अध्याय
68
असंघर्ष का
सदगुण
वीर
सैनिक हिंसक
नहीं होता है;
अच्छा
लड़ाका
क्रोध नहीं
करता है;
बड़ा
विजेता छोटी
बातों के लिए
नहीं लड़ता है;
मनुष्यों
का अच्छा
प्रयोक्ता
अपने
को दूसरों के
नीचे रखता है।
-- असंघर्ष का यही
सदगुण है।
इसे
ही मनुष्यों
को प्रयोग
करने की
क्षमता कहते
हैं;
यही
है अस्तित्व
की ऊंचाई को
छूना,
मनुष्य
के जीवन की
जटिलता एक
बुनियादी बात
से निर्मित
होती है। और
वह बुनियादी
बात है कि तुम
जो नहीं हो वह
दिखाने की
कोशिश में
संलग्न हो
जाते हो। फिर
तुम सत्य तक
कभी भी न
पहुंच सकोगे।
क्योंकि
तुमने शुरुआत
ही असत्य की
कर दी; यात्रा
का पहला कदम
ही गलत पड़
गया।
जिसके
जीवन में
प्रेम नहीं है
वह प्रेम को
दिखाने की
कोशिश करता
है। जिसके
जीवन में
वीरता नहीं है
वह वीरता
दिखाने की
कोशिश करता
है। जिसके
जीवन में साहस
नहीं है वह
साहस के
मुखौटे ओढ़
लेता है।
जो
नहीं है उसे
तुमने बताने
की कोशिश की
कि तुम भटके।
पहुंचने का
रास्ता तो
सीधा और साफ
है कि तुम जो
हो वही दिखाओ।
वही
प्रामाणिक
जीवन का लक्षण
है।
लेकिन
क्यों होती है
यह बात पैदा? आदमी
क्यों दिखाना
चाहता है वह
जो नहीं है? कुछ गहरे
कारण हैं।
समझें।
जीवन
में प्रेम को
पाना तो कठिन
बात है, आसान
नहीं। दुर्गम
है रास्ता; बड़ी पहाड़ों
जैसी चढ़ाई
है। क्योंकि
प्रेम को पाने
का अर्थ है
अपने को बदलना;
प्रेमी
होने का अर्थ
है अहंकार को
तोड़ना, काटना,
छांटना।
क्योंकि तुम
जैसे हो कौन
तुम्हें प्रेम
कर पाएगा? तुम
जैसे हो ऐसी
हालत में लोग
तुम्हें घृणा
कर सकें, यही
संभव है; प्रेम
न कर पाएंगे।
इतना कचरा है
तुममें, उसे
तो जलाना ही
होगा। जब तुम निखर कर
कुंदन बनोगे
तभी तुम्हें
कोई प्रेम कर
पाएगा। और वह
रास्ता बड़ा लंबा
है; बड़ा
मुश्किल है।
सस्ती
तरकीब है
दूसरी। वह यह
है कि तुम
फिक्र ही छोड़ो
अपने को बदलने
की;
जो तुम
सोचते हो कि
तुम्हें होना
चाहिए उसे तुम
दिखाना शुरू
कर दो। झूठा
चेहरा ओढ़ लो।
जीवन के साथ
धोखे का खेल
शुरू कर दो।
नहीं है प्रेम,
फिक्र छोड़ो;
तुम सिर्फ
प्रेम का
अभिनय करो।
तुम्हारे
जीवन में
सुगंध नहीं है,
फिक्र छोड़ो;
इत्र बाजार
में बिकते हैं,
उन्हें तुम
अपने पर छिड़क
लो।
मुस्कुराहट
नहीं है
तुम्हारे
भीतर, उठती
नहीं है
प्राणों से; तो भी ओंठों
को तो तुम
मुस्कुराता
हुआ दिखा सकते
हो। ओंठों का मुस्कुराना
हृदय की मुस्कुराहट
के साथ
अनिवार्य तो
नहीं है। ओंठ
सिर्फ
मुस्कुरा
सकते हैं बिना
हृदय से जुड़े
हुए; थोड़े
से अभ्यास की
बात है। ओंठ
का मुस्कुराना
आसान है, ऊपर-ऊपर
है। इतने से
काम चल जाएगा।
दूसरे को धोखा
हो जाएगा।
और
दूसरे को धोखा
जैसे ही होता
है,
एक और बड़ा
धोखा पैदा
होता है, वह
खुद को धोखा
है। जब तुम
दूसरे को
देखते हो कि
तुम्हारे
धोखे में आ
गया, और जब
बार-बार तुम
देखते हो कि
मुस्कुराहट
पर लोग भरोसा
कर लेते हैं, अंततः तुम
पाओगे कि
तुमने भी अपनी
मुस्कुराहट
पर भरोसा कर
लिया।
क्योंकि तुम
अपने संबंध में
दूसरों के
द्वारा ही
जानते हो।
दूसरे लोग
कहते हैं कि
तुम बड़े
प्रसन्नचित्त
हो, तो
तुम्हें खुद
भी भरोसा आ
जाता है। तब
धोखा मजबूत हो
गया। अब तुमने
दूसरों को ही
नहीं धोखे में
डाल दिया, अपने
को भी धोखे
में डाल दिया।
अब आत्मवंचना
परिपूर्ण हो
गई। अब इसे
हिलाना बहुत
मुश्किल हो
जाएगा। और जो
भी हिलाएगा
वह तुम्हें
शत्रु जैसा
मालूम पड़ेगा।
क्योंकि वह
तुमसे छीने ले
रहा है
तुम्हारी
मुस्कुराहट; वह तुमसे
छीने ले रहा
है तुम्हारा
प्रेम का सदगुण,
तुम्हारी
अहिंसा, तुम्हारी
दया, तुम्हारी
करुणा, तुम्हारा
दान। जो
व्यक्ति भी
तुम्हें चेताएगा
कि यह सब धोखा
है जो तुम कर
रहे हो, वह
शत्रु मालूम
पड़ेगा। और जो
तुम्हारी
खुशामद करेगा
और कहेगा कि
बिलकुल ठीक हो,
तुम जैसा
सदगुणी आदमी
नहीं, वह
तुम्हें
मित्र मालूम
पड़ेगा।
इसलिए
तो दुनिया में
खुशामद इतनी
कारगर होती है।
खुशामद से हर
आदमी
प्रभावित
होता है। अगर तुम
कोई ऐसा आदमी
कहीं पा लो जो
खुशामद से
प्रभावित न
होता हो तो
समझना कि वह
प्रामाणिक
आदमी है।
खुशामद का मतलब
है कि तुम जो
धोखा अपने को
दे रहे हो हम
भी उसमें
साथी-सहयोगी
हैं। तुम दो
इंच धोखा दे
रहे हो, हम
चार इंच
सहयोगी हैं।
तब तुम्हारे
धोखे को आस-पास
से लोग भरने
लगते हैं। और
एक पारस्परिक
षडयंत्र चलता
है समाज में कि
तुम हमारे
धोखे भरो, हम
तुम्हारे
धोखे भरेंगे;
तुम हमारी
झूठ को
सम्हालो, हम
तुम्हारी झूठ
को सम्हालेंगे।
मुल्ला
नसरुद्दीन
एक दिन काफी
हाऊस में बैठ
कर कह रहा था
कि आज गजब हो
गया। मछली पकड़ने
गया था, एक
मछली मैंने पकड़ी
जिसका वजन
तेरह मन! किसी
को भरोसा न
आया। एक दूसरे
आदमी ने कहा, यह कुछ भी
नहीं है। मैं
भी गया था
मछली मारने। मछली
तो नहीं पकड़
पाया, बंसी
में कोई और
चीज उलझ गई।
खींचा ऊपर तो
देखा एक
लालटेन है। और
लालटेन पर
लिखा हुआ है
कि महान
सिकंदर की
लालटेन है यह;
बड़ी प्राचीन।
और इतना ही
नहीं कि
सिकंदर की
लालटेन मिल गई,
भीतर अभी भी
ज्योति जल रही
थी। नसरुद्दीन
ने कहा, ऐसा
करो भाई, हम
अपनी मछली का
वजन थोड़ा कम
कर लेते हैं, तुम कम से कम
यह लालटेन की
बत्ती बुझा
दो।
धोखे
हैं। एक
पारस्परिक
हिसाब है कि
कितनी दूर तक
धोखे में लोग
साथ देंगे।
इस
धोखे के जाल
को हिंदुओं ने
माया कहा है।
तुम यह न
समझना कि जो
संसार बाहर है
वह माया है। ये
वृक्ष और चांदत्तारे, ये
माया नहीं
हैं। माया तो
वह संसार है
जो तुमने झूठ
के आधार पर
अपने चारों
तरफ खड़ा कर
रखा है। और जब
माया से तुम
मुक्त होओगे
तो ऐसा नहीं
है कि ये झाड़, चांदत्तारे विलीन हो
जाएंगे।
सिर्फ तुमने
जो संसार बना
रखा था झूठ का,
वह विलीन हो
जाएगा। और जब
तुम्हारे पास
इतने झूठ हैं;
पर्त दर
पर्त झूठ ही
झूठ इकट्ठे हो
गए हैं। अगर
आदमी को उघाड़ो
तो प्याज की
पर्तों जैसे
झूठ निकलने
शुरू हो जाते
हैं। खोजना ही
मुश्किल है कि
तुम्हारी मूल
स्वभाव की
पर्त कहां है।
इतनी पर्तें
हैं। इतना जाल
तुमने अपने
चारों तरफ खड़ा
कर रखा है।
लेकिन
जिनको भी
लोगों के मन
की थोड़ी समझ
है,
तुम उन्हें
धोखा न दे
पाओगे।
क्योंकि
वस्तुतः उनका
मापदंड यही है
कि जो तुम
दिखाते हो, निन्यानबे
प्रतिशत मौके
यही हैं कि वह
तुम हो नहीं
सकते। अगर तुम
ज्यादा
मुस्कुराते
हो तो उसका
कारण यही होगा
कि भीतर बहुत
उदासी है।
अन्यथा इतने
मुस्कुराने
की जरूरत न
थी। अगर तुम
ऊपर से बड़ा
प्रेम
दिखलाते हो तो
उसका
निन्यानबे
प्रतिशत कारण
तो यही होगा
कि भीतर तुम
घृणा से भरे हो।
और उस घृणा को
छिपाने का और
कोई उपाय नहीं
है। अन्यथा
तुम्हारा
वीभत्स रूप
दिखाई पड़ेगा।
अन्यथा
तुम्हारे
भीतर की गंदगी
बाहर प्रकट होने
लगेगी। तो तुम
सब तरह से
अपने को
साज-संवार लिए
हो।
लेकिन
तुमने जो-जो
बाहर से
दिखलाया है, जानने
वाले जानते
हैं कि भीतर
तुम उसके ठीक
विपरीत
होओगे।
निन्यानबे
प्रतिशत मैं
कहता हूं, क्योंकि
सौवां कभी-कभी
कोई बुद्ध
होता है जो बाहर
और भीतर एक
जैसा होता है।
तुम बाहर कुछ,
भीतर कुछ।
बाहर कुछ, भीतर
कुछ, इतना
ही नहीं; तुम
जैसे बाहर, ठीक उससे
विपरीत भीतर।
असल में, तुमने
बाहर को बनाया
ही है भीतर के
विपरीत, ताकि
तुम धोखा दे
सको।
यह
पहली बात समझ
लेनी जरूरी
है। इसका अर्थ
यह हुआ कि जो
आदमी साहस की
बहुत बातें
करता हो, तुम
समझ लेना कि
भीतर भयातुर
है, भय-कातर
है। नहीं तो
साहस की इतनी
चर्चा की कोई
जरूरत न थी।
काफी
हाऊस में एक
सैनिक आया हुआ
था। और वह कह
रहा था कि आज
बड़ी घमासान
लड़ाई हुई, और
मैंने कम से
कम सौ आदमियों
के सिर
घास-पात की
तरह काट डाले।
नसरुद्दीन
बैठा सुनता
रहा। और उसने
कहा, ऐसा
एक समय मेरे
जीवन में भी
आया था। मैं
भी युद्ध में
गया था। सैनिक
को पसंद तो न
आई यह बीच में
बात उठा देनी,
लेकिन अब जब
बात उठ ही गई
थी तो रोकना
मुश्किल था।
तो उसने कहा
कि क्या हुआ
उस युद्ध में?
नसरुद्दीन ने कहा कि
मैं भी अनेक
लोगों के पैर
काट डाला था
घास-पात की
तरह। सैनिक ने
कहा, अच्छा
हुआ होता कि
तुम सिर काटते,
क्योंकि
ऐसी हमने कभी
कोई बात नहीं
सुनी कि युद्ध
में गए और पैर
काट आए। नसरुद्दीन
ने कहा, क्या
करूं, सिर
तो कोई पहले
ही काट चुके
थे। सिर थे ही
नहीं वहां, मैं तो गया
और घास-पात की
तरह पैर काट
डाले।
जहां
भी तुम साहस
की चर्चा सुनो
वहां समझ लेना
कि भीतर भयभीत
आदमी छिपा है।
वह बहादुरी की
बात ही इसीलिए
कर रहा है
ताकि कोई
पहचान न ले कि
मेरी अवस्था
क्या है।
जिन
लोगों को तुम
प्रेम की बहुत
चर्चा करते सुनो, समझ
लेना कि प्रेम
के जीवन में
वे असफल हुए
हैं। कवि हैं,
साहित्यकार
हैं; प्रेम
की बड़ी चर्चा
करते हैं, गीत
गाते हैं।
लेकिन यह बड़ी
हैरानी की बात
है कि जिन
कवियों ने भी
प्रेम के गीत
गाए हैं वे
प्रेम में
असफल लोग थे।
नहीं तो कोई
प्रेम ही
करेगा, गीत
किसलिए गाएगा? जब
प्रेम ही तुम
कर सकते हो तो
गीत बनाने की
फुरसत किसे है?
गीत तो बना
कर तुम अपने
आस-पास एक
धुंध पैदा करते
हो, ताकि
प्रेम की कमी
पूरी हो जाए।
भूखा आदमी ही सपने
देखता है भोजन
के, भरे
पेट आदमी
नहीं। अगर
तुम्हारे
सपने में प्रेम
आता है तो
उसका अर्थ है
तुम्हारे
जीवन में
प्रेम नहीं।
सपना तो
परिपूरक है।
जो जीवन में
नहीं हो पा
रहा है उसे
तुम सपने में
पूरा कर रहे
हो। जो
वस्तुतः नहीं
मिल पा रहा है
उसे तुम कल्पना
में पूरा कर
रहे हो।
तो कवि
प्रेम के गीत
लिखते हैं।
उनके गीत बड़े
मधुर हो सकते
हैं। लेकिन उन
गीतों के पीछे
बड़ी पीड़ा छिपी
है। तुम एक भी
ऐसा कवि न
पाओगे जो प्रेम
में सफल हुआ
हो। क्योंकि
जो प्रेम में
सफल हो जाता
है,
प्रेम इतना
बड़ा गीत है कि
और दूसरे गीत
वह गाता नहीं।
उसके जीवन में
प्रेम का गीत
होगा, लेकिन
वह प्रेम के
सपने नहीं
देखेगा।
इसे
तुम जीवन का
आधारभूत नियम
समझ लो।
ऐसा हो
जाता है कि
गरीब आदमी के
घर मेहमान आ
जाएं तो वह
पास-पड़ोस से
कुर्सी, फर्नीचर,
सोफा, दरी,
बिछौना, मांग
लाता है। गरीब
आदमी ही यह
करता है, धोखा
देना चाहता है
मेहमान को।
मेहमान को
दिखाना चाहता
है: सब ठीक है, बड़े मजे से
जी रहे हैं।
वह सब उधार है,
लेकिन
दूसरे की आंख
में एक
प्रतिमा
बनानी है।
और यही
हम पूरे जीवन
करते
हैं--सुबह से
सांझ तक।
रास्ते पर कोई
मिल जाता है
और तुमसे
पूछता है, कैसे
हैं? और आप
कहते हैं, बिलकुल
ठीक। और ऐसे
भावावेश से
कहते हैं कि
भरोसा आ जाए। और
कुछ भी ठीक
नहीं है जीवन
में। बिलकुल
ठीक तो दूर, कुछ भी ठीक
नहीं है, सब
गैर ठीक है।
लेकिन जब
दूसरे से आप
कहते हैं, सब
ठीक; तब
क्षण भर को
खुद भी भरोसा
आ जाता है।
इसे जरा खयाल
करना। जब कोई
आदमी पूछे, कैसे हैं? और जब कहें
कि सब ठीक। तब
क्षण भर को
देखना कि भीतर
इस कहने मात्र
से कि सब ठीक, क्षण भर को
ठीक सब लगने
लगता है।
आदमी
दूसरे को धोखा
देते-देते खुद
को धोखा दे लेता
है। और जिस
दिन तुम खुद
को धोखा देने
में सफल हो गए
उस दिन
तुम्हें फिर
इस धोखे के
बाहर आने का
कोई उपाय न
रहा। यही तो
पागल का लक्षण
है। पागल का
अर्थ है जिसने
अपने को धोखा
देने में
परिपूर्ण कुशलता
पा ली, पूर्ण
सफल हो गया।
अब तुम लाख
समझाओ उसे कि
तू नेपोलियन
नहीं है, लेकिन
वह अपने को
नेपोलियन
मानता है।
एक
आदमी का इलाज
हो रहा था।
उसको भ्रांति
थी कि वह
नेपोलियन है।
इलाज जब पूरा
हो गया तो
चिकित्सक ने
कहा,
अब तुम ठीक
हो गए हो। अब
तुम घर जा
सकते हो। वह आदमी
बड़ी
प्रसन्नता से
खड़ा हो गया, और उसने कहा
कि जरा
जोसेफाइन को
फोन करके तो बता
दो--जोसेफाइन,
नेपोलियन
की पत्नी--कि
अब मैं ठीक हो
गया हूं और घर
आ रहा हूं।
पागल
को उसके घेरे
के बाहर लाना
मुश्किल हो
जाता है। और
पागल भी बड़ा
तर्कयुक्त
ढंग से अपनी
व्यवस्था
करता है।
मुल्ला
नसरुद्दीन
रोज अपने घर
के बाहर उठ कर
मंत्र फूंक कर
कुछ फेंकता।
पड़ोस के लोगों
ने पूछा कि यह
तुम क्या करते
हो
तंत्र-मंत्र? उसने
कहा कि इन
मंत्रों के बल
से गांव में
शेर, जंगली
जानवर, सिंह
नहीं आ पाते।
तो लोग हंसने
लगे। उन्होंने
कहा कि नसरुद्दीन,
तुम पागल
हो। यहां कोई
शेर, जंगली
जानवर हैं ही
कहां? नसरुद्दीन ने कहा कि
इससे साफ
सिद्ध होता है
कि मंत्र कारगर
है; सब भाग
गए। यही तो
मैं कह रहा
हूं। इसीलिए
तो सिंह और
जंगली जानवर
यहां नहीं हैं;
क्योंकि
रोज मैं मंत्र
फेंक रहा हूं।
पागल
को उसके तर्क
के बाहर लाना
मुश्किल है। पागल
बड़े
तर्कनिष्ठ
होते हैं। तुम
किसी पागल से
बात करो। तुम
जो सब से बड़ी
अड़चन पाओगे वह
यह कि उसे
उसके तर्क के
बाहर लाना
मुश्किल है।
और वह अपने
तर्क को सब
तरफ से सिद्ध
करता रहता है।
ऐसा
हुआ;
मुसलमान
खलीफा हुआ
उमर। उसने एक
आदमी को जेलखाने
में डलवा दिया,
क्योंकि
उसने घोषणा की
कि मैं ईश्वर
का पैगंबर
हूं। इसलाम यह
मानता नहीं कि
मोहम्मद के
बाद कोई
पैगंबर हो
सकता है। उमर
बहुत नाराज
हुआ। उसने उस
आदमी को बंधवा
लिया, जेल
में डलवा
दिया। और कहा,
दो दिन बाद
मैं आऊंगा।
और दो दिन
उसकी बड़ी
मरम्मत की गई,
पीटा गया, मारा गया, सब तरह
सताया गया, भूखा रखा
गया, रात
सोने नहीं
दिया गया, कि
अपने रास्ते
पर आ जाए।
दो दिन
बाद उमर जेलखाने
गया। वह आदमी
खंभे से बंधा
था,
लहूलुहान
था। उमर ने
पूछा, अब
क्या खयाल हैं?
उसने कहा, खयाल! जब
परमात्मा ने
मुझे भेजा
पैगंबर की तरह
तो उसने कहा
था, पैगंबर
हमेशा पीटे
जाते हैं, मारे
जाते हैं।
इससे तो यही
सिद्ध होता है
कि मैं पैगंबर
हूं, क्योंकि
पैगंबरों को
सदा इतिहास
में सताया गया
है।
तभी
दूसरे खंभे से
बंधे एक आदमी
ने चिल्ला कर
कहा कि यह
आदमी बिलकुल
गलत कह रहा है!
उमर ने उससे
पूछा कि आप
कौन हैं? उसने
कहा कि मैं
स्वयं
परमात्मा हूं!
और मैंने इसे
कभी भेजा
नहीं। यह
सरासर झूठ है।
मोहम्मद के
बाद मैंने
किसी को भेजा
ही नहीं।
किसी
भी पागल को
उसके तर्क के
बाहर लाना
एकदम असंभव
है। क्योंकि
तुम जो भी
उपाय करोगे, पागल
उस उपाय को ही
अपना तर्क बना
लेगा।
तुम्हें
भी तुम्हारे
पागलपन से
बाहर लाना बहुत
कठिन है।
लेकिन अभी तुम
बिलकुल पागल
नहीं हो गए हो, इसीलिए
आशा है। थोड़ा
सा किनारा
बाकी है जहां
तुम संदिग्ध
हो। जब तुम
बिलकुल असंदिग्ध
हो जाओगे अपने
झूठ में तब
तुम्हें खींच
कर बाहर लाना
मुश्किल हो
जाएगा। अभी
तुम्हें थोड़ा
संदेह है खुद
भी कि तुम
हंसते हो वह
वास्तविक है
या नहीं! तुम
रोते हो, वह
वास्तविक है
या नहीं! यह
संदेह ही
तुम्हारा
सबसे बड़ा
सहारा है। इसी
संदेह के
सहारे तुम बाहर
आ सकोगे। इस
संदेह को प्रगाढ़
करो। और अपनी
एक-एक
जीवन-विधि को,
शैली को जांचो-परखो,
कसो--कि तुमने
प्रेम सच में
किया है या
तुम शब्दों की
ही बात करते
रहे हो? क्योंकि
अगर तुम एक भी
चीज सच में कर
सको तो तुम्हारे
झूठ का पूरा
भवन गिर
जाएगा। सत्य
की बड़ी शक्ति
है।
मैं
कहता हूं, एक
भी चीज अगर
तुम सत्य कर
सको तो झूठ का
पूरा भवन गिर
जाएगा। इसलिए
यह सवाल नहीं
है कि तुम बहुत
सत्य करो, तब
कहीं यह भवन
गिरेगा; एक
सत्य गिरा
देगा पूरे भवन
को। असत्य
कितने ही हों,
कमजोर और
नपुंसक हैं; उनमें कोई
बल नहीं है।
तुम एक तरफ से
भी अगर सत्य
होने शुरू हो
जाओ, तुम
अचानक पाओगे
कि तुम्हारे
पूरे जीवन में
असत्य की जड़ें
उखड़नी
शुरू हो गईं।
तुम एक कदम
सत्य की तरफ
उठा लो, तुम
एक झूठ का
चेहरा गिरा दो;
बाकी चेहरे
भी उखड़े-उखड़े
हो जाएंगे।
जहां से
तुम्हें शुरू
करना हो वहां
से शुरू करो।
लेकिन इसे जरा
समझ लेना कि
तुम जो-जो
दिखा रहे हो
उससे विपरीत
तुम्हारी दशा
होगी।
पंडित
दिखलाता
फिरता है कि
कितना ज्ञानी
है,
और भीतर गहन
अज्ञान है।
उसी को छिपाने
के लिए तो
शास्त्रों का
सहारा लिया है,
शब्द और
सिद्धांतों
से ओढ़ लिया है
अपने को, रामनाम
की चदरिया ओढ़
ली है। भीतर
गहन अंधकार
है। उस अंधकार
को छिपाना है;
कोई जान न
ले, किसी
को पता न चल
जाए।
लेकिन
किसी को पता
चले न पता चले, यह
सवाल नहीं है।
वह अंधकार
तुम्हारे
भीतर है तो
तुम उसी
अंधकार में
जीओगे, उसी
में डूबोगे।
उस अंधकार को
मिटाना जरूरी
है। अगर
बीमारी है
भीतर तो तुम
ऊपर-ऊपर
स्वस्थ होने
की धारणा को
मत बना लेना।
नहीं तो वही
धारणा
तुम्हारी
बीमारी को
बढ़ाने का कारण
बनेगी। और जो
अभी छोटा सा
फोड़ा था, कल
नासूर हो
जाएगा। और जो
कल नासूर है, वह परसों
कैंसर हो
जाएगा।
बीमारी
भी बढ़ती है, रुकती
नहीं। बीमारी
का भी अपना
जीवन है। तुम
जितना उसे
छिपाते हो घाव
को, छिपा
सकते हो, सुंदर
फूल बांध सकते
हो घाव के ऊपर;
इससे कुछ
होगा न। इससे
भीतर की बदबू
दूसरों तक भले
न पहुंचे, लेकिन
तुम्हारे
भीतर बढ़ती
जाएगी। घाव ही
रह जाएगा आखिर
में। और यही
होता है कि
लोग मरते समय
तक
पहुंचते-पहुंचते
पाते हैं:
सारा जीवन एक
पीड़ा, एक
घाव हो गया, जिसमें कभी
कोई आनंद न
जाना, और
जहां कभी कोई
जीवन की पुलक
न उठी, जीए
जैसे जीए ही
नहीं; घसिटते रहे। जीवन
नृत्य न था, उत्सव न था।
लाओत्से
कहता है, "वीर
सैनिक हिंसक
नहीं होता।'
हिंसक
आदमी को होना
पड़ता है इसलिए
ताकि वह दिखला
दे दुनिया को
कि मैं बहादुर
हूं। इसलिए जो
बहादुर है वह
हिंसक नहीं हो
सकता।
इसलिए
तो हमने
वर्धमान को
महावीर कहा।
वीर ही नहीं
कहा,
महावीर
कहा। क्योंकि
वर्धमान ने
जैसी अहिंसा
प्रकट की वह
केवल महावीर
ही कर सकता
है। महावीर
उनका नाम नहीं
है, नाम तो
उनका वर्धमान
है। लेकिन महावीर
कहने के पीछे
कारण है।
क्योंकि
सिर्फ वीर ही
हिंसा से
मुक्त हो सकता
है। और महावीर
ही केवल समस्त
हिंसा से
मुक्त हो सकता
है। वीरता
इतनी स्पष्ट
है स्वयं के
समक्ष कि
सिद्ध कहां
करनी है!
सिद्ध तो तुम
वही करते हो
जो तुम्हें
पता है कि है
नहीं। जिस दिन
तुम्हें पता
है कि है, उस
दिन तुम सिद्ध
करना छोड़ देते
हो।
हिटलर
कायर है और
वर्धमान वीर
है। हिटलर को
तुम्हें पढ़ना
और समझना
चाहिए; लाओत्से
को समझने के
लिए बड़ा
सहयोगी होगा।
हिटलर से बड़ा
कायर आदमी
जमीन पर खोजना
मुश्किल है।
वह रात अंधेरे
में सो नहीं
सकता था; प्रकाश
जला कर ही
सोता था। और
भयभीत इतना था
कि किसी पर कभी
भरोसा नहीं कर
सकता था।
इसलिए उसने
शादी नहीं की।
क्योंकि शादी
हो जाएगी तो
कम से कम पत्नी
पर तो भरोसा
करना ही पड़ेगा,
इतना भरोसा
कि कमरे में
उसके साथ सोए।
और रात को उठ
कर गर्दन दबा
दे! क्या पता
दुश्मनों से मिली
हो! मरते दम तक
उसने शादी न
की। मरने के
ठीक घड़ी भर
पहले शादी की।
जब सब पक्का
हो गया कि अब
आत्महत्या ही
करनी है, अब
कुछ करने को
नहीं बचा। जब
जहां हिटलर
ठहरा था उस
जगह पर भी बम
गिरने लगे
बर्लिन में, और हार
बिलकुल
सुनिश्चित हो
गई, अब कोई
उपाय न रहा, एक घड़ी भर की
बात है और
जर्मनी का पतन
हो जाएगा, तब
उसने जो पहला
काम किया वह
यह कि जिसको
वह जिंदगी भर
से स्थगित कर
रहा था, शादी
करने को, उसने
एक पुरोहित को
बुलवाया जो
पहला काम किया
और कहा कि
पहले मेरी
शादी कर दो।
पुरोहित भी चकित
हुआ कि इस घड़ी
में शादी!
लेकिन
कारण यह था कि
हिटलर सदा डरा
रहा--क्या
भरोसा एक
अनजान-अपरिचित
स्त्री? और
सभी
अनजान-अपरिचित
हैं। किससे
परिचय है किसका?
अपने से ही
परिचय नहीं, तो दूसरे से
क्या परिचय? पता नहीं
स्त्री किसी
की जासूस हो, किसी से
मिली हो; रात
एक साथ सोना
खतरनाक, असुरक्षित।
अब कोई डर न रहा।
उसने शादी
करवाई। और
शादी होने के
बाद जो दूसरा
काम किया वह
आत्मघात।
दोनों ने
आत्मघात कर
लिया।
इतना
भयभीत आदमी!
जरा-जरा सी
बात से वह
मूर्च्छित हो
जाता था। अगर
कोई उसके
विपरीत कुछ कह
दे,
तो ऐसा कई
बार हिटलर के
जीवन में घटा
कि उसको मिरगी
आ जाती थी, विपरीत
बात भी नहीं
सुन सकता था।
क्योंकि
विपरीत का मतलब
कि उसे शक आ
जाता अपने पर
कि मैं भी
कहीं गलत हो
सकता हूं।
उसके निकट के
लोग भी बड़े
परेशान रहते
थे कि उससे
कहीं ऐसी कोई
बात न हो जाए
कि वह गिर पड़े,
मिरगी आ जाए,
चक्कर आ जाए,
बेहोश हो
जाए। उसकी हर
बात माननी
चाहिए। वह एक
छोटे बच्चे की
भांति था, जो
हर छोटी बात
में पैर पटकने
लगेगा और सिर फोड़ने
लगेगा। उसकी
हर बात माननी
ही चाहिए। वह
हर बात का
ज्ञाता है। और
ज्ञान उसे कुछ
भी न था। इस कमजोर
आदमी ने सारी
दुनिया को
हिंसा में डुबा
दिया। दूसरा
महायुद्ध, दुनिया
का बड़े से बड़ा
युद्ध था।
करोड़ों लोग
मारे गए।
भयंकर हिंसा
हुई, जैसी
कभी न हुई थी।
और जिस आदमी
के कारण हुई
वह महा कायर
था।
कायर
हमेशा हिंसक
होगा। कायर को
हिंसक होना ही
पड़ेगा। नहीं
तो अपनी
कायरता को छिपाएगा
कहां? हिंसा
के धुएं में
ही छिपाएगा।
मैंने
सुना है कि
ईसप एक कहानी
लिखना चाहता
था,
लिख नहीं
पाया।
किन्हीं
सूत्रों से वह
कहानी मुझ तक
पहुंच गई, मैं
तुमसे कह देता
हूं। कहानी है
कि एक गधे की बड़ी
आकांक्षा थी
कि जंगल के
सम्राट सिंह
से दोस्ती कर
ले। गधों की
सदा यही
आकांक्षा
होती है। और
किसी तरह गधे
ने सिंह को
राजी कर लिया।
क्योंकि गधे
तरकीब जानते
हैं स्तुति की,
खुशामद की।
असल में, गधों
ने ही तो सिंह
को समझा दिया
है कि तुम सम्राट
हो। अन्यथा
इसका कोई
प्रमाण है? और गधे ने
बड़ी स्तुति
की। सिंह
प्रसन्न हो
गया। उसने कहा,
तुम तो वजीर
बनाने योग्य
हो। गधे ने
कहा, आप
जैसा
बुद्धिमान ही
केवल पहचान
सकता है; बाकी
लोग तो मुझे
गधा समझते
हैं। क्योंकि
लोग समझ ही
नहीं सकते; इतनी बुद्धि
कहां!
सिंह
ने उसे साथ ले
लिया। और पहले
ही दिन दोनों
गए शिकार के
लिए। तो गधा
अपनी बहादुरी
दिखाना चाहता
था। दोनों
रुके एक मांद
के बाहर जहां कुछ
जंगली भेड़ें
रहती थीं गुफा
में। गधा भीतर
गया। उसने कहा, तुम
बाहर बैठो; मैं अभी ऐसा
उत्पात मचाऊंगा
भीतर जाकर कि भेड़ें
अपने आप बाहर
आ जाएंगी। तुम
मार लेना और
भोजन कर लेना,
और मेरे लिए
भी बचा लेना।
सिंह
बाहर बैठा
रहा। और गधे
ने निश्चित ही
ऐसा भयंकर
उत्पात मचाया, इतनी
धूल उड़ाई,
इतनी दुलत्तियां
झाड़ीं कि
घबड़ा गईं भेड़ें
और बाहर
निकलने लगीं।
सिंह ने खूब
भोजन किया, गधे के लिए
भी बचाया। और
जब गधा आया तो
उसने पूछा कि
कहो कैसा रहा
मेरा कृत्य? सिंह ने कहा
कि अगर मुझे
पता न होता कि
तू एक गधा
मात्र है तो
मैं खुद भाग
खड़ा होता, इतना
उत्पात तूने
मचा दिया था।
कई बार मैंने
अपने को रोका,
सम्हाला, कि अरे गधा
ही है! नहीं तो
कई बार भागने
की हालत आ गई
थी।
गधा जब
उत्पात मचाएगा
तो अतिशय मचाएगा।
जब भी कायर
आदमी बहादुरी दिखाएगा
तो अतिशय दिखाएगा।
और दिखाने का
उपाय क्या है? एक
ही उपाय है कि मिटाओ, हिंसा
करो, तोड़ो-फोड़ो, ताकि
दुनिया जान ले
कि तुम कितने
शक्तिशाली हो।
अशक्त शक्ति
का दिखावा
करना चाहता
है। लेकिन
जिसके पास
शक्ति है वह
दिखावे की बात
ही भूल जाता
है। दिखाने का
कोई सवाल ही
नहीं है; जो
है वह है। और
वह इतना
आश्वस्त है
उसके होने से
कि अब किसी का
प्रमाणपत्र
तो चाहिए
नहीं।
एक
दूसरी कहानी
है ईसप की कि
सिंह गया है
जंगली
जानवरों से
पूछने। पूछा
उसने भेड़िए
से कि कौन है
सम्राट वन का? उसने
कहा कि महाराज,
आप! यह भी
कोई पूछने की
बात है? पूछा
उसने हिरनों
से। उन्होंने
सामूहिक स्वर
से कहा कि आप!
इसमें कोई
संदेह है क्या?
ऐसा पूछता
हुआ अकड़ से
भरता हुआ वह
हाथी के पास
पहुंचा। और
हाथी से उसने
पूछा कि कौन
है सम्राट वन
का? हाथी
ने उसे सूंड
में लपेटा और
फेंका कोई
पचास फीट दूर।
हड्डी-पसली
चकनाचूर हो
गई। लंगड़ाता
हुआ हाथी के
पास आया और
कहा कि अगर
उत्तर मालूम न
हो तो इतना
परेशान होने
की क्या
जरूरत! अगर
उत्तर पता
नहीं तो कह
देते कि पता
नहीं।
जिसको
उत्तर पता है
उसे उत्तर
देना भी नहीं
पड़ता। प्रमाण
लेने ही वही
जाता है जो
संदिग्ध है।
जो असंदिग्ध
है उसे किसका
प्रमाण चाहिए? कौन
प्रमाण देगा
उसे? और
जिनसे तुम
प्रमाण मांग
रहे हो वे कौन
हैं? उनके
प्रमाण का
कितना मूल्य
है? और हम
चौबीस घंटे
प्रमाण मांग
रहे हैं।
हमारे प्राणों
की बड़ी
अकुलाहट है, कोई कह दे कि
तुम बड़े सुंदर
हो। किससे
प्रमाण मांग
रहे हो? कोई
कह दे कि तुम
बड़े
बुद्धिमान हो;
कोई कह दे
कि तुम जैसा
बहादुर कोई भी
नहीं। पर तुम
प्रमाण किससे
मांग रहे हो? और जो
तुम्हें
प्रमाण दे रहा
है वह कौन है? जो तुम्हारी
खुशामद कर रहा
है वह तुमसे
भी गया-बीता
होगा। उस
गए-बीते के
प्रमाण पर
तुम्हारी
बुद्धिमानी, तुम्हारा
सौंदर्य, तुम्हारी
बहादुरी
निर्भर है।
लाओत्से
कहता है कि जो
वीर है, वीर
सैनिक हिंसक
नहीं होता।
एक बड़ी
अनूठी इतिहास
में घटना घटी
है भारत के।
और वह घटना यह
है कि भारत
में जितने बड़े
अहिंसक पैदा
हुए,
सब
क्षत्रिय
घरों में पैदा
हुए; एक भी
ब्राह्मण घर
में अहिंसक
पैदा नहीं
हुआ। ब्राह्मण
घर में तो
परशुराम पैदा
हुए, जिन
जैसा हिंसक
खोजना कठिन
है। कहते हैं
उन्होंने अनेक
बार पृथ्वी को
क्षत्रियों
से खाली कर
दिया। तो अगर
ब्राह्मणों
में तुम्हें
खोजना हो कोई
बड़े से बड़ा
नाम तो वह
परशुराम का
है। उस नाम से
ऊपर कोई नाम
नहीं जाता; क्योंकि
ब्राह्मणों
में वही एक
आदमी है जिसको
अवतार होने की
प्रतिष्ठा
हमने दी है।
और परशुराम
फरसा लिए खड़े
हैं। वह फरसा
उनका प्रतीक
हो गया। नाम तो
उनका राम ही
रहा होगा।
परशुराम का
मतलब है: फरसा
वाले राम।
हिंसक बड़े से
बड़ा भारत ने
पैदा किया
परशुराम, वह
ब्राह्मण घर
से आया। और
अहिंसक भारत
ने पैदा
किए--सारे
अहिंसक--चौबीस
जैनों के
तीर्थंकर, वे
क्षत्रिय; चौबीस
बुद्ध, सब
क्षत्रिय।
क्षत्रिय
घरों से आए
अहिंसक और
ब्राह्मण घर से
आया हिंसक; यह
जरा सोचने
जैसा है, मामला
क्या है?
परशुराम
आश्वस्त नहीं
हैं। सारी
पृथ्वी को क्षत्रियों
से खाली कर
दें तभी उनको
आश्वासन मिलेगा
कि वे कुछ
हैं। लेकिन
महावीर, बुद्ध
आश्वस्त हैं।
उन्हें अपने
होने में कोई
संदेह नहीं
है। वे चींटी
को भी बचा कर
चलते हैं; चींटी
को भी मारना
उन्हें कठिन
है। परशुराम को
सारी पृथ्वी
को
क्षत्रियों
से खाली कर
देना आसान है।
असल
में,
ब्राह्मण
के मन में
हमेशा एक
कुंठा रही है।
और वह कुंठा
यह है कि वह
दुर्बल है, दीन है। और
माना कि
क्षत्रिय
उसकी पूजा भी
करते हैं, तो
भी ताकत तो
क्षत्रिय के
हाथ में ही
है। और माना
कि पुरोहित
क्षत्रिय उसे
ही बनाते हैं,
चरण भी उसके
छूते हैं, लेकिन
वास्तविक
ताकत--डी फेक्टो
ताकत--वह तो
क्षत्रिय के
हाथ में है।
वह चाहे तो
क्षण भर में
ब्राह्मण की गर्दन
उतार दे। अगर
ब्राह्मण
पूज्य है तो
वह भी
क्षत्रिय की
स्वीकृति के
कारण। वह जिस
दिन अस्वीकार
कर दे उस दिन
मिट्टी में
मिल जाएगा। तो
ब्राह्मणों
के मन में
सदियों से एक
पीड़ा रही है, वह है
क्षत्रिय को
किसी तरह नीचा
दिखाने की। परशुराम
तो उसी की कथा
हैं। वह सारी
पीड़ा
ब्राह्मणों
के भीतर
इकट्ठी हो गई,
कि वे दीन
हैं, हीन
हैं, ना-कुछ
हैं, भिखारी
हैं। और
क्षत्रिय आदर
भी देता है तो
भी वह उसकी
मरजी है; न
दे तो कुछ कर न
सकोगे। और
शायद आदर देना
भी उसकी
कुशलता है और
राजनीति है; क्योंकि आदर
देकर वह तुमको
सांत्वना
देता है। और
दुनिया में
सभी
राजनीतिज्ञ
जानते हैं कि
ब्राह्मण को
आदर देना ठीक
है; नहीं
तो ब्राह्मण
उपद्रवी
सिद्ध हो सकता
है, भयंकर
उपद्रव उससे
हो सकता है।
दुनिया में जितने
उपद्रव आते
हैं वे
ब्राह्मण से
आते हैं। ब्राह्मण
यानी इंटेलिजेंसिया;
ब्राह्मण
यानी वह जो
बुद्धिमान है,
सोच-विचार
सकता है।
भारत
बहुत प्राचीन
देश है, इसने
समझ लिए हैं
रहस्य, तो
इसने
ब्राह्मण को
आदर दे दिया।
इसलिए भारत में
कभी क्रांति
नहीं हो सकती;
क्योंकि
बिना
ब्राह्मण के
क्रांति
करेगा कौन? क्षत्रिय
शांति में
उत्सुक हो
सकता है, क्रांति
में नहीं।
ब्राह्मण
क्रांति में
उत्सुक होता
है। क्योंकि
ब्राह्मण को
लगता है, हूं
तो मैं इतना
बड़ा जानकार, लेकिन ताकत
मेरे हाथ में
बिलकुल नहीं
है। वह बगावत
सुलगाता है, विद्रोह
जगाता है। और
जो
हिंदुस्तान
ने किया था--पांच
हजार साल में
कोई क्रांति
भारत में नहीं
हुई--उसका राज
यह है कि
ब्राह्मण को
इतना आदर दे
दिया, उसकी
इतनी स्तुति
कर दी। वह था
कुछ नहीं; उसके
भीतर कुछ भी
नहीं थी ताकत।
लेकिन एक ताकत
थी, वह
बगावत सुलगा
सकता है। वह
लड़ेगा नहीं; लेकिन
दूसरों को लड़वा
सकता है, वह
दूसरों को भड़का
सकता है। उसके
पास वाणी की
कुशलता है, तर्क का
आधार है। वह
शोषित जनों को
उपद्रव में
उतार सकता है।
जो
भारत ने किया
था वही सोवियत
रूस में किया
जा रहा है आज।
आज सोवियत रूस
में लेखकों का, प्रोफेसरों का, कवियों
का, वैज्ञानिकों
का--ब्राह्मणों
का--जितना आदर
है उतना किसी
का भी नहीं।
क्योंकि
सोवियत रूस भी
अब क्रांति
नहीं चाहता।
और सोवियत रूस
में तब तक
क्रांति न हो
सकेगी। और जो
थोड़ी-बहुत चिनगारियां
आती हैं, किसी
पास्तरनेक
सोल्झेनिस्तीन
से, वे सब
ब्राह्मणों
की
चिनगारियां
हैं। कोई ब्राह्मण
नाराज हो जाता
है तो वह गड़बड़
शुरू करता है।
खुद
ब्राह्मण
उपद्रव नहीं करेगा; लेकिन
उपद्रव करवा
सकता है। ऐसी
किताबें लिख सकता
है; बगावती
स्वर जगा सकता
है। और कभी
अगर हजारों साल
का क्रोध
इकट्ठा हो जाए
ब्राह्मण का
तो फिर
परशुराम पैदा
होते हैं।
परशुराम
हजारों साल की
पीड़ा का
संगृहीत रूप
है। वह अवतरण
है सारी हिंसा
का जो
ब्राह्मण में
इकट्ठी हो गई।
थोड़ा सोचो!
किसी ने कभी
सोचा नहीं ठीक
से कि आखिर
परशुराम को
ब्राह्मणों
की किस पीड़ा
ने पैदा किया
होगा कि
परशुराम ने
सात बार
पृथ्वी को
क्षत्रियों
से खाली कर
दिया! काट
डाले
क्षत्रिय।
क्या कारण रहा
होगा? क्षत्रियों
से ऐसी क्या
नाराजगी रही
होगी?
नाराजगी
गहरी है।
क्षत्रिय पैर
तो छूता है, लेकिन
वह सिर्फ
दिखावा है।
तलवार उसी के
हाथ में है।
और ब्राह्मण
को वह कितने
ही ऊंचे बिठा दे,
वह उसी के
इशारे पर ऊंचा
बैठा है। जिस
दिन इशारा
करेगा, नीचे
उतर आना
पड़ेगा।
तो
ब्राह्मणों
ने तो बड़े से
बड़ा हिंसक
पैदा किया और
क्षत्रियों
ने बड़े से बड़े
अहिंसक पैदा
किए। दो धर्म
दुनिया में
अहिंसक धर्म
हैं: बौद्ध और
जैन;
दोनों
क्षत्रियों
से पैदा हुए।
असल
में,
जितना
आश्वस्त हो
व्यक्ति अपने
साहस का उतना ही
दिखाने का मोह
चला जाता है।
दिखाना किसको
है? और बात
इतनी प्रगाढ़
है कि दिख ही जाएगी।
दिखाने के लिए
प्रयास क्या
करना है? तुम्हारे
भीतर जो भी
होता है
वस्तुतः, तुम
उसे दिखाना
नहीं चाहते।
जो नहीं होता
वही तुम
दिखाना चाहते
हो। क्योंकि
तुम्हें पता है,
अगर तुमने न
दिखाया तो
किसी को दिखाई
पड़ेगा कैसे? है तो है ही
नहीं।
सुंदर
स्त्री
आभूषणों से
मुक्त हो जाती
है;
कुरूप
स्त्री कभी भी
आभूषणों से
मुक्त नहीं हो
सकती। सुंदर
स्त्री सरल हो
जाती है; कुरूप
स्त्री कभी भी
नहीं हो सकती।
क्योंकि उसे
पता है, आभूषण
हट जाएं, बहुमूल्य
वस्त्र हट
जाएं, सोना-चांदी
हट जाए, तो
उसकी कुरूपता
ही प्रकट
होगी। वही शेष
रह जाएगी, और
तो वहां कुछ
बचेगा न।
सुंदर स्त्री
को आभूषण शोभा
देते ही नहीं,
वे थोड़ी सी
खटक पैदा करते
हैं उसके
सौंदर्य में।
क्योंकि कोई
सोना कैसे
जीवंत
सौंदर्य से महत्वपूर्ण
हो सकता है? हीरे-जवाहरातों
में होगी चमक,
लेकिन
जीवंत सुंदर
आंखों से उनकी
क्या, क्या
तुलना की जा
सकती है? जैसे
ही कोई स्त्री
सुंदर होती है,
आभूषण-वस्त्र
का दिखावा कम
हो जाता है।
तब एक्झिबीशन
की वृत्ति कम
हो जाती है।
असल में, सुंदर
स्त्री का
लक्षण ही यही
है कि जिसमें
प्रदर्शन की
कामना न हो।
जब तक
प्रदर्शन की
कामना है तब
तक उसे खुद ही
पता है कि कहीं
कुछ असुंदर है,
जिसे
ढांकना है, छिपाना है, प्रकट नहीं
करना है।
स्त्रियां
घंटों व्यतीत
करती हैं
दर्पण के
सामने। क्या
करती हैं दर्पण
के सामने
घंटों? कुरूपता
को छिपाने की
चेष्टा चलती
है; सुंदर
को दिखाने की
चेष्टा चलती
है।
ठीक
यही जीवन के
सभी संबंधों
में सही है।
अज्ञानी अपने
ज्ञान को
दिखाना चाहता
है। वह मौके
की तलाश में
रहता है; कि
जहां कहीं
मौका मिले, जल्दी अपना
ज्ञान बता दे।
ज्ञानी को कुछ
अवसर की तलाश
नहीं होती; न बताने की
कोई आकांक्षा
होती। जब
स्थिति हो कि
उसके ज्ञान की
कोई जरूरत पड़
जाए, जब
कोई प्यास से मर
रहा हो और
उसको जल की
जरूरत हो तब
वह दे देगा।
लेकिन
प्रदर्शन का
मोह चला
जाएगा।
अज्ञानी
इकट्ठी करता
है उपाधियां
कि वह एम.ए.
है,
कि पीएच.डी.
है, कि डी.लिट.
है, कि
कितनी ऑननेरी
डिग्रियां
उसने ले रखी
हैं। अगर तुम
अज्ञानी के घर
में जाओ तो वह
सर्टिफिकेट
दीवाल पर लगा
रखता है। वह
प्रदर्शन कर
रहा है कि मैं जानता
हूं।
लेकिन
यह प्रदर्शन
ही बताता है
कि भीतर उसे
भी पता है कि
कुछ जानता
नहीं है।
परीक्षाएं
उत्तीर्ण कर
ली हैं, प्रमाणपत्र
इकट्ठे कर लिए
हैं। लेकिन
जानने का न तो
परीक्षाओं से
संबंध है, न
प्रमाणपत्रों
से। जानना तो
जीवन के अनुभव
से संबंधित
है। जानना तो जी-जीकर
घटित होता है,
परीक्षाओं
से उपलब्ध
नहीं होता।
परीक्षाओं से
तो इतना ही
पता चलता है
कि तुम्हारे
पास अच्छी
यांत्रिक
स्मृति है।
तुम वही काम
कर सकते हो जो
कंप्यूटर कर
सकता है।
लेकिन इससे
बुद्धिमत्ता
का कोई पता नहीं
चलता।
बुद्धिमत्ता
बड़ी और बात है;
कालेजों,
स्कूलों और
विश्वविद्यालयों
में नहीं मिलती।
उसका तो एक ही
विश्वविद्यालय
है, यह
पूरा
अस्तित्व।
यहीं जीकर, उठ कर, गिर
कर, तकलीफ
से, पीड़ा
से, निखार
से, जल कर
आदमी
धीरे-धीरे
निखरता है, परिष्कृत
होता है।
"वीर
सैनिक हिंसक
नहीं होता।'
हो
नहीं सकता।
"अच्छा
लड़ाका
क्रोध नहीं
करता।'
क्योंकि
क्रोध कमजोरी
का लक्षण है।
जितने जल्दी
क्रोध आ जाता
है उतने ही
जल्दी समझ
लेना कि
तुम्हारी
क्षमता चुक
गई।
मैंने
सुना है, एक
गांव में एक
यहूदी फकीर
था। वह गांव
में नया-नया
आया था। उस गांव
की भाषा नहीं
जानता था।
लेकिन गांव का
जो सभागृह
था--पुराने
दिनों की बात
है जब
शास्त्रार्थ
रोज ही चलते
थे--वह वहां
रोज नियमित
उपस्थित होता
था। पंडितों
में विवाद
होते। वह भाषा
तो जानता ही
नहीं था।
एक दिन
लोगों ने पूछा
कि तुम किसलिए
परेशान होते
हो?
तुम किसलिए
जाते हो वहां?
तुम भाषा तो
समझते नहीं।
और विवाद
संस्कृत में
चलता है; तुम्हें
तो उसका कोई
पता ही नहीं।
एक शब्द तुम्हारी
समझ में न
आएंगे। पर तुम
इतनी तत्परता
से सुनते हो; क्या सुनते
हो?
उसने
कहा कि मैं
सुनता नहीं वे
क्या बोल रहे
हैं। मैं तो
सिर्फ यह देखता
हूं कि दोनों
विवादी में
किसको पहले
क्रोध आ गया।
मैं समझ जाता
हूं कि वह हार
गया। वह मैं उतनी
भाषा मैं
समझता हूं।
जिसको क्रोध आ
गया उसने
स्वीकार कर
लिया कि वह
हार गया। अब
कितनी ही देर
लगाए आखिरी
निर्णय के
होने में, लेकिन
वह हार चुका।
और उस फकीर ने
कहा कि यह मैं
देख रहा हूं
कि जिसको मैं
पहले तय कर
देता हूं कि
यह हार गया, वही आखिर
में घोषणा
होती है कि वह
हार गया। मगर
मैं घड़ी भर
पहले जान लेता
हूं। जैसे ही
क्रोध आंखों
में आना शुरू
हुआ, उसका
मतलब है आदमी
की क्षमता चुक
गई। उसकी सीमा
आ गई।
उथला
है आदमी तो
जल्दी क्रोध
हो जाता है।
जितना गहरा
होता है उतना
क्रोध
मुश्किल हो
जाता है। और
जब कोई बिलकुल
असीम होता है, तब
तो क्रोध
असंभव हो जाता
है। तुम्हारा
क्रोध
तुम्हारे
व्यक्तित्व
की गहराई का
पता देता है।
किसी ने जरा
सा कुछ कह
दिया, तुम
क्रोधित हो गए;
उसका मतलब
है कि तुम्हारे
व्यक्तित्व
की गहराई चमड़ी
से ज्यादा
गहरी नहीं है।
तुम्हारा
जानवर जल्दी
प्रकट हो जाता
है; बस जरा
ही पीछे छिपा
है। यह जो ऊपर
तुमने मनुष्यता
का आवरण ओढ़
रखा है, यह
बहुत गहरा
नहीं है; जरा
सा कोई आदमी
हंस दे, गाली
दे दे, और
यह आवरण टूट
जाता है।
क्रोध
परीक्षा है।
लाओत्से
कहता है, अच्छा
लड़ाका जो
योद्धा है वह
क्रोध नहीं
करता।
ताओवादियों की
बड़ी प्रसिद्ध
कथा है कि एक
सम्राट, वर्ष
की अंतिम
प्रतियोगिता
होने वाली थी मुर्गों
की लड़ाई की, वह अपने
मुर्गे को भी
युद्ध में
भेजना चाहता था।
तो उसने एक
बहुत बड़े झेन
फकीर को बुलाया।
क्योंकि उस
झेन फकीर की
बड़ी
प्रसिद्धि थी
कि उसे युद्ध
में कोई हरा
नहीं सकता।
हराना तो दूर,
उसके पास
आकर लोग हारने
को उत्सुक हो
जाते थे। उसके
पास हार कर
प्रसन्न होकर
लौटते थे।
उसके साथ हार
जाना बड़ी
महिमा की बात
थी। तो सम्राट
ने सोचा कि यह
फकीर अगर
मुर्गे को
तैयार कर दे।
फकीर
को बुलाया।
मुर्गा फकीर
ले गया। तीन
सप्ताह बाद
सम्राट ने खबर
भेजी, मुर्गा
तैयार है? फकीर
ने कहा, अभी
नहीं। अभी तो
दूसरे मुर्गे
को देख कर वह सिर
खड़ा करके आवाज
देता है।
सम्राट थोड़ा
हैरान हुआ कि
यह तो ठीक ही
लक्षण है।
क्योंकि लड़ना
है तो सिर खड़ा
करके आवाज न
दोगे तो दूसरे
मुर्गे को डराओगे
कैसे?
खैर, कुछ
देर और
प्रतीक्षा
की। फिर तीन
सप्ताह बाद पुछवाया।
फकीर ने कहा, अभी भी
नहीं। अब
पुरानी आदत तो
जा चुकी है, लेकिन दूसरा
मुर्गा आता है
तो तन जाता है,
तनाव भर
जाता है। और
तीन सप्ताह
बीत गए। फिर पुछवाया।
फकीर ने कहा
कि अब
थोड़ा-थोड़ा
तैयार हो रहा
है, लेकिन
अभी थोड़ी देर
है। अब दूसरा
मुर्गा कमरे के
भीतर आए तो
खड़ा तो रहता
है, लेकिन
भीतर व्यथित
हो जाता है, भीतर एक
तनाव की रेखा
खिंच जाती है।
और तीन सप्ताह
बाद फकीर ने
कहा, अब
मुर्गा
बिलकुल तैयार
है। अब वह ऐसे
खड़ा रहता है
जैसे न कोई
आया, न कोई
गया। और अब
कोई फिक्र
नहीं है। पर
सम्राट ने कहा
कि यह मुर्गा
जीतेगा कैसे?
उस फकीर ने
कहा, तुम
फिक्र ही मत
करो; अब
हारने की कोई
संभावना ही न
रही। दूसरे
मुर्गे इसे
देखते ही भाग
खड़े होंगे।
इसको लड़ना नहीं
पड़ेगा। इसकी
मौजूदगी काफी
है।
और यही
हुआ। जब
प्रतियोगिता
में मुर्गा
खड़ा किया गया।
तो दूसरे मुर्गों
ने सिर्फ झांक
कर उस मुर्गे
को देखा; न तो
उसने आवाज दी,
क्योंकि वह
कमजोरी का
लक्षण है, वह
भय का लक्षण
है। भय को
छिपाने के लिए
वह जोर से कुकडूं
कूं
बोलता है। वह डरवाना
चाहता है आवाज
से, लेकिन
खुद डरा हुआ
है। न तो उस
मुर्गे ने
आवाज दी, न
उस मुर्गे ने
देखा। जैसे
कुत्ते भौंकते
रहते हैं और
हाथी गुजर
जाता है। ऐसे
वह मुर्गा खड़ा
ही रहा, जैसे
पत्थर की
मूर्ति हो।
दूसरे मुर्गों
ने देखा, उनको
कंपकंपी छूट
गई। क्योंकि
यह तो बड़ा, यह
तो मुर्गे जैसा
मुर्गा ही
नहीं है! इसके
पास जाना तो
खतरे से खाली
नहीं है। वे
भाग खड़े हुए।
प्रतियोगिता
में दूसरे
मुर्गे उतर ही
न सके।
लाओत्से
कहता है, "अच्छा
लड़ाका
क्रोध नहीं
करता।'
यह कथा
मुर्गे की ताओवादियों
की कथा है। यह
लक्षण है
योद्धा का कि
वह क्रोध न
करे,
कि वह उत्तप्त
न हो जाए, कि
उसका मन
ज्वरग्रस्त न
हो, कि वह
ऐसा शांत बना
रहे जैसे
बुद्धत्व को
उपलब्ध हो गया
हो।
इसलिए
जापान और चीन
में योद्धा का
शिक्षण ध्यान
का शिक्षण है।
ऐसा दुनिया
में कहीं भी
नहीं हुआ। और
इसलिए जैसी
कुशलता
जापानियों ने
पाई है युद्ध
की कला में
वैसी कोई जाति
नहीं पा सकी।
छोटी कौम है
जापानियों की, लेकिन
उन्होंने
पहली दफा
उन्नीस सौ
पांच में रूस
को चारों खाने
चित्त कर
दिया। पहली
दफा पूरब के
किसी देश ने
पश्चिम के देश
को युद्ध में हराया।
और दूसरे
महायुद्ध में
भी उन्होंने बड़ी
अदभुत स्थिति
प्रकट की। और
एटम और
हाइड्रोजन बम
अगर न गिराया
जाता तो
जापानियों को
मिटाना
मुश्किल था।
असल में, एटम
और हाइड्रोजन
बम गिरा कर
अमरीका ने कोई
बहादुरी का
लक्षण नहीं
दिखाया। यह तो
कमजोरी की ही
बात हुई। यह
तो ऐसा ही हुआ
कि दूसरे के
पास तलवार न
हो और तुम
तलवार भोंक
दो। यह तो
केवल शस्त्र
की ही खूबी
रही, बहादुरी
की न। और
जापान ने
प्राण कंपा
दिए सारे
यूरोप और पूरे
अमरीका के।
क्योंकि
जापानी जिस
निर्भय से
युद्ध में
जाता है, कोई
दूसरी कौम
नहीं जाती; जिस शांति
से युद्ध में
जाता है, कोई
दूसरी कौम
नहीं जा सकती।
क्योंकि
जापान में एक
शिक्षण है
समुराई का, वह ध्यान का
शिक्षण है।
युद्ध के
मैदान पर तलवार
से भी ज्यादा
महत्वपूर्ण
है ध्यान का
शिक्षण। इतना
शांत, उस
मुर्गे जैसा।
उस शांति से
उसका बल आता
है। उस शांति
से मृत्यु का
कोई अर्थ नहीं
रह जाता।
इसलिए
तुम चकित होगे
कि जापान में
ऐसे बहुत से
मंदिर हैं
जिनमें सिर्फ
तलवार चलाना
सिखाया जाता
है। वे हैं
मंदिर, लेकिन
ध्यान की
प्रक्रिया
तलवार चलाना
है। वे कहते
हैं, तलवार
चलाते वक्त
तुम तलवार ही
हो जाओ, और
तुम इतने शांत
हो जाओ कि
तलवार चले और
तुम न रहो।
फिर तुम्हें
कोई हरा नहीं
सकता। और ऐसी
घटनाएं घटी
हैं कि जब कभी
दो ऐसे
व्यक्तियों
में युद्ध हो
गया, संघर्ष
हो गया, जो
दोनों ही
ध्यान में
निष्णात थे, तो निर्णय
नहीं हो पाता।
महीनों
संघर्ष चलता है,
निर्णय
नहीं हो पाता।
क्योंकि जब
कोई व्यक्ति
बिलकुल शांत
होता है तो
दूसरे
व्यक्ति के हमला
करने के पहले
वह सुरक्षा कर
लेता है। वह इंटयूटिव
है; वह प्रज्ञात्मक
है। जब ध्यान
गहरा हो जाता
है तो दूसरा
व्यक्ति
तलवार से कहां
हमला करने
वाला है--अभी
उसने किया
नहीं है, अभी
सिर्फ सोचा
है--पर उसके
विचार की प्रतिछवि
आ जाती है। और
इसके पहले कि
वह हमला करे, ढाल जगह पर
तैयार होती है;
हमले के
पहले बचाव हो
जाता है। और
तब बड़ा
मुश्किल हो
जाता है। अगर
दोनों ही
व्यक्ति
एक-दूसरे के
विचार पढ़ने
में कुशल हों
तो हार असंभव
है।
एक झेन
फकीर के पास, जो
तलवार चलाना
सिखाता था, एक युवक
आया। और उस
युवक ने कहा
कि मुझे भी
स्वीकार कर
लें शिष्य की
भांति। उस फकीर
ने कहा, लेकिन
तुम, तुम
तो पूर्ण
निष्णात
मालूम होते
हो! तुम्हें शिक्षण
की कोई जरूरत
नहीं। तुम
क्या मुझसे मजाक
करने आए हो या
मेरी परीक्षा
लेने? क्योंकि
मैं देख पा
रहा हूं कि
तुम तो पूरे
कुशल हो। तुम
उतने ही कुशल
हो जितना मैं।
उस युवक ने
कहा, आप यह
क्या कह रहे
हैं? मैंने
कभी तलवार हाथ
में नहीं उठाई,
कोई शिक्षण
नहीं लिया।
नहीं, आपको
कुछ भ्रांति
हो गई। पर उस
गुरु ने कहा, अगर मुझे
भ्रांति हो
जाए तो मैं
गुरु नहीं। तुम
मुझे धोखा
देने की कोशिश
मत करो। तुम
मुझे सच-सच
कहो। उस युवक
ने कहा, लेकिन
मैं सच ही कह
रहा हूं। तो
गुरु ने कहा, तुमने फिर
कुछ और तो
नहीं सीखा है?
उसने
कहा कि मैं
सिर्फ...।
जापान में टी सेरेमनी
होती है, चाय
को पीने को
उन्होंने एक
धार्मिक
उत्सव बना रखा
है। तो उसने
कहा कि मैं तो
सिर्फ चाय पिलाने
की कला में
निष्णात हूं।
तो उस
फकीर ने कहा, बात
साफ हो गई।
कला कोई भी हो,
बात तो एक
ही है। चाहे
तलवार चलाओ, चाहे प्याली
में चाय ढालो,
लेकिन अगर
ध्यान से किया
जाए तो दोनों
एक ही तरह की
बातें हैं; कोई फर्क
नहीं है।
अगर
ध्यानपूर्वक
चाय ढाली जाए
प्याली में, या
ध्यानपूर्वक
कोई तलवार
उठाए, या
ध्यानपूर्वक
कोई तीर चलाए,
या
ध्यानपूर्वक
कोई रास्ते पर
चले--असली
सवाल ध्यानपूर्वक
होना है। और
जब कोई
ध्यानपूर्वक
जीता है तो
उसके जीवन से
क्रोध विलीन
हो जाता है।
क्रोध
इसीलिए है कि
तुम्हें
ध्यान का कोई
पता नहीं।
क्रोध इसीलिए
है कि तुम्हें
अपनी गहराई का
कोई पता नहीं।
तुम अपने घर
के बाहर-बाहर
जी रहे हो, इसलिए
उथले हो। उथलेपन
में क्रोध है।
जैसे नदी गहरी
हो जाती है और
शोरगुल बंद हो
जाता है, जैसे
घड़ा भर जाता
है फिर आवाज
नहीं आती, ऐसे
ही जब कोई
व्यक्ति गहरा
होता है तब
उसके जीवन से
क्रोध विलीन
हो जाता है।
और योद्धा को तो
गहरा होना ही
चाहिए। ऐसे तो
सभी योद्धा
हैं, क्योंकि
जीवन एक
संघर्ष है।
"बड़ा
विजेता छोटी
बातों के लिए
नहीं लड़ता है।'
असल
में,
छोटी बातों
के लिए जो
लड़ता है उसके
जीवन में बड़ा
छोटापन है, बड़ा ओछापन
है। तुमने कभी
गौर किया कि
तुम किन बातों
के लिए लड़ते
हो? अगर
तुम गौर से खोजोगे
तो तुम पाओगे
बातें बड़ी
छोटी हैं, और
लड़ाई बड़ी
मचाते हो। राह
से जाते थे, किसी ने
मुस्कुरा
दिया; दुश्मनी
हो गई। किसी
ने एक शब्द कह
दिया, और
जिंदगी भर तुम
उसको बोझ की
तरह ढोते हो।
तुम लड़ते किन
बातों पर हो? बहुत छोटी
बातें हैं।
विचार करोगे
तो हंसोगे अपने
ऊपर कि यह भी
कुछ लड़ने
योग्य था! और
एक बात स्मरण
रखना। अगर
छोटी बातों के
लिए लड़े तो
छोटे रह
जाओगे। एक बड़ी
प्रसिद्ध
कहावत है अरब
में कि आदमी
अपने दुश्मन
से पहचाना
जाता है। अगर
तुमने छोटे
दुश्मन चुने
तो तुम आदमी
छोटे हो। अगर
तुमने बड़े दुश्मन
चुने तो तुम
आदमी बड़े हो।
तुम किन चीजों
से लड़ते हो? उनसे ही तो
तुम्हारा
व्यक्तित्व
निर्मित होगा।
अगर
तुम बड़ी चीजों
के लिए लड़ते
हो,
तुम अचानक
बड़े हो जाओगे।
और जब यह बात
तुम्हें समझ
में आ जाएगी
तो तुम लड़ोगे
ही नहीं; क्योंकि
इतनी कोई भी
बड़ी चीज नहीं
है कि जिससे
लड़ कर तुम
विराट हो सको।
सभी चीजें
छोटी हैं। कोई
छोटी, कोई
बड़ी, लेकिन
अंततः सभी
चीजें छोटी
हैं। इसलिए
जिसको विराट
के साथ एक
होना है वह असंघर्ष
का सदगुण सीख
लेता है। वह
लड़ता ही नहीं;
वह लड़ने
योग्य ही नहीं
पाता।
जीसस
के वचन हैं, कोई
मारे एक गाल
पर चांटा, दूसरा
कर देना।
इनका
राज क्या है? इनका
राज यह है कि
यह बात लड़ने
योग्य है ही
नहीं। चांटा
ही मार रहा है;
गाल पर ही
मार रहा है; बिगाड़ क्या
लेगा? लेकिन
इससे अगर तुम
लड़ने लगे तो
लड़ाई के द्वारा
तुम इसी की
स्थिति में आ
जाओगे जहां यह
खड़ा है। आखिर
तुम भी क्या
करोगे? दुश्मन
जिसको तुमने
चुना वह तुम्हें
बदल देगा अपने
ही ढंग में।
मित्र इतना नहीं
बदलते जितना
दुश्मन बदल
देते हैं। अगर
लड़ना ही हो तो
किसी बड़ी बात
के लिए लड़ना।
लेकिन
कौन सी बड़ी
बात है जिसके
लिए तुम लड़ोगे? खोजने
निकलोगे तो
पाओगे ही नहीं
कि कोई भी बड़ी
बात है। किसी
आदमी ने गाल
पर एक चांटा
मार दिया; हवा
का एक झोंका
समझ लेना।
लड़ने की क्या
बात है? और
तुम पाओगे, अगर तुम न
लड़े तो तुम
बड़े हो गए, उसी
क्षण बड़े हो
गए; तुम
ऊपर उठे, साधारण
मनुष्यता से
पार गए।
साधारण
क्षुद्र जीवन
की बातों से
ऊपर उठे।
तो
जीसस सूली पर चढ़ते वक्त
भी प्रार्थना
करते हैं, क्षमा
कर देना
परमात्मा
इनको; क्योंकि
ये नहीं जानते
कि ये क्या कर
रहे हैं।
अगर
जीसस ने कहा
होता कि नष्ट
कर देना इन
सबको; ये तेरे
बेटे का जीवन
छीने ले रहे
हैं। तो जीसस
एकदम छोटे हो
गए होते, वहीं
सिकुड़ गए
होते। सारी
बात ही खत्म
हो जाती।
आखिरी कसौटी
सूली पर थी।
उस कसौटी पर
वे पूरे उतर
गए। वही बड़े
से बड़ा चमत्कार
है। उन्होंने
अंधों की
आंखें खोलीं
या नहीं खोलीं,
सब व्यर्थ
की बातचीत है।
लंगड़ों
को चलाया या
नहीं चलाया, कोई हिसाब
रखने की जरूरत
नहीं है।
लेकिन सूली पर
उन्होंने
प्रमाण दे
दिया आखिरी कि
वे निश्चित ही
बेटे परमात्मा
के हैं। वे
इतने बड़े हैं
कि जो सूली पर
लटका रहे हैं
उनको क्षमा कर
सकते हैं।
"अच्छा
लड़ाका
क्रोध नहीं
करता। बड़ा
विजेता छोटी
बातों के लिए
नहीं लड़ता।
मनुष्यों का
अच्छा
प्रयोक्ता अपने
को दूसरों से
नीचे रखता है।
असंघर्ष
का यही सदगुण
है।'
असंघर्ष
शब्द को ठीक से
समझ लो।
हमारे
भीतर एक
वृत्ति है जो
हमें चौबीस
घंटे लड़ाती
है। उस वृत्ति
के कारण हम हर
घड़ी जैसे सचेत
हैं कि कोई
संघर्ष होने
की तैयारी है।
पति घर आता है, तैयार
हो जाता है कि
पत्नी क्या
पूछेगी, वह
क्या जवाब
देगा; पत्नी
क्या कहेगी, वह कैसे
संघर्ष
करेगा। आदमी
बाजार जाता है
तो संघर्ष की
तैयारी है; घर आता है तो
संघर्ष की
तैयारी है।
मित्रों से
मिलता है तो
भी तैयार होकर
मिलता है, जैसे
कि वहां भी
कलह है। हमारे
भीतर कोई
सूत्र है--वह
सूत्र अहंकार
का है--जो हमसे
कहता है कि सब
तरफ लड़ाई चल
रही है, सम्हल
कर चलना, तैयार
होकर चलना, इंतजाम करके
चलना।
क्योंकि
जिन्होंने
इंतजाम नहीं
किया वे हार
जाते हैं। और
इसीलिए तो तुम्हारे
जीवन में इतना
तनाव है; तुम
शांत नहीं हो
सकते।
क्योंकि
संघर्ष जिसकी
वृत्ति है वह
शांत कैसे
होगा?
असंघर्ष को
जो अपनी
वृत्ति बना ले, जीवन
की शैली बना
ले, कि कोई
लड़ाई नहीं हो
रही है, कोई
दुश्मन नहीं
है, सारा
संसार मित्र
है, यह
सारा
अस्तित्व
परिवार है, यहां कोई
तुम्हें
मिटाने को
उत्सुक नहीं
है; जिसके
मन में ऐसा
भाव आ जाए, और
अद्वैत की जो
खोज में लगा
हो, उसके
लिए तो यह भाव
धारा की तरह
है जो सागर
में ले जाएगा।
कोई दुश्मन
नहीं है; फूल-पत्ते,
वृक्ष, आकाश,
चांद, तारे,
सब
तुम्हारे लिए
हैं। इन सबने
तुम्हें
सम्हाला हुआ
है।
और अगर
कभी कहीं जीवन
में कहीं कुछ
कलह जैसी मालूम
पड़ती है तो भी
तुम उसे सर्जिकल
जानना कि जैसे
डाक्टर कभी
तुम्हारे
हाथ-पैर से
फोड़े को काटता
है,
पीड़ा देता
है, लेकिन
पीड़ा देने के
लिए नहीं, पीड़ा
से छुटकारे के
लिए। अगर जीवन
में कहीं तुम्हें
चोट पड़ती है, वह चोट भी
तुम्हारे हित
के लिए है, कल्याण
के लिए है।
बायजीद
एक रास्ते से
गुजर रहा था।
पत्थर से चोट
लग गई; पैर
लहूलुहान हो
गया। वहीं बैठ
कर उसने परमात्मा
से प्रार्थना
की कि
धन्यवाद।
साथियों
ने कहा, क्या
पागलपन है!
पैर से खून बह
रहा है; धन्यवाद
किस बात का दे
रहे हो? इस
परमात्मा का
तुम पर कौन सा
अनुग्रह है? अगर
परमात्मा
इतना ही प्रेम
करता था तो
पत्थर राह से
हटा देना था, या पत्थर को
फूल कर देता, या तुम्हें
खयाल दे देता
कि नीचे पत्थर
है और तुम बच
कर निकल जाते।
बायजीद
ने कहा, तुम
समझते नहीं; सूली भी हो
सकती थी; सिर्फ
इसी चोट से
उसने बचा
दिया। उसके
अनुग्रह का
कोई अंत नहीं
है।
यह
देखने का ढंग
है। सूली भी
हो सकती थी; और
केवल पत्थर की
चोट से बचा
दिया।
धन्यवाद देना
जरूरी है। यह
उस आदमी की
दृष्टि है
जिसने जीवन को
एक परिवार की
तरह देख लिया,
जिसने जान
लिया कि
परमात्मा साथ
दे रहा है। कभी
अगर तोड़ता
भी है तो
इसीलिए कि उस
तोड़ने से
तुम्हें निखार
सके। कभी अगर
कष्ट भी देता
है तो इसीलिए
ताकि तुम्हें
कष्ट के बीच
भी शांत रहने
की क्षमता की
सुविधा दे
सके। कभी अगर
तुम्हें
मारता भी है
तो इसीलिए
ताकि तुम
मृत्यु में भी
जीवन के उठते
हुए रूप का
दर्शन कर सको।
असंघर्ष
बड़े से बड़ा
गुण है। लड़ने
का भाव रोग
है। असंघर्ष,
किसी से कोई
वैमनस्य
नहीं।
महावीर
का बड़ा
प्रसिद्ध वचन
है: वैरं मज्झ न केणई।
किसी से मेरी
कोई शत्रुता
नहीं, सभी से
मेरी मित्रता
है।
किसी
ने महावीर के
कान में खीलें
ठोंक दिए थे।
और महावीर
बिलकुल
निर्दोष थे।
महावीर खड़े थे
मौन। वे बारह
वर्ष मौन रहे
ताकि मन
बिलकुल शांत
हो जाए; शब्द
का उपयोग न
किया। नग्न
खड़े थे एक
जंगल में। एक
चरवाहा अपनी
गायों को चरा
रहा था। उसने
महावीर से कहा
कि अरे सुन--उसने
सोचा खड़ा है
कोई नंगा
आदमी--जरा
मेरी गाय
देखते रहना; मैं जरा काम
से गांव जा
रहा हूं।
अब
महावीर बोलते
तो थे नहीं, इसलिए
कह न सके कि
नहीं भई, मैं
न देख सकूंगा;
मैं अपने
काम में लगा
हूं। आंखें
बंद हैं; बोलते
नहीं थे। चुप
ही खड़े रहे।
बोलते नहीं थे,
इशारा भी
नहीं करते थे।
क्योंकि
इशारा भी बोलना
है। उसमें कोई
सार नहीं, फिर
मौन रहने का
कोई अर्थ
नहीं। वे वैसे
ही खड़े रहे।
वह आदमी मौन
को सम्मति मान
कर कि महावीर
देख लेंगे; या हो सकता
है, गूंगा
हो आदमी; गांव
चला गया। वह
गांव चला गया;
गाएं उठीं
और जंगल में
अंदर चली गईं।
जब वह
आदमी लौटा, वहां
गाएं नदारद
थीं। महावीर
वहीं खड़े थे।
उसने कहा, तो
अच्छा तो बने
तुम साधु खड़े
हो! गाएं
नदारद कर दीं!
गाएं कहां हैं?
और महावीर
मौन हैं, इसलिए
बोल सकते
नहीं। वे वैसे
ही खड़े रहे।
वह इतना क्रोध
में आ गया कि
सुनता नहीं है?
बहरा है? तो अब मैं
तुझे बहरा ही
बनाए देता
हूं। उसने दोनों
कान में दो लकड़ियां
ठोंक कर पत्थर
से अंदर कर
दीं; दोनों
कान फोड़
दिए।
लहूलुहान
महावीर खड़े
हैं।
कथा
कहती है कि
इंद्र को, देवताओं
को पीड़ा हुई
कि इस निर्दोष
आदमी को इतना
कष्ट! अकारण!
ये
कथाएं भी बड़ी
अर्थपूर्ण
हैं। ये इतना
ही कह रही हैं
कि अस्तित्व
भी पीड़ा अनुभव
करता है जब
तुम निर्दोष
होते हो। कोई
देवता वहां
बैठे हैं ऐसा
नहीं, कि कोई
इंद्र वहां
सोच रहा है
ऊपर आकाश में
बैठा। लेकिन
कथा तो
सांकेतिक है;
अस्तित्व
तुम्हारे लिए
पीड़ा अनुभव
करता है जब
तुम निर्दोष
होते हो। जब
पूरा
अस्तित्व
अनुभव करता है
तुम्हारी सरलता
को तब
अस्तित्व भी
पीड़ित होता
है।
इंद्र
ने आकर महावीर
को कहा कि आप
इतनी आज्ञा दें
कि मैं आपकी
रक्षा के लिए
साथ-साथ रहूं।
क्योंकि आप
हैं मौन, और इस
तरह की दुर्घटनाएं
बड़ी पीड़ादायी
हैं। महावीर
ने--यह तो कोई
बाहर की वाणी
की बात नहीं
थी, क्योंकि
वे तो मौन थे, बाहर तो बोल
नहीं सकते थे,
लेकिन भीतर
उनके भाव ने
उत्तर दे दिया,
इंद्र तो
भाव को
समझेगा--उत्तर
दे दिया कि
नहीं, इसके
द्वारा भी
बहुत कुछ मिला
है, इस
पीड़ा से भी
बहुत कुछ पाया
है, क्योंकि
पीड़ा
बाहर-बाहर रही
और भीतर का
आनंद अखंडित
रहा। यह बड़ी
अच्छी
परीक्षा रही;
धन्यवाद है
उस चरवाहे का!
उसने एक अवसर
दिया पीड़ा के
ऊपर उठने का।
तो यह अकारण
नहीं है; इसलिए
रक्षा की कोई
जरूरत नहीं
है।
असंघर्ष का
अर्थ है कि
शत्रुता नहीं
है। यह अस्तित्व
घर है; हम यहां
कोई अजनबी
नहीं हैं। और
अस्तित्व हमारी
सार-सम्हाल रख
रहा है, इसलिए
लड़ना किसी से
भी नहीं है।
और जो आ भी जाए लड़ने
वह भी छिपा
हुआ मित्र ही
है, शत्रु
के भीतर छिपा
हुआ मित्र है।
जीसस
ने कहा है, रेसिस्ट नाट ईविल।
बुराई से भी
संघर्ष मत
करो। क्योंकि
जिससे तुम
संघर्ष करोगे
उसी जैसे हो जाओगे।
संघर्ष ही मत
करो। असंघर्ष
सूत्र हो जाए।
"इसे
ही मनुष्यों
को प्रयोग
करने की
क्षमता कहते
हैं।'
और
लाओत्से कहता
है,
जो असंघर्ष
को उपलब्ध हो
जाता है वह
मनुष्यों का
उपयोग करने
लगता है।
अनजाने सारा
अस्तित्व
उसके लिए
सहयोगी हो
जाता है; सारे
मनुष्य उसके
लिए सहयोगी हो
जाते हैं; वे
उसके चाकर हो
जाते हैं; बिना
जीते वे उससे
हार जाते हैं;
बिना
उन्हें हराने
की कोशिश किए
वह अचानक पाता
है कि सभी
उसके चाकर हो
गए हैं।
"इसे
ही मनुष्यों
को प्रयोग
करने की
क्षमता कहते
हैं। यही है
अस्तित्व की
ऊंचाई को
छूना।'
जब
तुम्हारे
जीवन में कोई
संघर्ष न रहा, एक
मैत्री का
विराट भाव
व्याप्त हो
गया, तो
तुमने
अस्तित्व के
ऊंचे से ऊंचे
शिखर को छू
लिया।
क्योंकि इसी
दशा का नाम
प्रेम है।
"अस्तित्व
का यह ऊंचे से
ऊंचा शिखर, यही है
स्वर्ग का
सखा।'
और इसी
के आस-पास
स्वर्ग बसा
है। प्रेम के
आस-पास बसा है
स्वर्ग। और असंघर्ष
से उपलब्ध
होता है
प्रेम।
"पुरातन
का भी।'
और
प्राचीन में, प्रारंभ
में जहां तुम
थे, जिस
परम आनंद में,
वह भी इसी
के आस-पास है।
प्रारंभ भी
इसी के आस-पास;
अंत भी इसी
के आस-पास।
प्रेम के आस-पास
सारी यात्रा
है। प्रेम
उपलब्धि है और
प्रेम ही
प्रस्थान।
प्रेम ही पहला
कदम है और
प्रेम ही
अंतिम मंजिल।
लेकिन प्रेम
को पाना हो तो असंघर्ष
का जीवन
चाहिए।
महावीर इस
जीवन को
अहिंसा का जीवन
कहते हैं; बुद्ध
करुणा का जीवन
कहते हैं; जीसस
प्रेम का जीवन
कहते हैं; मोहम्मद
प्रार्थना का
जीवन कहते
हैं। पर बात वही
है, सार
प्रेम है। और
प्रेम तभी उदय
होगा, तभी फूटेगा
बीज प्रेम का,
जब तुम असंघर्ष
की भूमि को
निर्मित कर
पाओगे।
अन्यथा
प्रेम का बीज
न फूटेगा।
लड़ने की
वृत्ति से भरे
तुम कैसे
प्रेम कर पाओगे? लड़ने
को आतुर, तो
प्रेम भी घृणा
हो जाएगा, और
प्रेम भी
विषाक्त हो
जाएगा। लड़ने
को आतुर तुम्हारा
ध्यान भी
क्रोध हो
जाएगा। तभी तो
दुर्वासा ऋषि
जैसे लोग पैदा
होते हैं।
लड़ने को आतुर,
तो ध्यान भी
क्रोध हो जाता
है। और जहां
वरदान बरसते,
वहां से
अभिशाप का जहर
बहने लगता है।
संक्षिप्त
में: प्रेम है
प्रारंभ, प्रेम
है अंत। असंघर्ष
की चाहिए भूमि;
उसमें
प्रेम के बीज
को पल्लवित
होने दो। उसी
में
प्रार्थना के
फूल लगेंगे और
उसी में परमात्मा
के फल। और
फलों से ही
वृक्ष पहचाने
जाते हैं। जब
तक तुम
परमात्मा को न
पा लो तब तक
तुम पहचाने न
जा सकोगे कि
तुम कौन हो।
लोग
मुझसे पूछते
हैं कि हम
जानना चाहते
हैं हम कौन
हैं।
तुम तब
तक न जान
सकोगे जब तक
तुम पूर्ण न
हो जाओ, जब तक
तुम अपनी
नियति को न पा
लो। कैसे कोई
वृक्ष जानेगा
वह कौन है, जब
तक बीज वृक्ष
न बन जाए, फूल
न लग जाएं, फल
न लग जाएं।
गंगोत्री में
गंगा अपने को नहीं
पहचान पाएगी।
वह पहचान तो
होगी अंत में,
जहां विराट
हो जाएगा रूप,
मिलन होगा
सागर से।
"दि
ब्रेव सोल्जर इज़ नाट वायलेंट।
दि गुड फाइटर
डज नाट
लूज हिज टेम्पर।
दि ग्रेट कांकरर
डज नाट फाइट ऑन स्माल इसूज।
दि गुड यूजर
ऑफ मेन प्लेसेज
हिमसेल्फ
बिलो अदर्स।
दिस इज़ दि वर्चू ऑफ
नान-कंटेंडिंग;
इज़ कॉल्ड दि कैपेसिटी
टु यूज
मेन; इज़ रीचिंग
टु दि हाइट ऑफ
बीइंग; मेटेड टु हेवन,
टु व्हाट वाज़ ऑफ
ओल्ड।'
आज
इतना ही।
Madarchod baba teri vjh se sampradayikta felti he or khudko baba khtabhe kutte ke pille
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