दिनांक
28 जून 1974 (प्रातः),
श्री
रजनीश आश्रम; पूना.
भगवान!
एक
बदमाश था, जिसे गांव
के लोगों ने
पकड़ा और एक
पेड़ से बांध लिया।
और
उससे कहा कि
तुम्हें आज
शाम तक हम
समुद्र में
डुबो देंगे।
यह
कहकर वे लोग
अपने काम पर
चले गये। इस
बीच एक गड़रिया
आया
और
उसने बदमाश से
पूछा कि क्यों
यहां बंधे पड़े
हो?
चालाक
बदमाश ने कहा, 'कुछ लोगों
ने मुझे
इसलिये बांध
दिया कि
मैंने
उनके रुपये
लेने से इनकार
कर दिया।'
हैरत
में आकर गड़रिये
ने पूछा, 'वे तुम्हें
रुपये क्यों
देना चाहते थे?
और
तुमने रुपये
लेने से इनकार
क्यों किया?'
बदमाश
बोला, 'मैं
धार्मिक आदमी
हूं और वे लोग
हैं अधार्मिक;
और
वे मुझे
पथ-भ्रष्ट
करना चाहते
हैं।'
गड़रिये
ने कहा कि 'मैं
तुम्हारी जगह
यहां बैठता
हूं; तुम
मुक्त हुए।'
दोनों
ने जगह बदल
ली। शाम के
समय गांव के
लोग आये,
उन्होंने
गड़रिये
को बोरे में
बंद किया और
उसे जाकर
समुद्र में डुबो
दिया।
दूसरे
दिन
प्रातःकाल
गांव वाले यह
देखकर हैरान
हुए कि
वही
बदमाश भेड़ों
का एक झुंड
लिये गांव में
हंसता प्रवेश
कर रहा है।
उनके
पूछने पर
बदमाश ने
बताया, 'समुद्र
में बड़े
दयावान जीव
रहते हैं,
वे
उन सबको
पुरस्कृत
करते हैं, जो समुद्र
में कूदकर डूब
जाते हैं।'
फिर
क्या था, गांव के लोग
भागे और
समुद्र में जा
डूबे।
और
वह बदमाश गांव
का अब मालिक
बन बैठा।
हम
आपसे यह कहानी
समझना चाहते
हैं।
ऐसे
ही बदमाश सारे
संसार के
मालिक बन बैठे
हैं। संसार की
संपदा पानी हो
तो सरलता बाधा
है। संसार को
जीतना हो तो
ईमानदारी
मार्ग नहीं; बेईमानी
गणित है।
यह
कहानी
आदमियों की
कहानी है। इस
संसार में ठीक
ऐसा ही हो रहा
है।
बुद्धिमानी
का उपयोग लोग
जीवन के सत्य
को पाने के
लिये नहीं, बुद्धिमानी
का उपयोग लोग
दूसरे का शोषण
करने के लिये;
बुद्धिमानी
का उपयोग
स्वयं के
अनुभव को पाने
के लिये नहीं,
सृजनात्मक
नहीं, विध्वंसात्मक
करते हैं।
इसलिये
जैसे-जैसे बुद्धि
बढ़ती जाती है,
वैसे-वैसे
बेईमानी बढ़ती
जाती है।
विचारक
हमेशा से
परेशान रहे
हैं कि दुनिया
जितनी
शिक्षित होती
है उतनी बुरी
क्यों हो जाती
है? अशिक्षित
आदमी में थोड़ी
भलाई भी हो, शिक्षित
आदमी में भलाई
की सारी जड़ें
टूट जाती हैं।
और जैसे-जैसे
हम शिक्षा को
सुलभ बनाते हैं,
वैसे-वैसे
लोग साधु नहीं
होते, असाधु
होते चले जाते
हैं।
पश्चिम
के एक बहुत
बड़े विचारक
डी. एच. लारेन्स
ने एक सुझाव
दिया था कि
अगर दुनिया से
बेईमानी, बदमाशी
मिटानी
हो तो कम से कम
सौ वर्षों के
लिये हमें सभी
विद्यालय, सभी
विद्यापीठ
बंद कर देने
चाहिये।
आदमी
के पास जितनी
बुद्धि बढ़ती
है, उतनी
बुराई करने की
क्षमता बढ़ती
है। होना उल्टा
चाहिये कि
बुद्धि
प्रज्ञा बने;
समझ आत्मज्ञान
की तरफ ले
जाये; लेकिन
यह होता नहीं।
समझ दूसरे के
विनाश की तरफ
ले जाती है।
शायद जिसे हम
समझ कहते हैं
वह समझ नहीं
है, समझ का
धोखा है। पूरे
मनुष्य जाति
का इतिहास इस
बात का गवाह
है, कि
जैसे ही
मनुष्य ने
आदिम सरलता
खोई, वैसे
ही जीवन में
कष्ट और तकलीफें
बढ़ गईं।
और यह
तो उस गांव
में एक बदमाश
था, इसने
इतना उपद्रव
किया, पूरे
गांव को
विनष्ट कर
दिया।
तुम्हारे
गांव में तो
सभी बदमाश
हैं। पूरी
पृथ्वी
बदमाशों से
भरी है।
आदिम
मनुष्य का
भोलापन इतनी
सरलता से
क्यों खो जाता
है? जरा-सी
शिक्षा
तुम्हें नष्ट
क्यों कर देती
है?
कुछ
बातें समझनी
चाहिये। पहली
बात, आदिम
मनुष्य का जो
भोलापन है, वह वस्तुतः
भोलापन नहीं
है, वह
केवल अभाव है।
आदिम मनुष्य
बेईमानी नहीं
कर सकता
क्योंकि
बेईमानी करने
के लिये एक
तरह की कुशलता
चाहिये, जो
उसके पास नहीं
है। इसलिये
गांव में जो
भोला आदमी
दिखाई पड़ता है,
वह वस्तुतः
भोला नहीं है।
उसको मौका
मिले तो वह भी
उतना ही शैतान
सिद्ध होगा, जितना बड़े
नगरों के लोग
शैतान सिद्ध
होते हैं। और
अकसर तो वह
ज्यादा शैतान
सिद्ध होता
है। अगर गांव
का आदमी
शिक्षित हो
जाये, थोड़ा
कुशल हो जाये
तो शहर के
आदमी से
ज्यादा उपद्रवी
सिद्ध होता
है। क्योंकि
उसके उपद्रव
ऐसे हैं, जैसे
कोई जमीन बहुत
दिन तक बंजर
पड़ी रही हो, उसमें कोई
फसल न ली गई हो,
फिर उसमें
फसल ली जाये
तो वह बहुत
फसल दे। क्योंकि
दूसरी जमीन तो
अब शोषित हो
चुकी है, उसकी
जमीन बिलकुल
खाली पड़ी है।
गांव का
सीधा-साधा
आदमी जब भी शिक्षित
हो जाता है, कुशल हो
जाता है तो
उसमें बदमाशी
की बड़ी फसल लगती
है। वह शहर के
आदमियों को
पराजित कर
देता है। उसका
भोलापन झूठा
है।
तो दो
तरह के भोलापन
हैं: एक तो
भोलापन है, जो संत का
है। संत का
भोलापन अनुभव
से आया है। उसने
जीवन में
गुजरकर देखा
है और पाया कि
बेईमानी चाहे
तत्क्षण कुछ
भी देती मालूम
पड़ती हो, अंततः
सब कुछ छीन
लेती है। उसने
अनुभव से पाया
कि दूसरे को
नुकसान
पहुंचाना भला
पहले दिखाई पड़ता
हो कि दूसरे
को नुकसान
पहुंचा रहे
हैं, लेकिन
अंततः अपने ही
हाथ-पैर कट
जाते हैं। उसने
जीवंत अनुभव
से यह सीख ली
कि जो गङ्ढा
तुम दूसरे के
लिये खोदते हो,
आखिर में
तुम पाओगे कि
वह तुम्हारी
ही कब्र बन
जाती है। इस
अनुभव के कारण
वह बेईमानी
छोड़ता है।
कुशल
नहीं है ऐसा
नहीं, बेईमानी
नहीं कर सकता
है ऐसा नहीं; कर सकता है, लेकिन अनुभव
ने उसे बताया
कि बेईमानी
हितकर नहीं
है। स्वयं के
हित में भी
नहीं है।
दूसरे को तो
नुकसान पहुंचाती
है अभी, और
स्वयं को
नुकसान पहुंचाती
है अंततः, इसलिये
वह भोला हो
गया है, वह
सरल हो गया
है।
यह
सरलता बड़ी
कीमती है, गंभीर है, गहरी है। यह
सरलता बड़ी
समृद्ध है
क्योंकि अनुभव
का आधार है।
एक गांव का
ग्रामीण है, या एक छोटा
बच्चा है; छोटे
बच्चे गांव के
ग्रामीण जैसे
हैं। छोटा बच्चा
भोला मालूम
पड़ता है लेकिन
भोला है नहीं,
तैयारी कर
रहा है। अभी
शरारत के बीज
अंकुरित नहीं
हुए हैं, जल्दी
ही अंकुरित
होंगे। गांव
का आदिम आदमी
तैयारी कर रहा
है, प्रतीक्षा
कर रहा है। जब
कुशल हो जायेगा,
तब उसके खेत
में बड़ी बुराई
की फसल आयेगी।
हर
बच्चा देवता
जैसा पैदा
होता है और
शैतान जैसा
मरता है।
बच्चों की
शक्ल देखें, सभी बच्चे
प्यारे मालूम
होते हैं। कोई
बच्चा कुरूप
नहीं मालूम
होता, सभी
बच्चे सुंदर
होते हैं। फिर
यह सारे सुंदर
बच्चे कहां खो
जाते हैं? लोगों
को देखें तो
लोग कुरूप
मालूम होते
हैं। जब वे
बच्चे थे खुद,
तब बड़े
सुंदर थे। यह
पृथ्वी
सौंदर्य से भर
जानी चाहिये।
इतने सुंदर
बच्चे पैदा
होते हैं! लेकिन
जैसे ही समझ
बढ़ती है, जैसे
ही कुशलता आती
है, वैसे
ही विकृति
शुरू हो जाती
है।
तो दो
उपाय हैं आपके
भी भोले होने
के। एक तो
उपाय है कि
समझ को आने ही
मत देना। एक
तो उपाय है कि
शिक्षित होना
ही मत। एक तो
उपाय है सभ्य
बनना ही मत।
परिस्थिति से
दूर ही रहना।
गांधी
जैसे विचारक
इसी उपाय की
सलाह देते हैं।
वे कहते हैं, दुनिया से
बड़े उद्योग
समाप्त करो।
शिक्षालय बंद
करो। ट्रेनें,
हवाई-जहाजें
मत चलाओ।
यांत्रिकता हटाओ।
आदमी को वापस
जंगल की तरफ
ले चलो।
क्योंकि जंगल
का आदमी बड़ा
भोला था।
उनका
तर्क बहुत
गहरा नहीं है
क्योंकि जंगल
का आदमी अगर
सच में ही
भोला था तो यह
सारी बेईमानी
फिर किससे
पैदा हुई? कहां से आई? एक तो ऐसा
आदमी है, जो
इतना कमजोर है
कि चोरी नहीं
कर सकता, इसलिये
साधु मालूम
पड़ता है। एक
आदमी इतना अशिक्षित
है कि झूठ
बोलने में
झंझट है। झूठ
बोलने के लिये
थोड़ी बुद्धि
चाहिये। और
झूठ बोलने के
लिये अच्छी
याददाश्त
चाहिये। अगर
स्मृति कमजोर
हो तो आप झूठ
नहीं बोल
सकते।
क्योंकि घड़ी
भर बाद आपको
याद ही न
रहेगा, किससे
क्या कहा!
तो एक
आदमी इसलिये
सच बोलता है, क्योंकि झूठ
बोलने के लिये
जितनी कुशलता
चाहिये, वह
उसमें नहीं
है। जो तकनीक
बेईमानी के
लिये चाहिये,
वह उसमें
नहीं है।
लेकिन चाहता
तो वह भी
बेईमान होना
है। तो वह
प्रतीक्षा कर
रहा है। जब
सुविधा
मिलेगी, तब
वह भी बेईमान
हो जायेगा।
बीज पड़ा है
जमीन में, वर्षा
की प्रतीक्षा
कर रहा है। जब
बादल घिरेंगे
और बरसेंगे
तो बीज
अंकुरित हो
जायेगा।
तो
गांधी जैसे
विचारक सलाह
देते हैं कि
बादलों को
बरसने ही मत
दो। न बरसेंगे
बादल, न बीज
अंकुरित
होगा। न रहेगा
बांस, न
बजेगी
बांसुरी।
लेकिन यह कोई
बड़ी गहरी समझ
की बात नहीं
है। क्योंकि
बांसुरी भला न
बजे, उसके
स्वर तो भीतर गूंजते ही
रहेंगे।
बेईमानी भला
बाहर न आये
असमर्थता के
कारण, लेकिन
गहरे में बीज
तो विषाक्त
करता ही रहेगा।
मैं इस तरह के
विचारकों से
राजी नहीं हूं।
मैं तो
कहता हूं, अनुभव से
गुजरकर जो
सरलता आये वही
वास्तविक है।
आग से गुजरकर
जो सोना बचे, वही असली
सोना है। इस
डर से कि कहीं
जल न जाये, हम
आग के बाहर ही
रख लें तो वह
सोना असली
नहीं है। और
भय बता रहा है
कि कचरे का डर
है।
शिक्षित
तो होना ही
होगा। बच्चे
को जवान होना
ही होगा।
बच्चे को
बच्चे में
कैसे रोका जा
सकता है? आदिम
आदमी सभ्य
बनेगा, गांव
मिटेंगे,
महानगर बसेंगे।
इससे बचने का
कोई भी उपाय
नहीं है। पीछे
जाना संभव भी
नहीं है। जैसे
जवान बच्चा
नहीं हो सकता
फिर से, वैसे
ही शहर के
आदमी को गांव
नहीं ले जाया
जा सकता।
तो
गांधी कितना
ही कहें, कोई
फर्क नहीं
पड़ता। लोग सुन
लेते हैं, सिर
हिला देते हैं,
लेकिन उनका
जीवन जिस
ढांचे में है,
वैसा ही
चलता जाता है।
और गांधी
कितना ही कहें,
उनकी खुद की
जीवन-व्यवस्था
भी आधुनिक
यंत्रों पर ही
निर्भर होती
है। ट्रेन में
यात्रा करनी
पड़ती है, मोटर
में बैठना
पड़ता है।
गांधी की बात
का प्रचार भी
करना हो तो भी
बड़े प्रेस का
उपयोग करना पड़ता
है, लाऊडस्पीकर पर बोलना
पड़ता है। इस
सभ्यता के
खिलाफ भी बोलना
हो तो इसी
सभ्यता का
उपयोग करना
पड़ता है। और
जिसका हम
उपयोग करते
हैं, उसको
हम नष्ट कैसे
करेंगे? वह
हमारे उपयोग
से मजबूत होती
है, बढ़ती
है।
और
गांधी कोई
पहले व्यक्ति
नहीं हैं, रूसो ने, टॉलस्टॉय
ने, रस्किन
ने, सभी ने
पीछे लौटने की
बात की है।
गांधी पर रस्किन,
थोरो और इमर्सन
का बड़ा प्रभाव
है। लेकिन कोई
भी पीछे लौट
नहीं सकता।
पीछे लौटने का
कोई मार्ग ही
नहीं है। सब
मार्ग आगे की
तरफ जाते हैं;
इसलिये
मेरा सुझाव
गांधी से
बिलकुल
विपरीत है।
मेरा
सुझाव है, जितनी जल्दी
हो सके अनुभव
से गुजरो,
लेकिन
अनुभव से होश
पूर्वक गुजरो
ताकि अनुभव
तुम्हें उसकी
पूर्णता में
दिखाई पड़
जाये। बीज से
लेकर अंत तक, प्रथम से
लेकर अंत तक
तुम अनुभव को
देख लो। जो
व्यक्ति भी
अनुभव को पूरा
देख लेंगे, उनके जीवन
से बेईमानी
मिट जायेगी।
अब हम
इस कहानी को
समझने की
कोशिश करें।
कहानी बड़ी साफ
है। कुछ
रहस्यपूर्ण
नहीं है कहानी
में। एक बदमाश
की कहानी
है--यह समझें
कि तथाकथित बुद्धिमान
की। और
तथाकथित बुद्धिमान
सभी बदमाश
होते हैं।
बदमाश होने के
लिये
थोड़ा-बहुत
बुद्धिमान
होना जरूरी भी
है। पूरे
बुद्धिमान
नहीं होते, लेकिन थोड़े
बुद्धिमान
होते हैं।
और
ध्यान रहे, कभी-कभी आधा
ज्ञान पूरे
अज्ञान से भी
ज्यादा खतरनाक
होता है। थोड़ा
ज्ञान सदा ही
खतरनाक होता
है क्योंकि
थोड़ी दूर तक
देखता है, पूरे
को नहीं देख
पाता।
गांव
के लोग इस
बदमाश से
परेशान रहे
होंगे और गांव
के लोगों ने
एक दिन तय
किया कि इस
बदमाश का अंत
ही कर दो। एक
वृक्ष से बांध
दिया।
बदमाश
होने के लिये
थोड़ी
बुद्धिमत्ता
चाहिये, तर्क
चाहिये, समझ
चाहिये।
दूसरे को धोखा
देना आसान
नहीं है
क्योंकि
दूसरा भी
तुम्हें धोखा
देने को तैयार
है। जब भी तुम
दूसरे को धोखा
देते हो, उसका
अर्थ है, कि
तुमने ज्यादा
बुद्धिमानी
दिखाई दूसरे
से।
एक गड़रिया
पास से
गुजरा--गांव
का आदिम
आदमी--उसने
पूछा कि क्या
हुआ? क्यों
बंधे हुए हो
इस वृक्ष से? इस बदमाश ने
कहा कि बड़ी
मुसीबत में पड़
गया हूं। गांव
के लोग मुझे
धन देना चाहते
हैं, मैं
लेना नहीं
चाहता। वे
नाराज हो गये।
गड़रिया
निश्चित ही
गांव का आदिम
आदमी रहा
होगा--जहां चाहते
हैं रूसो, टालस्टॉय,
गांधी
लोगों को वापस
ले जाना।
लेकिन तब कोई
भी बदमाश उन
आदिम लोगों को
शरारत से
परेशान करेगा।
पीछे लौटो
कितने ही
इतिहास में, चंगेज, तैमूर
सदा मौजूद
हैं। वे गांव
के गड़रियों
का शोषण कर
रहे हैं।
लेकिन शोषण वे
बड़े ढंग से करते
हैं, बड़ी
बुद्धिमत्ता
से करते हैं।
इसीलिये
हजारों साल तक
दुनिया में
कोई बगावत न
हुई। लुटेरों,
डाकुओं, हत्यारों
को लोगों ने
परमात्मा का
अवतार समझा।
सम्राट, परमात्मा का
प्रतिनिधि
समझा जाता था
पृथ्वी पर; कि वह
परमात्मा की
तरफ से राज्य
कर रहा है। इसलिये
सिंहासन के
प्रति बगावत
करना
परमात्मा के
प्रति बगावत
थी। राजाओं ने
अपने को
तादात्म्य कर
लिया
था--सम्राट ने
परमात्मा के
साथ लोगों को
समझा दिया था
कि मैं उसका
प्रतिनिधि
हूं और लोग
मान गये थे।
गांधी
जैसे विचारक
जिस दुनिया
में लोगों को
ले जाना चाहते
हैं, उसमें
फिर चंगेज और तैमूर
लोगों का शोषण
करेंगे। वह दुनिया
कोई बहुत
अच्छी दुनिया
नहीं थी, उसमें
बगावत हो ही
नहीं सकती थी।
और जिस दुनिया
में बगावत न
हो सके, उस
दुनिया से
मुर्दा और
दुनिया खोजनी
कठिन है।
यहां
हिंदुओं ने
क्या किया? हजारों साल
से
लाखों-करोड़ों
लोगों को
शूद्र बना
रक्खा और उनको
समझा दिया कि
तुम्हारे
कर्मों के
कारण ही तुम
शूद्र हो। और
उन्होंने मान
लिया। यह
बदमाश
बुद्धिमानी
है। यह शोषण की
बड़ी कुशल
तरकीब है। और
उनको इस भांति
समझा दिया कि
बगावत का एक
स्वर नहीं उठा
भारत में। हजारों
साल की यात्रा
में शूद्रों
ने एक दफे
नहीं कहा कि
यह क्या फिजूल
की बात हमें
समझाई जा रही
है? यह
प्रचार इतना
गहरा गया...
और यह
तुम्हारे ही
हित में है, क्योंकि अगर
तुम शांति से
अपनी शूद्रता
को स्वीकार कर
लेते हो, तो
अगले जन्मों
में तुम ऊंचे
वर्णों में
पैदा हो
जाओगे।
ब्राह्मण
ब्राह्मण घर
में पैदा हुआ
है क्योंकि
उसने अच्छे
कर्म किये हैं।
तुम शूद्र घर
में पैदा हुए
हो क्योंकि तुमने
बुरे कर्म
किये हैं। अगर
बगावत की तो
और बुरे कर्म
हो जायेंगे, तुम और महाशूद्र
हो जाओगे, और
नर्क में
पड़ोगे।
स्वीकार कर
लो।
मनु की
स्मृति पढ़ने
जैसी है। मनु
की स्मृति से
ज्यादा
अन्यायपूर्ण
शास्त्र
खोजना कठिन है, क्योंकि कोई
न्याय जैसी
चीज ही नहीं
है। मनुस्मृति
हिंदुओं का
आधार है--उनके
सारे कानून, समाज-व्यवस्था
का। अगर एक
ब्राह्मण एक
शूद्र की लड़की
को भगाकर ले
जाये तो कुछ
भी पाप नहीं है।
यह तो सौभाग्य
है शूद्र की
लड़की का।
लेकिन अगर एक
शूद्र, ब्राह्मण
की लड़की को
भगाकर ले जाये
तो महापाप है।
और हत्या से
कम, इस
शूद्र की
हत्या से कम
दंड नहीं। यह
न्याय है! और
इसको हजारों
साल तक लोगों
ने माना है।
जरूर
मनाने वाले ने
बड़ी कुशलता की
होगी। कुशलता
इतनी गहरी रही
होगी, जितनी
कि फिर दुनिया
में पृथ्वी पर
दुबारा कहीं
नहीं हुई। ब्राह्मणों
ने जैसी
व्यवस्था
निर्मित की भारत
में, ऐसी
व्यवस्था
पृथ्वी पर
कहीं कोई
निर्मित नहीं
कर पाया, क्योंकि
ब्राह्मणों
से ज्यादा
बुद्धिमान आदमी
खोजने कठिन
हैं।
बुद्धिमानी
उनकी परंपरागत
वसीयत थी।
इसलिये
ब्राह्मण शूद्रों
को पढ़ने नहीं
देते थे
क्योंकि
तुमने पढ़ा कि
बगावत आई।
स्त्रियों को
पढ़ने की मनाही
रखी क्योंकि
स्त्रियों ने
पढ़ा कि बगावत
आई।
स्त्रियों
को
ब्राह्मणों
ने समझा रखा
था, पति
परमात्मा है।
लेकिन पत्नी
परमात्मा नहीं
है! यह किस
भांति का
प्रेम का ढंग
है? कैसा
ढांचा है? इसलिये
पति मर जाये
तो पत्नी को
सती होना
चाहिये, तो
ही वह
पतिव्रता थी।
लेकिन कोई
शास्त्र नहीं
कहता कि पत्नी
मर जाये तो
पति को उसके
साथ मर जाना
चाहिये, तो
ही वह पत्नीव्रती
था। ना, इसका
कोई सवाल ही
नहीं।
पुरुष
के लिये
शास्त्र कहता
है कि जैसे ही
पत्नी मर जाये, जल्दी से
दूसरी
व्यवस्था
विवाह की करें।
उसमें देर न
करें। लेकिन
स्त्री के लिये
विवाह की
व्यवस्था
नहीं है।
इसलिये
करोड़ों स्त्रियां
या तो जल गईं
और या विधवा
रहकर उन्होंने
जीवन भर कष्ट
पाया। और यह
बड़े मजे की
बात है, एक
स्त्री विधवा
रहे, पुरुष
तो कोई विधुर
रहे नहीं; क्योंकि
कोई शास्त्र
में नियम नहीं
है उसके विधुर
रहने का।
तो भी
विधवा स्त्री
सम्मानित
नहीं थी, अपमानित
थी। होना तो
चाहिये
सम्मान, क्योंकि
अपने पति के
मर जाने के
बाद उसने अपने
जीवन की सारी
वासना पति के
साथ समाप्त कर
दी। और वह
संन्यासी की
तरह जी रही
है। लेकिन वह
सम्मानित
नहीं थी। घर
में अगर कोई
उत्सव-पर्व हो
तो विधवा को
बैठने का हक
नहीं था।
विवाह हो तो
विधवा आगे
नहीं आ सकती।
बड़े मजे की
बात है; कि
जैसे विधवा ने
ही पति को मार
डाला है! इसका
पाप उसके ऊपर
है। जब पत्नी
मरे तो पाप
पति पर नहीं
है, लेकिन
पति मरे तो
पाप पत्नी पर
है! अरबों
स्त्रियों को
यह बात समझा
दी गई और
उन्होंने मान
लिया। लेकिन
मानने में एक
तरकीब रखनी
जरूरी थी कि जिसका
भी शोषण करना
हो, उसे
अनुभव से
गुजरने देना
खतरनाक है और
शिक्षित नहीं
होना चाहिये।
इसलिये शूद्रों
को, स्त्रियों
को शिक्षा का
कोई अधिकार
नहीं।
तुलसी
जैसे
विचारशील आदमी
ने कहा है कि 'शूद्र,
पशु, नारी,
ये सब ताड़न
के अधकारी।'
इनको अच्छी
तरह दंड देना
चाहिये। इनको
जितना सताओ, उतना ही ठीक
रहते हैं। 'शूद्र, ढोल,
पशु, नारी...' ढोल का भी
उसी के
साथ--जैसे ढोल
को जितना पीटो,
उतना ही
अच्छा बजता है;
ऐसे जितना
ही उनको पीटो,
जितना ही
उनको सताओ
उतने ही ये
ठीक रहते हैं।
यही धारा थी।
इनको शिक्षित
मत करो, इनके
मन में बुद्धि
न आये, विचार
न उठे। अन्यथा
विचार आया, बगावत आई।
शिक्षा आई, विद्रोह
आया।
विद्रोह
का अर्थ क्या
है? विद्रोह
का अर्थ है, कि अब तुम
जिसका शोषण
करते हो उसके
पास भी उतनी
ही बुद्धि है,
जितनी
तुम्हारे
पास। इसलिये
उसे वंचित
रखो।
उस
बदमाश ने बड़ी
बढ़िया बात
कही। उसने कहा
कि लोग मुझे
धन देना चाहते
हैं और धन मैं
लेना नहीं
चाहता और
इसलिये मुझे
बांध दिया है।
गड़रिया
निश्चित आदिम
रहा होगा, अनुभव से
शून्य रहा
होगा।
बुद्धिमान
नहीं था, भोला-भाला
था। और भोलापन
बुद्धूपन के
जैसा था। क्योंकि
जो भोलापन
अनुभव से न
आया हो, वह
बुद्धूपन
जैसा होता है।
उसे सिम्पल
नहीं कह सकते,
सिम्पलटन!
सीधा-सादा, संत नहीं है,
वह
सीधा-सादा
बुद्धू है।
क्योंकि इस
जगत में कौन
है, जो धन
नहीं चाहता? और इस जगत
में कौन है, जो आपको धन
देने के लिये
इतना मजबूर
करे कि वृक्ष
से बांधे? गड़रिया
बिलकुल आदिम
रहा होगा। गांधीवादी
आदिमता रही
होगी। न
शिक्षित, न
धन का कोई पता,
न लोगों के
जीवन-व्यवहार
की कोई
प्रतीति--मान लिया
उसने।
फिर भी
उसे भी थोड़ा
शक उठा। उसने
कहा कि लोग धन देना
चाहते हैं और
तुम लेना नहीं
चाहते; तुम
लेना क्यों
नहीं चाहते? क्योंकि
इतना तो उसको
भी समझ में
आया कि अगर मुझे
कोई धन दे तो
मैं लेना
चाहूंगा। यह
आदमी क्यों
नहीं लेना
चाहता?
बदमाश
निश्चित ही
बुद्धिमान
था। उसने कहा, मैं एक
धार्मिक आदमी
हूं। बात साफ
हो गई, कि
धार्मिक आदमी
धन नहीं लेना
चाहता। लेकिन
उस गड़रिये
को खयाल न आया
कि जब भी कोई
धार्मिक आदमी
धन नहीं लेना
चाहता तो लोग
उसे बांधते
नहीं, उसके
पैर पकड़कर
पूजा करते
हैं।
यही तो
हो रहा है।
अगर लोगों से
पूजा चाहिये हो, धन भर मत
लेना, तो
लोग पूजेंगे।
क्योंकि लोग
धन की आकांक्षा
से भरे हैं और
जब भी वे अपने
से विपरीत
किसी को देखते
हैं तो उसकी
पूजा करते
हैं। जिसको भी
पूजा चाहनी
हो, उसे
सौदा तय कर
लेना
पड़ेगा--या तो
धन, या
पूजा। और
समझदार जो हैं,
वे पूजा में
ज्यादा धन
देखते हैं।
उस गड़रिये
को यह खयाल न
आया कि यह
गांव के लोग
इसकी पूजा
क्यों नहीं
करते? इसे
मारने के लिये
वृक्ष से
क्यों बांध
रखा है? न, इतनी बुद्धि
न थी। इतने
विचार न उठे।
अन्यथा एक ही
अर्थ हो सकता
था कि गांव के
लोग और भी महा
धार्मिक हैं।
वे इसको धन भी
देना चाहते
हैं और न ले तो
दंड देने को
राजी हैं, मगर
धन देकर
रहेंगे। गड़रिये
की वासना ने
उसे पकड़ा। इसे
थोड़ा समझ लें।
बुद्धि
भला न हो पास, लेकिन वासना
तो होती है।
यही खतरा है।
वासना तो जन्म
से मिलती है, बुद्धि शायद
शिक्षा से मिल
जाती हो, समाज
से मिलती हो।
वासना तो जन्म
से मिलती है।
तो बुद्धू से
बुद्धू आदमी
के पास भी
उतनी ही वासना
है, जितनी
बुद्धिमान के
पास। वासना
में कोई अंतर नहीं।
वासना की
दृष्टि से हम
सब समान हैं।
बुद्धिमान
अपनी वासना को
पूरा करने के
लिये तर्क का
उपयोग करता
है। बुद्धू
उसका उपयोग
नहीं कर पाता
है, इसलिये
शोषित होता
है।
इसलिये
माक्र्स ठीक
कहता है कि जब
तक सभी लोग शिक्षित
नहीं हो गए
हैं, तब तक
शोषण जारी
रहेगा
क्योंकि जो
शिक्षित हैं,
वे
अशिक्षित का
शोषण करेंगे।
लेकिन एक
दूसरी बात
माक्र्स को
दिखाई नहीं
पड़ती। अगर सभी
शिक्षित हो
जायें तो शोषण
बंद नहीं हो
जायेगा, सभी
शोषण करना
चाहेंगे और
समाज एक
अराजकता होगी,
जब तक कि
सभी संत न हो
जायें। और संत
का अर्थ है, सिर्फ
निर्बुद्धि
रह जाना नहीं,
बल्कि
बुद्धिमत्ता
का पूरा हो
जाना।
वह गड़रिया
लोभ से भर गया
और उसने कहा, अगर ऐसा है
तो मुझे बांध
दो। मैं धन भी
चाहता हूं और
तुम धन चाहते
नहीं; तो
मैं तुम्हें
छोड़े देता
हूं।
जब भी
शोषण करना हो
किसी का तो
उसे प्रलोभन
देना जरूरी
है। इसलिये
जहां भी
प्रलोभन हो, वहां थोड़े
सावधान हो
जाना।
क्योंकि
प्रलोभन के
बिना
तुम्हारा
शोषण नहीं
किया जा सकता।
फिर प्रलोभन
बहुत ढंग के
हैं। पुरोहित
कहते हैं कि
अगर तुम दान
दोगे तो
स्वर्ग
मिलेगा।
सिर्फ दान
देने को कहें
तो तुम दान
देने वाले
नहीं हो।
स्वर्ग
मिलेगा उसके
लिये तुम सौदा
कर सकते हो; तब तुम दान
दे सकते हो।
लेकिन कभी
तुमने सोचा, कि दान का
अर्थ ही यह
होता है कि
उसके पीछे कोई
मांग न हो।
जो
स्वर्ग के
लिये दान कर
रहा है, वह
दान तो कर ही
नहीं रहा, सिर्फ
सौदा कर रहा है।
वहां दान नहीं
है। दान का
अर्थ तो देना
है और मांगना
नहीं। दान का
अर्थ तो फल की
आकांक्षा के
बिना देना है।
लेकिन यह
पुरोहित
तरकीब लगा रहा
है। यह कह रहा
है दान दो, स्वर्ग
मिले! गंगा के
तट पर लोग
समझाते हैं नासमझ
गांव के
ग्रामीण
लोगों को, कि
यहां एक पैसा
दो, वहां
एक करोड़
मिलते हैं। एक
करोड़
गुना मिलता है
उस पार। यहां
दो, उससे
एक करोड़
गुना मिलता
है।
लोभी
का मन डावांडोल
हो जाता है--एक करोड़ गुना!
और वह है उस
पार। वहां से
लौटकर कोई
कहता नहीं कि
वहां मिलता है, या एक पैसा
भी हाथ से चला
जाता है।
चूंकि वहां से
कोई लौटकर
नहीं कहता, इसलिये शोषण
का बड़ा सुगम
उपाय है।
जब भी
किसी का शोषण
करना हो तो
उसे प्रलोभन
देना जरूरी
है। और जहां
भी प्रलोभन हो, सावधान हो
जाना।
धर्म
भी प्रलोभन दे
रहा है इसलिये
वह धर्म नहीं
हो सकता।
मंदिर, चर्च,
पुजारी, पुरोहित,
पोप
प्रलोभन दे
रहे हैं।
एक दिन
मैं एक रास्ते
से गुजर रहा
था। एक
सुशिक्षित
पढ़ी-लिखी
महिला ने मुझे
एक छोटी-सी
पुस्तिका दी।
देखा मैं, खयाल में भी
नहीं आया कि
यह ईसाइयत के
प्रचार की
पुस्तिका
होगी क्योंकि
सामने कोई
ईसाइयत का
सवाल नहीं था।
न ईसू का
कोई चित्र था,
न क्रॉस था,
न कोई चर्च
था। सामने एक
खूबसूरत
बंगला था एक बगीचे में,
और ऊपर लिखा
था: 'क्या
आप भी ऐसा
बंगला चाहते
हैं?' मैं
थोड़ा हैरान
हुआ कि यह
क्या है? उसको
उलटकर देखा तो
उसमें पहले
बंगले का वर्णन,
बगीचे का, सुंदर
आकाश का; और
अंत में यह है
कि इस तरह का
बंगला स्वर्ग
में उपलब्ध है
लेकिन केवल
उन्हीं को, जो जीसस के
अनुयायी हैं!
सब तरह
से प्रलोभन
दिये जा रहे
हैं। और जहां
भी प्रलोभन है
वहां समझ लेना
कि धर्म नहीं
हो सकता। इस
बदमाश ने बड़ी
कुशलता का काम
किया। उसने यह
भी न कहा कि
मुझे खोलो।
गड़रिये
ने खुद ही उसे
खोल दिया होगा
और खुद वृक्ष
के पास खड़ा हो
गया होगा कि
मुझे बांध दो।
जब तुम प्रलोभन
से भरते हो तो
तुम अंधे हो
जाते हो। तब
तुम्हें होश
नहीं होता, तुम क्या कर
रहे हो।
सांझ
को गांव के
लोग इकट्ठे
हुए जो बांध
गये थे बदमाश
को, कि सांझ
को पोटली में
बंद करके सागर
में फेंक देंगे।
सांझ के
अंधेरे में
उन्होंने
पोटली बांधी।
बेचारे गड़रिये
को तो कुछ समझ
में भी नहीं
आया, क्या
हो रहा है! वह
समुद्र में
फेंक दिया
गया।
सुबह
भोर होते
बदमाश गड़रिये
की भेड़ों
को लेकर गांव
में प्रविष्ट
हुआ, गीत गाता।
गांव के लोग
चकित हुए।
उन्होंने कहा
कि क्या हुआ? तुम कैसे
वापिस?
उसने
कहा कि वापिस
का क्या पूछते
हो? तुम्हारी
बड़ी कृपा कि
तुमने मुझे
समुद्र में फेंक
दिया। वहां
बड़े प्रेमी और
दयालु लोग हैं।
उन्होंने खूब
स्वागत-सत्कार
किया। ये भेड़ें
मुझे दे दीं
और कहा कि जाओ,
और आनंद
करो।
जो
तरकीब उस
बदमाश ने उस गड़रिये के
साथ की थी, अब वह उस
तरकीब का पूरा
उपयोग पूरे
गांव के ऊपर
किया। फिर देर
न लगी होगी।
लोग अपने आप
ही जाकर
समुद्र में
कूद गये।
लोभ, मृत्यु बन
जाता है।
और हम
सबके लिये भी
लोभ ही मृत्यु
बन रहा है। हम
सब भी लोभ के
कारण ही
समुद्रों में
कूद रहे हैं
और मर रहे हैं
और मिट रहे
हैं। और हमारी
पूरी शिक्षण की
व्यवस्था
सिर्फ लोभ
सिखाती है और
कुछ भी नहीं।
महत्वाकांक्षा
सिखाती है।
ज्यादा से ज्यादा
कैसे तुम पा
सको, इसकी कला
सिखाती है।
बिना
इसकी चिंता
किये कि लोभ
मृत्यु में ले
जा सकता है, गांव के लोग
समुद्र में
कूद गये और मर
गये। यह बदमाश
पूरे गांव का
मालिक हो गया।
कहानी यहां पूरी
हो जाती है
क्योंकि इसके
आगे कहानी को
ले जाना
खतरनाक है।
लेकिन असली
हिस्सा कहानी
का छोड़ दिया
गया है, ताकि
आप कहानी को
पढ़ें और असली
हिस्से को खुद
खोजें।
सभी
महत्वपूर्ण
कहानियां आधी
छोड़ दी जाती
हैं क्योंकि
अगर बात पूरी
कह दी जाये तो
आपको खोजने को
कुछ भी नहीं
बचता। दूसरा
हिस्सा महत्वपूर्ण
है कि जब कोई
भी न बचे और आप
गांव के मालिक
हो जायें, उस मालकियत
का क्या मूल्य
है? जब सभी
मर गये हों तो
उस मरघट के आप
मालिक हो
जायें, इसका
क्या मूल्य है?
वह
हिस्सा छोड़
दिया है। सूफी
फकीरों
ने ठीक ही
किया है। उस
हिस्से को छुआ
नहीं। उसको
कहने की जरूरत
ही नहीं।
कहानी पढ़कर
उसे समझने की
जरूरत है। जो
महत्वपूर्ण
है, उसे कहा
नहीं जाता। और
अगर आप में
थोड़ी भी बुद्धि
है तो वह
दिखाई पड़ जायेगा।
और अगर बुद्धि
न हो तो वह
कहने से भी सुनाई
नहीं पड़ेगा।
ये कहानियां
आपके भीतर विचार
को पैदा करने
के लिये हैं।
ये कहानियां
आपके भीतर एक
संवेदना
जगाने के लिए
हैं। एक सत्य की
प्रतिध्वनि
उठाने के लिये
हैं।
क्या
अर्थ है, अगर
सारा गांव मर
जाये और तुम
मालिक हो जाओ
इसका? क्या
मूल्य है? वह
आदमी बदमाश तो
था, होशियार
भी था, लेकिन
बहुत
बुद्धिमान
नहीं था।
अर्जुन
ने कृष्ण से
यही बात गीता
में पूछी है कि
ये सारे लोग
मर जायेंगे, फिर मैं
मालिक भी हो जाऊंगा तो
उसका मूल्य
क्या है? ये
मेरे प्रियजन
हैं, सगे-संबंधी
हैं, मित्र
हैं, इनके
साथ मैं बड़ा
हुआ, इनके
साथ खेला, और
अगर मेरे जीवन
में कोई सफलता
की खुशी भी है तो
इनकी मौजूदगी
में ही हो
सकती है। ये
सब मर जायेंगे,
इनकी लाशें
पड़ी होंगी
कुरुक्षेत्र
में और मैं
विजेता हो जाऊंगा।
उस विजय का
क्या मूल्य है?
वह विजय
किसके लिये है?
कौन उसको
देखकर
प्रसन्न होगा?
कौन मेरी
पीठ ठोकेगा
और कहेगा कि
ठीक, तुम
सफल हुए।
इसमें
कई बातें समझ
लेने जैसी
जरूरी हैं।
अकेले में
हमारे सम्राट
होने का कोई
भी अर्थ नहीं
है। अकेले में
तुम सम्राट हो
ही नहीं सकते।
अकेले में
सिर्फ
संन्यासी हो
सकते हो।
सम्राट को समाज
चाहिये।
संन्यासी
समाज को छोड़
सकता है। इसलिए
सम्राट होना
दूसरों पर
निर्भर है, संन्यासी
होना
आत्मनिर्भरता
है। इसलिये संन्यासियों
ने कहा है कि
सम्राट
गुलामों के भी
गुलाम हैं।
बात ठीक है, क्योंकि
बिना गुलामों
के वह सम्राट
नहीं हो सकता।
मैंने
सुना है कि जुन्नैद
एक गांव से
गुजर रहा
था--एक सूफी।
उसके शिष्य
उसके साथ थे।
वह बीच रास्ते
पर खड़ा हो गया।
एक आदमी एक
गाय को बांधकर
गुजर रहा था, जुन्नैद ने
अपने शिष्यों
से कहा कि बेटो!
एक सवाल। यह
आदमी इस गाय
को बांधे हुए
है कि यह गाय
इस आदमी को
बांधे हुए है?
जुन्नैद के
शिष्यों ने
कहा, आप भी
क्या फिजूल की
बात पूछते
हैं! यह तो साफ
है कि आदमी
गाय को बांधे
हुए है, गाय
आदमी को नहीं
बांधे हुए।
तो
जुन्नैद ने
कहा, दूसरा
सवाल। अगर यह
गाय छूटकर
भाग जाये तो
यह आदमी उसके
पीछे भागेगा,
या यह आदमी
गाय को छोड़कर
भाग जाये तो
गाय इसके पीछे
भागेगी?
तब जरा
शिष्य चौंके।
उन्होंने कहा, तब जरा कठिन
बात है। अगर
यह बीच की
रस्सी टूट जाये
तो यह आदमी
गाय के पीछे
भागेगा। यह
गाय आदमी के
पीछे भागने
वाली नहीं। तो
जुन्नैद ने कहा,
तुम फिर से
सोचो, गुलाम
कौन किसका है?
गुलाम
मालिक के पीछे
भागेगा। गाय
धेला भर भी
फिक्र नहीं
करेगी कि वह
आदमी कहां गया?
लेकिन गाय
अगर भागे तो
वह आदमी पीछा
करेगा। गाय उस
आदमी के बिना
जी सकती है, वह आदमी
बिना गाय के
नहीं जी सकता।
बंधा कौन किससे
है? ऊपर से
ऐसे ही दिखाई
पड़ता है, आदमी
गाय को बांधे
खींच रहा है।
जो लोग भीतर देखेंगे,
उन्हें
दिखाई पड़ेगा,
गाय आदमी को
बांधे खींच
रही है।
ऊपर से
देखने पर
सम्राट मालिक; और गुलाम, गुलाम। भीतर
से देखने पर
सम्राट
गुलामों के भी
गुलाम।
नेताओं को
देखें! लगते
हैं वे आगे चल रहे
हैं। आप गलती
में हैं। उनको
अनुयायियों के
सदा पीछे चलना
पड़ता है। बस, वे दिखते हैं
आगे चलते।
नेता सदा पीछे
लौट-लौटकर
देखता रहता है,
अनुयायी
किस तरफ जा
रहे हैं! जिस
तरफ अनुयायी जा
रहे हैं, उसको
जल्दी से उसी
तरफ मुड़ जाना
चाहिये। रहना चाहिये
आगे, लेकिन
अनुयायियों
का रुख देखते
रहना चाहिये।
इसलिये
कुशल नेता वही
है, जो
अनुयायी का
रुख पहचानता
है। अकुशल
मुश्किल में
पड़ जाता है।
अगर नेता को
यह भ्रम आ गया
कि लोग मेरे
पीछे चल रहे
हैं, जल्दी
ही वह नेता
नहीं रह
जायेगा। अगर
अपनी मौज से
उसने चलना
शुरू कर दिया
और रास्ते
चुनने लगा तो
भीड़ कहीं और
चली जायेगी।
नेता होने का सूत्र
यही है कि भीड़
के हृदय में जो
बात बन रही हो,
उसको पहले
ताक लेना। भीड़
जिस तरफ जाना
चाहती हो, उस
तरफ भीड़ के
पहले मुड़
जाना। अभी भीड़
को भी पता न हो
कि हम कहां
जाना चाहते
हैं। नेता उसी
तरफ जायेगा, जहां भीड़ का
अचेतन उसे ले
जाना चाहता
है।
नेता
की कला भीड़ के
अचेतन को
पहचानने में
है।
मुल्ला
नसरुद्दीन
के संबंध में
बड़ी प्रसिद्ध
कथा है। वह
अपने गधे पर
बैठा हुआ गुजर
रहा है। बाजार
में बहुत लोग
खड़े हैं। गधा
तेजी से भागा
जा रहा है।
लोगों ने पूछा
कि नसरुद्दीन
कहां जा रहे
हो इतनी तेजी
से?
उसने
कहा, मुझसे मत
पूछो, इस
गधे से पूछो।
क्योंकि इसका
मालिक रहना हो
तो इसका
अनुयायी रहना
पड़ता है। अगर
जरा ही मैंने
इसको मोड़ने-माड़ने की
कोशिश की कि
यह अकड़कर
खड़ा हो जाता
है! उसी वक्त
पता चल जाता
है बीच बाजार
में, कि
मालिक हम नहीं
हैं। और
बेइज्जती
होती है, फजीहत
होती है। तो
मैं समझ गया
हूं कि बाजार
से जब भी
निकलो, जहां
यह जाये, बस
बैठे रहो।
बाजार के बाहर
मैं कोशिश भी
करता हूं, लेकिन
बाजार में कभी
कोशिश नहीं
करता; क्योंकि
वहां यह फजीहत
करवा देता है,
अकड़कर खड़ा हो जाता
है, बैठ
जाता है, लोटने
लगता है। वहां
पक्का पता चल
जाता है कि
कौन ताकतवर
है। बहुत
अनुभव से
मैंने यह सीख
लिया है कि
जिस तरफ यह
जाये वहीं
अपनी मंजिल
है। उसमें हम
कम से कम
मालिक मालूम
होते हैं।
नेता
अनुयायी का
मालिक मालूम
पड़ता है एक
कुशलता के
कारण--वह कहां
जा रहा है! भीड़
का अचेतन कहे
कि 'समाजवाद'!
इसके पहले
कि भीड़ के
मुंह से आवाज
निकले, नेता
को कहना
चाहिये, 'समाजवाद।'
भीड़ का
अचेतन जो कहे,
नेता को भीड़
के अचेतन की
आवाज होना
चाहिये। तत्क्षण
नारा दे दे।
अगर वह नारा
मेल न खाया
अचेतन से, नेता
जल्दी ही भीड़
में खो
जायेगा। नेता
नहीं रह सकेगा।
नेता अनुयायी
का अनुयायी
है।
अकेले
में तुम नेता
नहीं हो सकते।
अकेले में तुम
सम्राट नहीं
हो सकते।
अकेले में तुम
धनी नहीं हो
सकते। और जो
तुम अकेले में
नहीं हो सकते, उसमें होने
में कुछ भी
सार नहीं। इस
अनुभव का नाम
संन्यास है।
जो तुम अकेले
में हो सकते
हो, वही
तुम्हारा है।
जो तुम अकेले
में नहीं हो
सकते, वह
दूसरों का है।
तुम्हें
सिर्फ खयाल है
कि तुम्हारा
है।
तुम
जंगल में
अकेले बैठे हो, कोहिनूर का
ढेर लगा हुआ
है, तुम
उसके ऊपर बैठे
हो। कोहिनूर
की कितनी कीमत
है जंगल में, जहां तुम
अकेले हो? पत्थर
से ज्यादा
नहीं। कोई भी
पत्थर पर बैठे
रहो, या
कोहिनूर पर
बैठे रहो, कोई
फर्क नहीं
पड़ता।
कोहिनूर का
मूल्य समाज में
है। नोटों की गड्डियों
का ढेर लगा है,
तुम उसी पर
सोये हो शैया
बनाकर--क्या
अर्थ है अकेले
में? क्योंकि
नोट का मूल्य
समाज की
मान्यता में
है।
महावीर
जंगल चले जाते
हैं। बुद्ध, मोहम्मद, जीसस जंगल
चले जाते हैं
इसलिये--इस
बात की खोज करने,
कि जंगल में
जाकर जो चीजें
व्यर्थ हो
जाती हैं वे
व्यर्थ थी हीं;
भीड़ की वजह
से पता नहीं
चलता था। जंगल
में भी जो चीज
सार्थक रहती
है, वही
बचाने योग्य
है। फिर भीड़
में भी वापिस
लौट आते हैं, लेकिन अब
उसी को बचाते
हैं, जो
जंगल में भी
सार्थक थी।
वही तुम्हारी
आत्मा है।
यह
बदमाश
बुद्धिमान तो
था लेकिन आधा
ही बुद्धिमान
था। अगर यह
पूरा
बुद्धिमान
होता तो इस तरह
की नासमझी न
करता। यह तो
आत्मघात हो
गया। जब सारा
गांव ही कूदकर
मर गया सागर
में तो अब तुम सम्राट
कैसे? सारे
मकान
तुम्हारे हैं,
लेकिन
करोगे क्या?
बड़ी
मुसीबत में
पड़ा होगा। इस
बदमाश का थोड़ा
सोचें। अगर
इसकी कहानी हम
आगे बढ़ाएं--बड़ी
मुसीबत में
पड़ा होगा।
इतने सब
मकानों की साफ-सफाई
रखो। और कोई
सार नहीं, और कोई
देखने वाला
नहीं। इस धन
की सुरक्षा
रखो और इसका
कोई प्रयोजन
नहीं; क्योंकि
न इससे कुछ
खरीद सकते, न कुछ बेच
सकते। वे हट
गये लोग, जिनके
बीच इसका
मूल्य था।
क्या किया
होगा इस बदमाश
ने? जहां
तक मैं सोच
पाता हूं, यह
भी कूदकर
समुद्र में मर
गया होगा और
कोई उपाय नहीं
इसके लिये
बचता। लेकिन
अब पूरा गांव
ही मर गया तो
अब यह क्या
करेगा? इसलिये
बदमाशी अंततः
आत्मघात बन
जाती है।
तुम
सोचते हो, तुम दूसरे
को नुकसान
पहुंचा रहे
हो। अंततः वह तुम्हें
ही नुकसान
पहुंचता है।
तुम सोचते हो,
तुम दूसरे
के लिये जहर
घोल रहे हो; अंततः वह
जहर तुम्हारे
ही जीवन में
फैल जाता है।
क्योंकि यहां
कोई दूसरा है
नहीं, तुम्हारा
ही विस्तार
है। तुम जो
दूसरों के साथ
करते हो, वही
तुम अपने साथ
कर रहे हो।
फासला दिखता
है। तुम अलग
हो, मैं
अलग हूं।
लेकिन
तुम्हारे गाल
पर मैं चांटा मारूं, वह
जिनको दिखाई
पड़ता है, उनको
दिखाई पड़ता है
कि वह अपने
हाथ से अपने
ही गाल पर चांटा
मार लिया, क्योंकि
तुम मेरे ही
फैलाव हो। अगर
तुम सब मर जाओगे,
तो मैं जी
नहीं सकता।
अगर तुम सब खो
जाओगे तो मैं
खो जाऊंगा;
क्योंकि हम
संयुक्त हैं।
इमेन्युएल
कांट ने एक
सूत्र बनाया
है, जो बड़ा
कीमती है। वह
सूत्र यह
है...नीति का
आधार, कांट
ने कहा है इस
सूत्र को।
कांट कहता है
कि जो नियम
मानने से
सार्वभौम न हो
सके, यूनिवर्सल
न हो सके, वह
नियम नैतिक
नहीं है। वही
नियम नैतिक है,
जो
सार्वभौम हो
सके। इसका
अर्थ? इसका
अर्थ है कि
अगर मैं तुमसे
झूठ बोलूं तो
क्या मैं कह
सकता हूं कि
मैं चाहता हूं,
सभी लोग एक
दूसरे से झूठ
बोलें? झूठ
बोलने वाला भी
यह चाहता है
कि तुम उससे
झूठ न बोलो।
वह भी झूठ में
मानता नहीं।
झूठ बोलने
वाला भी झूठ
पकड़ ले तो
नाराज होता है
कि तुम क्यों
झूठ बोले? वह
भी मानता है
कि सत्य बोलना
नीति है। झूठ
बोलना अनीति
है।
चोर भी
आपस में एक
दूसरे की चोरी
नहीं करते। चोरी
को वह नियम
नहीं मानते।
और अगर सारे
लोग झूठ बोलते
हों तो झूठ
बोलना
मुश्किल है।
अगर सारे लोग
झूठ में भरोसा
करते हों तो
बोलना ही मुश्किल
है। क्योंकि
कोई भी कुछ
बोले, दूसरा
जानता है कि
तुम झूठ बोल
रहे हो। तुम
कुछ भी बोलो, दूसरा जानता
है कि तुम झूठ
बोल रहे हो।
झूठ चलता है
क्योंकि कुछ
लोग सच बोलते
हैं। झूठ के
पैर सच में
हैं। झूठ जी
नहीं सकता बिना
सच के। उसका
सहारा सच में
है।
इसका
अर्थ यह हुआ
कि अगर सारे
लोगों की
हत्या करने को
हम नियम मान
लें तो यह
नैतिक नहीं हो
सकता। यह नियम
सार्वभौम
नहीं हो सकता।
इसलिये कांट
ने एक बहुत
अदभुत बात कही, जो हिंदुओं
को बिलकुल समझ
में नहीं आती,
लेकिन बात
उसकी सही है।
कांट
कहता है, ब्रह्मचर्य
नैतिक नियम
नहीं हो सकता,
क्योंकि
अगर सभी लोग
ब्रह्मचारी
हो जायें तो ब्रह्मचर्य
पालने वाला भी
नहीं बचेगा।
ब्रह्मचारी
होने के लिये
भी किसी का अब्रह्मचारी
होना जरूरी
है। तुम्हारे
माता-पिता का
कम से कम
अब्रह्मचारी
होना जरूरी था
इसलिये तुम
पैदा हुए हो।
तो
ब्रह्मचर्य
नैतिक नियम
नहीं हो
सकता--कांट कहता
है। उसकी बात
बड़ी सच है और
बड़ी गहरी है।
वह कहता है कि
जैसे चोरी
नियम नहीं हो
सकता, झूठ
नियम नहीं हो
सकता, वैसे
ही
ब्रह्मचर्य
नियम नहीं हो
सकता, क्योंकि
चोरी के लिये
कुछ लोगों का अचोर होना
जरूरी है। झूठ
के लिये कुछ
लोगों का सच बोलना
जरूरी है।
ब्रह्मचर्य
के लिये कुछ
लोगों का
अब्रह्मचारी
होना जरूरी
है। जिस
ब्रह्मचर्य
के होने के
लिये कुछ
लोगों का
अब्रह्मचारी होना
जरूरी हो, जिसके
आधार में अब्रह्मचर्य
हो, वह
कैसे नियम हो
सकता है? वह
नियम नहीं हो
सकता। वह
सार्वभौम, यूनिवर्सल
नहीं हो सकता।
और जो सत्य
सबको स्वीकृत
न हो सके, और
सब के स्वीकार
से भी जिसमें
जीवन का पौधा
बढ़ता रहे, वह
सत्य सत्य ही
नहीं है।
इस
बदमाश ने सोचा
तो होगा कि
मैंने बड़ा गजब
का काम कर
लिया; सारा
गांव डूब गया।
लेकिन देर न
लगी होगी इसे समझने
में कि यह
आत्महत्या हो
गई।
क्यों? अगर यह
बदमाश साधु
होता तो अकेला
भी जी सकता था।
यह बदमाश साधु
नहीं था। इसके
जीने के लिये उन
सबका होना
जरूरी था।
इसलिये बदमाश
अगर उसकी
बदमाशी सफल हो
जाये, तो
भी पायेगा कि
असफल हुआ। अगर
उसकी बदमाशी
असफल हो तो भी
पायेगा कि
असफल हुआ।
बदमाश कभी सफल
होता ही नहीं।
वह सदा असफल
होता है।
समझो; अगर यह गांव
के लोग तरकीब
समझ जाते और
उसकी पिटाई
करते और कहते
तू झूठ बोल
रहा है तो वह
असफल हुआ।
गांव के लोगों
ने उसको मान
लिया और नदी
में कूदकर, समुद्र में
कूदकर मर गये
तो भी वह असफल
हुआ।
इससे
मैं एक बहुत
गहरी बात आपसे
कहना चाहता हूं:
साधु सदा सफल
होता है--चाहे
असफल हो, चाहे
सफल हो। बदमाश
सदा असफल होता
है--चाहे सफल
हो, चाहे
असफल हो। साधु
की कोई असफलता
नहीं है; हो
नहीं सकती।
असाधु की कोई
सफलता नहीं है;
हो नहीं
सकती।
मेरे
पास लोग आते
हैं, वे कहते
हैं कैसा
संसार है!
यहां असाधु
सफल हो रहा है,
साधु असफल
हो रहे हैं।
लोग मुझसे आकर
कहते हैं, 'मैं
ईमानदार हूं
और भूखों मर
रहा हूं और
बेईमान महलों
में रह रहे
हैं।'
मैं
उनसे कहता हूं, 'यह हो नहीं
सकता। भला
बेईमान महलों
में रह रहे
हों, लेकिन
महलों में रह
नहीं सकते।
महलों में घिरे
होंगे, लेकिन
रह नहीं सकते।
क्योंकि
महलों में
रहनेवाले
लोगों को मैं
जानता हूं। ना
वे सो सकते हैं,
ना वे ठीक
से खाना खा
सकते हैं, ना
वे प्रेम कर सकते
हैं। महल उनके
लिये कारागृह
हैं--अपने ही बनाये
हुए। किसी और
ने उन्हें
कारागृह में
नहीं डाला है,
अपने ही
कारण कारागृह
में पड़े हैं।
जैसे
वह सुबह गड़रिया
अपने ही हाथों
वृक्ष के पास
खड़े होकर बंध
गया था। उस गड़रिये
को जब वह दिन
भर बंधा रहा
होगा, क्या
ऐसा लगा होगा
कि किसी ने
मुझे बांधा है?
नहीं, वह
स्वेच्छा से
बंधा था। क्या
दिन में उसने
ऐसा अनुभव
किया होगा कि
मैं कारागृह
में पड़ा हूं? नहीं, वह
तो बड़े आनंद
में रहा होगा
क्योंकि सांझ
धन की वर्षा
हो जाने वाली
है। जब वासना
कहती है कि
आनेवाले
भविष्य में
काफी सुख
मिलने वाला है
तो तुम
कारागृह में
भी रहने को
राजी हो। तुम
अपना कारागृह
खुद ही बना
लेते हो।
दुनिया
में दो तरह के
कारागृह हैं।
एक, जिन्हें
दूसरे
तुम्हारे
लिये बनाते
हैं; और एक,
जो तुम खुद
अपने लिये
बनाते हो। वह
धनपति, जो
रह रहा है
महलों में, न सो सकता है,
न खा सकता
है, न किसी
को प्रेम कर
सकता है। वह
बिलकुल बंद है,
सड़
गया है, मर
गया है। वह एक
लाश है, जो
किसी तरह जी
रही है।
जैसे-जैसे धन
बढ़ता है, वैसे-वैसे
नींद खो जाती
है। जैसे-जैसे
धन बढ़ता है, वैसे-वैसे
भूख खो जाती
है।
यह बड़े
मजे की बात
है। जब भूख
होती है तो
लोगों के पास
भोजन नहीं
होता और जब
भोजन होता है
तब भूख नहीं
होती। और जब
सोने को
बिस्तर नहीं
होता तो बड़ी
गहरी नींद आती
है। और जब तक
बिस्तर का इंतजाम
कर पाते हैं, तब तक नींद
खो जाती है।
और भूख न हो तो
भोजन व्यर्थ
है। और नींद न
हो तो बढ़िया
से बढ़िया शैया
भी किस काम की
है? गरीब
आत्महत्या
नहीं करते, अमीर
आत्महत्या
करते हैं।
मेरे
पास लोग आते
हैं; वे कहते
हैं, इससे
तो हमारा भारत
ही अच्छा।
अमेरिका में
इतनी आत्महत्यायें
हो रही हैं।
मैं उनसे कहता
हूं कि इसका
कुल मतलब इतना
है कि तुम अभी
गरीब हो; अभी
आत्महत्या के
करीब नहीं पहुंचे।
अमेरिका अमीर
है, आत्महत्या
बढ़ रही है।
जिस दिन पूरा
मुल्क अमीर हो
जायेगा, अपने
आप लोग समुद्र
में कूदकर मर
जायेंगे। सभी
नहीं मर रहे
हैं, इसका
मतलब अभी भी
काफी गरीब
वहां हैं।
गरीब
को आशा रहती
है, कल कुछ
होगा और जीवन
में सुख
आयेगा। अमीर
की आशा टूट
जाती है, सब
उसके पास है
और सुख आया
नहीं; अब
वह क्या करे? लोगों को
लगता है, महलों
में रहनेवाले
लोग सुखी हैं
क्योंकि वे महलों
में नहीं हैं,
वे झोपड़ों
में हैं। जिस
दिन महल में
पहुंचेंगे उस
दिन पता चलेगा,
कि सुख की
सारी क्षमता
ही खो गई। अगर
किसी को लगता
है, कि मैं
नैतिक हूं और
दुखी हूं तो
इससे एक ही
बात सिद्ध
होती है कि वह
नैतिक नहीं
है। क्योंकि
नैतिक तो कभी
दुखी हो नहीं
सकता।
अगर
किसी को लगता
है, मैं
धार्मिक हूं
और असफल हूं
तो एक बात तय
है: कि वह
धार्मिक नहीं
है क्योंकि
धार्मिक कभी
असफल नहीं हो
सकता। मिले तो
जीतता है, हारे
तो जीतता है।
धार्मिक की
जीत बड़ी अदभुत
है। उसे हराने
का उपाय ही
नहीं है।
असफलता हो ही
नहीं सकती।
क्योंकि
धार्मिक का
अर्थ है, जो
भी हो, उसमें
वह संतुष्ट है;
इसलिये उसे
तुम कैसे असफल
करोगे?
लाओत्से
बार-बार कहता
है कि तुम
मुझे हरा न सकोगे
क्योंकि मैं
जीतना ही नहीं
चाहता। तुम
मुझे हराओगे
कैसे? जो
जीतना चाहता
है, वह
हराया जा सकता
है। लाओत्से
कहता है, तुम
मुझे पराजित न
कर सकोगे
क्योंकि विजय
की मेरी कोई
आकांक्षा
नहीं।
लाओत्से कहता
है, जब मैं
सभा में जाता
हूं तो मैं सब
से अंत में बैठता
हूं, जहां
लोग जूते उतारते
हैं क्योंकि
वहां से और
नीचे उतारे
जाने का कोई
उपाय नहीं।
तुम मुझे वहां
से न भगा सकोगे।
और तुम भगा भी
दो तो मेरा
क्या खोयेगा?
क्योंकि
मैं कोई राज
सिंहासन पर
नहीं बैठा था।
मैं वहां बैठा
था, जहां
जूते रखे थे।
लाओत्से कहता
है, मैं
अंतिम खड़ा
होता हूं ताकि
तुम मुझे
धक्का न दे
सको।
धार्मिक
आदमी
असंतुष्ट
नहीं हो सकता
क्योंकि धर्म
का सार-सूत्र
यही है कि जो
भी हो, वह
संतुष्ट है।
तुम उसे हरा
नहीं सकते।
हरा भी दो तो
वह विजय का
उत्सव मनाता
हुआ चलेगा।
धार्मिक आदमी
का प्रतिपल
विजय का पल है
क्योंकि जीतने
की आकांक्षा उसने
छोड़ दी। यह
विरोधाभासी
दिखने वाली
बातें, गहरे
में सोचने और
समझ लेने जैसी
हैं।
बुरा
आदमी सदा
हारता है। सफल
हो जाये तो
हारता है, असफल हो
जाये तो हारता
है।
यह
बदमाश असफल
होता तो
हारता। यह
बदमाश पूरी तरह
सफल हो गया तो
भी हार गया।
सांझ, रात
इसने भी
समुद्र में
कूदकर
आत्महत्या कर
ली होगी। जब
लोग न हों तो
बदमाशी किसके
साथ करियेगा?
इसकी सारी
कुशलता बेकार
हो गई।
साधुता
अकेले हो सकती
है। क्योंकि
साधुता ऐसा
दीया है, जो
बिन बाती बिन
तेल जलता है।
असाधुता
अकेले नहीं हो
सकती। उसके
लिये दूसरों
का तेल और
बाती और सहारा
सब कुछ
चाहिये।
असाधुता एक
सामाजिक
संबंध है। साधुता
असंगता
का नाम है। वह
कोई संबंध
नहीं है, वह
कोई
रिलेशनशिप
नहीं है। वह
तुम्हारे
अकेले होने का
मजा है।
इसलिये
साधु एकांत
खोजता है, असाधु भीड़
खोजता है।
असाधु एकांत
में भी चला जाये
तो कल्पना से
भीड़ में होता
है। साधु भीड़
में भी खड़ा
रहे तो भी
अकेला होता
है। क्योंकि
एक सत्य उसे
दिखाई पड़ गया
है कि जो भी मेरे
पास मेरे
अकेलेपन में
है, वही
मेरी संपदा
है। जो दूसरे
की मौजूदगी से
मुझमें होता
है, वही
असत्य है; वही
माया है। वह
वास्तविक
नहीं है; उसे
मैं ले जा
नहीं सकता।
तुम मेरे
पास आते हो और
मुझे प्रेम
जगता है, यह
प्रेम झूठा
है। क्योंकि
तुम चले जाते
हो, यह
प्रेम चला
जाता है। यह
प्रेम तुम
लाये थे, तुम्हीं
ले गये। यह
प्रेम ऐसा था,
जैसे मेरे
दर्पण में
तुम्हारा
चेहरा दिखाई पड़ा।
तुम हट गये, चेहरा खो
गया। यह प्रेम
मेरा नहीं है।
अगर यह मेरा
होता तो तुम
आते या न आते
इससे कोई भेद न
पड़ता। तुम न
आते तो भी यह
प्रेम जलता
रहता। जैसे
एकांत में
दीया जलता हो,
उसकी रोशनी
जलती है।
कोई
निकले या न
निकले, अकेले
रास्ते पर फूल
खिलता है, उसकी
सुगंध फैलती
रहती है।
लेकिन तुम पास
आये और फूल
में सुगंध आ गई;
और तुम गये
और फूल की
सुगंध खो गई, तो यह सुगंध
झूठी है।
तुमने इत्र
लगाया होगा। फूल
धोखे में पड़ा
है।
तुम
मेरे पास आओ
और मेरा प्रेम
जगे तो वह
प्रेम तुम
लेकर आये और
तुम ही उसे ले
जाओगे।
इसलिये हम
प्रेमियों के
निर्भर हो
जाते हैं।
तुम्हारी
प्रेयसी नहीं
होती, तुम्हारे
जीवन का रस खो
जाता है। वह
रस तुम्हारा
है ही नहीं।
और बड़े मजे की
बात यह है कि
तुम्हारी
प्रेयसी का भी
तुम खो जाओ तो
रस खो जाता है;
उसके भीतर
भी रस नहीं
है। और जब
दोनों के भीतर
रस नहीं है तो
तुम दोनों पास
आकर रस पैदा
कैसे करते हो?
मैं
निरंतर कहता
हूं, यह ऐसे है,
जैसे दो
भिखारी
एक-दूसरे के
सामने अपना भिक्षापात्र
किये खड़े
हों--इस आशा
में कि दूसरा
कुछ देगा। आशा
ही है।
क्योंकि
दूसरा भी भिक्षापात्र
लिये खड़ा है।
वह भी
देनेवाला
नहीं है, वह
भी मांगने ही
आया है। दोनों
धोखे में हो।
और जब भी धोखा
टूटता है तब
तुम एक-दूसरे
से नाराज होते
हो कि क्यों
मेरा इतना समय
खराब किया? पहले क्यों
न बता दिया कि
तुम भी भिक्षापात्र
लिये हो?
प्रेमी
अकसर दुख में
पड़ते हैं। जिस
दिन भी भिक्षापात्र
दिखाई पड़ते
हैं उस दिन
प्रेमी सोचता
है, प्रेयसी
ने धोखा दिया;
प्रेयसी
सोचती है, प्रेमी
ने धोखा दिया।
तब वे दूसरे
प्रेमी और प्रेयसियों
की तलाश में
निकल जाते
हैं। लेकिन
बुनियादी बात
फिर भी वही
रहेगी। नया
भिखारी थोड़ी
देर धोखा देगा,
क्योंकि भिक्षापात्र
छिपायेगा,
लेकिन कब तक
छिपायेगा?
वह भी
तुम्हारे पास
इसीलिये आया
है, तुम भी
उसके पास
इसीलिये गये
हो। तुम भी भिक्षापात्र
छिपाओगे।
जब आश्वस्त हो
जाओगे कि अब
यह भागनेवाला
नहीं, तब भिक्षापात्र
निकालोगे;
लेकिन तभी
विषाद घेर
लेगा।
तुम्हारा
प्रेम, तुम्हारी
खुशी, सब
दूसरे पर
निर्भर है। घर
कोई मित्र
मिलने नहीं
आता तुम उदास
हो जाते हो।
मित्र आ जाते
हैं, तुम
बड़े उत्सव में
हो जाते हो।
यह उत्सव झूठा
है, ऊपर-ऊपर
है, रंगरोगन किया हुआ
है। यह
तुम्हारे
हृदय का नृत्य
नहीं है। यह
तुम्हारी धड़कनों
से नहीं आता।
यह तुम्हारे
प्राणों का
स्वर-संगीत
नहीं है।
साधु
का अर्थ है, इस सत्य को
खोज
लेना--जितने
जल्दी हो सके।
तब फिर समाज
पर तुम निर्भर
नहीं हो। समाज
में रहो या
छोड़ दो, इससे
कोई फर्क नहीं
पड़ता। तब तुम
उसी संपदा की
खोज करते हो, जो तुम्हारी
है। जो किसी
के भी हटने से छिनेगी
नहीं। सब चले
जायेंगे, सब
सागर में कूद
जायेंगे, तो
भी तुम्हारी
बांसुरी बजती
रहेगी।
वह
बदमाश
बांसुरी बजा
नहीं सकता
क्योंकि
बदमाश दूसरे
पर निर्भर है।
जितना ज्यादा
बदमाश, उतना
दूसरे पर
ज्यादा
निर्भर। उस
असाधु को आत्महत्या
करनी होगी।
काश, वह
साधु होता तो
एकांत
महोत्सव हो
जाता! यह कहानी
सीधी साफ है।
तीन
सूत्र खयाल रख
लें।
एक, अगर दूसरे
को धोखा देने
निकले--असफल
हुए तो भी
असफल होओगे; अगर पूरे
सफल हुए तो भी
असफल होओगे।
दूसरा, बुद्धिमानी
का उपयोग
दूसरे को गङ्ढे
में गिराने के
लिये मत करना।
दूसरे के लिये
गङ्ढा मत
खोदना।
क्योंकि आखिर
में पाओगे कि
अपनी ही कब्र
खुद गई।
और
तीसरी बात, संपदा जो
दूसरे के
विनाश से
मिलती हो, दूसरे
की मृत्यु से
आती हो, या
दूसरे के जीवन
से आती हो, दूसरे
पर निर्भर हो,
उसे संपदा
मत मानना।
अन्यथा जिस
दिन तुम सफल होओगे,
उस दिन
आत्महत्या के
अतिरिक्त कोई
मार्ग न बचेगा।
उसको खोजना जो
तुम्हारा है
और सदा तुम्हारा
है; स्वतंत्र
है; किसी
पर निर्भर
नहीं है, ताकि
तुम मालिक हो
सको।
तुम
उसी दिन
आत्मवान बनोगे, जिस दिन
तुम्हारा
दीया बिन बाती
बिन तेल जलेगा।
न तुम तेल
मांगने जाओगे,
न तुम बाती
मांगने
जाओगे। सब खो
जाये--थोड़ा सोचना--सब
खो जाये, तो
भी तुम्हारे
होने में
रत्ती भर फर्क
न पड़े--बस, तुम
जिन हो गये।
तुम बुद्ध हो
गये। वह जो
बुद्ध
बोधिवृक्ष के
नीचे बैठे हैं,
उनको हमने
परमात्मा कहा
है, भगवान
कहा है, सिर्फ
इसीलिये कि उस
क्षण में
उन्होंने
उसको पहचान
लिया, जो
अब सबके खो
जाने से, सब
नष्ट हो जाने
से भी नष्ट
नहीं होगा।
उन्होंने
समाज-मुक्त को
पहचान लिया।
उन्होंने
दूसरे से
स्वतंत्र को
पहचान
लिया--वह, जो
दूसरे की सीमा
के बाहर है, जो दूसरे से
मिलता नहीं।
उन्होंने 'बिन
बाती बिन तेल'
जलने वाले
दीये की पहली
झलक पा ली।
वह
दीया
तुम्हारे
भीतर जल रहा
है, लेकिन जब
तक तुम्हारी
आंखें दूसरों
पर लगी रहेंगी,
तब तक तुम
उस दीये से
परिचित नहीं
हो सकते।
तुम्हारी आंख
भीतर मुड़नी
चाहिये, दूसरों
से मुक्त होनी
चाहिये।
दूसरों से मुक्त
होना संन्यास
है--दूसरों को
छोड़ना नहीं, दूसरों से
मुक्त होना।
छोड़ने वाला
शायद मुक्त
नहीं होता
क्योंकि वह
भाग जाये जंगल,
तो भी दूसरे
की ही सोचता
रहता है।
जिसको छोड़ आया
है उसकी याद
आती है; अकसर
ज्यादा आती
है।
पत्नी
को मायके भेज
दो, उसकी याद
ज्यादा आती
है। फिर उसके
दुर्गुण दिखाई
नहीं पड़ते, सदगुण दिखाई
पड़ने लगते
हैं। इसलिये
पत्नी को कभी-कभी
मायके भेजना
बिलकुल जरूरी
है। अगर तलाक
बचाना हो, तो
साल में दोत्तीन
महीने पत्नी
को मायके भेज
देना बिलकुल
जरूरी है। वह
भी ताजी होकर
आ जायेगी, तुम्हारे
गुण देखने
लगेगी। तुम भी
ताजे होकर उसके
गुण देखने
लगोगे। तीन
महीने बाद फिर
से 'हनीमून'
हो सकता है।
एक दो दिन
चलेगा। फिर
दुर्गुण दिखाई
पड़ने शुरू हो
जायेंगे।
जंगल
तुम भाग जाओ तो
और भी याद
आयेगी। जंगल
भागे
संन्यासी
मेरे पास आते
हैं, तो वे
कहते हैं, बड़ी
मुश्किल है।
सिवाय स्त्री
के कुछ याद
नहीं आता।
स्त्री ही
चक्कर काटती
है। मस्तिष्क
पूरा का पूरा
कामुकता से भर
जाता
है--भरेगा; क्योंकि
समाज छोड़कर
भागने का सवाल
नहीं है, समाज
से मुक्त होने
का सवाल है।
मुक्ति
बड़ी और बात
है। मुक्ति तो
इस अनुभव से आयेगी
कि तुम
धीरे-धीरे उस
संपदा की खोज
करो अपने भीतर, जो तुम्हारी
है; जो तुम
लेकर पैदा हुए
और जो तुम
मरते वक्त साथ
ले जाओगे; जो
जन्म के पहले
भी थी और
मृत्यु के बाद
भी होगी।
जिसको तुमने
किसी से लिया
नहीं है, जो
उधार नहीं है।
जो तुम्हारा
अपना होना है,
तुम्हारी
अपनी संपदा है,
वही आत्मा
है।
आज
इतना ही।
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