प्रेम
मृत्यु से
महान है—(प्रवचन—छठवां)
दिनांक
26 जून 1974 (प्रातः),
श्री
रजनीश आश्रम; पूना.
भगवान!
किसी
जमाने में एक
शरीफ की बेटी
थी--सौंदर्य में
अप्रतिम।
रूप
में ही नहीं, गुण-शील में
भी उसका जोड़
नहीं था।
वह
ब्याहने के
योग्य हुई तब
रूप-गुण में
श्रेष्ठ
तीन
युवकों ने
उससे ब्याह का
प्रस्ताव
रखा।
यह
देखकर कि
तीनों युवक
समान योग्यता
के हैं,
पिता
ने लड़की पर ही
चुनाव का भार
छोड़ दिया।
लेकिन
महीनों तक
लड़की कुछ तय
नहीं कर पाई।
इस बीच
वह अचानक
बीमार पड़ी और
मर गई।
बहुत
शोकपूर्वक
तीनों युवकों
ने अपनी प्रेमिका
को दफनाया।
एक
युवक ने लड़की
की कब्र को ही
अपना घर
बनाया।
दूसरा
फकीर होकर सफर
पर निकल गया।
और
तीसरा लड़की के
शोकातुर पिता
के पास ठहर
गया।
फकीर
युवक
घूमते-घूमते
एक ऐसे
व्यक्ति के घर
मेहमान हुआ, जो
मंत्रत्तंत्र
का ज्ञाता था।
जब
मेजवान के साथ
भोजन के लिये
बैठा, तभी
एक छोटा बच्चा
रोने लगा;
वह
मेजवान का
पोता था।
तांत्रिक ने
उस बच्चे को
उठाकर भाड़ में
फेंक दिया।
यह
देखकर युवक
चीख उठा और
बोला, 'राक्षस!
मैंने दुनिया
के सब दुख
देखे हैं,
लेकिन
ऐसा दुख कहीं
नहीं देखा।'
मेजवान
बोला, 'अज्ञान
के कारण
तुम्हें ऐसा
लग रहा है।'
उसने
एक मंत्र पढ़ा, डंडा हिलाया
और बच्चा
हंसता हुआ आग
से निकल आया।
युवक
ने मंत्र याद
कर लिया, डंडा लिया
और सीधे अपनी
प्रेमिका की
कब्र पर चला
गया।
और
पलक मारते ही
उसकी
प्रेमिका
जीवंत उसके सामने
खड़ी थी।
वह
अपने बाप के
घर गई। तीनों
युवक उस पर
अपने-अपने
दावे बताने
लगे,
जो
जोरदार थे।
लेकिन लड़की ने
कहा, 'जिसने
मुझे जिलाया,
वह रहमवर
था।
जिसने
मेरे पिता की
सेवा की, उसके पास
बेटे का दिल
था।
लेकिन
जो मेरी कब्र
पर रहा, वह प्रेमी
था। मैं उससे
ही ब्याह
करूंगी।'
यह
कथा एक प्रतीक
कथा है।
सूफियों ने
दिल खोलकर
इसका प्रयोग
किया है। ऊपर
से साधारण-सी
दिखती है, भीतर बहुत
असाधारण है।
कुछ प्राथमिक
बातें समझ लें,
फिर हम कथा
में प्रवेश
करें।
पहली
बात, कि सूफी
मानते हैं, प्रेम के
अतिरिक्त
सत्य का कोई
द्वार नहीं है।
प्रेमी ही
पहुंच पाता है;
ज्ञानी भटक
जाता है।
क्योंकि
जानना तो सदा
ऊपर-ऊपर है; प्रेम ही
भीतर प्रवेश
करता है।
जानना तो सतह
का है, हृदय
तो केवल प्रेम
से ही उघड़ता
है। और सत्य सतह
पर होता, तो
विज्ञान उसे
पा लेता। सत्य
गहरे में है।
और जीवन के
हृदय में जिसे
प्रवेश करना
हो, केंद्र
तक जिसे जाना
हो, वह
ज्ञान से नहीं,
प्रेम से ही
वहां तक पहुंच
सकता है।
ज्ञान
की कुंजी बहुत
द्वार खोलती
है, लेकिन
उनमें से कोई
भी द्वार
अंतर्गृह तक
नहीं जाता।
सिर्फ प्रेम
की कुंजी ही
उस द्वार को खोलती
है, जिसका
नाम हृदय है।
और सूफी कहते
हैं, परमात्मा
परम हृदय है।
संसार उसकी
परिधि है, परमात्मा
उसका केंद्र
है। और जब एक
साधारण से व्यक्ति
में भी प्रवेश
संभव नहीं है
बिना प्रेम के,
तो उस परम
हृदय में बिना
प्रेम के कैसे
प्रवेश होगा?
तो
प्रेम
सूफियों का
मार्ग है। और
इस वजह से सूफियों
ने परमात्मा
की बड़ी अनूठी
कल्पना की है, जैसी किसी
ने भी कभी
नहीं की है।
सिर्फ सूफी अकेले
हैं पृथ्वी पर,
जो
परमात्मा को
प्रेयसी के
रूप में देखते
हैं, प्रेमिका
के रूप में।
वह पुरुष नहीं
है क्योंकि
पुरुष के पास
इतना गहरा
हृदय कहां? वह प्रेयसी
है। परमात्मा
एक प्रेमिका
है और भक्त
उसका प्रेमी
है।
परमात्मा
को पिता के
रूप में लोगों
ने देखा है--ईसाई, यहूदी, मुसलमान।
परमात्मा को
प्रेमी के रूप
में भी लोगों
ने देखा है।
हिंदुओं की
बड़ी पुरानी
परंपरा है
परमात्मा को
प्रेमी के रूप
में देखने की--कृष्ण
के रूप में; तब भक्त
गोपी बन जाता
है।
बंगाल
में एक
संप्रदाय है
भक्तों का; 'सखी
संप्रदाय' उस
संप्रदाय का
नाम है। प्रेम
की बड़ी गहरी
खोज उन्होंने
भी की है।
परमात्मा
प्रेमी है, वे उसकी
सखियां हैं।
इसलिये पुरुष
भी सखी संप्रदाय
का अपने को
स्त्री ही
मानता है।
प्रार्थना-पूजा
के दिन स्त्री
के कपड़े पहनता
है। रात जैसे
कोई अपने
प्रेमी को पास
लेकर सोए, ऐसा
कृष्ण की
प्रतिमा को
लेकर सोता है।
लेकिन धारणा
यह है कि
कृष्ण पति है,
वह पत्नी
है।
सूफी
अकेले हैं, जिन्होंने
बड़ी हिम्मत
की। खुद को
प्रेमी और परमात्मा
को प्रेयसी
माना है।
इस बात
में सचाई होने
की संभावना
ज्यादा है क्योंकि
पुरुष का
चित्त ज्ञान
के आसपास
घूमता है।
स्त्री का समग्र
भाव प्रेम के
आसपास घूमता
है। पुरुष अगर
प्रेम भी करता
है तो भी उसका
एक अंश ही
प्रेमी बन
पाता है।
स्त्री जब भी
प्रेम करती है
तो उसका समग्र
हृदय प्रेम बन
जाता है।
स्त्री पूरी की
पूरी
प्रेमिका बन
जाती है।
परमात्मा
खंडित तो नहीं
हो सकता। अगर
वह प्रेमी है
तो वह स्त्री
जैसा होगा।
अखंड उसका
प्रेम होगा।
पुरुष का
प्रेम बदल भी
जाता है।
पुरुष का चित्त, मन; बड़ी
तरंगों से भरा
हुआ है; बड़े
ऊपर के आकर्षण
उसे खींचते
हैं, आंदोलित
करते हैं।
स्त्री अनन्य
भाव से एक की पूजा
में रत रह
पाती है।
इसलिये
स्त्रियां तो
सती हो सकीं, एक भी पुरुष
सती नहीं हो
सका। एक
प्रेमी मर गया
तो स्त्री के
जीवन का सारा
सार खो जाता
है। दूसरे
पुरुष में उसी
सार को खोजना
स्त्री के लिए
अकल्पनीय
हैं। और जहां
भी स्त्रियां
दूसरे पुरुष
में उस सार को
खोजेंगी, वहां
उनका स्त्रैण
क्षीण हो
जायेगा। उनकी
गहरी गरिमा
नष्ट हो
जायेगी।
पश्चिम
की स्त्री
छिछली होती
जाती है। उसका
अस्तित्व
परिधि पर होता
जाता है।
स्त्री की पूरी
गरिमा तो पूरब
ने खोजी थी।
पर अनन्य भाव, एक के प्रति
समग्र समर्पण?--समर्पण ऐसा
कि अगर वह मर
जाये तो वह
उसकी मृत्यु
मेरी भी
मृत्यु बन
जाये। प्रेमी
का जीवन ही
जीवन; प्रेमी
की
मृत्यु--मृत्यु!
पुरुष
सती नहीं हो
सकता। पुरुष
उच्छृंखल है। क्योंकि
पुरुष की सारी
पकड़ मन से है, बुद्धि से
है। और बुद्धि
का अनन्य भाव
नहीं होता।
बुद्धि में
भक्ति होती ही
नहीं, श्रद्धा
होती ही नहीं,
संदेह होता
है। पुरुष जब
प्रेम भी करता
है तब भी
संदिग्ध रहता
है। पता नहीं
ठीक है या गलत!
पता नहीं यही
स्त्री
प्रेमिका
होने की पात्र
है या नहीं! और
यह संदेह सदा
पीछा करता है।
स्त्री
श्रद्धा है।
हृदय में कोई
संदेह की तरंग
नहीं उठती।
इसलिये
सूफियों ने परमात्मा
को स्त्री
माना है। वह
शुद्ध हृदय है, वहां विचार
की कोई तरंग
नहीं है। वह
शुद्ध प्रेम
है। और वह
प्रेम अनन्य
भाव से बरस
रहा है।
भक्त
पुरुष है
क्योंकि वहां
संदेह है।
गहरे से गहरे
भक्त में भी
संदेह बना
रहता
है--मजबूरी है!
क्योंकि
हमारा
व्यक्तित्व
खंड-खंड है, बंटा है, द्वंद्व
में है। एक
हिस्सा
श्रद्धा करता
है, दूसरा
अश्रद्धा
करता है। एक
से हम भाव
बनाते हैं, दूसरा भाव
को नष्ट करता
है। सूफी कहते
हैं, भक्त
पुरुष जैसा है,
परमात्मा
स्त्री जैसा
है।
और जिस
दिन भक्त
परिपूर्ण रूप
से परमात्मा
में लीन हो
जाये, उस
दिन उसके पास
भी स्त्री
जैसा हृदय
होगा।
तो
स्त्री का
हृदय परम
द्वार है।
प्रेम मार्ग है, विचार नहीं
है।
दुनिया
के धर्म दो
मार्ग खोजे
हैं। एक मार्ग
है, ध्यान; और एक मार्ग
है, प्रेम।
दो ही मार्ग
हैं। बुद्ध, महावीर, पतंजलि
ध्यान को
मार्ग मानते
हैं। इसलिये
उन तीनों ने
प्रेम को
काटने का सारा
उपाय किया है।
क्योंकि जब तक
तुम प्रेम में
पड़े हो, तब
तक तुम कैसे
ध्यान करोगे?
ध्यान का
अर्थ
है--अकेले
होने की
क्षमता। ध्यान
का अर्थ
है--केवल भाव!
एकांत! मैं ही
हूं, कोई
दूसरा नहीं।
और मैं अपने
से राजी हूं।
कोई तड़फन नहीं,
कोई पीड़ा
नहीं, कोई
विरह नहीं, कोई पाने की
आकांक्षा, वासना
नहीं। धन की
ही नहीं, परमात्मा
को भी पाने की
वासना नहीं; तभी ध्यान
होगा।
इसलिये
बुद्ध-महावीर
कहते हैं, परमात्मा है
ही नहीं। और
पतंजलि कहते
हैं, आवश्यक
नहीं है। कोई
न मान सके तो
ठीक है, परमात्मा
को मान ले, लेकिन
जरूरी नहीं
है। योगी के लिए
परमात्मा की
कोई जरूरत
नहीं।
क्योंकि योगी
की सारी साधना
दूसरे से
मुक्त होने की
है। ध्यान का
अर्थ
है--दूसरे से
मुक्त होने का
प्रयास।
इसलिये
ध्यानी कभी भी
प्रेम को जगह
नहीं दे सकता।
इसलिये बुद्ध
के पास या
महावीर के पास
जाकर अगर
प्रेम की
चर्चा करें तो
वे कहेंगे, तुम नासमझ
हो।
कल ही
मैं पश्चिम के
एक बहुत बड़े
नास्तिक विचारक
एपीकुरस के
वचन पढ़ रहा
था। एपीकुरस
नास्तिक है; ईश्वर को
मानता नहीं।
ठीक
बुद्ध-महावीर
जैसा ही है।
बड़ी अदभुत बात
उसने लिखी है।
उसने ज्ञानी
के लक्षण लिखे
हैं, उसमें
एक लक्षण है
कि ज्ञानी कभी
प्रेम नहीं
करेगा। यह
लक्षण बिलकुल
ठीक है।
ज्ञानी कैसे
प्रेम कर सकता
है? एपीकुरस
कहता है, सिर्फ
अज्ञानी ही
प्रेम में पड़
सकता है, ज्ञानी
कैसे प्रेम
में पड़ेगा? ज्ञानी
विवाह भला कर
ले, लेकिन
प्रेम नहीं कर
सकता।
क्योंकि
विवाह एक संस्थागत
बात है, एक
व्यावहारिक, औपचारिक बात
है। पत्नी की
जरूरत है सेवा
के लिए, भोजन
के लिए, घर
सम्हालने के
लिए। तो
ज्ञानी विवाह
कर ले क्योंकि
विवाह की
उपयोगिता है।
लेकिन ज्ञानी
प्रेम में
नहीं पड़ सकता।
'ए वाइज़
मैन कैन नाट
फाल इन लव।' और एपीकुरस
कहता है कि
अगर बुद्धिमान
प्रेम में पड़
जाये तो फिर
निर्बुद्धि
में और
बुद्धिमान
में भेद क्या?
बुद्धिमानों
ने ही प्रेम
में 'गिरने'
शब्द का
उपयोग किया
है। 'फालिंग
इन लव'; उसमें
पतन है, इसलिये
फालिंग; इसलिये
गिरने का भाव
है। इसका मतलब,
तुम अपनी
बुद्धिमता से
गिर गये।
प्रेमी
पागल जैसा
मालूम पड़ता है
बुद्धिमानों
को--और है भी।
क्योंकि
बुद्धि से तो
जीता नहीं है, हृदय से
जीता है। हृदय
के पास कोई
तर्क तो नहीं
है; भाव
है। भाव अंधा
है। या फिर
भाव के पास
ऐसी आंखें हैं,
जिनको
बुद्धि नहीं
पहचान पाती।
तो
बुद्ध, महावीर,
पतंजलि
तीनों ही
प्रेम को
काटते हैं, ताकि ध्यान
पूर्ण हो सके।
इसलिये सभी की
साधना विराग
की साधना है।
प्रेम है राग,
काटना है
प्रेम को।
प्रेम को इतना
काट देना है
कि दूसरा बचे
ही न; तुम
अकेले बचो।
दूसरे की
स्मृति भी न
आये, दूसरे
का विचार भी न
उठे। जिस दिन
तुम बिलकुल अकेले
हो और यह सारा
जगत खो गया और
इसमें कोई
दूसरा न बचा, जिससे
तुम्हारे
संतोष का कोई
भी संबंध है, जिससे
तुम्हारे सुख
का कोई भी
सेतु है, जिस
पर तुम किसी
भी तरह निर्भर
हो; जिस
दिन तुम
परिपूर्ण
स्वतंत्र हो
गये। परिपूर्ण
स्वतंत्र तो
तुम तभी होओगे,
जब प्रेम
बिलकुल कट
जाये।
क्योंकि
प्रेम तो एक
तरह की
परतंत्रता
है। दूसरा
उसमें जरूरी
है। और दूसरे
का सुख तुम्हारे
सुख का आधार
है। दूसरा
दुखी हो तो तुम
दुखी हो जाते
हो। तो प्रेमी
तो कैसे
ध्यानी हो
सकता है?
एक तो
मार्ग
ध्यानियों का
है। बुद्ध, महावीर, पतंजलि
उसके शिखर
हैं।
एक मार्ग
प्रेमियों का
है। और प्रेमी
कहते हैं कि
जब तक
तुम्हारे
जीवन में
प्रेम का
पागलपन न आया, प्रेम की
मस्ती न आई, तब तक
तुम्हारा
अहंकार
मिटेगा कैसे?
ध्यानी का
जोर है कि
दूसरे पर तुम
निर्भर रहो तो
तुम परतंत्र
हो। प्रेमी का
जोर है कि अगर
तुम बिलकुल
स्वतंत्र होने
की कोशिश किए
तो तुम्हारा
अहांकर कैसे
मिटेगा ? तुम
ही बच रहोगे
आखिर में, वही
तुम्हारा
शुद्ध अहंकार
होगा। और
अहंकार ही
बाधा है।
प्रेम की
कीमिया में ही
अहंकार पिघलता
है। प्रेम की
आग में ही
अहंकार जलता
है। प्रेमी
कहते हैं, दूसरे
का उपयोग तुम
निर्भरता के
लिए क्यों
करते हो? दूसरे
का उपयोग
समर्पण के लिए
करो। दूसरे पर
निर्भर होने
का सवाल ही
नहीं, दूसरे
में खो जाने
का सवाल है।
और जब तुम
बचोगे ही नहीं
तो कौन निर्भर?
कौन
परतंत्र?
इसे
जरा समझ लें।
मिटाते दोनों
हैं--ध्यानी
दूसरे को
मिटाता है, प्रेमी अपने
को मिटाता है।
प्रेमी कहता
है, दूसरा
ही बचेगा। एक
घड़ी आयेगी, जब मैं
रहूंगा ही
नहीं। फिर
किसकी
परतंत्रता? किसका बंधन?
फिर कौन दुख
में? दो
हैं अभी, एक
बचना चाहिए।
ध्यानी दूसरे
को मिटाकर
अपने को बचा
लेता है; प्रेमी
अपने को
मिटाकर दूसरे
को बचा लेता
है। जिस दिन
एक बच जाता है,
उसी दिन
सत्य उपलब्ध
हो जाता है।
क्योंकि सत्य
यानी एक। सत्य
यानी अद्वैत।
अब इस
अद्वैत को
पाने के दो
ढंग हो सकते
हैं: या तो मैं
मिटूं, या
तुम मिटो। तू
ना रहे, या
मैं ना रहूं।
दोनों मार्ग
हैं। मेरे
देखे दोनों
सही हैं।
दोनों तरफ से
लोग पहुंचे
हैं। सूफी हैं,
कृष्ण-भक्त
हैं, मीरा
है, चैतन्य
है, ये
प्रेम के
रास्ते से
पहुंचे। और
इनकी ऊंचाई बुद्ध,
महावीर और
पतंजलि से जरा
भी कम नहीं; इंच भर भी कम
नहीं।
क्योंकि जब एक
बचता है तो फर्क
ही नहीं रह
जाता, कौन
बचा! उसे हम
क्या कहें? उसे आत्मा
कहें? ध्यानी
उसे आत्मा
कहता है; प्रेमी
उसे परमात्मा
कहता है।
इसलिये ध्यानी
परमात्मा की
बात को छोड़ते
हैं क्योंकि
परमात्मा में
दूसरा आ जाता
है। सिर्फ
आत्मा! इसलिये
महावीर कहते
हैं, आत्मा
ही परमात्मा
है। और प्रेमी
कहता है, तू
ही मैं हूं।
जलालुद्दीन
रूमी की
प्रसिद्ध
कविता है।
प्रेमी
आया और उसने
अपनी प्रेयसी
के द्वार पर
दस्तक दी।
भीतर
से पूछा गया, 'कौन? कौन
आया?'
उसने
कहा, 'मैं।
क्या मेरी
दस्तक तू नहीं
पहचानी? क्या
मेरे चरण की
आवाज तू न
पहचानी? मैं
तो सोचता था
तू मुझे पहचान
गई; इसलिये
हवा का झोंका
भी मेरा तुझे
खबर दे देगा।
मैं तेरा
प्रेमी।'
लेकिन
फिर भीतर से
कोई आवाज न
आई। दरवाजे भी
न खुले।
प्रेमी ने
बहुत सिर मारा
तो भीतर से
केवल इतनी खबर
आई कि जब तक 'तू'
है, तब
तक दरवाजा
कैसे खुल सकता
है? प्रेम
का दरवाजा 'मैं' के
लिए कैसे खुल
सकता है? तो
जब तू तैयार
हो जाये तब
लौट आना।'
अनेक
दिन आये और
गये, अनेक
चांदत्तारे
बीते; तब
फिर वर्षों
बाद प्रेमी
उसके द्वार पर
आया। उसने
दस्तक दी।
भीतर
से वही सवाल!
प्रेम सदा वही
पूछता है, 'कौन?'
उसने
कहा, 'अब तो तू
ही है।'
तो
रूमी कहते हैं, दरवाजा उस
दिन खुल गया।
यह
सूफियों का
सार है। मिटना
है दो को; और
बनना है एक।
पर प्रक्रिया
दोनों की बड़ी
अलग हो
जायेगी। क्योंकि
ध्यानी को
दूसरे को
भुलाना है और
प्रेमी को
अपने को
भुलाना है।
ध्यानी को
दूसरे से मुक्त
होना है, प्रेमी
को अपने से
मुक्त होना
है। ध्यानी
हत्यारे की
भांति है, और
प्रेमी
आत्मघाती की
भांति।
ध्यानी काटता है
दूसरे को, अकेला
बच जाये।
प्रेमी काटता
है अपने को कि
मैं न बचूं, वही बच
जाये।
दोनों
रास्तों से
लोग पहुंचे
हैं। दोनों से
लोग सदा
पहुंचते
रहेंगे। मेरे
लिए कोई चुनाव
नहीं है, विकल्प
नहीं है। मुझे
इन दोनों में
कोई भेद नहीं
है। इसलिये
पतंजलि पर भी
मुझे बोलने
में सुख है और
सूफियों पर भी
बोलने में सुख
है।
और जब
मैं तुमसे
कहता हूं तो
तुमसे कोई
मार्ग चुनने
को नहीं कह
रहा हूं। तुम
अपने को
पहचानना।
अपने भाव को
पहचानना।
तुम्हें फिर
जो सरल लगे, उससे चले
जाना। जो सरल,
वही
तुम्हारे लिए
मार्ग है।
मार्गों का
चुनाव नहीं
करना है तुम्हें,
अपनी पहचान
करनी है। अगर
प्रेम ही
तुम्हारे जीवन
की धारा हो तो
तुम अपने को
मिटाना और
परमात्मा को
बचाना। अगर
तुम पाओ कि
प्रेम
तुम्हारे
जीवन में उठता
ही नहीं; खींचते
हो तो भी
बैठ-बैठ जाता
है। हृदय
धड़कता
ही नहीं, भाव
पकड़ता ही नहीं;
विचार ही
दौड़ते हैं, तर्क ही
पकड़ता है; श्रद्धा
गहरी नहीं
होती, संदेह
ही गहरा है, तो फिर
ध्यान ही
तुम्हारा
मार्ग है। और
कोई ऊंचा-नीचा
नहीं है।
अब हम
इस कहानी को
लें।
कहानी
कहती है, युवती
है एक सुंदर।
तीन हैं उसके
प्रेमी। प्रेयसी
एक, प्रेमी
तीन।
पहली
बात समझ लेनी
जरूरी है।
परमात्मा एक, प्रेमी
अनेक। अनंतता
प्रेमियों की
है; प्रेयसी
की अनंतता
नहीं है, प्रेयसी
एक है।
कहानी
कहती है कि
युवती को बड़ी
कठिनाई है, कैसे चुनें!
तीनों समान
गुणधर्मा
हैं। समान बुद्धिमान
हैं, सुंदर
हैं, स्वस्थ
हैं। गुणों की
तरफ से तौलने
का कोई उपाय
नहीं है।
तीनों का प्रेम
है उसकी तरफ।
अगर गुणों में
कमी-बेशी होती
तो चुनाव आसान
हो जाता।
लेकिन वे
तीनों समान
गुणधर्मा
हैं।
इसे
थोड़ा समझना
चाहिए। असल
में प्रेम के
लिए गुणों का
सवाल ही नहीं
है। जहां गुण
का सवाल है, वहां बुद्धि
प्रवेश कर
जाती है।
बुद्धि
सोचती है कि
किसका गुण ज्यादा, किसका कम।
बुद्धि तुलना
करती है।
बुद्धि हिसाब
बिठाती है। तो
सच नहीं है यह
बात, कि
तीनों समान
गुणधर्मा थे;
क्योंकि हो
नहीं सकते।
ऐसा युवती को
दिखाई पड़ता है,
तीनों समान
गुणधर्मा
हैं। तीनों हो
नहीं सकते
समान
गुणधर्मा; क्योंकि
दो समान होते
ही नहीं। थोड़े
से गणित को
खोजने की
जरूरत थी और
पता चल जाता
कि कोई गुण
में ज्यादा है,
कोई गुण में
कम है।
क्योंकि इस
जगत में समान
वस्तुएं होती
ही नहीं। दो
कंकड़ एक जैसे
नहीं होते तो
दो व्यक्ति तो
एक जैसे कैसे
हो सकते हैं? लेकिन यह
सवाल बुद्धि
का है। बुद्धि
तौल करती है, माप करती
है। बुद्धि का
अर्थ है माप; मेज़रमैंट।
तौल हो जाती
है; थोड़ा
बारीक तराजू
खोजना पड़ता बस,
लेकिन तौल
हो जाती है।
लेकिन
हृदय बुद्धि
से सोचता ही
नहीं। इसलिये जब
परमात्मा के
निकट हजारों
प्रेमियों की
प्रार्थनायें
होती हैं तो
तुम यह मत
सोचना कि मैं
ज्यादा
बुद्धिमान
हूं इसलिये
मेरी
प्रार्थना
पहले सुन ली
जायेगी; कि
मैं ज्यादा
धनी हूं
इसलिये मेरी
आवाज पहले पहुंच
जायेगी; कि
मैं बड़ा
चित्रकार हूं,
मूर्तिकार
हूं, या
राजनीतिज्ञ
हूं, इसलिये
पंक्ति में
मुझे पहले खड़े
होने का मौका
मिल जायेगा।
नहीं, तुम्हारे गुणों
का कोई सवाल
नहीं। बल्कि
तुम गुणों पर
अगर निर्भर
रहे तो यही
तुम्हारा
योग्यता का
आधार होगा।
तुम्हारा
हृदय जांचा
जायेगा।
तुम्हारे
गुणों का कोई
सवाल नहीं है।
तुम्हारी
टेलेन्ट्स का
कोई सवाल नहीं
है। तुम्हारे
परीक्षा-पत्र
और तुम्हारी
उपाधियां काम
न पड़ेंगी।
तुम्हारा
हृदय ही काम
आयेगा।
युवती
के सामने
तीनों थे, उसे तीनों
समान दिखते
थे। प्रेम से
भरा हुआ हृदय
बुद्धि से
सोचता नहीं।
इसलिये अगर
कभी तुम्हारा
हृदय सच में
ही प्रेम से
भर जाये तो
तुम भी
मापत्तौल में
मुश्किल
अनुभव करोगे।
एक मां
के लिए उसके
सात बेटे हैं, जरा भी भेद
नहीं होता।
उसमें कोई
ज्यादा बुद्धिमान,
कोई बुद्धू,
कोई स्वस्थ,
कोई
अस्वस्थ, कोई
सुंदर, कोई
कुरूप, लेकिन
मां को सातों
बेटे एक जैसे
दिखाई पड़ते हैं।
और अगर सवाल
उठ जाये कि इन
सातों में से
छह को बचा ले
और एक को मर
जाने दे तो
मां मुश्किल में
पड़ जायेगी कि
किसको छोड़ूं।
क्योंकि अगर
बुद्धि से
सोचे तो तर्क
साफ हो जायेगा
कि जो सबसे ज्यादा
बेकार है उसे।
हृदय इस भांति
नहीं सोचता, हृदय के
सोचने के ढंग
ही अलग हैं।
उस
युवती को
तीनों समान
दिखाई पड़े।
प्रेम को सदा
तीनों समान
दिखाई
पड़ेंगे।
प्रेम तुलना
करता ही नहीं।
और चूंकि यह
कथा तो मूलतः
परमात्मा की
है, इसलिये
परमात्मा को
भक्त समान
दिखाई पड़ेंगे।
उनके गुणों से
कोई भेद नहीं
पड़ता। एक भक्त
काशी से
पांडित्य
लेकर आया है
और एक भक्त
गांव का
अज्ञानी है, इससे कोई
फर्क नहीं
पड़ता। काशी का
पंडित यह दावा
नहीं कर सकता
कि मेरे पास
पांडित्य
अतिरिक्त है।
भक्ति के साथ
कुछ और भी
मेरे पास है, इसलिये पहले
मौका मुझे
मिलना चाहिए।
ना, कोई
गुणों का सवाल
नहीं है। हृदय
के भाव का ही सवाल
है। लेकिन भाव
को तौलना बड़ा
मुश्किल है। गुण
तौले जा सकते
हैं, परीक्षा
हो सकती है, भाव नहीं
तौला जा सकता
है। भाव इतना
निगूढ़ है, इतना
रहस्यपूर्ण
है, उसके
लिए कोई तराजू
निर्मित नहीं
हो सके।
पश्चिम
में
मनोवैज्ञानिकों
ने बुद्धि को
तौलने के उपाय
खोज लिए हैं।
फ्रांस में
बहुत बड़ा
विचारक
मनोवैज्ञानिक
हुआ, बेनेट; उसने
बुद्धि-अंक
खोज लिया: 'आइ-क्यू'। तो बुद्धि
नापी जा सकती
है कि कितनी
बुद्धि
तुममें है; उसका भी
तराजू है अब।
सामान्य है, सामान्य से
कम है, या
ज्यादा है, या
प्रतिभाशाली
हो, तौला
जा सकता है; कोई अड॒न
नहीं है।
पंद्रह मिनट
में पता चल
जाता है।
लेकिन प्रेम
को तौलने का
कोई उपाय अब
तक नहीं खोजा
जा सका। 'इन्टेलिजेन्स
कोशियेन्ट' खोज लिया
गया, 'लव
कोशियेन्ट' नहीं खोजा
जा सका।
बुद्धि-अंक तो
पता चल जाता है,
लेकिन
प्रेम का अंक
बिलकुल पता
नहीं चलता। प्रेम
को मापना
मुश्किल है।
कैसे हम मापें
कि प्रेम है, या प्रेम
नहीं है, या
कितना है? बुद्धि
से तो प्रश्न
पूछे जा सकते
हैं, बुद्धि
उत्तर देगी; उत्तरों से
पता चल
जायेगा।
प्रेम से कोई
प्रश्न नहीं
पूछे जा सकते।
प्रेम
तो सिर्फ
परिस्थिति
में पता
चलेगा। इसे
थोड़ा समझ लें।
प्रेम तो किसी
घटना से पता
चलेगा। प्रेम
तो किसी ऐसी
अवस्था में
पता चलेगा, जो मौजूद हो
जाये। तीन
व्यक्ति
तुम्हें प्रेम
करते हैं और
तुम डूब रहे
हो नदी में, उस वक्त पता
चलेगा कि उन
तीन में से
कौन अपनी जान
को जोखिम पर
लगाता है? कौन
छलांग लेता है?
कौन
तुम्हें
बचाने जाता है?
परिस्थिति
चाहिए। जीवंत
परिस्थिति
चाहिए तो ही
प्रेम का पता
चलेगा।
इसलिये कहानी
बड़ी साफ है।
कहानी
कहती है, लड़की
तय न कर पाई कि
किसको चुनें।
तीनों समान गुणधर्मा
मालूम हुए और
तीनों का
प्रेम मालूम होता
था। अब कोई
परिस्थिति ही
प्रगट कर सकती
है।
परिस्थिति
सूफियों ने जो
चुनी है, वह
मौत। प्रेम का
ठीक पता मौत
के क्षण में
ही चलता है, उसके पहले
नहीं। यह बड़ी
अजीब बात है।
जीवन में
प्रेम की जांच
नहीं हो पाती,
मौत में
प्रेम की जांच
होती है।
क्योंकि जीवन में
तो हम धोखा दे
सकते हैं, इसलिये
जो स्त्रियां
अपने
प्रेमियों के
लिए मर गईं आग
में जलकर
उन्होंने खबर
दी, कि
प्रेम था।
जिंदा में तो
सभी
स्त्रियां
अपने पतियों
से कहती हैं
कि तुम्हारे
बिना न जी
सकूंगी, मर
जाऊंगी। यह
सवाल नहीं है।
कौन मरता है!
यह कोई उत्तर
की बात हो तो
सभी पत्नियां
यही कहती हैं
कि तुम्हारे
बिना मर
जाऊंगी, तुम्हारे
बिना क्षण भर
न जी सकूंगी।
लेकिन कोई
मरता नहीं।
पति मर जाता
है, थोड़ा
रोना-धोना
होता है, फिर
जिंदगी शुरू
हो जाती है।
घाव भर जाते
हैं। फिर नये
प्रेमी मिल
जाते हैं।
मृत्यु
ही प्रेम की
जांच बन सकती
है, क्योंकि
मृत्यु से
गहरी कोई घटना
नहीं है। इसलिये
प्रेम को
जांचने के लिए
उससे छोटी कोई
चीज काम नहीं
आयेगी।
प्रेम
इतना गहरा है, जितनी
मृत्यु।
इसलिये
जो जानते हैं, वे जानते
हैं कि प्रेम
और मृत्यु
समान हैं, उनमें
एक गहरा
पर्याय है।
दोनों एक जैसे
हैं और उनकी
गहराई बराबर
एक जैसी है।
प्रेम का अर्थ
है, तुम्हारे
केंद्र तक छिद
जाये तीर।
मृत्यु में भी
केंद्र तक तो
तीर छिदता है।
मृत्यु में शरीर
तो छिन जाता
है, परिधि
छिन जाती है, सिर्फ तुम
रह जाते हो
केंद्र की
भांति। और प्रेम
में भी सब छिन
जाता है।
सिर्फ तुम
बचते हो, तुम्हारा
केंद्र बचता
है। तुम्हारा
अस्तित्व
मात्र बचता है,
बाकी सब छिन
जाता है।
तो
प्रेम भी उतना
ही गहरा जाता
है, जितनी
मृत्यु।
इसलिये
प्रेमी वही हो
सकता है, जो
मरने को तैयार
हो। उससे कम
की कोई
परीक्षा काम
नहीं देगी।
जीने के लिये
तो सभी तैयार
हैं। मरने की
जब तैयारी हो
तो प्रेम का
आविर्भाव होता
है। और अगर
मरने की
तैयारी न हो
तो प्रेम का
धोखा चलता है,
तब प्रेम का
व्यवसाय चलता
है।
कहानी
कहती है, वह
युवती मर गई
अचानक। इसके
सिवाय कोई
मार्ग भी न
था। जानने का बस
एक ही उपाय था
कि मृत्यु के
बाद क्या
व्यवहार है
प्रेमियों
का। उनमें से
तीनों बड़े
दुखी हुए, रोये,
पीटे, खिन्न
हुए, उदास
हुए। जीवन से
अर्थ खो गया।
एक कब्र पर ही रह
गया। दूसरा
विपन्न पिता
की सेवा में
लग गया। लड़की मर
गई और पिता
बहुत दुखी और
बूढ़ा। और
तीसरा विरागी
हो गया, संन्यस्त
हो गया, घर
छोड़कर फकीर हो
गया।
तीनों
ने जो भी
व्यवहार किया, वह
प्रेमपूर्ण
है। क्योंकि
विपन्न पिता
की सेवा में
लग जाना...इस
पिता से तो
कोई संबंध न
था, सिर्फ
प्रेयसी का
पिता था। और
प्रयेसी मर गई,
अब क्या
संबंध था? मरते
ही हमारे सब
संबंध टूट
जाते हैं।
क्योंकि सेतु
ही मिट गया तो
अब इस पिता से
क्या लेना-देना
था! लेकिन यह
पिता दुखी था,
मरी हुई
प्रेयसी का
पिता था। एक
युवक पिता की सेवा
में लग गया।
दूसरे
के जीवन में
अर्थ खो गया।
जब प्रेयसी ही
मर गई अब कुछ
पाने को न बचा, वह फकीर हो
गया। वह
परमात्मा की
तलाश पर निकल गया।
तीसरे ने जैसे
होश-हवास खो
दिया। न कुछ करने
को बचा, न
कुछ खोजने को
बचा। फकीरी तक
व्यर्थ मालूम
पड़ी। वह वहीं
कब्र पर घर
बनाकर रहने
लगा। वह कब्र
ही उसका घर हो
गयी।
तीनों
ने
प्रेमपूर्ण
व्यवहार किया
लेकिन तीनों
के प्रेम बड़े
अलग-अलग मालूम
पड़ते हैं। भेद
शुरू हो गया।
परिस्थिति ने
भेद साफ कर
दिया। जो युवक
पिता के पास
रहने लगा, उसका प्रेम
दया, करुणा,
सहानुभूति
जैसा था।
परिस्थिति ने
उघाड़ा हृदय को;
और कोई
जांचने का
उपाय न था।
उसके प्रेम
में दया थी।
लेकिन ध्यान
रहे, दया
और प्रेम बड़ी
अलग बातें
हैं। और
प्रेमी दया
नहीं मांगता,
और अगर तुम
प्रेमी को दया
करो तो दुखी
होता है।
क्योंकि दया
तो सदा अपने
से नीचे पर की
जाती है।
प्रेम समान है;
वह किसी को
नीचे नहीं
रखता। प्रेम
दूसरे को समकक्ष
मानता है। दया
तो नीचे के
प्रति की जाती
है। दया में
तुम ऊपर हो
जाते हो। और
दया का पात्र
नीचा हो जाता
है। दया तो भिक्षा
जैसी है।
प्रेम और दया
पर्यायवाची
नहीं हैं।
बहुत
से लोगों ने
यहां भूल की
हुई है। और वे
दया को प्रेम
समझ रहे हैं।
और उसके कारण
उनके जीवन में
प्रेम का फूल
नहीं खिल
पाता। पति दया
करता है पत्नी
पर, लेकिन
पत्नी तृप्त
नहीं होती
क्योंकि
पत्नी प्रेम
चाहती है, दया
नहीं। दया का
तो अर्थ है, तुमने दूसरे
को भिखारी बना
दिया। दया का
अर्थ है, तुम
धनी हो गये, तुम दाता हो
गये। दूसरा
भिक्षा-पात्र
लिए खड़ा हो
गया। दया तो
बहुत अहंकार की
घटना है।
प्रेम दया
नहीं मांगता।
क्योंकि दया
में दूसरे को
तुम दे रहे
हो। प्रेम में
भी दूसरे को
तुम देते हो; इसलिये
समानता मालूम
पड़ती है।
लेकिन प्रेम में
तुम दूसरे को
इसलिये देते
हो कि देने
में आनंद है।
दया में तुम
दूसरे को
इसलिये देते
हो कि दूसरा
दुखी है। दया
एक कर्तव्य है,
एक 'डयूटी'
है।'
वह जो
पहला युवक
पिता की सेवा
में लग गया, कर्तव्यनिष्ठ
था। नैतिक
बुद्धि उसके
भीतर थी। अब
प्रेयसी तो मर
गई है, अब
एक कर्तव्य
बचा है, जिसे
पूरा करना है।
कर्तव्य
और प्रेम बड़े
विपरीत हैं।
तुम अगर अपनी
मां की सेवा
इसलिये करते हो
कि यह कर्तव्य
है क्योंकि वह
तुम्हारी मां है, तुम्हारी
मां कभी तृप्त
न होगी।
क्योंकि मतलब
साफ है कि यह
एक बोझ है।
कर्तव्य सदा
बोझ है; वह
प्रेम नहीं
है। मां भी
चाहती थी
प्रेम। तुम
इसलिये करते
सेवा कि तुम
आनंदित होते
थे सेवा करके,
तब बात अलग
थी। सेवा
तुम्हारा
आनंद थी।
लेकिन अभी तुम
इसलिए सेवा
करते कि दूसरा
दुखी है, करना
जरूरी है। एक
कर्तव्य है, जो
पूरा करना
होगा। एक
नैतिक बुद्धि
काम कर रही है,
लेकिन हृदय
का भाव खो
गया।
दया और
प्रेम
पर्यायवाची
नहीं हैं।
प्रेम
बड़ी अनूठी
घटना है। दया
बड़ी साधारण
बात है। दया
तो कोई भी
बुद्धिमान
आदमी कर
लेगा--करनी
चाहिए। लेकिन
दया
निष्प्राण
है। वह ऐसा
पक्षी है जो मर
चुका, जिसमें
तुमने भुसा
भरकर घर पर रख
दिया है, दूर
से जीवित
दिखाई पड़ता
है।
प्रेम
उड़ता हुआ
पक्षी है आकाश
में--जीवंत!
दया मरा हुआ
पक्षी है, जिसमें भूसा
भरके रख दिया
है। देखने में
जीवंत से भी
ज्यादा स्वस्थ
मालूम पड़ सकता
है--बस देखने
में। भीतर वहां
प्राण नहीं
है।
एक
युवक
निष्ठावान था; दया और
करुणा से सेवा
में लग गया।
सूफी
फकीर कहते हैं
कि दया
तुम्हें
परमात्मा तक
नहीं
पहुंचायेगी।
दया नैतिक है, प्रेम धर्म
है। इसलिये
तुम गरीबों की
सेवा करो, भूमिहीनों
को भूमि
दिलवाओ, बीमारों
का हाथ-पैर
दाबो। अगर यह
कर्तव्य है तो
तुम चूक गये।
ईसाइयत
दया के कारण
चूकती चली गई
है। क्योंकि जीसस
ने 'सर्विस' पर, सेवा
पर बड़ा जोर
दिया। लेकिन
जीसस की सेवा
प्रेम का
पर्यायवाची
थी। ईसाई
मिशनरी सेवा
कर रहा है, क्योंकि
सेवा सीढ़ी है
परमात्मा तक
जाने की। गरीब
चाहिए, बे-पढ़े-लिखे
लोग चाहिए, आदिवासी
चाहिए, भूखे-नंगे
लोग चाहिए; उनकी सेवा
करो। क्योंकि
सेवा ही
रास्ता है, उससे ही तुम
पहुंच सकोगे।
जिस दिन
दुनिया में सभी
सुखी होंगे और
सेवा करने को
कोई न बचेगा, उस दिन ईसाई
मिशनरी के लिए
स्वर्ग जाने
का रास्ता
बंद। तो बहुत
बहरे में ईसाई
मिशनरी चाहेगा
नहीं कि
दुनिया सुखी
हो जाये।
एक
हिंदू विचारक
हैं करपात्री; उन्होंने एक
किताब लिखी है
रामराज्य और
समाजवाद पर।
समाजवाद के
खिलाफ
उन्होंने बड़ी
से बड़ी दलील
दी है, वह
यह है कि अगर
समाजवाद में
सभी लोग समान
हो गये तो दान
असंभव हो
जायेगा। और
दान के बिना
तो मोक्ष नहीं
है। हिंदू
धर्म कहता है
कि दान के
बिना मोक्ष
नहीं। तो
करपात्री
कहते हैं, गरीब
का रहना तो
जरूरी है। दान
कौन लेगा? दान
देगा कौन? और
जब हिंदू
शास्त्र कहते
हैं, दान
के बिना मोक्ष
नहीं तो अगर
दान की
व्यवस्था ही कट
गई, समाजवाद
हो गया तो
मोक्ष खो
जायेगा। तो
करपात्री के
मोक्ष के लिए
गरीब का होना
जरूरी है। गरीब
एक सीढ़ी है, जिसके सिर
पर पैर रखकर
मोक्ष तक जाना
है। यह सेवा
किस तरह की
सेवा है? यह
दान किस तरह
का दान है? इसमें
प्रेम जरा भी
नहीं है।
और अगर
ऐसी सेवा से
मोक्ष मिलता
हो तो सूफी कहते
हैं, ऐसा
मोक्ष झूठा
होगा। प्रेम
से मिलता है
मोक्ष। प्रेम
हर हालत में
किया जा सकता
है। दया हर हालत
में नहीं की
जा सकती है।
दया के लिए
दूसरे का
विपन्न होना
जरूरी है।
प्रेम सुखी से
भी किया जा सकता
है, दया
केवल दुखी से
की जा सकती
है। इसे थोड़ा
समझ लें।
यह
लड़का बाप की
सेवा करने आया
और पाता कि
बाप सितार
बजाकर आनंदित
हो रहा है। और
यह उससे कहता
है कि
तुम्हारी
लड़की मर गई और
तुम आनंदित हो
रहे हो! वह
कहता है कि
कौन मरता, कौन जीता! और
सितार बजाता
रहता। यह लड़का
छोड़कर चला
जाता। इसकी
क्या सेवा
करनी! यह दुखी
ही नहीं है।
तुम जब
भी किसी की
सेवा करने
जाते हो और
अगर तुम पाओ
कि वह दुखी
नहीं, तो
तुम दुखी
लौटते हो। तुम
दुखी की तलाश
में निकले थे।
किसी के घर
कोई मर गया है,
तुम जाते हो
शोक-संवेदना
प्रगट करने, लेकिन वहां
जाकर पाते हो
कि वहां कोई
शोक-संवेदना
का सवाल ही
नहीं है, तब
तुम उदास
लौटते हो। तुम
न केवल उदास
लौटते हो, बल्कि
नाराज लौटते
हो।
च्वांगत्से
की पत्नी मर
गई।
च्वांगत्से
तो ख्याति नाम
संत था।
सम्राट
संवेदना
प्रगट करने
आया। तो
सम्राट तैयार
करके आया
होगा।
जब भी संवेदना
प्रगट करने
कोई जाता है
तो रिहर्सल कर
लेता है, क्या
कहना! क्योंकि
संवेदना का
क्षण इतना नाजुक,
कि कहीं कुछ
गलत बात न
निकल जाये! तो
हम तैयारी करके
जाते हैं, क्या
कहेंगे, कैसे
कहेंगे। और
संवेदना का
क्षण बड़ा ही
अटपटा। किसी
के घर कोई मर
जाये और
तुम्हें जाना
पड़ता है तो
कैसी मुसीबत
मालूम पड़ती है
कि क्या करें!
इसलिये लोग
अकेले नहीं
जाते, दस-पांच
लोग जाते हैं।
उसमें बोझ बंट
जाता है।
बातचीत चल
जाती है।
यहां-वहां की
बातचीत करके
तुम दुख प्रगट
करके वापिस
लौट आते हो।
सम्राट
आया तो उदास
चेहरा करके
आया था। लेकिन
यहां देखा कि
फकीर
च्वांगत्से
एक झाड़ के
नीचे बैठकर
खंजड़ी बजा रहा
है। सम्राट को
थोड़ी चोट लगी।
जब खंजड़ी
बजाना बंद हुआ, उसने
च्वांगत्से
की तरफ देखा।
वह प्रसन्न है,
जैसा सदा
था। तो सम्राट
ने कहा कि यह
जरा सीमा के
बाहर है। दुखी
मत होओ, चलेगा;
लेकिन कम से
कम खंजड़ी तो
मत बजाओ। मत
रोओ, चलेगा,
लेकिन यह
उत्सव मनाने
का तो क्षण
नहीं है!
च्वांगत्से
ने कहा, या
तो रोओ या
उत्सव मनाओ।
दो के बीच कोई
जगह नहीं है।
या तो ऊर्जा
आंसू बनेगी, या ऊर्जा
मुस्कुराहट
बनेगी। दो के
बीच कोई जगह
नहीं है, जहां
तुम खड़े हो
जाओ।
तुमने
कभी जीवन में
ऐसी कोई जगह
जानी है--दो के
बीच? या तो तुम
उदास होते तो
या प्रसन्न; दो के मध्य
क्या है? और
कभी अगर तुम
खयाल भी करते
हो कि मैं
मध्य में हूं
तो तुम गौर से
देखना, तुम
उदास हो। मध्य
में कोई होता
ही नहीं। मध्य
में कोई जगह
ही नहीं है।
या तो ऊर्जा
बहती है आनंद
की तरफ, या
दुख की तरफ।
च्वांगत्से
ने कहा, 'मध्य
में कोई जगह
नहीं है। या
तो खंजड़ी
बजेगी, या
आंसू बहेंगे।
और आंसू बहाने
की कोई जरूरत
नहीं है; क्योंकि
न कोई मरता है,
न कोई कभी
पैदा होता है।
और फिर यह जो
मेरी पत्नी थी,
इसने मुझे
इतना सुख दिया,
इसे अगर मैं
सुखपूर्वक
बिदा भी न दे
सकूं तो और
मैं क्या कर
सकता हूं!'
सम्राट
बिना बोले
वापिस लौट
गया। दुबारा
कभी च्वांगत्से
को देखने नहीं
आया। क्योंकि
वह जो सब
तैयार करके
आया था, इसने
सब गड़बड़ कर
दिया।
तुम
दुखी आदमी की
तलाश में हो
क्योंकि
तुम्हें सेवा
का मौका मिलता
है, दया का
मौका मिलता
है। और दया
में ऐसा मजा
है अहंकार को,
जिसका कोई
हिसाब नहीं।
तुम चाहते हो
कि कोई मौका
मिले, जब
तुम दया कर
सको। इसलिये
तुम खयाल करो
कि जब तुम पर
कोई दया करता
है तो तुम
अच्छा अनुभव
नहीं करते। जब
तुम पर कोई
दया बरसाता है
तो तुम्हें
भीतर पीड़ा
होती है, तुम्हारे
अहंकार को चोट
लगती है। तुम
भी परमात्मा
से प्रार्थना
करते हो, कोई
मौका देना कि
मैं भी दया कर
सकूं इस पर।
इसलिये तुम
किसी को चोट
पहुंचाओ, वे
तुम्हें भला
माफ कर दें, लेकिन तुमने
जिस पर दया की
है, वह
तुम्हें कभी
माफ नहीं
करेगा।
एक
धनपति मेरे
पास आते थे।
बड़े अहंकारी
हैं, शुद्ध
अहंकारी हैं।
आदमी भले हैं।
भले आदमी ही
शुद्ध
अहंकारी होते
हैं, बुरे
नहीं। किसी को
चोट नहीं
पहुंचाते, किसी
को नुकसान
नहीं करते। और
जितना भी बन
सके, लोगों
की सहायता
करते हैं। वह
मुझसे पूछे कि
एक बात मेरी
समझ में नहीं
आती, मैंने
अपने सब
रिश्तेदारों
को धनपति बना
दिया। जितना
मैं दे सकता
था, उससे
ज्यादा मैंने
उन्हें दिया,
लेकिन कोई
भी मुझसे
प्रसन्न नहीं
है। और सब मेरे
दुश्मन हैं।
जिसकी मैं
सहायता करता
हूं, वही
आज नहीं कल
दुश्मन हो
जाते हैं।
मैंने
उनसे कहा कि
होगा ही। उनको
भी दया करने
का कभी मौका
दें, वह आपने
कभी नहीं
दिया। आप
दुश्मन पैदा
कर रहे हैं
क्योंकि दया
कभी भी क्षमा
नहीं की जा
सकती। और आप
इतने सुविधा
में हैं कि आप
उनको कोई मौका
नहीं देते कि
वे भी आप पर
कभी दया कर
सकें। आपका
मित्र तो कोई
हो ही नहीं
सकता। उनको
बात पहले तो
समझ में नहीं
पड़ी, धीरे-धीरे
समझ में आई।
दया
करना भी दूसरे
के अहंकार को
चोट पहुंचाना है।
प्रेम दया
नहीं कर सकता।
एक बार प्रेम
क्रोध भला करे, लेकिन प्रेम
दया नहीं कर
सकता है। दया
तो तभी होती
है, जब
प्रेम
तिरोहित हो
गया होता है।
दया तो राख है।
जब प्रेम जल
चुका होता है,
तब राख बचती
है।
दूसरा
युवक
संन्यस्त हो
गया, विरागी
हो गया। उसका
प्रेम भी बहुत
गहरा न रहा
होगा, उथला
रहा होगा। तभी
तो मृत्यु ने
सारी बदलाहट कर
दी। जहां राग
था, वहां
विराग आ गया।
प्रेम अगर
गहरा होता तो
इतना आसान
परिवर्तन
नहीं था।
छोड़कर, फकीर
होकर चल पड़ा।
देखने में तो
हमें लगेगा कि
बड़ा प्रेमी
था। सब छोड़
दिया! लेकिन
प्रेम अगर
गहरा हो तो
देख ही नहीं
पाता कि
प्रेयसी मर
सकती है।
प्रेम
सदा अमृत को
देखता है।
यह कोई
प्रेमी नहीं
था, यह इस
स्त्री को
भोगने को
उत्सुक था। और
जब स्त्री मर
गई, भोग का
द्वार बंद हो
गया तो खिन्न
और उदास! इसका
जो संन्यास है,
वह भी
वास्तविक
नहीं है; वह
खिन्नता से
पैदा हुआ है, उदासी से
पैदा हुआ है, निराशा से
पैदा हुआ है।
और इस फर्क को
ठीक से समझ
लेना।
अगर
तुम्हारा
धर्म संसार की
निराशा से
पैदा हुआ है
तो तुम्हारा
धर्म
वास्तविक
नहीं हो सकता।
क्योंकि
निराशा से
सत्य का कहीं
जन्म हुआ है? और दुख से
कहीं मोक्ष
मिला है? दुख
से जो बीज
खिलेगा, उसमें
दुख के ही बीज
लगेंगे।
अगर
तुम्हारा
संन्यास
संसार के
अनुभव से पैदा
हुआ हो, तब
बात दूसरी है।
अगर तुम्हारा
संन्यास संसार
के सुख से
पैदा हुआ हो
और संसार के
सुख ने
तुम्हें
इशारा किया हो
कि और महासुख
की संभावना है,
और तुम
परमात्मा की
खोज में गये
हो, यह बात
बिलकुल अलग
है। यह एक
विधायक तत्व
है।
संसार
में दुख है, व्यर्थता है,
इसलिये तुम
परमात्मा की
खोज पर गये
हो। तुम संसार
से थके हो।
तुम्हारी
हालत वैसी ही
है, जैसी
ईसप की लोमड़ी
की--जिसने
छलांग बहुत
मारी और अंगूर
न पा सकी, तो
वापस लौटकर गई
और अपने
मित्रों को
कहा कि अंगूर
खट्टे हैं।
संसार
खट्टा है, तो परमात्मा
बहुत मीठा
नहीं हो सकता।
संसार खट्टा
इसीलिये है कि
तुम संसार के
फल चख नहीं पाये।
और जब तुम
संसार के फल
नहीं चख पाये तो
परमात्मा के
फल तो तुम
कैसे चख पाओगे?
क्योंकि
संसार के फल
भी लंबी छलांग
से न मिल सके, तो परमात्मा
तो और भी लंबी
छलांग है।
संसार के फल
तो बहुत निकट
थे; यह
अंगूर तो बहुत
पास थे; लोमड़ी
ने थोड़ी कोशिश
की होती तो
मिल ही गये होते।
ऐसा
क्या है इस
संसार में जो
न मिल जाये? जरा-सी
कोशिश की
जरूरत है और
मिल ही जाता
है। जो
तुम्हें नहीं
मिल रहा है, वह तुम्हारी
छलांग की कमी
है और कुछ भी
नहीं है।
लेकिन अहंकार
यह मानने को
राजी नहीं
होता कि मेरी
छलांग छोटी
है। अहंकार एक
तरकीब खोजता है
कि अंगूर
खट्टे हैं
इसलिये मैं
छलांग की कोशिश
ही कहां कर
रहा हूं! सब
असार है।
तुम्हें
जीवन में बहुत
से उदास लोग
मिलेंगे जो
कहेंगे, संसार
में कोई सुख
नहीं है। उसका
कारण यह नहीं
है कि
उन्होंने
संसार के फल
चखे हैं। उसका
कुल कारण इतना
ही है, वे
फलों तक भी
नहीं पहुंच
पाये। गरीब
अकसर कहता
मिलेगा, धन
में क्या रखा
है! पद-हीन
अकसर कहता
मिलेगा, पदों
में क्या है!
बड़े-बड़े
सिकंदर आये और
चले गये।
लेकिन उसके
भीतर गौर से
झांकना, यह
उसकीर् ईष्या
का परिणाम है।
यह कोई अनुभव
नहीं है।
र्ा
जहां नहीं
पहुंच पाती है, वहां कहती
है, अंगूर
खट्टे हैं।
यह
युवक दुख से
संन्यस्त
हुआ। इसकी
फकीरी सच्ची
नहीं है। इसकी
फकीरी अनुभव-प्रेरित
नहीं है। इसकी
फकीरी
एक रोग से आई
है। यह
परमात्मा में
उत्सुक नहीं
है। यह
प्रेयसी में
अनुत्सुक हो
गया क्योंकि
वह मर गई। यह
प्रेयसी से
दूर जा रहा
है--मर गई प्रेयसी
से; परमात्मा
के पास नहीं
जा रहा है। और
इसमें बड़ा
फर्क है।
तुम
संसार से भाग
रहे हो, या
परमात्मा की
तरफ भाग रहे
हो, ये
दोनों भिन्न
बातें हैं।
अगर तुम संसार
से भाग रहे हो,
तुम
परमात्मा तक
कभी न
पहुंचोगे।
क्योंकि तुम्हारा
ध्यान अभी भी
संसार में लगा
है। लेकिन तुम
परमात्मा की
तरफ भाग रहे
हो, तब बात
बिलकुल अलग
है। संसार से
तुम्हारा कोई
प्रयोजन नहीं
है। तुम कोई
पलायनवादी
नहीं हो। तुम
खोजी हो।
यह
युवक
पलायनवादी
था। और जो
प्रेम पलायन
बन जाये वह
वास्तविक
नहीं था।
लेकिन एक
स्थिति में ही
इसका उदघाटन
हो सकता है।
तीसरा
युवक वहीं रुक
गया। प्रेयसी
मरी, कुछ भी न
बचा, परमात्मा
भी न बचा।
प्रेयसी के
अतिरिक्त कोई भी
न था। संसार
तो खो ही गया, परमात्मा भी
न बचा, जिसकी
खोज करनी हो।
जैसे प्रेयसी
ही परमतत्व थी।
इसका राग, विराग
नहीं बना।
इसका राग
शीर्षासन
करके खड़ा नहीं
हुआ। न यह
उदास हुआ, न
यह दुखी हुआ।
कब्र ही इसका
घर हो गया।
प्रेयसी का
जीवन, जीवन
था। प्रेयसी
की मृत्यु, मृत्यु हो
गई। इसने
प्रेयसी को
उसके जीवन में
ही नहीं चाहा
था; प्रेयसी
को चाहा था
जीवित या मृत।
यह चाह पूरी
थी। इस चाह
में कोई शर्त
न थी। इस चाह
में ऐसा भाव न
था कि जब तक
तुम जीवित हो,
तब तक।
तुम्हारा
होना चाहे
शरीर में हो, चाहे शरीर
के बाहर हो, रूप रहे कि
खो जाये; आकार
बचे कि मिट
जाये।
इस
युवक को कहीं
जाने को कोई
जगह न बची।
कब्र ही इसका
घर हो गया। यह
कब्र को ही
प्रेम करने लगा।
यह उत्तीर्ण
हुआ। स्थिति
इसको मिटा न
पाई। मृत्यु
से कोई फर्क न
पड़ा।
इसे
थोड़ा समझ लें।
जिन-जिन चीजों
में मृत्यु से
फर्क पड़ जाये, वह प्रेम
नहीं है।
जिस-जिस को
मृत्यु छीन ले,
मिटा दे, वह सब
पार्थिव है।
और प्रेम तो
अपार्थिव है।
सूफी
कहते हैं कि
प्रेम को
मृत्यु नहीं
मार सकती। बस
एक चीज को
मृत्यु नहीं
मार सकती, वह प्रेम
है। इसलिये वे
कहते हैं, प्रेम
परमात्मा तक
ले जायेगा। धन
नहीं ले जायेगा,
क्योंकि
मृत्यु धन को
छीन लेगी।
बुद्धि नहीं ले
जायेगी, क्योंकि
बुद्धि
मृत्यु के इसी
तरफ पड़ी रह
जायेगी।
पद-सम्मान
नहीं ले
जायेगा, क्योंकि
मृत्यु सबको
पोंछ डालती
है। सिर्फ प्रेम
ले जायेगा, क्योंकि
प्रेम को मृत्यु
नहीं पोंछ
सकती।
प्रेम
मृत्यु से बड़ा
है। प्रेम
अमृत है।
यह
युवक प्रेमी
था--उस अर्थ
में, जिसको
सूफी प्रेमी
कहते हैं।
इसका प्रेम
अनन्य था।
इसका प्रेम
बेशर्त था, अनकंडीशनल
था। तुम्हारा
प्रेम...आज
पत्नी सुंदर
है, आज
प्रेयसी के
पास रूप है तो
तुम्हारा
प्रेम है। कल
प्रेयसी बूढ़ी
हो जायेगी, तुम्हारा
प्रेम खो
जायेगा।
मृत्यु तो
बहुत दूर है, बुढ़ापा भी
दूर है। कल
प्रेयसी
बीमार पड़ जाये,
अपंग हो
जाये, कुरूप
हो जाये, लंगड़ी
हो जाये, अंधी
हो जाये, प्रेम
खो जायेगा।
मैंने
सुना है, एक
नवविवाहित
जोड़ा हनीमून
पर था। दूसरे
या तीसरे दिन
पत्नी ने पूछा
कि तुम मुझे
सदा ही प्रेम
करोगे? अगर
मैं कुरूप हो
जाऊं तब भी? बूढ़ी हो
जाऊं तब भी? यह रूप, यह
सौंदर्य न रह
जाये, तब
भी? उस
युवक ने कहा
कि देख, मैंने
कसम खाई है, सुख-दुख में
साथ देने की, मगर इसकी तो
कोई चर्चा ही
चर्च में न
उठी थी। पादरी
ने कहा था, 'सुख-दुख
में साथ देना।'
सुख-दुख में
साथ दूंगा, बाकी यह बात
मत उठाना।
इसकी तो कोई
चर्चा ही नहीं
उठी थी।
थोड़ा
मन में सोचना, कि जिसे तुम
प्रेम
करते हो, उसे
कुरूप अवस्था
में भी प्रेम
कर पाओगे? तुम्हारे
भीतर सोचकर ही
डावांडोल
होने लगेगा
भाव। नहीं, यह संभव
नहीं हो सकता।
क्योंकि
प्रेम तुमने आकृति
को किया है, शरीर को
किया है; प्रेम
तुमने
व्यक्ति को तो
किया ही नहीं।
जब आकार बदल
जायेगा तो
जिसे तुमने
प्रेम किया था
वह बचा ही
नहीं। यह
दूसरा ही
व्यक्ति है।
युवक
रुक गया। कब्र
उसका घर हो
गई। यह बड़ी
मीठी बात है।
मृत्यु उसका
आवास बन गया।
प्रेयसी खोई
नहीं। जैसे
प्रेयसी कहीं
गई नहीं। जैसे
विवाह हो ही
गया। सिर्फ
शरीर न रहा, लेकिन
अशरीरी
प्रेयसी--प्रेम
बरकरार रहा, उसकी धारा
बहती रही।
जो
फकीर हो गया
था, वह एक दिन
एक तांत्रिक
को मिल गया।
और अकसर जो फकीर
हो जाते हैं, वे किसी न
किसी दिन
तांत्रिक को
मिल जाते हैं।
तांत्रिक
से मतलब है, ऐसा व्यक्ति
जो सत्य की
खोज में नहीं,
शक्ति की
खोज में है।
इसलिये
जो लोग भी
संन्यास लेते
हैं, उन्हें
सावधान रहना
चाहिए, कि
ऐसे व्यक्ति
से मिलना न हो
जाये, जो
शक्ति की खोज
में है।
क्योंकि अहंकार
हर मौका खोजता
है खड़े हो
जाने का।
देखा
कि उस
तांत्रिक को
क्रोध आ गया
बेटे पर; उसने
उसको उठाकर
जलती आग में
फेंक दिया।
चीख उठा यह
युवक। उसने
कहा कि ऐसा
दुख तो मैंने
कभी नहीं
देखा। ऐसा
भयंकर
हत्यारा
मैंने नहीं देखा।
यह कसूर भी
कुछ न था, बच्चा
जरा रोता था; उसमें मार
डालने की क्या
जरूरत थी? वह
तांत्रिक
हंसा, उसने
मंत्र पढ़ा और
बच्चा हंसता
हुआ वापिस आ
गया।
सभी
मंत्र आकार से
संबंधित हैं, निराकार से
नहीं। इसलिये
मंत्र की
सिद्धि हो तो
आकार खो भी
सकता है; आकार
बन भी सकता
है। पर आकार
का मतलब है, संसार। आकार
का मतलब है, खेल की
दुनिया, माया।
युवक
भागा, जैसे
ही मंत्र उसने
सुना। मंत्र
कंठस्थ किया।
प्रेयसी फिर
याद आ गई।
संबंध जीवन का
था, मरण का
नहीं था। फिर
विराग, राग
बन गया। जो
राग विराग बन
सकता है, वह
किसी भी दिन
पुनः राग बन
सकता है।
क्योंकि तुम
सिर्फ
शीर्षासन कर
रहे हो।
तुममें कोई
फर्क नहीं
पड़ा। पहले तुम
पैर के बल खड़े
थे, अब तुम
सिर के बल खड़े
हो। जैसे ही
मंत्र देखा, यह बच्चे का
लौटना देखा आग
से--भागा!
फकीरी गई। वह
फकीरी कोई
वास्तविक न
थी। वह केवल
खिन्नता से
पैदा हुई थी।
संसार के दुख
से आदमी
संन्यासी हुआ
था।
कोई
मिल जाये, जो कह दे
संसार में दुख
नहीं है; और
कोई एक सीढ़ी
दे दे कि सीढ़ी
ले जाओ, अंगूरों
तक पहुंच
जाओगे। फिर यह
भूल जायेगा कि
मैं कह रहा था
कि अंगूर
खट्टे हैं।
इसने चखे तो
कभी थे नहीं।
बिना चखे लौट
आया था। अपने
को समझा रहा
था। मंत्र
क्या मिला, सीढ़ी मिल
गई। भागा वृक्ष
की तरफ, जहां
अंगूर खट्टे
थे और छोड़ आया
था। प्रेयसी फिर
अर्थपूर्ण हो
गई। वासना फिर
हरी हो गई।
लहलहा उठा। सब
फकीरी धुल गई
एक क्षण में।
आकर मंत्र पढ़ा,
प्रेयसी
जीवित हो उठी।
सूफी
इस कहानी को
गढ़े हैं सिर्फ
यह कहने के लिए, कि मृत्यु
की परिस्थति
ने प्रेम की जांच
का मौका दिया।
युवती
ने कहा कि
तीनों भले
हैं। पहले में
करुणा है, दया है, सभ्यता
है, शिष्टता
है, लेकिन
वह पुत्र होने
योग्य है; पति
होने योग्य
नहीं।
थोड़ा
समझने की बात
है। पिता
पुत्र को
प्रेम करता है; लेकिन पुत्र
सदा कर्तव्य
निभाता है, क्योंकि
प्रेम की धारा
उलटी नहीं
बहती, आगे
की तरफ बहती
है।
एक घर
में मैं
मेहमान था और
ऐसा मुझे बहुत
घरों में
अनुभव हुआ है; क्योंकि सभी
जगह रोग एक है,
बीमारी एक
है, तकलीफ
एक है। घर के
बूढ़े गृहपति
ने मुझे कहा कि
हमने इतना
प्रेम किया इन
लड़कों को, हमारी
तरफ कोई देखता
भी नहीं। मैंने
उनसे पूछा कि
अगर ये
तुम्हारी तरफ
देखें, तो
इनके लड़कों की
तरफ कौन
देखेगा? और
फिर मैं तुमसे
यह भी पूछता
हूं तुमने
अपने लड़कों को
प्रेम किया, तुमने अपने
बाप को प्रेम
किया था? जो
तुमने किया, वही ये कर
रहे हैं।
तुम्हारे बाप
भी यही शिकायत
करते हुए मरे
होंगे। वह
आदमी बोला
आपको कैसे पता
चला? पता
चलने की कोई
बात ही नहीं, सीधा गणित
है।
प्रेम
आगे की तरफ जा
रहा है।
क्योंकि यह
जिसको हम
प्रेम कहते
हैं, केवल
बायोलाजिकल
है। यह केवल
जीवशास्त्रीय
है। और जीवन
आगे की तरफ जा
रहा है। बाप
को तो बचना
नहीं है, बेटों
को बचना है।
जीवन की फिक्र
बूढ़ों को
बचाने की नहीं,
बच्चों को
बचाने की है।
तब बाप की तरफ
प्रेम डालना
तो फिजूल है; सूखे हुए
वृक्ष पर पानी
डालना है। वह
सूख ही रहा
है। वह जो नया
अंकुरित हो
रहा है, पानी
वहां जायेगा।
और जीवन बड़ा
इकानामिकल है।
प्रकृति बड़ी
इकानामिकल है,
बड़ी अर्थशास्त्रीय
है। न्यूनतम
शक्ति से
अधिकतम काम
लेना है, और
फिजूल कुछ
नहीं जाने
देना है।
तो बाप
का बेटे की
तरफ प्रेम
होता है; बेटे
का बाप की तरफ
कर्तव्य होता
है। वह कर्तव्य
निभा ले, उतना
काफी है। उतना
भी काफी है।
प्रेम तो हो नहीं
सकता।
दुश्मनी न हो,
यह भी बहुत
है। घृणा न हो,
यह भी बहुत
है।
फ्रायड
तो कहता है कि
बेटों के मन
में घृणा होती
है बाप के
प्रति।
लड़कियां मां
को घृणा करती
हैं। इसमें
सचाइयां हैं।
क्योंकि
जिनके साथ हम
बड़े होते हैं, जो हमें बड़ा
करता है, जीवन
कुछ ऐसा है, कि अनेक बार
उनके कारण
हमारे अहंकार
को चोट लगती
है। पहली तो
इसलिये चोट
लगती है कि वे
ताकतवर होते
हैं, हम
कमजोर होते
हैं।
बच्चा
आपके घर में
पैदा हुआ, वह कमजोर है,
आप ताकतवर
हैं। फिर उसको
चलाने में, बड़ा करने
में, हर
तरह से
व्यवस्था
देने में, आपको
न मालूम कितनी
आज्ञायें
देनी पड़ती
हैं। कठोर
होना पड़ता है।
हर बार उसे
चोट लगती है।
वे सब चोटें इकट्ठी
होती जाती
हैं। वह चोटों
का जो अंबार
है, वह
घृणा बन जाता
है। इतना भी
काफी है कि
बेटा कर्तव्यवश
बाप की सेवा
करे। प्रेम की
तो असंभावना
है। प्रेम तो
ऐसा होगा कि
जैसे कि गंगा
गंगोत्री की
तरफ बहे--यह तो
नहीं हो सकता--नीचे
की तरफ, सागर
की तरफ बहेगी!
तो उस
युवती ने कहा
कि यह बेटा
पुत्र होने
योग्य है।
जैसा पुत्र
होना चाहिए
वैसा है, लेकिन
पति होने
योग्य नहीं।
क्योंकि पति
होकर यह
कर्तव्य
निभायेगा, दया
करेगा, सेवा
करेगा। एकदम
अच्छा है। सब
सुव्यवस्था दे
देगा, लेकिन
प्रेम की जो
ऊंचाई है, जो
तरंग है, जो
समाधि है, वह
इससे मिलने
वाली नहीं है।
दुख में साथी
होगा, लेकिन
यह सुख का
साथी नहीं हो
सकता।
और
प्रेम है सुख
का साथ। प्रेम
है, दो उत्सव
जहां मिलते
हैं, जहां
दो जीवन
तरंगें अपनी
आखिरी उछाल
में मिलती हैं,
वह शिखर का
मिलन है।
यह
कर्तव्य का
मिलन समतल
भूमि पर है।
दुख होगा तो
यह काम का है, सुख में यह
किसी काम का
नहीं है। इससे
प्रेम नहीं हो
सकता। इससे
नाता-रिश्ता
हो सकता है
कर्तव्य
का--समतल भूमि
पर चलेगा; होशियार
है। भाव इसका
अच्छा है; काफी
नहीं है।
दूसरा
युवक, जिसने
प्रेयसी को
उठाया--कोई भी
साधारणतः
सोचेगा कि
चुनना था उसे,
जिसने फिर
से जीवन दिया।
पर युवती ने
कहा, यह
पिता जैसा है,
क्योंकि
जन्म दिया।
इसकी
उत्सुकता
मुझमें कम है,
जीवन में
ज्यादा है।
मृत्यु थी तो
यह हट गया था, जीवन है तो
यह आ गया।
जन्म देने में
इसका रस है।
और इसने मुझे जन्म
दिया, मेरे
पिता जैसा है।
लेकिन पति
नहीं हो सकता।
पति तो
यह तीसरा युवक
है। न तो इसे
कर्तव्य का कोई
भाव है, न
इसे दया का
कोई भाव है, न नीति-आचरण
का कोई हिसाब
है। इसमें
प्रेम का पागलपन
है। इसे पता
ही नहीं चला
कि जैसे मेरे मरने
और जीने में
कोई फर्क है।
इसका प्रेम
मौत से ज्यादा
गहरा है। कब्र
इसका घर हो
गई। जैसे यह
मेरे साथ ही
था। मृत्यु से
कोई रत्ती भर
भेद न पड़ा।
जिस प्रेम में
मृत्यु से भेद
पड़ जाये, वह
प्रेम नहीं
है।
अगर
मुझे पिता
चुनना हो तो
इस युवक को
चुनूंगी, जो
मंत्र लाया; जिसने इतनी
मेहनत की, मुझे
जिलाया।
लेकिन इसका
प्रेम जीवन से
बंधा है। यह
सुख का साथी
हो सकता है, दुख का साथी
नहीं हो सकता।
जीवन में साथ
चल सकता है, मृत्यु में
साथ नहीं चल
सकता। यह
मृत्यु में अकेला
छोड़ देगा। और
जो मृत्यु में
साथ जाने को राजी
न हो, उसके
जीवन का साथ
एक औपचारिकता
है। अभी राग, अभी विराग; फिर विराग
हो सकता है।
इसकी बदलाहट
हो सकती है।
प्रेम
इतना चंचल
नहीं है।
प्रेम एक थिर
भाव है; एक
समाधिस्थ दशा
है, जहां
कोई कंपन नहीं
होता।
ये
तीसरे युवक को
चुनती हूं
मैं। मृत्यु
परीक्षा बन
गई।
अर्थ
क्या है? अर्थ
यह है कि
परमात्मा की
भक्ति में परमात्मा
केवल उसी को
वरण करेगा, जो बेशर्त
हो। परमात्मा
के मंदिर में
तीनों तरह के
लोग पूजा करने
जा रहे हैं।
एक तो वे लोग हैं,
जो
परमात्मा के
मंदिर में
कर्तव्यवश
पूजा करने जा
रहे हैं।
क्योंकि सदा
जैसा होता रहा
है...
मैंने
सुना है कि एक
सुबह-सुबह एक
आदमी अभी दुकान
के दरवाजे भी
नहीं खुले थे, और अपने
लड़के को बुला
रहा था कि उठ
गये या नहीं?
तो
लड़के ने कहा, 'उठ गया हूं।'
तो कहा, 'आटे में
रद्दी आटा
मिला दिया या
नहीं?'
तो
उसने कहा, 'मिला दिया
पिता जी।'
'और
मिर्चों में
लाल कंकड़ डाल
दिये या नहीं?'
उसने
कहा, 'डाल दिये
पिता जी।'
'और
गुड़ में गोबर
मिलाया या
नहीं?'
उसने
कहा, 'डाल दिया
पिता जी। सब
कर दिया, सब
हो गया है जी।'
तो
उसने कहा, 'चल, फिर
मंदिर हो
आयें।'
यह
मंदिर है? यह जिंदगी
है? वहां
गोबर गुड़ में
मिलाया जा रहा
है। और जब सब काम
निपट गया तो
मंदिर हो
आयें। वह एक
कर्तव्य है।
एक रविवारीय
धर्म है, कि
रविवार को
सुबह चर्च हो
आयें। वह एक
सामाजिक
उपचार है; एक
शिष्टाचार
है। एक नियम, जिसको पूरा
करना उचित है।
और जिसके लाभ
हैं; जिसकी
सामाजिक
प्रतिष्ठा है,
उपयोगिता
है। एक तो वह
भी मंदिर जा
रहा है, लेकिन
उसकी
प्रार्थना
कभी परमात्मा तक
नहीं पहुंच
पायेगी
क्योंकि उसने
कभी प्रार्थना
की ही नहीं
है।
एक वह
भी वहां जा
रहा है, जो
संसार से
परेशान हो गया
है, जो
दुखी हो गया
है; जो
जीवन का अनुभव
नहीं ले पाया।
इतना समर्थ नहीं
पाया अपने को,
साहस नहीं
जुटा पाया।
जीवन से वंचित
हो गया है, या
वंचित रह गया
है। वह भी आ
रहा है
थका-हारा। उस
थके-हारे की
प्रार्थना भी
नहीं सुनी जा
सकेगी।
क्योंकि जो
संसार को भी
अनुभव करने
में समर्थ
नहीं है वह
सत्य को अनुभव
करने में कैसे
समर्थ हो पायेगा?
जो सपने में
भी पूरा नहीं
उतर सकता, वह
सत्य में कैसे
पूरा उतरेगा?
जो व्यर्थ को
नहीं समझ पाता,
वह सार्थक
को नहीं समझ
पायेगा। वह तो
और बड़ी छलांग
है।
ऐसा
आदमी निरंतर
ईश्वर से कहता
है कि तू तो मुझे
स्वीकार है, तेरा संसार
स्वीकार
नहीं। यह
स्वीकृति
अधूरी है, क्योंकि
अगर ईश्वर
मुझे स्वीकार
है तो सब मुझे
स्वीकार है; क्योंकि सभी
उसका है।
स्वीकृति
पूरी ही हो
सकती है; तब
उसका संसार भी
स्वीकृत है।
वह मुझे नर्क
में भी डाल दे
तो वह भी मुझे
स्वीकृत है।
नर्क में भी
डाले जाने पर
भक्त के हृदय
से धन्यवाद ही
निकलेगा कि
धन्यवाद! तूने
मुझे नर्क
दिया। स्वर्ग
की आकांक्षा
से ही धन्यवाद
निकलता हो, तब हमारा चुनाव
है। तब हम सुख
में तो कहेंगे
धन्यवाद और
दुख में
शिकायत
करेंगे।
जिस
हृदय से
शिकायत उठती
है, उसकी
प्रार्थना
नहीं सुनी जा
सकती। उसकी
प्रार्थना
खुशामद है।
उसकी
प्रार्थना के
पीछे शिकायत
छिपी है। ना, वह भक्त
नहीं है। उसकी
श्रद्धा पूरी
नहीं है। वैसा
ही आदमी मंदिर
में
प्रार्थना कर
रहा है। उसे
वापिस जाना
होगा। उसे
संसार में
भटकना होगा।
अभी यात्रा
अधूरी है। अभी
उसे और-और
जन्म लेने
होंगे। उसे
जानना ही होगा
कि अंगूर
खट्टे
हैं--अपने अनुभव
से--या मीठे
हैं। सिर्फ
सांत्वना के
लिए इस तरह की
बातें काम
नहीं करेंगी।
उसे संसार के
अनुभव से
गुजरकर
परिपक्व होना
पड़ेगा। जैसे
पके फल
वृक्षों से
गिरते हैं, ऐसा ही पका
अनुभव
प्रार्थना
बनता है; उसके
पहले नहीं।
और
तीसरा वह
प्रेमी भी
मंदिर आ रहा
है, जिसका
जीवन भी वहीं
है, जिसकी
मृत्यु भी
वहीं है।
मंदिर ही उसका
घर है। वह
बाहर भी जाता
है, तो
मंदिर से बाहर
नहीं जा पाता।
मंदिर उसके साथ
ही चल रहा है।
मंदिर उसके
जीवन की धारा
है; उसकी
श्वास-श्वास
का स्वर है।
और कुछ भी हो, जीवन हो या
मृत्यु हो, उसने मंदिर
को चुना है।
वह चुनाव पूरा
है। वह छोड़ेगा
नहीं। वह
चुनाव बेशर्त
है।
मैंने
सुना है, एक
सूफी फकीर
जुन्नैद को
किसी ने कहा
कि तू
प्रार्थना किए
ही चला जाता
है, पहले
यह पक्का तो
कर ले कि
परमात्मा है
या नहीं? क्योंकि
बहुत लोग
संदिग्ध हैं।
जुन्नैद ने कहा,
'परमात्मा
से क्या मतलब!
मुझे मतलब
प्रार्थना से
है।' परमात्मा
न भी हो यह
पक्का भी हो
जाये तो जुन्नेद
की प्रार्थना
चलेगी।
'मुझे
मतलब
प्रार्थना से
है।' और
जुन्नैद ने
कहा, 'मैं
तुझसे कहता
हूं, अगर
मेरी
प्रार्थना
सही है तो
परमात्मा को
होना पड़ेगा।
मैं इसलिये
प्रार्थना
नहीं कर रहा हूं
कि परमात्मा
है। मेरी
प्रार्थना
जिस दिन सच
होगी, उस
दिन परमात्मा
होगा।'
परमात्मा
के कारण
प्रार्थना
नहीं चलती
सच्चे भक्त की, प्रार्थना
के कारण
परमात्मा
पैदा होता है।
प्रेम, प्रेमपात्र
को निर्मित
करता है।
प्रेम सृजनात्मक
है। इस जगत
में प्रेम से
बड़ी कोई
सृजनात्मक
शक्ति नहीं
है। इसलिये
प्रेम मृत्यु
को तो स्वीकार
कर ही नहीं
सकता; वह
घटती ही नहीं।
अगर
तुम प्रेम
करते हो किसी
को, तो वह
मरेगा नहीं; मर नहीं
सकता। प्रेमी
कभी नहीं
मरता। प्रेमी मृत्यु
को जानता ही
नहीं। प्रेम
अमृत है।
और
सूफी कहते हैं, प्रेम द्वार
है।
यह कथा
प्रार्थना की
कथा है। इसे
साधारण प्रेम
की कथा मत समझ
लेना। सूफी
कहते हैं, दो तरह के
प्रेम हैं। एक
प्रेम लौकिक,
एक प्रेम
अलौकिक। यह
अलौकिक प्रेम
की तरफ इशारा
है। इसलिये दो
प्रेमी, जो
किसी तरह
लौकिक थे, वंचित
रह गये। उनमें
एक ही अलौकिक
था। क्योंकि
अलौकिक की
पहचान यही है
कि मृत्यु के
पार भी अलौकिक
प्रेम चलता
रहेगा। उसका
कोई अंत नहीं
है।
आज
इतना ही।
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