अध्याय—9
सूत्र:
तपाम्यहमहं
वर्ष
निग्ष्टृणान्स्पृउजामि
च।
अमृतं चैव
मृत्युश्च
सदसच्चछमर्जुन
।। 19।।
त्रैविद्या
मां सोमया: पूतपापा
यज्ञैरिष्टवा
स्वग्रतिं
प्रार्थयन्ते।
ते पुण्यमामाद्य
सुरेन्द्रलस्केम्
अश्नन्ति
दिव्यान्दिवि
देवभोगान् ।।
20।।
मैं ही
सूर्यरूप हुआ
तपता हूं तथा
वर्क को
आकर्षित करता
हूं और
वर्षाता हूं।
और हे अर्जुन? मैं ही
अमृत और मृत्यु
एवं सत और असत
भी? सब कुछ
मैं ही हूं।
परंतु
जो तीनों
वेदों में
विधान किए हुए
सकाम क्रमों
को करने वाले
और सोमरस को
पीने वाले एवं
पापों से
पवित्र हुए पुरूष
मेरे को
यज्ञों के
द्वारा पूजकर
स्वर्ग की प्राप्ति
को चाहते है, वे पुरुष
अपने पुण्यों
के फलरूप इंद्रलोक
को प्राप्त
होकर स्वर्ग
में दिव्य
देवताओं के
भोगों को
भोगता हैं।
जीवन है एक, अस्तित्व
है एक, लेकिन
मन सभी कुछ
तोड़कर देखता
है। मन जब तक
तोड़ न ले, तब
तक देख ही
नहीं पाता है।
मन के देखने
की प्रक्रिया
में ही जीवन
खंड-खंड हो
जाता है।
इसे
ऐसा समझें, प्रकाश
की एक किरण है,
उसे एक कांच
के प्रिज्म
से निकालें, तो सात
टुकड़ों में
टूट जाती है, सात रंगों
में विभाजित
हो जाती है।
प्रकाश की किरण
अविभाज्य है,
अपने में
अखंड है।
प्रिज्म के
टुकड़े से
गुजरकर टूट
जाती है, हिस्सों
में बंट जाती
है।
हमारा
मन अस्तित्व
की किरण को भी
ऐसे ही तोड़ देता
है। हमारा मन
जहां भी देखता
है, वहां
पूरे को कभी
भी नहीं देख
पाता है। बड़ी
चीजों की तो
बात ही छोड़
दें, छोटी-सी
चीज को भी मन
पूरा देखने
में असमर्थ है।
एक छोटा-सा
कंकड़ का टुकड़ा
आपके हाथ में
रख दूं, तो भी
आपकी आखें, आपकी
इंद्रियां, आपका मन उस
टुकड़े को पूरा
नहीं देख सकते;
एक हिस्सा
छिपा रह
जाएगा। और जब
आप दूसरा हिस्सा
देखेंगे, तो
पहला हिस्सा
छिप जाएगा। एक
छोटा-सा कंकड़!
उसे भी
छोड़ दें। एक
धूल का, रेत का
टुकड़ा अपने
हाथ पर रख
लें। उसे भी
आपकी इंद्रियां
पूरा नहीं देख
सकती हैं, उसे
भी तोड़कर ही
देखेंगी। एक
हिस्सा दिखाई
पड़ेगा, एक
अनदेखा रह जाएगा।
जो अनदेखा है,
उसका आप
अनुमान ही
करेंगे कि
होगा, वह
दिखाई नहीं
पड़ेगा। और ऐसा
कभी नहीं कर
सकते कि दोनों
हिस्सों को आप
एक साथ देख
लें। एक छोटे-से
रेत के टुकड़े
के भी दोनों हिस्से
एक साथ नहीं
देखे जा सकते
हैं। जब एक देखेंगे,
दूसरा ओझल
हो जाएगा। तो
विराट की तो
कठिनाई और भी
बढ़ जाती है।
हमारा
मन अंश को ही
देख पाता है।
यह पहली बात ठीक
से समझ लें।
यदि यह बात
ठीक से समझ
में आ जाए, तो
बहुत-सी बातें
समझ में आ
सकेंगी। और
अगर यह बात
ठीक से समझ
में न आए तो
धर्म के बहुत
से सूत्र बेबूझ
रह जाते हैं।
यह बहुत
बुनियादी है।
मन की
सामर्थ्य ही
नहीं है किसी
चीज को उसकी पूर्णता
में देखने की।
मन का स्वभाव
ही नहीं है
किसी चीज को
उसकी पूर्णता
में देख लेने
का। वैसे ही, जैसे आंख
चाहे भी, तो
भी ध्वनि को सुन
नहीं सकती; और कान चाहे
भी, तो भी
रूप को देख
नहीं सकता।
कान का स्वभाव
नहीं है, आंख
का स्वभाव
नहीं है कि
ध्वनि को सुन
सके। आंख देख
सकती है, सुन
नहीं सकती।
फिर
अगर कोई आंख
से सुनने की
कोशिश करे, और उसे
कुछ भी सुनाई
न पड़े, और
उसे लगे कि
जगत् में कोई
ध्वनि नहीं है,
तो कसूर
किसका होगा? और अगर कोई
कान से देखने
की कोशिश करे,
और उसे कुछ
भी दिखाई न
पड़े, और वह
कहे कि जगत
में कुछ भी
नहीं है, तो
कसूर किसका
होगा? कान
का कोई कसूर
नहीं है, क्योंकि
कान देख ही
नहीं सकता। आंख
का कसूर नहीं
है, क्योंकि
आंख सुन ही
नहीं सकती। कसूर
उस व्यक्ति का
है, जो आंख
और कान के
स्वभाव को
नहीं समझ पा
रहा है।
मन के
स्वभाव के
संबंध में
पहली बात कि
मन किसी भी
वस्तु को उसकी
समग्रता में, टोटेलिटी
में नहीं देख
सकता है। जब
भी देखेगा, अंश को
देखेगा, पूर्ण
को नहीं, पहली
बात।
आज तक
किसी व्यक्ति
के मन ने किसी
चीज की
पूर्णता नहीं
देखी है।
इसलिए जहां भी
मन होगा, वहां अपूर्ण
ही अनुभव होगा,
अपूर्ण ही
दृष्टि होगी,
अधूरा ही
खयाल होगा।
इसलिए जो लोग
मन से पूरे का
निर्माण करते
हैं, उनका
निर्माण
काल्पनिक हो
जाता है, अनुमान
हो जाता है।
जो उन्हें
नहीं दिखाई
पड़ता, उसका
वे अनुमान
करके पूरा कर
लेते हैं। जो
दिखाई पड़ता है,
उसमें उसे
भी जोड़ देते
हैं, जिसको
वे सोचते हैं
कि होगा।
इसलिए मन से
निर्मित
दुनिया में
जितने भी
शास्त्र हैं,
वे सभी
व्यर्थ हैं, पूर्ण की
तरफ ले जाने
वाले नहीं है।
और
दुनिया में दो
तरह के
शास्त्र हैं।
एक तो वे
शास्त्र हैं, जो उन
लोगों ने कहे
हैं, जिन्होंने
मन को मिटाकर
पूर्ण को
जाना। और एक वे
शास्त्र हैं,
जो उन लोगों
ने कहे हैं, जिन्होंने
मन को
व्यवस्थित
करके, शिक्षित
करके, अध्ययन
से, विचार
से, मनन से,
चिंतन से, तर्क से, अनुभव
से मन को
विकसित किया
और फिर जगत के
संबंध में
दृष्टि को
लिपिबद्ध
किया। फिलासफी
और रिलिजन, धर्म और
दर्शन में यही
फर्क है।
धर्म
उन लोगों के
वक्तव्य हैं, जिन्होंने
मन को मिटाकर
जाना, जिन्होंने
मन के प्रिज्म
को तोड़ डाला
और अस्तित्व
की किरण को
सीधा देखा-अविभाज्य,
बिना बंटा
हुआ, अखंड।
और दर्शन, फिलासफी
उन लोगों के
वक्तव्य हैं,
जिन्होंने
मन को खूब
विकसित किया,
ट्रेन किया,
प्रशिक्षित
किया, समझाया,
सिखाया, पढ़ाया,
और फिर जगत
के संबंध में
एक दृष्टि
निर्मित की।
इसलिए
सबफिलासफीज
अधूरी हैं; होंगी
ही। कोई और
उपाय नहीं है।
साक्रेटीज कितनी
ही बड़ी बात कहे,
वह बात मन
की ही है। और
साक्रेटीज के
पास मन का कितना
ही विकसित रूप
हो, वह मन
ही है। अगर
साक्रेटीज यह
भी कहे कि ये
सातों जो रूप
टूट गए हैं
किरण के, इनको
जोड लेने से
फिर एक किरण
बन सकती है, तो भी वह मन
का ही अनुमान
है। अरस्तु
कितना ही कहे,
प्लेटो
कितना ही कहे,
काट और हीगल
कितना ही कहें,
वे जो कह
रहे हैं, वह
उनके विचार का
निष्कर्ष है,
अनुभव का
नहीं। 1 वे जो
कह रहे हैं, वह उनका
तर्कबद्ध
आयोजन है, प्रतीति
नहीं। वह उनके
मन की ही
दृष्टि है, मन से मुक्त
उनका
साक्षात्कार
नहीं। मन से
पैदा होती है
फिलासफी। मन
के पार उठ
जाने से जो
पैदा होता है,
वही धर्म
है।
मन जो
भी कहेगा, वह अधूरा
होगा। इसलिए
मेरा मन जो
कहेगा और आपका
मन जो कहेगा, उसमें मेल
होने का कोई
भी उपाय नहीं
है। मन का कहना
करीब-करीब
वैसा ही है, जैसा
पंचतंत्र की
एक पुरानी कथा
में हम सब जानते
हैं, पांच
अंधे एक हाथी
को अनुभव करते
हैं। और वे जो
भी कहते हैं, वह सभी सच
है। जिस अंधे
ने हाथी के
पैर को छुआ है,
उसने कहा, किसी महल के
सुदृढ़
स्तंभों की
भांति है
हाथी। और
जिसने हाथी के
कानों को छुआ,
उसने कहा कि
जैसे
स्त्रिया
अनाज को साफ
करती हैं सूप
में, वैसे
सूप की भांति
है हाथी!
गलत
दोनों ने नहीं
कहा, गलत
पांचों ने
नहीं कहा; और
पांच हजार
अंधे भी
इकट्ठे हो
जाते, तो
कोई भी गलत न
कहता। वे सभी
ठीक कहते। फिर
भी उनका ठीक
आशिक था। और
भूल उनके कहने
में नहीं थी, भूल उनके
विस्तार में
थी। जब किसी
अंधे ने कहा
कि हाथी किसी
महल के खंभों की
भांति है, तब
भूल इसमें
नहीं थी, जो
उसने जाना था।
जो उसने जाना
था, वह
उसने पैर जाने
थे; जो
उसने कहा, वह
हाथी के बाबत
कहा। जो जाना
था, वह अंश
था; और
जिसके संबंध
में कहा, वह
पूर्ण था। और
जब भी कोई अंश
को पूर्ण के
संबंध में
कहता है, तो
असत्य हो जाता
है।
इसलिए
मन परमात्मा
के संबंध में
जो भी कहेगा, वह असत्य
होगा।
ध्यान
रहे, वे
लोग जो कहते
हैं, ईश्वर
है-मन से, उतने
ही असत्य
होंगे, जितने
वे लोग जो
कहते हैं, ईश्वर
नहीं है-मन
से। मन अंश को
ही जानता है, और मन की
इच्छा होती है
कि पूर्ण को
कह दे कि यही
है।
ये
पांचों अंधे
अगर एक-दूसरे
की बात सुनकर
चुप रह जाते-पर
नहीं, संभव
नहीं था कि
चुप रह जाते!
क्योंकि
अंधों में कलह
अनिवार्य हो
गई। क्योंकि
जब एक अंधे ने
कहा कि हाथी
खंभों की तरह
है, और
दूसरे अंधे ने
कहा कि हाथी
सूप की तरह है,
और तीसरे ने
कुछ और चौथे
ने कुछ कहा, तो उन सबने
कहा कि ये सभी
सही तो नहीं
हो सकते। और
मेरा अनुभव
सही है, तो
निश्चित ही
दूसरे लोग गलत
हैं।
इसलिए
फिलासफीज
लड़ती रहती हैं, संघर्ष
चलता रहता है।
पांच हजार साल
में मनुष्य ने
बहुत तरह के
दर्शनशास्त्रों
को जन्म दिया,
वे सब
एक-दूसरे से
कलह करते रहते
हैं। वे कहते
हैं कि तुम
गलत हो, हम
सही हैं। और
जब वे कहते
हैं, हम
सही हैं, तो
निश्चित ही
कारण हैं, उनकी
प्रतीति है।
वह जो
आदमी कह रहा
है कि हाथी
खंभे की तरह
है, वह
गलत नहीं कह
रहा है। और
चूंकि उसे
हाथी खंभे की
तरह मालूम
पड़ता है, वह
कैसे मान ले
कि हाथी सूप
की तरह भी है? ये दोनों
बातें एक साथ
सही कैसे हो
सकती हैं?
लेकिन
जिनके पास आंख
है, वे
जानते हैं, ये दोनों
बातें एक साथ
सही हैं। हाथी
सूप भी है, हाथी
खंभा भी है, हाथी और
बहुत कुछ भी
है। और जितने
अंधे आते चले
जाएं, हाथी
उतने ही रूप
लेता चला
जाएगा।
मन जो
भी देखता है, वह सही है,
लेकिन
आशिक-स्व बात।
और इसलिए मन
के अनुभव को कभी
पूर्ण पर मत
फैलाना, अन्यथा
वही फाँसी, बन जाती है।
और मन के
अनुभव पर कभी
मत कहना दूसरे
को गलत, क्योंकि
दूसरे का मन
जो जानता है, वह भी सही हो
सकता है।
धर्मों
में विवाद
नहीं है, हो नहीं
सकता, सब
विवाद दर्शनों
का है। और
प्रत्येक
धर्म जन्मता
तो उनके बीच
है, जो
पंडित नहीं
होते, लेकिन
हाथ उनके पड़
जाता है अंततः,
जो पंडित
होते हैं। यह
दुर्भाग्य है,
लेकिन यह भी
नियम है।
जब
पूगई धर्म का
जन्म होता है, तो वह उस
आदमी में होता
है, जिसका
मन खो गया
होता एं, तब
वह पूर्ण को
जानता है।
लेकिन जब लोग
उससे समझते
हैं, तो वे
मन से ही
समझेंगे, कोई
और उपाय नहीं
है। अगर मैं
कोई ऐसी बात
आपसे कहूं जो
मैंने मन के
पार जानी हो, तो आपसे जब
कहूंगा और आप
जब सुनेंगे, तो आप मन से
ही सुनेंगे।
और मन से
सुनकर अगर आपने
उसे मान लिया
या न माना, आपने
कोई भी नतीजा
लिया, तो
वह नतीजा आशिक
होगा। और उस
नतीजे पर ही
कल मेरी बात
के आधार पर
कोई निर्माण
हो सकता है, कोई शास्त्र
बन सकता है, कोई धर्म बन
सकता है। वह
धर्म अधूरा
होगा और झूठा
हो जाएगा।
धर्म
जब जन्मते हैं, तो पूर्ण
होते
हैं-महावीर
में, कृष्ण
में, या
बुद्ध में, या मोहम्मद
में। और जब
चलते हैं, तो
अपूर्ण हो
जाते हैं।
चलते हैं मन
के सहारे; अधूरे
हो जाते हैं।
और अधूरे होते
ही दूसरे अधूरे
वक्तव्यों से
संघर्ष शुरू
हो जाता है।
मोहम्मद का और
महावीर का कोई
संघर्ष नहीं
है। बुद्ध का
और कृष्ण का
कोई संघर्ष
नहीं है।
लेकिन हिंदू
और मुसलमान का
है, जैन और
बौद्ध का है।
होगा ही।
जहां
मन मिट गया है, वहा सभी
वक्तव्यों के
भीतर जो छिपा
है, वह
दिखाई पड़ जाता
है। और जहां
मन है, वहा
एक वक्तव्य
सही और शेष
गलत मालूम
पड़ते हैं। यह
मन की पहली
अड़चन है कि मन
बांटकर देखता
है।
दूसरी
अड़चन, जो
इससे भी कठिन
है, और वह
यह है कि मन
विरोध में
बांटकर देखता
है। मन जब भी
दो चीजों को
तोड़ता है, तो
दोनों के बीच
विरोध देखता
है। जैसे जीवन
है। अगर जीवन
को मन देखेगा,
तो उसे जीवन
में दो हिस्से
दिखाई पड़ेंगे,
जन्म और
मृत्यु। और मन
कैसे माने कि
जन्म और मृत्यु
एक ही हैं? बिलकुल
उलटे हैं। एक
कैसे हो सकते
हैं? कहां
जन्म और कहां
मृत्यु? जीवन
को बांटेगा मन,
तो दो
हिस्से दिखाई
पड़ेंगे, जन्म
का और मृत्यु
का। और दोनों
उलटे मालूम पड़ेंगे,
कट्राडिक्टरी;
एक-दूसरे के
विरोध में। जब
भी मन बांटेगा,
तो विरोध
में बांटेगा ,-और जीवन
अविरोधी है, नान-कंट्राडिक्टरी
है। जीवन में
कोई तकलीफ ही
नहीं है। जन्म
और मृत्यु, जीवन में एक
ही चीज के दो
नाम हैं, एक
ही चीज का
विस्तार है।
जो जन्म की
तरह शुरू होता
है, वही
मृत्यु की।
तरह पूर्ण
होता है। अगर
जन्म प्रारंभ
है जीवन का, तो मृत्यु
उसकी पूर्णता
है।
जन्म
और मृत्यु में
अगर मन को हम
बीच में न लाएं, तो कोई भी
विरोध नहीं
है। लेकिन मन
को हम बीच में
कैसे न लाएं!
हमारे पास और
कोई उपाय नहीं
है। मन ही
हमारे पास
उपाय है जानने
के लिए। जैसे ही
मन को हम लाते
हैं, मन
जीवन को दो
हिस्सों में
तोड़ देता है, एक हिस्सा
जन्म हो जाता
है, एक
हिस्सा
मृत्यु हो
जाती है। यह
मन सभी जगह चीजों
को दो में तोड़
देता है। यह
कहता है, यह
आदमी अच्छा है,
वह आदमी
बुरा है।
सच्चाई
बिलकुल उलटी
है; अच्छाई
और बुराई एक
ही चीज का
विस्तार है।
तो जब हम कहते
हैं, यह
आदमी अच्छा है
और वह आदमी
बुरा है; या
हम कहते हैं, यह बात
अच्छी है और
वह बात बुरी
है, तब
हमने तोड़
दिया।
बड़ी
अड़चन होगी यह
मानने में कि
अच्छाई और
बुराई एक ही
चीज का
विस्तार है।
यह मानने में
बड़ी कठिनाई
होगी कि साधु
और असाधु एक
ही चीज के दो छोर
हैं। यह मानने
में बड़ी
कठिनाई होगी
कि राम और रावण
दुश्मन हैं
हमारे मन के
कारण, अन्यथा
अस्तित्व में
एक ही लीला के
दो छोर हैं।
इसे
ऐसा समझें, क्या
रामायण संभव
है रावण के
बिना? अगर
संभव हो, तो
रावण को विदा
करके सोचने की
कोशिश करें।
रावण को हटा
दें राम की
कथा से। और तब
आप पाएंगे कि
राम के भी
प्राण निकल गए!
राम के प्राण
भी रावण से
जुड़े हैं। इधर
रावण प्तीरेगा,
तो राम भी
गिर जाएंगे।
राम भी रावण
के बिना खड़े
नहीं। रह
सकते।
और अगर
इतना गहरा जोड़
है, तो
विपरीत कहना
नासमझी है।
अगर इतना गहरा
जोड़ है कि राम
का अस्तित्व
नहीं हो सकता।
रावण के बिना,
न रावण का
अस्तित्व हो
सकता है राम
के बिना, तो
दोनों को
दुश्मन देखना
हमारे मन की
भूल है। एक
खेल के दोनों '
ही हिस्से
हैं; जिसमें
दोनों
अनिवार्य हैं;
जिनमें एक
भी छोड़ा नहीं
जा सकता।
लेकिन
मन तो तोड़कर
ही देखेगा। मन
कैसे मान सकता
है कि राम और
रावण एक हैं!
कभी भी नहीं
मान सकता। मन
कहेगा, कैसी बात कर
रहे हो? कहां
राम, कहां
रावण! विपरीत
हैं; तभी
तो इतना
संघर्ष है
दोनों में, तभी तो
युद्ध है। तब
फिर ऐसा देखें;
एक को हटा
दें।
अगर सच
में रावण राम
के दुश्मन हैं, तो रावण
अगर न रहे, तो
राम और भी
खिलकर प्रकट
होना चाहिए।
अगर रावण सच
में ही राम का
दुश्मन है, तो रावण के
हटते ही राम
की प्रतिभा और
खिल जानी
चाहिए। अगर
रावण विरोध
में है, तो
रावण के हटते
ही राम के फूल
की सब
पंखुड़ियां
पूरी खिल जानी
चाहिए।
क्योंकि
विरोधी रोक रहा
था खिलावट को,
विरोधी
दुश्मन था, अड़चन डाल
रहा था, अड़चन
हट गई, अब
राम को पूरा
खिलना चाहिए।
लेकिन
राम को खिलना
तो बहुत दूर, रावण को
अगर बिलकुल
हटा दें, तो
राम का आपको
पता ही नहीं
चलेगा कि वह
कभी हुए हैं!
उनका पता ही
नहीं चलेगा।
और यह बात
दोनों तरफ लाग
है। राम के
बिना रावण को
भी होने का कोई
उपाय नहीं है।
अगर यह ऐसा है,
तो फिर
हमारे देखने
में कहीं भूल
है। वह जो हम
शत्रुता देखते
हैं, वह
हमारी भूल है।
कहना चाहिए, एक ही चीज के
दो छोर हैं।
और एक भी छोर
दूसरे के बिना
नहीं हो सकता।
अनिवार्य छोर!
तो जब भी राम
होंगे, तब
रावण होगा। और
जब भी रावण
होगा, तब
राम होंगे। यह
युद्ध नहीं है,
यह युद्ध हमारे
मन की प्रिज्म
में से गुजरकर
दिखाई पड़ता
है। जब मन को
कोई हटा देगा,
तो पता
चलेगा, एक
ही ऊर्जा, एक
ही शक्ति
दोनों तरफ है।
उस शक्ति के
बहाव के लिए
दोनों उतने ही
जरूरी हैं।
ऐसा
समझें कि गंगा
बहती है दो
किनारों के
बीच। और हम
मान ले सकते
हैं कि दोनों
किनारे अलग
हैं। एक
किनारे को हटा
दें और फिर
गंगा को बहाकर
देखें, तब पता
चलेगा कि वे
दोनों किनारे
अलग न थे। और हमें
ऐसा भी लग
सकता है कि एक
किनारे से
दूसरे किनारे
की
प्रतिद्वंद्विता
है, कापिटीशन
है, और एक
किनारा दूसरे
से मुठभेड़ ले
रहा है। और हमें
ऐसा भी लग
सकता है कि एक
किनारा गंगा
को अपनी तरफ
खींचने की कोशिश
में लगा है।
लेकिन ध्यान
रहे, गंगा
उन दोनों
किनारों के
बीच ही चलती
है। वे दोनों
किनारे गंगा
के ही दो छोर
हैं। और एक को भी
हटाकर दूसरा
नहीं बचेगा!
कठिन
होगी यह बात; और हमारी
बुद्धि को अति
कठिन पड़ेगी, क्योंकि हमें
सदा तोड़कर
देखने में
आसानी हो जाती
है। राम को
अच्छा बना
लेते हैं, रावण
को बुरा बना
देते हैं; गणित
साफ हो जाता
है। रावण
छोड़ने जैसा है,
राम पूजने
जैसे हैं।
रावण बुरा है,
राम अच्छे
हैं। बंटाव
सीधा हो गया, गणित साफ हो
गया।
जिंदगी
हमारे गणित को
नहीं मानती।
जिंदगी हमारे
गणित के सब
हिसाब को
अस्तव्यस्त कर
देती है। राम
इसको
भलीभांति
जानते हैं।
राम को यह
भलीभांति पता
है। इसलिए
संघर्ष गहरा
है, लेकिन
द्वेष कहीं भी
नहीं है।
युद्ध प्रगाढ़
है, लेकिन
खेल से ज्यादा
महत्ता नहीं
है। राम को भलीभांति
पता है कि वह
जो दूसरा छोर है,
वह अलग नहीं
है। इसलिए
लक्ष्मण को
भेज देते हैं
रावण के पास
ज्ञान जानने
के लिए।
राम को
भी पता है कि
मेरा भी जो
अनुभव है, वह एक छोर
का है, रावण
का भी जो
अनुभव है, वह
दूसरे छोर का
है। और ज्ञान
पूरा लक्ष्मण
का तभी होगा, जब वह दोनों
छोरों को
संयुक्त रूप
से जान ले।
राम को तो
उसने जाना है,
उसे रावण के
पास भेजते हैं
अंत में कि तू
उससे भी
शिक्षा ले ले,
वह
महापंडित है,
वह
महाज्ञानी है,
उसका भी
अपना अनुभव है,
उसकी भी
अपनी यात्रा
है, उसने
भी कुछ जाना
है दूसरे
किनारे से, जो कि अनूठा
होगा और तू
अधूरा रह
जाएगा। तू राम
को ही मत जान, रावण को भी
जान ले। और
दोनों को
जानकर तू ज्यादा
पूर्ण होगा; अनुभव
ज्यादा
समृद्ध, ज्यादा
सघन होगा।
और
विपरीत जहां
मिल जाते हैं, वहां
अनुभव पूर्ण
हो जाता है।
लेकिन हमारा
मन? हमारा
मन ऐसा है कि
राम की पूजा
करेंगे और रावण
को आग
लगाएंगे। यह
हमारा मन है!
मन हमारा ऐसा
है कि हम एक को
पूजेंगे, दूसरे
की निंदा
करेंगे, एक
को मित्र
मानेंगे, दूसरे
को शत्रु
मानेंगे।
(किसी
ने बीच से
उठकर मन की
परिभाषा
पूछी।)
पूछ
रहे हैं एक
मित्र कि मन
की परिभाषा
क्या है? तो मन की
थोड़ी परिभाषा
समझें। अब
देखें, जो
मैं कह रहा था,
पूछते हैं,
मन की
परिभाषा कैसे
है?
लेकिन
आप उनकी तरफ
मत देखें! आप
ऐसे देख रहे
हैं, जैसे
उन्होंने बड़ी
शत्रुता से
पूछा है; वहीं
भूल हो जाती
है। आवाज जरा
जोर की है, लेकिन
मित्र की है, ऐसा क्या
परेशान होना!
उनकी तरफ मत
देखें।
मन की
परिभाषा; मन का अर्थ
होता है, मनन,
विचार, चिंतन;
जो दिखाई
पड़े, उसके
साथ चिंतन की
धारा को
जोड़ना। समझें;
एक फूल मुझे
दिखाई पड़ता
है। जहां तक
दिखाई पड़ता है,
वहां तक मन
नहीं आता; लेकिन
जैसे ही मैं
कहता हूं
सुंदर है, मन
आ गया; जैसे
ही मैं कहता
हूं सुंदर
नहीं है, मन
आ गया; जैसे
ही मैं कहता हूं
बहुत प्यारा
है, मन आ
गया, जैसे
ही मैं कहता हूं, बेकार
है, मन आ गया। जब
तक दर्शन है, तब तक मन
नहीं है। जैसे
ही दर्शन के
साथ शब्द और
विचार जुड़ते
हैं, मन की
गति शुरू हो
गई। मन का
अर्थ है, विचार
को, शब्द
को पैदा करने
वाला यंत्र।
मन का
अर्थ है, विचार को जन्म
देने वाला
स्रोत। फूल को
अगर मैं देखता
रहूं और सोचूं
न, तो मेरी
आत्मा और फूल
के बीच मिलन
होगा। अगर
सोचूं तो मेरी
आत्मा और फूल
के बीच में एक
नई विचारों की
श्रृंखला खड़ी
हो जाएगी, शब्दों
का एक जाल खड़ा
हो जाएगा। तब
मैं फूल को न
देख पाऊंगा
सीधा, तब
इन शब्दों के
पार से, इन
शब्दों के
भीतर से फूल
को देखूंगा।
तब फूल के
संबंध में जो
भी निर्णय मैं
लूंगा, वह
फूल के संबंध
में नहीं, मेरे
मन के संबंध
में है।
क्योंकि अगर
मैं बचपन से
ऐसे घर में
बडा हुआ हूं, जहां गुलाब
को सुंदर समझा
जाता है, अगर
मुझे बचपन से
सिखाया गया है
कि गुलाब
सुंदर है, तो
मेरे मन में
विचारों की एक
श्रृंखला है
गुलाब के
संबंध में, सौंदर्य की।
अब अगर गुलाब
का फूल मैंने
देखा और मेरे
मन की धारा
खड़ी हुई, मेरे
विचार खड़े हुए,
और
उन्होंने कहा,
फूल सुंदर
है, तो यह
मेरी प्रतीति
न हुई, यह
मेरे मन का
वक्तव्य हुआ। और
मन का वक्तव्य
शब्दों का
वक्तव्य है।
निःशब्द जब
कोई होता है, तो मन खो
जाता है।
इसका
अर्थ यह हुआ
कि शब्दों की
हमारे भीतर जो
प्रक्रिया है, दि वेरी
प्रोसेस आफ
लैंग्वेज इज
माइंड। हमारे
शब्दों की जो
प्रक्रिया है,
हमारे
शब्दों का जो
संग्रह है, हमारे
शब्दों का जो
जाल है, वह
हमारा मन है।
मन हमारे
समस्त शब्द, हमारी समस्त
भाषा, हमारे
समस्त सोचने
की क्षमता का
इकट्ठा जोड़ है।
आदमी
गैर-मन की
हालत में दो
तरह से हो
सकता है। बेहोश
पड़ा हो, तो भी गैर-मन
की हालत में
हो जाता है।
यह मन से नीचे
की अवस्था है।
आदमी समाधि
में हो, तो
भी मन के बाहर
हो जाता है।
यह मन से ऊपर
की अवस्था है।
इसलिए
ऋषियों ने कहा
है कि प्रगाढ़
निद्रा में भी
आदमी समाधि
जैसी अवस्था
में पहुंच
जाता है। एक
ही लक्षण समान
है, मन
नहीं होता।
प्रगाढ़
निद्रा में भी
मन नहीं होता,
क्योंकि
विचार खो जाता
है। लेकिन
विचार तो खो
जाता है, होश
भी खो जाता
है। समाधि में
भी प्रगाढ़
निद्रा की
घटना घटती है,
मन खो जाता
है; लेकिन
होश पूरा होता
है।
मन
हमारे चिंतन
का यंत्र है।
और इसलिए
जितना ही
ज्यादा हम इस
चिंतन के
यंत्र का
उपयोग करके जगत
को देखते हैं, उतना ही
जगत बंट जाता
है। इस बंटाव
में कई कारण
हैं। हमारी
भाषा चीजों को
तोडकर देखती
है, क्योंकि
मन से निर्मित
है। और मन भी
चीजों को तोड़कर
देखता है, क्योंकि
भाषा के पार
मन का कोई
अस्तित्व
नहीं है। यही
मैं कह रहा था
कि हम जहां भी
कुछ देखते हैं,
वहा तत्काल
विपरीत का
अनुभव शुरू हो
जाता है। अगर
हम सौंदर्य
देखते हैं, तो कुरूप का
बोध तत्काल
शुरू हो जाता
है। क्या आप
ऐसा कर सकते
हैं कि किसी
चीज को सुंदर
कहें बिना
किसी चीज को
असुंदर कहे?
बुद्ध
मे महाकाश्यप
ने पूछा है।
महाकाश्यप एक
दिन सुबह
बुद्ध के पास
पहुंचा है, उनका एक
प्रमुख शिष्य
है। सूरज उग
रहा है, पक्षी
गीत गा रहे
हैं और
महाकाश्यप
बुद्ध से पूछता
है कि यह जो
चारों तरफ
फैला है, क्या
यह सुंदर नहीं
है?
बुद्ध
चुप रह जाते
हैं।
महाकाश्यप की
तरफ देखते हैं, मुस्कुराते
हैं, लेकिन
बोलते नहीं।
महाकाश्यप
फिर पूछता है
कि क्या मेरे
प्रश्न में
कोई असंगति है?
आप उत्तर
क्यों नहीं
देते हैं?
बुद्ध
फिर चारों तरफ
देखते हैं, फिर
महाकाश्यप की
तरफ देखते हैं,
मुस्कुराते
हैं और चुप रह
जाते हैं।
महाकाश्यप
तीसरी बार
पूछता है कि
इतना ही कह
दें कि आप जवाब
न देंगे।
बुद्ध
फिर चारों तरफ
देखते हैं और
चुप रह जाते
हैं।
महाकाश्यप से
वे तब कहते
हैं कि तू जो
पूछ रहा है, उससे तू
मुझे बड़ी
मुश्किल में
डाल रहा है।
मुश्किल में
इसलिए डाल रहा
है कि अगर मैं
कहूं, यह
सब सुंदर है, तो मैं
किसको कुरूप
कहूं? क्योंकि
जब भी सुंदर
का उपयोग करें,
तो कुरूप की
धारणा
सुनिश्चित हो
जाती है।
और
बुद्ध ने कहा
कि अब मुझे न
कुछ कुरूप रहा
है और न कुछ
सुंदर रहा है, जो जैसा
है, वैसा
ही रह गया है।
यह मन के बाहर
से देखा गया जगत
है। कांटा कांटा
है, फूल
फूल है, गुलाब
गुलाब है, चंपा
चंपा है। न
कुछ सुंदर है,
न कुछ कुरूप
है। जो जैसा
है, वैसा
है।
बुद्ध
ने कहा, जो जैसा है, वह मुझे
दिखाई पड़ता
है। यह सुंदर
है या कुरूप, यह मैं कैसे
कहूं? क्योंकि
जिस मन से मैं
बांटता था, वह खो गया
है। मन जो
मेरे पास था, जिससे मैं
तौलता था, वह
खो गया है।
समझें, एक तराजू
है हमारे पास;
उससे हम तौल
लेते हैं, कौन-सी
चीज वजनी है, कौन-सी चीज
गैर-वजनी है।
तराजू खो गया।
फिर कोई मुझसे
पूछता है कि
यह ज्यादा
वजनी है या कम
वजनी है? मैं
अपने हाथ पर
रखकर थोड़ा
अंदाज कर सकता
हूं; हाथ
से तराजू का
काम ले सकता
हूं। यद्यपि
उतना
सुनिश्चित तो नहीं
होगा, तोला-तोला,
रत्ती-रत्ती
नहीं बता
सकूंगा; लेकिन
फिर भी कह
सकता हूं कि
यह सेरभर है, यह तीन पाव
है! साफ तो
नहीं होगा
उतना।
लेकिन
मेरा हाथ भी
टूट गया, अब मेरे पास
कोई भी उपाय
नहीं है, जिससे
मैं इसे नाप
लूं। तो अब
मैं आंख से ही
देखकर अंदाज
लगाऊंगा कि यह
थोड़ा ज्यादा
मालूम पड़ता है,
यह थोड़ा कम
मालूम पड़ता
है। मात्रा
देखकर कहूंगा।
भूल अब ज्यादा
होगी। लेकिन
मेरी आंख भी
चली गईं। अब
मेरे पास कोई
भी उपाय नहीं
है कि मैं
कहूं कि कौन
ज्यादा है, कौन कम है!
हाथ नहीं, तराजू
नहीं, आंख
नहीं। अब तो
मैं यही
कहूंगा कि यह
यह है और वह वह
है। लेकिन
मेरे पास वह
तौलने का
यंत्र नहीं है,
जिससे मैं
तौल लेता,' बांट
लेता, कौन
कम है, कौन
ज्यादा है।
बुद्ध
ने कहा, जो है, वह
है। सूरज उग
रहा है। फूल
खिल रहे हैं।
पक्षी गीत गा
रहे हैं। और
मैं यहां बैठा
सुन रहा हूं।
लेकिन वह जो
कह सकता था
सुंदर और
असुंदर, वह
मौजूद नहीं
है। वह खो गया
है।
ध्यान
का अर्थ है, मन का खो
जाना। ध्यान
का अर्थ है, भाषा का, शब्द
का, विचार
का भीतर से
तिरोहित हो
जाना।
इसका
यह अर्थ भी
नहीं है कि जो
ध्यान में
प्रवेश करेगा, वह बोल न
सकेगा। इसका
यह भी अर्थ
नहीं है कि जो ध्यान
में प्रवेश
करेगा, वह
शब्द का उपयोग
न कर सकेगा।
सच तो यह है कि
वही उपयोग कर
सकेगा। लेकिन
तब उपयोग
उपयोग होगा; वह मालिक
होगा। बुद्ध
भी बोल रहे
हैं; वे कह
रहे हैं कि
मेरा मन खो
गया। शब्द का
उपयोग हो रहा
है, भाषा
का उपयोग हो
रहा है, लेकिन
बस उपयोग की
तरह। जैसे
आदमी जब चलता
है, तो पैर
का उपयोग करता
है? जब बैठ
जाता है, तो
पैर का उपयोग
बंद कर देता
है।
लेकिन
आपका मन पागल
है; आप
नहीं भी काम
लेना चाहते
हैं उससे, वह
काम करता ही
चला जाता है।
आप कहते हैं, चुप हो जाओ, वह चुप होता
ही नहीं! आप
कहते हैं, बंद
करो, मुझे
सोना है, और
वह बंद नहीं
होत। और आप
कहते हैं, ठहर
जाओ, यह
बात मुझे
सोचनी ही नहीं
है, और वह
सोचे चला जाता
है। और आप
बिलकुल बेबस
हैं।
यह
आपकी विवशता, यह आपकी
बेचैनी, यह
आपकी
मजबूरी-आपकी
आत्मा की
मालकियत खो गई
है और मन आपका
मालिक है। यह
मालकियत मिटे,
मन नीचे
उतरे, आप मालिक
हो जाएं, तो
आप जगत को
दूसरे ढंग से
देखना शुरू
करेंगे। यह
मैंने क्यों
कहा? यह
मैंने इसलिए
कहा कि कृष्ण
का यह जो
सूत्र है, यह
आपकी तभी समझ
में आ सकेगा, जब आप मन और
गैर-मन, दो
ढंग से जगत को
देखने की
व्यवस्था को
समझने में
समर्थ हो
जाएं।
कृष्ण
कहते हैं, मैं ही
सूर्यरूप हुआ
तपता हूं और
मैं ही वर्षा
को भी आकर्षित
करता हूं। मैं
ही बरसात। हूं
मैं ही वर्षा
हूं।
इसे हम
ऐसा समझें, आग को और
जल को हम सदा
विपरीत देखते
हैं। अगर आग
लगी हो, तो
हम पानी से
उसे बुझा देते
हैं। और अगर
हम पानी में
आग लगाना
चाहें, तो
कोई उपाय नहीं
है। आग और
पानी हमारे
लिए विपरीत
हैं। आग की
पानी से क्या
मैत्री? पानी
दुश्मन है।
पर
कृष्ण कहते
हैं, मैं
ही हूं आग और
मैं ही हूं जल;
मैं ही
भभकता हूं मैं
ही बुझाता हूं;
मैं ही हूं
सूर्य, जो
तपता है, और
मैं ही हूं वह
वर्षा, जो
आकर्षित होती
है सूर्य से।
अगर हम
मन का हिसाब
छोड़ दें और
जरा अस्तित्व
को देखें, तो पता
चलेगा, सूर्य
ही तो खींचता
है सागर से
पानी को, सूर्य
ही तो बनाता
है बादलों को,
सूर्य ही तो
बरसाता है। तो
आग और पानी
में जो वैमनस्य
हमें दिखाई
पड़ता है, वह
कहीं न कहीं
हमारे मन के
कारण ही होगा!
वह वैमनस्य
राम और रावण
जैसा ही है।
सूर्य के बिना
पानी नहीं हो
सकेगा। पानी
के बिना सूर्य
नहीं हौ
सकेगा। वे
कहीं बहुत
गहरे में संयुक्त
और इकट्ठे
हैं।
उनके
संयुक्त होने
की खबर वे
देते हैं और
कहते हैं, हे
अर्जुन, मैं
ही अमृत हूं
और मैं ही
मृत्यु।
दुनिया
में ईश्वर के
संबंध में जिन
लोगों ने भी
सोचा है, उनमें सिर्फ
हिंदू दृष्टि
ईश्वर के साथ
मृत्यु को भी
जोड़ती है, बाकी
कोई भी नहीं
जोड़ता है।
पृथ्वी पर
जितनी चिंतनाए
हैं, वे
सभी कहती हैं
कि ईश्वर जीवन
है, लेकिन
कोई भी यह
कहने की
हिम्मत नहीं
करता कि ईश्वर
मृत्यु भी है।
उसका कारण है।
वह जो हमारे
मन का विभाजन
है, उसमें
हम कैसे दोनों
कहें? कैसे?
ईश्वर दोनों
कैसे हो सकता
है?
लेकिन
ईश्वर दोनों
है; क्योंकि
जीवन दोनों
है। हमारे
तर्क में न आए,
तो हमें
तर्क छोड्कर
देखना चाहिए।
लेकिन हमारे
तर्क के पीछे
जीवन चलने को
आबद्ध नहीं
है। अगर हम
पूछें किसी और
से, तो वह
कहेगा, ईश्वर
जीवन है।
लेकिन ईश्वर
मृत्यु है, यह कहने में
घबड़ाहट होगी
उसे। क्योंकि
मृत्यु को हम सोचते
हैं, वह जीवन
के विपरीत है।
और जीवन को हम
अच्छा और मृत्यु
को बुरा समझते
हैं।
इसलिए
मित्र के लिए
हम जीवन की
प्रार्थना
करते हैं, और शत्रु
के लिए मृत्यु
की प्रार्थना
करते हैं।
चाहते हैं
मित्र जीए, और चाहते
हैं शत्रु मर
जाए। लेकिन
हमें पता नहीं;
मर तो वही
सकता है, जो
जीएगा। और
हमें यह भी
पता नहीं कि
जो जीएगा, उसे
मरना ही
पड़ेगा। तो जब
हम किसी की
मृत्यु की
प्रार्थना
करते हैं, तब
हम उसके जीवन
की भी
प्रार्थना कर
रहे हैं। और
जब हम किसी के
जीवन के लिए
शुभकामना
करते हैं, तब
हम मृत्यु की
भी शुभकामना
कर रहे हैं।
क्योंकि जीवन
बिना मृत्यु
के हो नहीं
सकता है, वे
एक ही चीज के
दो छोर हैं।
जीवन
और मृत्यु बड़े
विपरीत छोर
हैं। हम सबको
ऐसा अब तक
लगता रहा होगा
कि जीवन को जो
समाप्त करती
है, वह
मृत्यु है।
लेकिन वह
दृष्टि गलत
है। जीवन को
जो पूर्ण करती
है, वह
मृत्यु है।
जीवन मृत्यु
में जाकर अपने
चरम शिखर को
छूता है।
इसलिए
भारत ने जवानी
को बहुत मूल्य
नहीं दिया, वार्धक्य
को मूल्य
दिया। पश्चिम
जवानी को मूल्य
देता है, वृद्ध
को कोई मूल्य
नहीं देता।
वृद्ध होना अवमूल्यित
हो जाना है, डिवेल्युएशन
हो जाता है।
आदमी का हुआ
पश्चिम में कि
डिवेल्युएशन
हुआ, उसका
अवमूल्यन हो
गया। उसका जो
भी मूल्य था
जगत से, वह
खो गया।
क्यों? क्योंकि
अगर जीवन और
मृत्यु
विपरीत हैं, तो फिर जवान
ही जीवन के
शिखर को छूता
है; का तो
मौत की तरफ
जाने लगा। इसे
ऐसा समझें, अगर मृत्यु
बुरी है, तो
का अच्छा कैसे
हो सकता है? क्योंकि के
का मतलब है, जो मृत्यु
में जाने लगा।
वह मृत्यु का
पथिक है; मृत्यु
उसके करीब आने
लगी। के का
मतलब है, जिससे
मृत्यु प्रकट
होने लगी। तो
फिर जवान शिखर
है जीवन का।
अगर मृत्यु
जीवन के
विपरीत है, तो जवानी
जीवन होगी। फिर
जवानी का
मूल्य होगा, बूढ़े का
अवमूल्यन हो
जाएगा
पश्चिम
ने मृत्यु को
जीवन की
समाप्ति समझा
है, इसलिए
बूढ़ा अनादृत
हो गया। इस
भाव के साथ
बूढ़े का कोई
आदर नहीं हो
सकता। पूरब ने
मृत्यु को जीवन
की पूर्णता
समझा है, इसलिए
बूढ़ा आदृत
हुआ। क्योंकि
वही चरम शिखर
है जीवन का, जवान नहीं, वृद्ध ही
चरम शिखर है
जीवन का। और
मृत्यु का क्षण
सिर्फ अज्ञान
के कारण अवसाद
का क्षण है, अगर समझ हो, तो उत्सव का
क्षण भी हो
सकता है।
च्चांगत्से
की पत्नी मर
गई है, सम्राट
उसे दुख प्रकट
करने आया है, और
च्चांगत्से
खंजड़ी बजाकर
वृक्ष के नीचे
बैठा गीत गा
रहा है।
सम्राट थोड़ा
बेचैन हुआ। यह
च्चांगत्से
बड़ा फकीर था, तभी तो
सम्राट खुद
आया था चलकर
कि उसकी पत्नी
मर गई है तो
उसे जाकर दो
शब्द संवेदना
के कह आए।
लेकिन यहां
संवेदना का
कोई उपाय ही न
था! यह आदमी
खंजड़ी बजाकर
गीत गा रहा था!
संवेदना
प्रकट करनी तो
दूर रही.।
सम्राट
तय करके आया
था, जैसा
कि सभी लोग तय
करके जाते हैं,
जब कोई मर
जाता है, कि
क्या कहना!
कैसे शुरू
करना! कठिन
मामला भी है।
किसी के घर
कोई मर गया, कहा से शुरू
करो! क्या कहो!
भाषा मुश्किल
में पड़ती है, साहस जवाब
देता है।
सब तय
करके आया था, यह-यह
कहूंगा, ऐसे-ऐसे
बात शुरू
करूंगा, किसी
तरह निपटाकर
निकल आऊंगा।
लेकिन यहां और
मुश्किल बढ़ गई,
क्योंकि
च्चांगत्से
खंजड़ी पीट रहा
है। सम्राट
बिलकुल उदास
होकर आया था, तैयार होकर
आया था।
स्वभावत:, दूसरे का
जीवन हमें जब
प्रफुल्लित
नहीं करता, तो दूसरे की
मृत्यु हमें
दुखी क्यों
करेगी! और अगर
दूसरे का जीवन
हमें प्रफुल्लित
ही कर पाए, तो
हम उस स्थिति
को जान लेंगे,
जहां फिर
मृत्यु भी
दुखी नहीं कर
पाती।
सम्राट
आया था उदास
बाना पहनकर।
देखा, तो
रहा नहीं गया।
उसने
च्चांगत्से
से कहा कि महानुभाव!
दुख न मनाए, इतना ही
काफी है।
लेकिन खंजड़ी
बजाए और गीत
गाएं, यह
जरा ज्यादा हो
गया! दुख न
मनाए, चलेगा,
ठीक है।
लेकिन यह जरा
ज्यादा हो
गया!
च्चांगत्से
ने कहा, क्या कहते
हैं! जिसके
साथ मैंने
जीवन के परम आनंद
जाने, और
जिसके साथ
जीवन की लंबी
यात्रा पूरी
की, क्या
उसके पूर्ण
होने के क्षण
में मैं गीत गाकर
विदा भी न दे
सकूं! मगर यह
कुछ और ढंग है
देखने का। यह
मन से देखी गई
बात नहीं है।
अगर मन से
देखी गई हो, तो मृत्यु
दुख का कारण
है, जन्म
खुशी का कारण
है। यह मन के
कहीं पार से
देखी गई बात
है, जहां
जन्म और
मृत्यु
विपरीत नहीं
रह जाते, जहां
दोनों ही एक
ही जीवन की
धारा के अंग
हो जाते हैं।
और जहां जीवन
मृत्यु और
जन्म के बीच
की धारा बन
जाता है, दोनों
किनारे उसी के
हो जाते हैं।
तो
च्चांगत्से
कहता है कि
उसकी
महापूर्णता के
क्षण में मैं
उसे गीत गाकर
विदा न दे सकुं
तो मुझसे
ज्यादा
अकृतज्ञ कौन
होगा?
सम्राट
की समझ में नहीं
पड़ा होगा।
आपकी भी समझ
में पड़ना मुश्किल
पड़ेगा। लेकिन
जिनकी समझ में
पड़ जाए, वे ही केवल
समझदार हो
पाते हैं।
प्रयोजन
इतना ही है कि
जिसे हम
विपरीत कहते
हैं, वह
विपरीत नहीं
है। विपरीत
हमारी
भ्रांति है।
और जहां-जहां
विरोध दिखे, वहा-वहा
खोजेंगे, तो
नीचे एकता की
धारा मिल
जाएगी। कांटा
है, गुलाब
है। फूल खिला
है, कांटा
लगा है। आप
फूल तोड्ने
जाते हैं, कांटा
हाथ में छिद
जाता है, लहू
की धार फूट
पड़ती है।
स्वभावत:, आपको
लगेगा कि फूल
और कांटा
दुश्मन हैं।
कहां फूल, कहां
कांटा! गए थे
फूल तोड्ने, लग गया कांटा!
अगर आप
किसी को कांटा
भेंट करने
जाएं, तो
वह भी चौंकेगा
कि आपका दिमाग
तो खराब नहीं हो
गया है! भेंट
तो फूल किए
जाते हैं। कभी
देखें, गुलाब
के काटे तोड़कर
किसी को भेंट
करने चले जाएं।
फिर दुबारा वह
आपको दिखाई भी
नहीं पड़ेगा। आपसे
बचकर निकलने
लगेगा। जिस
रास्ते आप
गुजरते हैं, उस रास्ते
नहीं
गुजरेगा।
लेकिन
फूल और काटे
क्या दुश्मन
हैं? तो
फिर जरा गुलाब
की शाखा में
नीचे उतरें।
शाखा में बहती
हुई रसधार से
पूछें कि यह
फूल और यह कांटा
क्या अलग- अलग
जगह से आते
हैं?
वही रस
कांटा बनता है, वही रस
फूल बनता है।
ये दोनों अलग-
अलग हमें दिखाई
पड़ते होंगे, ये अपने में
अलग- अलग नहीं
हैं। और गुलाब
के सब कांटे
तोड़ डालें, तो फूल भी
उदास हो
जाएंगे; क्योंकि
भीतर की रसधार
को चोट लगेगी।
वही रसधार तो
है। और जब
गुलाब के फूल
तोड़ लिए जाते
हैं, तो
कांटे भी पीडा
अनुभव करते
हैं। क्योंकि
वे तो संयुक्त
हैं, अस्तित्व
इकट्ठा है। मन
बांटता है, फिर फूल
अच्छे हो जाते
हैं, काटे
बुरे हो जाते
हैं। फिर काटे
को कोई भेंट नहीं
दे सकता, फूल
को ही भेंट
देना पड़ता है।
लेकिन
अस्तित्व कांटे
और फूल एक साथ
उगाए चला जाता
है। अस्तित्व
एक साथ दोनों
को जीवन दिए
चला जाता है।
कृष्ण
कहते हैं, मैं ही
हूं अमृत, मैं
ही मृत्यु
हूं।
जब
पहली बार
भारतीय चिंतन
की कुछ झलक
भारत के बाहर
फैलनी शुरू
हुई, तो
जो सबसे बड़ी
हैरानी अनुभव
होनी
स्वाभाविक थी,
वह यही थी।
सबसे ज्यादा
हैरान करने
वाला पश्चिम
में जो हमारा
प्रतीक है, वह महादेव
का, शिव का
है। कभी आपने
खयाल नहीं
किया होगा; क्योंकि न
हम देखते, न
हम सोचते, न
हम खोजते!
आपने
देखा है, जगह-जगह सड़क
के किनारे एक
वृक्ष के नीचे
शंकर का
शिवलिंग रखा
है। कभी आपने
खयाल किया कि
शंकर मृत्यु
के देवता हैं,
विध्वंस
उनके हाथ में
है। ब्रह्मा
बनाता है, विष्णु
सम्हालता है,
शंकर विध्वंस
में ले जाते
हैं। शिव
विध्वंस के
देवता हैं!
लेकिन जो
शिवलिंग रखा
है, वह
फैलिक सिंबल
है, वह
जननेंद्रिय
का सिंबल है, वह सृजन का
प्रतीक है। वह
जो शिवलिंग है,
वह जन्म और
जीवन का
प्रतीक है। और
शंकर देवता हैं
विध्वंस के, उनके काम जो
जिम्मा है, वह है मिटाने
का।
बडी
हैरानी, बड़े पागल
लोग थे ये
हिंदू! जब
पहली दफा
पश्चिम में
शंकर का यह
प्रतीक
पहुंचा, तो
उन्होंने कहा,
ये कैसे लोग
हैं! विध्वंस
का देवता है, जिसे कि
दुनिया को
नष्ट करना है,
और यह फैलिक
सिंबल है! और
यह
जननेंद्रिय
का सिंबल है, जीवन का
प्रतीक; जहां
से समस्त जीवन
जन्मता है और
विकसित होता
है! यह किस
प्रकार का
प्रतीक है? यह प्रतीक
होना ही नहीं '
चाहिए। यह
प्रतीक शंकर
के साथ मेल
नहीं खाता।
खाता
भी नहीं है।
अगर हम भी
सोचेंगे गणित
से, तो
मेल नहीं !
खाता। अगर
विध्वंस का
देवता है, तो
कुछ विध्वंस
की बात होनी
चाहिए थी। यह
तो जीवन है।
जीवन का
प्रतीक चुना
है और विध्वंस
का देवता है।
कारण वही है।
कृष्ण
कहते हैं, मैं ही
अमृत और मैं
ही मृत्यु
हूं।
ये
विपरीत
प्रतीक हमें
मालूम पड़ते
हैं, लेकिन
भारत ने सदा
यह कोशिश की
है कि विपरीत
के भीतर जो एक
धारा है, वह
खयाल में आए।
इसलिए जानकर
विध्वंस के
देवता के
सामने सृजन का
प्रतीक रखा है,
जानकर, सोचकर,
बहुत
खोजकर। यही
प्रतीक उनका
प्रतीक हो
सकता है।
क्योंकि जिसे
विध्वंस की
अंतिम सीमा
छूनी है, उसे
जन्म के पहले
क्षण में भी
उपस्थित होना
चाहिए। जिसे
मृत्यु का
रास्ता बनना
है, उसे
जन्म का भी
द्वार बनना
चाहिए। इसलिए
दोनों
विपरीत-मृत्यु
उनका काम, जन्म
उनका प्रतीक।
यहां भी इतनी
ही बात होती, तो भी आसान
था, और भी
कठिन सूत्र
है।
कृष्ण
कहते हैं, एवं सत और
असत भी मैं ही
हूं।
सत का
अर्थ है, जो है, और
असत का अर्थ
है, जो
नहीं है। जो
है, वह तो
मैं हूं ही; जो नहीं है, वह भी मैं ही
हूं! यह आखिरी
कंट्राडिक्यान
है। तर्क में,
चिंतन में,
विचार की
पद्धति में, जो है और जो
नहीं है, यह
सबसे बड़ा
विरोध है।
होना और न
होना, यह
सबसे बड़ी खाई
है। इससे बड़ी
कोई भी खाई
नहीं हो सकती।
तो कोई
मान भी ले
सकता है, थोड़ा कल्पना
को फैलाए तो
मान ले सकता
है कि जन्म और
मृत्यु जुड़े
हैं-चलो एग्रीड;
माना। कोई
यह भी मान ले
सकता है- थोड़ी
हिम्मत जुटाए,
थोड़ी आदतों
को तोड़े-कि
चलो माना कि
राम और रावण
की कथा भी, एक
गिर जाए, तो
नहीं हो सकेगी;
किसी तरह
दोनों जुड़े
हैं, माना।
यह भी माना जा
सकता है कि फूल
और कांटा जुड़े
हैं। लेकिन यह
तो बिलकुल
नहीं माना जा
सकता कि जो है,
वह उससे
जुड़ा है, जो
है ही नहीं!
क्योंकि जो है
ही नहीं, उससे
जोड़ कैसा? जोड़
का तो मतलब ही
होता है कि दो
चीजें हों, तो जोड़ हो
सकता है। जो
नहीं है, उससे
कैसा जोड़?
यह
आत्यंतिक खाई
है, होने
में और न होने
में। न होने
और होने के
बीच तो हमारा
मन बिलकुल ही
इनकार कर देगा
कि जोड़ बन
नहीं सकता।
खींच-तानकर
राम और रावण
के बीच बना
लें, खींच-तानकर
शत्रु और
मित्र के बीच
बना लें, खींच-तानकर
जन्म और
मृत्यु के बीच
बना लें; सुंदर-असुंदर
के बीच बना
लें, प्रकाश-अंधकार
के बीच बना
लें, लेकिन
जो है ही नहीं,
दैट व्हिच
इज नाट, एंड
दैट व्हिच इज,
इन दोनों के
बीच क्या जोड़
है? और जोड
बनेगा कैसे?
दो
किनारों के
बीच जोड़ हो
सकता है, क्योंकि
दोनों किनारे
हैं। लेकिन एक
किनारा है और
दूसरा किनारा
नहीं है, इनके
बीच जोड़ कैसे
होगा?
यह
सर्वाधिक
कठिन मालूम
पडेगा, और मन के लिए
सबसे बड़ी चोट
भी है। लेकिन
इसे समझें, तो समझ में आ
सकेगा। इसे हम
दो -तीन
प्रकार से समझने
की कोशिश
करें। थोड़ा
कठिन है, लेकिन
असंभव नहीं कि
खयाल में झलक
न आ जाए। और खयाल
में झलक ही आ
सकती है, अनुभव
तो खयाल में
नहीं आ सकता।
झलक आ जाए, तो
अनुभव की तरफ
कदम बढ़ाए जा
सकते हैं।
थोड़ी मेहनत
लें।
एक
वृक्ष है; कल नहीं
था, आज है, कल फिर नहीं
हो जाएगा। तो
होना और न
होना किसी न
किसी तरह जुड़े
होने चाहिए।
वृक्ष कल नहीं
था, आज है, कल फिर नहीं
हो जाएगा। तो
जो नहीं था, वह हो सका, जो है, वह
कल नहीं हो
जाएगा। आप कल
नहीं थे, आज
हैं, कल
फिर नहीं हो
जाएंगे। नहीं
से आते हैं, नहीं को लौट
जाते हैं। तो
वह जो बीच में
थोड़ी देर के
लिए होना है, वह दो नहीं
के बीच में
है।
अब इसे
हम ऐसा समझें
कि दो नहीं
किनारे हैं और
होना बीच की
नदी है। दो
नहीं किनारे
हैं, कल
मैं नहीं था, कल फिर नहीं
हो जाऊंगा,
आज हूं। आज
मेरे होने की
गंगा बहती है।
दो मेरे
किनारे है'।
कल भी '' नहीं
था, कल फिर ''नहीं
रहूंगा। यह न
मेरे
दो किनारे हैं, और मेरा
होना बीच की
धारा है। उन
दो के बिना मैं
नहीं हो
सकूंगा। वे
दोनों मेरे
तरफ मुझे घेरे
हुए हैं।
सुबह
थी, सांझ
हो गई; रात
आ गई, फिर
सुबह आएगी।
कभी आपने देखा,
हर दिन को
दोनों तरफ दो
रातें घेरे
हुए हैं। हर
रात को दोनों
तरफ दो दिन
घेरे हुए हैं।
विपरीत
किनारा बना
हुआ है। जो भी
है, वह
दोनों ओर नहीं
से घिरा है।
और जो भी नहीं
है, वह भी
दोनों ओर है
से घिरा है।
होना
और न होना
इतने विपरीत
नहीं हैं, क्योंकि
एक-दूसरे में
हम बदलते हुए
देखते हैं। जो
आदमी था, वह
अब नहीं हो
गया। इसका
मतलब हुआ कि
जो था, वह
नहीं है में
प्रवेश कर
जाता है, लिक्विड
है, बह
सकता है, ठोस
विभाजन नहीं
मालूम होता।
आदमी
जवान है, फिर यही
जवान का हो
जाता है। आप
बता सकते हैं,
कब का हो
जाता है? कौन-सी
तिथि में, कौन-सी
तारीख में, कौन-सी समय
की सीमा पर
जवानी चली
जाती है और बुढ़ापा
आ जाता है?
नहीं
बता पाएंगे।
इसका मतलब
क्या हुआ? इसका
मतलब यह हुआ
कि बुढापा और
जवानी दो
चीजें नहीं
हैं, तरल
हैं, लिक्विड
हैं, एक-दूसरे
में बह जाती
हैं। पता ही
नहीं चलता, कब जवान का हो
गया। कब तक का
जवान था, यह
भी पता नहीं
चलता। कब
बच्चा जवान
होता है, यह
भी पता नहीं
चलता!
तो
जवानी या
बुढ़ापा
विपरीत दिखाई
पड़ते हैं, लेकिन
एक-दूसरे में
बह जाते हैं, एक-दूसरे
में डोलते रहते
हैं। होना और
न होना भी इसी
तरह एक-दूसरे
में डोलता
रहता है। अभी
बीज है, वृक्ष
नहीं है। यह
बीज अचानक कल
वृक्ष के होने
में प्रकट हो
जाएगा। तो
होना, न
होना; अस्तित्व,
अनस्तित्व;
सत और
असत-ये विपरीत
हमें दिखाई
पड़ते हैं, विपरीत
नहीं हैं।
इसे हम
और एक तरह से देखें।
जो भी
चीज है म उसकी
संभावना है कि
वह नहीं हो जाएगी।
ऐसी कोई चीज
आप जानते हैं, जो नहीं न
हो जाए? जो
भी है, वह
नहीं हो सकती
है। दैट व्हिव
इज, कैन बी
दैट व्हिच इज
नाट। इज, कैन
बी इज नाट।
(भीड़
में से कोई
खड़ा होकर कुछ
चिल्लाकर
कहता है।
भगवान श्री
हंसते हुए उसे
समझाते हैं और
साथ ही सभी
लोगों को शांत
रहने को कहते
हैं। और अपनी
बात जारी रखते
हैं।)
छोड़िए!
अपन अपनी बात
शुरू करें।
जो
नहीं है और जो
है, उन
दोनों के बीच
कोई अलंध्य
खाई नहीं है।
वे दोनों एक
के ही दो रूप
हैं। जो नहीं
है, वह है
में प्रवेश कर
सकता है, जो
है, वह
नहीं है में
प्रवेश कर
सकता है।
लेकिन हम बांटकर
देखते हैं, इससे कठिनाई
हो जाती है।
आप शांत
बैठे हैं; एक मित्र
अशांत हो गए; इतनी देर तक शांत
थे। शांति
अशांति में
चली गई। फिर शांत
हो जाएंगे।
क्योंकि
कितनी देर अशांत
रहेंगे? जब
शांति अशांति
बन सकती है, तो अशांति
फिर शांति बन
जाएगी। इतनी
देर मौन से
बैठे थे, क्रोध
में आ गए। मौन
क्रोध बन सकता
है। कितनी देर
रहेगा? जब
मौन क्रोध बन
सकता है, तो
क्रोध फिर मौन
बन जाएगा।
लेकिन हम
विपरीत में
एकता को नहीं
देख पाते हैं,
उससे अड़चन
हो जाती है, उससे कठिनाई
हो जाती है।
आप भी शांत
बैठे हैं, आपको
खयाल भी नहीं
आ सकता कि आप
भी इसी तरह अशांत
हो सकते हैं!
बिलकुल हो
सकते हैं।
क्योंकि अब तक
वे भी आप ही
जैसे बैठे हुए
थे।
वह जो
विपरीत है, उसमें हम
डोल सकते हैं
कभी भी, किसी
भी क्षण में, किसी भी
क्षण में। और
मन हमारा बांटकर
देखता है।
उनके मन को
बंटकर दिखाई
पड़ गया कि यह
हिंदी है, यह
अंग्रेजी है,
हिंदी होनी
चाहिए, अंग्रेजी
नहीं होनी
चाहिए! बांटकर
जहां भी हम देखते
हैं, वहा
विपरीत दिखाई
पडना शुरू हो
जाता है।
अब मजा
यह है कि अगर
हम भाषाओं के
भीतर भी थोड़ा प्रवेश
' करें,
तो हम
पाएंगे कि एक
ही स्वर
गूंजता है।
सारी दुनिया
की भाषाओं में
अगर हम
थोड़ा-सा गहरे
उतरें, तो
लगता है कि
कोई एक ही
भाषा
बहुत-बहुत ढंग
से बोली गई
है। और
अंग्रेजी और
हिंदी तो भीतर
इतनी गहरी
जुड़ी हैं कि
जिसकी हमें
कल्पना नहीं
हो सकती, सिस्टर
लैंग्वेजेज
हैं। संस्कृत
से दोनों का
जन्म हुआ है, अंग्रेजी का
भी और हिंदी
का भी। और
हिंदी जितनी
संस्कृत के
करीब है, उतनी
ही करीब
अंग्रेजी भी
है। अगर हम
दोनों में
थोड़ा प्रवेश
करें, तो
हमें पता
लगेगा कि
दोनों के बीच
वैपरीत्य नहीं
है, एक
धारा बह रही
है।
हिंदी
में आप मां
कहते हैं, संस्कृत
में मातृ कहते
हैं, लैटिन
और ग्रीक में
मैटर हो जाता
है, अंग्रेजी
में मदर हो
जाता है। वह
मदर मातृ का ही
रूप है, जैसे
मां और माता
मातृ का ही
रूप है।
संस्कृत में
पितृ कहते हैं,
पितर कहते
हैं, हिंदी
में पिता कहते
हैं; अंग्रेजी
में वह फादर
हो जाता है, पीटर, पैटर
और फिर फादर
हो जाता है।
लेकिन
अगर कोई पिता
कहे, तो
हमें लगेगा, हमारी भाषा
बोली; और
कोई फादर कहे,
तो लगेगा, कोई विदेशी
भाषा बोल दी।
नासमझी है।
पिता और फादर
जिस शब्द से
पैदा हुए हैं,
वह एक है।
ये फासले
कितने ही हो
जाएं, इससे
कुछ फर्क नहीं
पड़ता है।
संस्कृत में
जो मूल रूप
हैं, वे
सारी दुनिया
की भाषाओं में
फैल गए हैं।
इसलिए
संस्कृत किसी
की भाषा नहीं
है, संस्कृत
सब भाषाओं की
भाषा है।
लेकिन जल्दी हमारा
मन करता है और
कठिनाइयां
खड़ी कर लेता
है। मन बांटकर
देखता है और
बंटकर मुसीबत
में पड़ जाता
है।
कृष्ण
कहते हैं, सत भी मैं
हूं, असत
भी मैं हूं।
जो है, वह
भी मैं ही हू, और जो नहीं है; वह भी मैं ही हू।
यह सबसे कठीन कोटि
है, सबसे
कठिन कैटेगरी
है, क्योंकि
नहीं है को हम
सोच भी नहीं
पाते, लेकिन
प्रतिपल घटना
घट रही है। जो
तारा कल नहीं
था, वह आज
निर्मित हो
गया है।
वैज्ञानिक
कहते हैं, रोज नए
तारे निर्मित
होते हैं। और
जो तारा ' कल
था, वह आज
खो गया है।
आप रात
को जब आकाश
में तारे
देखते हैं, तो आप इस
भ्रांति में न
रहें कि जो
तारे आप देखते
हैं, सब
वहां हैं।
क्योंकि
तारों से
प्रकाश आने में
करोड़ों-करोड़ों
वर्ष लग जाते
हैं, अरबों
वर्ष भी लग
जाते हैं। और
यह हो सकता है
कि वह तारा
कभी का मिट चुका
हो। लेकिन जब
वह था, तब
उसका प्रकाश
चला था, और
अब आज की रात
आपको वह दिखाई
पड़ता है, वह
प्रकाश। हो
सकता है, करोड़
वर्ष पहले वह
प्रकाश चला हो,
वह तारा कभी
का मिट गया।
लेकिन उसका
प्रकाश पृथ्वी
तक आने में
समय लगता है।
वह आज की रात आ
पाया। आज की
रात वह है नहीं।
एक तो पक्की
बात है कि उस
जगह तो है ही
नहीं, जहां
से प्रकाश चला
था। जहां आपको
दिखाई पड़ेगा,
वहां तो
नहीं है। और
दूसरी बात भी
संभव है कि वह
मिट ही गया हो,
अब कहीं हो
ही नहीं। फिर
भी दिखाई पड़
रहा है।
प्रतिपल
चीजें बन रही
हैं और मिट
रही हैं। बनना
और मिटना एक
साथ चल रहा
है। अगर हम और
गौर से देखें, तो बनना
और मिटना दो
अलग-अलग समय
में नहीं घटते,
एक ही समय
में घटते हैं।
जब मैं जवान
हो रहा हूं
तभी मैं का भी
हो रहा हूं।
इसीलिए तो पता
नहीं चलता कि
किस दिन का हो
गया। जब मैं
जी रहा हूं
तभी मैं मर भी
रहा हूं।
इसीलिए तो पता
नहीं चलता कि
मृत्यु
कहां से आ गई।
यह मृत्यु
कहीं बाहर से
नहीं आती। जब मैं
जी रहा हूं
तभी मैं मर भी
रहा हूं।
जब आप
एक मकान बना
रहे हैं, तभी उसका
गिरना भी शुरू
हो गया। लेकिन
यह दिखाई नहीं
पड़ता, क्योंकि
सौ साल बाद
गिरेगा, हजार
साल बाद
गिरेगा।
गिरने की
प्रक्रिया हजार
साल में पूरी
होगी, लेकिन
गिरना शुरू हो
गया इसी क्षण।
बच्चा पैदा
हुआ और मरना
शुरू हो गया।
सत्तर साल बाद
पूरी होगी यह
प्रक्रिया।
सत्तर साल बाद
आपको पता लगेगा,
चाहे आप
बचेंगे भी
नहीं तब तक।
दूसरों को पता
लगेगा कि यह
आदमी जो सत्तर
साल पहले पैदा
हुआ था, आज
मर गया। लेकिन
सत्तर साल
पहले जिस दिन
जन्मा था, उसी
दिन मौत शुरू
हो गई, मरना
शुरू हो गया।
हम रोज
जी भी रहे हैं
और मर भी रहे
हैं। इसका मतलब
कि हम रोज हो
भी रहे हैं और
नहीं भी हो
रहे हैं, बन भी रहे
हैं और मिट भी
रहे हैं। यह
एक साथ चल रहा है।
ये हमारे दो
पैर हैं, बायां
और दायां। जब
बायां चलता है,
तो दायां
रुका मालूम
पड़ता है, जब
दायां उठता है,
तो बायां
रुका मालूम
पड़ता है।
लेकिन बायां
इसलिए रुकता
है कि दायां
उठ जाए, दायां
इसलिए रुकता
है कि बायां उठ
जाए। जब आप
लगते हैं कि
जवान हैं, तब
बुढ़ापा उठ रहा
है। जब आप
लगते हैं कि
जी रहे हैं, तब मौत भी
कदम उठा रही
है। वे दोनों
साथ चल रहे हैं।
होना, न
होना, एक
ही अस्तित्व
के हिस्से
हैं।
कृष्ण
कहते हैं, दोनों
मैं हूं।
परंतु
जो तीनों
वेदों में
विधान किए हुए
सकाम कर्मों
को करने वाले, सोमरस को
पीने वाले एवं
पापों से
पवित्र हुए पुरुष,
मेरे को
यज्ञों के
द्वारा पूजकर
स्वर्ग की प्राप्ति
को चाहते हैं,
वे पुरुष
अपने पुण्यों
के फलरूप
इंद्रलोक को प्राप्त
होकर स्वर्ग
में दिव्य
देवताओं के भोगों
को भोगते हैं।
कृष्ण
कहते हैं, लेकिन.।
इस
लेकिन शब्द पर
खयाल
रखना-परंतु।
यह तो उन्होंने
जो बात कही, आत्यंतिक
है, अल्टिमेट
है, आखिरी
है। लेकिन लोग,
वेदों में
जो कहा है, उन
कर्मों को, यज्ञों को, हवनों को, क्रियाकांडों
को करके, अपने
को पापों से
मुक्त करके
स्वर्ग जाने
की कामना करते
हैं, सुख को
पाने की कामना
करते हैं।
यह
परंतु बहुत
महत्वपूर्ण
है। इसका मतलब
यह हुआ कि ऐसे
लोग अभी भी
स्वर्ग और
नर्क को बांटते
हैं। इसका
अर्थ हुआ, ऐसे लोग
अभी भी सुख और
दुख को बांटते
हैं। ऐसे लोग
अभी भी सुख
चाहते हैं, दुख से बचना
चाहते हैं।
ऐसे लोग अभी
भी मन से ही जी
रहे हैं।
सकाम
का अर्थ है, मन से
जीना, अभी
कामना मिटी
नहीं, अभी
कामना बाकी
है। अगर इस
जगत की कामना
से ऊब गए हैं, तो उस जगत की
कामना शुरू है,
अगर यहां
मकान नहीं
बनाना, तो
स्वर्ग में
कोई मकान बन
जाए, इसकी
चेष्टा करनी
है, अगर
यहां धन नहीं
जुटाना, तो
कोई पुण्यों
की संपदा
इकट्ठी हो जाए,
इसका
प्रयास करना
है। लेकिन अभी
उनकी भाषा नहीं
बदली, अभी
उनका सोचने का
ढंग नहीं बदला;
अभी उनकी
दृष्टि नहीं
बदली, अभी
उनका ढाचा वही
है।
फिर भी, ऐसे लोग
अपने को पापों
से छुड़ाते हैं;
पुण्य करते
हैं; बुरा
नहीं करते, भला करते
हैं, वेदविहित
कर्म करते हैं;
पूजा, यज्ञ,
हवन करते
हैं। इन
पुण्यों के
फलस्वरूप
इंद्रलोक को
प्राप्त होकर
वे स्वर्ग में
दिव्य देवताओं
के सुखों को
भोगते हैं, लेकिन मुझे
उपलब्ध नहीं
होते।
मुझे
तो वही उपलब्ध
होगा, जिसे
स्वर्ग और
नर्क में भेद
न रहा। मुझे
तो वही उपलब्ध
होगा, जिसे
पुण्य और पाप
में भेद न
रहा। मुझे तो
वही उपलब्ध
होगा, जिसे
मृत्यु और
जीवन एक हुए।
मुझे तो वही
उपलब्ध होगा,
जो चुनाव ही
नहीं करता। जो
नहीं कहता, यह छोडूंगा,
वह पाऊंगा,
यह नहीं
चाहिए वह
चाहिए, ऐसा
जो चुनाव ही
नहीं करता, वन हू हैज
बिकम
च्चाइसलेस, जो बिलकुल
चुनावरहित हो
गया, जिसके
मन में कोई
विकल्प न रहा।
जो कहता है, जो भी है, राजी
हूं। दुख है, तो दुख से
राजी हूं; सुख
नहीं चाहिए।
सुख है, तो
सुख से राजी
हूं; सुख
के त्याग की
भी चिंता नहीं
करता हूं।
जीवन है, तो
धन्यवाद। और
मृत्यु आए, तो स्वागत।
और नर्क में
डाल दो, तो
भी तुम्हीं को
देखता रहूंगा;
और स्वर्ग
में भेज दो, तो भी
तुम्हीं मेरे
सुख हो।
जो ऐसा
हुआ, वह
तो मुझे
उपलब्ध होता
है। लेकिन
इसके पहले वे
कहते हैं, परंतु
ऐसे लोग भी
हैं, जो
शायद इतनी
निर्द्वंद्व,
इतनी
द्वंद्वातीत,
इतनी
अद्वैत की
दृष्टि को न
पा सकें, वे
लोग भी
इंद्रलोक को
तो पा ही सकते
हैं, स्वर्ग
को तो पा ही
सकते हैं।
स्वर्ग
का मतलब है, जो कम
बुरा करेगा, कम पाप
करेगा, कम
दूसरों को दुख
पहुंचाएगा, वह ज्यादा
सुख पा सकता
है-आनंद नहीं,
ध्यान रखना!
इसके भेद को
ठीक से समझ
लेना जरूरी
होगा; आनंद
नहीं, सुख
पाएगा।
आनंद
है सुख और दुख
दोनों के पार।
आनंद वह पाता
है, जिसके
सुख और दुख
दोनों की
दृष्टि खो
जाती है। आनंद
तीसरी बात है।
आनंद सुख नहीं
है। जैसा कि
आमतौर से लोग
समझते हैं कि
आनंद सुख का
ही परम रूप
है। बिलकुल
नहीं है। आनंद
का सुख से
उतना ही
लेना-देना है,
जितना दुख
से। आनंद न
दुख है, और
न आनंद सुख
है। इसलिए सुख
दुख के विपरीत
है, दुख
सुख के विपरीत
है। जिसको
विपरीतता
दिखाई पड़ रही
है, वह सुख
दुख में
घूमेगा।
कृष्ण
अगले सूत्र
में कहते हैं
कि यह स्वर्ग
भी मिल जाए, तो फिर लौटकर
आना पड़ेगा।
क्योंकि फिर
दुख में आना
पड़ेगा। जो सुख
में गया है, उसे दुख में
आना ही पड़ेगा।
द्वंद्व में
जिसने विभाजन
किया है, वह
एक से दूसरे
में जाएगा।
जिसने जन्म को
पकड़ा, उसे
मरना ही
पड़ेगा। जिसने
सुख को पकड़ा, पकड़ते ही
दुख में जाना
शुरू हो गया।
कृष्ण
कहते हैं, उसे तो
लौट आना
पडेगा। उसने
अच्छे कर्म
किए, उसने
सदभाव रखे, उसने
धार्मिक जीवन
जीया, वह
स्वर्ग तक
पहुंच सकता
है। सुख के
आखिरी छोर को
छू लेगा, लेकिन
छूते ही लौटना
शुरू हो
जाएगा।
जैसे
घड़ी का
पेंडुलम जाता
है बाएं तरफ, आखिरी
छोर पर पहुंच
जाता है।
पहुंचते से ही
वापस यात्रा
शुरू हो जाती
है। दाएं तरफ
जाने लगता है।
ठीक
ऐसे ही सुख का
आखिरी बिंदु आ
जाएगा। फिर यात्रा
शुरू हो जाएगी
वापसी।
क्योंकि
द्वंद्व में
कोई मुक्ति
नहीं है। वह
वापस लौट
आएगा। उसके
कर्म चुक
जाएंगे और वह
वापस जमीन पर
खड़ा हो जाएगा।
मुझे नहीं पा
सकेगा।
मुझे
तो वही पा
सकेगा, जो सत में और
असत में, स्वर्ग
में और नर्क
में, पाप
में और पुण्य
में, दोनों
में ही बिना
किसी भेद- भाव
के मुझ को ही देख
लेता है। फिर
कोई उपाय न
रहा, फिर
टूट गया
पेंडुलम। फिर
उसकी कोई
यात्रा न रही,
कोई
मोमेंटम न
रहा।
कृष्ण
का सारा संदेश
इस सूत्र में
है कि द्वंद्व
न दिखाई पड़े।
लेकिन मन है, तो
द्वंद्व
दिखाई पड़ेगा
ही। तो इस
सूत्र का मतलब
हुआ, मन न
रहे; नो
माइंड, अ-मन
पैदा हो जाए।
तो ही हम जीवन
के ऐक्य को
देख पा सकते
हैं। ऐक्य ही
मुक्ति है और
ऐक्य ही आनंद।
आज
इतना ही।
लेकिन
पांच मिनट
रुके। कीर्तन
में सम्मिलित
हों और फिर
जाएं। कोई बीच
में न उठे।
thank you guruji
जवाब देंहटाएं