दिनांक
7 जुलाई 1974
(प्रातः),
श्री
रजनीश आश्रम; पूना.
भगवान!
एक
दिन गोसो
ने अपने
शिष्यों से
कहा,
'एक
भैंस उस आंगन
से बाहर निकल
गयी है, जिसमें
कि वह कैद थी।
उसने
आंगन की दीवार
तोड़ डाली है।
उसका
पूरा शरीर ही
दीवार से बाहर
निकल
गया--सींग, सिर, पैर,
धड़, सब;
लेकिन
पूंछ बाहर
नहीं निकल पा
रही है। और
पूंछ कहीं
उलझी हुई भी
नहीं है।
और
पूंछ को किसी
ने पकड़ भी
नहीं रखा है।
मैं
पूछता हूं, फिर भी पूंछ
बाहर क्यों
नहीं निकल पा
रही है?'
शिष्य
सोचने लगे और गोसो
हंसने लगा।
फिर
उसने कहा, 'जिसने सोचा,
उसकी पूंछ
भी उलझी।'
शिष्य
और भी विचार
में खो गए।
फिर
गोसो ने
कहा, 'जिसकी
समझ में न आये,
वह पीछे
लौटकर अपनी
पूंछ देखे।'
भगवान!
कृपया इस
कहानी का अर्थ
समझायें।
जो
है, उससे
मुक्त हो जाना
बहुत आसान है।
जो नहीं है, उससे मुक्त
होना बहुत
कठिन है। जो
दिखाई पड़ता हो,
उसे तोड़
देने में
कितनी ही
कठिनाई हो, असंभव नहीं;
लेकिन जो
दिखाई ही न
पड़ता हो, उसे
हम तोड़ना भी
चाहें तो कैसे
तोड़ें!
विरोधाभासी
दीखनेवाली
यह बात जीवन
के आंतरिक
सत्यों के
संबंध में बहुत
सही है।
मनुष्य सभी
चीजों से
मुक्त हो पाता
है, अहंकार
से नहीं। और
अहंकार
बिलकुल नहीं
है। उसका अस्तित्व
ही नहीं है।
उसे तुम खोजने
जाओगे तो पाओगे
भी नहीं।
जिससे तुम
बंधे हो, खोजने
पर मिलेगा भी
नहीं कि वह
कहां है। शायद
इसलिए बंधन
बहुत गहरा
हैं। तोड़ने का
उपाय नहीं।
दिखता तो तोड़
देते। तोड़ने
का उपाय नहीं;
होता तो तोड़
देते।
जो
नहीं है, उससे
हम इस बुरी
तरह बंधते
हैं! लेकिन जो
नहीं है, उससे
भी बंधन हो
जाता है। कुछ
कारण समझ लेने
चाहिए।
बोधिधर्म
चीन गया चौदह
सौ वर्ष पहले।
चीन के सम्राट
ने कहा, 'मैं
बहुत अशांत
हूं।' बोधिधर्म
ने कहा, 'कल
सुबह आ जाओ।
और ध्यान रहे,
अपनी अशांति
को साथ ले
आना। क्योंकि
तुम अगर उसे
घर भूल आये, तो मैं
तुम्हारा
इलाज भी कैसे
करूंगा?
सम्राट
लौटा तो जरूर, लेकिन सोचता
लौटा कि सुबह
जाए या नहीं।
क्योंकि यह
आदमी थोड़ा
पागल मालूम
पड़ता है।
अशांति कोई
चीज तो नहीं
है कि तुम घर
रख आओगे।
अशांति कोई
चीज तो नहीं
है; लाने-ले
जाने का सवाल
क्या है? रात
बहुत सोचा, जाऊं न जाऊं,
लेकिन यह
आदमी आकर्षक
भी लगा, इसकी
आंखों में कोई
बल भी था, इसके
होने के ढंग
में कोई गहराई
भी थी। और जिस भांति
उसने कहा था
कि ले आना
अशांति अपने
साथ, अन्यथा
मैं शांत किसे
करूंगा? उसमें
इतनी सचाई और
प्रामाणिकता
थी कि सम्राट
ने सोचा, जाने
में हर्ज नहीं
है। प्रयोग कर
लेने जैसा है।
यह अवसर खोना
उचित नहीं।
सुबह-सुबह
सम्राट
पहुंचा। अभी
सूरज भी उगा
नहीं था, और
बोधिधर्म
अपने मंदिर के
बाहर बैठा हुआ
था सीढ़ियों के
पास। देखते ही
सम्राट को कहा,
'बैठ जाओ।
और कहां है
अशांति? कहां
है तुम्हारा
मन? निकालो ताकि मैं
उसे शांत कर
दूं।'
सम्राट
ने कहा, 'व्यंग्य
करते हैं, या
आप विक्षिप्त
हैं? अशांति
कोई चीज तो
नहीं है, जिसे
मैं दिखा
सकूं।'
बोधिधर्म
ने कहा, 'जिसे
तुम देख सकते
हो, उसे
मैं क्यों न
देख सकूंगा? और अशांति
अगर कोई वस्तु
ही नहीं है, तो जो
तुम्हें इतना
परेशान किये
है वह होगी तो
जरूर; छिपी
हो, कोई
आवरण पड़ा हो, लेकिन जिससे
तुम इतने
उद्विग्न हो,
जो तुम्हें
रात सोने नहीं
देती, पेट
में गया भोजन
पचने नहीं
देती, जिसके
कारण सारे
साम्राज्य का
सुख तुम भोग
नहीं पाते वह
अशांति होगी
तो जरूर। और
काफी मजबूत
होगी।'
सम्राट
ने कहा, 'वह
मैं जानता हूं,
कि है और
मजबूत है।
लेकिन कोई
बाहर की चीज
तो नहीं है; भीतर की है।
तो
बोधिधर्म ने
कहा, तुम आंख
बंद करो और
भीतर खोजो; और जब तुम
पकड़ लो तो
मुझे बताना।
मैं इधर बाहर तैयार
बैठा हूं।
तुमने उधर
पकड़ा, इधर
मैंने हल
किया।
तुम्हें शांत
करके ही भेजूंगा।
सम्राट
ने आंखें बंद
कीं और खोजने
लगा कि अशांति
कहां है। मन
के एक-एक कोने-कांतर में झांका।
एक-एक मन की
पर्त उठाकर
देखी। सब
वस्त्र हटाये।
जैसे-जैसे
खोजता गया, बड़ा हैरान
हुआ; अशांति
तो मिलती नहीं,
उल्टे मन
शांत होता
जाता है।
जो
व्यक्ति भी
अपने भीतर
अशांति की खोज
पर निकल जाएगा, वह शांत हो
जाएगा।
अशांति है
इसलिए, कि
तुमने कभी गौर
से देखा नहीं।
तुम्हारे न देखने
में ही उसका
अस्तित्व है।
वह अपने आप
में कुछ भी
नहीं है।
जैसे-जैसे
पर्तें उलटने
लगा, वैसे-वैसे
पाया कि कोई
गहरा, शांत
आकाश खुलता
जाता है। कोई
मंदिर के
द्वार खुल रहे
हैं, जहां
सब शांत है।
उसके बाहर के
चेहरे पर भी
झलक आने लगी।
वह धुन जो
भीतर बजने लगी
थी, बाहर
भी फैलने लगी।
घड़ी बीती, दो
घड़ी बीती, सूरज
ऊग आया। उस
ऊगते सूरज की
किरणें
सम्राट के
चेहरे पर पड़
रही हैं। वह
शांत बैठा है;
जैसे पत्थर
की मूर्ति हो,
बुद्ध की
मूर्ति हो।
आखिर
बोधिधर्म ने
उसे हिलाया और
कहा कि बहुत
हो गया। अब
मुझे दूसरे काम
भी करने हैं।
आंख खोलो,
अगर पकड़
लिया हो तो
बोलो, अन्यथा
कल सुबह फिर आ
जाना।
सम्राट
ने आंख खोली, और झुककर
चरण छुए और
कहा, 'धन्य
हैं! आपने
मुझे शांत ही
कर दिया।
खोजता हूं तो
अशांति पाता
नहीं; नहीं
खोजता हूं तो
अशांति है।
देखता हूं तो
दिखाई नहीं
पड़ती, खो
जाती है। नहीं
देखता, पीठ
करता हूं तो
बड़ी वजनी है।
बड़ी भयंकर है।'
उस
अशांति से तुम
परेशान हो, जो है नहीं।
उन बीमारियों
से तुम पीड़ित
हो, जिनका
कोई अस्तित्व
नहीं है। और
जो नहीं है, बुरी तरह
पकड़ लेता है।
और उससे छूटते
भी नहीं बनता।
प्रगट कुछ
होता तो छूटने
का उपाय कर
लेते; अप्रगट है। इतना
सूक्ष्म है, ना के बराबर
है। शून्य
जैसा है।
कारागृह
की जो दीवालें
दिखाई पड़ती
हैं वे कितनी
ही ऊंची हों, सीढ़ी खोजी
जा सकती है।
कारागृह की जो
दीवालें दिखाई
पड़ती हैं, कितनी
ही मजबूत
चट्टानों की
बनी हों, तोड़ी
जा सकती हैं।
लेकिन तुम उस
कारागृह में बंद
हो, जो
दिखाई नहीं
पड़ता। सीढ़ी
तुम लगाओगे
कहां? दीवालें
अदृश्य हैं; तुम तोड़ोगे
कैसे? और
कारागृह
तुम्हारा ऐसा
है कि तुमसे
बाहर नहीं, तुम्हारे
भीतर है। और
कारागृह ऐसा
है कि तुम उसमें
बंद नहीं हो, तुम उसे
अपने साथ ढोते
हो। तुम उसे
अपने साथ ही
लेकर चलते हो।
और कारागृह
ऐसा है कि सब
निकल जाएगा, लेकिन पूंछ
तुम्हारी
फंसी रह
जाएगी।
हिंदी
में 'पूछ' शब्द
बड़ा अदभुत है।
और अगर शब्द
के साथ थोड़ा
खेल करना हो
तो बड़े रहस्य
का है। लोग
कहते हैं, गये,
किसी ने
पूछा नहीं।
कोई पूछत्ताछ
न की किसी ने।
बड़े दुखी होते
हैं। पूछ हो
तो सुखी होते
हैं। पूछ न हो
तो दुखी होते
हैं। पूछ अहंकार
है। किसी के
घर गये, मेहमान
हुए, किसी
ने पूछा नहीं,
दुखी लौटे।
कहीं काफी पूछ
हुई, बड़े
सुखी लौटे।
कोई देखे, सम्मानित
करे, आदर
करे, स्वीकार
करे कि तुम हो,
कुछ
विशिष्ट हो।
पूछ
विशिष्टता
है।
विशिष्टता
में हरेक बंद
है।
और जिस
दिन तुम
साधारण हो
जाओगे, उस
दिन तुम मुक्त
होओ। उस दिन
पूछ बंद न रह
जाएगी। और हर
आदमी सोचता है
कि मैं
विशिष्ट हूं,
कुछ खास
हूं। तुम ऐसा
आदमी न खोज
सकोगे, जो
अपने को खास न
समझता हो। और
अगर ऐसा आदमी
मिल जाए तो
उसके चरण मत
छोड़ना, क्योंकि
वह आदमी भगवान
है। यह खयाल
कि मैं असाधारण
हूं, बड़ा
साधारण है; सभी को है।
तुमको ही नहीं,
वृक्षों को,
कीड़े-मकोड़ों
को, सभी को
है कि मैं
असाधारण हूं।
छोटा-सा
पतिंगा और
मक्खी भी इसी
खयाल से भरी
है।
पुरानी
लुकमान की एक
कथा है।
लुकमान
पुराने ज्ञानियों
में एक हुआ; कोई जीसस से
तीन हजार साल
पहले।
मुहम्मद ने लुकमान
का कुरान में
बड़े आदर से
उल्लेख किया
है। एक पूरा
अध्याय
लुकमान के लिए
समर्पित किया
है। दुनिया की
ऐसी कोई भाषा
नहीं है, जहां
लुकमान का
शब्द गहरे में
प्रवेश न कर
गया हो। जिनको
लुकमान का कोई
पता भी नहीं
है, वे भी
उसका उपयोग
करते हैं। लोग
नाराज हो जाते
हैं तो कहते
हैं, 'बड़े
लुकमान बने
बैठे हैं।' उन्हें पता
भी नहीं कि वे
क्या कह रहे
हैं। कहावत है
कि लुकमान को
क्या समझाना!
लुकमान से
ज्यादा कोई
समझदार भी
नहीं हैं।
लुकमान से
किसी ने पूछा
कि तुझे इतनी
समझदारी कैसे
मिली? लुकमान
ने कहा, 'जब
मैं नासमझ हो
गया।' लुकमान
से किसी ने
पूछा, 'तुम
इतने समादृत
क्यों हो?' लुकमान
ने कहा, 'जब मैंने
आदर की
आकांक्षा छोड़
दी।'
लुकमान
की एक छोटी
कहानी है। और
लुकमान ने कहानियों
में ही अपना
संदेश दिया
है। ईसप की
प्रसिद्ध
कहानियां आधे
से ज्यादा
लुकमान की ही
कहानियां हैं, जिन्हें ईसप
ने फिर से
प्रस्तुत
किया है। लुकमान
कहता है, एक
मक्खी एक हाथी
के ऊपर बैठ
गयी। हाथी को
पता न चला
मक्खी कब
बैठी। मक्खी
बहुत भिनभिनाई,
आवाज की, और कहा, 'भाई!'
मक्खी का मन
होता है हाथी
को भाई कहने
का। कहा, 'भाई!
तुझे कोई
तकलीफ हो तो
बता देना। वजन
मालूम पड़े तो
खबर कर देना, मैं हट
जाऊंगी।' लेकिन
हाथी को कुछ
सुनाई न पड़ा।
फिर हाथी एक
पुल पर से
गुजरता था बड़ी
पहाड़ी नदी थी,
भयंकर गङ्ढ
था, मक्खी
ने कहा कि 'देख,
दो हैं, कहीं
पुल टूट न जाए!
अगर ऐसा कुछ
डर लगे तो
मुझे बता
देना। मेरे
पास पंख हैं, मैं उड़
जाऊंगी।' हाथी
के कान में
थोड़ी-सी कुछ
भिनभिनाहट
पड़ी, पर
उसने कुछ
ध्यान न दिया।
फिर मक्खी के
बिदा होने का
वक्त आ गया।
उसने कहा, 'यात्रा
बड़ी सुखद हुई।
तीर्थयात्रा
थी, साथी-संगी
रहे, मित्रता
बनी, अब
मैं जाती हूं।
कोई काम हो, तो मुझे
कहना।'
तब
मक्खी की आवाज
थोड़ी हाथी को
सुनाई पड़ी।
उसने कहा, 'तू कौन है
कुछ पता नहीं।
कब तू आयी, कब
तू मेरे शरीर
पर बैठी, कब
तू उड़ गयी, इसका
कोई हिसाब
नहीं है।
लेकिन मक्खी
तब तक जा चुकी
थी।
लुकमान
कहता है, 'हमारा
होना भी ऐसा
ही है। इस बड़ी
पृथ्वी पर हमारे
होने न होने
से कोई फर्क
नहीं पड़ता। इस
बड़े अस्तित्व
में हाथी और
मक्खी के
अनुपात से भी
हमारा अनुपात
छोटा है। क्या
भेद पड़ता है? लेकिन हम
बड़ा शोरगुल
मचाते हैं। हम
बड़ा शोरगुल
मचाते हैं! वह
शोरगुल किसलिये
है? वह
मक्खी क्या
चाहती थी? वह
चाहती थी हाथी
स्वीकार करे,
तू भी है; तेरा भी
अस्तित्व है।
पूछ चाहती थी।
हमारा
अहंकार अकेले
तो नहीं जी सक
रहा है। दूसरे
उसे मानें, तो ही जी
सकता है।
इसलिए हम सब
उपाय करते हैं
कि किसी भांति
दूसरे उसे
मानें, ध्यान
दें, हमारी
तरफ देखें; उपेक्षा न
हो। हम वस्त्र
पहनते हैं तो
दूसरों के
लिये, स्नान
करते हैं तो
दूसरों के
लिये, सजाते-संवारते
हैं तो दूसरों
के लिये। धन
इकट्ठा करते,
मकान बनाते,
तो दूसरों
के लिये।
दूसरे देखें
और स्वीकार
करें कि तुम
कुछ विशिष्ट
हो। तुम कोई
साधारण नहीं।
तुम कोई
मिट्टी से बने
पुतले नहीं
हो। तुम कोई
मिट्टी से आये
और मिट्टी में
नहीं चले
जाओगे, तुम
विशिष्ट हो।
तुम्हारी
गरिमा अनूठी
है। तुम
अद्वितीय हो।
अहंकार सदा इस
तलाश में है--वे
आंखें मिल
जाएं, जो
मेरी छाया को
वजन दे दें।
अब हम गोसो की
कहानी समझें।
गोसो
थोड़े से
बुद्धत्व को
प्राप्त
लोगों में एक
है। गोसो
ने अपने
शिष्यों का
कहा कि सुनो!
एक आंगन में एक
भैंस बंद है; निकलने की
कोशिश करती
है।
सभी
कोशिश करते
हैं। जहां भी
बंधन हो, वहां
से हम निकलने
की कोशिश करते
हैं। क्योंकि
जहां भी बंधन
हो, वहीं
अहंकार को चोट
लगती है।
परतंत्रता
इतनी सालती है,
इतनी चुभती
है; क्यों?
क्योंकि
परतंत्रता का
अर्थ है कि अब
तुम अपने तईं
होने में
समर्थ नहीं
हो। तुम चाहो
तो चल नहीं
सकते, चाहो
तो बैठ नहीं
सकते।
तुम्हारे अहंकार
को फैलने का
उपाय नहीं है।
इसलिए अहंकार स्वतंत्रता
मांगता है।
अब इसे
तुम समझना।
अहंकार की
स्वतंत्रता, आत्मा की
स्वतंत्रता
नहीं हो सकती।
और अहंकार
कितनी ही
स्वतंत्रता
चाहे, पूरी
स्वतंत्रता
नहीं चाह
सकता। यह
अहंकार का पैराडाक्स
है। यह
अस्मिता का
विरोधाभास
है।
यह
थोड़ा सूक्ष्म
है। इसे थोड़ा
समझने की
कोशिश करो।
अहंकार चाहता
है मैं
परतंत्र न
रहूं, लेकिन
अहंकार
दूसरों के
बिना रह भी
नहीं सकता, बच भी नहीं
सकता। तुम
चाहते हो कि
अकेला रहूं, लेकिन तुम
दूसरों के
बिना जी भी
नहीं सकते। अहंकार
की स्थिति
वैसी है, जैसे
कुछ लोग कहते
हैं, पत्नियों
के साथ रहें
तो मुश्किल; साथ नहीं रह
सकते। बिना
रहना चाहें तो
मुश्किल; पत्नी
के बिना भी
नहीं रह सकते।
रहना ही असंभव
है। साथ जाते
हैं तो साथ की
कठिनाइयां
हैं; अलग
जाते हैं तो
मजा ही चला
जाता है।
अहंकार कुछ
ऐसा चाहता है
कि दूसरे तो
हों, लेकिन
परतंत्र न बनायें।
दूसरों का मैं
शोषण तो करूं,
मैं तो
दूसरों को
परतंत्र
बनाऊं, मैं
स्वतंत्र बना
रहूं।
गोसो
ने कहा कि
भैंस बंद है
आंगन में।
दरवाजा खुला है, कोई जंजीरें
भी नहीं पड़ी
हैं। भैंस
मुक्त होने के
लिये बाहर
निकलती है।
सींग निकल गये,
सिर निकल गया,
धड़
निकल गया, सब
निकल गया
लेकिन पूंछ
नहीं निकलती।
और पूंछ को न
तो कोई पकड़े
है और न पूंछ
बांधी गयी है।
अब
दरवाजा बड़ा
होगा। जिसमें
से भैंस निकल
गयी उसमें से
पूंछ क्यों
नहीं निकलती? भैंस खुद ही
खड़ी हो गयी
होगी। पूंछ को
तो कोई निकालना
नहीं चाहता।
आंगन में बंद
थी, तब तक
उसने सोचा
होगा
स्वतंत्रता
चाहिए, मुक्ति
चाहिए। और जब
आंगन से पूरी
निकल गयी तभी
उसको पता चला
कि अगर पूंछ
भी बाहर निकल
गयी, तो
स्वतंत्रता
का भी क्या
करोगे?
संन्यासी
भाग जाता है
हिमालय, पूंछ
यहीं छूट जाती
है संसार में।
वहां बैठकर हिमालय
की शिला पर भी
वह सोचता है
तुम्हारे
बाबत, कि
कब आओगे, कब
दर्शन करोगे,
कब चरणों
में फूल चढ़ाओगे।
वहां दूर
हिमालय पर
बैठकर भी राह
देखता है कि
कोई आये, कोई
कहे कि आप
जैसा एकांगी,
आप जैसा
एकांत में वास
करने वाला कोई
दूसरा नहीं
देखा। संसार
को खबर मिले
कि मैं हिमालय
आ गया हूं।
संसार
भलीभांति जान
ले कि मैंने
त्याग कर दिया
है। लेकिन
संसार जान ले!
तो
त्यागी भी
अखबार में खबर
देखना चाहता
है; यह बड़े
मजे की बात
है। भैंस बाहर
निकल जाती है,
पूंछ भीतर
रह जाती है।
जिस संसार का
ही त्याग कर
दिया, उसका
अखबार न छूटा?
सब छोड़ दिया
लेकिन संसार
पूछे
तुम्हारे
बाबत, जाने
तुम्हारे
बाबत, तुम
हो; यह न
छूटा। हिमालय
आकर बैठ गये
हो, लेकिन
मन को
प्रसन्नता
तभी होगी, जब
सारी दुनिया
के कोने-कोने
में लोग जान
लें कि तुमने
जगत छोड़ दिया,
तुम
एकांतवास कर
रहे हो।
दूसरों को पता
चले कि तुम
एकांत में हो,
तो ही तुम्हें
एकांत में भी
मजा आयेगा।
भैंस
बाहर निकल
जाती है, पूंछ
भीतर रह जाती
है। कोई पकड़े
नहीं है। कौन पकड़े है
तुम्हें? जब
तुम हिमालय तक
चले गये, किसी
ने नहीं रोका।
कोई बांधे
नहीं है; कौन
बांधे है? सब
अपनी-अपनी
पूंछ की फिक्र
में हैं, तुम्हारी
पूंछ को कौन
बांधेगा? अपनी
ही पूंछ इतनी
भारी है, अपनी
ही पूंछ ढोना
इतना कष्टपूर्ण
है, तुम्हारी
चिंता किसे है?
तुम्हें
किसकी चिंता
है? सब
अपनी ही चिंता
कर रहे हैं, लेकिन पूंछ
भीतर रह गयी
है।
और गोसो
ने पूछा कि
बोलो, क्या
अड़चन है? पूरी
भैंस बाहर हो
गयी है, न
कोई बांधे, न कोई पकड़े,
दरवाजा
खुला है, पूंछ
भीतर क्यों रह
गयी है? कहीं
अटकी भी नहीं
है।
शिष्य
सोचने लगे। गोसो हंसा
और उसने कहा, 'अगर सोचा, तुम्हारी
पूंछ भी भीतर
रह जाएगी।'
जो
नहीं सोचता, उसकी पूंछ
तत्क्षण खो
जाती है
क्योंकि बिना
सोचे अहंकार
को बचने की
कोई जगह नहीं
है।
तुम
सोचते हो
इसलिए अहंकार
निर्मित होता
है। इसलिए
जितना तुम
सोचोगे उतना
ज्यादा
अहंकार निर्मित
होगा। इसलिए
तुम्हारे
तथाकथित विचारक
सर्वाधिक
अहंकारी
होंगे। जिनको
तुम इनटेलिजेंशिया
कहते हो, जिनको
तुम कहते हो बुद्धिशाली,
बौद्धिक
लोग, ये
सबसे ज्यादा
अहंकारी होंगे।
दो पंडितों को
साथ बिठाना
आसान नहीं। दो
कुत्ते भी
थोड़ी देर शांत
बैठ जाएं, न
भौंके एक
दूसरे पर, दो
पंडित नहीं
बैठ सकते।
स्वर्ग में सब
को जगह मिलती
होगी, पंडितों को नहीं
मिलती होगी।
नहीं तो वहां
चैन ही न
मिलेगा। वहां
इतनी बकवास
होगी, वहां
इतना विवाद
होगा--अकारण, बेबात का! इतना
शोरगुल और कलह
मचेगा कि
नर्क से बदतर
हालत हो
जाएगी।
पंडित
का अहंकार
भयंकर हो जाता
है। जितना बुद्धि
विचार करती है, उतना ही
लगता है, तुम
महान हो।
निर्विचार
में तो तुम बच
नहीं सकते।
विचार में ही
बचते हो।
विचार सहारा
है; इसलिए
अज्ञानी बहुत
अहंकारी नहीं
हो सकता।
पंडितों ने
वचन लिखे हैं,
जिनमें
उन्होंने कहा
है, 'धन
पूजा जाता हो,
सम्राट की
पूजा होती हो
एक देश में, लेकिन
ज्ञानी
सर्वत्र पूजा
जाता है।' ये
खुद ही ज्ञानी
लिख रहे हैं!
इनका ज्ञान
बहुत गहरा
नहीं हो सकता।
पूंछ भीतर
उलझी रह गयी, भैंस बाहर
निकल गयी।
और अगर
ये ज्ञान की
तलाश भी कर
रहे हैं तो
सिर्फ इसीलिए, ताकि
सर्वत्र पूजा
हो; ताकि
सभी पूजें।
लेकिन दूसरे
की आंखों में
पूजा देखने से
मिलता क्या
होगा? दूसरे
की आंखों में
पूजा देखकर
कौन-सी शक्ति
इकट्ठी होती
है? कौन-सी
ऊर्जा इकट्ठी
होती है?--तुम
खास हो जाते
हो। तुम
विशिष्ट हो
जाते हो। लगता
है, तुम
कुछ हो।
तुम्हें अपने
पर भरोसा आ
जाता है कि
मैं कुछ हूं।
अन्यथा इतने
लोग मुझे
क्यों देखते?
इतने लोग, इतनी आतुरता
से देखते हैं,
सबकी आंखें
मेरी तरफ लगी
हैं, तो
मैं कोई
साधारण नहीं
हो सकता। मैं
कोई असाधारण हीरा
हूं।
जिनको
हम बुद्धिमान
कहते हैं, वे बड़े
निर्बुद्धि
हैं, अगर
उनकी पूंछ की
तरफ देखो।
इसलिए दुनिया
में जितने
उपद्रव होते
हैं, वे इन
तथाकथित इनटेलिजेंशिया
के कारण होते
हैं।
दुनिया
में अब तक
समाज केवल दो
स्थानों पर
ऐसी जगह
पहुंचा है, जहां इस
तरकीब को समाज
के
निर्माताओं
ने समझ लिया
था। एक तो
भारत में, और
एक अब रूस
में। भारत में
कोई पांच हजार
सालों में
क्रांति नहीं
हुई। क्योंकि
उपद्रवी को
हमने
ब्राह्मण का
ऊंचा से ऊंचा
पद दे दिया। और
उससे कुछ ऊपर
जगह न थी। वह
जो बुद्धिशाली
था, वह
पूज्य था।
ब्राह्मण की
अकड़ देखते
हैं! रास्ते
पर चलता है, भिखारी हो, उसकी नाक
देखते हो? उसकी
नाक से उसकी
पूंछ उगी हुई
है। उसके पास
एक पैसा न हो, एक धेला न हो,
लेकिन उसकी
चाल देखते हो?
क्या कोई
सम्राट उस अकड़
से चलेगा! और
जब वह तुम्हारी
तरफ देखता है,
जैसे तुम
कोई तुच्छ
कीड़े हो। वह
अकड़ ब्राह्मण
की धीरे-धीरे
खो गयी है।
इसलिए अब भारत
ज्यादा दिन
क्रांति से
नहीं बच सकता।
उपद्रव खड़े हो
रहे हैं।
रूस ने
फिर उस प्रयोग
को किया। रूस
पिछले पचास
सालों में
सबसे ज्यादा
दमित समाज है।
लेकिन वहां
कोई क्रांति
नहीं होती
क्योंकि वहां
ब्राह्मण
आदृत हैं। जो बुद्धिशाली
इनटेलिजेंशिया
है, वह रूस
में जितना
आदृत है, पृथ्वी
में कहीं आदृत
नहीं है। और
दुनिया भर के
बुद्धिवादी
अमरीका के
खिलाफ हैं।
क्योंकि अमरीका
में
बुद्धिवादी
का कोई आदर
नहीं, दो कौड़ी का
आदर नहीं है।
अमरीका में आप
कितने बड़े बुद्धिशाली
हैं, कोई
फिक्र नहीं
करता। आप का
बैंक-बैलेंस
कितना है, यह
सवाल है।
अमरीका वैश्य
का समाज है, वणिक का।
वहां कीमत धन
की है, कुशलता
की है, विचार
की नहीं है।
रूस ने
बुद्धिवादी
को ऊपर बिठा
दिया है। प्रोफेसर, एकेडेमिशयन,
लेखक, कवि
इतने आदृत हैं,
फिर से
ब्राह्मणों
का पुराना युग
रूस में लौट
आया। रूस में
क्रांति न हो
सकेगी तब तक, जब तक
ब्राह्मण
पद-च्युत न
हो। जैसे ही
ब्राह्मण
पद-च्युत हुआ,
उपद्रव
शुरू कर देता
है, क्योंकि
उसकी पूंछ
होनी ही
चाहिए।
इसलिए
आज सारी
दुनिया में
जहां-जहां
उपद्रव के
अड्डे हैं, वे युनिवर्सिटीज
हैं; वहां
ब्राह्मण पैदा
होते हैं।
विश्वविद्यालय
अड्डे हैं उपद्रव
के। सबसे
ज्यादा आग
वहां है। वहां
बिलकुल सूखी
बारूद है।
चिंगारी की
जरूरत है। आने
वाले पचास साल
दुनिया में जो
भी मुसीबत, उपद्रव अड़चन,
बेचैनी
होगी वह सभी
विश्वविद्यालय
से आयेगी।
वहां सभी
प्रोफेसर
असंतुष्ट
हैं। वहां
होने वाले
भविष्य के
प्रोफेसर, जो
अभी
विद्यार्थी
हैं, वे
असंतुष्ट
हैं। जितनी
बुद्धि बढ़ती
है, उतना
असंतोष बढ़ता
है। क्योंकि
जितनी बुद्धि बढ़ती
है, कितना
ही अहंकार को
कोई सम्मान दे,
तृप्ति
नहीं होती है;
मांग बढ़ती
चली जाती है।
बुद्धि की
मांग का कोई
अंत नहीं है।
बड़े से बड़ा
सिंहासन भी
जल्दी ही छोटा
लगने लगता है।
विश्वविद्यालय
राजनीति के
भयंकर अड्डे
हैं। वहां
चपरासी से
लेकर कुलपति
तक सब गहरी
राजनीति में
संलग्न हैं।
सबको और ऊपर
पहुंचना है।
यह ऊपर
पहुंचने की
दौड़ बुद्धिशाली
में होगी ही।
गोसो
ने कहा, 'देखो!
अगर तुमने सोचा,
तुम्हारी
भी पूंछ उलझ
जाएगी।'
सोचनेवाला
आदमी
निरहंकारी
कैसे होगा? निरहंकारी
आदमी तभी हो
सकता है, जब
अहंकार की ईंटें
खिसका ली
जाएं। यह मकान
खड़ा है। इस
मकान की ईंटें
तुम्हें
दिखाई नहीं पड़तीं
क्योंकि सब
पलस्तर के
भीतर छिपी
हैं। तुम्हारे
अहंकार की भी ईंटें
नहीं दिखाई पड़तीं
क्योंकि सब
पलस्तर के
भीतर छिपी
हैं। लेकिन मकान
की एक-एक ईंट
निकालते जाओ,
क्या तुम
सोचते हो, जब
सब ईंटें
निकल जाएंगी
तो पीछे मकान
बचेगा? जिस
दिन सब ईंटें
निकल जाएंगी,
मकान खो
जाएगा। विचार
अहंकार के भवन
की ईंटें
हैं। जितने
तुम विचार
रखते जाते हो,
उतना महल
बड़ा होता जाता
है।
गोसो
ठीक कह रहा है, 'सोचे कि
भटके।'
इसलिए
धर्म विचार के
विपरीत है।
धर्म कोई दर्शनशास्त्र
नहीं है। धर्म
कोई विचार की
कला नहीं है।
धर्म तो
निर्विचार की
अनुभूति है।
जिस
क्षण
निर्विचार
होता है, महल
खो जाता है।
तुम होते हो, लेकिन
अहंकार नहीं
होता। खुले
आकाश के नीचे
खड़े हो जाते
हो। सब
कारागृह खो
गये। और अचानक
पीछे लौटकर
तुम देखोगे
कि वहां पूंछ
नहीं है।
क्योंकि जो
निर्विचार की
अवस्था में है,
वह वृक्ष
जैसा हो गया, पक्षी जैसा
हो गया, पानी
के झरने जैसा
हो गया, हवा
में कंपती धूप
जैसा हो गया, आकाश में
उड़ते बादल
जैसा हो गया।
वहां कहां अहंकार?
मैंने
सुना है, लुकमान
की एक कहानी
है कि एक दिन
विवाद हो रहा था
और लुकमान
बैठा सुन रहा
था। लुकमान
गरीब गुलाम था
और एक सम्राट
ने उसे खरीदा
था। खरीदने की
घटना भी समझने
जैसी है।
बाजार में
लुकमान बिक रहा
था। दो और
गुलाम उसके
साथ बेचे जा
रहे थे। उसमें
एक सबसे सुंदर
गुलाम था।
लुकमान बहुत कुरूप
था।
खरीदनेवाले
की नजर पहले
तो उस पर गयी, जो सुंदर था,
स्वस्थ था।
तो उसने पूछा
कि तुम क्या
कर सकते हो? तो उस आदमी
ने कहा, 'एनीथिंग'। कोई भी चीज
कर सकता हूं।
अहंकारी आदमी
रहा होगा--'कुछ
भी कर सकता
हूं।' तब
उसने दूसरे
आदमी की तरफ
देखा और उससे
पूछा कि तुम
क्या कर सकते
हो? उसने
कहा, 'एवरीथिंग'। सभी कुछ कर
सकता हूं।
इन
उत्तरों को
सुनकर उसे लगा
कि इस तीसरे
से भी पूछ
लेना चाहिए कि
तू क्या कर
सकता है। हालांकि
इसे खरीदने का
कोई सवाल न
था। लुकमान
कुरूप था। उस
आदमी ने पूछा
कि और तू क्या
कर सकता है? लुकमान ने
कहा, 'नथिंग'। मैं कुछ भी
नहीं कर सकता।
सम्राट ने कहा,
अजीब उत्तर
हैं
तुम्हारे। एक
कहता है 'एनीथिंग', दूसरा कहता
है 'एवरीथिंग',
तीसरा कहता
है 'नथिंग'। तू कुछ तो
कर ही सकता होगा
कि बिलकुल कुछ
नहीं कर सकता?
उसने कहा, 'अब बचा ही
नहीं।' एक
कहता है
एवरीथिंग, एक
कहता है एनीथिंग;
कुछ बचा
नहीं करने को।
सिर्फ 'नहीं
कुछ' बचा
है, वही
मैं कर सकता
हूं।
ध्यान 'नहीं-कुछ'
की कला है।
जब तक
तुम कुछ कर
सकते हो, अहंकार
निर्मित होगा,
पूंछ
बनेगी। तुम
जितने कुशल
होते जाओगे
कुछ करने में,
उतने ही तुम
अहंकारी होते
जाओगे। महल
बड़ा होने
लगेगा।
लुकमान ने ठीक
कहा कि 'नहीं-कुछ'। सम्राट को
उत्तर तो
जंचा। और
लुकमान ने कहा,
खरीद ही लो,
इतना क्या
विचार कर रहे
हो? इनको
तो कोई भी
खरीद लेगा, मुझे तो
सिर्फ सम्राट
ही खरीद सकता
है। इनको कोई
भी खरीद लेगा,
गरीब मजदूर
भी खरीद लेगा;
कुछ न कुछ
कर सकते हैं।
ये अपने हाथ
फंसे हैं। ये बिकेंगे
किसी नासमझ के
हाथ। मुझे तो
सिर्फ सम्राट
ही खरीद सकता
है, जो
समझता हो।
इससे निश्चित
ही सम्राट के
अहंकार को चोट
लगी। पूंछ बड़ी
हो गयी। जब किसी
ने कहा कि
मुझे तो सिर्फ
सम्राट ही
खरीद सकता है;
उसने
तत्काल खरीद
लिया। और काफी
पैसे चुकाये।
लुकमान
सम्राट के घर
गया। गुलाम की
तरह वह सम्राट
के घर रहा। तो
उसने एक
संस्मरण लिखा
है कि एक दिन
वह साफ कर रहा
था कमरे को।
महल के बाहर, सम्राट की
ध्वजा हवाओं
में फहरा
रही थी। और
महल के भीतर
सीढ़ियों पर
बिछा हुआ कालीन
विश्राम कर
रहा था। तो
लुकमान ने कहा,
मैंने
दोनों की
चर्चा सुनी।
वह पताका कह
रही थी कि मैं
सदा मुसीबत
में हूं। हवा
के झोंके में,
धूप, वर्षा,
तूफान, आंधी!
युद्ध के
मैदान पर पहला
घोड़ा लेकर
मुझे चलता है।
गोलियां जहां
चल रही हों, तोपें फोड़ी
जा रही हों, वहां सबसे
आगे मैं होती
हूं। मेरा
जीवन सदा संकट
में है। एक तू
है, कालीन
से उसने कहा, तू सदा यहीं
विश्राम करता
है छाया में; न धूप, न हवायें, न आंधियां, न युद्ध के
मैदानों पर
जाना। तू सदा
विश्राम में
है। तेरी तरकीब,
तेरा राज
क्या है?
तो
कालीन ने उस
पताका को कहा, 'ना-कुछ' हो
जाना मेरी
तरकीब, मेरा
राज है। मैं
पैरों की धूल
हूं। तूने सिर
पर होने का
खयाल ले रखा
है। तू पताका
है। तेरी अकड़
बड़ी है।
गोलियां
चलेंगी ही
तेरे आसपास। आंधी
उठेगी ही तेरे
आसपास। नहीं
तो तेरी अकड़
को सिद्ध करने
का उपाय क्या
होगा? तू
तनाव में
रहेगी ही। मैं
ना-कुछ हूं, पैरों की
धूल हूं। जो
ना-कुछ है, वह
विश्राम को
उपलब्ध हो
जाएगा।
लुकमान
झाड़ रहा था, सफाई कर रहा
था; हंसने
लगा। सम्राट
ने उससे पूछा
कि तू क्यों हंस
रहा है? उसने
कहा कि यह
कालीन, ठीक
उसी जगह पहुंच
गयी, जहां
मैं। जो मैंने
तुमसे कहा था--'नथिंग', कि मैं कुछ
भी नहीं कर
सकता; यह
कालीन भी उसी
राज को पा गयी
है। सम्राट!
अगर कुछ सीखना
हो, इस
कालीन से
सीखना, पताका
से बचना।
लेकिन
कैसे पताका से
बचा जाए!
अहंकार की
पताका तो
आगे-आगे चल
रही है। तुम
जाते हो, उसके
पहले
तुम्हारा
अहंकार चलता
है। उस अहंकार
की पताका का, तुम शायद
अहंकार की
पताका के डंडे
मात्र हो। पताका
ही असली चीज
है।
गोसो
ने कहा, 'सोचा,
तुम्हारी
पूंछ भी उलझ
जाएगी।' यह
सुनकर वे और
चिंतित हो गये
क्योंकि अब तक
तो कहानी थी, अब यह बात
जिंदगी की हो
गयी। यह किसी
और भैंस के
संबंध में
चर्चा न थी, गोसो उन्हीं के
बाबत बात कर
रहा था। वे और
बेचैन हो गये।
वे और सोचने
लगे।
कुछ
चीजें हैं, जिनके बाहर
तुम प्रयास से
नहीं जा सकते।
और जितना तुम
प्रयास करोगे,
उतने तुम
उलझ जाओगे।
जैसे रात नींद
न आती हो, क्या
करोगे? तुम
जो भी करोगे
उससे नींद में
बाधा पड़ेगी।
मंत्र पढ़ोगे,
राम-नाम जपोगे,
क्या करोगे?
उठकर कमरे
में चक्कर
लगाओगे, भेड़ों
की गिनती
करोगे, एक
से सौ तक
जाओगे, सौ
से उलटे
निन्यान्नबे,
अट्ठान्नबे,
एक तक वापस
लौटोगे? क्या
करोगे? तुम
जो भी करोगे, नींद में
बाधा पड़ेगी।
क्योंकि नींद
न करने की
अवस्था है। और
जब भी तुम कुछ करते
हो, तब
तनाव पैदा
होता है। काम
विश्राम नहीं
बन सकता।
लेकिन
तुम किसी के
भी पास जाओ, अगर तुम्हें
नींद न आती हो
तो तुम्हें
मुफ्त सलाह
देने वाले मिल
जाएंगे कि
क्या करो। और
उनकी वजह से
तुम्हें फिर
नींद कभी भी न
आयेगी; उनसे
तुम बचना।
नींद के लिये
कुछ भी नहीं
किया जा सकता।
तुम जो भी
करोगे, वही
उल्टा होगा।
नींद तो तब
आती है, जब
तुम कुछ भी
नहीं कर रहे
होते। तो कुछ
चीजें हैं
जिनके संबंध
में कुछ किया
कि तुम उलझे।
ध्यान
नींद जैसा है।
निर्विचारणा
नींद जैसी है।
इसलिए हिंदुओं
ने अपने
शास्त्रों
में कहा है कि
समाधि और
सुषुप्ति का
एक ही स्वभाव
है। गहरी
सुषुप्ति, गहरी नींद
समाधि जैसी
है। फर्क
जरा-सा है; वह
फर्क है कि
नींद में तुम
होश में नहीं
होते, समाधि
में तुम होश
में होते हो; लेकिन
गुणधर्म एक ही
है। परम साधु
वही है जो उतने
विश्राम में
है, जितने
तुम गहरी नींद
में होते हो, लेकिन होश
में है। बस, इतना ही
फर्क है। जागा
हुआ सोया है, तुम सोये
हुए जागते हो।
तुमसे बिलकुल
भिन्न है। कुछ
चीजें हैं कि
तुमने उपाय
किया कि तुम मुश्किल
में पड़े।
लेकिन इसे
समझो।
गोसो
ने कहा कि
सोचा, कि तुम्हारी
पूंछ उलझ
जाएगी। इससे
उन्होंने सोचना
बंद न किया, वे और भी सोच
में पड़ गये।
वे जितने सोच
में पड़े, गोसो ने
कहा, कि
देखो! अगर
ज्यादा सोचा
तो पीछे लौटकर
देखो, तुम्हारी
पूंछ बढ़ती जा
रही है, बड़ी
होती जा रही
है।
विचार, विचार के
बाहर नहीं ले
जा सकता। अहंकार,
अहंकार के
बाहर नहीं ले
जा सकता।
अगर
तुम अहंकार से
भरे हो, तो
सारी दुनिया
तुम्हें सिखायेगी
कि विनम्र हो
जाओ, विनम्र
होने से लोग
तुम्हें पूजा
देंगे। मंदिरों
में, मस्जिदों में, चर्चों
में समझाया जा
रहा है, विनम्र
हो जाओ
क्योंकि जो
विनम्र है, उसीको लोग सम्मान
देंगे। यह बड़े
मजे की बात
है। सम्मान की
आकांक्षा
विनम्र होने
के लिये
आकर्षण बनायी
जा रही है। यह
विनम्रता
झूठी होगी। यह
विनम्रता
अहंकार का ही
आभूषण होगा।
मंदिरों
में समझाया जा
रहा है, त्याग
करो, लोभ
मत करो; क्योंकि
जो छोड़ेगा, परलोक में
पायेगा। यह बड़े
मजे की बात है!
लेकिन पाने के
लिये ही छोड़ा
जा रहा है।
छोड़ेगा कौन? यहां जो
ज्यादा चालाक
है, वह
छोड़ेगा। जो
परलोक तक में
इंतजाम कर
लेना चाह रहा
है पहले से, वह छोड़ेगा।
दान दो, ताकि
परमात्मा
तुम्हें
हजारों गुना
वापस लौटाये।
इतना सस्ता
धंधा तो यहां
भी नहीं होता।
यह सौदा तो
बिलकुल बड़े
मजे का है। एक
पैसा तुम दो, और करोड़
पैसे लौटते
हैं। यह तो
जुआ मालूम
होता है।
लाटरी
कोई यहीं नहीं
चल रही, स्वर्ग
में भी चल रही
है। और यहां
की लाटरी तो जरूरी
नहीं कि
तुम्हें
मिले। चूक भी
जाओ। वहां की
लाटरी कभी
नहीं चूकती।
तुमने एक पैसा
दिया, करोड़ तय हुए।
शास्त्रों
में कहा है, 'एक करोड़
गुना भगवान
देता है; तुम
दो!'
तुम्हें
सिखाया जा रहा
है दान, लेकिन
उसके आधार में
लोभ है। यह
दान झूठा होगा।
इसलिए यह
मुल्क पांच
हजार साल से
दान की बात कर
रहा है लेकिन
इससे ज्यादा
लोभी आदमी
संसार में
कहीं भी खोजना
कठिन है।
इस
पृथ्वी पर
जितना भयंकर
लोभ भारत में
है, उतना
कहीं भी नहीं।
और दान की
यहां चर्चा चल
रही है, और
दान भी हो रहा
है। मंदिर भी
बन रहे हैं, मस्जिदें भी बन रही
हैं, धर्मशालायें भी खड़ी हो
रही हैं। दान
भी चल रहा है
और लोभ का कोई
हिसाब नहीं
है।
क्या
हुआ होगा? कहीं कुछ
गणित की भूल
हो गयी है।
हमारा दान भी लोभ
पर ही खड़ा है।
हमारा परलोक
भी इसी संसार
पर खड़ा है। छोड़ो,
वहां पाना
हो तो। यह किस
भांति का
छोड़ना हुआ! छोड़ने
का मतलब ही यह
होता है कि अब
पाने की कोई आकांक्षा
न रही। अब कुछ
पाना नहीं है,
इसलिए
छोड़ते हैं।
छोड़ना पूरा हो
गया, पूर्ण-विराम
हो गया। इसके
आगे कोई पाने
की दौड़ नहीं
है। यह कोई इनवेस्टमेंट
नहीं है। यह
कोई नया धंधा
नहीं है
जिसमें पैसा
लगा रहे हैं।
यह सिर्फ
छोड़ना है।
इससे छुटकारा
हुआ।
त्याग--जहां
पूर्णविराम
है, और आगे की
मांग नहीं
करता, वही
त्याग है।
विनम्रता--जहां
पूर्ण विराम
है, और
सम्मान की
आकांक्षा
नहीं करती, वहीं
विनम्रता है।
अहंकार
अहंकार को छोड़
नहीं सकता।
अहंकार को छोड़ना
हो तो हमें
अहंकार को
फुसलाना पड़ता
है, परसूएड करना पड़ता
है। हम उससे
कहते हैं देखो,
तुम विनम्र
रहोगे तो सभी
तुम्हें
समादर देंगे
और तुमने अगर अहंकारीपन
दिखाया, कोई
तुम्हें आदर न
देगा, जूते
पड़ेंगे। अगर
फूल की मालायें
चाहिये, तो
बिलकुल गरदन
झुकाकर चलो।
मगर भीतर
आकांक्षा फूल
की माला के
लिये है।
विचार
से विचार के
बाहर तुम न जा
सकोगे। क्या करोगे? अगर तुम यह
भी सोचने लगे,
कैसे निर्विचार
हो जाऊं? अनेक
लोग कर रहे
हैं यह काम।
सुनते हैं
गुरुओं को, ज्ञानियों
को, संत
पुरुषों को, तो खयाल आता
है निर्विचार
का। पर यह भी
तुम्हारे
भीतर तो एक
विचार है, यह
एक वासना
है--कैसे
निर्विचार हो
जाएं? अब
बैठे हैं आंख
बंद करके और
सोच रहे हैं, कैसे
निर्विचार हो
जाऊं? क्या
तरकीब है
निर्विचार
होने की? यह
सब विचार चल
रहा है। यह
निर्विचार भी
तुम्हारे
लिये एक विचार
है। विचार से
कभी कोई निर्विचार
को उपलब्ध न
होगा।
गोसो
ने देखा कि वे
और भी विचार
में पड़े गये
हैं। वह हंसा
और उसने कहा, 'पीछे लौटकर
देखो।
तुम्हारी
पूंछ बड़ी होती
जा रही है।'
अगर
तुम वहां गये
होते तो तुमने
भी पीछे लौटकर
देखा होता।
चाहे संकोचवश
तुम वहां रुक
भी गये होते, तो गोसो
के मंदिर से
बाहर निकलकर
एकांत गली में
तुमने पीछे
लौटकर देखा
होता कि पूंछ
बढ़ गयी या
नहीं! पर यह
पूंछ कोई
दिखायी पड़ने
वाली चीज नहीं,
जिसे तुम
पीछे लौटकर
देख लो। यह
शरीर का हिस्सा
नहीं है।
लेकिन फिर भी गोसो ठीक
कह रहा है। गोसो
जैसे लोग गलत
नहीं कहते।
'पीछे
लौटकर देखो', इसका मतलब
पीठ की तरफ से
मत देखने का
सवाल है। 'पीछे
लौटकर देखो' का मतलब है, आंख बंद करो
और पीछे लौटकर
भीतर देखो।
वहां पूंछ बढ़
रही है। जितना
तुम विचार कर
रहे हो, जितना
धुआं पैदा हो
रहा है, उतना
तुम अहंकारी
होते जा रहे
हो। वह बढ़ती
जा रही है।
पीछे लौटने का
अर्थ है, प्रतिक्रमण--जिसको
महावीर ने
प्रतिक्रमण
कहा।
चित्त
की दो
अवस्थाएं
हैं। एक है
आक्रमण, जब
तुम दूसरे पर
जाते हो; और
चित्त की
दूसरी दशा है,
प्रतिक्रमण;
जब तुम
चेतना को अपने
पर लौटाते हो।
गोसो ने
कहा, पीछे
लौटकर देखो, इसका मतलब
वही है जो
कबीर ने कहा
है, 'आंख
बंद करो, और
आंखों को
उल्टी हो जाने
दो।' पीछे
लौटकर देखने
का मतलब है कि
तुम्हारे भीतर
जो चल रहा है, उसके प्रति सजग
हो जाओ।
सोचोगे, और
सोच बढ़ेगा।
एक-एक विचार
से हजार विचार
पैदा होते
हैं। सोचने से
कभी कोई
निर्विचार पर
पहुंचा है? सोचने से और
विचार...और
विचार...पागलपन
आखिर में आ
सकता है।
विक्षिप्त हो
सकते हो, विमुक्त
नहीं। विचार
की ईंटों से
बनती है अस्मिता।
वही तुम्हारी
पूंछ है।
भैंस
कोई और नहीं, तुम्हीं हो।
आंगन कहीं और
नहीं, तुम्हारा
ही मन है।
पूरे तुम बाहर
निकल गये हो, सिर्र्फ पूंछ उलझी
है। बड़ी बेबूझ
लगती है बात। उलटबांसी
लगती है कि जब
पूरी भैंस ही
निकल गयी तो
अब पूंछ के
उलझने का क्या
सवाल? लेकिन
हमेशा यही
होता है, भैंस
निकल जाती है,
पूंछ उलझ
जाती है। तुम
बाहर हो
जाओगे।
तुम्हारी
मुक्ति में
कोई बाधा नहीं,
लेकिन
तुम्हारा
अहंकार उलझा
रहेगा।
थोड़ा
सोचो, तुम
प्रार्थना
करने मंदिर
में जाते हो।
प्रार्थना का
अर्थ ही है, परमात्मा के
सामने
समर्पित हो
जाना। लेकिन वहां
भी तुम दबी आंखों
से देखते रहते
हो, कोई
देख रहा है या
नहीं!
परमात्मा से
तुम्हें मतलब
नहीं होता, गांव के लोग
देख रहे हैं
कि नहीं, कि
तुम--कितना
बड़ा धार्मिक
आदमी! अकेले
में कोई मंदिर
प्रार्थना
करने नहीं
जाता। भीड़ में
लोग जाते हैं।
भीड़ देख ले कि
तुम धार्मिक
हो; उससे रिस्पेक्टेबिलिटी
मिलती है।
उससे आदर
मिलता है, सम्मान
मिलता है। तुम
झुकते जरूर हो
परमात्मा के
सामने, लेकिन
तुम खयाल अपनी
पूंछ का ही
रखते हो--कोई देख
रहा है या
नहीं!
और अगर
लोग बहुत गौर
से देख रहे
हैं, तुम
प्रार्थना
में बड़े
तल्लीन हो
जाते हो। वह तल्लीनता
बड़ी झूठी है।
अगर वहां कोई
भी न देख रहा
हो, तो तुम
झटपट अपनी
नमाज, अपनी
प्रार्थना
पूरी करके
अपने घर लौट
जाते हो।
परमात्मा से
तो कुछ
लेना-देना
नहीं है, यह
जो भीड़ चारों
तरफ है...।
सोचो, जिस दिन तुम
प्रार्थना कर
रहे हो उस दिन
टी. वी. के लोग
कैमरा लेकर आ
गये हों, उस
दिन कैसी
तल्लीनता
आयेगी! अखबार
वाले खड़े हों,
फोटोग्राफर
खड़े हों, फ्लेश
के बल्ब चमक
रहे हों, फोटो
उतारी जा रही
हो, कैमरा
तुम्हारे
चारों तरफ घूम
रहा हो; उस
दिन जैसा
तुम्हारा
ध्यान लगेगा,
वैसा कभी
नहीं लगा था।
क्योंकि उस
दिन पूंछ काफी
बड़ी हो रही
है। इस पूंछ
के लिए तुम
कुछ भी कर
सकते हो। तुम
परमात्मा को चूक
सकते हो, इस
पूंछ को नहीं
चूक सकते।
जीसस
ने कहा है, 'तेरा बायां
हाथ दे तो
तेरे दायें
हाथ को पता न चले;
अन्यथा दान
व्यर्थ हो
गया।' तुम
देना और भाग
खड़े होना।
धन्यवाद के
लिए मत रुकना;
अन्यथा दान
भी व्यर्थ हो
गया। लेकिन हम
देते हैं
धन्यवाद के
लिए ही। और हम
किसी को दें
और वह धन्यवाद
न दे, तो हम
खड़े रहते हैं
कि कब तक दोगे!
और अगर वह बिलकुल
बात ही न करे
धन्यवाद की, तो हम बड़े
दुखी और पीड़ित
और परेशान
लौटते हैं।
व्यर्थ गया
देना! और जीसस
कहते हैं, 'तुम
भाग खड़े होना
देकर ताकि वह
धन्यवाद न दे
पाये। बायां
हाथ दे, दायें
को पता न चले।'
सूफी
फकीर कहते हैं, 'रात अंधेरे
में
प्रार्थना
करना; तुम्हारी
पत्नी को भी
पता न चले कि
तुम प्रार्थना
कर रहे हो।
उसको भी पता
चल गया तो बात
गड़बड़ हो गयी।
इसलिए नहीं कि
उसके पता चलने
से गड़बड़ हो
जाएगी; तुम
इतने चालाक हो
कि तुम समझोगे
कि आकस्मिक रूप
से उसको पता
चल गया; और
तुम पूरा
इंतजाम कर
लोगे पता चलने
का। हम इतने
कुशल हैं खुद
को धोखा देने
में, हम
तरकीबों से
देते हैं धोखा,
कि खुद भी
नहीं पहचान
पाते कि हम
धोखा दे रहे हैं।
याद करो, कभी
तुमने कोई ऐसा
कृत्य किया है,
जिसमें
पूंछ का ध्यान
न रहा हो?
भिखारी
भी भलीभांति
जानते हैं कि
तुम अकेले रास्ते
पर होते हो तो छेड़ते
नहीं क्योंकि
अकेले में तुम
कहते, कि हट!
कोई देखने
वाला नहीं है,
डर क्या है?
तुम चार
आदमियों के
साथ चले जा
रहे हो, बस
भिखारी फंसा
लेगा। पैर-हाथ
पकड़ लेगा, रोने-चिल्लाने
लगेगा। अब
तुम्हें देना
पड़ेगा। भीतर
तुम गालियां
दे रहे हो कि
अकेले में मिलता
तो तुझे
बताता! लेकिन
अब चार
आदमियों के सामने
उसने पकड़ लिया
है। इन चार के
सामने प्रतिष्ठा
का सवाल है कि
नहीं तो ये
क्या सोचेंगे कि
दो पैसा देने
में इतनी
कंजूसी! तुम
एकदम उदार हो
जाते हो। वह
उदारता झूठी
है। तुम दो की
जगह चार पैसा
देते हो। वह
तुम इन चारों
की आंखों के
लिए दे रहे
हो। इन चारों
की आखों
में तुम्हारी
पूंछ हो रही
है। तुम्हारा
अहंकार बड़ा हो
रहा है।
भिखारी तक
जानता है कि
तुम्हें कब
ठीक मौके पर पकड़े।
क्योंकि भीख
का भी
मनोविज्ञान
है। और हर
वक्त तुम भीख नहीं
देते। हर वक्त
तुम दे भी
नहीं सकते।
उसे भी तुमसे
निकालना पड़ता
है। और तुम
देना बिलकुल
नहीं चाहते, लेकिन फिर
भी तुम देते
हो।
एक
गांव की मुझे
खबर है, उस
गांव में मैं
बहुत दिन तक
रहा। उस गांव
में जब भी लोग
दान लेने जाते
थे तो गांव का
जो धनपति था, पहले उसके
घर जाते थे।
कहते हैं कि
उसने कभी दान
नहीं दिया।
लेकिन वह
लिखवा देता था
दस हजार, पंद्रह
हजार, बीस
हजार। और यह
बात तो
स्वीकृत थी कि
वह देगा एक
पैसा भी नहीं,
लेकिन
लिस्ट पर
लिखवा देता
था। जब वह बीस
हजार दे देता
तो छोटी-मोटी
पूंछ वाले लोग
भी फंस जाते।
जब उसने बीस
हजार
दिये--कंजूस
ने, महाकंजूस
ने, तो अब
अगर ना दे कुछ
तो उससे भी
बदतर हालत
गांव में हो
जाए। तो वह भी
लिखवा देते
थे। अगर तुम भी
अपने गांवों
में दान लेने
वालों से
पूछोगे तो वह
जानते हैं कि
पहले किनके
नाम लिखवा
देना! चाहे वह
दें या न दें, यह बड़ा सवाल
नहीं है। और
उनकी वजह से
मिलता है।
दूसरों के
अहंकार को चोट
लगनी शुरू हो
जाती है। एक
धनपति दे देता
है तो दूसरे
धनपति को लगता
है, मैं
कोई छोटा हूं!
मैं कोई पीछे
रह जाऊंगा!
तुम्हारे
तीर्थ, तुम्हारे
मंदिर भी
भिखारी के मनोविज्ञान
से ही जीते
हैं। मंदिरों
में दान होता,
वह एकांत
में नहीं होता
है। सब लोग
इकट्ठे हो जाते
हैं, फिर
दान बोला जाता
है। जैन
मंदिरों में
पर्युषण के
बाद दान का
दिन हो जाता
है। उस दिन
दान बोला जाता
है। कोई कहता
है दस हजार, वह नीलाम
जैसा है--पूंछ
बिक रही है।
और अब जब एक कह
देता है, दस
हजार, तो
दूसरे को भी
अकड़ आ जाती है;
चाहे
हैसियत न भी
हो तो वह कह
देता है, पंद्रह
हजार। फिर अकड़
बढ़ती जाती है।
फिर सवाल प्रतिष्ठा
का हो जाता है
कि कौन प्रथम
लेता है; कौन
पहले आता है।
वह दौड़
महत्वाकांक्षा
की हो जाती
है।
मंदिर
भी महत्वाकांक्षा
पर जीते हैं; दुकान भी
उसी पर जीती
है। कहीं कोई
भेद नहीं है।
गणित एक ही
है। उसके ढंग
कितने ही ऊपर
से अलग दिखाई
पड़ते हों, भीतर
की प्रक्रिया
एक
है--अहंकार।
मंदिर बनवाने
में दौड़ लग
जाती है, पत्थर
लगवाने की दौड़
लग जाती है।
कौन कितना बड़ा
पत्थर लगवाता
है, कौन
कितना दान
देता है।
तुम्हारा
सारा जीवन अहंकार
से ही चल रहा
है।
इस
अहंकार से चलनेवाले
जीवन का नाम
संसार है। तुम
उसमें बंद हो, किसी ने
तुम्हें बंद
किया नहीं है।
दरवाजे खुले
हैं। तुम भी
उसके बाहर
होना चाहते हो
क्योंकि
परतंत्रता
में दुख है।
लेकिन तुम
बाहर हो नहीं
सकते क्योंकि
अहंकार दूसरों
पर निर्भर है।
बिलकुल बाहर
हो जाओगे तो
अहंकार भी
मिटेगा। यह
दुविधा है।
भैंस
बीच में खड़ी
है। पूरी तो
निकल गयी, पूंछ को
उसने खुद ही
छोड़ रखा है।
काश! गोसो
के शिष्यों
में से एक को
भी ज्ञान हुआ
होता तो वह कह
देता कि भैंस
बाहर नहीं जा
रही है, इसमें
कोई बाधा नहीं
है। यह भैंस
का अपना निर्णय
है। क्योंकि गोसो साफ
कर रहा है।
पहेली सीधी है,
कि कोई भैंस
की पूंछ पकड़े
नहीं है। पूंछ
कहीं उलझी
नहीं है, कोई
अटकाव नहीं
है। पूरी भैंस
निकल गयी है, दरवाजा काफी
बड़ा है। पूंछ
के रुकने का कोई
भी कारण नहीं
है--अकारण।
मगर गोसो के
शिष्य
सोच-विचार में
पड़ गये।
सीधी-सी बात उन्हें
दिखाई न पड़ी।
विचार का एक
अंधापन, जो
सत्यों को
नहीं देखने
देता। बात
सीधी है कि
भैंस अपनी
मरजी से खड़ी
है। शायद भैंस
सोच रही हो कि
वापस लौट आयें,
कि
परतंत्रता
सुखद थी। या भैंस
दोनों आनंद एक
साथ लेना
चाहती है, स्वतंत्रता
का भी और
अहंकार का भी;
और अहंकार
तो परतंत्रता
में ही मिल
सकता है।
तुम
जिनसे
प्रतिष्ठा
चाहते हो, तुम उनके
गुलाम हो ही
जाओगे। जिनसे
तुम आदर चाहते
हो, वे
तुम्हारे
मालिक हो
जाएंगे।
क्योंकि आदर देंगे
तो मुफ्त तो नहीं
देंगे। उनकी
भी शर्तें
होंगी। वे
तुम्हें चलायेंगे,
उठायेंगे,
बतायेंगे।
साधुओं को
देखो, उनके
पीछे जमाते
हैं उनके
शिष्यों की, और सब शिष्य
साधुओं को चला
रहे हैं। कैसे
उठो, कैसे
बैठो, क्या
करो, क्या
न करो। और नजर
रखे हुए हैं
कि जरा
भूल-चूक हुई
तो प्रतिष्ठा वापस।
पद गया, साधुता
खो गयी।
तुम
जिससे
प्रतिष्ठा
मांगोगे, तुम
उसके गुलाम हो
जाओगे। अगर
मुक्त होना हो
तो प्रतिष्ठा
मांगना ही मत।
अगर मुक्त
होना हो तो
सम्मान की
आकांक्षा मत
रखना। तब भैंस
बाहर निकल
सकती है। पूंछ
को भीतर रखने
की कोई भी जरूरत
नहीं। सभी
साधु पूरे
बाहर नहीं
निकल पाते, पूंछ भीतर
रह जाती है।
गोसो
के शिष्य सोच
में लग गये
क्योंकि यह
सत्य उन्हें
समझ में नहीं
आया। यह सत्य
तभी समझ में आ
सकता है, जब
इसे तुमने
अपने जीवन में
समझा हो और
पहचाना हो।
सोचने लगे।
यह कोई
पहेली थोड़ी थी, जो सोचने से
हल होगी! यह एक
तथ्य था, जो
ध्यान से
दिखाई पड़ेगा। पहेलियां
सोच-विचार से
हल हो सकती
हैं। तथ्य
सोच-विचार से
हल नहीं होते।
तथ्यों के
लिये तो खुली,
खाली, साफ
आंख चाहिये।
वह तो सामने
मौजूद हैं, सिर्फ उनको
देखना है। आंख
खोलनी है और
देखनी है।
अब
इसमें क्या
कठिनाई थी? यह कहानी तो
बड़ी सरल है, कि भैंस
अपनी मरजी से
खड़ी है, ठिठक
गयी। शायद
डरती है और
बाहर जाना
खतरे के बाहर
नहीं है। भीतर
ही रहना उचित
है। इतना तो भीतर
रहना उचित ही
है कि पूंछ
बनी रहे। सब
छोड़ दो, लेकिन
इतना संसार
में बने रहना
कि लोग तुम्हारा
खयाल रखें, स्मरण रखें;
पूंछ बनी
रहे। जंगल में
भी भागो
तो पूंछ को
यहीं छोड़
जाना।
संन्यास ले लो,
स्थानक में
रहने लगो, पूंछ
को यहीं छोड़
जाना। साधु
बैठा स्थानक
में भी सोचता
है, खबर
लेता है, गपशप
का पता लगाता
है। कौन उसके
संबंध में क्या
कह रहा है? गांव
में क्या हवा
चल रही है?
एक जैन
मुनि को मैं
एक दफा मिलने
गया। कमरे में
कुछ भी न था।
मैं बड़ा हैरान
हुआ, सिर्फ
अखबारों की एक
थप्पी
लगी थी उनकी
चटाई के पास।
पूरी थप्पी
अखबारों की!
मैंने उनसे
पूछा, 'कमरे
में कुछ भी
नहीं। आप सब
छोड़ चुके, ये
अखबार किसलिये
इकट्ठे रखे
हैं? उनको
बेचते हैं
रद्दी? संसार
छोड़ चुके, संसार
की खबरों का
इतना क्या
हिसाब रखते
हैं कि वहां
कहां क्या हो
रहा है। जिसको
हम छोड़ ही आये,
वहां क्या
हो रहा है
इससे क्या
फर्क पड़ता है?
नहीं, छोड़
नहीं आये हैं।
पूंछ हम वहां
रखते हैं। इन अखबारों
से सेतु बना
रहता है।
राजनीतिज्ञ
अखबार पढ़ता है,
समझ में आता
है। वह पूरा
का पूरा...उसकी
पूरी भैंस
भीतर है। वह
खबर रखता है, कहां क्या
हो रहा है।
जरा-सा मौसम
में फर्क हो तो
पता रखना
चाहिये
क्योंकि उसकी
जिंदगी वहां
निर्भर हैं।
लेकिन साधु भी
वही फिक्र
रखता है कि
वहां क्या हो
रहा है। पूंछ
उसने भी भीतर छोड़ी है।
भैंस बीच
दरवाजे पर खड़ी
है।
और
ध्यान रहे, इस तरफ हो
जाओ या उस तरफ;
क्योंकि
बीच में बड़ा
संकट हैं। बीच
में टंगे रहना
बड़ा कष्टपूर्ण
है। संसारी
होना अच्छा है,
संन्यासी
होना अच्छा है,
यह बीच में
खड़ी भैंस बड़ी
बुरी अवस्था
है। क्योंकि
इसमें
त्रिशंकु की
स्थिति हो
जाती है। बड़ा
तनाव पैदा
होता है। तुम
चाहते तो वही
थे, जो
संसारी को मिल
रहा है; और
तुम वह भी
चाहते हो, जो
संन्यासी को
मिलना
चाहिये।
संन्यासी जैसी
स्वतंत्रता
और संसारी
जैसा पद, प्रतिष्ठा,
अहंकार का
रस; तुम
दोनों चाहते
हो। तुम दो
नावों पर सवार
हो।
यह
भैंस बड़ी
होशियार रही
होगी। ठीक
तुम्हारे
साधुओं जैसी
कुशल, गणित
में पक्की।
इसने देखा कि
दोनों संभाल
लो। न यह
संसार जाए, न वह संसार
जाए। तो आधी
भैंस उस संसार
में खड़ी है; स्वतंत्रता
के खुले आकाश
में, पूंछ
को भीतर छोड़
दिया है। कम
से कम उतनी
जगह बनाये रखो,
कभी भी लौटना
हो तो रास्ता
न खो जाए। और
ध्यान रखना, पूंछ
तुम्हारी
बाहर गयी कि
दरवाजा बंद हो
जाता है।
सोचकर बाहर
निकालना।
उतना दरवाजा
खुला रखना, बीच में खड़े
रहना। कभी मन
बदल जाए और
भीतर आना पड़े!
और मन प्रतिपल
बदल रहा है।
और मन
की एक आखिरी
बात खयाल ले
लो कि मन
हमेशा विरोधों
को चाहता है।
तुम उस तरह का
प्रेम चाहते हो, जो केवल
प्रार्थना
करनेवाले को
मिलता है; और
तुम उस तरह की
वासना भी
चाहते हो, जो
केवल कामी को
मिलती है। और
ये दोनों एक
को कभी नहीं
मिलती। तुम वह
प्रेम चाहते
हो जो परमात्मा
का है; और
तुम वह वासना
तृप्त करना
चाहते हो, जो
पशुओं की है।
और ये दोनों
एक साथ नहीं
हो सकते।
इसमें तुम
दोनों को
बिगाड़ लोगे।
तुम न यहां के
रहोगे, न
वहां के।
यह
भैंस ऐसी ही
दशा में खड़ी
है। न तो
मुक्त आकाश
में जा सकती
है, क्योंकि
पूंछ को पीछे
छोड़ रखा है।
और न पीछे लौट
सकती है, क्योंकि
मुक्त आकाश बुलाता
है, स्वतंत्रता
पुकारती है।
मेरे
पास लोग आते
हैं; उनकी, अधिकतम
लोगों की सौ
में से
निन्यान्नबे
कठिनाई, यह
भैंस की दशा
है। वह मुझसे
कहते हैं, 'यह
भी संभल जाए, वह भी संभल
जाए।' वे
कहते हैं, 'घर
है, गृहस्थी
है, दुकान
है, बाजार
है, इसको
भी संभाल लें,
और परमात्मा
भी मिल जाए।' चाहते हैं
यह धन भी पकड़
में रहे, धर्म
भी पकड़ में आ
जाए। वह थोड़ा
बहुत धन छोड़ने
को भी राजी
हैं, अगर
धर्म कहीं
बिकता हो।
यह जो
त्रिशंकु की
दशा है, यह
बड़े संताप से
भर देगी। यह
भैंस शांत
नहीं हो सकती;
यह आज नहीं
कल पागल हो
जाएगी।
क्योंकि दो नावों
पर कोई कैसे
चढ़ सकता है? और दोनों
नावें विपरीत
दिशा में जा
रही हैं। पूंछ
थोड़ी देर एक
जगत में और
भैंस थोड़ी देर
दूसरे जगत में
हो जाएगी। और
दोनों के बीच
जो खिंचाव
पैदा होगा वही
तुम्हारा
संताप और
चिंता है।
तुम्हारी एन्ग्झायटी
क्या है? चिंता
क्या है?
गोसो ने
बड़ी मीठी
कहानी कही है।
इस कहानी में
उसने तुम्हें
पूरी तरह पकड़
लिया है। और
सोचो मत; नहीं
तो चूक जाओगे,
समझ न
पाओगे। इस
कहानी को सीधा
देखो। इसमें
बुद्धि लगाने
की कोई जरूरत
ही नहीं है।
इतनी सरल है
कि बुद्धि
लगायी, कि
जटिल कर लोगे।
यह तो सीधा
तथ्य है, फैक्ट
है। इसे सीधा
देखो; अपनी
जिंदगी में
कहां तुम खड़े
हो। क्या तुम
भी बीच में
नहीं खड़े हो? और क्या
पूंछ की
आकांक्षा
तुम्हारे मन
में भी जोर
नहीं मार रही
है?
मेरे
पास लोग आते
हैं; अगर मैं
उन पर जरा कम
ध्यान दूं, वे नाराज
लौट जाते हैं,
पीड़ा होती
है। अगर थोड़ा
ज्यादा ध्यान
दूं तो
मुश्किल! वे
बीमार लौटते
हैं। उनको
लगता है, जैसे
मुझे उनकी कोई
जरूरत है। कुछ
भी करो, उनको
शांत लौटाना
बहुत मुश्किल
है। क्योंकि बीच
में खड़ा हुआ
आदमी, दो
नावों पर सवार,
शांत कैसे
हो सकता है।
यहां आते हैं
शांति के लिए,
तो भी
अहंकार की
आकांक्षा बनी
रहती है। वह
पीछे भाव बना
रहता है।
उन्हें पता भी
न हो--यही तो
मजा
है--उन्हें
खयाल भी न हो। उनसे
पूछो तो वे
चौंक जाएं।
इस
भैंस को क्या
पता है कि बीच
में खुद खड़ी
हो गई है? यह
भी रेशनालाइज
कर रही होगी।
और भैंसें बड़ा
रेशनालाइजेशन
जानती हैं। यह
भी सोच रही
होगी कि मैं
बीच में खड़ी
नहीं हूं, किसी
ने पूंछ पकड़
ली है। मैं
बीच में खड़ी
नहीं हूं, आगे
रास्ता ही
नहीं है। मैं
बीच में खड़ी
नहीं हूं।
दरवाजे से मैं
तो निकल आयी, लेकिन पूंछ
उलझ गयी। जब
तक पूंछ सुलझ
न जाए, मैं
बाहर कैसे निकलूं?
यह भी अपने
को समझा रही
होगी। यह अचेतन
है घटना। चेतन
रूप से पूर्ण
मुक्ति चाहती
है भैंस; अचेतन
रूप से अहंकार
भी चाहती है।
तुम्हारा
अहंकार
तुम्हारा
अचेतन तथ्य है, अनकांशस है।
तुम्हें खयाल
में भी नहीं
है कि तुम हर
वक्त उसे चाह
रहे हो।
रास्ते से भी
तुम गुजरते हो,
अगर रास्ते
पर कोई नहीं
है तो तुम्हारा
चेहरा और होता
है। फिर अचानक
रास्ते पर कोई
आ जाता है, तत्क्षण
तुम्हारा
चेहरा बदल
जाता है। तुम
संभल जाते हो,
टाई ठीक कर
लेते हो। अगर
आइना हो तो
तुम आइना देख
लो। तुम
स्त्रियों
जैसे नासमझ
नहीं, नहीं
तो एक बैग हाथ
में रख लो, जल्दी
से आइना
निकालकर ठीक-ठाक
कर लो। आखिर
यह दूसरे की
मौजूदगी...तुम
क्या संभाल
रहे हो? पूंछ
संभाल रहे हो।
यह आइना जो है,
इसमें तुम
पूंछ देख रहे
हो। चेहरा
देखने के लिए आइने की
क्या जरूरत है?
दूसरे के
आने से
तुम्हें इतना
बेचैन होने की
क्या जरूरत है?
तुम जैसे
अकेले थे, वैसे
ही रह सकते थे।
नहीं, तुम
जैसे अकेले थे
वैसे नहीं रह
सकते। क्योंकि
सवाल दूसरे का
है।
मैंने
सुना है, एक
पति अपनी
पत्नी से कह
रहा था कि अब
सीमा के बाहर
बात हो गई है।
रोज तुझसे कह
रहा हूं; पैंट
के बटन टूट
गये हैं, कभी
कोट के बटन
टूट गये हैं, कभी कमीज के;
अगर बटन तक
नहीं लगा सकती
तो स्त्रियां
और क्या कर
सकती हैं? तो
उसकी स्त्री
ने कहा कि और
अगर
स्त्रियां न हों,
तो तुम
पुरुषों की
क्या गति हो
जाए? तुम
बटन तक अपनी
नहीं संभाल
सकते? उस
पुरुष ने कहा
कि अगर
स्त्रियां न
हों तो हम बटन लगायें ही किसलिए? बटन उन्हीं
के लिए लगाये
हुए हैं।
कपड़े
हम दूसरों के
लिये पहने हुए
हैं। बटन हम दूसरों
के लिए लगाये
हुए हैं।
चेहरे हम
दूसरों के लिए
ओढ़े हुए
हैं। पुरुष
स्त्रियों के
लिए सजा है।
स्त्रियां
पुरुषों के
लिए सजी हैं।
सब दूसरे के लिए।
लेकिन दूसरे
से क्या रस है? दूसरे से
क्या मिल रहा
है?
जब एक
सुंदर स्त्री
राह पर चलते, गुजरते
लौटकर
तुम्हें देख
लेती है तब
तुम्हारी
पूंछ एकदम बड़ी
हो जाती है।
तब तुम अकड़कर
आते हो, गीत
गुनगुनाने
लगते हो।
कदमों में गति
आ जाती है, जोश
आ जाता है, शक्ति
आ जाती है।
अभी भी
स्त्रियां
तुम्हारी तरफ
देखती हैं!
मैंने
सुना है, एक
कैशियर, एक
महिला एक बैंक
में काम करती
थी। उसने एक
दिन उदास होकर
अपने मालिक को
कहा कि मुझे
कुछ महीने दो
महीने की
छुट्टी
चाहिये। ऐसा
लगता है कि
उम्र का असर
होने लगा और
शरीर कुछ
कमजोर मालूम
पड़ता है।
स्वास्थ्य के
लिये मैं थोड़ी
दिन के लिये
पहाड़ पर चली
जाऊंगी। उसके
मालिक ने कहा,
तुम पूरी
स्वस्थ सब तरह
ठीक हो। क्या
जरूरत है? तुम्हें
कैसे पता चला?
डाक्टर को
दिखाया? उसने
कहा कि नहीं, लोगों को
मैं चिल्लर
वापिस लौटाती
हूं, उन्होंने
कुछ दिनों से
गिनना शुरू कर
दिया है। जब
स्त्री सुंदर
न रह जाए तो
लोग चिल्लर
गिनने लगते हैं।
स्त्री सुंदर
हो, जल्दी
से खीसे में
डालते हैं
क्योंकि फिर
यह जरा अशोभन
हो जाए!
अहंकार
पूरे समय
प्रत्येक
गतिविधि में
मौजूद है। सब
भांति छिपा
खड़ा है, पर
अचेतन है। और
अगर तुमने
सोचा-विचारा
तो वह छिप
जायेगा
क्योंकि
सोचने-विचारने
के सामने अचेतन
के द्वार नहीं
खुलते, बंद
हो जाते हैं।
इसलिए
फ्रायड ने
अचेतन के
आविष्कार की
जो विधि
निकाली है, वह
फ्री-एसोसिएशन
है। वह मुक्त
विचारों की अभिव्यक्ति
है। तो फ्रायड
की एक कुशलता
थी कि वह कभी
मरीज के सामने
नहीं बैठता
था। मरीज को
लेटा देता कोच
पर। वह भी
बैठा नहीं
रखता, लेटा
देता। और कोच
के पीछे एक
पर्दा होता और
परदे के पीछे
वह बैठता। जब
फ्रायड के
शिष्य उससे
पूछते कि आप
मरीज को लेटने
पर क्यों जोर
देते हो? तो
वह कहता कि
बैठने में अकड़
ज्यादा होती
है।
यह बात
सच है, खड़े
होने में और
भी अकड़ ज्यादा
होती है।
लेटने में अकड़
सबसे कम होती
है, क्योंकि
लेटना कोई बड़ी
भारी बात नहीं;
बच्चे भी कर
लेते हैं। और
जब आदमी लेटता
है तो पशुओं
के जगत में
वापिस लौट
जाता है। खड़े
होकर वह पशुओं
से अलग है।
बैठकर पशुओं
से अलग है। लेटकर
तो पशुओं के
साथ एक है।
इसलिए
बैठे-बैठे सोना
बड़ा मुश्किल,
खड़े-खड़े
सोना तो बहुत
ही मुश्किल, शीर्षासन
करते हुए सोना
तो असंभव है।
लेकिन लेटकर
आदमी सो जाता
है क्योंकि रिलेक्स
होता है।
प्रकृति में
गिर जाता है।
तो
फ्रायड कहता
है, लेटकर
आदमी का अचेतन
सक्रिय हो
जाता है, चेतन
कम हो जाता
है। इसलिए
लेटकर तुम अगर
बहुत विचार
करना चाहो, तो न कर
पाओगे। विचार
करने के लिए
बैठना जरूरी
है। और, अगर
और ही बहुत
विचार करना हो
तो ठीक योगी
की तरह रीढ़ को
बिलकुल सीधा
करके बैठना
जरूरी है। रीढ़
के सीधे होने
से ध्यान का
संबंध कम, तीव्र
विचार का
संबंध ज्यादा
है; एकाग्रता
का संबंध
ज्यादा है। और
अगर तुम्हें
कोई और ही
बहुत तकलीफ की
बात हो जो
विचार करनी हो
तो अकसर तुमने
देखा होगा कि
फिर तुम उठकर
चलने लगोगे।
कुछ अगर सूझ
ही न रहा हो तो
खड़े होकर तुम
विचार करोगे,
लेटे कि
आदमी शिथिल हो
जाता है। तो
फ्रायड कहता
है, अचेतन
को उघाड़ना है,
इसलिए
लेटाता हूं।
उसके
शिष्य कहते
हैं, 'फिर आप
सामने क्यों
नहीं बैठते?' तो वह कहता
है, 'अगर
सामने रहो तो
वह दूसरा आदमी
अहंकार से भरा
रहता है। जब
तक कोई मौजूद
है, तब तक
वह रिलेक्स
नहीं होता, शिथिल नहीं
होगा। इसलिए
परदे के पीछे
बैठता हूं
ताकि वह समझे
कि अकेला है; चेहरे उतारकर
रख दे। दूसरा
नहीं है, कोई
डर नहीं है।'
और फिर
उसकी
प्रक्रिया थी, जो भी उसके
भीतर आये, वह
बिना
सोचे-विचारे
उसको कहता
जाए। व्यर्थ के
विचार होंगे,
असंगत
विचार होंगे,
कोई तर्क न
बिठाये, कुछ
सोचे ना, बस
कहता जाए।
ताकि उसका
अचेतन प्रगट
हो। और अचेतन
में ही सारी
बीमारियां
हैं।
जब तुम
सोचोगे, अचेतन
के दरवाजे बंद
हो जाते हैं।
जब तुम नहीं
सोचोगे, तब
अचेतन के
द्वार खुलते
हैं। इसलिए
रात नींद में
अचेतन के
द्वार खुल
जाते हैं।
तुम्हारे स्वप्न
अचेतन से
निकले
हुए विचार
हैं। इसलिए
तुम्हारे
सपने जितने
सच्चे हैं, तुम्हारा
जागरण उतना
सच्चा नहीं।
और तुम्हें
अपने संबंध
में कुछ पता
लगाना हो, तो
मनोवैज्ञानिक
कहते हैं अपने
सपने के संबंध
में पता लगाना
है। क्योंकि
जागते में तो
तुम धोखा दे
सकते हो, सपने
में तुम धोखा
नहीं दे सकते।
जागते में तुम
बिलकुल एक पत्नीव्रता
हो, एक
पतिव्रता हो;
सोते में यह
सब खो जाता है।
सोते में सारे
जगत की
स्त्रियां
तुम्हारी।
सोते में तुम
फिक्र नहीं
करते कि यह
स्त्री पड़ोसी
की है कि अपनी
है। सच तो यह
है कि अपनी पत्नी
का सपना शायद
ही किसी पति
को आता हो।
कभी आया है? आया तो
समझना कि
दिमाग में कुछ
गड़बड़ी है।
अपनी पत्नी का
सपना किसको
आता है? दूसरी
पत्नियों के
सपने आते हैं।
क्योंकि जो-जो
तुमने दबाया
है, वह
अचेतन से
प्रगट होता
है। जिस-जिस
को तुमने छिपाया
है, अचेतन
द्वार खोल
देता है। और
सपने तब तक
कायम रहेंगे,
जब तक
तुम्हारा
अचेतन पूरा
खाली न हो
जाए।
इसलिए
सिर्फ ध्यानी निस्वप्न
सोता है। जो
ध्यान को
उपलब्ध नहीं
हुआ, उसकी रात
तो स्वप्नों
से भरी रहेगी।
उसकी नींद तो
बीमार है, रुग्ण
है, ज्वर-ग्रस्त
है। उसकी नींद
तो एक कोलाहल
है। उसकी नींद
एक सन्नाटा
नहीं। उसकी
नींद एक शांति
नहीं है, एक
उपद्रव है, अराजकता है।
उसकी नींद में
भी बाजार भरा
है, दुकान
चल रही है, वासनायें
दौड़ रही हैं।
नींद एक तरह
की रोज की विक्षिप्तता
है तुम्हारी।
इसलिए अकसर
लोग रात के
बाद सुबह और
थके हुए उठते
हैं। रातभर के
सपने थका देते
हैं। दिनभर
में किसी तरह
ठीक हो पाते
हैं, फिर
रात आ जाती
है। फिर सपने
थका देते हैं।
रात तुम्हें
शांत करती, स्वस्थ
करती। उलटी
हालत है।
सोचना
मत। अन्यथा
द्वार अचेतन
का तत्क्षण बंद
हो जाएगा।
जैसे ही तुमने
सोचा कि तनाव
पैदा हुआ।
तनाव पैदा हुआ
कि तुम बंद हो
गये। मन बहुत
छुईमुई है।
तुमने पौधा
देखा होगा, जिसका नाम छुइमुई
है। छुओ, उसके
पत्ते बंद हो
जाते हैं। ऐसा
ही मन छुइमुई
है। विचारो,
और उसके
पत्ते बंद
हुए। मत विचारो, सिर्फ
देखो। बैठ जाओ
छुइमुई
के पौधे के
पास, सिर्फ
देखो। थोड़ी
देर में उसके
बंद पत्ते फिर
खुल आते हैं।
सिर्फ देखो।
देखना
ध्यान है। और
उस देखने में
तुम पाओगे, अचेतन खुल
रहा है।
उस
अचेतन में तुम
पाओगे कि तुम
खड़े हो, तुम्हीं
भैंस हो।
सोचना नहीं है,
यह
तुम्हारे
जीवन का तथ्य
है। और तुमने अपनी
मरजी से पूंछ
भीतर छोड़ी
है। अब अगर
तुम चाहते हो
कि पूंछ भीतर
रहे और तुम
बाहर रहो, तो
यह तुम्हारा
निर्णय। अब
शोरगुल मत मचाओ
और दुखी मत
होओ। तुम अपने
ही विचार का
अनुसरण कर रहे
हो। स्वीकार
कर लो। तब
धर्म-वर्म की
खोज मत करो, फिर मोक्ष
परमात्मा मत
पूछो, फिर
अपने को धोखा
मत दो।
या तुम
तय करो कि यह
पूंछ अपने ही
हाथ से छोड़ी।
जब पूरा ही
मैं निकल गया, तो फिर पूरा
ही क्यों न
निकल
जाऊं--पूंछ ही
सहित? तो
फिर बाहर निकल
जाओ। कोई
तुम्हें रोकने
वाला नहीं।
तुम्हारी
स्वतंत्रता
में तुम्हारे
अतिरिक्त और
कोई बाधा नहीं
है। तुम्हारे
अतिरिक्त तुम्हारा
कोई शत्रु
नहीं है।
गोसो
ने बड़ी मीठी
बात और बड़ी
मीठी कहानी से
कह दिया है।
इसे सोचना मत।
बैठ जाना और
इसे देखना। और
जिस दिन
तुम्हें भैंस
की जगह तुम
खुद दिखाई पड़ो, उसी दिन
कुंजी
तुम्हारे हाथ
लग जाएगी। जब
तक तुम भैंस
की तरह किसी
और को देखते
रहो, तब तक
समझना कि अभी
कुंजी हाथ
नहीं आयी।
आज
इतना ही।
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