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मंगलवार, 23 दिसंबर 2014

बिन बाती बिन तेल-(प्रवचन-11)

मृत्यु : जीवन का द्वार—(प्रवचन—ग्‍यारहवां)
दिनांक 1 जुलाई 1974 (प्रातः),
श्री रजनीश आश्रम; पूना.
भगवान!

किसी सौदागर के पास एक हिंदुस्तानी पक्षी था। उसे उसने पिंजरे में बंद रखा था।
जब वह सौदागर दुबारा भारत जाने लगा, तब उसने पक्षी से पूछा
कि तुम्हारे देश से तुम्हारे लिये क्या लाऊं?
पक्षी ने कहा, 'लाना कुछ नहीं, केवल हिंदुस्तान के किसी जंगल में जाना
और वहां के आजाद परिंदों से मेरी कैद का हाल सुनाना।'
सौदागर ने वही किया। लेकिन जैसे ही वह बोला,
एक जंगली पक्षी मूर्च्छित होकर जमीन पर आ गिरा।
सौदागर ने सोचा कि मेरे कारण यह पक्षी मर गया।
जब वह देश लौटा तब उसके पक्षी ने अपने देश की खबर उससे पूछी।

सौदागर ने कहा, खबर बुरी है। तुम्हारा एक रिश्तेदार पक्षी तुम्हारा हाल सुनकर
मेरे पांव पर गिरकर मर गया। यह सुनते ही सौदागर का पक्षी मूर्च्छित हो गया
और पिंजरे की पेंदी में लुढ़ककर गिर गया। सौदागर ने सोचा,
कुटुंब की मृत्यु की खबर से यह भी मर गया है। और उसने उसे पिंजरे से निकाल दिया।
तुरंत ही वह पक्षी जी उठा और स्वतंत्र आकाश में उड़ गया।
कृपया इस कहानी का अर्थ हमें समझायें।


मृत्यु ही जीवन को पाने का द्वार है। और जो मरने को राजी है, वही मुक्त हो सकता है। जिसकी तैयारी है मिटने की, उसे स्वतंत्रता का आकाश मिल जाएगा। इससे कम में सौदा नहीं होगा। और इससे कम में जो सौदा करना चाहता है वह धोखे में पड़ेगा। वह धोखा अपने को ही दे रहा है।
परमात्मा को पाना हो...और परमात्मा यानी मुक्ति; परमात्मा यानी मोक्ष; परमात्मा यानी परम स्वतंत्रता; तो तुम बचे हुए उसे न पा सकोगे। तुम खो जाओ तो ही वह मिलेगा। तुम मिट जाओ तो ही वह महामिलन घट सकता है।
यही है राज इस छोटी-सी कहानी का।
सूफियों ने इसका बड़ा प्रयोग किया है। बड़ी गहरी सूफियों की पकड़ है। और जीवन के परम रहस्य की कुंजियां उन्होंने छोटी-छोटी कहानियों में रख दी हैं। शास्त्र जहां चूक जाते हैं, वहां कहानियां नहीं चूकतीं। बड़े-बड़े सिद्धांतों के तीर लक्ष्य पर नहीं पहुंच पाते, छोटी-छोटी कहानियां हृदय में छिद जाती हैं।
इस कहानी को हम समझने की कोशिश करें। यह कहानी मनुष्य की परतंत्रता और मनुष्य की स्वतंत्रता की कहानी है। इसके एक-एक चरण को खोलें। जैसे कोई प्याज की पर्तों को उघाड़ता है, ऐसे हम इस कहानी को उघाड़ें
खयाल किया होगा: प्याज की पर्तों को कोई उघाड़ता ही जाए तो आखिर में शून्य हाथ आता है। एक पर्त उघड़ती, दूसरी पर्त आ जाती है; दूसरी पर्त उघड़ती, तीसरी पर्त आती है। लेकिन अगर कोई उघाड़ता ही जाए तो अंत में शून्य हाथ लगता है। वही शून्य महामुक्ति है, महामोक्ष!
इस कहानी की भी एक-एक पर्त हम उघाड़ें ताकि इसके भीतर छिपा हुआ शून्य हमारे हाथ में लग जाए। उस शून्य को इस कहानी में आकाश कहा है। और उस शून्य में उड़ जाने की स्थिति को मुक्ति, स्वतंत्रता कहा है।
कहानी का पहला चरण: एक पक्षी बंदी है। अपने देश से बाहर, विदेश में है।
ऐसा ही मनुष्य है। हम जहां भी हैं, विदेश में हैं। यह हमारा घर नहीं। जहां हम ठहरे हैं, वह धर्मशाला हो सकती है, अतिथि-गृह हो सकता है। वहां हम मित्रों के बीच हों या शत्रुओं के बीच हों, वहां हमारा स्वागत हो रहा हो या जबर्दस्ती हम टिके हों एक बोझ की तरह, लेकिन यह घर हमारा नहीं है। हम परदेस में है। और इसीलिये हम बेचैन हैं। और जब तक घर न मिल जाए पुनः तब तक बेचैनी जारी रहेगी।
घर की खोज ही धर्म है।
अमरीका का एक बहुत विचारशील व्यक्ति हुआ, कुलिज। वह अमरीका का प्रेसिडेंट हो गया था। विचारशील लोग मुश्किल से ही कभी ऐसे पदों पर पहुंच पाते हैं। कभी-कभी, लेकिन दुर्घटना घट जाती है। कुलिज अपनी आदत के अनुसार रोज ह्वाइट हाउस के आसपास जो कि प्रेसिडेंट का भवन है, घूमने निकलता था। एक दिन एक अजनबी उसे रास्ते पर सुबह-सुबह मिला। वह अजनबी नहीं पहचान पाया कि यह आदमी कुलिज है, जो इस समय राष्ट्रपति है। और न ही वह अजनबी पहचान पाया सुबह के धुंधलके में कि पास में जो खड़ा हुआ विशाल भवन है, यह राष्ट्रपति का निवास है; ह्वाइट हाउस है।
उसने चलते-चलते पूछा कि आप कौन हैं?
तो कुलिज ने कहा, 'यह तो मुझे भी पता नहीं। इसीकी तलाश में चल रहा हूं। अभी उत्तर पाया नहीं'
अजनबी ने सोचा होगा, झक्की मालूम होता है। छुटकारा पाने के लिये उसने पूछा, 'और यहां जो सफेद मकान है, यहां जो बड़ा मकान है, यहां कौन रहता है?'
तो कुलिज हंसा और उसने कहा, 'यहां कोई रहता नहीं। बस लोग आते हैं और जाते हैं। पीपुल कम एंड गो, नोबडी लिव्ज़ हिअर'
जहां हम हैं, वहां लोग आते हैं और जाते हैं; रहता वहां कोई भी नहीं। यह घर नहीं है, यह पड़ाव है। यह मंजिल नहीं है। यहां क्षणभर को हम विश्राम करने रुके हों तो ठीक है। और अगर हमने यही समझ लिया हो कि यह घर है तो हम भटक गये। झाड़ के नीचे कोई यात्री रुक गया हो छाया में थोड़ी देर यात्रा के कष्ट से बचने को, समझ में आता है; लेकिन छाया में रम जाए और भूल ही जाए कि किस तरफ चला था, क्या खोजने चला था, वहीं घर बना ले, तो भटक गया।
संसार एक पड़ाव है; और पड़ाव पर कभी शांति नहीं हो सकती। थोड़ी देर विश्राम हो सकता है, लेकिन आनंद नहीं हो सकता। और विश्राम का तो इतना ही अर्थ है कि फिर हम श्रम करने को तैयार हुए, फिर यात्रा के लिये पैर तैयार हैं। विश्राम का और कोई अर्थ नहीं है। विश्राम तो बीच की एक कड़ी है। यह कोई लक्ष्य नहीं है, वह कोई सिद्धि नहीं है। कोई बड़ी यात्रा चल रही है। और उस बड़ी यात्रा में हम अपने घर से भटक गये हैं। और जहां भी अपने को पाते हैं, बेघर पाते हैं।
पक्षी बंद है विदेश में, जहां उसका अपना कोई भी नहीं; वह अकेला है।
यहां तुम्हारा कौन अपना है? यहां तुम भी अकेले हो। लेकिन पक्षी इतना चालाक न था, जितने चालाक तुम हो। पक्षी सीधा-सादा था, तुम चालाक हो। जहां तुम्हारा कोई भी नहीं है, वहां भी तुमने नाते-रिश्ते बना लिये हैं। जहां घर नहीं है, धर्मशाला को तुमने घर समझ लिया है और जहां कोई तुम्हारा अपना नहीं है वहां तुमने नाते-रिश्ते बना लिये हैं। तुमने इंतजाम ऐसा कर लिया है कि जैसे तुम अपने घर में ही हो, यह कोई पड़ाव नहीं है। तुम अपनों के ही बीच हो, तुम किसी विदेश में नहीं हो।
क्या हैं हमारे नाते-रिश्ते और हमारे संबंध?
जीसस ने बड़े एक कठोर वचन का प्रयोग किया है। उस कठोर वचन के कारण जीसस की बड़ी आलोचना की गई। बर्ट्रेंड रसेल ने जीसस की आलोचना में उसका बहुत प्रयोग किया है। और कोई भी ऊपर से देखेगा तो लगता है, कि रसेल ठीक है, जीसस गलत हैं।
कहानी है कि जीसस एक भीड़ में घिरे एक बाजार में खड़े हैं और एक आदमी ने भीड़ के भीतर कहा कि जीसस, भीड़ के बाहर तुम्हारी मां तुमसे मिलने की प्रतीक्षा कर रही है। तो जीसस ने कहा, कौन किसकी मां? कौन किसका पिता है? उस स्त्री को कहो, 'टैल दैट वूमन, नोबडी इज़ माई मदर, नोबडी इज़ माई फादर।' उस स्त्री को, उस औरत को कहो, न मेरी कोई मां है और न मेरा कोई पिता।
ये शब्द जरा कठोर मालूम पड़ते हैं। जीसस के ओठों पर तो और भी असंगत मालूम पड़ते हैं क्योंकि जो कहता है, प्रेम ही परमात्मा है और जिसने प्रेम को सार समझा है और जिसने सेवा को आधार बनाया धर्म का, जिसके धर्म की सारी की सारी कीमिया विनम्रता पर खड़ी है, वह आदमी यह कहता है कि इस औरत को कह दो कि कौन मेरी मां? कौन मेरा पिता? और तुमसे मैं कहता हूं, भीड़ से जीसस ने कहा कि जब तक तुम अपनी मां के खिलाफ न हो जाओ और अपने पिता के दुश्मन न हो जाओ तब तक तुम मेरे नहीं हो।
शब्दों में जो भटक जाएंगे, वे रसेल से राजी हो जाएंगे। रसेल का तर्क सीधा-साफ है कि यह आदमी दुष्ट प्रकृति का था। जो अपनी मां को कह रहा है 'इस औरत को!' और इसकी प्रेम की बातें सब बातें हैं। इसकी विनम्रता अहंकार का ही एक रूप मालूम पड़ती है।
जो शब्दों में खो जाएगा वह ऐसा ही समझेगा, लेकिन जीसस कठोर तो नहीं हो सकते। जीसस किसी प्रयोजन से यह कह रहे हैं। जीसस का प्रयोजन यह है कि वह तुम्हें बताना चाहते हैं कि तुम यहां अजनबी हो और तुम्हारा यहां अपना कोई भी नहीं। न तुम्हारी मां मां है, न पिता पिता। और अगर तुम किसी स्त्री से पैदा हुए हो तो यह सिर्फ संयोग है। इसको तुम संबंध मत समझो। यह सिर्फ संयोग है। तुम किसी और स्त्री से पैदा हो सकते थे। न तुमने इस स्त्री को मां की तरह चुना, न इस स्त्री ने तुम्हें बेटे की तरह चुना। यह सिर्फ एक दुर्घटना है। न तो इस स्त्री को पता था कि तुम बेटे की तरह आ रहे हो। न तुम्हें पता है कि तुम इस स्त्री को मां बना रहे हो। अंधेरे में जैसे दो आदमी मिल जाएं और टकरा जाएं; रास्ते पर प्रकाश न हो और कोई साथी हो ले, थोड़ी देर यात्रा साथ चले। बस ऐसी यह यात्रा है। सब अंधेरे में है। सब संयोग है।
कौन तुम्हारा मित्र है? किसको तुम अपना मित्र कहते हो? क्योंकि सभी अपने स्वार्थों के लिए जी रहे हैं। जिसको तुम मित्र कहते हो, वह भी अपने स्वार्थ के लिये तुमसे जुड़ा है और तुम भी अपने स्वार्थ के लिये उससे जुड़े हो। अगर मित्र वक्त पर काम न आये तो तुम मित्रता तोड़ दोगे। बुद्धिमान लोग कहते हैं मित्र तो वही, जो वक्त पर काम आये। लेकिन क्यों? वक्त पर काम आने का मतलब है कि जब मेरे स्वार्थ की जरूरत हो, तब वह सेवा करे। लेकिन दूसरा भी यही सोचता है कि जब तुम वक्त पर काम आओ, तब मित्र हो। लेकिन तुम काम में लाना चाहते हो दूसरे को यह कैसी मित्रता है? तुम दूसरे का शोषण करना चाहते हो; यह कैसा संबंध है? सब संबंध स्वार्थ के हैं।
पिता बेटे के कंधे पर हाथ रखे है, बेटा पिता के चरणों में झुका है, सब संबंध स्वार्थ के हैं। और जहां स्वार्थ महत्वपूर्ण हो वहां संबंध कैसे? लेकिन मन चाहता है; अकेले होने में डर पाता है, इसलिये मन चाहता कि कोई संगी-साथी हो।
संगी-साथी हमारे मन की कल्पना है, क्योंकि अकेले होने में हम भयभीत हो जाएंगे। सब से बड़ा भय है अकेला हो जाना, कि मैं बिलकुल अकेला हूं। तो हम विवाह करते हैं, किसी स्त्री को पत्नी कहते हैं, किसी पुरुष को पति कहते हैं, किसी को मित्र बनाते हैं। थोड़ा-सा एक आसपास संसार खड़ा करते हैं। उस संसार में हमें लगता है कि अपने लोग हैं, यह अपना घर है। लेकिन जो भी थोड़ा-सा जागेगा वह पायेगा कि इस संसार में बेघर-बार होना नियति है। यहां घर धोखा है। हम यहां बेघर हैं।
बुद्ध अपने भिक्षुओं को अनेक नाम दिये हैं, उनमें एक नाम है 'अगृही'--जिसका कोई घर नहीं। इसका यह मतलब नहीं है कि वह किसी घर में, किसी छप्पर के नीचे न रुकेगा। वह तो बुद्ध को भी कभी वर्षा होती है तो छप्पर के नीचे रुकना पड़ता है। कभी धूप होती है तो छप्पर के नीचे सोना पड़ता है।
मतलब यह है कि जिसका यह बोध टूट गया, यह भ्रांति जिसकी मिट गई कि इस संसार में मेरा कोई घर है। पड़ाव हैं, सरायें हैं; लोग आते हैं और जाते हैं लेकिन यहां कोई ठहरता नहीं। तुम नहीं थे तब बहुत लोग यहां थे। तुम नहीं होओगे बहुत लोग यहां रहेंगे। यह भीड़ चलती ही रहती है; यह बाजार भरा ही रहता है। तुम हटे नहीं कि कोई दूसरा तुम्हारी जगह को भर देता है। तुम गये नहीं कि कोई दूसरा तुम्हारे घर को अपना घर समझ लेता है।
एक सम्राट हुआ इब्राहिम; फिर पीछे वह फकीर हो गया। कीमती फकीर हो गया। बड़े सूफियों में उसका नाम है। रात सोया था, तो उसे लगा कि ऊपर छप्पर पर कोई चल रहा है। तो उसने चिल्लाकर पूछा कि कौन नासमझ है? कौन है चोर लुटेरा? छप्पर पर क्या कर रहे हो? पर उस आदमी ने कहा कि तुम्हारे छप्पर से मुझे कुछ लेना-देना नहीं। मेरा ऊंट खो गया है। मैं उसको खोज रहा हूं।
महल के छप्पर पर कहीं ऊंट खोते हैं! इब्राहिम समझा यह आदमी पागल है। लेकिन फिर भी उस आदमी की आवाज में कुछ बल था। और जब उसने कहा कि सो जाओ, तुम्हारे छप्पर से मुझे कुछ लेना-देना नहीं, मैं अपना ऊंट खोज रहा हूं। तो उसकी आवाज में कुछ बात ही और थी। वह आवाज भीतर तक चली गई और रातभर इब्राहिम सो न सका। और सोचता रहा, यह आदमी पागल है या इसका कोई प्रयोजन है? सुबह उसने गांव में आदमी भेजे कि उस आदमी को खोजो, जो रात छप्पर पर ऊंट खोज रहा था। उससे मैं मिलना चाहता हूं। लेकिन उसको खोजना मुश्किल था। उसका कोई नाम-पता नहीं।
लेकिन दोपहर में जब दरबार भरा था, इब्राहिम सिंहासन पर बैठा था, तब उसके पहरेदार आये और उन्होंने कहा कि एक आदमी बड़ा उपद्रव मचा रहा है। और बड़ा बलशाली आदमी है। उसकी आंखों में झांक नहीं सकते और वह जब कड़ककर कुछ कहता है तो छाती धकधका जाती है--वे हिम्मतवर पहरेदार थे--वह डरा देता है।
इब्राहिम ने पूछा, वह कहता क्या है?
पहरेदार ने कहा कि वह कहता है कि इस धर्मशाला में मुझे कुछ दिन रुकना है। और हमने उसको समझाया कि यह राजा का महल है, कोई धर्मशाला नहीं है। उसका निवास है, यह कोई सराय नहीं। सराय बाजार में है, तुम वहां जाकर रुक जाओ। तो वह कहता है, मैं उससे मिलना चाहता हूं, जो इसको अपना निवास समझता है।
इब्राहिम ने कहा, 'उसको छोड़ो मत, उसे जल्दी भीतर लाओ। यह वही आदमी होना चाहिये, जो रात छप्पर पर ऊंट खोज रहा था।' वह आदमी भीतर लाया गया, तो इब्राहिम ने कहा, 'यह क्या बदतमीजी है? तुम मेरे निवास को सराय कहते हो?'
उस आदमी ने कहा, 'बदतमीजी तुम्हारी है, क्योंकि पहले भी मैं आया था, तब एक दूसरा आदमी यही बदतमीजी कर रहा था। तुम नहीं थे तब इस सिंहासन पर; एक दूसरा आदमी यह कहता था, यह मेरा मकान है। उसके पहले भी मैं आया था, तब मैंने एक तीसरे आदमी को पाया था। और मैं तुम्हें भरोसा दिलाता हूं, मैं जब दुबारा आऊंगा, तुम यहां नहीं पाये जाओगे, कोई और दावा करेगा। मैं किसकी मानूं?'
इब्राहिम ने कहा कि वह मेरे पिता थे। और जब तुम उसके पहले आये, वे मेरे पितामह थे। वह फकीर पूछने लगा कि अब वे कहा हैं जिनका यह निवास था? यह घर तो यहां का यहां है? वे कहां हैं? इब्राहिम ने कहा, 'वे तो जा चुके।' लेकिन तब उसकी हिम्मत टूट गई। उस फकीर ने कहा, 'यहां लोग आते हैं, जाते हैं, ठहरते हैं; इसको निवास क्यों कहते हो? मैं इस सराय में कुछ दिन रुकना चाहता हूं।'
इब्राहिम बड़ी हिम्मत का आदमी रहा होगा। वह उठा और उसने कहा कि अगर यह सराय है तो तुम यहां रुको, मैं यहां से जाता हूं। बात तुम्हारी ठीक लगती है। मेरा भी घर न रहा यह, अब मैं घर की तलाश करूंगा। और जब तक घर न मिल जाए, तब तक लौटने का कोई उपाय नहीं। इब्राहिम बड़ा फकीर हो गया। सिद्ध हुआ। उसने घर अपना पा लिया एक दिन।
लेकिन वह घर यहां नहीं है, जहां तुम्हारी आंखें तलाशती हैं। वह घर वहां हैं, जहां तुम्हारी आंखें मुड़ती ही नहीं। यह तो परदेश है, जहां तुम देख रहे हो, सुन रहे हो; लेकिन जहां से तुम देख रहे हो, जहां से तुम सुन रहे हो, वहीं तुम्हारा स्वदेश है।
वह पक्षी परदेश में था। और जब भी कोई परदेश में होगा तो परतंत्र होगा। स्वदेश में न हो तो स्वतंत्र कैसे हो सकते हो? जब तुम स्वयं में नहीं हो तो स्वतंत्रता का क्या अर्थ हो सकता है? जब तुम विदेशियों से घिरे हो, विजातियों से घिरे हो तब तुम गुलाम रहोगे।
अपने ही घर में आदमी निश्चिंत होकर मुक्त हो सकता है। उस घर में, जहां से न तो आना होता है, न जाना होता है; जहां तुम सदा ही रहे हो, जहां तुम सदा ही रहोगे; जो शाश्वत है, जो सनातन है; जो अनादि है और अनंत है।
तुम उस पक्षी की हालत में हो। वह पक्षी तुम्हारा प्रतिनिधि है। पक्षी का मालिक जा रहा था पक्षी के देश को। उस पक्षी से पूछा उसने कि कुछ तुम्हारे सगे-संबंधियों को कोई खबर देनी हो, तुम्हारे मित्र-प्रियजनों को कोई संदेशा पहुंचाना हो, कोई चिट्ठी-पाती, तो कह दो, मैं जा रहा हूं।
यहां दूसरी बात समझ लें। मालिक ही जा सकता है। परतंत्र कहां जाए? कैसे खोजे? मालिक ही खोज सकता है। इसलिये हिंदुओं ने खोजियों को स्वामी कहा है। स्वामी का अर्थ मालिक। संन्यासी को स्वामी का नाम दिया है। जिसकी कम से कम इतनी मालकियत तो है कि वह खोज पर जाएगा।
तुम्हारी इतनी भी मालकियत नहीं कि तुम खोज पर निकलो। तुम तो पिंजरे में बंद हो। तुम तो किसी से कहोगे कि तुम जा रहे हो तो कुछ खबर ले जाना, या कुछ खबर ले आना! तुम खुद नहीं जा सकते। तुम्हारे पंख तो बंद हो गये हैं! इसलिए तुम्हें गुरुओं के पास जाना पड़ता है। किसी मालिक को खोजना पड़ता है, जो स्वदेश की खबर दे। इसलिए बिना गुरु के तुम्हारा काम न चल सकेगा।
यह पक्षी तो पिंजरे में बंद ही रह जाता, लेकिन मालिक इसका जा रहा था...मालिक जा सकता है। तो जब तक तुम किसी अर्थों में मालिक नहीं बनते, तुम भी न जा सकोगे।
इसलिए साधना का पहला सूत्र है: थोड़ी मालकियत उपलब्ध करना।
मालकियत का मतलब यह है कि तुम्हारा मन तुम्हें न चलाये। तुम मन की छाया बनकर न दोहरो, वरन तुम मन के मालिक हो जाओ और मन तुम्हारे पीछे चले। जब तुम मन से कहो, शांत हो जाओ, तो मन शांत हो जाए। जब तुम मन से कहो, विचार करो तो मन विचार करे। जब तुम कहो, निर्विचार हो जाओ तो मन तत्क्षण निर्विचार हो जाए। मन तुम्हारी आज्ञा माने, तो तुम मालिक।
इसलिए ध्यान, साधना का पहला सूत्र है। क्योंकि ध्यान से धीरे-धीरे तुम्हारी मालकियत उभरेगी; अन्यथा तुम पिंजरे में ही बंद रहोगे। मन तुम्हारा पिंजरा है। और तुम भूल ही गये हो। मन की मानते-मानते तुम बिलकुल ही भूल गये हो कि तुम मालिक हो, और तुम आदेश दे सकते हो और मन उसे मानेगा।
एक झेन फकीर लिंची बोल रहा था। एक जिद्दी आदमी, एक उपद्रवी आदमी बीच में खड़ा हो गया और उसने कहा कि तुमने लोगों को भरमा रखा है। तुमने लोगों को मालूम होता है सम्मोहित कर लिया है, हिप्नोटाइज कर लिया है। ये तुम्हारे शिष्य, जो तुम्हें चारों तरफ से घेरे हैं, तुम जो भी कहते हो ये वही करते हैं। कोई मुझे मनवाये! तुम मुझे आज्ञा देकर देखो तब मैं समझूं कि तुम गुरु हो।
लिंची ने कहा, 'मैं जरा कम सुनता हूं, तुम इधर आओ।'
वह आदमी आगे आया। वह आकर बाएं खड़ा हो गया।
लिंची ने कहा, 'बायां कान तो मेरा बिलकुल बेकार है, तुम दाएं आओ।'
वह आदमी दाएं आया।
उसने कहा कि भूल हो गई--लिंची ने कहा, 'दायां खराब है, बायां तो बिलकुल ठीक है, तुम बाएं आओ!' वह आदमी बाएं आया। लिंची ने कहा, 'बैठो! क्योंकि खड़े-खड़े क्या बात होगी?'
वह आदमी बैठा। लिंची ने कहा, 'मैं अपना व्याख्यान शुरू करूं! यह आदमी बड़ा आज्ञाकारी है। जो भी मैं कहता हूं, वही करता है। तू तो बिलकुल अनुयायी होने के योग्य है।' लिंची ने कहा, 'तू तो परम शिष्य हो जाएगा।'
तुम मन को जब तक बाएं न बिठा सको, दाएं न हटा सको तब तक तुम मालिक नहीं हो सकते। और मन बड़ा जिद्दी है। सच तो यह है कि तुम जो भी मन से कहो, उससे उल्टा मन तत्क्षण करके दिखलाता है। क्योंकि मन की मालकियत खोती है अगर तुम्हारी मान ले। तुम कहो बैठो, तो मन खड़ा हो जाता है। ताकि तुम्हें साफ हो जाए कि यह भूल दुबारा मत करना। तुम मना न पाओगे, मैं मानने वाला नहीं हूं।
यह बहुत पुरानी आदत हो गई है। जैसे किसी गुलाम को मालिक धीरे-धीरे-धीरे-धीरे भूल ही गया हो कि वह गुलाम है, और मोह से इतना भर गया हो कि गुलाम जो कहता है, मालिक मानने लगा हो; और अब गुलाम को समझाना मुश्किल है। अनेक जन्मों में तुमने गुलाम को मालिक बन जाने दिया, लेकिन इससे कोई फर्क नहीं पड़ता। तुम एक दफा ठीक से आवाज दोगे, अगर तुमने पूरे प्राणों से आवाज दी, गुलाम वहीं के वहीं ठिठककर खड़ा हो जाएगा। क्योंकि आखिर गुलाम गुलाम है, तुम मालिक   हो। मालकियत खोई नहीं जा सकती। आदतवश तुम भूल सकते हो। लेकिन मालिक जाएगा; गुलाम कहां जाएगा? गुलाम की कोई यात्रा नहीं।
मालिक जा रहा था स्वदेश पक्षी के। तो उस मालिक ने पूछा कि कोई खबर, कोई संदेश तो नहीं ले जाना है तेरे संबंधियों के लिये? निश्चित ही संबंधी स्वदेश में ही हो सकते हैं। यहां तो संबंध नाम-मात्र को है। यहां तो संबंध झूठे हैं। जो तुम्हारा मित्र है आज, कल शत्रु हो सकता है।
पश्चिम के चाणक्य मेक्यावेली ने एक किताब लिखी है: 'दी प्रिन्स' उसमें उसने राजकुमारों और सम्राटों को जो सलाहें दी हैं, उसमें एक सलाह यह भी है कि तुम अपने मित्र को वह मत कहना, जो तुम अपने शत्रु को नहीं कहना चाहते, क्योंकि जो आज मित्र है, कल शत्रु हो सकता है। और तुम अपने शत्रु के संबंध में भी वह बात मत कहना जो तुम अपने मित्र के संबंध में न कहना चाहोगे क्योंकि जो आज शत्रु है, कल मित्र हो सकता है।
इस संसार में नाते-रिश्ते ऐसे बदल रहे हैं, जैसे हवा में कंपते हुए वृक्ष के पत्ते। कब दिशा बदल लेते हैं, हवा पर निर्भर है। खुद की कोई दिशा नहीं है। जो आज पत्नी है, कल तलाक दे सकती है, शत्रु हो सकती है। जो आज बेटा है, कल हत्या कर सकता है, हत्यारा हो सकता है। यहां कौन तुम्हारा है? परदेश में कोई किसी का हो भी नहीं सकता। यहां सभी संबंध छाया जैसे हैं। जैसे दो आदमी खड़े हों और उन दोनों की छायाएं मिल रही हैं। वह कोई संबंध है? वे आदमी हटे कि छायाएं हट जाएंगी। छायाओं का कोई मिलन थोड़े ही होता है!
प्लेटो ने, यूनान के बहुत बड़े विचारक ने कहा है कि यह जगत छाया की तरह है। असली जगत कहीं और है। यह जगत प्रतिबिंब है। जैसे कोई नदी के किनारे खड़ा है, तो पानी में प्रतिबिंब बनता है, ऐसे ही इस जगत में प्रतिबिंब बन रहे हैं। वे प्रतिबिंब आपस में मिलते भी हैं, लेकिन उनका मिलना वास्तविक नहीं क्योंकि वे छायाएं हैं। ऊपर इस जगत के विपरीत कोई और जगत भी है। उस जगत में ही मिलन होता है। इस जगत में तो नाममात्र का खेल है। यहां तो लोग खेल खेल रहे हैं। यहां तो दोस्ती एक खेल का नाम है, दुश्मनी दूसरे खेल का नाम है। और यहां बदलने में क्षण नहीं लगता। यहां सभी चीजें परिवर्तनशील हैं। हेराक्लतु ने कहा है कि एक चीज को छोड़कर सभी चीजें बदलती हैं; वह एक चीज परिवर्तन है। वह भर नहीं बदलता बाकी सब बदल जाता है। तो उसके न बदलने का क्या मतलब है? परिवर्तन सिर्फ स्थिर मालूम होता है, बाकी सब चीजें अस्थिर हैं।
मालिक ने पूछा कि जा रहा हूं तेरे देश; कोई खबर तो नहीं ले जानी है? पक्षी निश्चित बुद्धिमान रहा होगा। उसने खबर नहीं भेजी। उसने कहा, 'बजाय खबर ले जाने के, सिर्फ मेरी दशा वहां बता देना।' बड़ा बुद्धिमान रहा होगा।
तुमसे अगर कोई कहे कि जा रहा हूं मैं तुम्हारे देश, कोई खबर ले जानी है? तुम लंबी चिट्ठी लिखकर रख दोगे। उसने बड़ी सार की बात कही। और क्या खबर है? इतनी ही खबर है कि मैं यहां कारागृह में बंद हूं, पिंजरे से घिरा हूं, खुला आकाश छिन गया, पंख व्यर्थ हुए जा रहे हैं। उड़ना भूलता जा रहा हूं। जिंदगी एक दुख और बोझ है। इतनी खबर वहां दे देना। चले जाना जंगल में और जहां मेरे मित्र, परिचित हैं, जहां मेरे सगे संबंधी हैं, जोर से चिल्लाकर कह देना कि ऐसी-ऐसी घटना घटी है। तुम्हारा साथी बंद है विदेश में।
पक्षी ने बड़ी होशियारी की। यह खबर उसने भेजी कि शायद कोई पक्षी जानता हो स्वतंत्र होने का राज़। शायद किसी को तरकीब पता हो। शायद कोई पहले परतंत्र रह चुका हो और देश वापिस लौट गया हो। शायद कोई इस मुसीबत से गुजर चुका हो और उसके हाथ में कुंजी हो। शायद कोई गुरु मिल जाए।
गुरु का इतना ही अर्थ है, जो कभी परतंत्र था और अब स्वतंत्र है। तुम जहां हो, जो कभी वहीं खड़ा था और अब वहां नहीं है। जो छायाओं के जगत से वास्तविकता के जगत में पहुंच गया। जिसकी सराय हट गई और जिसका घर आ गया। लेकिन वही तुम्हारा गुरु हो सकता है।
यह बहुत मजे की बात है, परमात्मा सीधा तुम्हारा गुरु नहीं हो सकता, क्योंकि उसने कभी कोई परतंत्रता नहीं जानी। इसलिए स्वतंत्रता की कुंजियां तुम्हें उसके पास न मिलेंगी। परमात्मा तुम्हें मिल भी जाए और तुम उससे पूछो भी तो वह तुम्हारी स्थिति न समझ सकेगा। तुम उससे कितना ही कहो, मैं परतंत्र हूं, बड़ी मुसीबत में हूं, कोई तरकीब बताओ, परमात्मा तुम्हें कोई तरकीब न बता सकेगा।
क्योंकि परमात्मा किसी सराय में कभी ठहरा नहीं। वह घर में ही है।
इसलिए एक धारणा सभी धर्मों ने पैदा की, परमात्मा खुद जवाब नहीं दे सकता। तो परमात्मा का बेटा जीसस पैदा होता है! यह सिर्फ एक कहानी है। लेकिन जीसस के पैदा होने का अर्थ है, पहले जीसस मनुष्य बनते हैं। पहले वे परतंत्रता से गुजरते हैं, पिंजरे में कैद होते हैं, तभी स्वतंत्रता खोजी जा सकती है।
हिंदुओं की अवतार की धारणा है। परमात्मा सीधा उत्तर क्यों नहीं देता? क्या जरूरत है राम, कृष्ण की? आत्मा से सीधा सवाल क्यों नहीं आता? जैन कहते हैं, तीर्थंकर से सवाल का जवाब आयेगा। बौद्ध कहते हैं, बुद्ध उत्तर देंगे।
 अस्तित्व उत्तर क्यों नहीं देता? पूछो आकाश से, उत्तर क्यों नहीं देता? आकाश उत्तर नहीं दे सकता क्योंकि आकाश कभी पिंजरे में बंद नहीं रहा। उत्तर वही दे सकता है, जो तुम्हारी मुसीबत से गुजरा हो। चाभी उसी के पास हो सकती है जो मुसीबत में भी रहा हो और बाहर भी हो गया हो। उस कैदी से पूछो जेल के बाहर निकलने का राज जो दीवाल पर छलांग लगाकर निकल गया। जो बाहर ही हैं, उनसे जेल के बाहर निकलने का राज तुम न पता न लगा सकोगे।
इसलिए गुरजिएफ कहता था, 'उस कैदी की तलाश करो, जो किसी तरह जेल के बाहर निकल गया है। वही तुम्हारा गुरु है।' जो जेल के बाहर हैं वे तुम्हें मिल भी जाएं तो तुम्हें किसी काम के नहीं हैं। क्या बतायेंगे तुम्हें? क्योंकि उन्हें पता ही नहीं कि जेल क्या है? उन्हें पता नहीं है कि कितनी ऊंची दीवालें हैं? उन्हें पता नहीं है कि कितने मजबूत पत्थरों की दीवालें हैं। उन्हें पता ही नहीं है कि कितना मजबूत पहरा है। उन्हें पता नहीं है कि कहां से निकलने का उपाय हो सकता है। जो निकल गया है कारागृह के बाहर उसे पकड़ो, वही तुम्हारा गुरु है।
तो उस पक्षी ने कहा कि तुम जंगल में जाकर चिल्ला देना कि मेरी ऐसी दशा है। और कुछ कहना नहीं है। और कुछ कहने को भी नहीं है। सोचा उसने कि अगर कोई जानता होगा राज, तो किसी न किसी तरह खबर आ जाएगी।
गया यह आदमी। जंगल में जाकर जहां उसने देखा कि उस पक्षियों के जाति-बिरादरी के लोग वृक्षों पर बैठे थे, चिल्लाकर उसने कहा कि सुनो! तुम्हारी जाति का, तुम्हारे जगत का एक पक्षी, तुम जैसा एक पक्षी कारागृह में बंद है, पिंजरे में बंद है। उसने अपने दुख की, पीड़ा की खबर भेजी है।
यह सुनते ही एक पक्षी तत्क्षण वृक्ष से नीचे गिर पड़ा, मर गया!
आदमी तो बड़ा दुखी हुआ कि यह भी मैं कैसी खबर लाया--अपशकुन! क्या इतनी पीड़ा हो गई इस सगे-संबंधी को? शायद पति रहा हो, पत्नी रहा हो, मित्र रहा हो। इतनी पीड़ा कि खबर पाकर कि अपना कोई बंद है, यह मर ही गया! धक्का लग गया।
आदमी भी बेचैन हो गया। लेकिन अब तो कुछ किया नहीं जा सकता था। घटना घट गई थी। वह वापिस लौटा। उदासी से उसने जाकर पक्षी को कहा कि जब मैंने तेरी खबर दी और जब मैंने तेरे दुख की कथा कही तो बड़े दुख का समाचार है कि एक पक्षी तत्क्षण वृक्ष से नीचे गिरकर मर गया। मुझे बड़ी पीड़ा हुई। लेकिन जब यह कह रहा था तभी उसने देखा कि उसका खुद का पक्षी पिंजरे में गिरकर मर गया।
यह तो कुंजी थी, जो गुरु ने भेजी थी। और गुरु शब्दों से नहीं दे सकता था, आचरण से ही दे सकता था। शब्द क्या देंगे? गुरु आचरण से दे सकता है। गुरु ने व्यवहार कर के कुंजी दे दी। बड़ा होशियार पक्षी रहा होगा, बड़ी मजबूत कारागृह से छूटा होगा। और यही तरकीब उसने अखत्यार की होगी, जो तरकीब उसने भेजी। मर गया होगा पिंजरे में। और जब कोई मर जाता है तो मरे को तो कोई कैद नहीं करता, जिंदा को कैद किया जाता है। मरे को तो कोई कैद नहीं करता।
इसलिये लाओत्से ने कहा है, 'मरे हुए की भांति हो जाओ, फिर तुम्हें कोई कैद न करेगा।'
इसलिये उपनिषद कहते हैं, जीते जी मुर्दा हो जाओ, फिर तुम्हें कोई बांधेगा नहीं। क्योंकि मुर्दे को तो लोग जलाने ले जाते हैं, बांधता कौन है? बांधते तो तुम्हें इसलिए हैं कि तुम जिंदा हो।
और लाओत्से ने यह भी कहा है कि तुम जितने ज्यादा जिंदा दिखाई पड़ोगे, उतने ज्यादा मुसीबत में पड़ोगे; क्योंकि उतने ज्यादा लोग तुम्हें बांधेंगे। तुम जितने ज्यादा सुंदर हो, उतनी झंझट में पड़ोगे, उतने ज्यादा लोग तुम्हें बांधेंगे। तुम जितने बुद्धिमान हो उतना तुमने मुसीबत को निमंत्रण दिया, क्योंकि उतने ज्यादा लोग तुम्हें बांधेंगे। तुम मुर्दा हो जाओ--न बुद्धि है, न रूप है, कुछ भी नहीं है। तुम नाकुछ हो फिर तुम्हें कोई नहीं बांधेगा। लाओत्से और उसका अनुयायी च्वांगत्से ऐसी बहुत सी कहानियों में रस लेते हैं।
एक जंगल से लाओत्से गुजर रहा है, वहां सारे वृक्ष काटे जा रहे हैं, सिर्फ एक वृक्ष नहीं काटा जा रहा है। वृक्ष बड़ा है। हजार बैलगाड़ियां उसके नीचे रुक जाएं ऐसी उसकी छाया है।
लाओत्से ने कहा, इस वृक्ष से जाकर पूछो कि तेरा राज क्या है? जब सब कट गये, तू कैसे बचा? शिष्यों ने कहा, वृक्ष क्या जवाब देगा? लाओत्से ने कहा, फिर भी तुम पूछो, पता लगाओ। इन मजदूरों से पूछो, जो दूसरे वृक्षों को काटे जा रहे हैं, जंगल साफ किया जा रहा है।
शिष्य गये। उन्होंने मजदूरों से पूछा। उन्होंने कहा, 'वह वृक्ष किसी काम का ही नहीं। बिलकुल ऐसा बेकाम वृक्ष दुनिया में खोजना मुश्किल है। उसके पत्ते जानवर चरते नहीं, उसकी शाखाएं ऐसी टेढ़ी-मेढ़ी हैं कि उनसे कुछ भी नहीं बनाया जा सकता। और उसकी शाखाओं को अगर जलाओ तो ऐसा भयंकर धुआं उठता है कि घर में रहना मुश्किल हो जाए, इसलिए उसको जलाया भी नहीं जा सकता। न उसका तुम ईंधन बना सकते हो, फर्निचर; न पत्ते वृक्ष के किसी के खाने में काम आते हैं। ऐसा बेकार वृक्ष पृथ्वी पर है ही नहीं, इसीलिए बचा है।'
 लाओत्से ने कहा, 'समझ लो, अगर तुम्हें भी बचना हो तो बिलकुल बेकार हो रहो। यह वृक्ष के पास कुंजी है; इससे सीख लो। सब जब काटे जा रहे हैं, तब यह देखो आकाश में कैसा फैल रहा है उन्मुक्त! इसे कोई भय नहीं। जो सीधे थे वे सबसे पहले काट दिये गये। जो सुंदर थे, सुडौल थे, उनका  फर्निचर बन चुका है। जो धनी थे और अकड़े थे आकाश में, अब उनको कहीं भी खोजना आसान नहीं है। तुम इस वृक्ष की भांति होते रहो, हो रहो; तभी तुम्हारा जीवन खिलेगा, फूलेगा
लाओत्से एक गांव से गुजरा और उस गांव में लोग पकड़े जा रहे थे क्योंकि राज्य युद्ध में उलझा था और हर जवान, शक्तिशाली आदमी को पकड़ा जा रहा था। सिर्फ एक आदमी जो कुबड़ा था, वह भर छोड़ दिया गया था। लाओत्से ने कहा, इस कुबड़े से पूछो, 'तेरे बचने की तरकीब क्या है?' उस कुबड़े ने कहा, 'चूंकि मैं कुबड़ा हूं, मैं किसी काम का नहीं। मेरी कमर झुकी है।' लाओत्से ने कहा, 'सीख लो। अगर कमर सीधी रखी, काटे जाओगे बकरों की तरह युद्ध के मैदान पर। यह कुबड़ा बच गया है। यह किसी काम का नहीं है। बेकाम हो रहो।'
लेकिन बेकाम तो तभी तुम पूरी तरह हो पाओगे, जब तुम मुर्दे की भांति हो। नहीं तो थोड़ा न बहुत काम रहेगा। थोड़ा न बहुत काम बचेगा ही। कुबड़ा भी किसी न किसी काम में लगाया जा सकता है। और यह बेकार वृक्ष का भी कोई न कोई उपयोग खोजा जा सकता है। पड़ोसियों को सताने के लिये धुआं करना हो, कि मच्छर भगाने हों, कोई न कोई रास्ता खोजा जा सकता है इस वृक्ष के लिये भी। जब तक तुम हो तब तक कुछ खतरा है; लेकिन जब तुम नहीं हो तब कोई खतरा नहीं है, तब तुम खतरे के बाहर हुए।
यह पक्षी पिंजरे में रह चुका होगा और मरकर बाहर हुआ। मरने में इसने कुंजी पाई। जब तक न मरा, तब तक बंद रहा। जिंदगी छोड़ दी, पिंजरा छूट गया, यह मृतवत हो गया।
संन्यास की परिभाषा है: संसार में मृतवत हो जाना। फिर तुम्हें कोई पकड़ेगा नहीं; फिर तुम्हें कोई बांधेगा नहीं।
कौन मुर्दे को बांधता है? मुर्दे को लोग घड़ी भर घर में नहीं रखते। यहां मरा नहीं कि वहां उसको उठाने की तैयारी कर देते हैं। जल्दी लकड़ी बांधी जाने लगती है, अर्थी तैयार होने लगती है। घर के लोग तो घर के लोग, पास-पड़ोस के लोग जो कभी किसी काम नहीं आए, वे जल्दी से बांस वगैरह इकट्ठा करके तैयारी करने लगते हैं, क्योंकि घर के लोग रोने-धोने में लगे हैं, जल्दी करनी है। तुम बंधे और चले!
 यह पक्षी जानता था कुंजी; लेकिन इस कुंजी को कैसे पहुंचाये? क्योंकि पहुंचाने वाले के हाथ कुंजी विकृत हो सकती है। माध्यम कुंजी को नष्ट कर सकता है। शब्द माध्यम है; आचरण, 'इमिजिएट' है, सीधा है। अगर यह शब्दों से कहता तो यह आदमी के हाथ में शब्द पड़ जाते। फिर यह शब्दों में से कितना छोड़ता, कितना बचाता, कैसी व्याख्या करता, मुश्किल था! क्या खबर पहुंचती, कहना मुश्किल है।
शास्त्रों से जो खबर गुरुओं ने पहुंचाई है, वह तुम तक पहुंची नहीं है। यह आदमी अगर सुनकर ले जाता तो शास्त्र बन जाता। यह संदेश पहुंच नहीं सकता था। इसलिए गुरुओं ने दो तरह से संदेश भेजा है। एक तो शास्त्रों से भेजा है, जो नहीं पहुंचा। वह कोशिश असफल गई। दूसरा स्वयं दिया है--आचरण से, अपने होने से, अपने होने के ढंग से; वही पहुंचा।
लेकिन वह होने का ढंग तो तभी पहुंच सकता है, जब गुरु मौजूद हो। इसलिए जब तक जीवित गुरु मिले, तब तक शास्त्र में भटकना ही मत। जब जीवित गुरु न मिल सके तभी शास्त्र में भटकना। जीवित गुरु के सामने शास्त्र दो कौड़ी का है। वह न हो तो शास्त्र का कोई उपयोग है। तब फिर टटोलना, अंधेरे में खोजना। लेकिन जिंदा अगर ले जाने को तैयार हो, तब रामायण और गीता पढ़ते मत बैठे रहना; क्योंकि तुम चूक रहे हो।
माध्यम से खबर भेजी जाए तो विकृत हो जाती है।
वह पक्षी गिर पड़ा वृक्ष से। यह आदमी अब इसमें कुछ भी बदल न सका। आचरण सीधी चोट करता है। यह आदमी अवाक रह गया। उस अवाक क्षण में इसके विचार भी चुप हो गये होंगे, जब पक्षी मरकर गिरा। एक क्षण को यह ध्यानस्थ हो गया होगा। पक्षी बड़ा ही होशियार था। उसने इस माध्यम का ठीक उपयोग किया। एक क्षण को जब पक्षी मरकर वृक्ष से गिरा होगा तो इसके विचार रुक गये होंगे क्योंकि घटना इतनी आकस्मिक थी! पक्षी कुछ कहता तो इस आदमी के विचार चलते रहते। यह सुनता; लेकिन इसके विचार उसमें मिश्रित हो जाते। शुद्ध 'की' न पहुंच पाती, शुद्ध कुंजी न पहुंच पाती। और कुंजी अगर जरा भी इरछी-तिरछी हो जाए तो ताले नहीं खोलती। कुंजी तो ताला तभी खोल सकती है--जब बिलकुल वैसी ही पहुंचे, जैसी दी गई। उसमें रत्ती भर भेद नहीं चाहिये क्योंकि ताला बड़ा सूक्ष्म है।
पक्षी गिरा।
यह आदमी अवाक रह गया। इसको धक्का भी लगा कि यह मैंने कौन-सी बात कही! कैसा अपशकुन अपने हाथ लिया! यह मृत्यु का जिम्मा मेरा हुआ, मैं हत्यारा बना--अकारण!
वापिस लौटा, पर इसे खयाल भी न आया कि इसके माध्यम से एक कुंजी भेजी जा रही है। इसे पता भी न चला। पता चलने का कोई कारण भी नहीं था। क्योंकि न कुछ कहा गया था, न कुछ सुना गया था। शब्द कहे होते तो यह संदेश समझता। आचरण भेजा जा रहा था। यह उसे खयाल में भी नहीं आया। यह कल्पना में भी नहीं उठा। तुम्हारी कल्पना में भी नहीं उठता। अगर उसको खयाल में आ जाता तो शायद वह खुद भी मुक्त हो जाने की कुंजी पा जाता।
 अकसर ऐसा ही होता है कि सदगुरु ऐसे माध्यमों का उपयोग भी करता है, जिनको खुद भी पता नहीं चलता कि वे कुंजी ले जा रहे हैं; कि उनकी कुंजी किसी के जीवन की मुक्ति का द्वार खोल देगी। वे कुंजी के वाहक हैं, लेकिन खुद किसी द्वार को नहीं खोल पाते। ऐसा बहुत बार हुआ है।
महावीर के गणधर हैं, उनके शिष्य हैं, जिनके माध्यम से उन्होंने कुंजियां फैलाईं; लेकिन उनमें उनका खास शिष्य गौतम अंत समय तक भी अज्ञानी रहा। और वह सबसे कुशल था संदेशवाहक। महावीर जो संदेश उससे भेजते, वह शुद्ध पहुंच जाता। लेकिन अपनी कुंजी, अपने ताले को वह नहीं खोल पाया। यही इस आदमी के साथ हुआ।
ऐसा बहुत बार हुआ है। रामकृष्ण ने विवेकानंद के हाथ कुंजी भेजी सारी दुनिया में। कुछ लोगों ने उस कुंजी से ताले खोले, लेकिन विवेकानंद नहीं खोल पाये अपना ताला। उन्हें पता ही नहीं चला कि क्या हो रहा है।
यह कहानी बड़ी अदभुत है। उस आदमी को स्मरण भी न रहा, अनुमान भी न लगा, विचार भी न उठा कि कुछ उसके द्वारा भेजा जा रहा है। भेजनेवाला इतना कुशल है। अगर कुंजी कहकर दी जाए तो उसमें फर्क पड़ जाएंगे। अगर कुंजी कहकर दी जाए कि सम्हालकर रखना तो यह आदमी उसे खो भी सकता है। क्योंकि जब तुम किसी चीज को बहुत सम्हालते हो तो खोने का डर पैदा हो जाता है। जब तुम किसी हीरे को तिजोरी में रखते हो तो चोरी हो जाता है। इसलिए जो बहुत बुद्धिमान हैं, वे हीरे को कचरे की टोकरी में रख देते हैं; वहां से कभी चोरी नहीं जाता। कचरे की टोकरी में कौन फिक्र करता है? तिजोरी...।
यह आया वापिस। पक्षी प्रतीक्षा कर रहा था। इसने कहा कि बड़ी अनूठी बात हो गई। भरोसा नहीं आता, दुखद घटना घटी है। तेरा कोई प्रेमी, तेरा कोई संबंधी अपना कोई निकट का रिश्तेदार, जब मैंने जंगल में जाकर कहा कि तुम्हारा एक साथी ऐसा-ऐसा पिंजरे में बंद है, पीड़ा में है, परतंत्र है, सुनते ही इतना दुखी हो गया--यह इसकी व्याख्या है--कि सुनकर इतना दुखी हो गया कि दुख में उसका प्राणांत हो गया। वह गिरा और मर गया।
लेकिन जब वह यह कहने में संलग्न था, तभी उसने देखा कि उसका खुद का पक्षी पिंजरे में गिरकर मर गया। पिंजरे की तलहटी में पड़ा है निष्प्राण। फिर भी वह न समझ पाया।
वाहक अकसर नहीं समझ पाते। पंडित शास्त्रों को ढोते हैं सदियों तक और नहीं समझ पाते। पंडित एक पीढ़ी से दूसरी पीढ़ी तक संदेश पहुंचा देते हैं, और उनके ताले बंद रहते हैं। वे कारागृह में रह जाते हैं।
फिर भी नहीं समझ पाया। तब भी उसने यही समझा कि यह बात ही कुछ गड़बड़ है। यह कहना ही उचित नहीं हुआ। इसका सगा-संबंधी वहां मर गया, उसके मरने की खबर सुनकर यह मर गया। यह मुझे बात ही नहीं उठानी थी। लेकिन जब पिंजरे में पक्षी मर गया तो खोलने के सिवाय कोई उपाय न था। पिंजरा उसने खोल दिया। खोलते ही वह हैरान हुआ, पक्षी फड़फड़ाया, आकाश की तरफ उड़ गया।
यह स्वतंत्रता का राज था। पक्षी समझ गया कि क्या है उपाय। पक्षी को नहीं बांधा हुआ है, यह वह समझ गया; पक्षी के जीवन को बांधा हुआ है। यह जो पिंजरा है, यह पक्षी के जीवंतता के लिये है, पक्षी के लिये नहीं है। पक्षी अगर मर जाये तो यह पिंजरा खतम हो जाता है। जिसने दरवाजा बंद किया, वह खुद ही खोल देगा। यही सूत्र है।
इस पिंजरे में जहां तुम हो, इस परतंत्रता में जहां तुम बंद हो, इन जंजीरों में जिनमें तुम घिरे हो, ये जंजीरें तुम्हारी जीवंतता के लिये हैं। तुम निष्प्राण हो रहो, इसी क्षण जिसने तुम्हें बांधा है, वे तुम्हारा द्वार खोल देंगे। फिर खुला आकाश तुम्हारा है। मृतवत हो रहो, अगर परम जीवन पाना है।
इसलिए जीसस कहते हैं, 'जो बचायेगा अपने जीवन को, वह खो देगा। जो खोने को राजी है, उसका जीवन बच जाएगा।'
अगर तुम बचाओगे, तुम पिंजरे में रहोगे। तुम अपने ही हाथ लुटा दो, पिंजरा बेकार हो जाता है।
मृतवत हो जाने का क्या अर्थ हो सकता है?
मृतवत हो जाने का अर्थ है, तुम्हारी कोई वासना न हो, तुम्हारी कोई चाह न हो। क्योंकि चाह जीवन का पर्याय है, वासना जीवन का पर्याय है। जब तक तुम मांगते हो, चाहते हो, तब तक तुम जीवित हो। मुर्दा में और तुम में फर्क क्या है? क्योंकि मुर्दा कुछ मांगता नहीं; उसकी कोई चाह नहीं। मुर्दे में और तुममें फर्क क्या है? कि मुर्दा जहां है, वहीं रहता है, तुम यात्रा करते हो। तुम्हारी आकांक्षा तुम्हें भविष्य में दौड़ाती है। मुर्दा वर्तमान में है, तुम भविष्य में हो; बस यही फर्क है। श्वास चलने न चलने से किसी के जीवित और मुर्दा होने का सवाल नहीं है। जिस व्यक्ति की वासना मिट गई वह मृतवत हो गया।
इसलिये जो लोग जीवन के पक्षपाती हैं--जैसे नीत्शे; नीत्शे कहता है कि भारतीयों की बात भूलकर भी मत सुनना। बुद्ध और महावीरों से दूर रहना क्योंकि ये खतरनाक लोग हैं। इनका खतरा यह है, वह कहता है कि अगर तुमने इनकी बात मानी तो तुम मृतवत हो जाओगे। तुम मर जाओगे। और जीवन है जीवन के लिये। 'अगर तुम्हें जीना है तो मेरी सुनो।' नीत्शे कहता है, 'फैलाओ अपनी वासना को, जितनी फैला सको। बढ़ाओ अपनी आकांक्षा को, जितनी बढ़ा सको। तुम्हारी महत्वाकांक्षा क्षितिज को छू ले और उसके भी पार निकल जाए। तुम रुकना मत अपनी वासना में, तो ही तुम जी सकोगे।' वह भी ठीक कह रहा है। क्योंकि वह दूसरा पहलू है। अगर जीना है तो महत्वाकांक्षा को फैलाओ।
लेकिन जितनी बड़ी महत्वाकांक्षा होती है, उतना ही छोटा पिंजरा हो जाता है। इसलिए सम्राट जिस बुरी तरह कैद होता है, भिखारी उस बुरी तरह कैद नहीं होता। सम्राट का महल अपने ही हाथ से बनाया हुआ कारागृह है। सम्राट के महल में और कारागृह में इतना ही फर्क है कि कारागृह में हम सिपाही को खड़ा करते हैं ताकि भीतर का आदमी बाहर न चला जाए। सम्राट के महल में सिपाही को खड़ा करते हैं ताकि बाहर का आदमी भीतर न चला जाए। बाकी सिपाही खड़ा है और कारागृह बराबर है। फर्क इतना ही है कि यह खुद का बनाया कारागृह है; इसलिए सम्राट को समझ में आता है कि मैं गुलाम हूं। कारागृह जब दूसरे बनाते हैं, तब तुम्हें समझ में आता है तुम गुलाम हो। जब तुम खुद ही बनाते हो तो मेहनत भी करते हो, गुलाम भी हो जाते हो। पिंजरे तुम खुद ही ढालते हो। तुम्हारी महत्वाकांक्षाएं तुम्हारे पिंजरे बन जाती है।
नीत्शे भी ठीक कहता है, वह दूसरा पहलू है। वह बात तो ठीक ही कह रहा है। बुद्ध के विपरीत नहीं है बात, अगर समझो तो ठीक वही है। नीत्शे कह रहा है, 'अगर तुम जीवन को चाहते हो तो बढ़ाओ आकांक्षा को, महत्वाकांक्षा को। और तनाव से घबड़ाओ मत, तनाव तो जीवन का हिस्सा है। अशांति से बेचैन मत होओ क्योंकि अशांति के बिना तो तुम मर जाओगे। जीवन अशांति है। शांति की कामना मत करो क्योंकि शांति तो केवल मरे हुए को मिल सकती है। जब तक जी रहे हो तब तक कैसे तुम शांत होओगे?
और नीत्शे कहता है, 'जितनी बड़ी तुम्हारी महत्वाकांक्षा, उतनी जीवन की ऊर्जा तुम्हारे भीतर बहेगी। तुम मृत्यु को मानो ही मत। तुम शाश्वत जीवन को चाहो--फार एवर...फार एवर। जो सदा चलता रहे, ऐसे जीवन की आकांक्षा करो। मृत्यु को मानो ही मत। और अपने जीवन के लिये अगर तुम्हें दूसरों को मिटाना पड़े तो भय मत करो, मिटाओ। क्योंकि जीवन सदा दूसरे के जीवन पर जीता है।'
नीत्शे की बात मानकर हिटलर पैदा हुआ; वह नीत्शे का शिष्य। तो उसने लाखों लोग काट डाले। दूसरे को मिटाओ क्योंकि यही तुम्हारे जीवन का ढंग है। बड़ी मछली छोटी मछली को खा जाती है। बड़ा वृक्ष छोटे वृक्ष को सुखा देता है। जमीन से सारा पानी खींच लेता है, छोटा वृक्ष सूख जाता है। बड़े होओ, छोटे हो सुखाओ; और डरो मत। दुर्बल को मिटाओ ताकि तुम सफल हो सको।
यह एक दृष्टि है, जिसको चाहे हम बौद्धिक रूप से स्वीकार करें न करें, हम सब व्यवहार करते हैं। यही हमारा आचरण है। बुद्ध और महावीर, या सूफी फकीर कहते हैं कि यह तुम्हारा आचरण ही तुम्हारा कारागृह है। तुम दुखी ही रहोगे। तुम्हारी वासनाएं तुम्हारे चारों तरफ जंजीरें बन जाएंगी। तुम जितना चाहोगे, उतने ही बंधोगे
एक और भी जीवन है अचाह का; लेकिन उस जीवन की कला मरना सीखना है। इसलिये सब धर्म मृत्यु की कला है। कैसे तुम मिटो! लेकिन ध्यान रहे, मिटकर भी तुम मिटोगे नहीं; तुम्हारा जो व्यर्थ है, वही मिटेगा। तुम उसी दीये को बुझा सकते हो जो तेल बाती वाला है। जो दीया बिन बाती बिन तेल जल रहा है, उसे तुम बुझा भी न सकोगे। तुम उसी को मिटा सकोगे, जो तुम नहीं हो। जो तुम हो, उसे तो मिटाया ही नहीं जा सकता। इसलिए जब धर्म कहता है: मरो तो वही मरेगा, जो मरणधर्मा है। वह मरा ही हुआ है। लेकिन जो तुम्हारे भीतर शाश्वत जीवन है, वह तो मरेगा नहीं।
पक्षी भी सिर्फ मरने का बहाना कर रहा था। उसके भीतर असली तो मरा नहीं था; नहीं तो उड़ता कौन? पक्षी भी मरकर बहाना कर रहा था, अभिनय कर रहा था। सिर्फ मृतवत पड़ा था, मृत था तो नहीं। यह तो टेकनिक था। यह तो विधि थी। लेकिन विधि कारागृह के मालिक को धोखा दे गई। विधि ने काम किया। उसने दरवाजा खोल दिया। जीवन की धारा तो भीतर बह रही थी। वह तो कभी मिटती नहीं। वह तो अकारण है। वह तो सदा है। उसका कोई अंत और प्रारंभ नहीं। वह धारा उड़ गई आकाश में।
तुम भी जब मरने का बहाना करोगे, तब तुम्हारे भीतर जो मरा हुआ है वही...तुम्हारे भीतर जो जीवन की धारा है, वह नहीं मरती। इसलिए संन्यास मृतवत होने की कला है। 'मृतवत'--ध्यान रखना, तुम मर नहीं जाते हो, मृतवत हो जाते हो। तुम्हारे भीतर जो जग रहा है, जी रहा है, वह तो जीता है; और भी प्रगाढ़ता से जीता है क्योंकि तुम्हारे शरीर का धुआं उस पर नहीं होता। ज्योति निर्धूम जलती है। और जैसे ही एक बार लोगों ने समझा कि तुम मृतवत हो, तुम कारागृह के बाहर हो। खुला आकाश तुम्हारा है।
यह सूफियों की कुंजी है। यह समस्त सूफियों की कुंजी है--वह सूफी कहीं भी पैदा हुए हों।
महावीर संन्यस्त होना चाहते थे। मां ने कहा, 'बात मत उठाना मेरे सामने जब तक मैं जिंदा हूं, तब तक यह बात मत उठाना। मुझे बड़ा दुख होगा। मैं मर जाऊंगी।' महावीर चुप हो गये। फिर मां चल बसी। पिता भी चल बसे। मरघट से लौटते वक्त महावीर ने अपने बड़े भाई को कहा कि अब आज्ञा दे दो, कि मैं संन्यासी हो जाऊं। यह मां और पिता के लिये रुका था कि उनको दुख न हो। भाई ने कहा, कि तू भी हद्द पागल है! अभी हम घर भी नहीं लौटे, मां को दफनाकर आ रहे हैं, मुझ पर इतना बड़ा दुख टूटा और तू संन्यास लेना चाहता है? यह बात मत उठाना।
महावीर चुप हो रहे। फिर उन्होंने यह बात न उठाई। दो साल बीत गये। लेकिन घर के लोगों को धीरे-धीरे भूल ही गया कि महावीर घर में है। वे मृतवत हो रहे। उठते, चलते, बैठते, लेकिन न किसी का विरोध, न किसी के मार्ग में आते, न कोई सलाह देते; जैसे थे ही नहीं। जैसे हवा का एक झोंका हो गए--आया, गया! किसी को पता भी न चलता। घर के लोगों को कई दिन बीत जाते और खयाल न आता कि महावीर क्या कर रहे हैं और क्या हैं, कहां हैं?
आखिर घर के लोग इकट्ठे हुए और उन्होंने कहा हम इस आदमी को व्यर्थ ही रोके हैं, यह तो जा चुका। पिंजरा हम बेकार ही बंद करे हैं, यह तो मर चुका। तो घर के लोग इकट्ठे हुए; और बड़े भाई ने प्रार्थना की, कि तुम जाओ क्योंकि हम तुम्हें रोक न सके। तुम्हारा इस भांति होना न होना बराबर है। हम क्यों पाप के भागीदार बनें? तुम हो ही नहीं इस घर में। यह महल तुम्हें भूल ही गया। तुम कब आते हो छाया की तरह, तुम कब जाते हो, कुछ पता नहीं चलता।
झेन फकीर कहते हैं, संन्यासी ऐसा हो जाता है जैसे वृक्ष की छाया। छाया--वृक्ष डोलता है तो छाया भी डोलती है, लेकिन छाया के डोलने से जमीन पर पड़ी धूल में कोई विघ्न-बाधा नहीं पड़ती। छाया डोलती है लेकिन धूल हिलती भी नहीं। धूल को पता भी नहीं चलता, कोई ऊपर बुहारी मार रहा है। लेकिन छाया की कोई बुहारी है? महावीर छाया की भांति हो गये--मृतवत।
सूफी कहानी ठीक ही कहती है। घर के लोग इकट्ठे हुए और उन्होंने कहा, तुम जाओ भी। उन्होंने पिंजरा खोल दिया कि जो मृतवत हो चुका है उसे हम अब क्या रोकेंगे? अब रोकने को कुछ बचा नहीं। जिसकी वासना जा चुकी उसे हम कैसे रोकेंगे? उसके लिये घर ही जंगल हो गया। उसके लिये महल एकांत हो गया। वहां कोई न रहा।
तुम भीड़ में हो क्योंकि तुम्हारी वासना है। तुम्हारी चाह ही तुम्हारी भीड़ है। तुम घर में बंधे हो क्योंकि तुम्हारी महत्वाकांक्षा है। महत्वाकांक्षा ही तुम्हारा घर है। जिस दिन तुम मृतवत हो--इसको सूत्र समझो। इस भांति जीयो जैसे तुम हो ही नहीं। फिर देखो, क्या घटता है। धीरे-धीरे लोग तुम्हें भूल जाएंगे।
तुम्हें डर लगता है कि लोग भूल न जाएं इसलिए तुम हर हालत कोशिश करते हो कि उनको पता चलता रहे कि तुम हो। घर तुम जाते हो तो जोर से कदम रखते हो, सामान गिराते हो, आवाज करते हो ताकि पता चलता रहे कि तुम हो। बेटा कहता है, 'जरा मैं बाहर खेल आऊं?' कोई हर्ज नहीं है कि वह बाहर खेल आये। तुमसे नहीं पूछता, पूछने की भी कोई जरूरत नहीं; लेकिन तुम कहते हो--'नहीं''नहीं' से पता चलता है कि तुम हो। हां कहोगे, तो किसको पता चलेगा?
संन्यासी अपने को हटा लेता है दूसरों के मार्ग से। वह शोरगुल नहीं करता। वह किसी को बाधा नहीं देता। वह छाया की भांति हो जाता है। डोलता जरूर है, लेकिन धूल हिलती नहीं। ऐसा--नहीं जैसा हो जाने का नाम संन्यास है। और वही कुंजी है संसार के बाहर जाने की। तुम संन्यस्त हुए कि जिनने तुम्हें कारागृह में बांधा है, वे द्वार खोल देंगे। अगर वे द्वार अभी भी बंद किए हैं तो उसका मतलब इतना है कि तुम अभी संन्यस्त नहीं हुए। तुम मरकर गिरे नहीं। तुम अभी भी बैठे, जागे, जीवन से भरे, इच्छा से भरे बैठे हो।
और आखिरी बात समझ लेना; अगर तुम्हारे मन में मुक्त होने की इच्छा भी रह गई तो भी यह पिंजरा खुलेगा नहीं।
अगर वह पक्षी सोचता--जैसा कि तुम सोचोगे, तुम्हारा मन सोचेगा--अगर वह पक्षी सोचता कि यह मेरा मालिक इतनी करुणा से भर गया है उस पक्षी के मरने से, कि शायद अब मुझे मुक्त कर दे! और वह आंखें टकटकी लगाये इस मालिक की तरफ देखता, क्या तुम आशा करते हो, यह मालिक उसका पिंजरा खोलता? यह पिंजरा खुलने वाला नहीं था। यह चाहे कितनी ही करुणा से भर गये हों, यह सब करुणा ऊपर-ऊपर है। करुणा इतनी नहीं है कि पिंजरा खोल देता। यह तो उसने सोचा भी नहीं था कि पिंजरा जाकर खोलना है। यह तो खयाल भी नहीं आया था। अगर इतनी भी वासना इसमें बचती तो यह कुंजी चूक जाता। मोक्ष की आकांक्षा भी मोक्ष में बाधा बन जाती है। न, यह तो समझ ही गया सार।
सूफियों की एक दूसरी कहानी है, बिलकुल ठीक इसके समानांतर।
एक सूफी फकीर नदी में स्नान कर रहा है। एक बड़े दार्शनिक ने जाकर उससे नदी के किनारे खड़े होकर पूछा, 'मैं कई दिनों से तुम्हारी तलाश कर रहा हूं। लोग कहते हैं, तुम्हें मुक्ति का राज मिल गया। मैं पूछने आया हूं, और आज तुम्हें मैंने मौके पर पकड़ लिया है, नदी में स्नान करते। तुम मिलते ही नहीं। तुम कहां जाते हो, कहां ठहरते हो, तुम्हारा कोई पता-ठिकाना नहीं। जहां खोजने जाता हूं वहां पता चलता है, तुम कहीं और चले गये। वहां जाता हूं, पता चलता है, तुम कहीं और चले गये। आज ठीक वक्त पर पकड़ लिया है।'
नदी के किनारे ही खड़े उसने पूछा कि मुक्ति का राज क्या है?
उसका यह कहना था, कि फकीर एकदम जैसे मर गया और नदी की धारा उसे बहाकर ले गई।
उस दार्शनिक ने कहा, यह भी बड़ी भूल हो गई। क्या मैंने ऐसी बुरी बात पूछी, कि इस आदमी के प्राण ही निकल गये? और यह फिर हाथ से निकल गया। और अब इसे कहां पाऊंगा? यह तो मर ही गया। वह वापिस लौट आया, जीवन-मरण के संबंध में बड़े विचार करता हुआ; बड़े सिद्धांत, शास्त्रों के उद्धरण भीतर दोहराता हुआ। समझाता हुआ कि आत्मा तो अमर है; दुख की कोई बात नहीं। और यह फकीर तो ज्ञानी था।
लेकिन कुंजी चूक गई। जब उसने कभी वर्षों बाद किसी दूसरे फकीर से पूछा कि मेरी कुछ समझ में नहीं आया कि वह आदमी इतना बड़ा ज्ञानी था, कम से कम उत्तर देकर तो मरता! इतना तो कर ही सकता था कि दो शब्द कह देता। लेकिन मैंने प्रश्न किया, उसने उत्तर भी न दिया और नदी की धारा उसे ले गई। हुआ क्या एकदम से? भला-चंगा था, ऐसा मेरा प्रश्न सुनते ही क्या हुआ?
उस फकीर ने कहा, 'नासमझ! वह बोला और तू सुन न पाया। उसने कहा और तू समझ न पाया। उसने सारी बात कह दी। यह तरकीब है, नदी की धार में मर जाओ और बह जाओ।
जब तक तुम जिंदा हो, तुम धार से लड़ते हो। तो विरोध करते हो, संघर्ष करते हो। क्योंकि संघर्ष में अहंकार निर्मित होता है। जीत-हार जहां-वहां अहंकार को मजा है। जब तुम मर जाते हो, नदी की धार बहा ले जाती है।
उस आदमी ने दो बातें कह दीं कि तुम मृतवत हो जाओ, और जीवन की धार को बहने दो; तुम बाधा मत दो। तुम पहुंच जाओगे उस महासागर में, जिसकी तलाश है।
'मरना' और 'बह जाना'--दो सूत्र हैं।
इस कहानी को सोचना मत; बस सुनना और गिरकर मर जाना। पिंजरे में बैठकर सोचकर दार्शनिक मत बनना, नहीं तो चूक जाओगे। इसे सोचना मत। यह कुंजी है; घुमाना, ताला खुल जाएगा।
भोजन करते वक्त ऐसे भोजन करना, जैसे तुम नहीं हो। चलते वक्त ऐसे चलना जैसे तुम नहीं हो। बोलते वक्त ऐसे बोलना कि बोलते न बोलते बराबर है। सिंहासन मिल जाए तो ऐसे बैठ जाना जैसे कि मजबूरी है, बैठ गये। सिंहासन खो जाए तो ऐसे उतर आना, जैसे अपनी कुर्सी से नीचे उतर आते हो, काम में लग जाते हो। 'नहीं हो'--नहींवत! उठना, बैठना, सब करना, लेकिन ऐसे हो जाना, जैसे शून्य हो। जल्दी ही पिंजरे का द्वार तुम खुला पाओगे।
तुम्हारी भीतरी शून्यता ही खुला द्वार है। और तब जहां भी तुम हो, वहीं आकाश है; वहीं मुक्ति है।

आज इतना ही।



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