'बुद्धों का
उत्पन्न होना
सुखदायी है, सद्धर्म का
उपदेश
सुखदायी है, संघ में
एकता सुखदायी
है, एकतायुक्त
तप सुखदायी
है।'
दूसरे
सूत्र की
परिस्थिति—कब
बुद्ध ने यह
गाथा कही?
एक
दिन बहुत से
भिक्षु बैठे
बातें कर रहे
थे। उनकी
चर्चा का विषय
था संसार में
सुख क्या है? किसी
ने कहा राज्य—
सुख के समान
दूसरा सुख नहीं।
और किसी ने
कहा कामसुख के
सामने राजसुख
में क्या रखा
है! कामसुख की
बड़ी प्रशंसा
की। और किसी
और ने यश की
प्रशंसा की और
किसी और ने पद
की फिर कोई
भोजनभट्ट था उसने
भोजन की खूब
चर्चा की। फिर
कोई वस्त्रों का
दीवाना था तो
उसने
वस्त्रों की
खूब प्रशंसा
की। ऐसे विवाद
छिड़ गया और
तभी बुद्ध
अचानक वहां आ
गए। पीछे खड़े
होकर
भिक्षुओं की
यह सब चर्चा
और विवाद
सुनते रहे।
फिर उन्होंने
कहा भिक्षुओ
भिक्षु होकर
भी यह सब तुम
क्या कह रहे
हो।
यह सारा
संसार दुख में
है। सुख है आभास
दुख है सत्य
सुख नहीं है
ऐसा नहीं पर
संसार में तो
नहीं है। फिर
सुख कहां है? बुद्धोत्पाद
सुख है
धर्मश्रवण
सुख है समाधि सुख
है। और तब
उन्होंने यह
गाथा कही।
तो
पहले तो इस
परिस्थिति को
ठीक से अंकित
हो जाने दें
मन पर—
एक
दिन बहुत से
भिक्षु बैठे
बात कर रहे
थे। पहली तो
बात यह है कि
भिक्षु बैठकर
गपशप करें, यही
भिक्षु के लिए
योग्य नहीं।
भिक्षु चुप बैठें,
यही योग्य
है। भिक्षु
मौन हों, यही
योग्य है।
भिक्षु उतना
ही बोलें
जितना अनिवार्य
है, अपरिहार्य
है, यही
योग्य है।
भिक्षु होने
के बाद बहुत
बातें छोड़नी
हैं, उनमें
व्यर्थ की
चर्चा भी
छोड़नी है।
नहीं तो फिर
सांसारिक और
संन्यासी में
क्या फर्क
रहा! फिर
संसार की ही
बातें भिक्षु
भी कर रहे हों तो
अंतर वेश का
ही हुआ, अंतरात्मा
का नहीं।
तो
पहली तो बात
बहुत से
भिक्षु बैठे
बातें कर रहे
थे। भिक्षु जब
बैठें, चुप
बैठें, मौन
बैठें, सन्नाटे
में डूबे, शून्य
में उतरें।
भिक्षु का
अर्थ ही है, समाधि की
तलाश। गपशप से
तो समाधि की
तलाश नहीं
होगी।
तुम
भी सोचना, तुम
भी संन्यस्त
हो, तुम
बैठकर अगर
व्यर्थ की
बातें करते हो,
तो विचार
करना, इन
बातों से क्या
होगा? और
अगर ये बातें
वैसी ही हैं
जैसी होटलों
में लोग कर
रहे हैं बैठकर,
अगर ये
बातें वैसी ही
हैं जैसी
क्लबघरों में
चल रही हैं, दुकानों पर
चल रही हैं, बाजार में
चल रही हैं, तो फिर
तुममें और उन
लोगों में
फर्क क्या
होगा? तुम्हारी
बात से
तुम्हारा पता
चलता है। बात
ऐसे ही थोड़े आ
जाती है! बात
तो फल है। नीम
के वृक्ष में
कड़वे फल लगते
हैं, वह
नीम की बात।
आम के वृक्ष
में आम के फल
लगते हैं, मीठे
फल लगते हैं, वह आम की
बात। तुम कैसी
बात करते हो, उसका थोड़ा
विचार करना, सोचना, क्या
बात करते हो? उस बात से
पता चल जाएगा
कि तुम्हारे
भीतर जहर बह
रहा है कि
अमृत।
जिसके
भीतर अमृत बह
रहा है, उसकी
बात का सारा
ढाचा बदल
जाएगा। वह कभी
बात भी करेगा
तो परमात्मा
की, प्रार्थना
की, पूजा
की, ध्यान
की। वह कभी
बात भी करेगा
तो बुद्ध की, महावीर की, कृष्ण की, क्राइस्ट
की। और वह भी
बहुत ज्यादा
नहीं करेगा।
क्योंकि बहुत
ज्यादा करने
को है भी क्या?
कभी अगर रस
भी लेगा तो
जिसको हम
रामकथा कहते हैं,
रामचर्चा
कहते
हैं—स्वांतसुखाय
तुलसी रघुनाथ
गाथा—वह बैठकर
खुद के और
दूसरे के सुख
के लिए
कभी—कभी राम
की कथा कहेगा।
स्त्री—कथा तो
नहीं कहेगा।
धन—कथा तो
नहीं कहेगा।
सत्संग कभी
करेगा, रोके
दो भिक्षु मिल
जाएंगे, बैठकर
आनंद की बात
करेंगे, अपनी
एक—दूसरे को
समाधि की
चर्चा कहेंगे,
क्या हो रहा
है भीतर उसका
थोड़ा इशारा
करेंगे, दूसरे
से थोड़ा सहारा
लेंगे, एक—दूसरे
के सहारे आगे
बढ़ेंगे, सत्संग
होगा।
तो
बुद्ध जरूर
चौंके होंगे।
उन्होंने कहा, भिक्षुओ,
भिक्षु
होकर भी यह सब
तुम क्या कह
रहे हो! यह तो चर्चा
तुम जो कर रहे
हो, भिक्षुओं
जैसी नहीं।
पहले तो चुप
होना उचित था।
अगर चर्चा ही
करनी थी तो
परमात्मा की
चर्चा करनी
उचित थी। और
उनकी चर्चा का
विषय क्या था?
विषय
था—संसार में
सुख क्या है? यह भी बड़ा
सूचक है। जब
भिक्षु संसार
के सुख की बातें
कर रहा हो, तो
उसका मतलब है
कि— वह संसार
से कच्चा चला
आया, अभी
मन वहीं अटका
है, अभी मन
वहीं जाता है।’
रामकृष्ण
कहते थे कि
चील आकाश में
भी उड़ती है, लेकिन
उसका ध्यान
नीचे? कचरे
के ढेर पर लगा
रहता है कि
कोई मरा हुआ
चूहा पड़ा हो।
उड़ती आकाश में
है, बड़ी
ऊंची उड़ती है,
ऊंची उड़ने
की वजह से
धोखे में मत
पड़ जाना कि चील
भी कैसी ऊंची
जा रही है!
ऊंची—बूंची
नहीं जा रही
है, मंडरा
रही है, वह
नीचे जो कचरे
के ढेर पर मरा
चूहा पड़ा
है—प्रतीक्षा
कर रही है कि
अगर कोई देखता
न हो, कोई
आसपास न हो तो
झपट्टा मार
ले।
तो
ये भिक्षु
मंडराती हुई
चील जैसे रहे
होंगे। थे ये
बात क्या कर
रहे हैं! —कि
संसार में सुख, सबसे
बड़ा सुख क्या
है? अगर
संसार में सुख
ही था तो
छोड्कर आए
क्यों? जब
संसार में दुख
ही दुख रह जाए,
तभी तो कोई
संन्यस्त हो।
जब यह समझ में
आ जाए कि यहां
कुछ भी नहीं
है, खाली
पानी के बबूले
हैं, आकाश
में बने
इंद्रधनुष
हैं, आकाश—कुसुम
हैं, यहां
कुछ है नहीं, तभी तो कोई
संन्यस्त
होता।
संन्यास का
अर्थ ही है, संसार
व्यर्थ हो गया
है—जानकर, अनुभव
से, अपने
ही
साक्षात्कार
से। ये भिक्षु
ऐसे ही भागकर
चले आए होंगे।
किसी की पत्नी
मर गयी होगी, संन्यासी हो
गया होगा।
किसी का
दिवाला निकल गया
होगा, संन्यासी
हो गया होगा।
कोई चुनाव में
हार गया होगा,
संन्यासी
हो गया
होगा—अब तुम
देखना बहुत से
लोग संन्यासी
होंगे! फिर
कुछ और बचता
भी नहीं।
जो
नहीं मिला, यह
भी अहंकार
मानने को
तैयार नहीं
होता कि नहीं
मिला। अहंकार
कहने लगता है,
मह खट्टे
हैं। छलता
लगाती है
लोमड़ी बहुत, अंह के
गुच्छे ऊपर
हैं, नहीं
पहुंच पाती।
नहीं पहुंच
पाती, यह
भी तो स्वीकार
करने का मन
नहीं होता। चल
पड़ती है अकड़कर,
कोई पूछता
है कि चाची, क्या हुआ? तो लोमड़ी
कहती है—अंगूर
खट्टे थे।
संजय
गांधी ने—देखा
न—संन्यास ले
लिया राजनीति
से। क्या हुआ? अंगूर
खट्टे थे। अब
संजय गांधी
कहते हैं कि
अब तो हम जनता
की सेवा बिना
पद के करेंगे।
पहले कौन रोक
रहा था? अब
यह बोध आया? तो बहुत से
लोग संजय
गांधी जैसे
संन्यासी हो जाते
हैं। यह
संन्यास नहीं
है। यह केवल
हार को लीपा—पोती
करके छिपाने
का उपाय है।
अब हार को भी
सुंदर ढंग
देने की
व्यवस्था।
मुफ्त पद मिलता
होता तो कोई
छोड़ने को राजी
न था। अब नहीं
मिल रहा है, महंगा पड़ा
है, मुश्किल
पड़ा है, तो
छोड़ने की
तैयारी है।
मगर जो है ही
नहीं, उसको
छोड़ रहे हो! जो
मिला ही नहीं,
उसका त्याग
कर रहे हो!
थोड़ा संन्यास
का मतलब तो
समझो। जो नहीं
है, उसका
कैसे त्याग
करोगे? जाना
हो, जीआ हो,
और चखे हों
और खट्टे पाए
हों, तो
छोड़े जा सकते
हैं। यह तो
अपने को समझा
लेने की
व्यवस्था है,
सांत्वना
का उपाय है।
तो
ये बैठे होंगे
भिक्षु, ये सब
संन्यासी हो
गए हैं, इनके
कारण गलत रहे
होंगे। यह
संन्यास ठीक
बुनियाद पर
खड़ा हुआ
संन्यास नहीं
है। ये हारे—
थके लोग हैं।
जीवन में, संघर्ष
में टिक नहीं
पाए, संन्यासी
हो गए
हैं—कहकर कि
संसार बेकार
है, रखा
क्या है!
लेकिन अब भी
मन तो
वहीं—वहीं
जाता है।
बैठते होंगे
जब स्वात में
तो चर्चा वहीं
की उठती होगी।
सो चर्चा उठी
है।
किसी
ने कहा, राज्य—सुख
के समान दूसरा
सुख नहीं। अब
एक बात पक्की
है कि इस आदमी
ने राज्य—सुख
नहीं जाना है।
जिसने जाना है,
वह बुद्ध तो
छोड्कर आ गए
हैं, जिसने
जाना है, वह
महावीर तो
त्याग दिए
हैं। इस आदमी
ने राज्य—सुख
नहीं जाना है,
इसने दूर से
राजाओं की
डोली उठते
देखी है, राजाओं
के हाथी पर
निकलते जुलूस,
शोभायात्राए
देखी हैं, राजमहल
दूर से देखे
हैं, सड़क
से खड़े होकर, चमकते हुए
कंगूरे
राजमहलों के,
स्वर्णमडित
राजमहल इसने
देखे हैं। मगर
दूर से, राजमहल
के भीतर क्या
घटता है, इसका
इसे कुछ पता
नहीं है। इसकी
वासना में राजमहल
बसे हैं। यह
भी चाहता था
हो जाए, और
अगर आज कोई
इसको राजमहल
देने को राजी
हो तो यह
संन्यास छोड्कर
खड़ा हो जाएगा
कि मैं आया।
यह एक बार भी लौटकर
फिर संन्यास
की तरफ नहीं
देखेगा।
अभागे आदमी
हैं, बुद्धपुरुषों
के पास बैठकर
भी राज्य—सुख
की बात कर रहे
हैं! सोच रहे
हैं कि राज
में सुख होगा।
राजसुख
के समान दूसरा
सुख नहीं है।
और किसी ने
कहा,
कामसुख; अरे
कामसुख के
सामने राजसुख
में क्या रखा
है! असली सुख स्त्री
है। या असली
सुख पुरुष है।
यह आदमी कामवचित
है। इसने
कामवासना को
दबा लिया है।
इसने कामवासना
का दंश नहीं
जाना, पीडा
नहीं जानी, इसने
कामवासना का
जहर नहीं
जाना। यह ऐसे
ही भाग आया
है। इसको
स्त्री मिली
नहीं। इसके मन
में वासना
अधूरी रह गयी
है—जड़ें रह
गयी हैं, पत्ते
ऊपर—ऊपर काट
डाले हैं, नए
अंकुर निकल
रहे हैं। और
फिर किसी ने
कहा, यश
बड़ी चीज है।
और फिर किसी
ने कहा, भोजन;
और फिर किसी
ने कहा, वस्त्र।
ये सब साधारण
लोग हैं, जो
गलत कारणों से
संसार छोड्कर
आ गए हैं।
इन्होंने
संसार छोड़ा
नहीं, ये
संसार में अब
भी हैं, इनके
वस्त्र बदल गए
हैं।
इसलिए
मैं तुमसे
संसार छोड़ने
को कहता ही
नहीं। मैं
कहता हूं तुम
वहीं रहो, वहीं
जागे हुए जीओ।
क्योंकि
दुनिया में
बहुत भगोड़े
हैं, अगर
उन्हें मौका
मिल जाए भागने
का, कोई
बहाना मिल जाए
भागने का, तो
वे भाग खड़े
होंगे। मैं
तुमसे भागने
को नहीं कहता
हूं; मैं
कहता हूं,
वहीं रहो, मह
चख— चखकर
व्यर्थ हो
जाने दो, खट्टे
हो जाने दो, अपने आप गिर
जाने दो ' ताकि
तुम्हारे
जीवन का स्वाद
ही तुम्हें कह
दे, अनुभव
तुम्हें कह दे,
अनुभव
तुम्हारी
निष्पत्ति बन
जाए। फिर भागना
कहा है? संसार
अपने से गिर
जाए।
ऐसे
विवाद छिड़
गया। जहां
वासना है, वहा
विवाद है।
जहां विचार है,
वहां विवाद
है। अगर
संन्यास किसी
ने ठीक—ठीक अर्थों
में लिया हो
तो विवाद
समाप्त हो
जाता है। क्या
विवाद है!
निर्विवाद एक
बात दिखायी पड़
गयी कि संसार
व्यर्थ है।
फिर ये सब
संसार के ही
नाम हैं—राजपद
कहो, धन
कहो, यश
कहो, मान
कहो—ये सब
संसार के ही
अलग—अलग पहलू
हैं, विवाद
कहां है?
और
तब बुद्ध
अचानक वहां आ
गए। खड़े होकर
पीछे उन्होंने
भिक्षुओं की
बातें सुनीं।
चौंके। फिर
कहा,
भिक्षुओ, भिक्षु होकर
भी यह सब तुम
क्या कह रहे
हो! यह सारा
संसार दुख में
है। इसमें तुम
बता रहे हो, कोई कह रहा
है राज्य—सुख,
कोई कहता है
कामसुख, कोई
कहता है
भोजन—सुख, स्वाद—सुख;
यह सब तुम
जो कह रहे हो, क्या कह रहे
हो! यह सुनकर
मुझे आश्चर्य
है। अगर इस
सबमें सुख है
तो तुम यहां आ
क्यों गए हो? सुख तो आभास
है, बुद्ध
ने कहा, दुख
सत्य है। और
सुख नहीं है, ऐसा नहीं, पर संसार
में तो नहीं
है। संसार का
अर्थ ही है जहां
सुख दिखायी
पड़ता है और है
नहीं। जहा
आभास होता है,
प्रतीति
होती है, इशारे
मिलते हैं कि
है, लेकिन
जैसे—जैसे पास
जाओ, पता
चलता है, नहीं
है।
फिर
सुख कहां है? बुद्ध
ने कहा, बुद्धोत्पाद
में सुख है।
तुम्हारे
भीतर बुद्ध का
जन्म हो जाए, तो सुख है।
तुम्हारे
भीतर बुद्ध का
अवतरण हो जाए
तो सुख है।
बुद्धोत्पाद,
यह बड़ा
अनूठा शब्द
है। तुम्हारे
भीतर बुद्ध उत्पन्न
हो जाएं, तो
सुख है। तुम
जाग जाओ तो
सुख है। सोने
में दुख है, मूर्च्छा
में दुख है, जागने में
सुख है।
धर्मश्रवण
सुख है। तो
सबसे परमसुख
तो है, बुद्धोत्पाद;
कि
तुम्हारे
भीतर
बुद्धत्व
पैदा हो जाए।
अगर अभी यह
नहीं हुआ तो
नंबर दो का
सुख है—जिनका
बुद्ध जाग गया
उनकी बात
सुनने में सुख
है। धर्मश्रवण
में सुख है।
तो
सुनो उनकी जो
जाग गए हैं, जिन्हें
कुछ दिखायी
पड़ा है। गुनो
उनकी। लेकिन
उसी सुख पर
रुक मत जाना, सुन—सुनकर
अगर रुक गए तो
एक तरह का सुख
तो मिलेगा, लेकिन वह भी
बहुत दूर जाने
वाला नहीं है।
इसलिए बुद्ध
ने कहा, समाधि
में सुख है।
बुद्धोत्पाद
में सुख है, यह तो परम
व्याख्या हुई
सुख की। फिर
यह अभी तो हुआ
नहीं है, तो
उनके वचन सुनो,
उनके पास
उठो—बैठो
जिनके भीतर यह
क्रांति घटी है,
जिनके भीतर
यह सूरज निकला
है, जिनका
प्रभात हो गया
है, जहां
सूर्योदय हुआ
है, उनके
पास रमो, इसमें
सुख है। मगर
इसमें ही रुक
मत जाना। ध्यान
रखना कि जो
उनको हुआ है, वह तुम्हें
भी करना है।
उस करने के
उपाय का नाम
समाधि है।
सुनो बुद्धों
की और चेष्टा
करो बुद्धों
जैसे बनने की,
उस चेष्टा
का नाम समाधि
है। उस चेष्टा
का फल है, बुद्धोत्पाद।
सुनो बुद्धों
के वचन, फिर
बुद्धों जैसे
बनने की
चेष्टा में
लगना—ध्यान, समाधि, योग।
और जिस दिन बन
जाओ, उस
दिन परम सुख।
तब
उन्होंने यह
गाथा कही थी—
सुखो
बुद्धानं
उपादो सुखा
सद्धम्मदेसना
।
सुखा
संघस्स
सामग्री
समग्गानं तपो
सुखो ।।
'बुद्धों का
उत्पन्न होना
सुखदायी, सद्धर्म
का उपदेश
सुखदायी, संघ
में एकता
सुखदायी,…..।
'
यह
भी समझने जैसी
बात है।
भिक्षु विवाद
करें, एक—दूसरे
के विरोध में
खड़े हों, तो
राजनीति
प्रविष्ट हो
जाएगी। तो
भिक्षु फिर
भिक्षु न रहे,
राजनीतिज्ञ
हो गए, धार्मिक
न रहे। जहां
विवाद है, जहां
कलह है, जहां
मैं सही तुम
गलत, ऐसी
भावनाएं हैं,
वहा अहंकार
है। जहां
अहंकार है, वहा राजनीति
है।
'संघ में
एकता सुखदायी
है।'
भिक्षु
तो ऐसे जीए
जैसे रहा ही
नहीं।
संन्यासी तो
ऐसे रहे जैसे
अपने को छोड़
दिया। संघ है, संन्यासी
नहीं है, ऐसी
एकता। मैं को
छोड़ दे। बुद्ध
का संघ है, उसमें
मैं भी एक लहर
हूं अलग नहीं।
उनका सागर है,
मैं भी एक
लहर हूं अलग
नहीं। 'संघ में
एकता सुखदायी
है। '
तो
भी सुख
मिलेगा।
क्योंकि जैसे
ही तुम अहंकार
छोड़ो—किसी
निमित्त
छोड़ो—सुख
मिलता है।
अहंकार में
दुख है।
अहंकार काटे
की तरह चुभता
है। जहां
अहंकार हटा, वहा
फूल खिलने
लगता है।
'एकतायुक्त
तप सुखदायी
है।'
और
विवाद छोड़ो, व्यर्थ
की बातों में
मत पड़ो, अपने
जीवन की सारी
ऊर्जा को एक
दिशा में लगाओ,
तप की दिशा
में लगाओ। तप
शब्द को समझो।
तप शब्द का
शाब्दिक अर्थ
होता है, उष्णता,
गर्मी, ऊर्जा।
जैसे विज्ञान
कहता है कि
सारा जगत विद्युत
से बना है, वैसा
ही धर्म भी
कहता है कि
मनुष्य भी
विद्युत—निर्मित
है। और इतनी
भीतर ऊर्जा
पड़ी है कि अगर
हम उसे जगाएं
तो हमारा सारा
अंधकार जल जाए;
उसे जगाएं,
हमारा सारा
कूड़ा—करकट जल
जाए। उसे हम
जगाएं तो
हमारे भीतर जो
भी व्यर्थ है,
वह सब नष्ट
हो जाए, स्वर्ण
ही बचे। इसलिए
तप शब्द का
उपयोग किया जाता
है। तप में सब
आ गया, जो
भी साधक करता
है, सब तप
में समाविष्ट
है।
लेकिन
एक बात खयाल
में
रहे—एकतायुक्त!
समग्गान
तपो सुखो।
ऐसा
न हो कि
तुम्हारा तप
बिखरा—बिखरा
हो,
खंड—खंड हो,
कुछ यहां
किया, कुछ
वहां किया, कुछ और कहीं
किया, हजार
दिशाओं में
बहता रहा, तो
परिणाम न
होगा। तुमने
देखा, सूरज
की किरणों को
अगर एक कांच
के टुकड़े में
से—जो उन्हें
केंद्रित कर
देता है—कागज
पर गिराओ, तो
कागज जल उठता
है। कांच के
टुकड़े को हटा
लो, फिर भी
किले गिर रही
हैं, लेकिन
अब कागज नहीं
जलता। समग्गानं
का अर्थ होता
है, सब एक
साथ गिर रही
हों। तो कागज
जल उठता है।
अगर
तुम्हारी
सारी जीवन
ऊर्जा एक ही
बात पर लग जाए
कि जगाना है
बुद्धत्व को
अपने भीतर, तो
जागरण होगा, होकर रहेगा।
लेकिन
बहुत—बहुत
भागों में
बंटी हो, एक
मन कहता हो
थोड़ा धन भी
कमा लें, एक
मन कहता हो
थोड़ा ध्यान भी
कर लें, एक
मन कहता हो
थोड़ा संसार भी
भोग लें, एक
मन कहता हो
थोड़ा संन्यास
भी ले लें, ऐसा
बंटा—बंटा हो,
तो तुम कहीं
भी न पहुंच
पाओगे, और
सुख उपलब्ध न
होगा।
ओशो
एस धम्मो
सनंतनो
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