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सोमवार, 15 दिसंबर 2014

पतंजलि--योगसूत्र--(भाग--2) प्रवचन--31

सहजता—स्‍वाध्‍याय—विसर्जन—(प्रवचन—ग्‍याहरवां)


दिनांक 11 मार्च 1975; श्री रजनीश आश्रम, पूना।

योगसूत्र (साधनपाद)

तप:स्वाध्यायेश्‍वरप्रणिधानानि क्रियायोग:।। 1।।

क्रियायोग एक, प्रायोगिक, प्राथमिक योग है और वह संधटित हुआ है— सहज संयम (तप), स्वाध्याय और ईश्वर के प्रति समर्पण से।

 'समाधिभावनार्थ: क्लेउशतनूकरणार्थश्‍च।। 2।।

क्रियायोग का अभ्यास क्लेश (दुःख) को घटा देता है। और समाधि की ओर ले जाता है।

 अविद्यास्‍मितारागद्वेषाभिनिवेशा: क्लेशा:।। 3।।


दु:ख उत्‍पन्‍न होने के कारण है: जागरूकता की कमी, अहंकार, मोह, घृणा, जीवन से चीपके रहना और मृत्‍यु भय।

अविद्या क्षेत्रमुत्‍तरेषां प्रसुप्‍ततनुविच्‍छिन्‍नोदाराणाम।। 4।।

चाहे वे प्रसुप्‍तता की, क्षीणता की, प्रत्‍यावर्तनकी या फैलाव की अवस्‍थाओं में हों, दुःख के दूसरे सभी कारण क्रियान्‍वित होते है—जागरूकता के आभाव द्वारा ही।

सामान्य मनुष्यता को दो मूलभूत प्रकारों में बांटा जा सकता है: एक तो है पर—पीड़क और दूसरा है स्व—पीड़क। पर—पीड़क आनंद पाता है दूसरों को पीड़ा पहुंचा कर और स्वपीड़क आनंदित होता है स्वयं को पीड़ा पहुंचा कर। निस्संदेह दूसरों को पीड़ा देने वाला आकर्षित होता है राजनीति की ओर। वहां संभावना होती है, दूसरों को उत्पीड़ित करने का अवसर होता है। या वह आकर्षित होता है वैज्ञानिक खोज की ओर, विशेषकर चिकित्सा—शास्त्र की खोज की ओर। वहां प्रयोग के नाम पर एक संभावना होती है, मासूम जंतुओं को यातना देने की, रोगियों, मुर्दा और जीवंत शरीरों को उत्पीड़ित करने की। यदि राजनीति बहुत भारी पड़ती है और वह अपने बारे में ज्यादा निश्चित नहीं होता है और न ही इतना बुद्धिमान होता है कि किसी अनुसंधान में लग जाए तब पर—पीड़क बन जाता है स्कूल—मास्टर, वह छोटे—छोटे बच्चों को सताने लगता है! लेकिन पर—पीड़क सदा ही सरकता रहता है ज्ञात रूप से या अज्ञात रूप से उस परिस्थिति की ओर जहां कि वह पीड़ा दे सकता हो। देश के नाम पर समाज, राष्ट्र, क्रांति के नाम पर, सत्य और खोज के नाम पर, सुधार— आदोलन के, दूसरों को सुधारने के नाम पर, पर—पीड़क सदा किसी न किसी को उत्पीड़ित करने के अवसर की खोज में रहता है।
पर—पीड़क धर्म की ओर बहुत आकर्षित नहीं होते हैं। दूसरे प्रकार के लोग आकर्षित होते हैं धर्म की ओर, वे हैं स्व—पीड़क। वे स्वयं को पीड़ा दे सकते हैं। वे बन जाते हैं महात्मा, वे बन जाते हैं बड़े संत और वे सम्मान पाते हैं समाज के द्वारा क्योंकि वे स्वयं को पीड़ा पहुंचाते हैं। एक पक्का स्व— पीड़क सदा ही सीधे तौर पर सरकता है धर्म की ओर, बिलकुल वैसे ही जैसे कि एक पक्का पर—पीडक सरकता है राजनीति की ओर। राजनीति धर्म है पर—पीड़क की, धर्म राजनीति है स्व—पीड़क की। लेकिन यदि एक स्व—पीड़क बहुत निश्चित नहीं होता, तब वह ढूंढ लेता है दूसरे वैकल्पिक मार्ग। वह बन सकता है कलाकार, चित्रकार, कवि, और स्वयं को पीड़ा पहुंचाए जा सकता है—कविता, साहित्य, चित्रकला के नाम पर।
तुमने सुना होगा एक बड़े डच चित्रकार, विन्सेंट वानगाग का नाम। वह पक्का स्व—पीड़क था। यदि वह भारत में पैदा हुआ होता, तो बन गया होता महात्मा गांधी; लेकिन वह बना चित्रकार। कुछ ज्यादा धन नहीं था उसके पास। उसका भाई उसे जीने मात्र जितना पैसा दिया करता था। सप्ताह के सात दिनों में से, वह केवल तीन दिन भोजन करता, और सप्ताह के बाकी चार दिन वह चित्र बनाने के खातिर उपवास रखता।
वह एक स्त्री के प्रेम में था, लेकिन स्त्री का पिता उससे मिलने की इजाजत न देता था उसको। अत: उसने जबरदस्ती जलती लौ पर रख दिया अपना हाथ और वह बोला, 'मैं जलती लौ पर ही रखे रखूंगा अपना हाथ, जब तक कि आप मुझे उससे मिलने न दोगे।उसने जला डाला अपना हाथ।
एक वेश्या ने कहां उससे, 'तुम्हारे कान बहुत सुंदर हैं', क्योंकि प्रशंसा करने को और कुछ था ही नहीं उसके चेहरे में। वह सबसे अधिक असुंदर व्यक्तियों में से एक था, उसके नाक—नक्‍श असुंदर थे। वह वेश्या तो इस आदमी के साथ जरूर बड़ी मुश्किल में पड़ गयी होगी, इसलिए उसने कह दिया उससे कि उसके कान बहुत सुंदर हैं। वह घर वापस गया, अपना एक कान काट दिया छुरी से, उसे पैकेट में रखा; बहते खून सहित ही वापस गया उसके पास और कान स्त्री के सामने यह कहते हुए पेश कर दिया कि 'तुमने इसे इतना ज्यादा पसंद किया कि इसे मैं तुम्हें उपहार स्वरूप देना चाहूंगा।
उसने चित्र बनाना जारी रखा फ्रांस के सबसे ज्यादा गरम भाग आर्लीज में, जब कि गरमियों में सूरज बहुत तप रहा था। हर एक ने कहां उससे, 'तुम बीमार पड़ जाओगे, सूरज बहुत आग बरसा रहा है', लेकिन सारा दिन, विशेष कर जब कि सूर्य सबसे ज्यादा तप्त रहता, पूरी भरी दुपहरी में, वह मैदानों में खड़ा रहता चित्र बनाते हुए। बीस दिनों के भीतर वह पागल हो गया। वह युवा था, तैंतीस या चौंतीस का ही था, जब उसने मार डाला खुद को, आत्महत्या कर ली।
परंतु चित्रकला, कला, सौंदर्य के नाम पर, तुम कर सकते हो स्वयं को पीड़ित। ईश्वर के नाम पर, प्रार्थना के नाम पर, साधना के नाम पर, तुम कर सकते हो स्वयं को पीड़ित। तुम इस ढंग को बहुत ही प्रबल पाओगे भारत में : कील, काटो की शैय्या पर लेटे, महीनों—महीनों उपवास करने वालों को। तुम्हारी भेंट होगी ऐसे—ऐसे लोगों से जो दस वर्षों से सोए ही नहीं हैं! वे खड़े ही रहते, लड़ते रहते नींद से। वे ऐसे लोग हैं जो खड़े रहे हैं वर्षों तक, उन्होंने दूसरी कोई मुद्रा अपनाई ही नहीं, उनकी टागें करीब— करीब मुरदा हो चुकी हैं। ऐसे लोग हैं जो कि आकाश की ओर एक हाथ उठाए—उठाए जी रहे हैं; पूरा हाथ मृत हो गया है, उसमें अब और खून संचरित नहीं होता; वह मात्र हड्डियों का ढांचा है। ये व्यक्ति बीमार हैं; उन्हें जरूरत है मानसिक इलाज की। लेकिन तो भी हजारों आकर्षित हो जाते हैं उनकी तरफ।
तुम्हारे सारे राजनेताओं को, एडोल्फ हिटलर या जोसेफ स्टालिन को या माओत्से तुंग को जरूरत है मानसिक इलाज करवाने की। और तुम्हारे सारे महात्माओं को भी जरूरत है इलाज की। क्योंकि वह व्यक्ति जो कि स्वयं को या दूसरों को पीड़ित करने में रुचि रखता है, बीमार होता है, गहन तौर पर बीमार होता है। पीड़ा में रुचि रखना, चाहे वह किसी दूसरे की हो या कि स्वयं की, पीडन में रुचि रखना, बिलकुल ही निश्चित लक्षण है गहन रुग्णता का। जब तुम स्वास्थ्यपूर्ण होते हो तब तुम दूसरों को पीड़ित नहीं करना चाहते; तुम स्वयं को पीड़ित नहीं करना चाहते। जब तुम स्वस्थ होते हो, तब तुम आनंदित होना चाहते हो। जब तुम स्वस्थ होते हो, तब तुम इतना आनंदित अनुभव करते हो कि तुम चाहते हो हर किसी को आशीष देना, आनंदित करना। तब तुम चाहोगे कि तुम्हारी मंगलकामनाएं तुम्हारे प्राणों से प्रवाहित हो जाएं सभी के प्राणों में, संपूर्ण अस्तित्व में। तुम आनंद के अतिरेक से, उमडाव से भरे होते हो। स्वस्थता एक उत्सव है। अस्वस्थता है पीड़ित करना—दूसरों को करना या स्वयं को करना।
पतंजलि पर बोलना शुरू करने से पहले मैं ऐसा क्यों कह रहा हूं? मैं ऐसा कह रहा हूं क्योंकि अब तक पतंजलि की व्याख्या सदा होती रही है खुद को पीड़ा पहुंचाने वालों के द्वारा। लेकिन मैं जो कुछ भी बोलने जा रहा हूं पतंजलि के बारे में वह समग्ररूपेण अलग होगा दूसरी टीका—टिप्पणियों से। मैं स्व—पीड़क नहीं हूं मैं पर—पीड़क भी नहीं हूं। मैं स्वयं उत्सव मना रहा हूं और मैं चाहूंगा कि तुम सम्मिलित हो जाओ मेरे साथ। पतंजलि पर मेरी व्याख्या पिछली सारी व्याख्याओं से मूलभूत रूप से अलग होगी। मेरा भाष्य बिलकुल वैसा होगा जैसे कि पतंजलि स्वयं भाष्य करते रहे।
वे न तो पर—पीड़क थे और न ही स्व—पीड़क। वे किसी आंतरिक अस्वस्थता से रहित, मनोवैज्ञानिक समस्याओं से रहित, मानसिक ग्रस्तताओं से रहित, संपूर्णतया पूरे, एकजुट व्यक्ति थे। वे थे स्वस्थ, संपूर्ण, संघटित। जो कुछ कहां है उन्होंने उसे तीन ढंग से व्याख्यायित किया जा सकता है। कोई पर— पीड़क संयोगवश ही शायद इससे जुड़े, लेकिन वह विरल बात है, क्योंकि पर—पीड़क रुचि नहीं रखते हैं धर्म में। माओत्से तुंग, एडोल्फ हिटलर या कि जोसेफ स्टालिन की रुचि धर्म में, पतंजलि में होने की बात की तुम कल्पना नहीं कर सकते; नहीं। पर—पीड़क रुचि नहीं रखते, इसलिए उन्होंने व्याख्या नहीं की। स्व—पीड़क रुचि रखते हैं धर्म में और उन्होंने की है व्याख्या और अपना ही रंग चढ़ाया है पतंजलि पर। लाखों लोग हैं वैसे, और जो कुछ कहां है उन्होंने, उसने पूरी तरह विकृत कर दिया है पतंजलि के संदेश को, पूरी तरह विनष्ट कर दिया है उसको। अब हजारों साल बाद वे व्याख्याएं खड़ी हुई हैं तुम्हारे और पतंजलि के बीच, अभी भी वे बढ़ती चली जा रही हैं!
पतंजलि के योगसूत्र सबसे अधिक व्याख्यायित चीजों में से हैं; वे एकदम भरे हुए हैं महत्वपूर्ण अर्थ से, वे बहुत गहन रूप से अर्थपूर्ण हैं। लेकिन उन पर व्याख्या करने के लिए पतंजलि कहां मिलते हैं किसा को? कहां मिलता है कोई व्यक्ति जो किसी ढंग से अस्वस्थ न हो? क्योंकि अस्वस्थता रंग चढ़ा देगी, तुम इसमें कुछ नहीं कर सकते। जब तुम व्याख्या करते हो, तब तुम रहते हो तुम्हारी व्याख्या में, तुम्हें रहना ही होता है वहा; व्याख्या करने का कोई और ढंग नहीं है।
मैं वे: बातें कहने जा रहा हूं जो कही नहीं गई हैं, और तुम मुझे निरंतर अलग जान सकते हो सारी व्याख्याओं से।
इस सत्य को ध्यान में रख लेना, क्योंकि मैं न तो स्व—पीड़क हूं और न ही पर—पीड़क। मैं धर्म में स्वयं को उत्पीड़ित करने के लिए नहीं उतरा हूं—बिलकुल विपरीत है बात। वस्तुत: मैं कभी नहीं उतरा धर्म में। मैं तो बस स्वयं आनंदित होता रहा हूं और धर्म घट गया—बिलकुल सहज। यह बात एक निष्पत्ति मात्र रही। मैंने कभी उस तरह से अभ्यास नहीं किए जैसे कि धार्मिक व्यक्ति अभ्यास करते हैं। मैं कभी उस ढंग की खोज में नहीं रहा। मैं तो बस जीया हूं—'जो कुछ है' उसकी गहरी स्वीकृति में। मैंने स्वीकार कर लिया अस्तित्व को और स्वयं को, और मैं कभी इस भावदशा में नहीं रहा कि स्वयं को परिवर्तित करूं। अकस्मात, जितना—जितना मैंने स्वीकार किया स्वयं को, उतना ही मैंने स्वीकार किया अस्तित्व को, और एक गहरा मौन, एक आनंद उतर आया मुझ पर। उस आनंद में धर्म घटित हुआ मुझको। तो साधारण शाब्दिक अर्थों में धार्मिक नहीं हूं मैं। यदि तुम कुछ समानांतर खोजना चाहते हो तो तुम्हें उसे धर्म के अतिरिक्त कहीं और ही खोजना होगा।
मुझे उस व्यक्ति के साथ एक गहन घनिष्ठता अनुभव होती है जो दो हजार वर्ष पहले उत्पन्न हुआ था यूनान में। उसका नाम था एपीकुरस। कोई उसे धार्मिक नहीं मानता। लोग सोचते हैं कि जो सर्वाधिक नास्तिक व्यक्ति हुए वह उनमें से एक था, जो सर्वाधिक भौतिक व्यक्ति हुए उनमें से एक, वह धार्मिक




 व्यक्ति के एकदम विपरीत था। लेकिन वैसी समझ मेरी नहीं। एपीकुरस सहज रूप से धार्मिक था। इन शब्दों को जरा खयाल में ले लेना, 'सहज रूप से धार्मिक', धर्म घटा है उसको। इसीलिए लोगों ने उसे नजरअंदाज कर दिया, क्योंकि उसने कभी कोई कोशिश नहीं की। यह उक्ति 'खाओ, पीओ और आनंद मनाओ', आयी है एपीकुरस से। और यही दृष्टिकोण बन गया है भौतिकवादी का।
वस्तुत: एपीकुरस ने एक बहुत ही आडंबररहित सरल जीवन जीया। जितना कभी कोई रह सकता है या रहा होगा, वह उतनी ही सादगी से रहा। महावीर और बुद्ध भी उतने सरल—सहज न थे जितना कि एपीकुरस क्योंकि उनकी सादगी परिष्कृत थी, उन्होंने कार्य किया था उस पर, उसका अभ्यास किया था। उन्होंने उस पर सोच—विचार किया था और उन्होंने वह सब कुछ गिरा दिया था जो कि अनावश्यक था। वे स्वयं को अनुशासित कर रहे थे—सीधे—सरल होने के लिए, और जब कभी अनुशासन मौजूद होता है, तो चली आती है जटिलता। पृष्ठभूमि में संघर्ष बना रहता है, और वह संघर्ष वहां बना रहेगा सदा, पृष्ठभूमि में ही। महावीर नग्न थे, खाली, उन्होंने त्याग दिया था सब कुछ, तो भी त्यागा तो था! वह बात सहज—स्वाभाविक तो न थी।
एपीकुरस एक छोटे से बगीचे में रहता था। वह बगीचा 'एपीकुरस का बगीचा' नाम से जाना जाता था। उसके पास अरस्तु की भांति कोई अकादमी न थी या कि प्लेटो की भांति कोई स्कूल न था, उसके पास एक बगीचा था। यह बात सहज और सुंदर जान पड़ती है। बगीचा ज्यादा स्वाभाविक जान पड़ता है एक अकादमी से। वह बगीचे में रहता था कुछ मित्रों के साथ। वह शायद पहला कम्यून था। वे बस वहां रह रहे थे—विशेष रूप से कुछ न करते हुए, बगीचे में काम करते हुए, मात्र जीने के लिए पर्याप्त था जिनके पास।
ऐसा कहां जाता है कि राजा वहां आया निरीक्षण करने को और वह सोच रहा था कि यह आदमी जरूर ऐश्वर्य में रहता होगा, क्योंकि इसका आदर्श वाक्य था 'खाओ, पीओ और आनंद मनाओ।यदि यही है संदेश, राजा ने सोचा, तो मुझे मिलेंगे लोग ऐश्वर्य में जीते, भोगरत। लेकिन जब वह वहां पहुंचा तो उसने बगीचे में काम करते हुए, पौधों को पानी देते हुए बहुत सीधे—सादे लोगों को देखा। सारा दिन वे काम करते रहते थे। बहुत थोड़ा निजी सामान था उनका, जो जीने मात्र के लिए पर्याप्त था। शाम को, जब वे खाना खा रहे थे, तो मक्खन तक न था; केवल सूखी रोटी और था थोड़ा—सा दूध। लेकिन तो भी वे आनंदित थे इससे, जैसे कि यह कोई दावत हो। खाने के बाद वे नृत्य करने लगे। दिन समाप्त हो गया था और उन्होंने धन्यवाद दिया अस्तित्व को। और वह राजा रो पड़ा था, क्योंकि वह अपने मन में सदा सोचता रहा था, एपीकुरस की निंदा करने की बात ही। उसने पूछा, 'खाओ, पीओ और आनंद मनाओ—ऐसा कहने से क्या मतलब है आपका?' एपीकुरस बोला, 'तुमने देखा! हम यहां चौबीसों घंटे प्रसन्न रहते हैं। यदि तुम प्रसन्न होना चाहते हो तो तुम्हें सहज होना होगा, क्योंकि जितने जटिल होते हो तुम, उतने ही दुखी हो जाते हो तुम। जितना ज्यादा जटिल होता है तुम्हारा जीवन, उतना ज्यादा दुख निर्मित करता है वह। हम सहज स्वाभाविक हैं इसलिए नहीं कि हम परमात्मा को खोज रहे हैं, हम सहज हैं क्योंकि सहज होना ही सुखी, प्रसन्न होना है।और राजा ने कहां, 'मैं कुछ उपहार तुम्हारे लिए भेजना चाहूंगा। बगीचे के लिए और तुम्हारे आश्रम—निवासियों के लिए क्या चाहोगे तुम?' एपीकुरस तो सोच न पाया। वह बहुत सोचता रहा और फिर बोला, 'हमें ऐसा नहीं लगता कि किसी चीज की जरूरत है।
नाराज मत होना, आप एक महान राजा हैं, हर चीज दे सकते हैं—लेकिन हमें जरूरत नहीं है। यदि आप जोर देते हैं, तो आप भेज सकते हैं थोड़ा—सा नमक और मक्खन।वह एक सीधा—सादा आदमी था।
इस सरलता में धर्म घटता है स्वाभाविक रूप से। तुम ईश्वर के बारे में सोचते नहीं, ऐसी कोई जरूरत नहीं होती, जीवन ही ईश्वर होता है। आकाश की ओर हाथ जोड़ तुम प्रार्थना नहीं करते; वह मूढ़ता है। तुम्हारा सारा जीवन सुबह से लेकर साझ तक एक प्रार्थना होता है। प्रार्थना एक भाव है: उसे तुम जीते हो, उसे तुम कोई क्रिया नहीं बनाते।
एपीकुरस समझ सकता था पतंजलि को। मैं समझ सकता हूं उन्हें। मैं अनुभव कर सकता हूं कि क्या मतलब है उनका। यह तुम्हारे लिए ही है जो मैं बोल रहा हूं यह सब, ताकि तुम भ्रम में न पड़ जाओ, क्योंकि दूसरी व्याख्याएं भी हैं जो ठीक इसके विपरीत ही पड़ती हैं।

 क्रियायोग एक प्रायोगिक प्राथमिक योग है और वह संघटित हुआ है— सहज— संयम ( तप), स्वाध्याय और ईश्वर के प्रति समर्पण से।

 पहला शब्द है—सहज—संयम। स्व—पीड़कों ने सहज—संयम को स्व—पीड़ा में बदल दिया। वे सोचते हैं कि जितनी ज्यादा पीड़ा तुम देह को पहुंचाते हो, उतने ज्यादा तुम आध्यात्मिक बनते हो। देह को रत्पीडित करना एक मार्ग है आध्यात्मिक होने का—यही समझ होती है एक स्व—पीड़क की।
देह को पीड़ा पहुंचाना कोई मार्ग नहीं। उत्पीड़न आक्रामक होता है। चाहे तुम दूसरों को पीड़ा पहुंचाओ या कि स्वयं को, यह बात ही आक्रामक होती है, और आक्रामकता कभी धार्मिक नहीं हो सकती है। दूसरों के शरीर को उत्पीड़ित करने और तुम्हारे अपने शरीर को उत्पीड़ित करने के बीच भेद—क्या होता है? क्या भेद होता है? शरीर है 'दूसरा'। तुम्हारा अपना शरीर भी दूसरा है। तुम्हारा अपना शरीर थोड़ा निकट है और दूसरे का शरीर कुछ दूर है, बस इतनी ही है बात। क्योंकि तुम्हारा शरीर ज्यादा नजदीक है इसलिए उसके तुम्हारी हिंसा का शिकार बनने की ज्यादा संभावना है, तुम उत्पीड़ित कर सकते हो उसको। और हजारों सालों से लोग अपने शरीरों को पीड़ा पहुंचाते रहे हैं इस झूठी धारणा के साथ कि यही है ईश्वर की ओर ले जाने का मार्ग।
पहली बात ईश्वर ने क्यों दिया तुम्हें शरीर? उसने तुम्हें कोई अंग शरीर को उत्पीड़ित करने के लिए नहीं दिया है। बल्कि इसके विपरीत, उसने तुम्हें दिया है संवेदनाओं को, संवेदनशीलता को, इंद्रियों को—उससे आनंदित होने के लिए—उत्पीड़ित होने के लिए नहीं। ईश्वर ने तुम्हें बहुत संवेदनशील बनाया है क्योंकि संवेदनशीलता के द्वारा जागरूकता विकसित होती है।
यदि तुम पीड़ा पहुंचाते हो तुम्हारे शरीर को तो तुम ज्यादा और ज्यादा संवेदनशून्य हो जाओगे। यदि तुम काटो के बिस्तर पर लेट जाओ, तो धीरे— धीरे तुम संवेदनशून्य हो जाओगे। शरीर बन ही जाएगा संवेदनशून्य, अन्यथा कैसे तुम निरंतर सहन कर सकते हो कीटों को? शरीर तो एक तरह से मर ही जाएगा, वह खो देगा अपनी संवेदनशीलता। यदि तुम निरंतर खड़े रहते हो तपते सूर्य की गरमी में, शरीर स्वयं को बचाएगा असंवेदनशील होकर। यदि तुम हिमालय जाकर नग्न बैठ जाते हो जब कि बर्फ गिर रही होती है और सारी पर्वतमाला ढंकी होती है बर्फ से, तो धीरे— धीरे, शरीर अपनी संवेदनशीलता खो देगा ठंड के कारण, वह बन जाएगा मुरदा शरीर।
और एक मुरदा शरीर के द्वारा कैसे तुम अनुभव कर सकते हो अस्तित्व के आशीष को? कैसे तुम अनुभव कर सकते हो अनुग्रह की निरंतर वर्षा को जो कि हर क्षण घट रही है? अस्तित्व लाखों—लाखों आशीष बरसाए चला जाता है, तुम उन्हें गिन तक नहीं सकते। वस्तुत: धार्मिक आदमी बनने के लिए तुम्हें कम की नहीं, ज्यादा संवेदनशीलता की जरूरत होती है, क्योंकि जितने अधिक संवेदनशील तुम होते हो, उतनी ही अधिक भगवत्ता तुम हर कहीं देख पाओगे। संवेदनशीलता बन जाती है एक आंख एक खुलापन। जब तुम संपूर्णतया संवेदनशील हो जाते हो, तो 'हवा का कोई एक हलका झोंका भी तुम्हें छू लेता है और तुम्हें दे जाता है कोई संदेश। और हवा में थर्राता एक साधारण पत्ता भी इतनी जबरदस्त घटना बन जाता है तुम्हारी संवेदनशीलता के कारण ही। तुम देखते हो एक साधारण पत्थर को और वह बन जाता है कोहनूर। यह निर्भर करता है तुम्हारी संवेदनशीलता पर।
जीवन अधिक होता है यदि तुम अधिक संवेदनशील होते हो; जीवैन कम होता है यदि तुम कम संवेदनशील होते हो। यदि तुम्हारे पास बिना किसी संवेदना का पूरा लकड़ी का ही शरीर हो, तो जीवन बिलकुल शून्य होता है, जीवन फिर वहां बचता ही नहीं; तुम पहले से ही पहुंचे होते हो तुम्हारी कब्र में। स्वयं को पीड़ा पहुंचाने वालों ने किया है ऐसा। साधना एक प्रयास बन जाती है शरीर और संवेदनशीलता को मारने का।
मेरे देखे, बिलकुल विपरीत होता है ढंग। तप का मतलब उत्पीड़न नहीं है; तप का मतलब है सहज जीवन, एक सरल जीवन। क्यों सरल जीवन? क्यों बहुत जटिल जीवन न हो? क्योंकि जीवन जितना अधिक जटिल होता है, उतने ही कम संवेदनशील होओगे तुम। एक धनी व्यक्ति कम संवेदनशील होता है निर्धन व्यक्ति की अपेक्षा, क्योंकि धन एकत्रित करने के उसके प्रयत्न ने ही उसे संवेदनशून्य बना दिया होता है। यदि तुम्हें धन एकत्रित करना हो तो तुम्हें होना ही होता है असंवेदनशील। तुम्हें पूरी तरह खूनी की तरह बनना होगा और परवाह नहीं करनी होगी कि दूसरों को क्या हो रहा है। तुम खजाने संचित किए चले जाते हो, और दूसरे मर रहे होते हैं। तुम अधिकाधिक धनवान होते चले जाते हो, और दूसरे अपना जीवन ही खो रहे होते हैं इसमें। एक धनी व्यक्ति होता ही है असंवेदनशील, अन्यथा वह धनवान हो नहीं सकता। कैसे करेगा वह शोषण? यह बात तो असंभव ही होगी।
मैंने सुना है एक बहुत बड़े धनवान के बारे में मुल्ला नसरुद्दीन उससे मिलने के लिए गया। जो अनाथालय वह चला रहा था उसके लिए कुछ अनुदान चाहिए था उसे। वह धनपति कहने लगा, 'ठीक है नसरुद्दीन मैं तुम्हें कुछ दूंगा। लेकिन मेरी एक शर्त है और किसी ने उसे पूरा नहीं किया। मेरी आंखों में देखो; एक आंख नकली है और दूसरी आंख असली है। यदि तुम मुझे बिलकुल ठीक—ठीक बता सको कि कौन—सी आंख नकली है: और कौन—सी असली है, तो मैं अनुदान दूंगा।नसरुद्दीन ने देखा ध्यान से उसकी आंखों की ओर और बोला, 'बायीं आंख असली है और दायीं आंख नकली है,हैरान होकर वह धनपति कहने लगा, 'लेकिन तुमने कैसे बता दिया?' वह बोला, 'क्योंकि मैं दायीं आंख में देख सकता हूं थोड़ी बहुत करुणा; तो जरूर वही होगी नकली।
उसने देखी थी थोड़ी करुणा, एक हल्की—सी चमक, और वह नकली ही होनी थी। यदि संवेदन— शील हो तो धनवान धनवान ही नहीं होता। धन इकट्ठा करते—करते वह मरता ही जाता है।
तुम्हारे शरीर को मारने के दो तरीके हैं एक तरीका है स्व—पीड़क का जो कि पीड़ा पहुंचाता है। दूसरा तरीका है धनपति का जो कि धन और कूड़ा—करकट इकट्ठा करता रहता है। धीरे— धीरे वह सारा कूड़ा—करकट जिसे वह जमा कर लेता है, एक बाधा बन जाता है और वह कहीं बढ़ नहीं सकता, वह देख नहीं सकता, वह सुन नहीं सकता, वह स्वाद नहीं ले सकता, वह सूंघ नहीं सकता।
सरल जीवन का अर्थ होता है बिना उलझाव का जीवन। ध्यान रहे, यह कोई गरीबी का पोषण नहीं, क्योंकि यदि तुम गरीबी को पोषित करते हो प्रयास द्वारा, तो फिर वह पोषण ही तुम्हें मार देगा।
सहज जीवन एक गहरी समझ का जीवन होता है, जानबूझ कर बढ़ाने—सजाने का नहीं। वह गरीब—होने का अभ्यास नहीं। तुम गरीब होने का अभ्यास कर सकते हो, लेकिन उस अभ्यास द्वारा तुम्हारी संवेदनाएं कठोर हो जाएंगी। किसी भी चीज का अभ्यास तुम्हें कठोर बना देता है, कोमलता—खो जाती है, लचीलापन चला जाता है। फिर तुम बच्चे की तरह लचीले नहीं रहते। तब तुम जड़ बन जाते हो किसी वृद्ध की भांति। लाओत्सु कहता है, 'जड़ता मृत्यु है, लचीलापन जीवन है।सहज— सरल जीवन, पोषित किया दरिद्र जीवन नहीं होता। गरीबी को अपना उद्देश्य मत बनाओ और उसे बढ़ाने की कोशिश मत करो। जरा—सा समझ भर लो कि जितना ज्यादा सहज, निर्भार तुम्हारा शरीर और मन होता है, उतने ज्यादा तुम प्रवेश कर सकते हो अस्तित्व में। निर्भार होकर तुम सत्य के सीधे संपर्क में आ सकते हो; भार सहित ऐसा नहीं हो सकता। धनपति के रास्ते में सदा उसका बैंक—खाता आ जमता है।
तुम देखते हो इंग्लैंड की महारानी को, एलिजाबेथ को? वह हाथ तक नहीं मिला सकती बिना दस्ताने के। मानव—स्पर्श भी कोई अशुद्ध चीज जान पड़ता है, कोई असुंदर चीज! रानी, राजा घेरे में बंद हुए जीते हैं, यह कोई हाथ की बात ही नहीं। वह तो एक प्रतीक मात्र है यह बताने का कि रानी का जीवन दफन हो गया है, वह जीवंत नहीं है।
मध्ययुग में योरोप में ऐसा विचार चलता था कि राजाओं और रानियों की दो टांगें नहीं होती हैं, क्योंकि किसी ने कभी उन्हें निरावरण देखा ही नहीं होता था। ऐसा सोचा जाता था कि उनके एक ही टांग होगी। वे मानव नहीं, वे दूरी पर रहे होते थे।
अहंकार सदा दूरी पर रहने की कोशिश करता है, और दूरी तुम्हें संवेदनशून्य बना देती है। तुम जाकर सड़क पर खेलते बच्चे को छू नहीं सकते। तुम किसी पेड़ के पास जाकर उससे लिपट नहीं सकते। तुम जीवन के ज्यादा निकट नहीं जा सकते, तुम दिखावा कर रहे होते हो कि तुम जीवन से ज्यादा ऊंचे हो, जीवन से ज्यादा महान हो, जीवन से ज्यादा बड़े हो। दूरी निर्मित करनी पड़ती है, और केवल तभी तुम जीवन से ज्यादा बड़े होने की बात का दिखावा कर सकते हो। लेकिन जीवन तो कुछ नहीं गंवा रहा, तुम्हारी इस मूढ़ता द्वारा तुम्हीं अधिकाधिक संवेदनशून्य बनते जा रहे हो। तुम तो पहले से ही मरे हुए हो। जीवन मांग करता है तुम्हारे ज्यादा जीवंत होने की।
जब पतंजलि कहते हैं 'तप', तो उनका मतलब है—सरल—सहज होओ, सहजता को गढ़ो मत। क्योंकि गढ़ी हुई सरलता, सरलता नहीं होती है। गढ़ी हुई सरलता कैसे हो सकती है सरल? वह तो बहुत जटिल होती है, तुम प्रयास कर रहे होते हो, गणना कर रहे होते हो, आरोपण कर रहे होते हो।
मैं जानता हूं एक व्यक्ति को, जहां वह रहता था उस गांव से मेरा गुजरना हुआ। मेरे ड्राइवर ने कहां, 'आपका मित्र तो यहीं रहता है, बस गाव के बाहर ही।तो मैंने कहां, 'अच्छा है। कुछ देर के लिए मैं जाऊंगा उससे मिलने, और देखूंगा कि वह अब क्या कर रहा है।वह एक जैन मुनि था। जब मैं पहुंचा उसके घर के पास तो उसे भीतर नग्न चलते हुए देख सकता था खिड़की से। जैन मुनियों की पांच अवस्थाएँ होती हैं; धीरे— धीरे वे अभ्यास करते हैं सरलता का। पांचवीं, आखिरी अवस्था पर वे नग्न हो जाते हैं। पहले वे पहनते हैं तीन वस्त्र, फिर दो, फिर एक, और फिर वह भी गिरा देना होता है। यह अवस्था सरलता का उच्चतम आदर्श होती है, जब कोई नितांत नग्न हो जाता है; धारण करने को कुछ न रहा—कोई बोझ नहीं, कोई कपड़े नहीं, कोई चीज नहीं। लेकिन मैं जानता था कि वह आदमी दूसरी अवस्था पर था, तो फिर क्यों हुआ वह नग्न?
मैंने द्वार खटखटाया। उसने खोला द्वार, लेकिन अब तो वह लुंगी पहने हुए था तो मैंने पूछा, 'बात क्या है? बिलकुल अभी तो मैंने तुम्हें खिड़की से देखा और तुम नग्न थे।वह कहने लगा, 'हां, मैं अभ्यास कर रहा हूं। मैं पांचवीं, अंतिम अवस्था के लिए अभ्यास कर रहा हूं। पहले, मैं घर के भीतर अभ्यास करूंगा, फिर मित्रों के साथ, फिर धीरे— धीरे मैं गांव में जाया करूंगा और फिर दुनिया भर में। मुझे अभ्यास करना होगा। मुझे कम से कम थोड़े से वर्ष तो लगेंगे ही उस शर्म को गिराने में, संसार में नग्न घूमने के लिए पर्याप्त रूप से साहसी होने में।मैंने कहां उससे, 'बेहतर था तुम सरकस में भरती हो गए होते। तुम हो जाओगे नग्न, लेकिन अभ्यास से आयी नग्नता सहज नहीं होती है; वह बहुत गुणनात्मक होती है। तुम बहुत चालाक होते हो, और तुम चालाकी के साथ कदम—दर—कदम सरक रहे होते हो। वस्तुत: तुम कभी नग्न होओगे ही नहीं। अभ्यास से आई नग्नता फिर कपड़ों की भांति ही होगी, बहुत सूक्ष्म कपड़ों की भांति। तुम उन्हें अभ्यास द्वारा निर्मित कर रहे होते हो।
'यदि तुम किसी निर्दोष बालक की भांति अनुभव करते हो, तो तुम गिरा ही दोगे कपड़ों को और उसी तरह चलोगे संसार में। भय क्या है? कि लोग हसेंगे? क्या गलत है उनकी हंसी में?—हंसने दो उनको। तुम भी भाग ले सकते हो, तुम भी हंस सकते हो उनके संग। वे तुम्हारा मजाक उड़ाके? तो यह भी ठीक ही है, क्योंकि लोग तुम्हारा मजाक उड़ाए, इससे ज्यादा अहंकार को कुछ और नहीं मारता है। यह अच्छा होता है, वे तुम्हारी मदद कर रहे होते हैं। लेकिन पांच वर्ष के अभ्यास द्वारा तो तुम सारी बात ही चूक जाओगे। नग्नता निर्दोष होनी चाहिए किसी बालक की भांति ही। नग्नता एक समझ होनी चाहिए, न कि कोई अभ्यास। अभ्यास द्वारा, तुम समझ के लिए एक विकल्प ढूंढ रहे होते हो। निर्दोषता मन की चीज नहीं, वह तुम्हारी गणना का, तुम्हारी बुद्धि का हिस्सा नहीं। निर्दोषता हृदय की एक समझ है।
सहजता का, सादगी का अभ्यास नहीं किया जा सकता है। तुम्हें केवल ध्यान से देखना है जीवन को और समझ लेना है कि जितने ज्यादा तुम जटिल हो जाते हो उतने कम संवेदनशील होते जाते हो तुम। और जितने कम संवेदनशील होते हो तुम, उतने ही दूर होते हो तुम परमात्मा से। तुम जितने ज्यादा संवेदनशील होते हो, उतने तुम और— और निकट होते हो। एक दिन आता है जब तुम तुम्हारे अस्तित्व की मूल जड़ों के प्रति संवेदनशील हो जाते हो, अचानक तुम फिर बचते ही नहीं, तुम होते हो मात्र एक संवेदना, एक संवेदनशीलता। तुम अब नहीं रहते, तुम होते हो केवल एक जागरूकता। और तब हर चीज सुंदर होती है, हर चीज जीवंत होती है, कुछ भी मृत नहीं होता।
हर चीज चेतनापूर्ण है; कोई चीज मृत नहीं। हर चीज चेतन है, कुछ अचेतन नहीं। तुम्हारी संवेदन— शीलता के साथ ही, संसार बदल जाता है। अंतिम घड़ी में, जब संवेदनशीलता अपनी संपूर्णता तक पहुंचती है, अपने परम शिखर पर, तो संसार खो जाता है, वहां होता है परमात्मा। वस्तुत: परमात्मा को नहीं पाना है, संवेदनशीलता को पा लेना है। इतनी समग्रता से संवेदनशील हो जाओ कि कुछ भी पीछे न छूटे, कोई जबरदस्ती का नियंत्रण नहीं, और अचानक परमात्मा वहा मौजूद होता है। परमात्मा सदा से ही है वहां, केवल तुम ही संवेदनशील न थे।
मेरे देखे, सहज—संयम है सरल—सहज जीवन, समझ भरा एक जीवन। तुम्हें झोपड़ी में जाकर रहने की कोई जरूरत नहीं, तुम्हें नग्न हो जाने की कोई जरूरत नहीं। तुम जीवन में सरलता—सहजता से रह सकते हो, एक समझ के साथ। गरीबी मदद न देगी बल्कि समझ देगी मदद। तुम गरीबी लाद सकते हो तुम्हारे ऊपर, तुम मैले—कुचैले बन सकते हो, लेकिन उससे कोई मदद न मिलेगी।
पश्चिम में अब हिप्पियों के साथ और उसी तरह के और लोगों के साथ यही हो रहा है। वे वही गलती कर रहे हैं जो भारत एक लंबे समय से करता चला आ रहा है। अतीत में भारत परिचित रहा है हर प्रकार के हिप्पियों से। जितने गंदे से गंदे जीवन संभव हैं उन्हें जीया है उन्होंने। केवल तप के नाम पर उन्होंने स्नान नहीं किए क्योंकि उन्होंने महसूस किया, 'क्यों फिक्र करनी और क्यों सजाना शरीर को?' क्या तुम जानते हो कि जैन मुनि नहाते नहीं हैं? तुम बैठ नहीं सकते हो उनके पास, उनके पास से बदबू आती है। वे अपने दात साफ नहीं करते। तुम उनसे बात नहीं कर सकते, दुर्गंध आती है, बदबू उठती है उनके मुंह से। और इसे तप—संयम माना जाता है, क्योंकि वे कहते हैं, 'नहाना या शरीर साफ रखना भी भौतिकवादी होना है। तब तुम बहुत ज्यादा, जुड़ जाते हो शरीर से, तो क्यों चिंता करनी?' लेकिन इस तरह का दृष्टिकोण तो ऐसा हुआ कि दूसरी अति की ओर सरकना, एक मूढ़ता से दूसरी मूढ़ता तक बढ़ना।
ऐसे लोग हैं जो चौबीस घंटे शरीर के साथ ही व्यस्त रहते। तुम खोज सकते हो ऐसी स्त्रियों को जो कि दर्पण के सामने घंटों गवाती रहती हैं। यह हुई एक तरह की मूढ़ता : बस निरंतर साफ किए चले जाना एक हिस्से को ही, कभी ध्यान न देना कि वह तो केवल एक हिस्सा ही है। यह अच्छा है, साफ करना उसे, लेकिन उसे सारा दिन लगातार ही साफ मत करते रहना, वरना वह बात एक रुग्ण ग्रस्तता हो जाती है। स्वच्छ देह अच्छी होती है, लेकिन उसे साफ करते रहने की एक निरंतर सनक—वह तो पागलपन है। ऐसे लोग हैं जो निरंतर अपने शरीरों को सजाए चले जा रहे हैं। दुनिया के लगभग आधे उद्योग जुटे हुए हैं देह की साज—सज्जा को लेकर ही, पाउडर हैं, साबुन हैं, इत्र हैं।
स्वच्छता अच्छी चीज है, पर उसकी कोई मनो—ग्रस्तता नहीं होनी चाहिए। वह आब्‍शेसन बन गई थी पश्चिम में, और अब है दूसरा छोर। जो लोग बहुत ज्यादा संबंधित होते हैं देह के साथ, कपड़ों के और सफाई के साथ और ऐसी कई बातो के साथ, वे व्यवस्थाबद्ध लोग होते हैं। लेकिन हिप्पी तो दूसरी अति तक बढ गए हैं—वे बिलकुल ही परवाह नहीं करते। वे गंदे होते हैं, और गंदगी ही बन गई है धर्म! जैसे कि गंदे होने भर से ही, वे पा जाएंगे कुछ। वे तो बस ज्यादा और ज्यादा असंवेदनशील होते जाते हैं जीवन की सुंदरताओं के प्रति।
तुम बहुत असंवेदनशील हो गए हो तभी तो नशे इतने महत्वपूर्ण हो गए हैं। अब लगता है कि रासायनिक नशों के बिना तो तुम संवेदनशील हो ही नहीं सकते। अन्यथा एक सहज—सादा व्यक्ति तो इतना संवेदनशील होता है कि उसे जरूरत ही नहीं होती नशों की। जो कुछ तुम अनुभव करते हो नशों के द्वारा, वह अनुभव कर लेता है केवल अपनी संवेदनशीलता द्वारा ही। तुम नशा करते हो और एक साधारण वृक्ष बन जाता है एक अदभुत घटना—हर एक पत्ता स्वयं में एक अनुपम संसार होता है, एक वृक्ष में हजारों हरीतिमाए होती हैं। और हर फूल प्रकट करता है प्रकाश, बन जाता है इंद्रधनुषी रंगावली। एक साधारण वृक्ष जिसके पास से तुम कई बार गुजरे होते हो और कभी भी देखा नहीं होता उसकी ओर, अचानक हो जाता है एक स्‍वप्‍न, एक भावोल्लास, एक रंगीन इंद्रधनुष। ऐसा ही है जो कि घटता है नशे का प्रयोग न करने वाले एक संवेदनशील व्यक्ति को। नशे का मतलब है कि तुम इतने कठोर और हतोत्साही और मुरदा हो गए हो कि अब रासायनिक आक्रामकता की आवश्कता होती है तुम्हारे शरीर पर। केवल तभी कुछ घड़ियों के लिए वातायन खुलेगा और तुम देखोगे जीवन की कविता को, और फिर बंद हो जाएगा वातायन; और अधिक से अधिक नशे की मात्रा की जरूरत होगी। एक घड़ी आएगी जबकि नशे भी मदद न देंगे। तब तुम सचमुच ही पत्थर हो जाओगे।
ज्यादा संवेदनशील होओ, ज्यादा सहज हो जाओ। और जब मैं कहता हूं 'हो जाओ', तो मेरा मतलब अभ्यास करने से नहीं—होता, मेरा मतलब समझ लेने से होता है। समझने की कोशिश करना कि जब कभी तुम सहज—सरल होते हो, तो चीजें सुंदर होती जाती हैं। जब कभी तुम जटिल होते हो, तो चीजें होती जाती हैं समस्या से भरी हुई; तुम और पहेली बना लेते हो सुलझाने को और हर चीज उलझ जाती है, एक झंझट बन जाती है।
आवश्यकताओं की पूर्ति करने वाली सीधी—सादी जिंदगी जीयो, बिना पागल इच्छाओं वाली जिंदगी। तुम्हें आवश्यकता है भोजन की, तुम्हें आवश्यकता है कपड़ों की, तुम्हें आवश्यकता है एक छत की—खत्म हो गई बात। तुम्हें कोई चाहिए प्रेम करने को, तुम्हें कोई चाहिए जो तुम्हें प्रेम करे। प्रेम, भोजन, कमरा—सीधी—सहज बात; लेकिन तुम खड़ी कर लेते हो लाखों—लाखों इच्छाएं। यदि तुम्हें रॉल्स—रॉयस चाहिए तो कठिनाइयां उठ खड़ी होती हैं; यदि तुम्हें महल चाहिए या तुम संतुष्ट नहीं साधारण स्त्रियों से, तुम्हें चाहिए विश्व—सुंदरी—और तुम्हारी सारी विश्व—सुंदरियां करीब—करीब मुरदा होती हैं—तो तुम चाहते हो असंभव चीजें। तो तुम आगे और आगे की सोचते जाते हो। और तुम्हें स्थगित करते जाना होता है 'किसी दिन जब मेरे पास महल होगा तो मैं शांति से बैठूंगा।लेकिन इस बीच तो जीवन बहा जा रहा है तुम्हारे हाथों से। यदि कभी ऐसा हो जाए कि तुम पा लो तुम्हारा महल तो तुम भूल चुके होंगे शांतिपूर्वक बैठना। क्योंकि महल के पीछे दौड़ते— भागते, तुम बिलकुल भूल ही जाओगे कि कैसे बैठा जाता है।
ऐसा घटता है सभी महत्वाकांक्षी लोगों को। वे दौड़ते जाते हैं, तब दौड़ना उनके जीवन का ही एक ढंग बन जाता है। एक घड़ी आती है, जब वे पा लेते हैं, लेकिन अब फिर वे रुक नहीं सकते। तुम इसे बखूबी जानते हो कि यदि सारा दिन तुम सोचते ही जाओ, तो तुम रुक नहीं सकते।
एक दिन मुल्ला नसरुद्दीन घर लौटा कुछ करने और उसे न भूलने की बात सोच कर। उसने अपने कपड़ों में एक गांठ लगा दी जिससे कि उसे याद रहे। फिर जब वह घर आया, वह बड़ा बेचैन था क्योंकि वह भूल चुका था। गाठ वहा मौजूद है, लेकिन किसलिए?' उसने कोशिश की सोचने की। उसकी पत्नी ने बार—बार कहां, ' अब तुम सो जाओ और कल सुबह हम देख लेंगे।फिर भी वह कहने लगा, 'नहीं, कोई बहुत ही जरूरी बात है। वह जरूरी थी और मैंने सोच लिया था कि उसे आज रात ही करना है। किसी भी कीमत पर मैं उसकी उपेक्षा नहीं कर सकता, इसलिए तुम सो जाओ।आधी रात जब घड़ी ने दो का घंटा बजाया, तो उसे याद आया। उसने तय किया था कि जल्दी सो जाना है। यही बात याद दिलाने के लिए थी वह गांठ।
यही कुछ घट रहा है सभी महत्वाकांक्षी लोगों को। वे इतनी ज्यादा इच्छाएं बना लेते हैं कि जब तक वे लक्ष्य प्राप्त करते हैं, तब तक वे बिलकुल भूल ही जाते हैं कि किस बात को पाना चाह रहे थे वे। पहली बात, वे इतनी सारी बातो की आकांक्षा कर ही किसलिए रहे थे? अब प्राप्ति हो गई है उन्हें और भूल गए हैं वे। यदि उन्हें यह भी याद रहा हो कि वे शांत हो जाना चाहते थे, विश्रांति पाना चाहते थे, तो उनके जीवन का सारा ढांचा—ढर्रा और सारी बद्धताएं उन्हें विश्रांति पाने न देंगे; उन्हें शांति से बैठने न देंगे और आनंदित होने न देंगे। जब तुम जीवन भर महत्वाकाक्षाओं सहित दौड़े होते हो, तो तुम आसानी से रुक नहीं सकते। दौड़ना तुम्हारा अस्तित्व ही बन जाता है। यदि तुम ठहरना चाहते हो, तो यही होती है घड़ी। इसके लिए कोई भविष्य नहीं, यही वर्तमान क्षण ही है।
आवश्यकताएं सीधी—सरल होती हैं। कोई आदमी बड़ा सरल, सादा जीवन जी सकता है और उससे आनंदित हो सकता है। खूब बढ़िया भोजन की जरूरत नहीं होती आनंदपूर्वक भोजन का स्वाद लेने के लिए, केवल एक बढ़िया जिह्वा की जरूरत होती है। जिस समय तुम बड़ा बढ़िया भोजन जुटा पाने के योग्य होओगे, तुम क्षमता ही खो चुके होओगे आनंदपूर्वक उसका स्वाद लेने की। आनंद मनाना उसका जब कि संवेदनशीलता का क्षण है। आनंद मनाना उसका जब कि तुम जीवित हो। उसे गंवाना मत और उसे स्थगित मत करना।
एक सीधा—सादा आदमी जीता है पल प्रतिपल, यह दिन अपने में पर्याप्त होता है, और आने वाला कल अपना खयाल अपने आप रख लेगा। जीसस फिर—फिर कहते हैं, 'जरा बाग में लिली के फूलों को देखना, कितने सुंदर हैं! वे आनेवाले कल की फिक्र नहीं करते। सोलोमन भी अपनी सर्वाधिक महिमा—मंडित घड़ियों में इतना सुंदर न था जितने कि ये बाग के साधारण लिली के फूल!'
जरा इन पक्षियों की ओर तो देखो, वे आनंद मनाते हैं। इसी क्षण में सारा अस्तित्व उत्सव मना रहा है—सिवाय तुम्हारे।
आदमी के साथ मुश्किल क्या है? मुश्किल यह है कि वह सोचता है कि आनंदित होने के लिए पहले किन्हीं खास अवस्थाओं की पूर्ति आवश्यक है, यही है अड़चन। जीवन का आनंद मनाने के लिए वस्तुत: किन्हीं शर्तों को पूरा नहीं करना होता, वह तो एक बेशर्त निमंत्रण है। लेकिन आदमी सोचता है कि पहले तो खास शर्तें पूरी करनी हैं, केवल तभी वह जीवन का आनंद मना सकता है। यही होता है एक जटिल मन। सरल मन अनुभव करता है कि जो कुछ भी उपलब्ध है उससे ही आनंदित होना है। आनंदित होओ उससे। किन्हीं शर्तों की पूर्ति नहीं करनी है। और जितना ज्यादा तुम इस क्षण का आनंद मनाते हो, उतने ही ज्यादा तुम अगले क्षण का आनंद मनाने योग्य होते हो। क्षमता बढ़ती है; और— और ज्यादा होती जाती है वह, ऊंचे से ऊंचे चलती जाती है वह—वह अपरिसीम होती है। और जब तुम पहुंचते हो आनंद की अपरिसीमितता तक, वही तो है परमात्मा। परमात्मा कोई व्यक्ति नहीं है जो बैठा हुआ है कहीं पर और प्रतीक्षा कर रहा है तुम्हारी। अब तक तो वह तुम्हारी प्रतीक्षा करते—करते ऊब चुका होगा। उसने तो आत्महत्या ही कर ली होगी यदि उसमें कुछ बुद्धि हो तो—तुम्हारी प्रतीक्षा करते हुए।
परमात्मा कोई व्यक्ति नहीं। वह कोई लक्ष्य नहीं, वह एक ढंग है यहीं और अभी जीवन का आनंद मनाने का। परमात्मा एक दृष्टि है अकारण ही आनंदमय होने की। तुम बिना किसी कारण ही दुखी होते हो, यह होता है जटिल मन।
मैंने देखा एक दिन मुल्ला नसरुद्दीन को एक धनी व्यक्ति के मरने पर उसके शव के पीछे जाते हुए। सारा शहर पीछे—पीछे आ रहा था और मुल्ला नसरुद्दीन चीख रहा था और रो रहा था बहुत बुरी तरह से। तो मैंने पूछा उससे, 'बात क्या है नसरुद्दीन? क्या तुम इस धनपति के कोई रिश्तेदार थे?' वह बोला, 'नहीं—नहीं।’ 'तो फिर तुम रो क्यों रहे हो?' मैंने पूछा। वह बोला, 'क्योंकि मैं उसका रिश्तेदार नहीं था, इसीलिए तो रोता हूं।
लोग रो रहे होते हैं क्योंकि वे संबंधित होते हैं। लोग रो रहे होते हैं क्योंकि वे संबंधित नहीं होते हैं। ऐसा जान पड़ता है कि तुम तो हर अवस्था में रोना ही चाहते हो। तुम अकारण ही दुखी हो। एक भी ऐसा आदमी मेरे देखने में नहीं आया है जिसके पास सचमुच ही दुखी होने का कोई कारण हो। तुम्हीं निर्मित कर लेते हो उसे, क्योंकि बिना किसी कारण दुखी होना तो पागलपन मालूम पड़ता है। तुम्हीं बना लेते हो कोई कारण। तुम विवेचन करते, तर्क बैठाते, तुम खोज लेते, तुम आविष्कार कर लेते, तुम बहुत बड़े आविष्कारक हो और जब तुमने खोज लिया होता है कारण या कि बना लिया होता है कारण, आविष्कार कर लिया होता है किसी कारण का, तब तुम निश्चित होते हो। अब कोई नहीं कह सकता कि तुम अकारण ही दुखी हो।
वस्तुत: स्थिति यह है किसी दुख का कोई कारण नहीं और किसो आनंद का कोई कारण नहीं। वह तो केवल तुम्हारी दृष्टि पर निर्भर करता है। यदि तुम प्रसन्न होना चाहते हो, तो तुम हो सकते हो, स्थिति जो भी हो, स्थिति अप्रासंगिक होती है। प्रसन्न होना एक क्षमता है, किसी स्थिति के बावजूद तुम प्रसन्न हो सकते हो। लेकिन यदि तुमने तय ही कर ली हो दुखी होने की बात तो किसी भी स्थिति के बावजूद तुम दुखी हो सकते हो, स्थिति अप्रासंगिक होती है। यदि स्वर्ग में भी तुम्हें प्रवेश दिया जाए, तुम्हारा स्वागत किया जाए, तो तुम दुखी ही होओगे, तुम कोई न कोई कारण खोज ही लोगे।
एक बड़े रहस्यवादी, तिब्बती संत मारपा से पूछा गया, 'क्या आपको पूरा यकीन है कि जब आप मरेंगे, तो आप स्वर्ग को जाएंगे?' वह बोला, 'सुनिश्चित ही।वह आदमी कहने लगा, 'लेकिन आप इतने निश्चित कैसे हो सकते हैं? आप मरे नहीं हैं और आप नहीं जानते कि परमात्मा के मन में क्या है।मारपा कहने लगा, 'मुझे परमात्मा के मन की चिंता नहीं, वह उनकी अपनी बात है। मैं निश्चित हूं तो अपने ही मन के कारण। जहां कहीं मैं रहूं मैं खुश रहूंगा और वही जगह स्वर्ग होगी। तो इससे कुछ फर्क नहीं पड़ता है कि चाहे मुझे नरक में फेंक दो या कि स्वर्ग में। वह बात अप्रासंगिक है।
एडोल्फ हिटलर के बारे में मैंने एक बहुत सुंदर घटना सुनी है। उसे अपने मित्रों द्वारा पता चला कि एक यहूदी स्त्री है बड़ी ज्योतिषी और भविष्य के बारे में जो कुछ भी बताती रही है, वह हमेशा सच हुआ है। हिटलर कुछ हिचक रहा था क्योंकि वह स्त्री तो यहूदी थी। लेकिन फिर यह बात उसके मन को घेरे रही, कई दिनों तक वह सो न सका: 'यदि वह स्त्री सचमुच ही भविष्यवाणी कर सकती है, तब पूछने की बात सार्थक है, चाहे वह यहूदी ही हो।स्त्री को गुप्त रूप से बुलाया गया। हिटलर ने पूछा, 'क्या तुम मुझे बता सकती हो कि कब मरूंगा मैं?' उस स्त्री ने अपनी आंखें बंद कर लीं, ध्यानपूर्वक विचार किया और बोली, 'यहूदी छुट्टी का दिन।हिटलर बोला, 'मतलब क्या है तुम्हारा, कौन—सा छुट्टी का दिन?' वह बोली, 'वह बात अप्रासंगिक है। जब कभी मरेंगे आप, वह यहूदियों का छुट्टी का दिन होगा।मारपा ने कहां था, 'यह बात अप्रासंगिक है कि परमात्मा के मन में क्या है। जहां कहीं मैं जाऊं, वहा स्वर्ग ही होगा—क्योंकि मैं जानता हूं, बिना किसी कारण मैं प्रसन्न हूं।
एक सादगी से भरा व्यक्ति जान लेता है कि प्रसन्नता जीवन का स्वभाव है। प्रसन्न रहने के लिए किन्हीं कारणों की जरूरत नहीं होती है। बस, तुम प्रसन्न रह सकते हो केवल इसीलिए कि तुम जीवित हो! जीवन प्रसन्नता है, जीवन आनंद है, लेकिन ऐसा संभव होता है केवल एक सहज—सादे व्यक्ति के लिए ही। वह आदमी जो चीजें इकट्ठी करता रहता है, हमेशा सोचता है कि इन्हीं चीजों के कारण उसे प्रसन्नता मिलने वाली है। आलीशान भवन, धन, सुख—साधन; वह सोचता है कि इन्हीं चीजों के कारण वह प्रसन्न होने वाला है। समस्या धन—दौलत की नहीं है, समस्या है आदमी की दृष्टि की जो धन खोजने का प्रयास करती है। दृष्टि यह होती है जब तक मेरे पास ये तमाम चीजें नहीं हो जातीं, मैं प्रसन्न नहीं हो सकता। यह आदमी सदा दुखी रहेगा। एक सच्चा सादगीपसंद आदमी जान लेता है कि जीवन इतना सीधा—सरल है कि जो कुछ भी है उसके पास, उसी में वह खुश हो सकता है। इसे किसी दूसरी चीज के लिए स्थगित कर देने की उसे कोई जरूरत नहीं है।
तब सादगी का अर्थ होगा तुम्हारी आवश्यकताओं तक आ जाओ, इच्छाएं पागल होती हैं आवश्यकताएं स्वाभाविक होती हैं। भोजन, घर, प्रेम, तुम्हारी सारी जीवन—ऊर्जा को मात्र आवश्यकताओं के तल तक ले आओ, और तुम आनंदित होओगे। और एक आनंदित व्यक्ति धार्मिक होने के अतिरिक्त और कुछ नहीं हो सकता, और एक अप्रसन्न व्यक्ति अधार्मिक होने के अतिरिक्त और कुछ नहीं हो सकता। हो सकता है वह प्रार्थना करे, हो सकता है वह मंदिर जाए, मस्जिद जाए—उससे कुछ फर्क नहीं पड़ता। एक अप्रसन्न व्यक्ति कैसे प्रार्थना कर सकता है? उसकी प्रार्थना में गहरी शिकायत होगी, दुर्भाव होगा। वह एक नाराजगी होगी। प्रार्थना तो एक अनुग्रह का भाव है, शिकायत नहीं।
केवल एक प्रसन्न व्यक्ति ही अनुगृहीत हो सकता है; उसका पूरा हृदय पुकारता है एक समग्र अहोभाव में, उसकी आंखों में आंसू आ जाते हैं, क्योंकि परमात्मा ने उसे इतना ज्यादा दिया है बिना उसके मांगे ही। और परमात्मा ने इतना ज्यादा दिया है—तुम्हें जीवन मात्र देकर ही। एक प्रसन्न व्यक्ति प्रसन्न होता है केवल इसलिए कि वह सांस ले सकता है। वही बहुत ज्यादा है। पल भर के लिए श्वास लेना मात्र ही पर्याप्त होता है, पर्याप्त से कहीं ज्यादा। जीवन तो इतना आशीषपूर्ण है—लेकिन एक अप्रसन्न व्यक्ति इसे समझ नहीं सकता।
इसलिए ध्यान रहे, जितने ज्यादा तुम कब्जा जमाने की वृत्ति में जुड़ते हो, उतने ही कम प्रसन्न होओगे तुम। जितने कम प्रसन्न होते हो तुम, उतने ही दूर तुम हो जाओगे परमात्मा से, प्रार्थना से, अनुग्रह के भाव से। सीधे—सहज होओ। आवश्यक बातों सहित जीओ और भूल जाओ आकांक्षाओं के बारे में, वे मन की कल्पनाएं हैं, झील की तरंगें हैं। वे केवल अशांत ही करती हैं तुम्हें; वे किसी संतोष की ओर तुम्हें नहीं ले जा सकती हैं।
'…..सहज—संयम, स्वाध्याय और ईश्वर के प्रति समर्पण......।
ये सब अंतर्संबंधित हैं। यदि तुम सहज होते हो तो तुम स्वयं का निरिकक्षण कर पाओगे। एक जटिल आदमी स्वयं का निरीक्षण नहीं कर सकता है, क्योंकि वह इतना बंटा हुआ होता है। उसके पास चारों ओर बहुत सारी चीजें होती हैं, बहुत सारी इच्छाएं, बहुत सारे विचार और बहुत सारी समस्याएं उठ रही होती हैं इन इच्छाओं और विचारों में से। वह निरंतर एक भीड़ में रहता है। कठिन होता है स्वाध्याय को पाना। एक सहज रूप से संयमी आदमी केवल खाता है, सोता है, प्रेम करता है और बस इतना ही। उसके पास पर्याप्त समय रहता है और बची रहती है पर्याप्त ऊर्जा निरीक्षण करने को, होने मात्र को, मात्र बैठने को और देखने को, और वह प्रसन्न रहता है। उसने खूब ठीक से खाया होता है, भूख तृप्त हो जाती है। उसने खूब अच्छी तरह से प्रेम किया होता है, उसके अंतस की ज्यादा गहरी भूख तृप्त हो जाती है। अब क्या करना? वह बैठता है, देखता है अपनी ओर। बंद कर लेता है अपनी आंखें; अपनी अंतस—सत्ता को ध्यान से देखता है। कहीं कोई भीड़ नहीं, कुछ ज्यादा करने को नहीं। चीजें इतनी सीधी—सहज होती हैं कि वह आसानी से उन्हें कर सकता है। और सहज बातो की एक गुणवत्ता होती है कि उन्हें करते हुए भी तुम स्वयं का अध्ययन कर सकते हो। जटिल चीजें मन के लिए बहुत ज्यादा हो जाती हैं। मन बहुत ज्यादा उलझ जाता है और बंटा हुआ होता है। और स्वाध्याय असंभव हो जाता है।
पतंजलि जो अर्थ करते हैं स्वाध्याय का, वही अर्थ करते हैं गुरजिएफ स्व—स्मरण का, या जिसे बुद्ध कहते हैं सम्यक—बोध, या जिसे जीसस: कहते हैं ज्यादा सजग हो जाना, या कि जो अर्थ कृष्णमूर्ति का होता है, वे जब कहे चले जाते हैं ज्यादा सजग होने की बात। जब तुम्हारे पास करने को कुछ नहीं होता कुछ ज्यादा नहीं होता करने को, दिन भर की सहज बातें समाप्त हो गईं, तो कहां सरकेगी ऊर्जा? क्या होगा तुम्हारी ऊर्जा का?
बिलकुल अभी तो तुम उथले ही रहते हो सदा, तुम्हारी कमतर ऊर्जा में, क्योंकि ऊर्जा के लिए इतनी ज्यादा व्यस्तताएं बनी रहती हैं। ऊर्जा के लिए इतनी सारी जटिलताएं बनी रहती हैं। तुम्हारे पास पर्याप्त ऊर्जा का उमडाव कभी नहीं रहता और बिना किसी ऊर्जा के जागरूक होने की कोई संभावना नहीं होती क्योंकि जागरूकता ऊर्जा का सूक्ष्मतम रूपांतरण है। वह तुम्हारी ऊर्जा का परम रूप है।
यदि तुम्हारे पास पर्याप्त परिपूर्ण ऊर्जा नहीं होती, तो तुम जागरूक नहीं हो सकते। सतही ऊर्जा के बिंदु पर, निम्न ऊर्जा—तल पर, तुम जागरूक नहीं हो सकते; परिपूर्ण ऊर्जा की आवश्यकता होती है। एक सहज आदमी के पास इतनी ज्यादा ऊर्जा बची रहती है कि क्या करेगा इस ऊर्जा का? जो कुछ किया जा सकता है वह सब किया जा चुका है; दिन की समाप्ति हुई। तुम शांत बैठे हुए होते हो; ऊर्जा सरकती है सूक्ष्मतम परतो तक—वह और— और ज्यादा ऊंचे जाती है, वह संचित होती है, वह एक शिखर बन जाती है, एक ऊर्जा—स्तंभ। अब तुम स्वयं का निरीक्षण करते हो। तुम्हारे विचारों, भावनाओं, अनुभूतियों के सब से अधिक सूक्ष्म तलों पर भी तुम ध्यान कर सकते हो।
'.....: स्वाध्याय और ईश्वर के प्रति समर्पण.....:।
जब कभी तुम ध्यान करते हो, तब तुम वहां होते ही नहीं हो, तब सहज संयम ले जाता है स्वाध्याय की ओर, स्वाध्याय ले जाता निरहंकारिता की ओर, क्योंकि तुम वहां होते नहीं। जितना ज्यादा तुम जानते हो स्वयं को, उतने कम तुम होते हो। केवल अज्ञानी व्यक्ति भरे रहते हैं अपने से। प्रज्ञावान होते ही नहीं। वे होते हैं एक शून्यता की भांति, वे होते हैं विशाल आकाश की भांति। यदि तुम प्रवेश करते हो बुद्ध में तो तुम कहीं नहीं पाओगे उन्हें। तुम अपरिसीम स्थान तो पाओगे, लेकिन वहां किसी को नहीं पाओगे। यदि तुम मुझमें प्रवेश करो तो तुम मुझे नहीं पाओगे—स्व शून्यता, एक विशाल आकाश, समग्र स्वतंत्रता मौजूद होती है तुम्हारे लिए। तुम मुझसे न मिलोगे, मैं वहां नहीं होता हूं। जब तुम भीतर ज्यादा और ज्यादा होश पा लेते हो, तो तुम कम और कम बने रहते हो। ऐसा सदा एक ही अनुपात में होता है जितने ज्यादा अजागरूक तुम होते हो, उतने ज्यादा तुम मौजूद होते हो। जितने ज्यादा तुम जागरूक होते हो, उतने ही कम तुम स्वयं बने रहते हो। जब तुम संपूर्णतया जागरूक हो जाते हो, तब तुम बचते ही नहीं। संपूर्ण ऊर्जा एक जागरूकता बन गयी होती है, अहंकार के लिए कुछ बचता ही नहीं। और फिर अहंकार छूटता है, जैसे कि सांप सरक जाता है केंचुली के बाहर। अब वह वहां पड़ी हुई एक मृत चमड़ी होती है। कोई भी उसे उठा सकता है। तब घटता है परमात्मा के प्रति समर्पण। तुम नहीं कर सकते परमात्मा के प्रति समर्पण, क्योंकि तुम्हीं होते हो अड़चन।
लोग मेरे पास आते हैं, और वे कहते हैं, 'मैं चाहता हूं समर्पण करना।वैसा संभव नहीं। कैसे कर सकते हो तुम समर्पण? 'तुम' ही हो गैर—समर्पण। जब तुम नहीं होते, तब समर्पण होता है। जब तुम समाप्त होते हो—समर्पण घटता है। तो जरा ध्यान में रख लेना इसे तुम नहीं कर सकते समर्पण। यह तुम्हारी ओर से किया गया कोई प्रयास नहीं हो सकता है—वह बात असंभव होती है।
तुम केवल एक बात कर सकते हो, जिसे पतंजलि कह रहे हैं आडंबरहीन बनी, सहज—सरल हो जाओ। इतनी ज्यादा ऊर्जा बचती है तब, जो कि सहज ही, स्वयं ही एक जागरूकता बन जाती है और जागरूकता के मौजूद होते ही तुम मौजूद नहीं रहते। अचानक तुम पाते हो कि समर्पण घट गया। अचानक, तुम्हारे अपनी ओर से बिना कुछ किए ही: तुम ने नहीं किया होता है कुछ और समर्पण घटित हो जाता है। परमात्मा के प्रति समर्पण करना तुम्हारे भीतर की गैर—अहंकार की अवस्था है। यदि प्रयास होता है तो वह समर्पण नहीं होता है।
समर्पण एक बोध है। जब तुम जागरूक होते हो और बोध की ज्योति—शिखा ऊंची प्रज्वलित हो रही होती है, अचानक तुम जान लेते हो कि अंधकार वहां नहीं है। तुम समर्पित हो गए हो। वह एक उदघटित घटना होती है—एक बोध। अचानक तुम हैरान हो जाते हो! तुम अनुपस्थित हो और परमात्मा मौजूद है। तुम्हारी अनुपस्थिति में परमात्मा है, तुम्हारी उपस्थिति में केवल दुख मौजूद होता है। तुम्हारी उपस्थिति से कुछ संभव नहीं होता, तुम्हारी अनुपस्थिति में सारी अपरिसीमितता संभव हो जाती है। ये अंतर्संबंधित बातें होती हैं : सहज—संयम, स्वाध्याय और ईश्वर के प्रति समर्पण।

 क्रियायोग का अभ्यास क्लेश को घटा देता है और समाधि की ओर ले जाता है।

 ये तीन चरण दुख घटाते हैं और तुम्हें समाधि की ओर ले जाते हैं, परम की ओर, जिसके बाद कोई चीज अस्तित्व नहीं रखती है। जब तुम परमात्मा के प्रति समर्पित होते हो, परमात्मा हो जाते हो; वही होती है समाधि।

 दुख उत्पन्न होने के कारण हैं : जागरूकता की कमी अहंकार मोह घृणा जीवन से चिपके रहना और मृत्यु— भय।

वस्तुत: केवल अहंकार ही होता है कारण। बाकी सब बातें जो पीछे—पीछे आती हैं, वे तो मात्र परछाइयां होती हैं अहंकार की। आत्म—जागरूकता की कमी अहंकार है। तुम अनुभव करते हो कि तुम हो। क्योंकि तुम जानते नहीं। तुम अंधकार में होते हो। तुम स्वयं से कभी मिले ही नहीं; और तुम सोचते हो कि 'तुम हो।यह बात सब प्रकार के दुख निर्मित करती है।
'……अहंकार, उन चीजों के प्रति आकर्षण है जो व्यर्थ होती हैं, द्वेष, घृणा—जो कि मोह का, आकर्षण का दूसरा छोर है—जीवन से चिपकना और मृत्यु— भय।
तुम जीवन से चिपकते हो क्योंकि तुम जानते नहीं कि जीवन क्या है। यदि तुम जानते, तो कोई चिपकना होता ही नहीं; क्योंकि जीवन शाश्वत है—क्यों चिपकना? वह चलता जा रहा है और वह कभी ठहर सकता नहीं। तुम चिपकते जाकर अनावश्यक रूप से स्वयं को तकलीफ देते हो। यह ऐसे है जैसे कि एक नदी बह रही होती है और तुम नदी को धकेल रहे होते हो समुद्र की ओर—जब कि वह बह रही होती है अपने से ही। तुम्हें धकेलने की जरा भी जरूरत नहीं। तुम बेकार ही स्वयं के लिए दुख खड़ा कर लोगे। तुम सोचोगे कि तुम एक बहादुर शहीद हो क्योंकि तुम धकेल रहे हो नदी को और ले जा रहे हो उसे सागर की ओर!
नदी तो बह रही है, अपने से ही; गड़बड़ मत करो, तुम्हें ऐसा करने की कोई जरूरत नहीं। यदि तुम सागर तक पहुंचना चाहते हो, तो तुम बस एक हिस्सा बन जाओ नदी का और नदी तुम्हें ले चलेगी। लेकिन मदद मत करना नदी की, वही तो करते रहे हो तुम।
जीवन तो अपने से ही बह रहा है; किसी चीज की जरूरत नहीं। पैदा होने के लिए तुमने क्या किया? यहां होने के लिए तुमने क्या किया? जीवित रहने के लिए तुमने क्या किया? क्या ऐसी कोई चीज है जो तुमने की है? यदि नहीं तो फिर क्यों करनी फिक्र? जीवन तो अपने से ही चलता जाता है। मूढ़ लोग दुख निर्मित कर लेते हैं, अवस्था ऐसी ही है।
मैंने सुना है एक बार एक समृद्ध व्यक्ति, एक बड़ा राजा कहीं जा रहा था अपने रथ में बैठकर। उसने देखा एक गरीब ग्रामीण, एक बूढ़ा आदमी सड़क के किनारे जा रहा था सिर पर एक बड़ा बोझ उठाए हुए, और बोझ बहुत ज्यादा था। राजा को दया आ गई। वह कहने लगा, 'तुम आओ, के बाबा, रथ में मेरे साथ बैठो। जहां कहीं तुम चाहते हो मैं तुम्हें वहां छोड़ दूंगा।का आदमी रथ में आ गया, लेकिन अपना बोझ अभी भी सिर पर लिए हुए था। राजा बोला, 'क्या तुम पागल हुए हो? तुम अपना बोझ नीचे क्यों नहीं रख देते?' वह आदमी बोला, 'मैं रथ में हूं और यही बहुत ज्यादा बोझ है रथ के लिए और घोड़ों के लिए। मेरा बोझ ही बहुत ज्यादा होगा। धन्यवाद महाराज, अब यह बोझ तो मुझे ही उठाने दो। यह तो बहुत ज्यादा होगा घोड़ों के लिए और रथ के लिए।
चाहे तुम अपना बोझ अपने सिर पर उठाओ या कि तुम उसे रख दो रथ में, घोड़ों के लिए सब बराबर होता है, उन्हें सब कुछ लिए चलना होता है।
जीवन स्वयं ही चल रहा है, तुम अपने बोझ क्यों नहीं छोड़ देते जीवन पर? बल्कि तुम तो चिपके रहते हो। और जब तुम चिपके रहते हो जीवन से तो मृत्यु— भय उठ खड़ा होता है। वरना तो कोई मृत्यु नहीं और भय नहीं।
जीवन अनंत है। कोई मरता नहीं है कभी; कोई मर नहीं सकता है कभी। जो कुछ अस्तित्व में रहता है वह अस्तित्व रखेगा, वह सदा रहा ही है अस्तित्व में, वह जा नहीं सकता है अस्तित्व के बाहर। कोई चीज जा नहीं सकती है अस्तित्व के बाहर, कुछ बाहर नहीं जा सकता, कुछ भीतर नहीं आ सकता। अस्तित्व समग्र होता है। हर चीज बनी रहती है— भाव—दशाएं बदलती, आकार बदलते, नाम बदलते। यही है जिसे हिंदू कहते हैं—'नामरूप'रूपाकार और नाम बदल जाते हैं, वरना तो हर कोई बना रहता है, हर चीज बनी रहती है। तुम यहां आए हो लाखों बार, तुम यहां होओगे लाखों बार, तुम यहां रहोगे सदा ही। जीवन है सदा के लिए। निस्संदेह तुम्हारा नाम यही नहीं होगा। तुम्हारा यही चेहरा फिर नहीं हो सकता। शायद फिर तुम्हारे पास पुरुष या स्त्री की देह न हो, लेकिन उससे कुछ लेना—देना नहीं है, वह बात अप्रासंगिक है। तुम यहां होओगे जैसे कि लहरें होतीं समुद्र में—वे आती और जातीं, वे जातीं और आती। रूप बदलते, लेकिन उसी सागर में लहरें उठती—उमड़ती रहतीं

 दुख उत्पन्न होने के कारण हैं जागरूकता का अभाव अहंकार मोह घृणा जीवन से चिपके रहना और मृत्यु— भय।
चाहे वे प्रसुप्तता की क्षीणता की प्रत्यावर्तन की या फैलाव की अवस्थाओं में हो दुख के दूसरे सभी कारण क्रियान्वित होते हैं जागरूकता के अभाव द्वारा ही।

 दुख के कारणों के बहुत से रूप हो सकते हैं; वे बीजों के रूप में हो सकते हैं। तुम अपना दुख उठाए चल सकते हो बीज के रूप में। वह प्रसुप्त हो सकता है, तुम्हें इसका होश न हो, लेकिन किसी एक खास स्थिति में, यदि भूमि ठीक होती है और बीज पानी और धूप पा सकता है, तो वह प्रस्फुटित हो जाएगा। तो कई बार वर्षों तक तुम अनुभव करते कि तुम्हें कोई लालच नहीं और अचानक एक दिन जब ठीक अवसर आ बनता है, तो लालच मौजूद हो जाता है। तब बीज बहुत ही क्षीण रूप में होते हैं, जिनका कि तुम्हें कुछ पता ही नहीं होता, इतने क्षीण कि जब तक तुम स्वयं के भीतर गहराई से नहीं खोजते, तुम नहीं जान पाओगे कि वे वहा हैं। या वे होते होंगे प्रत्यावर्तित रूप में कई बार तुम सुख अनुभव करते हो और कई बार तुम दुख अनुभव करते हो।
प्रेम में तुम सुख अनुभव करते हो, घृणा में तुम दुख अनुभव करते हो; लेकिन प्रेम और घृणा एक ही ऊर्जा की बारी—बारी से चली आने वाली दो घटनाएं हैं। कई बार वे होंगी उनके अपने संपूर्ण रूप में जब तुम उदास—निराश होते हो, इतने ज्यादा निराश कि तुम आत्महत्या कर लेना चाहते हो; या कई बार तुम इतने खुश होते हो कि तुम खुशी के मारे पागल होने जैसा अनुभव करते हो। इन सारे रूपों पर ध्यान करना होता है—क्योंकि पतंजलि कहते हैं, 'ये सारे रूप अस्तित्व रखते हैं अजागरूक होने से; तुम जागरूक नहीं होते।
पहले तो होश रखो सतही घटना का: लोभ, क्रोध, घृणा, फिर और गहरे जाओ, और तुम अनुभव कर पाओगे बार—बार दोहरायी जाने वाली घटना को। दोनों जुड़ी होती हैं। जरा और गहरे जाओ, ज्यादा सचेत होओ, और तुम अनुभव करोगे बहुत क्षीण घटना तुम्हारे भीतर है, छाया की भांति है, लेकिन तो भी किसी भी समय वह ठोस रूप पा सकती है। तो ऐसा घटता है एक धार्मिक आदमी के साथ—कि एक सुंदर स्त्री आती है और सारी पावनता तिरोहित हो जाती है; एक क्षण में ही। वह वहां थी क्षीण रूप में। या वह मौजूद रह सकती है बीज के रूप में। बीज रूप को जान लेना सबसे ज्यादा मुश्किल बात है क्योंकि वह प्रस्फुटित नहीं हुआ होता। इसके लिए चाहिए पूरा होश।
और पतंजलि की तो संपूर्ण विधि ही है जागरूकता की : ज्यादा और ज्यादा जागरूक हो जाओ। तुम ज्यादा जागरूक हो जाओगे यदि तुम सहज—संयमी हो जाते हो, सहज—सरल हो जाते हो। तुम ज्यादा होश पा जाओगे और स्व—स्मरण संभव हो जाएगा। और स्व—स्मरण से अहं गिर जाता है और व्यक्ति समर्पित अनुभव करता है और समर्पित होना सम्यक मार्ग पर होना है।

आज इतना ही।





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