योग
सूत्र:
(समाधिपाद)
श्रुतानुसानंप्रज्ञाभ्यामन्याबषया
विशेषार्थत्वात्।।
41।।
निर्विचार
समाधि कीं 'अवस्था
में विषय—वस्तु
की अनुभूति
होती है उसके
पूरे
परिप्रेक्ष्य
में, क्योंकि
इस अवस्था में
ज्ञान
प्रत्यक्ष
रूप से प्राप्त
होता है—
इंद्रियों
को प्रयुक्त
किए बिना ही।
तज्ज:
संस्कारोउन्यसंस्कारप्रतिबन्धी।।
42।।।
जो
प्रत्येक्ष
बोध
निर्विचार
समाधि में
उपलब्ध होता
है, वह सभी
सामान्य बोध
संवेदनाओं
के
पार का होता
है—प्रगाढ़ता
में भी और
विस्तीर्णता
में भी।
तस्यापि
निरोधे
सर्वनिरोधान्निर्बीज:
समाधि:।। 43।।
जब सारे
नियंत्रण पार
कर लिया जाता
है, तो निर्बीज
समाधि फलित
होती है
और
उसके साथ ही
उपलब्ध होती
है—जीवन—मृत्यु
से मुक्ति।
ज्ञान
अप्रत्यक्ष
होता है, सम्यक
अनुभूति
प्रत्यक्ष
होती है।
ज्ञान आता है
बहुत सारें
माध्यमों
द्वारा; वह
विश्वसनीय
नहीं होता है।
सम्यक
अनुभूति
प्रत्यक्ष
होती है, बिना
किसी माध्यम
के। केवल
सम्यक
अनुभूति
भरोसे की हो
सकती है। इस
भेद को याद रख
लेना है।
ज्ञान तो ऐसा
है जैसे
कि जब
कोई संदेशवाहक
आता हो और कुछ
कहता हो तुमसे:
हो सकता है
संदेशवाहक ने
कुछ गलत समझ
लिया होगा
संदेश, हो
सकता है
संदेशवाहक ने
संदेश में कुछ
अपने से जोड़
दिया हो, संदेश
— वाहक ने शायद
कुछ हटा दिया
हो संदेश में
से, संदेशवाहक
शायद भूल गया
हो संदेश की
कोई बात; संदेशवाहक
ने शायद कोई
अपनी ही
व्याख्या जोड़
दी हो उसमें; या फिर शायद
संदेशवाहक
एकदम चालाक हो
और भ्रमपूर्ण
हो। और
तुम्हें
विश्वास करना
पड़ता है
संदेशवाहक पर।
संदेश के
स्रोत तक
तुम्हारी कोई
सीधी पहुंच नहीं
होती है —यह
होता है ज्ञान।
ज्ञान
भरोसे का नहीं
होता है। केवल
एक ही संदेशवाहक
नहीं जुड़ा
होता है ज्ञान
के साथ, बल्कि
चार—चार जुड़े
होते हैं।
आदमी बहुत
सारे बंद
द्वारों के
पीछे कैद रहता
है। पहले तो
ज्ञान आता है
ज्ञानेंद्रियों
तक, फिर
ज्ञानेंद्रिया
उसे वहन करतीं
नाड़ी —तंत्र
द्वारा, वह
पहुंच जाता है
मस्तिष्क तक,
फिर
मस्तिष्क उसे
पहुंचा देता
है मन तक, और
मन उसे पहुंचा
देता है तुम
तक, चेतना
तक। यह एक बड़ी
प्रक्रिया
होती है, और
तुम्हारे पास
ज्ञान के
स्रोत तक कोई
सीधी पहुंच है
नहीं।
ऐसा
हुआ कि
द्वितीय
महायुद्ध में, एक
सिपाही के पैर
और उसकी
उंगलियों में
बहुत गहरी चोट
आयी थी, और
पैर के अंगूठे
में बहुत गहन
पीड़ा थी। इतनी
ज्यादा थी
पीड़ा कि वह
सिपाही बेहोश
हो गया। शल्य —चिकित्सकों
ने पूरी टांग
का आपरेशन
करने का
निश्चय किया।
वह इतनी टूट—फूट
गयी थी कि उसे
बचाया नहीं जा
सकता था, इसलिए
उन्होंने उसे
काट दिया।
सिपाही बेहोश
था इसलिए उसे
बिलकुल पता ही
नहीं चला कि
क्या हुआ।
अगली
सुबह जब
सिपाही को होश
आया,
तो फिर उसने
अपने पैर के
अंगूठे के
दर्द के बारे
में शिकायत की।
अब जब कि टांग
रही ही नहीं, जब अंगूठे
सहित पूरी टांग
ही काट दी गई
थी, तो यह
बात बेतुकी
हुई। उस
अंगूठे में
कैसे दर्द बना
रह सकता है, जो है ही नहीं?
नर्स हंस
पड़ी और बोली, 'तुम कल्पना
कर रहे हो या
तुम्हें भ्रम
हो रहा है।’ उसने चादर
उतार दी उसकी,
और दिखा
दिया सिपाही
को कि उसकी
पूरी टांग निकाल
दी गयी है, इसलिए
अब पैर के
अंगूठे में
कोई दर्द नहीं
बना रह सकता, क्योंकि पैर
का ही
अस्तित्व
नहीं है।
लेकिन सिपाही
अड़ा रहा अपनी
बात पर। वह
बोला, 'मैं
देख
सकता हूं कि टांग
है ही नहीं और
मैं समझ सकता
हूं तुम्हारे
मन का विचार।
मैं बेतुका लग
रहा हूं लेकिन
मैं फिर भी
कहता हूं कि
दर्द बहुत तेज
है और बरदाश्त
के बाहर है।’
डाक्टरों
को बुलाया गया; शल्य—चिकित्सकों
ने आपस में
सलाह—मशविरा
किया। यह तो
बिलकुल ही
बेतुकी बात थी।
मन कोई चालाकी
चल रहा था।
लेकिन जो घट
रहा था उसे
उन्होंने
समझने की कोशिश
की। तब सारे
शरीर का एक्स—रे
फोटो लिया, और जिस बात
तक वे पहुंचे,
वह यह थी : जो
नाड़ी पैर के
अंगूठे के
दर्द का संदेश
वहन करती रही
थी वह अभी भी
उसे वहन कर
रही थी। वह
उसी ढंग से कांप
रही थी, जैसे
कि उसे तब
कापना चाहिए,
यदि वहा
अंगूठा होता
और उसमें दर्द
होता।
और जब
नाड़ी पहुंचा
देती है संदेश
तो निस्संदेह
मस्तिष्क को
उस संकेत का
अर्थ करना
होता है।
मस्तिष्क के
पास कोई तरीका
नहीं है इसकी
जांच करने का
कि नाड़ी सही
संदेश वहन कर
रही है या गलत
संदेश, वास्तविक
संदेश, या
कि अवास्तविक
संदेश।
मस्तिष्क
बाहर नहीं आ
सकता और नाड़ी
को नियंत्रित
नहीं कर सकता।
मस्तिष्क को
निर्भर रहना
पड़ता है नाड़ी
पर, और
मस्तिष्क उस
संकेत का अर्थ
करता है मन के
सामने। तो अब
मन के पास कोई
तरीका नहीं
होता
मस्तिष्क को
जांचने का।
व्यक्ति को तो
बस विश्वास कर
लेना होता है
नल पर। और मन
ज्ञान को
पहुंचाता है
चेतना तक। अब
चेतना पीड़ित
होती है उस
पैर के अंगूठे
के लिए जो
विद्यमान ही
नहीं होता।
इसे ही
हिंदू कहते
हैं 'माया'।’संसार
अस्तित्व
नहीं रखता है',
हिंदू कहते
हैं, ' और
तुम भयंकर रूप
से पीड़ा भोग
रहे हो। उस
चीज के लिए
पीड़ित हो रहे
हो, जिसका
कि अस्तित्व
ही नहीं!' ऐसे
ही
क्रियान्वित
होती है ज्ञान
की यंत्र—प्रक्रिया।
इस प्रक्रिया
में यह बहुत
कठिन होता है
कहीं जांच
करना जब तक कि
तुम स्वयं में
से बाहर न आ
सकी। मन ऐसा
नहीं कर सकता,
क्योंकि मन
शरीर के बाहर
अस्तित्व
नहीं रख सकता
है। उसे
मस्तिष्क पर
निर्भर रहना
पड़ता है, वह
मस्तिष्क में
ही बद्धमूल
होता है।
मस्तिष्क ऐसा
नहीं कर सकता
क्योंकि
मस्तिष्क की
जड़ें जुड़ी
होती हैं पूरे
स्नायु—तंत्र
से। वह बाहर
नहीं आ सकता।
केवल एक जगह
संभावना होती
है जांचने—परखने
की, और वह
होती है
चैतन्य में।
चैतन्य
शरीर में
बद्धमूल नहीं
है; शरीर
तो केवल एक
नाव है। जैसे
कि तुम अपने
घर के बाहर
आते हो और
भीतर जाते हो,
इसी तरह
चैतन्य घर के
बाहर आ सकता
है और भीतर जा
सकता है। केवल
चैतन्य इस
सारे रचना—तंत्रों
के बाहर जा
सकता है और
चीजों को जो
घट रहा है, उसे
देख—जान सकता
है।
निर्विचार
समाधि में ऐसा
घटता है।
विचार समाप्त
हो जाते हैं।
मन और चेतना
के बीच का
संपर्क कट
जाता है, क्योंकि
विचार ही होता
है संपर्क।
विचार के बगैर
तुम्हारे पास
कोई मन नहीं
होता, और
जब तुम्हारे
पास कोई मन
नहीं होता, तो मस्तिष्क
के साथ संपर्क
टूट जाता है।
जब तुम्हारे
पास मन नहीं
होता, और
मस्तिष्क के
साथ का संपर्क
टूट चुका होता
है, तो
स्नायु—तंत्र
के साथ संपर्क
भी टूट चुका
होता है।
तुम्हारी
चेतना अब बाहर
और भीतर
प्रवाहित हो सकती
है। सारे
द्वार खुले
होते हैं।
निर्विचार
समाधि में, जब सारे
विचार समाप्त
हो जाते हैं, तब चेतना
गतिमान होने
और प्रवाहित
होने के लिए
स्वतंत्र
होती है। वह
बिना जड़ों के,
गृहविहीन
बादल की भांति
हो जाती है, वह उस
रचनातंत्र से
मुक्त हो जाती
है जिसके साथ
तुम जीए होते
हो। वह बाहर आ
सकती है, वह
भीतर जा सकती
है, उसके
मार्ग पर कोई
रुकावट नहीं
है।
अब
प्रत्यक्ष
ज्ञान संभव हो
जाता है।
प्रत्यक्ष
ज्ञान है
सम्यक
अनुभूति। अब
तुम सीधे देख
सकते हो।
ज्ञान के
स्रोत और
तुम्हारे बीच
बिना किसी संदेशवाहक
के तुम सीधे
देख सकते हो।
यह एक बड़ी
जबरदस्त घटना
होती है, जब
तुम्हारी
चेतना बाहर आ
जाती है और एक
फूल को देखती
है। तुम उसकी
कल्पना नहीं:
कर सकते, क्योंकि
वह कल्पना का
हिस्सा ही
नहीं। तुम
विश्वास नहीं
कर सकते कि
क्या घटता है!
जब चेतना सीधे
ही फूल को देख
सकती है, तो
पहली बार फूल
को जाना जाता
है, और
केवल फूल को
ही —नहीं, फूल
के द्वारा
संपूर्ण
अस्तित्व को
जान लिया जाता
है। एक छोटे —से
पत्थर में
समग्र
अस्तित्व
छिपा हुआ है; हवा में
नाचते हुए एक
छोटे —से
पत्ते में, पूरी सृष्टि
नृत्य करती है।
सड़क के किनारे
के 'छोटे —से
फूल में, संपूर्ण
सृष्टि की
मुसकान होती
है।
जब
तुम अपनी
इंद्रियों की
कैद के बाहर
आते हो स्नायु
—तंत्र के
बाहर, मस्तिष्क
के, मन के, परत—दर—परत
दीवारों के
बाहर, तो
अचानक
व्यक्ति
तिरोहित हो
जाते हैं।
लाखों आकारों
में एक बड़ी
विशाल ऊर्जा
है, और
प्रत्येक
आकार संकेत कर
रहा है
निराकार की
तरफ, प्रत्येक
आकार पिघल रहा
है और घुलमिल
रहा है दूसरे
आकार में—स्व
विशाल सागर है
निराकार
सौंदर्य का, सत्य का, शुभ
का। हिंदू उसे
कहते हैं, सत्यं
शिवं सुंदर और
सत् —चित् —
आनंद : जो कि है,
जो कि सुंदर
है, जो कि
शुभ है; जो
है, जो
चैतन्य है, जो आनंदमय
है। यह एक
सीधा बोध :'होता
है, अपरोक्षानुभूति,
प्रत्यक्ष
ज्ञान।
अन्यथा, तुम्हारा
सारा ज्ञान
अप्रत्यक्ष
होता है। वह
निर्भर करता
है
संदेशवाहकों
पर जो कि बहुत
विश्वसनीय
नहीं होते —हो
नहीं सकते।
उनका स्वभाव
ही भरोसे का
नहीं होता है।
क्यों? तुम्हारा
हाथ किसी चीज
का स्पर्श
करता है, हाथ
एक अचेतन चीज
है। बिलकुल
प्रारंभ से ही
तुम्हारे मन
का अचेतन भाग
संदेश ग्रहण
करता है।
चेतना तो पीछे
छिपी है, लेकिन
द्वार पर एक
जड़ नासमझ बैठा
है, और वह
नासमझ संदेश
ले लेता है।
स्वागत—कक्ष
में एक जड़
नासमझ बैठा
है! हाथ को बोध
नहीं और हाथ
छू लेता है
किसी चीज को
और ग्रहण कर
लेता है संदेश
को। अब
स्नायुओं
द्वारा संदेश
यात्रा करता
है। स्नायु
बोधमय नहीं
होते हैं, उनके
पास कोई समझ
नहीं होती है।
तो अब, एक
नासमझ से
दूसरे नासमझ
तक चला जाता
है संदेश।
पहले जड़ नासमझ
से दूसरे जड़
नासमझ तक चला
जाता है संदेश।
पहले जड़ नासमझ
से दूसरे जड़
नासमझ तक जरूर
बहुत कुछ बदल
जाता है।
पहली
बात: कोई जड़
नासमझ सौ
प्रतिशत सच
नहीं हो सकता
है,
क्योंकि वह
समझ नहीं सकता
है। समझ वहा
होती ही नहीं।
हाथ
बुद्धिरहित
होता है, बुद्धिविहीन।
वह कार्य को
यांत्रिक रूप
से वहन करता
है, यंत्र —मानव
की भांति।
संदेश पहुंचा
दिया जाता है,
लेकिन बहुत
कुछ तो पहले
से ही बदल
जाता है।
स्नायु उसे
मस्तिष्क तक
ले जाते हैं
और मस्तिष्क
उसका अर्थ
करता है। और
मस्तिष्क की
भी कोई बहुत
समझ नहीं है
क्योंकि
मस्तिष्क
शरीर का ही
हिस्सा होता
है; वह हाथ
का दूसरा छोर
होता है।
यदि
तुम शरीर—विज्ञान
के बारे में
कुछ जानते हो, तो
तुम जरूर
जानते होगे कि
दायां हाथ
जुड़ा होता है
मस्तिष्क के
बाएं भाग से
और बायां हाथ
जुड़ा होता है
मस्तिष्क के
दाएं आधे भाग
से। तुम्हारे
दो हाथ दो
ग्रहणकारी
छोर हैं मस्तिष्क
के। वे
मस्तिष्क की
ओर से कार्य
करते हैं; वे
विस्तारित
मस्तिष्क हैं।
तुम्हारा
दायां हाथ
संदेश ले जाता
है बाएं मस्तिष्क
की ओर, तुम्हारा
बायां हाथ ले
जाता है दाएं
मस्तिष्क की
ओर। मस्तिष्क
भी सजग नहीं
होता।
मस्तिष्क
होता है
कंप्यूटर की
भांति—कोई चीज
दी जाती है
उसे, वह
उसका अर्थ
निकालता है।
वह एक
रचनातंत्र है।
कभी न कभी हम
बना पायेंगे
प्लास्टिक के मस्तिष्क, क्योंकि
वे सस्ते
होंगे और वे
ज्यादा टिकाऊ
होंगे। वे कम
मुसीबत खड़ी
करेंगे और
उन्हें बड़ी
आसानी से
परिचालित
किया जा सकता
है। हिस्से
बदले जा सकते
हैं। तुम सदा
अतिरिक्त
हिस्से भी रख
सकते हो तुम्हारे
साथ।
मस्तिष्क
एक रचनातंत्र
है, और
कंप्यूटरों
के आविष्कार
द्वारा यह बात
पूरी तरह
स्पष्ट हो
चुकी है कि
मस्तिष्क एक
यंत्र—रचना है।
मस्तिष्क
सूचना
एकत्रित करता
है, उसके
अर्थ करता है,
और मन को
संदेश दे देता
है। उसमें कोई
समझ नहीं होती।
तुम्हारे मन
के पास थोड़ी
समझ है, और
बहुत थोड़ी है
वह भी। ऐसा है
क्योंकि
तुम्हारा मन
सजग नहीं।
तुम्हारा हाथ
यांत्रिक है;
तुम्हारा
मस्तिष्क
यांत्रिक है,
तुम्हारा
स्नायु —तंत्र
यात्रिक है, और तुम्हारा
मन सोया हुआ
है, जैसे
कि मदहोश हो।
इसलिए संदेश
पहुंचता है एक
नासमझ से
दूसरे नासमझ तक,
और अंततः
संदेश पहुंच
जाता है मदहोश
तक।
गुरजिएफ
अपने शिष्यों
के लिए बड़े
भोज आयोजित किया
करता था, और पहला
टोस्ट सदा
नासमझों के
लिए होता था।
ये ही हैं जड़
नासमझ।
और फिर
यह आधा सोया, आधा जागा
मदहोश इसकी
व्याख्या कर
देता है अतीत
के अनुसार
क्योंकि
दूसरा कोई रास्ता
नहीं। मन
वर्तमान की
व्याख्या
करता है अतीत
के अनुसार। हर
चीज गलत हो
जाती है, क्योंकि
वर्तमान सदा
नया होता है, और मन सदा
पुराना होता
है। लेकिन
दूसरा कोई
रास्ता नहीं;
मन कुछ और
कर नहीं सकता।
उसने अतीत में
बहुत सारा
ज्ञान इकट्ठा
कर लिया है
इन्हीं जड़
नासमझों के
द्वारा, जो
नितांत
अविश्वसनीय
हैं। और वह
अतीत लाया
जाता है
वर्तमान तक, और वर्तमान
को समझा जाता
है अतीत के
द्वारा। हर
चीज गलत पड़
जाती है। लगभग
असंभव है इस
प्रक्रिया
द्वारा किसी
चीज को समझना।
इसलिए
इस प्रक्रिया
द्वारा जो
सारा संसार जाना
जाता है, हिंदू उसे
कहते हैं, माया—स्वप्न
सदृश भ्रम।
ऐसा है कि अभी
तुमने सत्य को
जाना नहीं। ये
चार
संदेशवाहक
तुम्हें
जानने न देंगे,
और तुम
जानते नहीं कि
इन
संदेशवाहकों
से कैसे बचा
जाए या कि
खुले में कैसे
आया जाए।
स्थिति ऐसी है
जैसे कि तुम
एक अंधेरी
कोठरी में बंद
हो, और तुम
बाहर देख रहे
हो चाबी के एक
छोटे—से छिद्र
द्वारा और वह
छिद्र
निष्किय नहीं,
छिद्र
सक्रिय है—वह
व्याख्या
करता है। वह
कहता है, 'नहीं,
तुम गलत हो;
यह उस तरह
से नहीं है, यह इस तरह से
है।’ तुम्हारा
हाथ व्याख्या
करता है, तुम्हारे
स्नायु—तंत्र
व्याख्या
करते हैं, तुम्हारा
मस्तिष्क
व्याख्या
करता है, और
अंत में एक
मदहोश मन
व्याख्या
करता है। वह
व्याख्या
तुम्हें दे दी
जाती है और
तुम उस व्याख्या
द्वारा जीते
हो। यह होती
है अज्ञानी मन
की अवस्था, न जागे हुए
की अवस्था।
निर्विचार
समाधि में, यह सारी
अवस्था बिखर
जाती है।
अचानक तुम इस
रचनातंत्र के
बाहर हो जाते
हो। तुम इस पर
भरोसा नहीं
करते, तुम
बिलकुल गिरा
ही देते हो
सारी यंत्र—प्रक्रिया।
तुम सीधे आ
जाते हो ज्ञान
के स्रोत तक।
तुम सीधे ही
देखते हो फूल
को।
यह
संभव होता है।
यह संभव होता
है केवल ध्यान
की उच्चतम
अवस्था में, निर्विचार
में, जब कि
विचार समाप्त
हो जाते हैं।
विचार ही हैं
संपर्क। जब
विचार समाप्त
हो जाते हैं, तब सारी
यंत्र—प्रक्रिया
समाप्त हो
जाती है और
तुम अलग हुए होते
हो। अकस्मात
अब तुम कैद
में न रहे।
तुम छिद्र
द्वारा नहीं
देख रहे होते।
तुम खुले आकाश
के संसार में
आ पहुंचे हो।
तुम चीजों को
वैसा ही देखते
हो जैसी कि वे
हैं।
और तुम
देखोगे कि
चीजें
अस्तित्व
नहीं रखतीं, वे
तुम्हारी
व्याख्याएं
ही थीं। केवल
जीवंत
सत्ताएं रखती
हैं अस्तित्व।
संसार में
चीजें नहीं
हैं। एक
चट्टान भी
प्राणमयी है।
चाहे कितनी ही
गहरी सोयी हो, खर्राटे
भर रही हो, चट्टान
प्राणमयी
होती है, क्योंकि
परम स्रोत
प्राणवान है।
इसके सारे
हिस्से
प्राणवान हैं,
आत्मवान
हैं। वृक्ष एक
प्राणवान
सत्ता है, पक्षी
एक प्राणवान
सत्ता है, चट्टान
एक प्राणवान
सत्ता है।
अकस्मात
चीजों का
संसार
तिरोहित हो
जाता है।’चीज'
व्याख्या
है इन जड़ नासमझों
की और नशे में
डूबे मन की।
इस प्रक्रिया
के कारण हर
चीज धुंधली हो
जाती है। इस
प्रक्रिया के
कारण केवल सतह
स्पर्शित होती
है। इस
प्रक्रिया के
कारण तुम सत्य
को चूक जाते हो,
तुम जीते हो
एक स्वप्न में।
इस
तरह से तुम एक
स्वप्न
निर्मित कर
सकते हो। जरा
कोशिश करना
किसी दिन।
तुम्हारी
पत्नी सो रही
होती है या
तुम्हारा पति
सो रहा होता
है या कि
तुम्हारा
बच्चा—जरा सोए
हुए व्यक्ति
के पैरों पर
बर्फ का टुकड़ा
मल देना। थोड़ा
—सा ही करना
ऐसा,
बहुत
ज्यादा नहीं,
अन्यथा वह
जाग जाएगा।
थोड़ी देर ही
करना ऐसा और
उसे हटा लेना।
तुरंत तुम
देखोगे कि
पलकों के तले
की आंखें तेजी
से गतिमान हो
रही हैं, जिसे
मनस्विद कहते
हैं— 'आर ई
एम'— रेपिड
आई मूवमेंट, आंखों की
तेजगति। जब आंखें
तेजी से
गतिमान हो रही
होती हैं, तब
स्वप्न शुरू
हो चुका होता
है। व्यक्ति
कोई चीज देख
रहा होता है
और इसीलिए आंखें
इतनी तेजी से
गतिमान हो रही
होती हैं। फिर
स्वप्न के
मध्य में ही, जगाना उस
व्यक्ति को और
पूछना कि उसने
क्या देखा। या
तो उसने देखा
होगा कि वह एक
नदी में से
गुजर रहा था
जो कि बहुत
ठंडी है, बर्फ
जैसी ठंडी, या फिर वह चल
रहा था: बर्फ
पर, या वह
पहुंच चुका है
गौरीशंकर पर
वह कुछ इसी
तरह का स्वप्न
देखेगा। और
तुमने
निर्मित किया
था स्वप्न, क्योंकि
तुमने धोखा
दिया पहले जड़
नासमझ को, शरीर
को। तुम पैरों
को छूते हो
बर्फ द्वारा,
तुरंत वह
पहला जड़ मूढ़
काम करने लगता
है, दूसरे
जड़ मूढ़
स्नायुतंत्र
ने संदेश दे
दिया, तीसरा
मूढ़ जड़ मस्तिष्क
उसके अर्थ कर
देता है। और
चौथा वह मदहोश
मन—जो कि सोया—सोया
हुआ है, तुरंत
स्वप्न की
शुरुआत कर
देता है!
तुम
सपनों को
निर्मित कर
सकते हो। तुम
अनजाने में
बहुत बार
निर्मित करते
हो उन्हें।
तुम्हारे
दोनों हाथ
तुम्हारे
हृदय पर होते
हैं और तुम
लेटे हुए होते
हो तुम्हारे
बिस्तर पर, और
तुम अनुभव
करते हो कि
कोई तुम्हारी
छाती पर बैठा
हुआ है, कोई
भीमकाय
राक्षस! जब
तुम अपनी आंखें
खोलते हो, तो
कोई नहीं होता
है वहां, तुम्हारे
अपने ही हाथ
होते हैं, या
फिर तकिया
होता है।
यही
कुछ घट रहा
होता है, जब कि
तुम जागे हुए
होते हो। इससे
कुछ अंतर नहीं
पड़ता, क्योंकि
सारी रचना —प्रक्रिया
वैसी ही होती
है। चाहे आंखें
खुली हों या
बंद हों, इससे
कुछ अंतर नहीं
पड़ता, क्योंकि
प्रक्रिया पर
कोई नियंत्रण
नहीं हो सकता।
यदि तुम
नियंत्रण
करना भी चाहो
तो तुम्हें सारी
प्रक्रिया
में से ही
गुजरना पड़ेगा।
कैसे तुम
नियंत्रण कर
सकते हो जब तक
कि तुम बाहर न
आ सकी और देख न
सको कि क्या
घट रहा है?
यह
संभावना
आध्यात्मिकता
का संपूर्ण
संसार होती है
कि अंतिम, चेतना
बाहर आ सकती
है। सारे रचना—तंत्र
को गिरा देना,
चीज को सीधे
देखना, और 'चीजें' तिरोहित
हो जाती हैं।
इसीलिए हिंदू
कहते हैं कि
यह संसार सत्य
नहीं है और सच्ची
समझ वाले के
लिए यह
तिरोहित हो
जाता है। ऐसा
नहीं है कि
चट्टानें
वहां नहीं
होंगी और वृक्ष
वहा नहीं
होंगे। वे
होंगे वहां —कुछ
ज्यादा ही
होंगे। लेकिन
वे अब वृक्ष न
रहेंगे, चट्टानें
न रहेंगी—वे
होंगे
प्राणमय
अस्तित्व।
तुम्हारा मन
प्राणियों को
चीजों में बदल
देता है :
तुम्हारी
पत्नी एक चीज
हो जाती है
इस्तेमाल
करने की, तुम्हारा
पति एक अधिकार
जमाने की
चीज हो
जाता है; तुम्हारा
सेवक एक चीज
हो जाता शोषित
करने की, तुम्हारा
बीस एक चीज हो
जाता है धोखा
देने के लिए।
इस सारी मूढ़ता
— भरी
प्रक्रिया के
कारण, मन
प्रत्येक
चैतन्य
प्राणी को बदल
देता है चीज
में। जब तुम
मन के बाहर आ
जाते हो और
खुले आकाश तले
देखते हो, तो
अकस्मात कोई
जड़ चीज नहीं
होती। जड़ चीज—पन
तिरोहित हो
जाता है।
जब
विचार गिर
जाते हैं, तो गिरने
की दूसरी चीज
होती है—वस्तुओं
का जडपन।
अचानक सारा
संसार
प्राणियों के
अस्तित्व से भर
जाता है —सुंदर
प्राण —सत्ताएं,
परम जीवंत
सत्ताएं।
क्योंकि वे
सभी भाग लेते
हैं परमात्मा
के परम
अस्तित्व में।
व्याख्याएं
तिरोहित हो
जाती हैं —तुम
अलग नहीं हो
सकते। सारे
विभाजन
अस्तित्व
रखते थे रचना —तंत्र
के कारण।
अचानक तुम एक
वृक्ष को धरती
में से उमगते
देखते हो, अलग
नहीं, आकाश
से मिलते हुए—अलग
नहीं। हर चीज
एक साथ जुड़ी
होती है, हर
कोई अंश होता
हर दूसरे का।
सारा संसार
चेतना की एक
बुनावट बन
जाता, भीतर
से प्रदीप्त
हुई लाखों —लाखों
प्रज्वलित
चेतनाओं की एक
बुनावट। हर घर
प्रकाशमान
होता। शरीर
तिरोहित हो
जाते हैं, क्योंकि
शरीर संबंध
रखते हैं
चीजों के
संसार से।
आकार होते हैं
वहां, लेकिन
अब वे भौतिक न
रहे। वे आकार
होते हैं चलती
हुई सक्रिय
ऊर्जा के, और
वे बदलते रहते
हैं। ऐसा ही
घट रहा है।
तुम
बच्चे थे, अब तुम
युवा हो, अब
तुम वृद्ध हो।
घट क्या रहा
है —तुम्हारे
पास निश्चित
आकार नहीं है।
आकार निरंतर
गतिमान हैं और
बदल रहे हैं।
एक बच्चा एक
युवा व्यक्ति
बन रहा है, युवा
व्यक्ति
वृद्ध बन रहा
है, वृद्ध
मृत्यु में जा
रहा है।
तब तुम
अचानक देखते
हो कि जन्म, जन्म
नहीं है, मृत्यु
नहीं है
मृत्यु।
परिवर्तित हो
रहे आकार हैं,
और निराकार
उसी तरह बना
रहता है। तुम
देख सकते हो
कि आलोकित
आकारविहीनता
सदा वैसी ही
बनी रहती है, लाखों
आकारों के बीच
सरकते हुए
परिवर्तित हो रही
होती है, फिर
भी परिवर्तित
नहीं हो रही
होती, बढ़
रही होती है, फिर भी नहीं
बढ़ रही होती; हर दूसरी
चीज बन रही
होती, फिर
भी वैसी ही
बनी रहती है।
और यही होता
है सौंदर्य और
रहस्य। तो
जीवन एक है—एक
विशाल जीवन—सागर।
तब तुम नहीं
देखते जीवित
प्राणियों को,
और मृत
प्राणियों को।
नहीं।
क्योंकि
मृत्यु
अस्तित्व ही
नहीं रखती।
ऐसा होता है
जड़ रचनातंत्र
के कारण, गलत
व्याख्या के
कारण।
न तो
जन्म का
अस्तित्व
होता है और न
ही मृत्यु का।
जो कि
अस्तित्व
रखता है वह है
जन्मविहीन और
मृत्युविहीन, वह
शाश्वत है।
ऐसा ही दिखता
है यह सब, जब
तुम मन के
बाहर आते हो।
अब
पतंजलि के
सूत्रों में
प्रवेश करने
का प्रयत्न
करो।
निर्विचार
समाधि की
अवस्था में
विषय— वस्तु की
अनुभूति होती
है उसके पूरे
परिप्रेक्ष्य
में क्योंकि
इस अवस्था में
ज्ञान
प्रत्यक्ष रूप
से प्राप्त
होता है
इंद्रियों को
प्रयुक्त किए
बिना ही।
जब
इंद्रियों का
प्रयोग नहीं
होता, जब
आकाश को देखने
के लिए छोटे
से छिद्र का
प्रयोग नहीं
किया जाता..
क्योंकि छिद्र
आकाश को अपना
ढांचा देगा और
हर चीज नष्ट
कर देगा—आकाश
उस छिद्र से
ज्यादा बड़ा
नहीं होगा, वह हो नहीं
सकता। कैसे
तुम्हारा
परिप्रेक्ष्य
ज्यादा बड़ा हो
सकता है
तुम्हारी आंखों
से? कैसे
तुम्हारा
स्पर्श
ज्यादा बड़ा हो
सकता है
तुम्हारे
हाथों से? और
कैसे ध्वनि
ज्यादा गहन हो
सकती है
तुम्हारे
कानों से? असंभव!
आंखें, कान
और नाक छिद्र
हैं। उनके
द्वारा तुम
देख रहे होते
हो सत्य को।
और अकस्मात
निर्विचार
में तुम स्वयं
में से बाहर
कूद जाते हो।
पहली बार वह
विशालता, वह
असीमता जानी
जाती है। अब
पूरा
परिप्रेक्ष्य
उपलब्ध हो
जाता है। आरंभ
नहीं होता है
वहा, अंत
नहीं होता है
वहां।
अस्तित्व में
कहीं कोई
सीमाएं नहीं।
वह असीम होता
है। कोई सीमा
नहीं होती।
सारी सीमा
तुम्हारी
इंद्रियों से
संबंधित होती
है। वह
इंद्रियों
द्वारा दी
जाती है।
अस्तित्व
स्वयं असीम है,
सारी
दिशाओं में
तुम चलते और
चलते चले जाते
हो। उसका कोई
अंत नहीं होता।
जब
संपूर्ण
परिप्रेक्ष्य
उपलब्ध हो
जाता है, तब
पहली बार
सूक्ष्मतम
अहंकार जो कि
अब तक तुमसे
चिपका हुआ था,
तिरोहित हो
जाता है।
क्योंकि
अस्तित्व
बहुत विशाल है—कैसे
तुम छोटे—से
व्यर्थ के
अहंकार से
चिपके रह सकते
हो?
ऐसा
हुआ कि एक
बहुत बड़ा
अहंकारी, बहुत
धनी व्यक्ति,
एक राजनेता
सुकरात के पास
गया। उसके पास
एथेन्स का, वास्तव में,
सारे यूनान
का ही सबसे
बड़ा, सबसे
सुंदर महल था।
और तुम देख
सकते हो जब एक
अहंकारी चलता
है, जब एक
अहंकारी कुछ
बोलता है, तुम
देख सकते हो
कि अहंकार
वहां सदा ही
होता है, हर
चीज में घुला—मिला
हुआ। वह चला
आया था दंभी
ढंग से ही। वह
पहुंचा
सुकरात के पास
और दंभपूर्ण
ढंग से बोलने
लगा उससे।
सुकरात बात
करता रहा कुछ
देर तक और फिर
वह बोला, 'जरा
ठहरो। अभी
पहले तो एक
जरूरी बात है
जिसे सुलझाना
है, फिर हम
बात करेंगे।’
उसने अपने
शिष्य से
संसार का नक्शा
लाने को कहां।
वह धनपति, राजनेता,
अहंकारी
समझ नहीं सका
कि अचानक यह
किस प्रकार की
बड़ी आवश्यकता
उठ खड़ी हुई, और वह नहीं
समझ सका कि
संसार का नक्शा
लाने में क्या
अर्थ है।
लेकिन जल्दी
ही वह जान: गया
कि अर्थ था
उसमें।
सुकरात ने
पूछा, 'संसार
के इस बड़े
नक्शे में
यूनान कहां है?
—एक छोटी—सी
जगह। एथेन्स
कहां है? —एक
बिंदु मात्र।’
फिर सुकरात
पूछने लगा, 'कहां है
तुम्हारा महल
और कहां हो
तुम? और यह नक्शा
है केवल
पृथ्वी का ही,
और पृथ्वी
तो कुछ भी
नहीं। सूर्य
आठ गुना
ज्यादा बड़ा है
और हमारा
सूर्य तो
सामान्य
सूर्य है।
लाखों गुना
ज्यादा बड़े
सूर्य हैं
ब्रह्माड में।
कहां होगी
हमारी पृथ्वी
यदि हम अपने
सौर—मंडल का नक्शा
बनाएं तो? और
हमारा सौर —मंडल
तो बहुत
सामान्य सौर—मंडल
है। लाखों सौर—मंडल
हैं। कहां
होगी हमारी
पृथ्वी यदि हम
उस आकाश—गंगा
(गैलेक्सी) का नक्शा
बनाएं जिससे
कि हम संबंधित
हैं? लाखों
—लाखों आकाश—गंगाएं
हैं। कहां
होगा हमारा
सौर—मंडल? क्या
स्थान होगा
हमारे सूर्य
का?'
और
अब वैज्ञानिक
कहते कि कोई
अंत ही नहीं—गैलेक्सियों
के पीछे
गैलेक्सियां
बनी हुई हैं, जहां
कहीं हम सरकते,
वहां कोई
अंत नहीं जान
पड़ता है। इतनी
विशालता में,
कैसे तुम
चिपके रह सकते
हो अहंकार से?
वह तो एकदम
तिरोहित हो
जाता है सुबह
की ओस की भांति,
जब
सूर्योदय
होता है। जब
विशालता उदित
होती है और
परिप्रेक्ष्य
समग्र हो जाता
है, तो
तुम्हारा
अहंकार बिलकुल
तिरोहित हो
जाता है ओस —कण
की भांति। यह
तो उतना भी
बड़ा नहीं होता।
यह जड़ मूढ़
संदेशवाहकों
में से किसी
एक के द्वारा
दी हुई एक
भ्रांत धारणा
ही होती है।
तुम्हारी
इंद्रियों के
छोटे छिद्र के
कारण, तुलना
में तुम बहुत
बड़े जान पड़ते
हो। जब तुम
बाहर आ जाते
हो आकाश के
नीचे, तो
अकस्मात
अहंकार
तिरोहित हो
जाता है। वह
एक निर्माण था
किसी छिद्र का,
क्योंकि
बहुत छोटा था
छिद्र, और
छिद्र द्वारा
सारा संसार
बहुत छोटा हो
जाता है। तुम
बहुत बड़े होते
हो उसके पीछे।
आकाश के नीचे
वह बिलकुल मिट
ही जाता है।
सुकरात
ने कहां था, 'कहां है तुम्हारा
महल इस नक्शे
में? कहां
हो तुम?' वह
आदमी समझ सकता
था बात, तो
भी वह पूछने
लगा, 'बड़ी
जरूरत क्या थी
इस बात की?' सुकरात
बोला, 'बहुत
जरूरत थी, क्योंकि
इसे समझे बिना
किसी संवाद की
कोई संभावना
नहीं। तुम
मेरा समय और
अपना समय
व्यर्थ करते।
अब यदि तुमने
सार को समझ
लिया हो, तो
संभावना है
संवाद की। तुम
एक ओर रख सकते
हो इस अहंकार
को, इसका
कुछ अर्थ नहीं।’
विशाल
आकाश के नीचे
तुम्हारा
अहंकार
बिलकुल असंगत
हो जाता है।
वह अपने से ही
गिर जाता है।
इसे गिराने की
बात तक भी
मूढ़ता जान
पड़ती है, यह उसके
योग्य भी नहीं
है। जब परिप्रेक्ष्य
पूरा होता है,
तुम
तिरोहित हो
जाते हो। यह
बात समझ लेनी
है। तुम हो
क्योंकि
परिप्रेक्ष्य
संकुचित है।
जितना ज्यादा
संकुचित होता
है
परिप्रेक्ष्य,
उतना बड़ा
होता है
अहंकार। बिना
परिप्रेक्ष्य
के तो संपूर्ण
अहंकार का अस्तित्व
बना रहता है।
जब
परिप्रेक्ष्य
विकसित होता
है, अहंकार
छोटा और छोटा
होता चला जाता
है। जब
परिप्रेक्ष्य
संपूर्ण होता
है, तो
अहंकार
बिलकुल मिलता
ही नहीं।
यहां
मेरी पूरी
कोशिश यही है—परिप्रेक्ष्य
को इतना
संपूर्ण बना
देना कि अहंकार
तिरोहित हो
जाए। इसीलिए
बहुत सारी
दिशाओं से मैं
तुम्हारे मन की
दीवार पर चोट
किए चला जाता
हूं। कम से कम
कुछ और वातायन
बनाए जा सकते
हैं प्रारंभ
में। बुद्ध के
द्वारा एक नया
वातायन खुलता
है, पतंजलि
के द्वारा एक
दूसरा, तिलोपा
के द्वारा फिर
एक और। यही
कुछ कर रहा
हूं मैं। मैं
नहीं चाहता
तुम बुद्ध के
अनुयायी हो
जाओ, तिलोपा
के या पतंजलि
के अनुयायी हो
जाओ। नहीं।
क्योंकि एक
अनुयायी के
पास ज्यादा
बड़ा परिप्रेक्ष्य
कभी नहीं हो
सकता है —उसका
सिद्धात उसका
छोटा —सा
झरोखा होता है।
इतने
सारे
दृष्टिकोणों
के बारे में
बोलते हुए, क्या
करने की कोशिश
कर रहा हूं
मैं? मैं
इतना ही करने
की कोशिश कर
रहा हूं —तुम्हें
ज्यादा बड़ा
परिप्रेक्ष्य
देने की, दीवारों
में बहुत सारे
झरोखा बनाने
की। तुम देख
सकते हो पूरब
की तरफ और तुम
देख सकते हो
पश्चिम की तरफ,
तुम दक्षिण
की तरफ देख
सकते हो और
तुम उत्तर की
तरफ देख सकते
हो, तब, पूरब
की ओर देखते
हुए, तुम
नहीं कहते कि,
'यही है
एकमात्र दिशा।’
तुम जानते
हो दूसरी
दिशाएं हैं।
पूरब की ओर
देखते हुए तुम
नहीं कहते, 'यही है
एकमात्र
सच्चा धर्म —सिद्धांत',
क्योंकि तब
परिप्रेक्ष्य
संकुचित हो
जाता है। मैं
सत्य के इतने
सारे सिद्धांतो
की बात कह रहा
हूं र ताकि
तुम मुक्त हो
सकी सारी
दिशाओं से और
सिद्धांतो से।
स्वतंत्रता
आती है समझ
द्वारा।
जितनी ज्यादा
तुम्हारी समझ
होती है, उतने ज्यादा
तुम स्वतंत्र
होते हो। और
कभी न कभी जब
तुम जान जाते
हो बहुत से
वातायनों
द्वारा कि
तुम्हारा
पुराना
वातायन बिलकुल
पुराना पड़ गया
है, कुछ
ज्यादा अर्थ
नहीं रखता, तब एक
अंतःप्रेरणा
तुममें उठने
लगती है कि क्या
घटता होगा यदि
तुम तोड़ देते
हो इन सारी
दीवारों को और
बाहर भाग खड़े
होते हो? एक
ही नया वातायन
और सारा
परिप्रेक्ष्य
बदल जाता है!
तुम जान जाते
हो उन चीजों
को जिन्हें तुमने
कभी नहीं जाना
होता है।
जिनकी कल्पना
भी नहीं की
होती, जिनका
स्वप्न तक
नहीं देखा
होता। क्या
होगा जब सारी
दीवारें खो
जाएंगी और तुम
सीधे—सीधे
खुले आकाश के
नीचे सत्य के
आमने — सामने
होओगे!
और जब
मैं कहता हूं 'खुले
आकाश के नीचे',
तो स्मरण
रहे कि आकाश
कोई एक चीज
नहीं, वह
एक चीज —नहीं—पन
है। वह हर कहीं
है, तो भी
तुम उसे नहीं
पा सकते कहीं।
वह एक चीज —नही—पन
है। वह मात्र
एक विशालता है।
इसीलिए मैं
कभी नहीं कहता
कि 'परमात्मा
विशाल है।’ परमात्मा
विशालता है।
अस्तित्व
विशाल नहीं, क्योंकि
विशाल
अस्तित्व में
भी सीमाएं
होंगी। चाहे
कितना विशाल
हो कहीं कोई
सीमा जरूर
होती है।
अस्तित्व एक
विशालता है।
यही
है हिंदुओं की
ब्रह्म की
अवधारणा।
ब्रह्म का
अर्थ होता है
वह कुछ जो
विस्तीर्ण होता
जाता है।’ब्रह्म'
शब्द का
अर्थ ही यह है
कि जो विस्तार
पाता जाए।
विस्तीर्णता
ब्रह्म है।
अंग्रेजी में
इसके लिए कोई
शब्द नहीं।
तुम ब्रह्म को
परमात्मा
नहीं कह सकते,
क्योंकि
परमात्मा तो
एक बहुत ही
सीमित अवधारणा
है। ब्रह्म
परमात्मा
नहीं है, इसीलिए
भारत में
हमारे पास एक
ईश्वर की
अवधारणा नहीं
है, बल्कि
बहुत ईश्वरों
की है। ईश्वर
बहुत से हैं, ब्रह्म एक
है। और ब्रह्म
से, इस
शब्द से, मेरा
मतलब है विशालता,
विस्तीर्णता।
तुम उसे
व्यवस्थित
नहीं कर सकते।
यही
होता है अर्थ
जब मैं कहता हूं, ' आकाश के
नीचे, खुले
आकाश के नीचे।
चारों ओर कोई
दीवारें नहीं,
सत्य का कोई
सिद्धात नहीं,
इंद्रियां
नहीं, विचार
नहीं, मन
नहीं। तुम
बिलकुल बाहर
होते हो यंत्र
—रचना के।
पहली बार तुम
नग्न होते हो,
सत्य के ऐन
सामने होते हो।
तब वहां एक
पूरा
परिप्रेक्ष्य
होता है, विषय
—वस्तु को
अनुभव किया
जाता है, उसके
पूरे
परिप्रेक्ष्य
में। और विषय
की प्रतीति
उसके पूरे
परिप्रेक्ष्य
में करने का
अर्थ होता है
कि विषय
बिलकुल खो जाता
है और एक
विशालता बन
जाता है। यह
हो सकती है
ऊर्जा के
सकेंद्रित
होने की बात।
यह
बिलकुल ऐसे है, जब
कि तुम जाते
हो और देखते
हो कुएं की ओर।
पानी की एक
मात्रा वहां
होती है कुएं
में। यदि पानी
तुम खींचते हो
बाहर, तो
ज्यादा पानी
भेज दिया जाता
है छिपे हुए
जल—स्रोतो
द्वारा। तुम
नहीं देखते जल—स्रोत
को। तुम पानी
बाहर लाए चले
जाते हो और
नया पानी लगातार
प्रवाहित हो
रहा होता है।
कुआं तो मात्र
एक छिद्र है
सागर का। बहुत
सारे छिपे हुए
जल — स्रोत
चारों ओर से
पानी —रन रहे
हैं। यदि तुम
प्रवेश करते
हो कुएं में, तब कुआं कुछ
नहीं होता है।
वस्तुत: वही
जल —स्रोत ही
हैं चीजें, वास्तविक
चीजें। कुआं
कोई टंकी नहीं,
क्योंकि
टंकी में जल —स्रोत
होते नहीं। जल
का संचित —
भंडार मृत
होता है, कुआं
जीवंत होता है।
संचित जल —
भंडार एक 'चीज'
होता है, कुआं
प्राणवान
होता है। यदि
बढ़ो जल —स्रोत
के साथ, और
गहरे उतरी
स्रोत में, तो अंत में
तुम पहुंच
जाओगे सागर तक।
और यदि तुम
बढ़ते हो सब
स्रोतो के साथ,
तब तमाम
दिशाओं से
सागर उमड़ आया
होता है कुएं मैं।
वह सब एक है।
यदि
तुम देखो विषय—वस्तु
की ओर पूरे
परिप्रेक्ष्य
के साथ, तो
विषय अपने हर
हिस्से के
द्वारा जुड़ा
होता है
अपरिसीम के
साथ। उसके
बिना वह
अस्तित्व
नहीं रख सकता
है। कोई विषय,
कोई वस्तु
स्वतंत्र रूप
से अस्तित्व
नहीं रखती है।
कहीं कोई
व्यक्ति नहीं
होता है।
व्यक्ति तो
मात्र एक
व्याख्या है।
हर 'तहीं, समष्टि
अस्तित्व
रखती है। यदि
तुम हिस्से को
बना लेते हो
समष्टि, तब
तुम विभ्रांत
हो जाते हो। न
ही दृष्टिकोण
होता है
अज्ञान का। तब
तुम हिस्से को
ऐसे देखते हो,
जैसे वह
संपूर्णता हो।
जब तुम दे
रहते हो
हिस्से की तरफ
और संपूर्ण प्रकट
हो जाता है
उसमें, तो
यह दृष्टिकोण
होता है एक
जाग्रत चेतना
का।
निर्विचार
समाधि की
अवस्था में
विषय— वस्तु
की अनुभूति
होती है उसके
पूरे
परिप्रेक्ष्य
में क्यो्ंकि
इस अवस्था में
ज्ञान
प्रत्यक्ष
रूप से प्राप्त
होता है
इंद्रियों को
प्रयुक्त किए
बिना ही।
माध्यम
प्रयुक्त
नहीं होते। तब
बहुत सारी नयी
चीजें
अकस्मात संभव
हो जाती हैं।
ये नयी चीजें
ही होती हैं
सिद्धियां, शक्तियां।
जब तुम्हारी
कोई निर्भरता
नहीं रहती
इंद्रियों पर,
तब
टेलीपेथी, दूर—
श्रवण एकदम
संभव हो जाता
है।
इंद्रियों के
कारण ही ऐसा
होता है कि
टेलीपेथी, दूरश्रवण
संभव नहीं
होती। तब
क्लैरवॉयन्स,
दूरदृष्टि
बिलकुल संभव
होती है।
इंद्रियों के
कारण ही ऐसा
होता है कि
दूरदृष्टि
संभव नहीं
होती।
चमत्कार
साधारण
घटनाओं जैसे
हो जाते हैं।
तुम किसी के
विचारों को पढ़
सकते हो, उसके
कहने की कोई
आवश्यकता
नहीं होती, उसके लिए
कोई आवश्यकता
नहीं रहती, उसे
संप्रेषित
करने की। पूरे
परिप्रेक्ष्य
सहित, हर
चीज उदघाटित
हो जाती है।
सारे आवरण उतर
जाते हैं। अब
और आवरण न रहे,
संपूर्ण
सत्य
तुम्हारे
सामने होता है।
अदृश्य चीजों
को ठोस मूर्त
रूप देना संभव
हो जाता है।
जो कुछ तुम
करना चाहते हो,
वह तुरंत घट
जाता है। कुछ
करने की जरूरत
नहीं होती।
करने की जरूरत
थी तो शरीर के
ही कारण।
यही
मतलब है
लाओत्सु का, जब वह
कहता है, 'संत
रहता है
निष्कियता
में और हर चीज
घटती है।’ बिना
उसके कुछ किए
ही लाखों
चीजें घटती
हैं संत के
चारों ओर। वह
देखता है
तुम्हारी तरफ
और अकस्मात
वहां मौजूद हो
जाता है
रूपांतरण।
अकस्मात तुम
फिर शरीर ही
नहीं रहते। जब
वह देख रहा
होता है
तुम्हारी ओर,
तुम बन चुके
होते हो चेतना।
निस्संदेह
यह बात स्थायी
नहीं बनी रह
सकती तुम्हारे
साथ, क्योंकि
जब उसकी
दृष्टि दूर हट
जाती है, तुम
फिर शरीर होते
हो। उसके निकट
होने भर से ही
तुम किसी
अज्ञात संसार
के निवासी हो
जाते हो।
तुम्हें उसके
द्वारा स्वाद
मिलता है किसी
अज्ञात का
क्योंकि अब वह
स्वयं ही एक
खुला हुआ आकाश
होता है। कुछ
न करते हुए, बहुत सारी
चीजें घटती
हैं। लेकिन, इससे पहले
कि ये चीजें
संभव हो पाएं
संत की आकाक्षाएं
तिरोहित हो
चुकी होती हैं।
अत: एक संत कभी
नहीं करता
चमत्कार। और
वे जो कि
चमत्कार करते
हैं, संत
नहीं होते, क्योंकि
कर्ता मौजूद
होता है। उनके
चमत्कार
चमत्कार नहीं
हो सकते। वे
साधारण जादुई
करतब होते हैं।
वे मूर्ख बना
रहे होते हैं
लोगों को और
धोखा दे रहे
होते हैं
उन्हें।
चमत्कार
घटता है; उसे किया
नहीं जा सकता।
वह घटता है
संत के निकट।
ऐसा नहीं होता
कि वह पैदा कर
दे स्विस—घड़िया।
वह संत जो
स्विस घड़ियां
पैदा करता है,
मूढ़ होता है।
क्या कर रहा
होता है वह? और वास्तव
में कोई
चमत्कार होता
ही नहीं।
क्योंकि कोई
सत्य साईं
बाबा
वैज्ञानिक—जांच
के अंतर्गत
अपने चमत्कार
दिखाने को राजी
नहीं होता है।
वह ऐसा कर
नहीं सकता, क्योंकि
स्विस—घड़ियां
मार्केट से
खरीदनी पड़ती
हैं, लंबे
चोगे में
छिपानी पड़ती
हैं या नीग्रो
ढंग के केश
विन्यास में।
वैज्ञानिक—जांच
के अंतर्गत
कोई सत्य साईं
बाबा अपने चमत्कार
दिखाने को
राजी नहीं
होता है। और
यदि ये लोग
सचमुच सच्चे
होते हैं, तो
उन्हें पहले
ऐसा करना चाहिए
वैज्ञानिक—जांच
के अंतर्गत।
ये केवल
साधारण जादुई
करतब हैं। जब
कोई जादूगर
दिखाता है
इन्हें, तो
तुम सोचते हो
कि यह तो केवल
हाथ की सफाई
है और जब कोई
बाबा दिखाता
है इसे, तो
अचानक यह बन
जाता है एक
चमत्कार, युक्ति
वही होती है।
चमत्कार
घटते हैं केवल
तब जब निर्विचार
समाधि उपलब्ध
हो जाती है और
तुम बाहर आ जाते
हो तुम्हारे
शरीर से।
लेकिन वे किए
नहीं जाते।
यही होती है
चमत्कार की
आधार— भूत
गुणवत्ता—वह
किया कभी नहीं
जाता है, वह घटता है।
और जब घटता है,
वह कभी पैदा
नहीं करता
स्विस—घड़िया।
निर्विचार
समाधि उपलब्ध
करना और फिर
स्विस—घड़ियां
पैदा करना, यह बात ही
कुछ
अर्थपूर्ण
नहीं लगती! वह
तो प्राणियों
को रूपांतरित
करती है, वह
दूसरों को मदद
देती है
उच्चतम तक
उपलब्ध होने
में।
संत
द्वारा तुम
ज्यादा
जागरूक हो
सकते हो:, लेकिन
तुम नहीं
पाओगे कोई
स्विस—घड़ी।
जागरूकता
घटती है। वह
बना देता है
तुम्हें
ज्यादा सजग, सचेत। वह
तुम्हें समय
नहीं देता, वह तुम्हें
देता है
शाश्वतता।
लेकिन ये
चीजें घटती
हैं। कोई
उन्हें करता
नहीं है, क्योंकि
कर्ता तो जा
चुका होता है।
केवल तभी संभव
होती है
निर्विचार
समाधि। कर्ता
के साथ, कैसे
तुम समाप्त कर
सकते हो सोच—विचार?
कर्ता ही है
विचारक।
वस्तुत: इससे
पहले कि तुम
कुछ करते हो, तुम्हें
सोचना—विचारना
पड़ता है।
विचारक आता है
पहले, कर्ता
तो अनुसरण
करता है। जब
विचारक और
कर्ता दोनों
जा चुके होते
हैं और केवल
एक साक्षी, केवल एक
चैतन्य बच
रहता है, तब
बहुत सारी
चीजें एकदम ही
संभव हो जाती
हैं, वे
घटती हैं।
जब
बुद्ध चलते
हैं,
तब बहुत
सारी चीजें
घटती हैं, लेकिन
वे बहुत प्रकट
नहीं होतीं।
केवल थोड़े —से
लोग समझ
पाएंगे कि
क्या घट रहा
होता है, क्योंकि
ये चीजें
संबंधित होती
हैं किसी बड़े अज्ञात
जगत से।
तुम्हारे पास
कोई भाषा नहीं
होती है इसके
लिए, कोई
अवधारणाएं
नहीं होती हैं
इसके लिए। और
तुम नहीं देख
सकते उसे, जब
तक कि वह
तुम्हें घट न
जाए।
'…..इस अवस्था
में ज्ञान
प्रत्यक्ष
रूप से प्राप्त
होता है, इंद्रियों
का प्रयोग किए
बिना ही।’
मन
जा चुका होता
है,
और मन के
साथ ही उसके
सारे सहयोगी,
सारे मूढ़ जा
चुके होते हैं।
वे कार्य नहीं
कर रहे होते
हैं, वे
तुम्हें
विभ्रांत
नहीं करते हैं,
वे
तुम्हारे
प्रत्यक्ष
बोध को भंग
नहीं करते हैं,
वे किसी तरह
की बाधाएं
निर्मित नहीं
करते हैं। वे
प्रक्षेपण
नहीं करते, वे व्याख्या
नहीं करते। वे
सारी चीजें अब
वहां नहीं होतीं।
चेतना मात्र
होती है वहां
सत्य के सामने।
और जब ऐसा
घटता है, चेतना
सामना करती है
चेतना का, क्योंकि
पदार्थ है
नहीं।
जो
सुंदरतम
प्रतीक मेरे
सामने आया है, वह
है: एक दर्पण
दूसरे दर्पण
के सामने आया
हुआ। क्या
घटेगा जब एक
दर्पण सामने आ
जाता है दूसरे
—दर्पण के? एक
दर्पण
प्रतिबिंबित
करता है दूसरे
दर्पण को; और
दूसरा
प्रतिबिंबित
करता है इस
दर्पण को और दर्पण
में कुछ होता
नहीं है; केवल
प्रतिबिंबित
होना; परस्पर
प्रतिबिंबित
हो जाना—लाखों
—लाखों बार।
सारा संसार बन
जाता है लाखों
दर्पण, और
तुम भी होते
हो एक दर्पण।
सारे दर्पण
खाली होते हैं,
क्योंकि
वहां कुछ और
होता नहीं
प्रतिबिंबित होने
को, दर्पण
का ढांचा, फ्रेम
तक भी नहीं
होता है। केवल
दर्पण ही होता
है —दो दर्पण
एक दूसरे के
आमने —सामने
होते हैं! वह
सुंदरतम क्षण
होता है, सर्वाधिक
आनंदपूर्ण; प्रसाद
उतरता है, फूल
बरसते हैं, समष्टि
उत्सव मनाती
है कि एक और
उपलब्ध हुआ, एक और
यात्री घर
पहुंचा।
जो
प्रत्यक्ष
बोध
निर्विचार
समाधि में
उपलब्ध होता
है वह सभी
सामान्य बोध
संवेदनाओं के
पार का होता
है— प्रगाढ़ता
में भी और
विस्तीर्णता
में भी।
ये दो
शब्द बड़े
अर्थपूर्ण
हैं: 'विस्तीर्णता'
और 'प्रगाढ़ता'। जब तुम
संसार को
देखते हो
इंद्रियों
द्वारा, मस्तिष्क
द्वारा और मन
द्वारा, तो
संसार बहुत
फीका होता है।
उसमें कोई
आलोक नहीं
रहता। वह धूल —
भरा होता है
और जल्दी ही
वह उबाऊ हो
जाता है।
व्यक्ति थकान
अनुभव करता है—वही
वृक्ष, वही
लोग, वही
कार्यकलाप—हर
चीज एकदम पिटी
हुई होती है।
ऐसा नहीं है।
कई
बार एल एस डी
लेने से, मारिजुआना
से या कि हशीश
से, अचानक
कोई वृक्ष
ज्यादा हरा हो
जाता है।
तुमने कभी
जाना न था कि
वृक्ष इतना
हरा था या कि
गुलाब इतना
गुलाबी था।
जब
अल्डुअस
हक्सले ने
पहली बार एल
एस डी ली तो वह
बैठा हुआ था
एक कुर्सी के
सामने। अचानक
कुर्सी संसार
की सुंदरतम
चीजों में से एक
हो गयी। वह
कुर्सी उसके
कमरे में
वर्षों तक पड़ी
रही थी, और
उसने कभी न
देखा था उसकी
तरफ। अब वह
हीरे की भांति
थी। कुर्सी अब
वही कुर्सी न
रही थी।
हक्सले मोहित
हो गया था
कुर्सी पर। वह
विश्वास न कर
सकता था कि
क्या घटता है,
जब किसी ने
नशा किया हो
तो।
नशों
का प्रयोग एक
आक्रामक
प्रयास होता
है,
जड़
माध्यमों को
जगाने का, एक
आक्रामक
प्रयास जड़
मूढ़ों को
जगाने का। तो
तुम झटका देते
हो उन्हें, और वे बस
अपनी आंखों को
थोड़ा —सा खोल
देते हैं, और
वे देखते हैं,
'ही'! और
उस समय संसार
इतना सुंदर हो
जाता है, अविश्वसनीय
रूप से सुंदर।
और फिर तुम
पकड़ में आ
जाते हो
क्योंकि तब
तुम सोचते कि
ऐसा नशे के
कारण है कि
संसार इतना
सुंदर है। अब,
जब कि तुम
लौट आते हो और
यात्रा
समाप्त हो जाती
है, तो
संसार पहले की
अपेक्षा और भी
ज्यादा गंदा
और ज्यादा
फीका लगेगा।
क्योंकि अब मन
में तुम्हारे
पास तुलना
होती है। कुछ
निश्चित
घड़ियों के लिए
वह एक सुंदर
घटना बन गया
था, वह
स्वयं ही
स्वर्ग था।
अल्डुअस
हक्सले जैसा
आदमी भी उलझ
गया था और सोचने
लगा था कि यही
है वह समाधि, जिसकी बात
पतंजलि ने कही
और जिसे कबीर
और बुद्ध
उपलब्ध हुए और
संसार के सारे
रहस्यवादी
उपलब्ध हुए!
उसने सोचा कि
यही थी समाधि।
नशा
तुम्हें दे
सकता है समाधि
का झूठा बोध, लेकिन
तुम फिर भी
होते हो
वर्तमान में।
केवल नशे के
झटके के कारण
ही तुम्हारा
रचना—यंत्र
क्रियान्वित
होता है सजगता
सहित, लेकिन
यह सजगता बहुत
लंबे समय तक
नहीं रहेगी।
यदि तुम इसका
प्रयोग करते
हो अधिकाधिक,
तो नशे की
मात्रा ऊंचे
और ऊंचे उठानी
होगी, क्योंकि
उसी मात्रा
सहित तुम फिर
से जड़ माध्यमों
को झटका नहीं
दे सकते। उनका
तालमेल बैठ
जाता है उसके
साथ, तब
अधिकाधिक
मात्रा की
आवश्यकता
होती है। नशे
केवल इसी तरह
कार्य करते
हैं।
एक
बार मुल्ला
नसरुद्दीन ने
एक खच्चर
खरीदा और वह
चलता न था।
उसने हर तरह
से कोशिश की
उसे चलाने की।
जिस आदमी से
उसने उसे
खरीदा था, उसने
उससे कहां कि
खच्चर को पीटे
नहीं क्योंकि
वह बहुत कोमल था।
इसीलिए उसने
प्रार्थना की,
उसके
अनुसार सब
किया, और
हर चीज की, जो
कुछ भी वह कर
सकता था। वह
चलता न था, वह
सुनता न था।
तो उसने उस
आदमी को
बुलाया और
कहने लगा, 'किस
प्रकार का
खच्चर तुमने
मुझे दे दिया
है?' वह
आदमी अपनी छड़ी
लिए हुए आया
और बहुत जोर
से मारी खच्चर
के सिर पर।
नसरुद्दीन
कहने लगा, 'यह
तो बहुत हुआ!
और तुमने तो कहां
था मुझसे कि
उसे मारना
नहीं।’ वह
आदमी बोला, 'मैं मार
नहीं रहा हूं
उसे, मैं
तो केवल उसका
ध्यान
आकर्षित कर
रहा हूं।’ तुरंत
ही खच्चर चलने
लगा।
जड़
इंद्रिया
होती हैं वहां; एल
एस डी उन्हें
चोट देती है
छड़ी की मार
जैसी। कुछ पलों
के लिए तुम
आकर्षित करते
हो उनका ध्यान;
तुमने दे
दिया होता है
उन्हें झटका।
सारा संसार हो
जाता है सुंदर।
लेकिन यह कुछ
नहीं, यह
बात तो बिलकुल
ही कुछ नहीं।
यदि तुम
उपलब्ध हो सको
निर्विचार के
एक भी क्षण को,
तब तुम जान
पाओगे। संसार
उससे लाखों
गुना ज्यादा
सुंदर हो जाता
है; जितनी
झलक कोई एल एस
डी तुम्हें दे
सकती है। ऐसा
इसलिए नहीं
होता कि तुम
खच्चर के सिर
पर चोट कर रहे
होते हो। ऐसा
सिर्फ इसलिए
होता है
क्योंकि तुम
अब खच्चर के
भीतर न रहे।
तुम बाहर आ गए,
तुमने गिरा
दिया जड़
माध्यमों को।
तुम
वास्तविकता
का सामना करते
हो तुम्हारी
समग्र नग्नता
सहित।
निर्विचार
होकर तुम नग्न
होते हो।
विचारविहीन
तुम कौन होते
हो?
—हिंदू
मुसलमान, ईसाई,
कम्युनिस्ट?
तुम कौन
होते हो बिना
विचारों के? — धार्मिक, अधार्मिक? तुम कोई
नहीं होते
बिना विचारों
के। सारे कपड़े
गिरा दिए गए
होते हैं। तुम
होते हो मात्र
एक नग्नता, एक शुद्धता,
एक शून्यता।
तब प्रत्यक्ष
बोध स्पष्ट हो
जाता है, और
स्पष्टता के
साथ चली आती
है
विस्तीर्णता
और प्रगाढ़ता।
अब तुम देख
सकते हो
अस्तित्व के
विशाल फैलाव की
ओर। अब
तुम्हारे
प्रत्यक्ष
बोध में कोई
अवरोध नहीं
रहता।
तुम्हारी
दृष्टि हो जाती
है अपरिसीम।
प्रगाढ़ता
सहित तुम देख
सकते हो किसी
घटना में, किसी
व्यक्ति में,
क्योंकि 'चीजें' अब
वहां नहीं बनी
हुई हैं। फूल
भी अब व्यक्ति
हैं, और
वृक्ष हैं
मित्र, और
चट्टानें हैं
सोई हुई
आत्माएं। अब
प्रगाढ़ता
घटती है, तुम
पूरा —पूरा
देख सकते हो।
जब तुम पूर्णरूपेण
देख सकते हो
फूल की ओर, तब
तुम समझ पाओगे
कि रहस्यवादी
संत और कवि
क्या कहते रहे
हैं।
टेनीसन
कहता है, 'यदि
मैं किसी फूल
को समझ सका, किसी छोटे —से
फूल को उसकी
समग्रता में
समझ सका, तो
मैं समझ
जाऊंगा समस्त
को।’ ठीक, बिलकुल ठीक
है बात। यदि
तुम एक अंश को समझ
सकते हो, तब
तुम समझ जाओगे
संपूर्ण को, क्योंकि अंश
ही है संपूर्ण।
जब तुम अंश को
समझने की
कोशिश करते हो,
तो धीरे —
धीरे, अनजाने
ही तुम बढ़
चुके होओगे
संपूर्ण की ओर,
क्योंकि
अंश अवयव है
संपूर्ण का।
एक
बार,
एक बड़े
रहस्यवादी इकहांर्ट
से पूछा किसी
ने, 'तुम क्यों
नहीं लिखते
तुम्हारी
जीवन—कथा? तुम्हारी
आत्मकथा बहुत—बहुत
मददगार होगी
लोगों के लिए।’
वह बोला, 'कठिन है, असंभव
है—क्योंकि —यदि
मैं अपनी
आत्मकथा
लिखता हूं तो
वह आत्मकथा
होगी समष्टि
की, क्योंकि
हर चीज
संबंधित है।
और वह हो
जाएगी बहुत
ज्यादा। कैसे
कोई आत्मकथा
लिख सकता है
समष्टि की?'
इसीलिए
जिन्होंने
जाना है
उन्होंने सदा
रोका है इसे, उन्होंने
कभी नहीं लिखी
हैं
आत्मकथाएं—
सिवाय इन
परमहंस
योगानंद के, जिन्होंने
लिखी है, 'एक
योगी की
आत्मकथा'।
वे योगी ही
नहीं हैं। एक
योगी नहीं लिख
सकता है
आत्मकथा।
वैसा असंभव
होता है, एकदम
असंभव, क्योंकि
जब कोई
निर्विचार
समाधि को
उपलब्ध होता
है, तब वह
होता है योगी,
और फिर होती
है मात्र
विशालता—अब लग
बन गया होता
है संपूर्ण।
यदि तुम सचमुच
लिखना चाहते
हो आत्मकथा, तो वह
समष्टि की आत्मकथा
होगी प्रारंभ
से—और प्रारंभ
है नहीं; अंत
तक की—और अंत
है नहीं!
यदि
मैं हो जाता
हूं जागरूक
अपने में, तो
समष्टि
पराकाष्ठा पर
पहुंच जाती है।
मैं अपने जन्म
से प्रारंभ
नहीं करता, मैं प्रारंभ
करता हूं एकदम
प्रारंभ से ही,
और प्रारंभ
कोई है नहीं; और मैं चला
जाऊंगा एकदम
अंत तक—और अंत
कहीं है नहीं।
मैं गहन रूप
से जुड़ा हूं
संपूर्ण के
साथ। ये थोड़े —से
वर्ष जो यहां हूं, संपूर्ण
नहीं हैं।
मेरे जन्म
लेने से पहले
मैं था, और
मैं रहूंगा
मेरे मरने के
बाद, तो
कैसे लिखूं? वह एक टुकड़ा —
भर होगा, एक
पृष्ठ—आत्मकथा
नहीं। एक
पृष्ठ तो
बिलकुल
व्यर्थ होता
है और संदर्भरहित
होता है, क्योंकि
दूसरे पृष्ठ
मौजूद न होंगे।
कुछ
मित्र आते हैं
मेरे पास और
वे भी कहते
हैं,
'क्यों नहीं?
आपको लिखना
चाहिए कुछ
अपने बारे में।’
मैं जानता
हूं मिस्टर इकहांर्ट
की कठिनाई।
वैसा संभव
नहीं, क्योंकि
कहां से करना
प्रारंभ? हर
आरंभ मनमाना
होगा और झूठा
होगा; और
कहां करना अंत?
हर अंत
मनमाना और
झूठा होगा। दो
झूठी चीजों के
बीच—झूठा आरंभ
और झूठा अंत—कैसे
बना रह सकता
सत्य? वह
व्यवस्थित
नहीं होगा; वह बात संभव
नहीं।
योगानंद ने
कुछ ऐसा किया
है जो कि संभव
नहीं। उसने
कुछ ऐसा किया
है, जो एक
राजनीतिज्ञ
कर सकता है, पर योगी
नहीं।
प्रगाढ़ता
इतनी ज्यादा
हो जाती है कि
जब तुम देखते
हो एक पत्थर
की ओर, उस
पत्थर के
द्वारा, राहें
सरक रही होती
हैं संपूर्ण
अस्तित्व में;
पत्थर के
द्वारा तुम
प्रवेश कर
सकते हो उच्चतम
रहस्यों में।
हर कहीं है
द्वार, खटखटाओ
तुम, और हर
कहीं स्वीकृत
हो जाते हो
तुम, स्वागत
पाते हो तुम।
जहां कहीं से
तुम प्रवेश
करते हो, तुम
प्रविष्ट हो
जाते हो
अपरिसीम में,
क्योंकि
सारे द्वार
समष्टि के हैं।
व्यक्ति हो
सकते हैं
मौजूद; वे
होते हैं
द्वारों की
भांति। प्रेम
करो किसी
व्यक्ति को और
तुम प्रवेश
करते हो
अनंतता में, अपरिसीम में।
जरा देखो फूल
की तरफ और खुल
जाता है मंदिर।
लेट जाओ रेत
पर, और रेत
का हर कण उतना
ही विशाल होता
है जितनी कि
समष्टि। यही
है धर्म का
उच्चतर गणित।
साधारण
गणित तो कहता
है कि एक अंश
कभी नहीं हो सकता
संपूर्ण। यह
बात सामान्य
गणित के
नियमों में से
एक है जो चलते
हैं विश्वविद्यालयों
में : अंश कभी
नहीं हो सकता
है संपूर्ण, और
अंश सदा छोटा
होता है
संपूर्ण से, और अंश कभी
ज्यादा बड़ा
नहीं हो सकता
है संपूर्ण से।
ये गणित के
साधारण नियम
हैं, और हर
कोई मान लेगा
कि यह ऐसा ही
है।
लेकिन
फिर है ज्यादा
ऊंचा गणित। जब
तुम बाहर आ
जाते हो इद्रियों
के,
तो वहा ससार
है उच्चतर
गणित का और ये
हैं सूत्र :
अंश सदा
संपूर्ण होता
है, अंश
कभी छोटा नहीं
होता है
संपूर्ण से।
और असंगतियों
की असंगति तो
यह होती है—कई
बार तो अंश
ज्यादा बड़ा
होता है
संपूर्ण से।
अब
मैं इसे समझा
नहीं सकता हूं
तुम्हें। कोई
नहीं व्याख्या
कर सकता है
इसकी, लेकिन
यही है नियम।
एक बार तुम
बाहर आ जाते
हो तुम्हारी
कैद से, तो
तुम देखोगे कि
ऐसी ही हैं
चीजें। एक
पत्थर एक अंश
है, एक
बहुत छोटा अंश,
लेकिन यदि
तुम इसकी ओर
देखते हो
विचारहीन मन से,
सीधे—साफ
चैतन्य से, तो अचानक
पत्थर बन जाता
है संपूर्ण —क्योंकि
केवल एक का ही
अस्तित्व
होता है, क्योंकि
कोई अंश
वास्तव में
अंश नहीं होता
है, या अलग
नहीं होता है।
अंश निर्भर
करता है
संपूर्ण पर, संपूर्ण
निर्भर करता
है अंश पर।
ऐसा
ही नहीं है कि
जब सूर्योदय
होता है, तो
फूल खिलते हैं।
इसके विपरीत
बात भी सत्य
है : जब फूल
खिलते हैं, तो सूर्योदय
होता है। यदि
फूल न होते, तो किसके
लिए निकलता
सूर्य? केवल
ऐसा ही नहीं
है कि जब—जब
सूर्योदय
होता है, तो
पक्षियों का
गान होता है।
विपरीत बात
उतनी ही सच है
जितनी कि यह
बात—क्योंकि
पक्षियों का
गान होता है, इसलिए
सूर्योदय
होता है। अन्यथा
किसके लिए
उदित होगा वह?
हर चीज
दूसरी चीज पर
अवलंबित होती
है; हर चीज
संबंधित होती
है किसी दूसरी
चीज के साथ; हर चीज
गुंथी होती है
दूसरी किसी
चीज के साथ।
यदि एक पत्ता
भी खो जाता है,
तो समष्टि
उसका अभाव
अनुभव करेगी।
तब समष्टि फिर
समष्टि नहीं
रहेगी।
इकहांर्ट
सबसे अधिक
विरले
व्यक्तियों
में से एक था, जिसे
ईसाइयत ने
उत्पन्न किया।
वस्तुत: यह
ईसाइयों के
संसार में
अजनबी जान पड़ता
है। उसे तो
झेन गुरु के
रूप में जापान
में उत्पन्न
होना चाहिए; उसकी
अंतर्दृष्टि
बहुत साफ, बहुत
गहरी, किसी
सिद्धात के
बहुत पार की
है।
अपनी
प्रार्थनाओं
में से एक में
इकहांर्ट ने कहां
है,
'हां, मैं
तुम पर निर्भर
हूं प्रभु, लेकिन तुम
भी मुझ पर
निर्भर हो।
यदि मैं यहां
नहीं रहूं तो
कौन करेगा
पूजा और कौन
करेगा
प्रार्थना? आप मुझे याद
करोगे? 'और ठीक
कहता है वह।
ऐसा किसी
अहंकार के
कारण नहीं है;
यह तो मात्र
तथ्य है। मैं
जानता हूं कि
ईश्वर ने उस
घड़ी जरूर
सहमति प्रकट
की होगी, 'तुम
सच्चे हो इकहांर्ट,
क्योंकि
यदि तुम न
होते, तो
मैं यहां नहीं
होता।’
पूजा
करने वाला और
पूजा पाने
वाला साथ—साथ
अस्तित्व
रखते हैं, प्रेम
करने वाला और
प्रेम पाने
लाला साथ —साथ
बने रहते हैं।
एक अस्तित्व
नहीं रख सकता
है दूसरे के
बिना। यही है
अस्तित्व का राज
—हर चीज एक साथ
अस्तित्व
रखती है। यही
सह — अस्तित्व
है परमात्मा।
परमात्मा कोई
एक व्यक्ति
नहीं है। यही
सब का सहयोगी
भाव ही
परमात्मा है।
जो
प्रत्यक्ष—
बोध
निर्विचार
समाधि में
उपलब्ध होता
है वह सभी सामान्य
बोध
संवेदनाओं के
पार का होता
है— प्रगाढता
में भी और
विस्तीर्णता
में भी।
हर कहीं
से खुलती है
विशालता, और
हर कहीं से ही
वह गहराई। जरा
देखना फूल में,
और वहां होता
है विशाल
शून्य। तुम
उतर सकते हो
फूल में और खो
सकते हो। ऐसा
हुआ है। बेतुकी
लगेगी बात, तो भी यह है
सच्ची। इस पर
विश्वास करना
या न करना, तुम
पर निर्भर
करता है।
ऐसा
हुआ कि चीन
में एक सम्राट
ने एक बड़े
चित्रकार को
महल में
आमंत्रित
किया और कहां
कि वह कुछ
चित्र बनाए।
चित्रकार गया
और उसने चित्र
बनाया हिमालय
के पर्वतो का।
वह बहुत सुंदर
था,
वर्षों
लगाए थे उसने
और वह उसे
किसी को देखने
नहीं दे सकता
था जब तक कि वह
पूरा ही न हो
जाए। फिर एक
दिन उसने कहां
सम्राट से, 'अब वह तैयार
है और आप आ
सकते हैं।’
सम्राट
आया अपने
मंत्रियों और
सेनापतियों और
दरबार सहित, और
वे बिलकुल
आश्चर्यचकित रह
गए। उन्होंने
कभी कोई वैसी
चीज देखी न थी।
इतनी
वास्तविक थी
वह। चोटियां
एकदम
वास्तविक थीं।
चोटियों के
चारों ओर एक
घुमावदार
रास्ता था और
रास्ता तो खो
गया था कहीं।
पूछा सम्राट
ने, ''कहां
ले जाता है यह
मार्ग?' चित्रकार
बोला, 'मैंने
इस पर यात्रा
नहीं की है।
मैंने यात्रा
नहीं की इस पर,
तो कैसे
जानूंगा मैं।’
लेकिन
सम्राट ने जोर
दिया। वह बोला
कि 'यह
यात्रा का तो
प्रश्न ही
नहीं था।
तुमने चित्र
बनाया है
इसका!' चित्रकार
बोला, 'प्रतीक्षा
कीजिए आप।
मुझे जाने दें
और देखने दें।’
ऐसा कहां
जाता है कि वह
गया चित्र में,
खो गया, और
कभी लौटा नहीं,
इसकी कथा
बताने को कि
वह मार्ग कहां।
ले जोता था!
ऐसा
हो नहीं सकता, इसे
मैं जानता हूं;
लेकिन
निर्विचार
में ऐसा घटता
है। फूलों में
अपार शून्य है।
तुम्हारी
प्रगाढ़तावश, तुम देखते
हो फूल में और
वहा होती है
गहराई। तुम
उतर सकते हो
फूल में और खो
सकते हो सदा
के लिए। तुम
निर्विचारयुक्त
देखते हो
सुंदर चेहरे की
ओर, और
वहां अपार
शून्यता
पतंजलि
योग—सूत्र भाग
2
होती है
उसके सौंदर्य
में। तुम सदा —
सदा के लिए खो
सकते हो, तुम
उतर सकते हो
उसमें। हर चीज
द्वार बन जाती
है, हर चीज।
तुम्हारी
दृष्टि की
प्रगाढ़ता
सहित, सारे
द्वार —दरवाजे
खुल जाते हैं
तुम्हारे लिए।
जब सारे
नियंत्रणों
पर का
नियंत्रण पार
कर लिया जाता
है तो निर्बीज
समाधि फलित
होती है और
उसके साथ ही
उपलब्ध होती
है— जीवन—
मृत्यु से
मुक्ति
ऐसा कभी—
कभार होता है, सारे
हिस्से चरम
शिखर पर
पहुंचते हैं,
सारे बुद्धों
का मिलन होता
है: तंत्र और
योग, झेन
और हसीदवाद, सूफी और
बाउल, सभी
हिस्सों का।
हिस्से अलग —
अलग हो सकते
हैं —वे होते
ही हैं —लेकिन
जब शिखर आ
पहुंचता है तो
हिस्से
तिरोहित हो
जाते हैं।
'जब सारे
दूसरे
नियंत्रणों
पर का
नियंत्रण पार
कर लिया जाता
है '
क्योंकि
पतंजलि कहते
हैं कि वह फिर
भी नियंत्रित
अवस्था होती
है। विचार
तिरोहित हो गए
होते हैं और
अब तुम्हें अनुभूति
हो सकती है
अस्तित्व की, लेकिन
फिर भी
अनुभवकर्ता
और अनुभव
मौजूद रहता है,
विषय और
विषयी मौजूद
रहते हैं।
शरीर के साथ
शान
अप्रत्यक्ष
था। अब वह
प्रत्यक्ष होता
है, लेकिन
फिर भी ज्ञाता
अलग होता है शांत
से। अंतिम
अवरोध कना
रहता है, वह
भेद। जब यह भी
गिरा दिया
जाता है, जब
यह नियंत्रण
पार कर लिया
जाता है और
चित्रकार खो
जाता है चित्र
में, जब
प्रेमी खो
जाता है प्रेम
में, विषय
और विषयी
तिरोहित हो
जाते हैं, वहां
न तो कोई ज्ञाता
रहता है और न
ही ज्ञात।
जब
दूसरे
नियंत्रणों
पर का यह
नियंत्रण पार
कर लिया जाता
है,
तो यह होता
है अंतिम
नियंत्रण
निर्विचार
समाधि, वह
समाधि जहां
विचार समाप्त
हो गए। यह
होता है अंतिम
नियंत्रण।
अभी भी तुम
होते हो, किसी
अहंकार की
भाति नहीं, बल्कि एक
आत्मा की
भांति। अभी भी
तुम अलग होते
हो समष्टि से।
तुम केवल एक
बड़ी पारदर्शी
तरंग होते हो
फिर भी तुम
होते तो हो।
और यदि तुम
चिपके रहते हो
इससे, तो
तुम फिर जन्म
लोगे, क्योंकि
विभेद को पार
नहीं किया गया
है। तुम अभी
भी अद्वैत को
उपलब्ध नहीं
हुए हो। द्वैत
का बीज अभी भी
वहां मौजूद है,
और वह बीज
प्रस्फुटित
होगा नए
जन्मों में।
जीवन —मृत्यु
का चक्र चलता
ही चला जाएगा।
'जब
सारे
नियंत्रणों
पर का
नियंत्रण पार
कर लिया जाता
है, तो
निर्बीज
समाधि फलित
होती है ' — तब
तुम उपलब्ध
होते हो उस
निर्बीज, निर्विचार
समाधि को— 'और
उसके साथ ही
उपलब्ध होती
है — जीवन —मृत्यु
से मुक्ति।’
फिर
चक्र
तुम्हारे लिए
थम जाता है।
फिर कोई समय न
रहा,
कोई स्थान न
रहा। जीवन और
मृत्यु दोनों
मिट चुके हैं
किसी स्वप्न
की भांति।
कैसे पार जाना
होता है इस
अंतिम
नियंत्रण के?
यह बात
कठिनतम होती
है।
निर्विचार को
उपलब्ध करना
बहुत कठिन है,
लेकिन
अंतिम
नियंत्रण को
गिरा देने की
तुलना में तो
कुछ भी नहीं
है, क्योंकि
यह बात बहुत
सूक्ष्म होती
है। कैसे करना
होता है इसे? उस अवस्था
में 'कैसे'
उतना
प्रासंगिक
नहीं होता है।
व्यक्ति को तो
बस जीना होता
है, देखना
होता है, उत्सव
मनाना होता है,
निर्मुक्त
और सहज—स्वाभाविक
बने रहना होता
है। यहीं तो
तिलोपा
अर्थपूर्ण बन
जाते हैं।
तिलोपा
जैसे लोग झेन
गुरु होते हैं, वे
इस लक्ष्य की
बात कहते हैं :
व्यक्ति
विमुक्त और
सहज —
स्वाभाविक
होकर जीता है,
कुछ नहीं
करता
नियंत्रण को
पार करने के
लिए, कुछ
नहीं करता।
क्योंकि
यदि तुम
कुछ करते हो, तो
फिर वह एक
नियंत्रण ही
होगा।
तुम्हारा कुछ
करना, तुम्हारे
बिगड़ाव का
कारण होगा।
विमुक्त और
स्वाभाविक
बने रहो —सार
यही है।
यहीं
तो अर्थवान हो
जाता है 'दि
ऑक्स हर्डिंग'
सिरीज का
दसवां चित्र।
तुम फिर लौट
आए होते हो
संसार में, और केवल लौट
ही नहीं आते
फिर से संसार
में, बल्कि
साथ ही अंगूरी
शराब की बोतल
लिए हुए होते
हो:! आनंद मनाओ,
सहज —साधारण
होने का उत्सव
मनाओ —यही है
अर्थ। अब कुछ
नहीं किया जा
सकता। वह सब
जो किया जा
सकता था, तुमने
किया है। अब
तो तुम एकदम
विमुक्त और सहज
हो जाओ और योग,
नियंत्रण, साधना, खोज,
तलाश के
बारे में हर
चीज भूल जाओ।
इसकी हर चीज
भूल जाओ। अब
यदि तुम करते
हो कुछ, तो
नियंत्रण
जारी रहेगा।
और नियंत्रण
के साथ कोई
स्वतंत्रता
नहीं होती।
तुम्हें
प्रतीक्षा
करनी होती है,
बस विमुक्त
और सहज बने
हुए ही।
किसी
ने पूछा लिंची
से,
'आजकल क्या
कर रहे हो आप?' वह बोला, 'लकड़ियां
काटता हूं,
कुएं से पानी
लाता हूं —और
कुछ नहीं।’ लकड़ियां
काटना, कुएं
से पानी लाना।
जब
उसने यह उत्तर
दिया तो लिंची
जरूर इसी अवस्था
में होगा। वह
पहुंच गया था
अंतिम
नियंत्रण पर।
अब वहा करने
को कुछ न रहा
था,
इसलिए वह
लकड़ी काटता था।
सर्दियां आ
रही थीं और
लकड़ी की जरूरत
थी। लोगों ने कहां
था कि इन
सर्दियों में
बहुत सर्दी
होगी, इसलिए
वह लकड़ी काटता
था, और
निस्संदेह
यदि वह प्यासा
होता, तो
वह पानी ले
आता। वह बगीचे
को पानी देता।
वह एकदम सहज —स्वाभाविक
था। कोई खोज
नहीं, कोई
तलाश नहीं, कहीं जाना
नहीं।
यही
है अवस्था
जहां कि
झेनरिन ने कहां
था,
'मौन बैठे, कुछ न करते, बसंत आता है
और घास बढ़ती
है अपने से ही।’
इसके बाद, शब्द
व्याख्या
नहीं कर सकते।
आदमी को
पहुंचना है
निर्विचार तक
और फिर प्रतीक्षा
करनी है
निर्बीज
समाधि की। वह
आती है अपने
से ही, जैसे
कि घास बढ़ती
है अपने से ही।
तब अंतिम
नियंत्रण पार
कर लिया जाता
है, और कोई
मौजूद नहीं
होता जो उसे
पार करे। वह
पार करना
मात्र होता है।
कोई होता नहीं
उसे पार करने
को, क्योंकि
यदि कोई होता
है वहां उसे
पार करने को, तो नियंत्रण
फिर मौजूद हो
जाता है।
इसलिए तुम कुछ
नहीं कर सकते
इस विषय में।
इसलिए
पतंजलि यहीं
समाप्ति करते
हैं। यह समाधि
है। लेकिन
यहीं समाप्ति
होती है
समाधियों के
अध्याय की।
कहने को कुछ
और नहीं। वे
कुछ नहीं कहते
इस बारे में
कि कैसे करना
है उसे। कोई 'कैसे
' जुड़ा
नहीं है उसके
साथ। यही है
वह स्थल जहां
कृष्णमूर्ति
बहुत क्रोधित
हो उठते हैं, जब कि लोग
पूछते हैं, 'कैसे?' कोई
सूत्र है नहीं।
कोई विधि नहीं,
कोई तरकीब
नहीं, क्योंकि
यदि कोई तरकीब
संभव होती
यहं।, तो
नियंत्रण बना
रहता।
नियंत्रण के
पार जाया जाता
है, लेकिन
कोई होता नहीं
जो पार जाता
है। विमुक्त
और स्वाभाविक
बने हुए, लकड़ी
काटते और पानी
ढोते हुए, शांत
बैठे हुए, बसंत
आता है और घास
बढ़ती है अपने
से ही।
तो
मत फिक्र लेना
निर्बीज
समाधि की।
केवल सोचना
निर्विचार
समाधि की, वह
समाधि जहां
विचार समाप्त
हो जाते हैं।
वहा तक खोज
जारी रहती है।
उसके बाद
राज्य है अखोज
का। जब तुम
निर्विचार हो
चुके होते हो
तभी, केवल
तभी तुम
समझोगे कि
क्या करना
होता है। वह
सब, जो कुछ
किया जा सकता
था, तुमने
कर लिया।
अंतिम
अवरोध वहा है।
वह अंतिम
अवरोध
निर्मित हुआ
है तुम्हारी
क्रिया
द्वारा।
अंतिम अवरोध
निर्मित
हो जाता है।
वह बहुत
पारदर्शी
होता है। यह
ऐसे होता है, जैसे
कि तुम बैठे
हुए हो कांच
की दीवार के
पीछे, बहुत
सुंदर और
शुद्ध कांच और
तुम हर चीज
इतनी स्पष्टता
से देखते हो, जैसे कि
बिना दीवार के
देख रहे हो, लेकिन दीवार
वहा है और यदि
तुम कोशिश
करते हो उसे
पार करने की, तो तुम्हें
जोर से चोट
लगेगी और पीछे
फेंक दिए जाओगे।
अत:
निर्विचार
समाधि ही
अंतिम चीज
नहीं है, वह है
उपान्तिम—अतिम
से पहले का
आखिरी चरण। और
वही उपान्तिम
हो है लक्ष्य,
उसके पार, तिलोपा और
लिंची शांति
से बैठे होते
हैं और घास को
अपने से बढ़ने
देते हैं।
उसके पार तुम रह
सकते हो बाजार
में, क्योंकि
बाजार उतना ही
सुंदर है
जितने कि मठ।
उसके बाद जो
कुछ तुम करना
चाहते हो, कर
सकते हो, पर
उसके पहले
नहीं। तुम
अपना काम कर
सकते हो। तुम
विश्रांत हो
सकते हो; खोज
समाप्त हुई।
उसी
विश्रांति
में ब्रह्माड
के साथ की आंतरिक
समस्वरता की
वह घड़ी आ
पहुंचती है, और दीवार
मिट जाती है।
क्योंकि वह
निर्मित हुई
थी तुम्हारे
कुछ करने से, तुम करो
नहीं, वह
मिट जाती है।
वह पोषण पाती
है तुम्हारे
कुछ करने से।
जब तुम नहीं
करते कुछ, वह
मिट जाती है।
जब किया खो
जाती है, तब
तुम पार जा
चुके होते हो
सारे
नियंत्रण के।
फिर
न कोई जीवन है
न कोई मृत्यु, क्योंकि
जीवन है तो
कर्ता का:
मृत्यु है तो
कर्ता की। अब
तुम बचे ही
नहीं, तुम
विसर्जित हो
चुके। तुम
विसर्जित हो
चुके, नमक
के उस टुकड़े
की भांति जो
समुद्र में पड़
कर घुल जाता
है। तुम पता
नहीं लगा सकते
कि कहां चला
जाता है वह। क्या
तुम पता लगा
सकते हो नमक
के उस टुकड़े
का जो कि घुल
चुका हो
समुद्र में? वह एक हो
जाता है
समुद्र के साथ।
तुम स्वाद पा
सकते हो
समुद्र का, लेकिन तो भी
तुम नमक के
टुकड़े को नहीं
पा सकते हो।
इसीलिए
लोग जब फिर —फिर
बुद्ध से
पूछते थे, 'क्या
होता होगा जब
कोई बुद्ध
मरता है? क्या
होता है जब एक
बुद्ध मरता है?'
बुद्ध मौन
रहते।
उन्होंने कभी
उत्तर नहीं
दिया इसका। यह
एक बड़ा बार—बार
उठने वाला
प्रश्न था —क्या
होता है बुद्ध
को? बुद्ध
मौन रहे, क्योंकि
तुम्हें लगता
है कि बुद्ध
हैं, उनके
अपने लिए, वे
अब नहीं रहे।
भीतर, वे
अब नहीं रहे।
अंदर और बाहर
एक हो गए हैं; अंश और
संपूर्ण एक हो
गए हैं, भक्त
और भगवान एक
हो गए हैं, प्रेमी
विलीन हो गया
है प्रिय में।
तो
क्या बना रहता
है?
प्रेम बना
रहता है।
प्रेम करने
वाला अब न रहा,
प्रेम पाने
वाला न रहा, ज्ञाता न
रहा, ज्ञात
न रहा। केवल
समझ बनी रहती
है, सहज
चैतन्य बना
रहता है, बिना
किसी केंद्र
के। वह
अस्तित्व की
भांति विशाल
होता है गहरा
होता है
अस्तित्व की
भांति, रहस्यपूर्ण
होता है
अस्तित्व की
भांति। लेकिन
किया कुछ नहीं
जा सकता है।
जब
किसी दिन तुम
इस बिंदु—स्थल
तक आ जाते हो—यदि
तुम तीव्रता
से खोजो तो आ
जाओगे तुम, यदि
तीव्रता से
खोजो तो पहुंच
जाओगे तुम
निर्विचार
समाधि तक—तब
कुछ करने की
पुरानी आदत मत
ढोए रहना, तब
कुछ करने के
पुराने ढाचे
को लादे मत
रहना, तब
मत पूछना कि 'कैसे?' तब
तो बस विमुक्त
रहना और सहज
रहना और चीजों
को होने देना।
जो कुछ घटता
है स्वीकार
करना। जो कुछ
घटता है उत्सव
मनाना उसका।’लकड़ी काटो, पानी भरी, शांत होकर
बैठो और घास
को बढ़ने दो।’
आज
इतना ही।
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