और अंकुर
निकल जाएंगे,
और वृक्ष
बडा होने
लगेगा। जब मैं
ही नहीं बचता
हूं तब ही मन
मिटता है। धन
छोड़ना आसान, पद छोड़ना
आसान, शरीर
के साथ भी मोह
छोड़ लेना आसान,
मन के साथ
भी मोह छोड़
लेना आसान; लेकिन आखिर
में अपने ही
साथ, अपनी
निजता के साथ,
मेरे होने
के साथ भी मोह
को तोड़ लेना
अति कठिन है।
उसके टूटते ही
मनोनाश हो
जाता है।
बुद्ध के पास
सारिपुत्त
गया। तो
सारिपुत्त ने
कहा कि मेरी
मुक्ति कैसे
हो?
तो
बुद्ध ने कहा, तू यहां आ
ही मत, तू
कहीं और जा।
क्योंकि हम
तेरी मुक्ति
करवा ही नहीं
सकते, तुझसे
मुक्ति करवा
सकते हैं।
बुद्ध ने कहा,
मेरी
मुक्ति नहीं
होती, मुझसे
मुक्ति होती
है। तू अगर
तेरी मुक्ति
चाहता है, तो
तू कहीं और जा।
हा, अगर तू
तुझसे ही
मुक्ति चाहता
है, तो. ठीक
जगह आ गया है।
हम तुझे छुड़ा
देंगे तुझसे
ही। तो यह मत
पूछ कि मेरा
मोक्ष कैसे
होगा? तू
कहा बचेगा
मोक्ष में! तू
यह पूछ कि इस
मेरे से
छुटकारा कैसे
हो? इस मैं
से मोक्ष कैसे
मिले?
इसलिए
बुद्ध ने
मोक्ष शब्द को
पसंद नहीं
किया।
उन्होंने
शब्द चुना
निर्वाण।
क्योंकि
मोक्ष में ऐसा
लगता है, मेरा! इतना
तो बचेगा कम
से कम कि
आत्मा बचेगी,
और
सिद्धशिला पर
बैठे हुए
मोक्ष का आनंद
ले रहे हैं! हम
ही, वही
सज्जन जो यहौ
दुकान करते थे,
वही अब
मोक्ष में
सिद्धशिला पर
बैठ कर आनंद
ले रहे हैं! आप
तो बचे ही
रहेंगे, यह
तो मन में रस
बना ही रहता
है, कि हम
तो बचे हैं।
है
क्या आपमें
बचने योग्य? और बचाने
योग्य भी क्या
है, कभी
सोचा आपने? कभी हिसाब
लगाया अपना कि
मेरे पास ऐसा
क्या है जिसको
मैं शाश्वत
रूप से बचाने
का आग्रह करूं?
ऐसी कौन सी
सुगंध है मेरे
पास जो सदा
रहे ऐसा मैं
कह सकूं? ऐसा
कौन सा स्वर
है मेरे पास
जिसको मैं
अमृत पिला
सकूं? ऐसा
मेरे
व्यक्तित्व
में क्या है
जिसको मैं कहूं
यह सदा रहे? ऐसा कुछ भी
नहीं मालूम
पड़ता।
बुद्ध
कहते हैं, यह भी
वासना है।
लस्ट फार
लाइफ! यह भी
जीवेषणा है, मैं बचूं बिना
कारण।
कोई
वजह नहीं
मालूम पड़ती, आप
किसलिए बचें!
और क्या है
आपमें जो बचे
तो जगत का कुछ
कल्याण हो!
कुछ भी नहीं
है।
तो
बुद्ध कहते
हैं, मोक्ष
नहीं, यह
शब्द ठीक नहीं
है। तो
उन्होंने
शब्द चुना
निर्वाण।
यह
सूत्र
निर्वाण का
सूत्र है।
निर्वाण कहते
हैं दीए के
बुझ जाने को।
दीया जब बुझता
है, तो
आप बता सकते
हैं ज्योति
कहां चली गई?
कहीं
नहीं जाती, बस बुझ गई,
खो गई, लीन
हो गई। अब
कहीं आप खोज न
पाएंगे उस
ज्योति को जो
बुझ गई। अब
लोक —लोक में, कहीं भी
अनंत में, उस
ज्योति को आप
न खोज पाएंगे
जो बुझ गई। वह
लीन हो गई।
इतनी लीन हो
गई कि अब उसे
वापस इस अनंत
से नहीं लौटाया
जा सकता। वह
निराकार में
इतनी चली गई
कि अब उसका
आकार फिर से
नहीं बन सकता।
मिट गई।
तो
बुद्ध कहते
हैं, ऐसे
ही तुम भी मिट
जाओगे, जैसा
दीया बुझ जाता
है। इसलिए
उन्होंने
शब्द चुना
निर्वाण। वे
कहते हैं, तुम्हारा
निर्वाण हो
जाएगा, मोक्ष
नहीं, तुम्हारा
निर्वाण हो
जाएगा। यह जो
दीए की ज्योति
तुम में
टिमटिमा रही
है, यह बुझ
जाएगी।
यह
बडी घबड़ाने
वाली बात
मालूम पडती है।
तो फिर सार ही
क्या है? अपने दीए
में और मिट्टी
का तेल डाल कर
किसी तरह इसकी
ज्योति को
जगाए रखें। यह
सार क्या है?
लेकिन
बुद्ध कहते
हैं, जब
तुम मिटोगे, तभी तुम जान
पाओगे कि तुम
क्या हो। और
जब तुम खोओगे,
तभी
तुम्हें पता
चलेगा, तुम
खोए नहीं, तुमने
सब पा लिया, तुम सब हो गए।
आत्मा
भी छूट जाती
है।
'निद्रा को, लोगों की
बातों को, शब्द,
स्पर्श, रूप,
रस, गंध
आदि विषयों को
तथा आत्मा के
विस्मरण को
किसी स्थल पर
अवसर दिए बिना
हृदय में
आत्मा का
चिंतन करना। '
सब
छूटता चला
जाता है।
निद्रा छूट
जाती, बेहोशी
छूट जाती। यह
अपने को हम
भूल गए हैं, इसे निद्रा
कहते हैं
उपनिषद। यह जो
हमें अपना
विस्मरण हो
गया है कि हम
कौन हैं; यह
जो हमें पता
नहीं है कि
मैं परमात्मा
हूं; इसे
कहते हैं
निद्रा। जिस
दिन यह निद्रा
क्षण भर को भी
नहीं पकड़ती, जिस दिन कोई
उपाय नहीं रह
जाता इस
बेहोशी के ऊपर
छा जाने का, यह धुआ फिर
घिरता ही नहीं,
ये बादल फिर
चारों तरफ
मंडराते ही
नहीं, आकाश
निरभ्र, खुला
हो जाता है, ये बदलिया
फिर कभी नहीं
घेरती और
अंधेरा कभी नहीं
उतरता, तब
एक सतत स्मरण......।
स्मरण
शब्द ठीक नहीं
है। शब्द सभी
गलत हैं, उपनिषद जिसे
कहना चाहते
हैं, उसे
कहने के लिए।
पर मजबूरी है,
शब्दों के
सिवाय कहने को
कोई और उपाय
नहीं है।
स्मरण कहना
ठीक नहीं, क्योंकि
स्मरण का
मतलब ही यह
होता है कि
जिसका बीच—बीच
में विस्मरण
हो जाता हो।
सतत स्मरण का
मतलब यह हुआ
कि जिसका
विस्मरण नहीं
होता।
ऐसा
हुआ, एक
तिब्बत में
फकीर हुआ, नारोपा।
अनेक लोग उसके
पास आते थे।
बड़े हैरान
होते थे
क्योंकि उसकी
ख्याति थी कि
वह परमात्मा
में लीन है, पर लोगों ने
कभी उसको
ईश्वर का नाम
स्मरण करते
नहीं देखा।
कभी! कभी भी
किसी ने नहीं
देखा! तो
शिष्य उससे अक्सर
पूछते कि लोग
तो कहते हैं
आप 'परमात्मा
में लीन हैं, लेकिन आप
कभी स्मरण
नहीं करते?
तो
नारोपा ने कहा
है कि स्मरण
कैसे करूं, उसका
विस्मरण ही
नहीं होता! और
जिस दिन स्मरण
करू तो समझना
कि नारोपा पतित
हो गया। जिस
दिन स्मरण
करूं, पुकारूं,
ईश्वर! उस
दिन समझ लेना
कि नारोपा
पतित हो गया; इसे विस्मरण
हो गया, नींद
आ गई। आती ही
नहीं नींद, स्मरण भी
कैसे करूं? उसका
विस्मरण ही
नहीं होता है।
ऐसी
अवस्था में उस
परम गुह्य गुहा
में प्रवेश
होता है, जो हम सब के
भीतर है।
आज
इतना हीं।
thank you guruji
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