प्रतिप्रसव: पुरातन प्राइमल थैरेपी——(प्रवचन—पद्रंहवां)
दिनांक 15 मार्च 1975; श्री रजनीश आश्रम, पूना।
योगसूत्र
योगसूत्र
(साधनापाद)
स्वस्सवाही
विदुषोउपि
तथारूढोउभिनिवेश:।।
9।।
जीवन
में से गुजरते
हुए मृत्यु—
भय है, जीवन से
चिपकाव है।
यह बात
सभी में प्रबल
है—विद्वानों
में भी।
ते
प्रतिप्रसवहेया:
सूक्ष्मा:।।
10।।
पांचों
क्लेशों के
मूल कारण
मिटाये जा
सकते
है, उन्हें
पीछे की और
उनके उद्गम तक
विसर्जित कर
देने से।
ध्यानहेयास्तद्वृत्तय:।।
11।।
पांचों
दुखों की बह्म
अभिव्यक्तियां
तिरोहित हो
जाती है—ध्यान
के द्वारा।
दु:खों की एक
अंतहीन
शृंखला जान
पड़ता है यह
जीवन। जन्म से
लेकर मृत्यु
तक व्यक्ति
पीड़ा और पीड़ा
ही भोगता है, फिर भी
व्यक्ति जीना
चाहता है। वह
निरंतर जीवन
से चिपका रहता
है। आल्वेयर
कामू ने कहीं
कहा है, और
बहुत ठीक ही
कहा है, 'आत्महत्या
एकमात्र
आध्यात्मिक
समस्या है।’तुम
आत्महत्या
क्यों नहीं
करते? यदि
जीवन इतना
दुखदायी है, इतनी
निराशाजनक
अवस्था है, तो क्यों
नहीं तुम कर
लेते
आत्महत्या? जीते ही
क्यों हो? क्यों
'नहीं' नहीं
हो जाते? गहरे
तल पर, यही
है वास्तविक
आध्यात्मिक
समस्या।
लेकिन मरना
कोई नहीं
चाहता। वे लोग
भी जो कि
आत्महत्या
करते हैं, इसी
आशा में
आत्महत्या
करते कि वे एक
बेहतर जीवन पा
लेंगे, लेकिन
जीवन से
आसक्ति बनी
रहती है।
मृत्यु के साथ
भी, वे आशा
कर रहे हैं।
मैंने
सुना है एक
यूनानी
दार्शनिक के
बारे में
जिसने अपने
शिष्यों को
मृत्यु के
अतिरिक्त और
कुछ नहीं
सिखाया।
निस्संदेह, किसी ने
उसका अनुसरण
तो कभी नहीं
किया। लोग
सुनते थे, वह
बहुत ढंग से
बोलने वाला
आदमी था।
आत्महत्या तक
के बारे में
उससे सुनना
सुंदर लगता था,
सुनने लायक
लगता था—
अनुसरण नहीं
किया किसी ने
उसका। वह
स्वयं जीया
नब्बे वर्ष की
संपूर्ण
अवस्था तक।
उसने स्वयं
नहीं की
आत्महत्या।
जब वह मृत्यु —शय्या
पर था, किसी
ने उससे पूछा,
' आपने
निरंतर
आत्महत्या की
बात सिखायी।
आपने स्वयं
क्यों न कर ली
आत्महत्या?' उस वृद्ध, मरणासन्न
दार्शनिक ने
अपनी आंखें
खोलीं और बोला,
'मुझे यहां
बने रहना था
लोगों को
शिक्षा देने के
लिए ही।’
जीवन
से आसक्ति
बहुत गहरी बात
है। पतंजलि
इसे कहते हैं, 'अभिनिवेश',
जीवन के लिए
ललक। यह क्यों
होती है यदि
इतनी ज्यादा
पीड़ा मौजूद है
तो? लोग
मेरे पास आते
हैं, और
बहुत गहरी
व्यथा लिए वे
अपनी पीड़ाओं
की बात करते
हैं, लेकिन
वे जीवन छोड़ने
को तैयार नहीं
दिखते। जीवन
की तमाम
पीड़ाओं के साथ
भी, जीवन
जीने लायक जान
पड़ता है। कहां
से चली आती है
यह आशा? यह
एक विरोधाभास
है। और इसे
समझना है।
वस्तुत:
तुम जीवन से
ज्यादा
चिपकते हो यदि
तुम दुखी होते
हो तो। जितने
ज्यादा तुम
दुखी होते हो, उतने
ज्यादा तुम
चिपकते हो। वह
व्यक्ति जो कि
प्रसन्न होता
है जीवन से चिपकता
नहीं है। ऊपर
सतह पर तो यह
बात
विरोधाभासी
मालूम पड़ेगी,
लेकिन यदि
तुम गहराई में
उतरो, तो
समझोगे कि बात
क्या होती है।
लोग जो पीड़ित
हो रहे होते
हैं, वे
सदा आशावान
होते हैं, आशावादी।
वे सदा आशा
करते हैं कि
कल कुछ न कुछ
घटने वाला है।
लोग जो गहरे
दुख में और
नरक में जीए
उन्होंने
स्वर्ग का, स्वर्ग की धारणा
का निर्माण कर
लिया। वह सदा
आने वाले कल
में ही होता
है; वह आता
कभी नहीं। वह
सदा कहीं
भविष्य में
रहता है, एक
प्रलोभन की
१गति, तुम्हारे
सामने झलकता
रहता।
यह मन
की एक चालाकी
होती है।
स्वर्ग—मन की
सबसे बड़ी
चालाकी है। मन
कह रहा होता है
' आज की
चिंता मत करो,
कल स्वर्ग
है। बस किसी न
किसी तरह आज
से गुजर जाओ।
उस प्रसन्नता
की तुलना में
जो कि कल के लिए
तुम्हारी
प्रतीक्षा
में है, यह
कुछ भी नहीं।'
और वह कल
इतना करीब जान
पड़ता है।
निस्संदेह वह
कभी नहीं आता,
वह आ नहीं
सकता। कल एक
अनस्तित्वमयी
बात है। जो
कुछ भी आता है
वह सदा आज ही
होता है, और
आज नरक है।
लेकिन मन
सांत्वना
देता है, उसे
सांत्वना
देनी ही पड़ती
है, अन्यथा
करीब—करीब
असंभव ही होगा
सहना—पीड़ा
असहनीय होती
है। उसे सहना
पड़ता है।
कैसे
बरदाश्त कर
सकते हो तुम? एकमात्र
तरीका है आशा,
सभी आशाओं
के विपरीत भी
आशा, स्वप्नों
से भरी हुई
आशा। स्वप्न
ही एक सांत्वना
बन जाता है।
स्वप्न
तुम्हारे
दुखों को आज
धुंधला कर
देता है।
स्वप्न तो
शायद पूरा न हो,
बात इसकी
नहीं, लेकिन
कम से कम आज
तुम स्वप्न तो
देख सकते हो और
उस मौजूद पीड़ा
को सह सकते
हो। तुम
स्थगित कर सकते
हो। तुम्हारी
इच्छाएं
अपूर्ण बनी
भविष्य में झूलती
ही जा सकती
हैं। लेकिन यह
आशा ही कि कल आ रहा
होगा और .हर
चीज ठीक हो
जाएगी, तुम्हारे
जीने में, बने
रहने में
तुम्हारी मदद
करती है।
जितना
ज्यादा दुखी
होता है आदमी, उतना
ज्यादा
आशावान होता
है; जितना
ज्यादा
प्रसन्न होता
है आदमी उतना
ज्यादा निराश
होता है। इसीलिए
भिखारी कभी
नहीं त्यागते
संसार को।
कैसे त्याग
सकते हैं वे? केवल बुद्ध,
महावीर—महलों
में पैदा हुए
राजकुमार—संसार
त्याग देते
हैं। वे निराश
होते हैं; आशा
करने को उनके
पास कुछ है
नहीं, हर
चीज मौजूद है
और फिर भी दुख
है। एक भिखारी
आशा कर सकता
है क्योंकि
उसके पास कुछ
है नहीं।’जब
हर चीज होती
है तो स्वर्ग
ही स्वर्ग
होगा और हर
चीज
प्रसन्नता बन
जाएगी।’उसे
प्रतीक्षा
करनी पड़ती है
और कल के घटित
होने के लिए
आयोजन करने
पड़ते हैं।
बुद्ध के लिए
तो कुछ बचा ही
नहीं। हर चीज
उपलब्ध है; वह सब जो
संभव है पहले
से मौजूद ही
है। तो आशा कैसे
करें? किसके
लिए आशा करें?
इसीलिए
मैं फिर— फिर
जोर देता हूं
कि केवल एक
समृद्ध समाज
में ही धर्म
की संभावना
होती है। एक
दरिद्र समाज धार्मिक
नहीं हो सकता
है। दरिद्र
समाज तो साम्यवादी
बनेगा ही, क्योंकि
साम्यवाद
कम्मुनिज्म
कल की ही, स्वर्ग
की ही आशा है 'कल हर चीज
समान रूप से
बंटने वाली
है। कल तो ऐसा
होगा ही कि
कोई अमीर न
होगा और कोई
गरीब न होगा, कल होगी
क्रांति।
सूर्य उदय
होगा और चीज
सुंदर हो
जाएगी। अंधेरा
तो केवल आज ही
है। तुम्हें
इसे सहना है और
कल के लिए
लड़ना है।’ दरिद्र
समाज
कम्युनिस्ट
होगा ही।
केवल
एक धनी समाज
ही निराशा
अनुभव करने
लगता है। और
जब तुम जीवन
के प्रति
निराशा अनुभव
करने लगते हो, तो सच्ची
आशा की
संभावना बनती
है। जब तुम
जीवन के प्रति
इतने हताश हो
जाते हो कि
तुम आत्महत्या
करने के
किनारे पर ही
होते हो। तुम
तैयार होते हो
इस सारे दुख
को छोड़ने के लिए।
संकट की उस
घड़ी में ही
रूपांतरण
संभव होता है।
आत्मघात
और साधना दो
विकल्प हैं।
जब तुम आत्मघात
तक करने को
तैयार होते हो, तभी तुम रूपांतरित
होने को तैयार
होते हो—उससे
पहले बिलकुल
नहीं। जब तुम
सारे जीवन को
और उसकी सारी
पीड़ाओं को
छोड़ने के लिए
राजी होते हो,
केवल तभी
होती है इसकी
संभावना कि
तुम स्वयं को
रूपांतरित
करने के लिए
तैयार हो सकते
हो। रूपांतरण
सच्चा
आत्मघात है।
यदि तुम अपने
शरीर को मारते
हो, तो वह
सच्चा
आत्मघात नहीं।
तुम फिर एक और
शरीर पा लोगे,
क्योंकि मन
तो पुराना ही
बना रहता है।
मन को मारना
ही सच्ची
आत्महत्या है,
और योग इसी
की तो बात
करता है मन को
मारना, परम
आत्महत्या को
उपलब्ध करना
है। वहां से
फिर लौटना
नहीं होता।
लेकिन
आदमी तो चिपका
रहता है जीवन
से क्योंकि आदमी
दुखी है।
तुमने दूसरी
ही बात सोची
होगी, कि
किसी दुखी
आदमी को जीवन
से नहीं
चिपकना चाहिए।
ऐसा है ही
क्या जो जीवन
ने दिया है
उसे? क्यों
चिपकेगा वह? बहुत बार
ऐसा विचार आया
होगा तुम्हें,
किसी
भिखारी को सड़क
पर देख गंदे
नाले में पड़ा हुआ,
अंधा, कोढ़
से पीड़ित, अपंग,
यह देख
तुम्हारे मन
में जरूर ऐसा
विचार आया होगा,
यह आदमी
क्यों जीवन से
चिपका जा रहा
है? अब
वहां बचा ही
क्या है? यह
आत्महत्या
क्यों नहीं कर
सकता और खत्म
ही क्यों नहीं
हो जाता?'
मुझे
याद है मेरे
बचपन में एक
भिखारी आया
करता था, जिसकी टांगें
नहीं थीं। वह
एक छोटे से
ठेले, एक
हाथगाड़ी में
पड़ा रहता जिसे
उसकी पत्नी
चलाती थी। वह
अंधा था, सारा
शरीर ही एक
बदबू भरी लाश
था। तुम उसके
पास न आ सकते
थे। वह असाध्य
कोढ़ से पीड़ित
था—लगभग मृत, निन्यानबे
प्रतिशत मरा
ही हुआ था, केवल
एक प्रतिशत
जीवित था, फिर
भी किसी तरह
सांस ले रहा
था। मैं उसे
कुछ— न—कुछ
दिया करता। एक
दिन मैंने
पूछा उससे, मात्र
जिज्ञासावश
ही, 'क्यों
जी रहे हो तुम?
किसलिए? तुम
आत्महत्या
क्यों नहीं कर
लेते, और
इतने दुखी
जीवन से
छुटकारा ही
क्यों नहीं पा
लेते?' निस्संदेह
वह तो क्रोध
में आ गया। वह
बोला, 'क्या
कह रहे हैं?' क्रोध में
था वह। वह
मुझे मारना
चाहता था अपने
हाथ में आयी
किसी भी चीज
से।
ऐसा लग
सकता है
तुम्हें कि एक
दुखी आदमी को
आत्महत्या कर
लेनी चाहिए, या कम—से —कम
सोचना तो
चाहिए ही जीवन
समाप्त करने
के बारे में।
लेकिन कभी
नहीं—दुखी
आदमी कभी नहीं
सोचता इस बारे
में। वह सोच
ही नहीं सकता।
दुख अपनी
क्षतिपूर्ति
कर लेता है, दुख अपना
प्रतिकारक
बना लेता है।
स्वर्ग है
प्रतिकारक— 'कल हर चीज
बिलकुल ठीक हो
जाने वाली है।
यह तो केवल
थोड़े से और
धैर्य की बात
ही है।’
भिखारी
सदा भविष्य
में ही रहता।
और तुम भिखारी
हो यदि तुम
भविष्य में
रहते हो तो।
यही है निर्णय
करने की कसौटी
कि कोई आदमी
सम्राट है या
भिखारी : यदि
तुम भविष्य में
रहते हो तो
तुम भिखारी
हुए; यदि
तुम रहते हो
बिलकुल यहीं,
अभी तो तुम
एक सम्राट हुए।
वह
आदमी जो
आनंदित होता
है, यहीं
और अभी जीता
है। वह भविष्य
की फिक्र नहीं
करता। भविष्य
का तो अर्थ
होता है ना —कुछ;
भविष्य का
उसके लिए कोई
अर्थ नहीं।
यही क्षण है
एकमात्र
अस्तित्व।
लेकिन यह संभव
है केवल
आनंदपूर्ण
व्यक्ति के लिए।
दुखी व्यक्ति
के लिए यही
क्षण एकमात्र
अस्तित्व
कैसे हो सकता
है? तब तो
यह बहुत दूभर
होगा—असहनीय,
असंभव। उसे
निर्मित करना
पड़ता है
भविष्य। उसे
कहीं—न—कहीं, किसी तरह
स्वप्न
निर्मित करना
पड़ता है, दुख
का प्रतिकार
करने के लिए।
जितना
ज्यादा गहरा
होता है दुख, उतनी
ज्यादा होती
है आशा। आशा
एक
क्षतिपूर्ति
है। एक दुखी
व्यक्ति कभी
नहीं करता
आत्महत्या, और एक दुखी
आदमी कभी नहीं
आता धर्म के
पास। दुखी
आदमी चिपकता
है जीवन से।
जितने ज्यादा
प्रसन्न तुम
होते हो, उतने
ज्यादा तुम
तैयार रहोगे
किसी भी क्षण
जीवन छोड़ने को
—किसी भी क्षण
बिना किसी
जुड़ाव —चिपकाव
के तुम उतार
सकते हो अपने
जीवन को पुराने
पड़ गए कपड़ों
की भांति ही, उससे कुछ
फर्क नहीं
पड़ता।
केवल
इतना ही नहीं, यदि तुम
सचमुच ही
प्रसन्नता से
भरे होते हो
और मृत्यु
द्वार
खटखटाती है, तो तुम उसका
स्वागत करोगे।
तुम आलिंगन
में लोगे
मृत्यु को, और उसी बात
से तुम पार हो
जाओगे मृत्यु
के। मुझे फिर
से कहने दो
मृत्यु आती है
और खटखटाती है
तुम्हारा
द्वार और यदि
तुम भयभीत
होते हो और
तुम किन्हीं
कोनों में जा
छुपते हो, अलमारियों
में, और
तुम रोते —चिल्लाते
हो और तुम
थोड़ा और जीना
चाहते हो, तो
तुम शिकार हुए।
तुम्हें बहुत
बार मरना
पड़ेगा। एक
भयभीत आदमी
हजारों बार
मरता है।
लेकिन यदि तुम
द्वार खोल सको,
मृत्यु का
स्वागत करो
मित्र की
भांति, मृत्यु
का आलिंगन करो,
उसी में तुम
पार हो गए
मृत्यु के। अब
तुम मृत्यु
विहीन हुए।
पहली बार अब
तुम उस जीवन
को उपलब्ध
करते हो जिसमें
दुख नहीं, वह
जीवन जिसकी
बात जीसस करते
हैं समृद्ध
जीवन; वह
जीवन जिसकी
बात बुद्ध
कहते हैं
आनंदमय जीवन,
निर्वाणमय
जीवन; वह
जीवन जिसकी
बात पतंजलि कह
रहे हैं :
शाश्वत, समय
और स्थान के
पार का, कालातीत।
दुख
अपना
प्रतिकारक
निर्मित करता
है। एक बार
तुम जाल में
पकड़ लिए जाते
हो, तो
और ज्यादा तुम
चिपकोगे जीवन
से, और
ज्यादा ही
दुखी हो जाओगे
तुम। क्योंकि
चिपके रहना
स्वयं ही दुख
निर्मित करता
है, चिपके
रहना ज्यादा
हताशाएं
निर्मित करता
है।
जब तुम
किसी चीज से
नहीं चिपकते, तब यदि वह
खो जाती है तो
तुम दुखी नहीं
होते हो। जब
तुम चिपकते हो
किसी चीज से
और वह खो जाए, तो तुम पागल
हो जाते हो।
जितना ज्यादा
तुम चिपकते हो
जीवन से और— और
तुम पाओगे हर
दिन कि तुम
दुखी हो रहे
हो।. पोड़ा और
जुड़ती जा रही
है तुम्हारे
अस्तित्व से।
एक घड़ी आती जब
तुम और कुछ
नहीं होते
सिवाय पीड़ा के,
एक चीखती
हुई पीड़ा। और
जब ऐसा घटता
है, तो तुम
ज्यादा
चिपकते हो। यह
एक दुश्चक्र
होता है।
जरा
सारी घटना पर
ध्यान देना।
क्यों चिपक
रहे होते हो
तुम? तुम
चिपक रहे होते
हो क्योंकि
तुम अभी तक जी
नहीं पाए हो।
जीवन के साथ
चिपकना ही
दर्शाता है कि
तुम अभी जीए
ही नहीं, तुमने
एक मुरदा जीवन
जीया है, अभी
तक तुम जीवन
के वरदान का
आनंद मनाने
योग्य नहीं
हुए; तुम
असंवेदनशील
रहे हो, तुमने
एक बंद जीवन
जीया है। तुम
छू नहीं पाए
फूलों को, आकाश
को, पक्षियों
को। तुम जीवन
की नदिया के
संग बह नहीं
पाए, तुम
रुके हो।
क्योंकि तुम
जम गए और तुम
जी नहीं सकते,
तो तुम दुखी
हो। तुम्हारे
दुखी होने के
कारण तुम
मृत्यु से भयभीत
हो क्योंकि
यदि मृत्यु
बिलकुल अभी आ
जाए तो —और
तुमने अभी तक
जीवन जीया ही
न हो, तो
तुम मारे गए।
एक
पुरानी कथा है।
उपनिषदों के
काल में एक
बड़ा राजा हुआ, ययाति।
उसका मृत्यु—काल
आ गया। वह सौ
वर्ष का था।
जब मौत आ गई तो
वह रोने —चीखने
लगा। मृत्यु
ने कहा, 'यह
बात तुम्हें
शोभा नहीं
देती, एक
बड़े सम्राट हो,
बहादुर
आदमी हो। क्या
कर रहे हो तुम?
क्यों तुम एक
बच्चे की
भांति रो रहे
हो, चीख
रहे हो? क्यों
तेज अंधड़ में
कंपते पत्ते
जैसे कंप रहे हो?
क्या हुआ है
तुम्हें?'
ययाति
ने कहा, 'तुम आ गई हो
और मैं तो अभी
तक जी नहीं
पाया। कृपया
मुझे थोड़ा समय
और दो ताकि
मैं जी सकूं।
मैंने बहुत
चीजें कीं, मैं बहुत से
युद्धों में
लड़ा। मैंने
बहुत धन
इकट्ठा किया,
मैंने बड़ा
राज्य बना
लिया। मैंने
अपने पिता की
संपत्ति
ज्यादा बढ़ा दी,
लेकिन मैं
तो जीया नहीं।
वास्तव में, जीने के लिए
समय ही न रहा
था, और तुम
आ गईं। नहीं, यह तो
अन्याय हुआ।
तुम मुझे थोड़ा
और समय दो।’ मृत्यु ने
कहा, 'लेकिन
मुझे किसी न
किसी को तो ले
जाना ही है।
ठीक है कोई
इंतजाम कर दो।
यदि तुम्हारे
बेटों में से
कोई तुम्हारे
लिए मरने को
राजी है, तो
मैं ले जाऊंगी
उसे।’
ययाति
के सौ बेटे थे, हजारों
पत्नियां थीं।
उसने बुला
भेजा अपने
बेटों को। बड़े
बेटों ने तो
बात ही नहीं
सुनी। वे स्वयं
ही चालाक हो
गए थे और वे
उसी फंदे में
पड़े थे। एक, जो सबसे बड़ा
था, सत्तर
वर्ष का था।
वह कहने लगा, 'लेकिन मैं
भी तो नहीं
जीया। मेरा
क्या होगा? आप कम से कम
सौ साल तो जीए,
मैं तो केवल
सत्तर वर्ष
जीया। मुझे
थोड़ा और अवसर
मिलना चाहिए।’
सब से छोटा,
जो अभी सोलह
या सत्रह साल
का ही था, वह
आया, उसने
अपने पिता के
पांव छुए और
वह बोला, 'मैं
तैयार हूं।’ मृत्यु तक
को करुणा आयी
इस लड़के पर।
मृत्यु जानती
थी कि वह
निर्दोष था, संसार के
रंग—ढंग की
होशियारी
नहीं, नहीं
जानता कि वह
क्या कर रहा
था। मृत्यु
लड़के के कान
में फुसफुसा
कर कहने लगी, 'क्या कर रहे
हो तुम? अरे
मूड, अपने
पिता की ओर
देख। सौ साल
की आयु में
मरने को तैयार
नहीं है वह और तुम
तो केवल सत्रह
वर्ष के हो!
तुमने तो अभी
जीवन का
स्पर्श तक
नहीं किया।’ लड़का कहने
लगा, 'जीवन
समाप्त हो
गया! क्योंकि
मेरे पिता सौ
वर्ष की
अवस्था में
अनुभव करते
हैं कि अभी भी
वे जी नहीं
पाए हैं, तो
सार ही क्या? यदि मैं भी
सौ वर्ष जी
लूं तो बात
वही होने वाली
है। बेहतर है
कि मैं उन्हें
मेरा जीवन
जीने दूं। यदि
वे सौ वर्षों
में नहीं जी
सके, तब तो
सारी बात ही
व्यर्थ हुई।’
बेटा
मर गया और
पिता सौ वर्ष
और जीया। फिर
मौत ने द्वार
खटखटाया और
उसने रोना—चिल्लाना
शुरू कर दिया।
वह कहने लगा, 'मैं तो
बिलकुल भूल ही
गया था। मैं
तो फिर धन —दौलत
बढ़ा रहा था, राज्य बढ़ा
रहा था, और
सौ साल बीत गए
जैसे स्वप्न
में ही। तुम
फिर से यहां आ
गई हो और मैं
जीया ही नहीं।’
और यह बात
चलती चली गई।
मौत
फिर —फिर आती
और वह एक न एक
बेटे को ले
जाती। ययाति
एक हजार वर्ष
और जीया।
सुंदर
है कहानी, लेकिन वह
बात फिर घटी।
हजार वर्ष बीत
गए और मृत्यु
आ गई। ययाति
कांप रहा था
और रो रहा था
और चीख रहा था।
मृत्यु बोली,
'लेकिन अब
तो बहुत हुआ।
तुम हजार वर्ष
जी लिए और तुम
फिर कहते हो
कि तुम जी ही
नहीं पाए!' ययाति
ने कहा, 'कोई
कैसे अभी और
यहीं जी सकता
है? मैं
सदा स्थगित
करता हूं : कल
और कल। और कल? —अकस्मात
तुम मौजूद हो
जाती हो।’ जीवन
को स्थगित
करना एकमात्र
पाप है जिसे
कि मैं पाप कह
सकता हूं।
स्थगित मत करो।
यदि तुम जीना
चाहते हो, तो
अभी और यहीं
जीयो। भूल जाओ
अतीत को; भूल
जाओ भविष्य
को. यह
एकमात्र क्षण
है, यही है
एकमात्र
अस्तित्वमय
क्षण—जीयो इसे।
एक बार खोया
तो यह दुबारा
नहीं पाया जा
सकता, तुम
फिर इसे नहीं
मांग सकते।
यदि
तुम वर्तमान
में जीने लगो, तो तुम
भविष्य की
नहीं सोचोगे
और तुम जीवन
से नहीं
चिपकोगे। जब
तुम जीते हो
तो तुमने जान
लिया होता है
जीवन को, तुम
संतुष्ट होते,
परितृप्त
होते।
तुम्हारी
पूरी अंतस
सत्ता
धन्यभागी
अनुभव करती है।
किसी और
पूर्ति की कोई
जरूरत नहीं
रहती। मृत्यु
को सौ वर्ष
बाद
आने की जरूरत
नहीं रहती। और
तुम्हें
कंपते हुए और
रोते हुए और
चीखते हुए देखने
की कोई जरूरत
नहीं रहती।
यदि मृत्यु
बिलकुल अभी भी
आ जाए तो तुम
तैयार होओगे
तुम जी लिए, तुम
आनंदित हुए, तुमने उत्सव
मना लिया।
सचमुच जीवंत
होने का एक
क्षण
पर्याप्त है,
और झूठी
जिंदगी के एक
हजार साल
पर्याप्त नहीं
हैं। जो न
जीयी गई हो
उसके हजार या
लाख वर्ष किसी
काम के नहीं
होते हैं; और
मैं कहता हूं
तुमसे, जीए
हुए अनुभव का
एक क्षण स्वयं
शाश्वतता है। वह
समय के पार
होता है, तुम
जीवन की आत्मा
को ही छू लेते
हो और फिर कहीं
कोई मृत्यु
नहीं होती, कोई चिंता
नहीं, कोई
चिपकाव नहीं।
तुम किसी क्षण
जीवन त्याग
सकते हो और तुम
जानते हो कि
कुछ बचा नहीं
है। तुम इससे
संपूर्णतया
अंतिम कोर तक
आनंदित हुए।
तुम इससे लबालब
भरे हो, तुम
तैयार हुए।
जो
आदमी गहरी
उत्सवमयी
भावदशा में
मरने को तैयार
हो, वह
वही आदमी होता
है जो कि
सचमुच ही जीया
होता है। जीवन
से चिपकना
दर्शाता है कि
तुम जी नहीं
पाए हो।
मृत्यु का
आलिंगन जीवन
के ही एक अंश की
तरह करना
दर्शाता है कि
तुम ठीक से
जीए हो। तुम
संतुष्ट हो।
अब पतंजलि के
सूत्र को
सुनो। यह
सर्वाधिक गहन
और बहुत
ज्यादा
अर्थवान है तुम्हारे
लिए।
जीवन
में से गुजरते
हुए मृत्यु—भय
है जीवन से
चिपकाव है और
यह बात सभी
में प्रबल
है—विद्वानों
में भी।
वह जीवन
के भीतर ही
गतिमान हो रहा
है। यदि तुम
अपने मन पर
ध्यान दो, यदि तुम
स्वयं का
निरीक्षण करो,
तो तुम
पाओगे कि चाहे
सजग हो या
नहीं, मृत्यु
का भय निरंतर
वहां मौजूद
रहता है। जो
कुछ भी करो
तुम, मृत्यु—
भय वहा होता
है। कैसा भी
आनंद मनाओ, बस कहीं
कोने में ही
मृत्यु की
छाया सदा होती
है। वहां डटी
रहती है। वह
तुम्हारा
पीछा करती है।
जहां कहीं, तुम उसके
साथ ही जाते
हो। वह
तुम्हारे
भीतर की ही
कोई चीज है।
तुम उसे बाहर
नहीं छोड़ सकते,
तुम उससे बच
नहीं सकते, मृत्यु—भय
तुम्हीं हो।
मृत्यु
का यह भय आता
कहां से है? क्या
तुमने पहले
कभी जाना है
मृत्यु को? यदि तुमने
पहले नहीं
जाना है
मृत्यु को, तो तुम उससे
भयभीत क्यों
हो, किसी
उस चीज से
भयभीत हो जिसे
तुम जानते
नहीं। यदि तुम
पूछो
मनोविश्लेषकों
से तो वे
कहेंगे, 'भय
प्रासंगिक है,
यदि तुम
जानते हो कि
मृत्यु क्या
है। यदि तुम पहले
मर चुके हो, तो भय
प्रासंगिक
जान पड़ता है। '
लेकिन तुम
तो जानते नहीं
मृत्यु को।
तुम नहीं जानते
कि वह दर्दनाक
होगी या वह आनंदपूर्ण
होगी। तो फिर
भयभीत क्यों
हो तुम?
नहीं, मृत्यु—
भय वास्तव में
मृत्यु का भय
नहीं है, क्योंकि
कैसे तुम किसी
उस चीज से
भयभीत हो सकते
हो जो कि
अज्ञात है, जो कि
बिलकुल ही
ज्ञात नहीं? कैसे तुम
किसी उस चीज
से भयभीत हो
सकते हो जो कि
तुम्हारे लिए
बिलकुल
अज्ञात है? मृत्यु— भय
वास्तव में
मृत्यु का भय
नहीं है।
मृत्यु— भय
वास्तव में
जीवन से
चिपकना ही है।
जीवन
मौजूद है और
तुम खूब जानते
हो कि तुम उसे जी
नहीं रहे हो, वह
तुम्हारे
बाहर—बाहर
चलता चला जा
रहा है। नदी
तुम्हारे पास
से गुजरती जा
रही है, तुम
किनारे पर खड़े
हुए हो, और
वह निरंतर
तुम्हारे
हाथों से
निकली जा रही है।
मृत्यु का भय,
मौलिक रूप
से यह भय है कि
तुममें जीने
की सामर्थ्य नहीं
और जीवन बीता
जा रहा है।
जल्दी ही, कोई
समय बचा न
रहेगा, और
तुम
प्रतीक्षा
करते रहे हो
और तुम सदा
तैयारी करते
रहे हो। तुम
तैयारियों से
घिरे रहे हो।
मैंने
सुना है एक
जर्मन
विद्वान के
बारे में जिसने
दुनिया की
सबसे बड़ी
लाइब्रेरियों
में से एक का
संग्रह किया, सारे
देशों से, सारी
भाषाओं से। वह
कभी एक किताब
तक न पढ़ पाया, क्योंकि वह
सदा संचय ही
करता रहा चीन
चला जाता, मानव
त्वचा पर लिखी
कोई असाधारण
पुस्तक पाने के
लिए; फिर
दौड़ता बर्मा
की ओर, फिर
आ जाता भारत
में, फिर
लंका, फिर
अफगानिस्तान
की और जिदगी
भर यही कुछ।
जब वह सत्तर
वर्ष का हुआ, उसने
पुस्तकों का,
विरल
पुस्तकों का
एक बड़ा संग्रह
संचित कर लिया
था। वह सदा
स्थगित करता
रहा यह सोच कर
कि वह उन्हें
पढ़ लेगा जब
लाइब्रेरी
पूरी हो जाएगी।
और मृत्यु आ
पहुंची। जब वह
मर रहा था, तो
आंसू बहने लगे
उसकी आंखों से।
उसने पूछा एक
मित्र से, ' अब
क्या करूं? कोई समय बचा
नहीं।
लाइब्रेरी
तैयार है, लेकिन
मेरा जीवन बीत
चुका है। कुछ
करो, कोई
भी किताब उठाओ
लाइब्रेरी से,
उसमें से
कुछ पढ़ो जिससे
कि मैं कुछ
समझ सकूं। कम
से कम मैं
थोड़ा संतुष्ट
तो हो सकूं।’ मित्र गया
लाइब्रेरी
में, एक
किताब लेकर
लौट आया—लेकिन
विद्वान तो मर
गया था।
ऐसा
सभी के साथ
घटता है, करीब—करीब
सभी के साथ, तुम जिंदगी
की तैयारी किए
चले जाते हो।
तुम सोचते हो
कि पहले लाखों
तैयारियां कर
लेनी हैं और
फिर तुम आनंद
मनाओगे, और
फिर तुम
जीयोगे, लेकिन
उस समय तक
जीवन जा चुका
होता है।
तैयारियां हो
जाती हैं, लेकिन
कोई मौजूद
नहीं रहता
उनसे आनंदित
होने को। यही
होता है डर, तुम इसे
तुम्हारे
अंतस्तल में
गहरे रूप से
जानते हो, तुम
इसे अनुभव
करते हो. कि
जीवन बहा जा
रहा है, हर
क्षण तुम मरते
हो, हर
क्षण तुम मर
ही रहे हो।
यह भय
मृत्यु का
नहीं जो कहीं
भविष्य में
आने वाली है
और तुम्हें
नष्ट करने
वाली है। यह
तो हर क्षण घट
रहा है। जीवन
सरकता जा रहा
है और तुम
बिलकुल ही
अक्षम हो और
बंद हो। तुम
पहले ही मर
रहे हो। जिस
दिन तुम पैदा
हुए, तुमने
मरना शुरू कर
दिया। जीवन की
प्रत्येक घड़ी
मृत्यु की भी
घड़ी है। भय
किसी अज्ञात
मृत्यु का
नहीं है, जो
कहीं भविष्य
में
प्रतीक्षा कर
रही है, भय
तो बिलकुल अभी
ही है। जीवन
हाथ से निकला
जा रहा है और
तुम असमर्थ जान
पड़ते हो; तुम
कुछ नहीं कर
सकते। मृत्यु
का भय मौलिक
रूप से भय है
जीवन का जो कि
तुम्हारे
हाथों से
निकला जा रहा
है।
तब
भयभीत होकर
तुम जीवन से
चिपकते हो, लेकिन
चिपकना कभी
उत्सव नहीं बन
सकता है।
चिपकना
आक्रामक है।
जितना ज्यादा
तुम जीवन से
चिपकते हो, उतने ज्यादा
तुम असमर्थ हो
जाओगे।
उदाहरण के
लिए. तुम किसी
स्त्री से
प्रेम करते हो,
तुम चिपक
जाते हो उससे।
जितने ज्यादा
तुम चिपकते हो,
उतना
ज्यादा तुम
बाध्य करोगे
स्त्री को
तुमसे दूर हो
जाने में, क्योंकि
तुम्हारा
पीछे —पीछे
लगे रहना उस
पर एक बोझ हो
जाएगा। जितना
ज्यादा तुम उस
पर कब्जा करने
की कोशिश करोगे,
उतना
ज्यादा वह
सोचेगी कि
कैसे मुक्त हो,
कैसे तुमसे
दूर हो। मैं
कहता हूं
तुमसे जिंदगी
एक स्त्री है।
उससे चिपकना
मत। वह उनके
पीछे आती है, जो उससे
चिपकते नहीं।
वह बहुत
ज्यादा मिलती
है उन्हें जो
उससे चिपकते
नहीं। यदि तुम
चिपकते हो, तो वह
चिपकाव ही
जीवन को
स्थगित कर
देता है।
तुम्हारा
भिखमंगापन ही
जीवन पर रोक
लगा देता है।
सम्राट होओ, मालिक होओ।
जीवन जीयो, लेकिन उससे
चिपको मत।
किसी चीज से
मत चिपको।
चिपकाव तुम्हें
असुंदर और
आक्रामक बना
देता है।
चिपकाव तुम्हें
एक भिखारी बना
देता है और
जीवन उनके लिए
है जो सम्राट
हैं, उनके
लिए नहीं जो
कि भिखारी हैं।
यदि तुम भीख
मांगते हो, तो तुम कुछ
नहीं पाओगे।
जीवन उन्हें
बहुत ज्यादा
देता है जो
कभी मांगते
नहीं हैं।
जीवन उनके लिए
एक आशीष बन
जाता है जो
उससे चिपकते
नहीं। जीयो
उसे, आनंदित
होओ उससे, उत्सव
मनाओ उसका; लेकिन
कंजूसी कभी मत
करना, उससे
चिपकना मत।
जीवन के प्रति
यह चिपकाव ही
तुम्हें
मृत्यु का भय
देता है, क्योंकि
जितने ज्यादा
तुम चिपकते हो
उतने ज्यादा
तुम समझ जाते
हो कि जीवन
वहा नहीं है—वह
जा रहा है, वह
चला जा रहा
है। तब मृत्यु
का भय आ खड़ा
होता है।
जीवन
में से गुजरते
हुए मृत्यु—
भय है जीवन से चिपकाव
है और यह बात
सभी में प्रबल
है— विद्वानों
में भी।
क्योंकि
तुम्हारे
विद्वान
बिलकुल तुम्हारे
जैसे ही मूढ़
हैं। पंडितों
ने कुछ नहीं जाना।
वस्तुत:
उन्होंने
चीजें स्मरण
कर ली हैं।
बड़े विद्वान
हैं, पंडित
हैं, वे
जीवन के बारे
में बहुत कुछ
जानते हैं, लेकिन वे
जीवन को नहीं
जानते। वे सदा
किसी चीज के
आस— पास को, घेरे
को ही जानते
हैं। वे आसपास
ही चक्कर काटते
रहते हैं—केंद्र
में कभी नहीं
उतरते। वे
उतने ही भयभीत
होते हैं—शायद
तुमसे भी
ज्यादा—क्योंकि
उन्होंने
अपने जीवन
शब्दों में
व्यर्थ गंवाए
हैं। शब्द तो
बुदबुदे
मात्र हैं। उन्होंने
बहुत शान
इकट्ठा कर
लिया है, लेकिन
जीवन के
मुकाबले शान
की क्या हस्ती?
तुम
प्रेम के विषय
में बहुत—सी
बातें जान
सकते हो बिना
प्रेम को जाने
हुए। वस्तुत:
यदि तुम प्रेम
को जानते हो, तो प्रेम
के विषय में
जानने की क्या
जरूरत है? तुम
परमात्मा के
विषय में बहुत—सी
बातें जान
सकते हो बिना
परमात्मा को
जाने हुए। वास्तव
में, यदि
तुम परमात्मा
को जानते हो, तो परमात्मा
के विषय में
जानने की क्या
जरूरत है?—वह
मूढ़ता होगी, नासमझी। सदा
याद रखना कि
किसी विषय में
जानना कोई
जानना नहीं
होता। किसी
विषय के बारे
में जानना, केंद्र को
कभी भी न छूते
हुए, मात्र
चक्कर में ही
घूमते जाना
है।
पतंजलि
कहते हैं
विद्वान भी, जो
शास्त्र—
निपुण हैं, तत्वज्ञान
के ज्ञाता हैं,
बहस कर सकते
है उनके सारे
जीवन भर वाद—विवाद
कर सकते है, वे बातें ही
बातें किए जा
सकते हैं, और
लाखों चीजों
के बारे में
तर्क कर सकते हैं,
लेकिन इस
बीच जीवन बहा
जा रहा है।
जीवन की प्याली
का तो स्वाद
ही नहीं लिया
उन्होंने। वे
नहीं जानते
जीवन क्या है।
वे शब्दों में
जीए हैं, भाषागत
खेलों में। वे
भी भयभीत
होंगे। तो ध्यान
रहे, वेद
और बाइबिल मदद
न देंगे। जहां
तक जीवन का संबंध
है, ज्ञान
किसी काम का
नहीं। तुम
चाहे बड़े
वैज्ञानिक हो
जाओ या बड़े
दार्शनिक या
कि बड़े
गणितज्ञ, लेकिन
उसका यह अर्थ
नहीं कि तुम
जीवन को जानते
हो। जीवन को
जानना एक
संपूर्णतया
अलग आयाम है।
जीवन
को जानने का
अर्थ है : उसे
जीना, निर्भय
हो कर
असुरक्षाओं
में जीना
क्योंकि जीवन
एक असुरक्षित
घटना है, अज्ञात
में सरकना
क्योंकि जीवन
हर क्षण अज्ञात
है, वह सदा
बदल रहा है, और नया हो
रहा है, अज्ञात
के यात्री हो
जाओ और जीवन
के साथ बढ़ना जहां
कहीं वह ले
जाए; एक
घुमक्कड़ हो
जाना।
मेरे
देखे संन्यास
का यही अर्थ
है ज्ञात को
और शात की
सुविधाओं को
छोड़ने के लिए
सदा तैयार रहना
और अज्ञात में
बढ़ते जाना।
निस्संदेह, अज्ञात
के साथ
असुरक्षाएं
लगी हैं, तकलीफें
हैं, असुविधाएं
हैं। अज्ञात
में सरकने का
अर्थ है खतरे
में सरकना।
जीवन एक खतरा
है। वह खतरों
और बाधाओं से
भरा हुआ है।
इसी कारण, लोग
स्वयं को बंद
करने लगते हैं।
वे कैदी में, कोठरियों
में जीते —अंधेरे
में, लेकिन
फिर भी
सुविधापूर्ण।
इससे पहले कि
मृत्यु आए, वे मर ही गए
होते हैं।
स्मरण
रखना, यदि
तुम सुविधा को
चुनते हो, यदि
.तुम सुरक्षा
को चुनते हो, यदि परिचित
को चुनते हो, तो तुम जीवन
को न चुनोगे।
जीवन एक
अज्ञात घटना है।
तुम जी सकते
हो उसे, लेकिन
तुम उसे
मुट्ठियों
में नहीं कस
सकते, तुम
उससे चिपक
नहीं सकते। जहां
कहीं वह ले
जाए, तुम
सरक सकते हो
उसके साथ।
तुम्हें
शुद्ध बादल की
भांति हो जाना
होता है, जहां
कहीं उसे हवा
ले जाए उसके
साथ चलना होता
है न जानते
हुए कि वह
कहां जा रहा
है।
जीवन
का कोई
उद्देश्य
नहीं होता।
यदि तुम किसी
एक निश्चित
उद्देश्य की
खोज में हो तो
तुम जी नहीं
पाओगे। जीवन
उद्देश्यविहीन
है। इसीलिए वह
असीम है, इसीलिए
यात्रा
अंतहीन है।
अन्यथा
उद्देश्य पर
पहुंच जाओगे,
और फिर क्या
करोगे तुम जब
उद्देश्य मिल
चुका होगा?
जीवन
का कोई
उद्देश्य
नहीं। तुम एक
उद्देश्य पा
लेते, हो
और हजारों
उद्देश्य आगे
होते हैं। तुम
एक शिखर पर
पहुंच जाते और
तुम सोच रहे
होते कि 'यह
अंतिम है, मैं
आराम करूंगा।’
लेकिन जब
तुम पहुंचते
हो शिखर पर तो
बहुत से और
शिखर उदघाटित
हो जाते हैं, ज्यादा ऊंचे
शिखर अभी भी
वहां जाने को
हैं। यह सदा
ऐसा ही होता
है, तुम
अंत तक कभी
नहीं पहुंचते।
यही अर्थ है
परमात्मा के
असीम होने का,
जीवन के
अंतहीन होने
का कोई आरंभ
नहीं और कोई अंत
नहीं। भयभीत,
स्वयं में
बंद हुए, तुम
चिपकोगे, और
फिर तुम पीड़ित
होओगे।
जीवन
में से गुजरते
हुए मृत्यु—भय
है जीवन से
चिपकाव है और
यह बात सभी
में प्रबल है—विद्वानों
में भी।
मृत्यु
को जाने बिना
ही तुम भयभीत
होते हो। कोई
बात वहा भीतर
गहरे में जरूर
है, और
बात यही है :
तुम्हारा
अहंकार एक
झूठी घटना है।
वह कुछ
निश्चित
चीजों का एक
संयोजन है; उसमें कोई तत्व
नहीं, कोई
केंद्र नहीं।
अहंकार
मृत्यु से
भयभीत है। यह
तो वैसा ही है
जैसे जब कोई
छोटा बच्चा
ताश के पत्तों
का घर बना
लेता है और
बच्चा डरा हुआ
होता है, भीतर
आ रही हवा से
डरा होता है।
बच्चा भयभीत
होता है कि
शायद दूसरा
बच्चा घर के
पास आ जाएगा।
वह स्वयं से भयभीत
होता है, क्योंकि
यदि वह कुछ
करता है, तो
घर तुरंत गिर
सकता है।
तुम
रेत में घर
बनाते हो; तुम सदा
भयभीत रहोगे,
ठोस चट्टान
वहां है नहीं
उसकी नींव में।
तूफान आते हैं
और तुम कंपते
हो क्योंकि
तुम्हारा
सारा घर कंपता
है; किसी
क्षण वह गिर
सकता है।
अहंकार ताश के
पत्तों का घर
है, और तुम
डरे हुए हो।
यदि तुम सचमुच
ही जानते हो
कि तुम कौन हो,
तो भय
तिरोहित हो
जाता है, क्योंकि
अब तुम असीम
की, मृत्युहीनता
की चट्टान पर
होते हो।
अहंकार
मरने ही वाला
है क्योंकि वह
पहले ही मरा
हुआ है। उसका
अपना कोई जीवन
नहीं; वह
केवल तुम्हारे
जीवन को
प्रतिबिंबित
करता है। वह
होता है दर्पण
की भाति।
तुम्हारा
अस्तित्व
शाश्वत है। पंडित—विद्वान
तक भी, सत्य
से इसलिए
भयभीत हैं, क्योंकि
पांडित्य
द्वारा तुम
नहीं जान सकते
अपनी अंतस
सत्ता को, वह
जाना जाता है
अनसीखे
द्वारा, सीखे
हुए द्वारा
नहीं।
तुम्हें अपना
मन पूरी तरह
खाली करना
पड़ता है।
तुम्हारी 'मैं'
की अनुभूति
से भी पूरी
तरह रिक्त, शून्य होकर,
अकस्मात उस
शून्यता में
तुम अंतस
सत्ता को पहली
बार अनुभव
करते हो, वह
शाश्वत है।
उसकी कोई
मृत्यु नहीं
हो सकती। केवल
वह सत्ता ही
आलिंगन कर
सकती है
मृत्यु का, और उसी में
जानती है कि
तुम मृत्यु
विहीन हो।
अहंकार तो
भयभीत रहता है।
पतंजलि
कहते हैं:
पांचों
क्लेशों के
मूल कारण
मिटाए जा सकते
हैं उन्हें
पीछे की ओर
उनके उदगम तक
विसर्जित कर
देने से
प्रति—प्रसव? यह एक
बहुत —बहुत
महत्वपूर्ण
प्रक्रिया है—प्रति—प्रसव
की प्रक्रिया।
यह प्रक्रिया
है कारण में
फिर से समावेश
होना, कार्य
को कारण तक
लौटा लाना, प्रत्यावर्तन
की प्रक्रिया।
तुमने सुना
होगा जैनोव का
नाम, वह
आदमी जिसने
प्राइमल
थैरेपी का फिर
से आविष्कार
किया है।
प्राइमल
चिकित्सा
प्रति—प्रसव
का ही एक
हिस्सा है। यह
पतंजलि की
प्राचीनतम
विधियों में
से एक है।
प्राइमल
चिकित्सा में,
जैनोव
लोगों को
सिखाता है
उनके बचपन तक
आना। यदि कोई
बात होती है
मुश्किल, तो
फिर तुम लौट
आना उसके मूल
स्रोत तक जहां
से कि वह आरंभ
हुई। क्योंकि
तुम समस्या को
सुलझाने की
कोशिश किए जा
सकते हो, लेकिन
जब तक कि तुम
जड़ तक ही न
उतरो, वह
सुलझायी नहीं
जा सकती है।
परिणाम
सुलझाए नहीं
जा सकते हैं; उन्हें कारण
तक लौटाया जा
सकता है। यह
ऐसा होता जैसे
कि एक वृक्ष
है और तुम
नहीं चाहते
उसका होना, लेकिन तुम
टहनियां
काटते जाते हो,
पत्तों को
काटते जाते हो,
और फिर और
टहनियां फूट
पड़ती हैं। तुम
एक पत्ता
काटते हो, तो
तीन पत्ते आ
जाते हैं।
तुम्हें जाना
पड़ता है जड़ों
तक।
उदाहरण
के लिए, एक आदमी है
जो स्त्री से
भयभीत है।
बहुत से लोग
आते हैं मेरे
पास। वे कहते
हैं कि उन्हें
भय आता है
स्त्री से, बहुत भय।
उसी भय के
कारण, वे
कोई सार्थक
संबंध नहीं
बना सकते, वे
संबंधित नहीं
हो सकते; भय
सदा ही रहता
है। जब तुम
भयभीत होते हो,
तो संबंध
दूषित हो
जाएंगे भय
द्वारा। तुम
समग्ररूप से
बढ़ न पाओगे।
तुम आधे — आधे
मन से जुडोगे,
सदा भयभीत
होकर; अस्वीकृत
होने का भय, यह भय कि
शायद ' स्त्री
न ही कह दे। और
दूसरे भय होते
हैं। यदि यह
आदमी एमिल कूए
के ढंग की
विधियों को आजमाता
है। यदि वह
दोहराए जाता
है, 'मैं
स्त्रियों से
भयभीत नहीं, और हर रोज
मैं बेहतर हो
रहा हूं?, यदि
वह ऐसी बातें
आजमाता है तो
वह अस्थायी
रूप से भय का
दमन कर सकता
है, लेकिन
भय बना रहेगा।
और फिर —फिर
आता रहेगा।
प्राइमल—
थैरेपी में, उसे पीछे
फेंक देना
पड़ता है। वह
व्यक्ति जो
भयभीत है
स्त्रियों से,
दर्शाता है
कि उसका मां
के साथ कोई
ऐसा अनुभव रहा
होगा जिसके
कारण भय बना, क्योंकि मां
होती है पहली
स्त्री।
तुम्हारी
सारी जिंदगी
में तुम्हारा
शायद बहुत —सी
स्त्रियों के
साथ संबंध
जुड़े—पत्नी के
रूप में, प्रेमिका
के रूप में, पुत्री के
रूप में, मित्र
के रूप में, लेकिन मां
की छवि बनी
रहेगी। वह
तुम्हारा
पहला अनुभव है
स्त्रियों के
साथ संबंध का।
तुम्हारा
सारा ढांचा
उसी नींव पर
आधारित होगा,
और वह नींव
है तुम्हारी
मां के साथ
तुम्हारा
संबंध। इसलिए
यदि कोई
व्यक्ति
भयभीत होता है
स्त्रियों से,
तो उसे पीछे
ले जाना होता
है, उसे
पीछे कदम रखना
पड़ता है
स्मृति में।
उसे पीछे
लौटना पड़ता है
और पता लगाना
होता है उस
मूल स्रोत का
जहां से कि भय
प्रारंभ हुआ।
वह शायद कोई
साधारण घटना
रही हो, बहुत
छोटी। वह शायद
बिलकुल भूल
चुका हो उसे।
यदि वह पीछे
जाता है तो वह
कहीं न कहीं
घाव ढूंढ लेगा।
तुम
चाहते थे मां
तुम्हें
प्रेम करे, जैसा कि
हर बच्चा
चाहता है।
लेकिन मां को
कोई दिलचस्पी
न थी। वह एक
व्यस्त
स्त्री थी।
उसे भाग लेना
था बहुत
संस्थानों
में, क्लबों
में, इसमें
और उसमें। वह
तुम्हें दूध
पिलाने को
राजी न थी
क्योंकि वह
चाहती थी बहुत
अनुपातमय
शरीर। वह अपने
स्तन जवान
बनाए रखना
चाहती थी। और
तुम्हारे
द्वारा नष्ट
नहीं होने
देना चाहती थी।
इसलिए
तुम्हें स्तन
का दूध देने
से इनकार करती
थी, या
उसके दिमाग
में और दूसरी
समस्याएं रही
होंगी। तुम
स्वीकृत
बच्चे न थे, बोझ की भाति
तुम आए। पहली
बात तो यह कि
तुम्हारी कभी
आवश्यकता ही न
थी। लेकिन
गोली ने काम
किया नहीं और
तुम पैदा हो गए।
या वह घृणा
करती थी पति
से कैर
तुम्हारा
चेहरा पति
जैसा था —एक
गहरी घृणा, या थी कोई न
कोई और बात
लेकिन तुम्हें
पीछे जाना
पड़ता है और
तुम्हें फिर
से बच्चा बनना
पड़ता है।
ध्यान
रहे, जीवन
की कोई अवस्था
कभी गुम नहीं
होती।
तुम्हारा वह
बच्चे का रूप
अभी भी भीतर
है। ऐसा नहीं
है कि बच्चा
युवा हो जाता
है, नहीं।
बच्चा भीतर
बना रहता है, युवा उस पर
आरोपित हो गया
होता है, फिर
वृद्ध ऊपर से
और आरोपित हो
जाता है युवा
व्यक्ति पर, पर्त —दर—पर्त।
बच्चा कभी
नहीं बनता
युवा व्यक्ति।
बच्चा मौजूद
रहता है, युवा
व्यक्ति की
पर्त उसके ऊपर
आ जाती है।
युवा व्यक्ति
कभी नहीं होता
का, एक और
पर्त
वृद्धावस्था
की, उसके
ऊपर आ जाती है।
तुम प्याज की
भाति बन जाते —बहुत
सारी पर्तें —और
यदि तुम उसमें
उतरो, तो
सारी पर्तें
अभी भी वहां
मौजूद होती
हैं, संपूर्ण
रूप से।
प्राइमल
— थैरेपी में
जैनोव लोगों
की मदद करता
है पीछे लौटने
में और फिर से
बच्चे बन जाने
में। वे हाथ —पैर
मारते, वे चिल्लाते,
वे रोते, वे चीखते, और वह चीख अब
वर्तमान की
नहीं होती।
बिलकुल अभी वह
व्यक्ति से
संबंधित नहीं
होती, वह
संबंध रखती है
उस बच्चे से
जो पीछे छिपा
हुआ है। जब वह
चीख, वह
आदिम चीख आती
है तो बहुत
सारी चीजें
तुरंत रूपांतरित
हो जाती हैं।
यह
प्रति—प्रसव
की विधि का एक
हिस्सा है।
जैनोव को शायद
ध्यान न हो कि
पतंजलि ने
करीब पांच हजार
वर्ष पहले, एक ढंग
सिखाया
जिसमें कि
प्रत्येक
कार्य को ले
जाना ही होता
था कारण तक।
केवल कारण को
तोड़ा जा सकता
है। तुम काट
सकते हो जड़ों
को और फिर
वृक्ष मर जाएगा।
लेकिन तुम
शाखाओं को काट
कर तो आशा
नहीं रख सकते
कि वृक्ष मर
जाएगा; वृक्ष
तो ज्यादा फले
—फूलेगा।
प्रति —प्रसव
एक सुंदर शब्द
है, प्रसव
का अर्थ हुआ
जन्म। जब
बच्चा जन्मता
है तो होता है
प्रसव। प्रति—प्रसव
का अर्थ है.
तुम फिर
स्मृति में
उत्पन्न हुए
तुम जन्म तक
लौट गए, उस
प्रघात तक जब
किं तुम
उत्पन्न हुए
थे, और तुम
उसे फिर से
जीते हो। याद
रहे तुम उसे
याद ही नहीं
करते, तुम
उसे जीते हो, तुम उसे फिर
से जीते हो।
स्मृति
अलग बात होती
है। तुम स्मरण
कर सकते हो, तुम मौन
बैठ सकते हो, लेकिन तुम
वही
आदमी
रहते जो तुम
हो। तुम याद
करते कि तुम
बच्चे थे और
तुम्हारी मा ने
तुम्हें जोर
से मारा। वह
घाव मौजूद
होता है, लेकिन फिर
भी यह स्मरण
करना ही हुआ।
तुम एक घटना
को याद कर रहे
हो, जैसे
कि चह किसी
दूसरे के साथ
घटी हो। उसे
फिर से जीना
प्रति—प्रसव
है। उसे फिर
से जीने का
अर्थ हुआ कि तुम
फिर से बच्चे
बन जाते हो।
ऐसा नहीं कि
तुम याद करते
हो, तुम
बच्चे बन जाते
हो। फिर से
तुम उस बात को
जीते हो। मां
तुम्हारी
स्मृति में
चोट नहीं
पहुंचा रही
होती, मा बिलकुल
अभी फिर से
चोट देती है
तुम्हें। वह
घाव, वह
क्रोध, वह
प्रतिरोध, तुम्हारी
अनिच्छा, अस्वीकार
और तुम्हारी
प्रतिक्रिया,
जैसी कि
सारी बात ही
फिर घट रही
होती है। यह
है
प्रतिक्रिया
और यह केवल
प्राइमल—
थैरेपी के ही
रूप में नहीं
है बल्कि एक
व्यवस्थित
विधि है हर
खोजी के लिए
जो समृद्ध
जीवन की, सत्य
की खोज में
लगा है।
ये पाच
क्लेश हैं
अविद्या—जागरूकता
का अभाव, अस्मिता—अहंकार
की अनुभूति; राग—आसक्ति,
द्वेष —घृणा,
और
अभिनिवेश—जीवन
की लालसा। ये
पांच दुख हैं।
पांचों
क्लेशों के
मूल कारण
मिटाए जा सकते
हैं उन्हें
पीछे की ओर
उनके उदगम तक
विसर्जित कर
देने से।
अंतिम
है अभिनिवेश, जीवन की
लालसा; प्रथम
है अविद्या—जागरूकता
का अभाव।
अंतिम को
विसर्जित
होना है प्रथम
तक, अंतिम
को ले आना है
प्रथम तक। अब
पीछे की ओर
चलो. तुममें
लालसा है जीवन
की; तुम
चिपकते हो
जीवन से।
क्यों? पतंजलि
कहते हैं, 'पीछे
की ओर जाओ।’ क्यों
चिपकते हो तुम
जीवन से?—क्योंकि
तुम दुखी होते
हो। और दुख
निर्मित होता
है द्वेष से, घृणा से।
दुख निर्भित
होता है द्वेष
से —हिंसा, ईर्ष्या,
क्रोध से —घृणा
से। कैसे तुम
जी सकते हो
यदि इतनी
नकारात्मक
चीजें
तुम्हारे
आसपास होती
हैं? इन्हीं
नकारात्मकताओ
द्वारा, जहां
कहीं भी तुम
देखते हो, जीवन
जीने जैसा
नहीं लगता है।
जहां कहीं तुम
देखते हो
नकारात्मक
द्वारा, हर
चीज अंधेरी, निराश, नर्क
जान पड़ती है।
जीवन की लालसा
का पीछे की ओर
ले जाकर
समाधान करना
पड़ता है, तो
तुम पाओगे
द्वेष। यदि
तुम नीचे उतरो,
पीछे की ओर
जीवन के प्रति
चिपकाव सहित,
उसके पीछे
तुम पाओगे
घृणा की पर्त।
इसीलिए तुम जी
नहीं पाए हो।
सारे समाज, सभ्यताएं, वे बहुत
घृणा लाद देती
हैं तुम पर।
यदि
तुम पढ़ो हिंदू
शास्त्र या कि
जैन शास्त्र, तो वे
घृणा सिखाते
हैं। वे कहते
हैं कि यदि
तुम किसी
स्त्री के
प्रेम में हो,
तो पहले देख—समझ
लेना स्त्री
क्या है। क्या
होती है
स्त्री? —मात्र एक
ढांचा
हड्डियों का,
मांस, रक्त,
श्लेष्मा, असुंदर
चीजों का।
स्त्री के
भीतर झांक
लेना; सौंदर्य
तो ऊपर होता
है। और त्वचा
के पीछे हर
चीज असुंदर
होती है, अरुचिकर
होती है।
यदि
तुम ऐसे लोगों
द्वारा सिखाए—पढ़ाए
जाते हो, तो जब कभी
तुम प्रेम में
पड़ते हो, तो
तुम प्रेम न
कर पाओगे
स्त्री को
क्योंकि घृणा
आ पहुंचेगी।
तुम अनुभव करोगे,
अरुचि उठ
रही है। और
प्रेम कैसे
संभव हो सकता
है घृणा के
साथ? और
यदि तुम
शिक्षित किए
गये हो इन
बाहरी तत्वों
द्वारा जो
जीवन के
स्रोतों को ही
विषमय बना देते
हैं, तो
तुम दुखी हो
जाओगे। बिना
प्रेम के कैसे
तुम प्रसन्न
रह सकते हो? तुम दुखी
होओगे। जब तुम
दुखी होते हो
तो तुम चिपकते
हो जीवन से।
इसलिए
पतजिल कहते
हैं, 'जीवन
से चिपकना
सबसे ऊपरी
पर्त है। गहरे
जाओ; उसके
पीछे, तुम पाओगे,
घृणा की, द्वेष की
पर्त।’
लेकिन
क्यों करते हो
तुम घृणा? ज्यादा
गहरे उतरो और
तुम पाओगे
आसक्ति। तुम
आकर्षित होते
हो किसी चीज
की ओर। और यदि
तुम आकर्षित
होते हो, केवल
तभी तुम घृणा
कर सकते हो।
यदि तुम
आकर्षित नहीं
हो सकते तो
घृणा नहीं कर
सकते। आकर्षण
निर्मित कर
सकता है
अनाकर्षण को,
अनाकर्षण
दूसरा छोर है
आकर्षण का।
ज्यादा गहरे
जाओ—दूसरी
पर्त तुम
पाओगे
अस्मिता की, अहंकार की, अनुभूति कि
मैं हूं। और
यह 'मैं' अस्तित्व
रखता है
आसक्ति और
द्वेष के
द्वारा। यदि
राग और द्वेष,
आकर्षण और
अनाकर्षण
दोनों गिर
जाएं तो 'मैं'
वहां खड़ा
नहीं रह सकता।’मैं' गिर
जाएगा उसके
साथ ही।
तुम और
तुम्हारा
अहंकार
अस्तित्व
रखता है अच्छे
और बुरे की
तुम्हारी
धारणाओं के
द्वारा, प्रेम और
घृणा की
धारणाएं, क्या
सुंदर है और
क्या असुंदर,
इसकी
धारणाएं।
द्वैत अहंकार
को निर्मित
करता है। तो
राग और द्वेष
के द्वैत के
पीछे तुम
पाओगे अहंकार
को। क्यों बना
रहता है
अहंकार? पतंजलि
कहते हैं, 'और
भी ज्यादा
गहरे में जाओ
और तुम पाओगे—जागरूकता
का अभाव। जीवन
के सारे दुख
का मूलभूत
कारण है
जागरूकता का
अभाव। यही है
कारण, सारी
बात का मुख्य
कारण। तुम
नहीं पा सकते
इस कारण को
अभिनिवेश में,
जीवन की
लालसा में, वह तो फूल है,
फल है; अंतिम
घटना है।
वस्तुत: वह
कारण नहीं है।
पीछे जाओ।’
पांचों
क्लेशों के
मूल कारण मिटाए
जा सकते हैं
उन्हें पीछे
की ओर उनके
उदगम विसर्जित
कर देने से।
एक बार
तुम जान लेते
हो कारण को, फिर हर
चीज का समाधान
हो जाता है।
और कारण है
जागरूकता का
अभाव। करोगे
क्या? मत
लड़ना अपनी पकड़
से, मत
लड़ना अपनी
आसक्ति से और
तुम्हारी
अपनी घृणा से,
अहंकार से
भी मत लड़ना।
बस ज्यादा और
ज्यादा
जागरूक हो
जाना। केवल
ज्यादा और ज्यादा
सचेत हो जाना,
ध्यानी, बोधपूर्ण
हो जाना।
ज्यादा—ज्यादा
स्मरण रखना और
सजग रहना। वही
सजगता ही हर
चीज तिरोहित
कर देगी। एक
बार कारण
विलीन हो जाता
है, तो
कार्य
तिरोहित हो
जाते हैं
साधारण
नैतिकता
तुम्हें सतह
पर के
परिवर्तन
सिखाती है।
तथाकथित धर्म
तुम्हें
सिखाते हैं कि
कैसे परिणामों
से लड़ना होता
है। पतंजलि
तुम्हें दे
रहे हैं धर्म
का सच्चा विज्ञान
— मूल कारण ही
विलीन हो सकता
है। तुम्हें
ज्यादा सजग
होना होता है।
जीवन को जीयो
सजगता के साथ :
वही है कुल
संदेश। सोए
हुए मनुष्य की
भाति मत जीयो, या कि
सम्मोहन में
जी रहे शराबी
की भांति मत जीयो।
जो कुछ तुम कर
रहे हो उसके
प्रति होश रखो।
करो उसे, लेकिन
करना उसे पूरे
होश सहित।
अकस्मात तुम
पाओगे बहुत
सारी चीजें
तिरोहित हो
जाती हैं।
एक चोर
आया एक बौद्ध
रहस्यदर्शी नागार्जुन
के पास। चोर
कहने लगा, 'देखिए, मैं बहुत
सारे
शिक्षकों और
गुरुओं के यहां
हो आया। वे सब
मुझे जानते
हैं, क्योंकि
मैं एक
प्रसिद्ध चोर
हूं इसलिए मैं
सब जगह जाना
जाता छू। जिस
क्षण पहुंचता
हूं उनके पास
वे कहते हैं, पहले तो
तुम्हें चोरी
छोड़ देनी है, लोगों को
लूटना छोड़ना
है। पहले
तुम्हारे
जीवन का ढंग
गिरा दो और
फिर कुछ घट
सकता है।
इसीलिए बात
जहां की तहां
समाप्त हो
जाती है। अब
मैं आया हूं
आपके पास। आप
क्या कहते हैं?'
नागार्जुन
ने कहा, 'तब तुम जरूर
चोरों के पास
गए होओगे, गुरुओं
के पास नहीं।
तुम्हारे
चोरी करने या
न करने की
फिक्र गुरु को
क्यों करनी? मेरा कुछ
लेना—देना
नहीं। तुम एक
काम करो. 'तुम
चोरी किए जाओ,
लोगों को
लूटते जाओ, लेकिन सजगता
सहित ही लूटना
उन्हें।’ उस
चोर ने कहा, ' ऐसा मैं कर
सकता हू।’ और
वह पकड़ाई में
आ गया, फंस
गया।
दो
सप्ताह
गुजरने के बाद, वह लौट कर
आया
नागार्जुन के
पास और बोला, ' आप धोखेबाज
हो, आपने
चालाकी की
मेरे साथ। कल
रात मैं पहली
बार राजा के
महल में जा
घुसा, लेकिन
आपकी वजह से
मैंने सजग
रहने की कोशिश
की। मैंने
खजाना खोला।
हजारों
बहुमूल्य
हीरे वहां पड़े
थे, लेकिन
आपके कारण
मुझे खाली हाथ
ही महल से
बाहर आना पड़ा।’
नागार्जुन
ने कहा, 'मुझे
बताओ कि हुआ
क्या?' चोर
ने कहा, 'जब
भी मैं सजग
हुआ और मैंने
उन हीरों को
उठाने की
कोशिश की, तो
हाथ हिलता ही
नहीं था। यदि
हाथ हिलता, तो फिर मैं
सजग न रहता था।
दो —तीन घंटे
मैंने संघर्ष
किया। मैंने
कोशिश की सजग
होने की और उन
हीरों को
उठाने की, लेकिन
फिर मैं सजग न
रहता था।
इसीलिए मुझे
उन्हें वापस
वहीं रखना
पड़ता था। जब
भी सजग हुआ, तो हाथ न
हिलता था।’ नागार्जुन
ने कहा, 'यही
होती है सारी
बात। तुमने
सार को समझ
लिया है।’
बिना
सजगता के तुम
क्रोधित, आक्रामक, सत्तात्मक,
ईर्ष्यालु
हो सकते हो।
ये पत्ते और
शाखाएं हैं, न कि जड़ें।
सजगता के साथ
तुम क्रोधित
नहीं हो सकते,
तुम
आक्रामक, हिंसात्मक,
लोभी नहीं
हो सकते।
साधारण
नैतिकता
तुम्हें
सिखाती है
लोभी न बनो, क्रोधी न
होओ। वह
साधारण
नैतिकता होती
है। वह कुछ
ज्यादा मदद
नहीं देती।
ज्यादा से ज्यादा
एक क्षुद्र
दमित
व्यक्तित्व
निर्मित हो
जाता है। लोभ
बना रहता है, क्रोध बना
रहता है, केवल
तुम थोड़ी
सामाजिक
नैतिकता तो पा
सकते हो। यह
बात समाज में
एक होशियार
भागीदार के
रूप में तो
मदद कर सकती
है, लेकिन
कुछ ज्यादा
नहीं घटता है।
पतंजलि
साधारण
नैतिकता नहीं
सिखा रहे हैं।
पतंजलि बता
रहे हैं सभी
धर्मों के
सच्चे मूल को
ही, धर्म
का असली
विज्ञान। वे
कहते हैं, 'प्रत्येक
कार्य को कारण
तक ले आओ। और
कारण सदा होता
है असचेतनता,
अजागरूकता,
अविद्या।
सजग हो जाओ, और हर चीज
तिरोहित हो
जाती है।
पांचों
दुखों की
बाह्य अभिव्यक्तियां
तिरोहित हो
जाती हैं
ध्यान के
द्वारा।
तुम्हें
उनकी चिंता
करने की कोई
जरूरत नहीं, बस तुम
ध्यान ज्यादा
करो, ज्यादा
सजग हो जाओ।
पहले तो बाहरी
अभिव्यक्तियां
: क्रोध, ईर्ष्या,
घृणा, आकर्षण
मिट जाते हैं।
पहले बाहरी
अभिव्यक्तियां
मिट जाती हैं,
तो भी बीज बने
रहते हैं
तुममें। तब
व्यक्ति को
बहुत ज्यादा
गहरे में जाना
होता है, क्योंकि
तुम सोचते हो
कि तुम
क्रोधित होते
हो केवल जब
तुम्हें
क्रोध आता है।
यह बात सच
नहीं है, क्रोध
की एक
अंतर्धारा
चलती रहती है,
तब भी जब कि
तुम क्रोधित
नहीं होते।
अन्यथा, यथा
समय कहां से
पाओगे तुम
क्रोध? कोई
तुम्हारा
अपमान कर देता
है और अचानक
तुम्हें
क्रोध आ जाता
है। क्षण भर
पहले तुम
प्रसन्न थे, मुस्कुरा
रहे थे और फिर
चेहरा बदल
जाता है; तुम
खूनी बन जाते
हो। कहां से
पाया तुमने
इसे? यह
जरूर मौजूद
रहा होगा, एक
अंतर्धारा
तुममें सदा
मौजूद रहती है।
जब कभी
आवश्यकता आ
बनती है, अवसर
बन जाते हैं, तो अचानक
क्रोध भभक
उठता है।
पहले, ध्यान
तुम्हारी मदद
करेगा। बाहरी
अभिव्यक्ति
तिरोहित हो
जाएगी। लेकिन
उसी से
संतुष्ट मत हो
जाना, क्योंकि
मूलरूप से यदि
अंतर्धारा
बनी रहती है, तो किसी समय
उसके लिए
संभावना होती
है, उपद्रव
भभक सकता है।
किसी निश्चित
स्थिति में
अभिव्यक्ति
फिर से चली आ
सकती है। कभी
भी संतुष्ट मत
हो जाना उस
बाहरी
अभिव्यक्ति
के तिरोहित हो
जाने से, बीज
को जलना ही
होता है।
ध्यान का पहला
भाग तुम्हारी
मदद करता है
बाहरी
अभिव्यक्ति
को मूलाधार तक
लाने में। बाहरी
तल पर तुम शात
हो जाते हो, लेकिन भीतर
चीजें चलती
रहती हैं। तब
ध्यान को और
भी ज्यादा
गहरे में
उतरना होता है।
यह है पतंजलि
का फर्क समाधि
और ध्यान के
बीच। ध्यान
प्रथम अवस्था
है। ध्यान वह
पहली अवस्था
है जिसके साथ
बाह्य अभिव्यक्तियां
तिरोहित हो
जाती हैं; और
समाधि अंतिम
अवस्था है, वह परम
ध्यान जहां
बीज जल जाते
हैं। तुम जीवन
और अंतससत्ता
के आत्यंतिक
स्रोत तक पहुंच
चुके होते हो।
तब तुम किसी
चीज से चिपकते
नहीं। तब
तुम्हें
मृत्यु का भय
नहीं रहता।
तब
वस्तुत: तुम
होते ही नहीं, तब तुम
बचते ही नहीं।
तब परमात्मा
तुममें आ बसता
है। और तुम कह
सकते हो, 'अहं
ब्रह्मस्मि';
मैं ही हूं
परमात्मा, आत्यंतिक
आधार
अस्तित्व का।
आज इतना ही।
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