दिनांक
6 जुलाई 1974
(प्रातः),
श्री
रजनीश आश्रम; पूना.
भगवान!
एक धनाढय
बुढ़िया
बीस वर्षों से
एक साधु को
आश्रय दिये
थी।
उसके
लिये एक झोपड़ा
बनवा दिया था
और भोजन देती
थी।
एक दिन
उसने साधु की
जांच लेने की
सोची। इसके लिये
एक वेश्या की
मदद ली।
उससे
उसने कहा, 'जाओ और साधु
का आलिंगन
करो।' और
फिर पूछो, 'अब
क्या हो?'
वेश्या
साधु के पास
गयी, उस पर
प्रेम प्रगट
किया और
फिर
पूछा कि अब
क्या होना
चाहिये?
साधु
ने उत्तर दिया, 'जाड़े में ठंडी
चट्टान पर
जैसे पुराना
वृक्ष लगा हो;
कहीं कोई
गरमी नहीं।
वेश्या
ने लौटकर सारी
बात बुढ़िया
को बताई।
बुढ़िया
बहुत नाराज
हुई और उसने
जाकर झट साधु
का झोपड़ा
जला डाला।
भगवान!
इस बुढ़िया
के व्यवहार को
आप क्या
कहेंगे?
धर्म
को देखने के
दो ढंग हैं।
एक ढंग तो है, धर्म को
संसार के
विरोध में, शत्रुता में
देखने का; जैसे
धर्म संसार से
उल्टा है। जो
हम यहां करते
हैं उससे
विपरीत
करेंगे तो
धर्म होगा।
अगर भोजन में
रस है, तो
उपवास में
धर्म होगा।
अगर शरीर के
सौंदर्य में
रस है, तो
शरीर की
विकृति और
कुरूपता में
धर्म होगा। अगर
धन को इकट्ठा
करने में मन
लगता है तो धन
के त्याग में
धर्म होगा।
संसार की तरफ
पीठ कर लेने
में धर्म
होगा।
यह एक
दृष्टि है। यह
दृष्टि बड़ी
साधारण है। इस
दृष्टि का कोई
गहरा अनुभव
नहीं है। यह
मन का साधारण
गणित है। मन
का नियम है एक
अति से दूसरी अति
पर चले जाना।
जब तुम देखते
हो कि धन से
सुख न मिला, तो तत्क्षण मन
में खयाल उठता
है, धन
छोड़ने से
मिलेगा।
विवाह किया और
सुख न मिला, तो तत्क्षण
मन कहता है, तलाक करने
से सुख
मिलेगा।
तुम्हारा
मन कहता है, सुख तो
मिलेगा ही।
तुमने जैसा
अभी किया उससे
उल्टा करो।
लेकिन सुख
मिलेगा, इस
संबंध में मन
को संदेह पैदा
नहीं होता।
सिर्फ अपनी
दिशा बदल लो।
पूरब जाते थे,
नहीं मिला
तो पश्चिम जाओ;
पर सुख
मिलेगा। दिशा
बदल लेने की
जरूरत है। अभी
दुकान पर
बैठते थे, अब
मंदिर और
मस्जिद में
बैठो। अभी तक
अश्लील पोरनोग्राफी
का साहित्य
पढ़ते थे, अब
शास्त्र पढ़ो,
धर्मग्रंथ पढ़ो, लेकिन
पढ़ने से
मिलेगा। दिशा
भर बदल लेनी
है। उल्टा कर
लेना है। यह
मन का
स्वाभाविक
नियम है।
तुम
बच्चे को
प्रेम करते हो, समझाते हो, नहीं मानता;
तत्क्षण
डंडा उठा लेते
हो। प्रेम से
नहीं माना तो
कठोरता से
मानेगा।
पुरस्कार से
नहीं माना तो
दंड से
मानेगा। पहले
तुम स्वर्ग का
प्रलोभन देते
हो, नहीं
कोई राजी होता
तो फिर नर्क
का भय बताते हो।
मन तत्क्षण
विपरीत में
खोजता है।
मन के
लिये दो ही
हैं: या तो यह, या इससे
उल्टा; तीसरे
का कोई उपाय
नहीं। और अगर
इससे नहीं मिला
तो आधी
संभावना
समाप्त हो गयी;
आधी बची है,
उसमें खोज
लो। यह धर्म
मन से ऊपर
नहीं जाता। यह
मन के द्वंद्व
के भीतर है।
और
धर्म तभी शुरू
होता है, जब
तुम मन के पार
जाओ। जब तुम
दो के बीच न
चुनो, दोनों
को छोड़ दो। जब
धन तो छूटे ही,
निर्धनता
का मोह भी छूट
जाये। जब
स्त्री तो छूटे
ही, पुरुष
तो छूटे ही, लेकिन
विपरीत न पकड़
ले। कुएं से
बचे और खाई
में गिर गए, ऐसा जब न हो।
बड़ा कठिन है।
मन के लिये
द्वंद्व में
बदल लेना बहुत
आसान है, निर्द्वंद्व
हो जाना कठिन
है।
धर्म
का जो गहनतम
रूप है, वह निर्द्वंद्वता
है। यह कथा
उसी की तरफ
इशारा है।
साधु
पहले तरह के
धर्म को मानता
होगा। अकसर साधु
पहले तरह का
धर्म मानते
हैं। इसलिये
साधु ही रह
जाते हैं, संत नहीं हो
पाते। बुढ़िया
दूसरे तरह के
धर्म की तलाश
में थी; संतत्व
की तलाश में
थी, इस भेद
को ठीक से समझ
लो।
संसार
में दो तरह के
लोग हैं; असाधु
हैं और साधु
हैं। लेकिन
दोनों संसार
में हैं। संत
संसार के पार
है। इसलिये
संत को समझना
बड़ा कठिन है।
साधु को समझना
बिलकुल आसान
है, क्योंकि
गणित
तुम्हारा ही
है वह। तुम
भोग समझते हो,
त्याग भी
समझ लोगे। वह
कुछ दूर की
बात नहीं, तुम्हारे
करीब है। तुम
लोभ समझते हो,
तुम दान भी
समझ लोगे।
क्योंकि दान
की भाषा, लोभ
की भाषा के
विपरीत हो; लेकिन दूर
नहीं है, बहुत
करीब है। तुम
अहंकार समझते
हो, विनम्रता
भी समझ लोगे; क्योंकि
विनम्रता
अहंकार का ही
सूक्ष्मतम रूप
है।
जब कोई
आदमी
विनम्रता से
तुम्हें
मिलता है, तुम कितने
प्रसन्न होते
हो! तुम कहते
हो, यह
आदमी कितना
विनम्र है!
तुम समझ लेते
हो। लेकिन तुम
समझ कैसे पाते
हो विनम्रता
को? जब
दूसरा आदमी
विनम्र होता
है, तब
तुम्हारे
अहंकार की
तृप्ति होती
है। कोई झुककर
तुम्हारे चरण
छूता है, तुम
कहते हो कितना
विनम्र! लेकिन
उसकी विनम्रता
का क्या अर्थ
है? उसकी
विनम्रता
तुम्हारे
अहंकार को भर
रही है। तुम्हारा
अहंकार
विनम्रता को
ठीक से समझ
पाता है। तुम
किसी से
मांगने जाते
हो दो पैसे, वह तुम्हें
चार पैसे दे
देता है।
तुम्हारा लोभ
उसके दान को
भली-भांति समझ
पाता है। लोभ
को दान के
समझने में जरा
भी कठिनाई
नहीं है। भाषा
एक ही है।
एक
आदमी
स्त्रियों के
पीछे भाग रहा
है और दीवाना
है। फिर एक
आदमी छोड़ देता
है स्त्रियों
को, उनकी तरफ
पीठ करके जंगल
की तरफ भागता
है। तुम बिलकुल
समझ पाते हो।
यह भाषा
कामवासना की
ही है। यह
ब्रह्मचर्य
कोई कामवासना
के बाहर नहीं है,
उसके भीतर
है। लेकिन तुम
कृष्ण के
ब्रह्मचर्य
को न समझ
पाओगे। क्योंकि
वह तुम्हारी
कामवासना के
बिलकुल बाहर
है; विपरीत
नहीं, बाहर।
इस बात को ठीक
से समझ लो।
विपरीत
तो द्वंद्व के
भीतर ही होता
है। मोक्ष संसार
के विपरीत
नहीं है, संसार
के पार है।
संतत्व असाधु
के विपरीत नहीं
है, साधु-असाधु
दोनों के पार
है। अगर असाधु
सीधा खड़ा है, तो साधु
शीर्षासन कर
रहा है।
आदमियों में
कोई भी फर्क
नहीं है, वे
दोनों एक जैसे
हैं। तुम किसी
साधु के पास जाओ,
तुम हजार
स्वर्ण-मुद्राएं
उसके चरणों
में रखो और वह
फेंक दे और
कहे, 'हटाओ,
इस कचरे को
यहां क्यों
लाए?' तुम
बिलकुल समझ
जाओगे कि यह
है साधु।
लेकिन अगर वह
कुछ भी न कहे, तुम हजार
स्वर्ण-मुद्राएं
उसके चरणों
में रखो, वह
चुपचाप बैठा
रहे, तब
तुम्हें
संदेह पैदा
होगा। समझ
मुश्किल में
पड़ी।
ऐसा
हुआ, कबीर का
बेटा था कमाल।
और कबीर अगर
साधु हैं तो
कमाल संत हैं।
बेटा बाप से
एक कदम आगे
था। और कबीर
को तो लोग समझ
पाते थे, कमाल
को नहीं समझ
पाते थे। काशी
के नरेश ने कबीर
से पूछा कि कई
लोग कमाल को
भी पूजते हैं,
उसके पास भी
जाते हैं।
लेकिन मुझे
कमाल समझ में
नहीं आता।
नरेश को
भिखारी समझ
में आ सकता है।
कबीर समझ में
आते थे। सब
छोड़े हैं।
नरेश
ने कहा, 'इस
कमाल को तो
तुम अलग ही कर
दो यहां से।
यह एक उपद्रव
है। यह लोभी
मालूम पड़ता
है।'
कबीर
ने पूछा, 'कैसे
तुमने पता
लगाया?'
तो
नरेश ने कहा,'एक दिन मैं
गया एक
बहुमूल्य
हीरा लेकर। और
मैंने कमाल को
कहा कि यह
बहुमूल्य
हीरा भेंट
लाया हूं।
तुम्हारे पास
भी हीरे लाया
हूं, तुम
कहते हो, पत्थर
है। हृदय मेरा
गदगद हो जाता
है। व्यर्थ है,
मैं समझता
हूं!'
कमाल
ने कहा, 'ले
ही आये हो तो
अब बोझ को
कहां वापिस ले
जाओगे? रख
जाओ।' यह
बात जरा कठिन
हो गयी। तो
मैंने पूछा कि
'कहां रख
दूं?' तो
कमाल ने कहा
कि 'अब
पूछते हो, कहां
रख दूं? समझे
नहीं; लेकिन
ठीक है--' झोपड़े
में जहां कमाल
बैठा था, सनोरियों का झोपड़ा
था--'छप्पर
में खोंस
दो।'
तो
सम्राट ने कहा, 'मैं छप्पर
में खोंस
आया हूं।
लेकिन मैं
जानता हूं कि
मैं बाहर नहीं
निकला होऊंगा
कि हीरा निकाल
लिया गया होगा।
अब तक तो बिक
भी चुका होगा।'
कबीर ने कहा,
'तुम एक बार
और जाकर पता
तो लगाओ कि
हीरे का क्या
हुआ?'
सम्राट
गया और उसने
कमाल से पूछा
कि कोई छह महिने
हुए एक हीरा
मैं लाया था, बड़ा
बहुमूल्य था।
तुमने कहा, 'छोड़ जाओ', मैं
झोपड़े
में खोंस
गया था। वह
हीरा कहां है?'
कमाल
हंसने लगा और
उसने कहा, 'उस दिन भी
मैंने कहा था
वह हीरा नहीं
है, पत्थर
है। और इसलिये
तो कहा था कि
छोड़ जाओ, क्योंकि
अब ले ही आये
हो, इतनी
नासमझी की
यहां तक ढोने
की, अब
वापिस कहां
वजन को ले
जाओगे? फिर
तुम झोपड़े
में खोंस
गये थे। अब
मुझे पता
नहीं। अगर
किसी ने निकाल
न लिया हो तो
वहीं होगा। और
किसी ने निकाल
लिया हो तो हम
कोई उसकी
रक्षा
करने यहां
नहीं बैठे
हैं!' संदेह
पक्का हो गया
कि हीरा निकाल
लिया गया है।
लेकिन फिर भी
चलते-चलते
सम्राट ने आंख
उठाकर देखा, हैरान हुआ।
हीरा वहीं था।
वह निकाला
नहीं गया था।
तुम संन्यासी
के पास रुपये
लेकर जाओ और
वह कहे कचरा
है, हटाओ,
तुम्हें
समझ में आता
है। लेकिन अगर
सच में ही
कचरा है, तो
हटाने की इतनी
जल्दी भी क्या?
कमाल का
संतत्व
तुम्हारी पकड़
में न आयेगा।
क्योंकि कमाल
कहता है, पत्थर
है, अब
कहां ले जाओगे?
कमाल कहे कि
पत्थर है, हटाओ तो
समझ में आता
है। लेकिन जो
आदमी कहता है,
पत्थर है, हटाओ यहां से, वह
विपरीत बातें
कह रहा है।
अगर
पत्थर है तो
इतनी हटाने की
जल्दी क्या है? पत्थर तो
बहुत पड़े थे
कमाल के झोपड़े
के पास; और
कभी नहीं
चिल्लाया कि हटाओ।
हीरे को देखकर
चिल्लाता है,
हटाओ। तो वह कहता
भला हो कि
पत्थर है
लेकिन उसको भी
दिखाई पड़ता है,
हीरा है। उसे
भी डर लगता है,
उसे भी भीतर
लोभ पकड़ता
है। पर उसे न
कोई डर है, न
कोई लोभ है; तो वह कहता
है, 'अब ले
ही आये, एक
भूल की, अब
और दूसरी भूल
क्या करनी? छोड़ जाओ।'
पर जो
संत तुमसे
कहेगा, छोड़
जाओ यह हीरा, वह तुम्हारी
समझ के बाहर
हो गया। वह
धर्म के भीतर
होगा, तुम्हारी
बुद्धि के
बाहर हो गया।
और धर्म होता
ही तब है, जब
बुद्धि के कोई
बाहर हो जाता
है।
इस
बूढ़ी स्त्री
ने वर्षों तक
इस बौद्ध
भिक्षु की
सेवा की। उसे
भोजन दिया, रुग्ण हुआ
तो सेवा, परिचर्या
की। उसके लिये
झोपड़ा
बनाया। उसकी
प्रार्थना, पूजा, ध्यान
का सुविधापूर्ण
इंतजाम किया।
फिर यह मरने
के करीब थी।
यह बुढ़िया
बड़ी अनूठी रही
होगी। यह मरने
के करीब थी, तब उसने एक
वेश्या को
बुलाया और कहा
कि जीवन भर
जिसकी मैंने
सेवा की है, मैं जान
लेना चाहती
हूं, वह
कहीं पहुंचा
भी या नहीं? या मेरी
सेवा व्यर्थ
ही रेगिस्तान
में खो रही थी
और जिसे मैं
पूज रही थी, वहां कोई
पूज्य नहीं था?
वह यह जानना
चाहती है कि
यह साधु ही है
या संत?
बड़ा
बारीक फासला
है साधु और
संत का। बारीक
है और बहुत
बड़ा भी है। और
पहचान बड़ी
मुश्किल है। कैसे
जानोगे कि इस
आदमी की
काम-वासना खो
गयी, इसलिये
ब्रह्मचर्य
है! या इस आदमी
ने कामवासना
को दबा लिया
है, इसलिये
ब्रह्मचर्य
है? ऊपर से
तो
ब्रह्मचर्य
दिखाई पड़ेगा।
और जिसने दबाया
है, उसका
ज्यादा दिखाई
पड़ेगा।
क्योंकि जिसे
हम दबाते हैं,
उसके
विपरीत को हम उभारकर
दिखाते हैं।
हमें खुद ही
डर होता है कि
अगर विपरीत
दिखाई न पड़ा, तो कहीं जो
छिपा है वह
दिखाई न पड़
जाये! और
जिसने ब्रह्मचर्य
को कामवासना
दबाकर नहीं
पाया; जिसकी
कामवासना
तिरोहित हो गई,
इसलिये
पाया उसके
ब्रह्मचर्य
में प्रदर्शन नहीं
होगा। वह
दिखाने की कोई
चिंता नहीं
होगी।
क्योंकि जो है
ही नहीं, जिसे
छिपाना नहीं
है, उसके
विपरीत को दिखाना
क्या? बड़ा
कठिन है।
तो
अकसर तो दमित ब्र्रह्मचारी
तुम्हें
दिखाई पड़
जाएगा, तुम
पहचान जाओगे।
लेकिन जिसकी
वासना शमित हो
गयी, शांत
हो गयी, वह
तुम्हारी
पहचान में न
आएगा।
प्रदर्शनकारी
दिखाई पड़ जाता
है। जिसका कोई
प्रदर्शन
नहीं है, कोई
एक्जीबिशन
नहीं है, वह
दिखाई नहीं
पड़ेगा।
यह
बूढ़ी स्त्री
की दुविधा यही
थी, जो तुम सब
की दुविधा है;
कि संत और
साधु को कैसे पहचानें? असाधु से
साधु को अलग
करना बिलकुल
साफ है, आसान
है। दोनों
उल्टे खड़े
हैं। संत को
साधु से अलग
करना बहुत
मुश्किल है, क्योंकि
दोनों
करीब-करीब एक
जैसे हैं। लेकिन
फर्क उतना ही
है, जैसा
कागज के फूल
में और असली
फूल में हो।
लेकिन कागज के
फूल पर भी
इत्र डाला जा
सकता है। और अगर
तुमने गुलाब
का इत्र डाला
है कागज के
फूल पर, तो
असली गुलाब से
इतनी सुगंध न
आएगी, जितनी
कागज के फूल
से आएगी। कागज
के फूल को सुगंध
जरा ज्यादा ही
देनी पड़ेगी
तभी धोखा हो
सकता है। और
गुलाब का फूल
तो उत्सुक भी
नहीं है
प्रचार करने
में। जितनी
आएगी, आएगी
और हवा आती
होगी तो ले
आएगी; न
आएगी तो न
आएगी। गुलाब
किसी प्रचार
में आतुर भी
नहीं है।
यह
बूढ़ी स्त्री
मरते वक्त जान
लेना चाहती है
कि इसकी पूजा
व्यर्थ तो नहीं
गई? इसकी
सेवा व्यर्थ
तो नहीं गई? इसने इतने
दिन तक जिसकी
चिंता की, जिसके
चरण दबाए, वह
साधु था या
संत?
यह
ध्यान रखना, वह यह नहीं
जानना चहाती
है कि वह
असाधु था कि
साधु? वह
तो जाहिर है
कि वह साधु
है। असाधु
नहीं है, नहीं
तो बीस साल
में जाहिर हो
गया होता। साधु
है यह तो
पक्का है। एक
और बात जाननी
है, और एक
बारीक
फासला--कैसे
इसको जाने?
एक
वेश्या को
बुला लिया
उसने। वेश्या
को इसलिए
बुलाया कि जो
तुम्हारे
भीतर दमित है, जब तक वह ऊपर
न आ जाए तब तक
पहचान न हो
सकेगी। और वेश्या
कुशल है
तुम्हारे
दमित को बाहर
लाने में।
तुम
हैरान होओगे, मनोवैज्ञानिक
कहते हैं कि
बहुत से पुरुष
पत्नियों के
पास नपुंसक हो
जाते हैं।
वेश्या के पास
जाकर खिल पाते
हैं; उनका
पुंसत्व वापस
आ गया। खुद की
पत्नी उन्हें
नहीं जगा पाती,
वेश्या जगा
देती है।
वेश्या कुशल
है। वह कलाकार
है। उसने
कामवासना में
विशेषता
अर्जित की है।
कामवासना
उसके लिए
सिर्फ एक
नैसर्गिक
घटना नहीं है,
एक कलात्मक
क्रिया है।
जापान
में वेश्याओं
के एक वर्ग ने--गैशा--बड़ी
कुशलता
प्राप्त की है
वासना के
संबंध में। और
जो लोग एक बार गैशा
स्त्री को
प्रेम कर लेते
हैं, फिर कोई
स्त्री उनको
जगाने में समर्थ
नहीं रह जाती।
क्योंकि उसने
इतनी खूबियां
खोजी हैं शरीर
के भीतर, कि
कहीं भी दबा
हुआ कुछ भी
पड़ा हो, वह
उसे जगाने में
कुशल है।
साधारण पत्नी
उसे नहीं जगा
सकती। फिर तुम
जिसके पास
निरंतर रहते हो,
धीरे-धीरे
उसका आकर्षण
क्षीण होता
जाता है। नये
का आकर्षण है,
अजनबी का
आकर्षण है, अज्ञात का
आकर्षण है।
उससे तुम
परिचित होना चाहते
हो।
उसने
नगर की
श्रेष्ठतम
वेश्या को
बुलाया, और
कहा कि तू जा, आलिंगन करना
इस साधु का।
और जांचना, वासना जगती
है या नहीं! और
आलिंगन के बाद
पूछना कि अब
क्या? क्या
इरादा है?
वह
वेश्या गई।
आधी रात साधु
ध्यान में लीन
था। द्वार तो
खुले ही थे क्योंकि
साधु के पास
बचाने को कुछ
भी न था, जिसे
चोर ले जाएं।
दरवाजा उसने
खोला। साधु ने
आंख खोली। भय
की एक लहर
उसमें दौड़ गई।
आधी रात वेश्या
द्वार पर खड़ी!
और यह तो
निश्चित ही है
कि इस वेश्या
को साधु ने
बहुत बार नगर
में देखा
होगा।
साधु
की दृष्टि और
वेश्या पर न
जाए यह असंभव
है। वे एक ही
धंधे के दो
छोर हैं। वे
एक ही प्रक्रिया
के दो हिस्से
हैं। एक ही
रेखा की दो
अतियां हैं।
तो विपरीत को
तो तुम तत्काल
देख लेते हो; उससे बचना
मुश्किल है।
वेश्या निकले
और उसकी नजर
साधु पर न जाए,
यह असंभव
है। साधु
निकले, और
उसकी नजर
वेश्या पर न
जाए, यह
असंभव है। बीच
के लोग छोड़े
जा सकते हैं।
लेकिन विपरीत
तो प्रगाढ़
होकर दिखाई
पड़ते हैं।
जैसे दीवाल पर
किसी ने काली
रेखा खींच दी,
सफेद दीवाल
पर। रेखा
उभरकर दिखाई
पड़ती है। बहुत
बार इस वेश्या
को देखा होगा।
बहुत बार इस
वेश्या के लिए
कामना भी उठी
होगी।
क्योंकि जिसे
हम छोड़ते हैं,
उसके प्रति
हमारा रस बढ़ता
जाता है, घटता
नहीं।
छोड़ने
से अगर रस
घटता होता तो
सारी दुनिया
कभी की
बुद्धत्व को
उपलब्ध हो गई
होती। छोड़ना
तो बिलकुल
आसान है। कोई
भी चीज छोड़कर
देखो, और
तुम पाओगे कि
रस बढ़ गया है।
जिस चीज में
रस बढ़ाना हो, उसे छोड़ना
चाहिए। अगर
भोजन में रस
खो गया हो, उपवास
करना चाहिए।
रस वापिस लौट
आएगा।
प्राकृतिक
चिकित्सालयों
में उपवास
करवाए जाते
हैं। और वहां
जो लोग जाते
हैं, अकसर वे
ही लोग जाते
हैं, जिनके
शरीर में
ज्यादा चर्बी इकट्ठी
हो गई है।
जिन्होंने
ज्यादा खा
लिया है--ओह्वर
फेड।
इसलिए गरीब
मुल्क में तो
कोई
प्राकृतिक
चिकित्सालय
चल नहीं सकते,
अमीर
मुल्कों में
चलते हैं। और
उरली कांचन जैसे
चिकित्सालय
अगर चलते हैं,
तो बंबई के
कारण चलते
हैं। जहां लोग
ज्यादा खा लिए
हैं, उनके
आसपास उपवास
का इंतजाम
करना पड़ता है।
लेकिन
बड़े मजे की
बात है, प्राकृतिक
चिकित्सालयों
का यह अनुभव
है कि वहां जो
लोग भी जाकर
वजन कम कर
लेते हैं, दोत्तीन महीने में
वजन कम कर
पाते हैं।
लौटकर तीन सप्ताह
में वजन पहले
से भी ज्यादा
हो जाता है।
क्योंकि
उपवास से भूख
में रस आ जाता
है, जिसका
खयाल नहीं है।
उपवास किया
तीन महिने
तक, तो भूख
पहली दफा
प्रज्वलित
होकर जलेगी; जठराग्नि
पूरी शुद्ध हो
जाएगी। तब
उसके बाद ज्यादा
भोजन। तब एक
दुष्ट चक्र
पैदा होता है।
ज्यादा भोजन
किया, फिर
चर्बी बढ़ती है;
फिर घटाओ,
फिर ज्यादा
भूख लगती है।
इसीलिए
गरीब को जितना
भोजन में रस
आता है, अमीर
को नहीं आता।
क्योंकि गरीब
भूखा है। भूख में
रस है। धन में
जो मजा गरीब
को आता है, अमीर
को नहीं आता; आ नहीं
सकता।
क्योंकि जो
तुम्हारे पास
है, उसमें
रस खो जाएगा।
जो तुम्हारे
पास नहीं है, उसमें रस
पैदा होगा।
अभी
पश्चिम में नई
शोध चलती है
नये युवक और
युवतियों के
बीच। तो एक
नया तत्व
प्रगट हो रहा
है, वह यह कि
नये युवक
युवतियों को
एक दूसरे में
रस कम होता जा
रहा है। यह
उनको बहुत देर
से पता चला।
यह पूरब को
बहुत पहले से
पता है। इसलिए
हम पति-पत्नी
तक को दिन में,
एकांत में
नहीं मिलने
देते थे। रस
कायम रहता था।
वर्षों बीत
जाते थे, पति
ठीक से देख भी
नहीं पाता था
कि पत्नी का
चेहरा है कैसा?
क्योंकि
रात अंधेरे
में मिल लेते
थे, वह
चेहरा अजनबी
ही बना रहता
था।
और यह
तो असंभव
है--अगर तुम
मुर्दों को
उठा सको, उनसे
पूछो कि तुमने
अपनी पत्नी को
नग्न कभी देखा
था? यह
असंभव है।
पत्नी भी दूर
बनी रहती थी।
वेश्याएं
अपनी शिष्याओं
को सिखाती हैं
कि तुम सब
करना, लेकिन
जिन पुरुषों
को मोहित करना
हो, उनके
लिए पूरी
प्रगट मत हो
जाना। छिपे को
उघाड़ने
का मन होता
है। इसलिए
वेश्या कभी
पूरी नग्न न होगी,
अर्ध-नग्न
होगी।
तुम्हारी
कल्पना को कुछ
बचना चाहिए पूरा
करने को। आधी
नग्न वेश्या
के जो हिस्से
दबे रहते हैं,
ढंके रहते हैं, उनको तुम
कल्पना में
पूरे करते हो।
और यथार्थ इतना
सुंदर कभी भी
नहीं है, जितनी
कल्पना।
सपनों का क्या
मुकाबला यह
जगत करेगा!
इसलिए वेश्या
ऐसे कपड़े
पहनती है, जो
व्यर्थ को तो उघाड़ती है,
और जिसको
तुम उघाड़ना
चाहते हो, उसको
ढांकती
है। और वेश्या
कभी पूरी
प्रगट नहीं
होगी; क्योंकि
पूरी जिस दिन
प्रगट हो
जाएगी, उसी
दिन व्यवसाय
व्यर्थ हो
जाएगा। वह
तुम्हें
आकर्षित
करेगी, लेकिन
पास न आने
देगी।
पूरब
इस तथ्य को समझ
गया था। समझना
ही चाहिए, नहीं तो
वात्स्यायन
के जैसे कीमती
शास्त्र पूरब
ने न लिखे
होते।
वात्स्यायन
ने कहा है कि पुरुष--पति
को--पत्नी
कितने ही निकट
आने दे, लेकिन
पूरा निकट न
आने दे।
क्योंकि जिस
दिन वह पूरा
निकट आ जाएगा,
उसी दिन
पत्नी व्यर्थ
हो जाएगी।
पश्चिम
के युवक और
युवतियों का
रस कामवासना
में कम होता
जा रहा है; हो ही
जाएगा।
क्योंकि इतना
उपलब्ध है
कामवासना--भरपेट;
शायद
ज्यादा।
व्यर्थ होती
जा रही है
स्त्री। व्यर्थ
होता जा रहा
है पुरुष। इस
जगत का सबसे गहरा
आकर्षण
पश्चिम में कम
होता जा रहा
है। अब उनको
समझ में आता
है कि पूरब के
लोग होशियार
रहे।
वेश्या
को देखा तो
होगा इस साधु
ने बहुत बार। बहुत
बार इसका मन डावांडोल
भी हुआ होगा।
क्योंकि मन का
स्वभाव डावांडोल
होना है। और
जिस चीज का हम
निषेध करते
हैं, उसमें
आकर्षण पैदा
होता है।
दरवाजे पर
लिखकर टांग
दें, 'यहां
झांकना मना
है।' फिर
वहां से ऐसा
कोई पुरुष
नहीं निकल
सकता, जो
बिना झांके
निकल जाए। जिस
दरवाजे पर
आपको लिखा मिल
जाए कि 'झांकना
मना है', आप
मुश्किल में
पड़े। अगर आप
निकल भी गए
लाज-संकोच में,
तो लौटकर
आना पड़ेगा।
अगर हिम्मत न
जुटा सके, सुविधा
न मिली लौटकर
आने की, तो
रात सपने में
आप
पहुंचेंगे।
लेकिन उस
दरवाजे में
झांकना तो
पड़ेगा ही।
वैसे ही
जहां-जहां हम द्वार
बंद करते हैं,
वहां-वहां
हमारा आकर्षण
सघन होता है।
इस
साधु ने बहुत
बार वेश्या को
देखा होगा।
शायद गृहस्थ
बिना वेश्या
को देखे निकल
जाए; स्त्री
उपलब्ध है।
लेकिन साधु बिना
वेश्या को
देखे कैसे
निकल सकता है?
भरा पेट
आदमी रास्ते
से बिना देखे
निकल जाए कि
मिठाई की
दुकानें सजी
हैं; भूखा
आदमी कैसे
बिना देखे
निकल सकता है?
भूखे आदमी
को सिर्फ
मिठाई की
दुकानें ही
दिखाई पड़ती
हैं पूरे
बाजार में।
बाकी सब चीजें
खो जाती हैं।
हर चीज में भोजन
दिखाई पड़ता
है।
हेनरिक हेन ने
लिखा है कि एक
दफे मैं जंगल
में भटक गया।
तीन दिन तक
रास्ता न
मिला। फिर
पूर्णिमा का
चांद निकला, तो मैं
हैरान हुआ कि
मुझे चांद न
दिखाई पड़ा, एक रोटी
दिखाई पड़ी
आकाश में
तैरती हुई।
तीन दिन का
भूखा आदमी!
चांद भी रोटी
हो जाता है। उसने
लिखा है, 'मैंने
बहुत कविताएं
लिखी थीं, बहुत
कविताएं पढ़ी
थीं। कहीं
मैंने यह
प्रतीक नहीं
देखा कि चांद
तैरती हुई
रोटी! कभी
उसमें चेहरा
दिखाई पड़ता है
प्रेयसी का, कभी प्रेमी
का, वह समझ
में आता है; लेकिन रोटी!'
पर भूखा पेट
प्रोजेक्ट
करता है। हम
बाहर वही देखते
हैं जिसे हम
भीतर छिपाते
हैं।
इस
साधु ने
निश्चित इस
वेश्या को
देखा होगा, भलीभांति यह
जानता होगा।
बहुत बार सपने
में भी इस
वेश्या को
देखा होगा।
साधुओं के
सपने असाधुओं
के जीवन के
समतुल होते
हैं। असाधु
अकसर सपने देखता
है साधु होने
के। साधु अकसर
सपने देखता है
असाधु होने
के। अगर
साधुओं के
सपने खोलकर रख
दिए जाएं तो
तुम बहुत घबड़ा
जाओगे।
क्योंकि हम सपना
वही देखते हैं,
जिसे हम
जीवन में पूरा
नहीं कर पाते।
वह अधूरे की
पूर्ति है।
दिन उपवास
किया, रात
राजमहल में
भोजन का
निमंत्रण
मिलेगा ही--स्वप्न
है। दिन जिससे
आंखें चुराईं,
रात आंखें
उसे देखेंगी
ही।
जो हम
नहीं कर पाते, वह मन सपने
में पूरा कर
देता है। सपना
सब्स्टीटयूट
है; वह
परिपूरक है।
इसलिए गरीब
सपने देखते
हैं कि सम्राट
हो गए। और
अकसर सम्राट
भी सपने देखते
हैं कि भिक्षु
हो गए हैं, और
जंगल में चले
जा रहे हैं; और वृक्षों
के नीचे एकांत
में विश्राम
कर रहे हैं।
महल की झंझट
नहीं, सिपाही,
सैनिक नहीं,
वजीर, चिंताएं
नहीं, कुछ
भी नहीं। एक
भिक्षु की तरह
स्वतंत्र।
अगर बुद्ध और
महावीर
संन्यासी हो
जाते हैं, तो
यह सम्राटों
के सपने को
पूरा करने के
लिए। वह जो
सपना है उसको
उन्होंने
पूरा किया। और
अगर बुद्ध और
महावीर को
मानने के लिए,
सैकड़ों सम्राट
उनके चरण छूने
को आते हैं, वह इसीलिए
कि वह जो सपना
वे अपने मन
में देखते हैं,
वह इनमें
सार्थक हो गया
है। बुद्ध और
महावीर के
अनुयायियों
में अधिकतम
राजे-महाराजे
हैं। लगता है
उनको, कि
चाहते तो हम
भी यही हैं; हम नहीं कर
पाते, कमजोर
हैं; मजबूरियां हैं, मुश्किलें
हैं। तुमने
करके दिखा
दिया। तुमने
सपने को पूरा
कर दिया।
गरीब, अमीरी के
सपने देखता
है। रात हम
वही हो जाते हैं,
जो हम दिन
में नहीं
होते। साधु
अकसर पाप के
सपने देखते
हैं, व्यभिचार
के।
मेरे
पास साधु आते
हैं तो वे
कहते हैं, और तो सब ठीक
है; दिनभर तो किसी तरह
मन से छुटकारा
मिल जाता है, लेकिन रात!
रात हम विवश
हो जाते हैं।
इसलिए साधु
नींद लेने में
डरने लगता है।
संत की नींद तो
परम गहरी हो
जाएगी--स्वप्न-शून्य।
साधु नींद
लेने से डरने
लगता है।
क्योंकि सब
असाधुता
प्रगट होनी
शुरू हो जाती
है।
गांधी
परम साधु
पुरुष हैं।
उन्होंने
लिखा है कि
सत्तर साल की
उम्र तक भी
रात मुझे
कामवासना के
सपने आते हैं।
वे ईमानदार
आदमी हैं, परम साधु
हैं। दूसरे
साधु इतने
ईमानदार भी नहीं
कि यह कहें।
और गांधी कहते
हैं कि दिन भर
तो मुझे कुछ
खयाल में नहीं
आता, लेकिन
रात सपने मुझे
कामवासना के
आते हैं। संत
के सपने खो
जाएंगे। और
साधु के सपने
असाधुता के हो
जाएंगे।
इसने
सपने में भी
इस वेश्या को
देखा होगा। और
यह वेश्या
जितनी सुंदर
नहीं है, उतनी
इसे दिखाई
पड़ती रही
होगी। आज
अचानक द्वार
पर इसे खड़ा
देखकर साधु
बहुत चौंक गया
होगा। झकझोर
उठा होगा। एकांत,
रात अंधेरी,
कोई आसपास
नहीं, दूर
गांव से यह झोपड़ा!
एक दफा तो
सोचा होगा कि
सपना तो नहीं
देख रहा हूं? आंखें मीड़कर
फिर से देखा
होगा। वेश्या
सामने खड़ी थी।
इसकी सारी
वासना जग आई
होगी, एक
झंझावात में
पड़ गया होगा।
जो-जो दबाया
था, वह
प्रगट हो गया
होगा। रोएं-राएं
में भर गया
होगा। इसका
पूरा शरीर
कामातुर हो गया
होगा। यह
भयभीत हो उठा।
कहानी
के बहुत रूप
हैं। कहानी के
अनेक रूप प्रचलित
हैं, इस कहानी
के। एक रूप
कहता है, कि
वह घबड़ा गया।
रात तो सर्द
थी, लेकन माथे पर
उसके पसीने की
बूंदें आ गईं।
अभी वेश्या
द्वार पर ही
खड़ी थी। और
उसने
चिल्लाकर कहा
कि 'यहां
कैसे? इतनी
रात आने की
क्या जरूरत?' उसकी वाणी
में भय था। जब
हम दबाते हैं
कुछ, तो हम
एक तूफान के
ऊपर बैठे हैं।
जैसे कोई ज्वालामुखी
के ऊपर आसन
लगाए हो! चाहे
सिद्धासन ही
लगाए हो, तो
भी कोई फर्क
नहीं पड़ता, ज्वालामुखी
नीचे है।
और
कामवासना से
बड़ा
ज्वालामुखी
खोजना कठिन है।
सब आग बुझ
जाती है, कामवासना
की आग बड़ी
मुश्किल से
बुझती है। करीब-करीब
असंभव घटना
है। और जब
कामवासना की
आग बुझती है, तभी ही वह
शांति उपलब्ध
होती है, जो
मोक्ष की है।
नहीं तो आग
में आदमी जलता
ही रहता है।
कामवासना एक ज्वर
है। ठंडी रात,
पसीने की
बूंदें उसके
सिर पर आ गईं।
वह भयभीत हो
गया। कंठ
अवरुद्ध हो
गया होगा, बोलते
नहीं बना
होगा।
घबड़ाकर
उसने कहा, 'यहां इतनी
रात...आधी रात
आने की जरूरत?
बाहर
निकलो। हटो।'
वेश्या
करीब आने लगी।
और जैसे-जैसे
वह करीब आई
होगी, भीतर
उसके अचेतन मन
से दबी हुई
वासना भी करीब
आई होगी।
क्योंकि भय
वेश्या का
थोड़े ही है, भय तो सदा
अपना है।
बुद्ध तो
वेश्या के घर
में भी सो
सकते हैं, उसी
निश्चिंतता
से, जैसे
वे बोधिवृक्ष
के नीचे सोते
हैं। तुम बोधिवृक्ष
के नीचे भी
बिना वेश्या
के नहीं सो
सकते हो।
सोओगे अकेले,
रात में
पाओगे, दो
हो गए।
बोधिवृक्ष के
नीचे भी सपना
स्त्री का
होगा।
वेश्या
करीब आ गई, न केवल करीब
आ गई, उसने
उस भिक्षु को
आलिंगन में भर
लिया। सम्हाल
लिया होगा
उसने अपने को।
वर्षों की
साधुता थी, वर्षों का
दमन था। इस भय
को भी दबा
लिया होगा, सचेत हो
गया। आकस्मिक
घटना घटी थी
तो कंप गया था।
आकस्मिक के
कारण कंप गया
था। जिसका पता
नहीं था, वह
घट गया था। एक
दुर्घटना थी,
लेकिन इतनी
देर में
सम्हाल लिया
होगा। अपने को
संतुलित कर
लिया होगा।
और
वेश्या ने
पूछा, 'अब
क्या?'
तो वह जो
ज्वर उठा था, वह जो
झंझावात आया
था, वह जो
वासना कंपा गई
थी, अब वह
संतुलित था, नियंत्रित
था। फिर
साधुता
असाधुता को
दबा देती है।
उसने कहा, 'तेरा
मुझे आलिंगन
करना वैसे ही
है, जैसे
कोई रात की
सर्द चट्टान
को कोई वृक्ष
आलिंगन करो।
जरा भी गर्मी
चट्टान में
पैदा नहीं
होती।'
वासना ऊष्णता है; न केवल
मानसिक
अर्थों में, भौतिक
अर्थों में भी,
शारीरिक
अर्थों में
भी। जब तुम
कामवासना से भरते
हो तो
तुम्हारा
शरीर
ज्वर-ग्रस्त
हो जाता है।
तुम्हारे
रोएं-रोएं में
बुखार आ जाता
है। तुम्हारे
पूरे शरीर से
पसीना छूट
जाता है। रक्तचाप
बढ़ता है, हृदय
की धड़कन बढ़ती
है।
पहले
तो चिकित्सक
कहते थे कि
जिसका हृदय
कमजोर हो, उसे
काम-संभोग से
बचना चाहिए।
क्योंकि
काम-संभोग
हृदय की धड़कन
को बढ़ाता है।
उसमें कभी
हृदय के टूटने
का भी डर है।
लेकिन अब तक
कभी भी काम-संभोग
करते हुए किसी
का हृदय बंद
होकर प्राणांत
नहीं हुआ। कोई
हार्टफेल
अब तक नहीं
हुआ।
तो
चिकित्सक
चिंता में पड़े
कि इसमें कहीं
कोई भूल होनी
चाहिए। तो अब
एक नया
सिद्धांत
विकसित हुआ है, जो यह कहता
है कि हृदय के
रोगी के लिए
काम-संभोग
अच्छा है।
क्योंकि उससे
हृदय का
अभ्यास होता
रहता है, व्यायाम
होता रहता है।
जैसे चलने से
शरीर का
व्यायाम होता
है, ऐसा
काम-संभोग से
हृदय का
व्यायाम होता
है। और उस
व्यायाम से कम
से कम जितनी
तीव्रता
काम-संभोग में
आती है, उतनी
तीव्रता तक तो
तुम्हारा
हृदय बंद नहीं
होगा। उतना
अभ्यास है। तो
पश्चिम में
नया आधुनिक
चिकित्साशास्त्र
तो हृदय के
रोगी को
काम-संभोग की
आज्ञा देता
है। लेकिन
दोनों में एक
बात स्वीकार
है कि हृदय की
धड़कन बढ़ती है,
रक्तचाप
बढ़ता है, पसीना
आता है, शरीर
ज्वर-ग्रस्त
हो जाता है।
इसको
भी ज्वर
प्रतीत हुआ।
अन्यथा इस
चट्टान और
वृक्ष के
प्रतीक के
खयाल में आने
की जरूरत क्या
थी? कुछ और
खयाल न आया? यह
लीपना-पोतना
चाहता है। जो
घट गई है घटना,
वेश्या ने
देख लिया है।
वेश्या की
आंखों से वासना
को छुपाना
मुश्किल है।
क्योंकि जीवन
भर उसका अनुभव
और कला वही
है। तुम
वेश्या से
आंखें नहीं
चुरा सकते।
उसकी समझ गहरी
हो जाती है।
वह तुम्हारे
रत्ती-रत्ती
भेद को जानती
है। वह
तुम्हारे
इशारे-इशारे
में कंपती हुई
वासना को
पहचान लेती
है। वह कलाकार
है। उसने शरीर
के संबंध में
बहुत कुछ सीखा
है। उससे
छिपाना तो
मुश्किल है, लेकिन अब यह
लीपा-पोती कर
रहा है। अब यह
व्याख्या
करने की कोशिश
कर रहा है।
यह
उससे कह रहा
है, 'जैसे
ठंडी चट्टान
को कोई रात
में वृक्ष
आलिंगन कर ले,
तो जरा भी ऊष्णता
पैदा नहीं
होती, ठंडी
चट्टान ठंडी
ही बनी रहती
है। ऐसा ही
मैं ठंडी
चट्टान जैसा
हूं। तेरे
कारण कोई ऊष्णता
पैदा नहीं हो
गई।'
लेकिन
इससे ही राज
खुल गया।
क्योंकि हम
उसी को समझाने
की कोशिश करते
हैं, जहां हम पकड़े गए
होते हैं। यह
व्याख्या ही
तो सारा गड़बड़
कर दी।
वेश्या
ने जाकर बुढ़िया
को कह दिया कि
इतनी बात कही
है, कि जैसे
ठंडी चट्टान
को कोई वृक्ष
छुए और ऊष्णता
पैदा नहीं
होती।
बुढ़िया
गई और उसने झोपड़े
में आग लगा
दी। यह आदमी
साधु तो था
लेकिन संत नहीं
था। और जिसके
चरणों में
इसने इतने दिन
बिताए, इतने
दिन गुजारे,
वह कोई सदगुरु
होने की
योग्यता नहीं
थी। वह खुद ही
अभी संघर्ष
में था, मार्ग
में था, पहुंचा
नहीं था। और
जो खुद न
पहुंचा हो, वह किसी को
कैसे पहुंचा सकता
है? केवल
वही पहुंचा
सकता है, जो
खुद पहुंच गया
हो।
जो खुद
ही रास्ते पर
चल रहा हो, वह तुम्हें
भी चला सकता
है लेकिन
पहुंचा नहीं सकता।
जो अभी रास्ते
पर ही है, उसे
भी पक्का नहीं
होता कि
रास्ता पहुंचाएगा
भी, या
नहीं पहुंचाएगा?
मंजिल
मिलेगी या
नहीं मिलेगी?
वह भी
अनुयायी
चाहता है
क्योंकि
अनुयायियों
से हिम्मत
बढ़ती है।
आसपास
अनुयायियों
को देखकर उसे
लगता है, जैसे
मैं पहुंच
गया। रास्ते
पर चलनेवाले
आदमी को भी
अनुयायी मिल
जाएं। और
अनुयायी इसलिए
किसी का साथ
खोज लेते हैं
कि कोई भी कम
से कम जा रहा
है, तो
शायद हम भी
पहुंच जाएं।
हमारी
हालत ऐसी है, मैंने सुना
है, एक
जंगल में एक
शिकारी भटक
गया। तीन दिन
मुसीबतों का
मारा, न
रास्ता मिलता,
न कोई दिशा
सूझती! कोई
पदचिह्न भी
नहीं दिखाई पड़ता,
जिसको पकड़कर
यात्रा कर ले।
भूखा, प्यास,
परेशान, करीब-करीब
इस हालत में
कि गिर पड़े, मर जाए! अचानक
उसने देखा, तीसरे दिन, सांझ को
सूरज ढल रहा
है और एक जंगल
के घने हिस्से
से दूसरा
शिकारी चला आ
रहा है। खुशी
से भर गया।
नाच उठा। जाकर
उसे गले लगा
लिया और कहा
कि 'मेरे
भाई! तीन दिन
से मैं भटका
हुआ हूं, तुम
मिल गए बड़ा
अच्छा हुआ।' उस दूसरे
शिकारी ने कहा,
'इतने खुश
होने की कोई
जरूरत नहीं।
मैं सात दिन
से भटका हुआ
हूं।'
दूसरे
का साथ मिल
जाए तो भी
खुशी हो जाती
है। शायद
रास्ता बन
जाएगा। एक से
नहीं मिला, दो से मिल
जाएगा। शिष्य
साथ खोजने के
लिए गुरुओं के
पीछे हो जाते
हैं। गुरुओं
की हिम्मत बढ़ जाती
है। जितने
शिष्य पीछे
होते हैं, लगता
है हम जरूर
कहीं पहुंच गए
होंगे; तभी
तो इतने लोग
पीछे हैं।
लेकिन जो खुद
नहीं पहुंचा
है, वह
पहुंचा नहीं
सकता।
इस
बूढ़ी स्त्री
को बात साफ हो
गई।
और हम
व्याख्या उसी
बात की देते
हैं, जिससे हम
डरते हैं। पति
सांझ घर लौटता
है, तैयार
व्याख्या
करके लौटता
है। तुम उसकी
व्याख्या पूछ
लो, उससे
ही पता चल
जाएगा कि वह
क्या गड़बड़
करके घर आ रहा
है। शराब पीकर
आ रहा है, तो
वह व्याख्या
करके आएगा कि
आज जरा पार्टी
थी। और जरूरी
था काम-धंधे
के लिए, इसलिए
पीकर आ रहा
हूं। उसकी
व्याख्या पूछ
लो। उससे पता
चला जाएगा, वह क्या करके
आ रहा है।
मैंने
सुना है कि एक
शराबी रात घर
की तरफ चला, कई तरह के
विचार तय
करके। शराबी
सदा घर की तरफ विचार
तय करके चलते
हैं। पत्नी
पता नहीं क्या
पूछे! सब
तैयारी रखनी
पड़ती है। भटक
गया रास्ता और
एक अजायबघर
में पहुंच
गया। किसी तरह
ढूंढ़-ढांढ़कर
दरवाजा खोज रहा
था अपना। अपना
दरवाजा तो
वहां मिलने का
कोई सवाल न
था। एक हिप्पोपोटेमस
के सींखचे के
पास खड़ा हो
गया। गौर से
देखा, बहुत
घबड़ा गया। और
कहा कि 'देख,
ऐसा चेहरा
मत बना। मैं
पूरी-पूरी हर
चीज का उत्तर
तैयार करके
आया हूं। इतना
विकराल रूप मत
दिखा।' 'आई हेव गाट एक्सप्लेनेशन्स
फार एह्वरीथिंग।'
एक्सप्लेनेशन
ही तो खबर
देता है कि
समस्या कहां
है! तुम क्या
व्याख्या
देते हो, तुम
कैसे सुलझाना
चाहते हो
मामले को, उससे
ही तो मामले
का पता चलता
है।
यह
साधु घबड़ा गया
है। ऊष्णता
जो शरीर में आ
गई, माथे पर
जो पसीने की
बूंद दिख गई, शरीर जो कंप
गया भय से, वासना
की ऊष्णता
जो दौड़ गई देह
में, यह इस
वेश्या से
छिपाना
मुश्किल है।
शायद वह ऊष्णता
छिप भी जाती, लेकिन यह
व्याख्या उस
बूढ़ी से
छिपाना
मुश्किल है।
शायद यह
वेश्या धोखे
में भी पड़
जाती, लेकिन
इसने जो वचन
कहा, कि 'जैसे चट्टान
को कोई छू ले
रात अंधेरे
में वृक्ष, और चट्टान
वैसी ही बनी
रहती है--ठंडी
की ठंडी; ऊष्णता
पैदा नहीं
होती; ऐसा
ही मैं हूं।' फिर बूढ़ी ने
एक क्षण देर न
की, उसने
जाकर झोपड़े
में आग लगा
दी।
और
बूढ़ी का आखिरी
वक्तव्य है कि
'मैंने
व्यर्थ ही
जीवन भर इस
आदमी की सेवा
की। यह खुद
अभी कहीं
पहुंचा नहीं
था। यह तो
रास्ते पर था।
अच्छा आदमी था,
सज्जन था, साधु था, लेकिन
संत नहीं था।'
कहानी
के बहुत रूपों
में एक रूप यह
कहता है कि उस
बूढ़ी ने उस
वेश्या को कहा
कि कुछ भी हो, अभी संतत्व
नहीं फला।
नहीं तो कम से
कम थोड़ी करुणा
तो दिखा ही
सकता था।
वासना न दिखाता,
लेकिन थोड़ी
करुणा तो दिखा
ही सकता था।
और चट्टान
चाहे ऊष्ण
न हो, लेकिन
बुद्ध का हृदय
तो ऊष्ण
होगा। वह
वासना की ऊष्णता
नहीं है। अब
यह जरा और
सूक्ष्म बात
है, समझ
लेने जैसी है।
एक और ऊष्णता भी
है, जो करुणा
की है। वासना
से भी तुम ऊष्ण
होते हो लेकन
वह ऊष्ण
ज्वर जैसा है,
रोग जैसा
है। करुणा से
भी एक ऊष्णता
तुम में दौड़
जाती है लेकिन
वह ऊष्मा
स्वागत की है।
अंग्रेजी में
शब्द है, 'वार्म
वेल-कम'--ऊष्ण स्वागत। जब
तुम आतुर भाव
से किसी को
निकट लेते हो।
एक मां भी
अपने बेटे को
निकट लेती है।
एक मित्र भी
अपने मित्र को
निकट लेता है।
एक गुरु भी
अपने शिष्य को
अपनी बाहों
में भर ले
सकता है।
लेकिन उस ऊष्णता
में कोई वासना
नहीं है। वह ऊष्णता
सिर्फ हृदय की
है, वह
करुणापूर्ण
है; वह कोई
उद्विग्नता
नहीं है। वह
केवल खुले द्वार
का स्वागत है।
वह कहती है कि
हृदय खुला है,
आओ।
उस
बूढ़ी स्त्री
का यह वचन है, उसने वेश्या
को कहा कि
वासना दिखाने
की कोई जरूरत
न थी, लेकिन
थोड़ी करुणा तो
दिखा ही सकता
था।
ध्यान
रहे, जिसने
कामवासना को
दबाया है, उसका
ब्रह्मचर्य
करुणापूर्ण
नहीं होगा। जिसने
कामवासना को
दबाया है, उसकी
कामवासना तो
दबेगी ही, प्रेम
भी दब जाएगा।
क्योंकि वह
सदा प्रेम से
भी भयभीत रहेगा
क्योंकि जहां
भी प्रेम
दिखाया, उसे
डर लगेगा कि
कहीं
कामवासना के
झरने फिर से न
फूट पड़ें। और
जिसका
ब्रह्मचर्य
कामवासना के
पार जाकर
उपलब्ध होता
है, उसके
ब्रह्मचर्य
में प्रेम की
अपार सरिता होगी।
उसमें ऊष्णता
होगी करुणा
की। वह प्रेमी
होगा। यह भेद
बारीक है।
अगर
वस्तुतः कोई
व्यक्ति
कामवासना के
पार जाए तो
उसकी समस्त
जीवन ऊर्जा
प्रेम बन
जाएगी। वही
लक्षण है।
उसका सारा
जीवन करुणा बन
जाएगा। वह
प्रेम से
रिक्त नहीं हो
जाएगा, प्रेम
से पहली दफा
पूरी तरह भर
जाएगा। और जिस
व्यक्ति ने
कामवासना को
दबाया, डरा,
भयभीत हुआ,
वह प्रेम से
डर जाएगा। वह
तुम्हारा हाथ
भी छूने से भय
खायेगा।
क्योंकि हर
वक्त उसे डर
है कि वह
ज्वाला भीतर
जल रही है। और
जरा-सा भी
मौका मिला कि
वह ज्वाला भभक
सकती है। उस
ज्वाला के डर
के कारण वह
प्रेम से भी
वंचित कर लेगा
अपने को। वह
साधारण करुणा
से भी दूर
रहेगा। वह ऐसी
परिस्थितियों
से भाग जाएगा,
जहां प्रेम
के पैदा होने
का कोई भी
उपाय हो।
लेकिन
जो
ब्रह्मचर्य
प्रेम से भी
शून्य हो जाए, उस
ब्रह्मचर्य
को पाने का
अर्थ ही खो
गया। यह तो
ऐसा हुआ, जैसे
बच्चे को धोया
टब में, गंदे
पानी के साथ
बच्चे को भी
फेंक दिया।
प्रेम तो बचना
ही चाहिये था,
वही तो
आत्यंतिकता
है; वही तो
परमात्मा है।
संत के जीवन
में प्रेम होगा।
साधु के जीवन
में प्रेम
नहीं होगा। और
यही भेद रेखा
होगी उनके
ब्रह्मचर्य
की।
उसने
ठीक ही किया
कि झोपड़ा
जला दिया। यह
तो सिर्फ प्रतीक
है। यह सिर्फ
इस बात का
सूचक है, उस
बूढ़ी ने खबर
दे दी उस
संन्यासी को,
कि तू अभी
रास्ते पर है,
गुरु होने
के योग्य न था,
अभी तू खुद
ही भयभीत हो
रहा है। अभी
तू खुद ही डर
रहा है। अभी
तू खुद ही
व्याख्याएं
देता है। तू
खुद अपने को
बचाने की
कोशिश में लगा
है। अभी तू भी
असुरक्षित
अनुभव करता
है। अन्यथा
व्याख्या की
क्या जरूरत थी?
कौन तुझ से
पूछता था, तू
किस से डरा था?
अपने से ही
डरा हुआ आदमी
अपने चारों
तरफ जाल खड़ा
करता है। झोपड़े
में आग नहीं
लगाई है, उसके
जाल में आग
लगाई है; उसके
चारों
तरफ--ताकि उसे
दिखाई पड़ जाए,
उसे अपनी
भ्रांति खयाल
में आ जाए।
जीवन
में ये दो
मार्ग हैं। एक
तो दमन का
मार्ग है और
एक मुक्ति का।
अगर तुम दमन
के मार्ग से चले
तो तुम वासना
से जो पीड़ा
मिलती है, वह तुम्हें
नहीं मिलेगी।
वासना से जो
उलझन होती है,
वह तुम्हें
नहीं होगी, लेकिन प्रेम
से जो मुक्ति मिलती
है वह भी
तुम्हें नहीं
मिलेगी। और
प्रेम से जो
आनंद उपलब्ध
होता है, वह
भी तुम्हें
नहीं मिलेगा।
एक स्थिति है,
अगर तुम
वासना से अपने
को बचाओ, तो
जो दुख
तुम्हें
मिलते हैं वे
तुम्हें नहीं मिलेंगे।
मैंने
सुना है, एक
युवक ने अपने
बाप को पत्र
लिखा।
युनिवर्सिटी
में पढ़ता है, आखिरी साल
है। उसने बाप
को पत्र लिखा
कि 'अब
मैंने तय कर
लिया है विवाह
का। लड़की भी
मैंने चुन ली
है। बस आपके
आशीर्वाद की
प्रतीक्षा है।
आपका
आशीर्वाद
मिला कि मैं
विवाह कर लूंगा।'
बाप ने
बेटे को उत्तर
लिखा, और
लिखा कि 'खुश
हूं, आनंदित
हूं। इसी घड़ी
की प्रतीक्षा
थी हम दोनों
को कि कब तुम
विवाह कर लोगे,
कब तुम्हें
जीवन का साथी
मिल जाएगा! यह
सोचकर कि तुम
विवाह करने जा
रहे हो, मुझे
अपने उन दिनों
की याद आती है,
जब मैं
तुम्हारी मां
के प्रेम में
पड़ा था। वह सामने
ही मेरे टेबल
पर बैठी है।
सब स्मरण हो आया।
यह इतने बीस
वर्षों का सुख,
यह आनंद जो
तुम्हारी मां
ने मुझे दिया;
परमात्मा
करे, ऐसा
ही सुख
तुम्हारे
जीवन में भी
तुम्हें मिले।
हमारे
आशीर्वाद।' और नीचे
पुनश्च करके
लिखा था, 'सावधान!
भूलकर विवाह
मत करना। तेरी
मां जरा बाहर
गई है, तो
मैं असली बात
लिखे दे रहा
हूं।'
लेकिन
अगर कोई विवाह
न करे तो
निश्चित
विवाह के दुख
से तो बच जाता
है, लेकिन
कोई सुख
उपलब्ध नहीं
होता। यह
तकलीफ है।
विवाह के दुख
से बच जाता है
क्योंकि
विवाह के दुख
हैं; संबंध
की अड़चनें
हैं। दूसरे के
साथ रहने की
उलझन है, समस्याएं
हैं, कलह
है, संघर्ष
है। जहां दो
हैं, वहां
थोड़ी सी आवाज
होगी, बर्तन
बजेंगे।
कष्ट उसके
हैं। इस भय से
कोई विवाह
करने से बच
जाए तो अकेले
रहने का कोई
सुख नहीं है।
तुम चाहो तो
एक तरह अपने
को सिकोड़ ले
सकते हो। दुख
तुम्हें
बिलकुल न
रहेंगे, लेकिन
सुख भी कोई न
रह जाएगा।
जिसको
तुम साधु कहते
हो, वह इसी
तरह का भागा
हुआ भगोड़ा
है। जहां-जहां
दुख मिलता था,
वहां-वहां
से उसने अपने
को सिकोड़
लिया। तो दुख
तो नहीं मिलता,
वह तुमसे कम
दुखी है, यह
बात सच है; लेकिन
किसी आनंद को
उपलब्ध नहीं
हुआ। क्योंकि सिकुड़ने
से कोई आनंद
को उपलब्ध
नहीं होता, फैलने से
कोई आनंद को
उपलब्ध होता
है। उसने
सुरक्षा तो
पूरी कर ली, लेकन सुरक्षा
कब्र बन गई।
वह उसी में सड़
जाएगा।
संत
बड़े और तरह का
अनुभव है।
संतत्व का
अर्थ है: तुम
दुख से अपने
को नहीं बचा
रहे हो, तुम
आनंद की तरफ
अपने को फैला
रहे हो। तुम
कामवासना से
मुक्त होने की
कोशिश ही नहीं
कर रहे हो, तुम
प्रेम की तरफ
विकसित होने
की
कोशिश...तुम्हारी
यात्रा
विधायक है।
तुम चिंता में
नहीं हो कि
कामवासना रहे
या जाए, तुम
चिंता में हो
कि मैं
प्रेमपूर्ण
कैसे बन जाऊं।
तुम एक घर को
नहीं छोड़ रहे
हो बल्कि पूरी
पृथ्वी, पूरा
संसार, पूरा
अस्तित्व, तुम्हारा
घर कैसे बन
जाए इसकी
कोशिश कर रहे
हो। यह यात्रा
बिलकुल दूसरी
है। यह आदमी
भी अकेला हो
जाएगा, लेकिन
उसके अकेलेपन
में एक गरिमा
होगी। क्योंकि
इसका अकेलापन
एक आनंद से
भरा होगा।
इसको भी कोई
दुख न होंगे, लेकिन दुख न
होना कोई
गुणधर्म थोड़े
ही है! पीड़ा
इसको भी नहीं
होगी। मरे हुए
आदमी को कोई
बीमारी नहीं
लगती। इसलिए
तुम मर जाओ तो
तुम्हें कभी
कोई बीमारी का
डर नहीं
रहेगा। न
डाक्टर की फीस
चुकानी पड़ेगी,
न दवा लेनी
पड़ेगी। लेकिन
यह कोई
स्वास्थ्य हुआ?
साधु
ऐसा ही मरा
हुआ आदमी है, जो गृहस्थी
के दुख देखकर
डर गया, भयभीत
हो गया। सब
तरफ से उसने
द्वार बंद कर
लिए। जहां-जहां
से दुख आते
हैं, द्वार
बंद कर लिए।
कब्र बन गया
घर। लेकिन
आनंद इसे फलित
नहीं होगा।
तुम्हारे
साधु तुमसे कम
दुखी हैं यह
सच है, क्योंकि
दुख की
परिस्थितियों
के बाहर हैं।
न इन्कमटेक्स
भरना है, न
चोरी करनी है,
न किसी को
धोखा देना है।
ना, ये सब
चिंताएं नहीं
हैं। लेकिन यह
सिर्फ परिस्थिति
से हट जाना
है। न पत्नी
है, न
बच्चे हैं, न रोज की
मुसीबतें
हैं।
मैंने
सुना है, एक
आदमी फोन कर
रहा है अपनी
पत्नी को। कह
रहा है कि आज
एक मित्र को
भोजन पर ला
रहा हूं। उसकी
पत्नी फोन पर
ही
चीखने-चिल्लाने
लगी। और उसने
कहा कि तुम्हारी
अक्ल खो गई है?
आंखें फूट
गई हैं? नौकरानी
छोड़कर चली गई
है, रसोइया
बीमार पड़ा है।
बच्चे के दांत
निकल रहे हैं।
मैं खुद तीन
दिन से बुखार
में हूं। अनाज
घर में नहीं
है। दुकानदार
ने आगे देने
से मना किया
है, जब तक
हम पिछले पैसे
न चुका दें।
तुम्हारा
दिमाग तो ठीक
है? उस
आदमी ने कहा
कि इसीलिए तो
उसको घर ला
रहा हूं। यह
मित्र शादी
करना चाहता
है। इसको
दिखाने ही तो
घर ला रहा हूं
कि देख ले, कैसा
सुख का
साम्राज्य
छाया हुआ है!
पर इस
वजह से अगर
कोई दुख से बच
जाए, तो क्या
आनंदित हो जाएगा?
दुख के
भय से तुम सिकुड़ोगे, फैल नहीं
सकते। आनंद की
यात्रा अलग
है। उसे ही
मैं धर्म की
यात्रा कहता
हूं। वह एक
विधायक यात्रा
है, नकारात्मक
नहीं। तुम कुछ
छोड़ते नहीं, तुम विराट
को पाते हो।
तुम किसी से
भागते नहीं, तुम विराट
को आलिंगन
करते हो।
उसमें
क्षुद्र अपने
आप खो जाता
है। तुम घर से
हटते नहीं, तुम सारे
अस्तित्व को
अपना घर बनाते
हो।
संत महाभोगी
है।
तुम
भोगी हो, तुम्हारा
साधु भोग के
विपरीत--अभोगी
है, संत महाभोगी
है। क्योंकि
संत आनंद में
थिर होता है।
और जहां आनंद
है, वहां
प्रेम है; करुणा
है। वह उसकी
छाया की तरह
है।
उस
स्त्री ने ठीक
ही कहा कि जला
दो इस आदमी का झोपड़ा अब।
यह फिजूल की
मेहनत थी, इतने दिन तक
जो की। इसे
खुद कुछ नहीं
मिला। अभी भी
भयभीत है, अभी
भी
व्याख्याएं
दे रहा है।
तुम भी
सोचना, क्योंकि
ये दोनों
रास्ते हैं।
और गलत पर
जाने का
तुम्हारा मन
सदा साथ देगा।
सदा तुम्हारा
मन गलत को
चुनने में साथ
देगा।
क्योंकि मन
तुम्हारे
भीतर गलत की
प्रक्रिया
है। वह गलत का
स्रोत है।
एक
मित्र, एक
मित्र को बिदा
कर रहा है।
दोनों काफी पी
गए हैं। मित्र
को बिदा कर
रहा है। दोनों
हाथ-पैर कंप
रहे हैं। एक
दूसरे को गले
भी लगाते, तो
ठीक से लगा
नहीं पाते। एक
दूसरे को
चूमते हैं, तो कहीं का
चुंबन कहीं पड़
जाता है।
दोनों काफी पी
गए हैं। फिर
उसने कहा कि
देख भाई! एक
बात अनुभव से
कहता हूं।
यहां से तू
जाएगा, सौ
कदम के बाद दो
रास्ते दिखाई
पड़ेंगे।
बायें तरफ मत मुड़ना; वह
रास्ता है ही
नहीं। दायें तरफ
ही मुड़ना।
वह रास्ता एक
ही है लेकिन
मैं जब भी
ज्यादा पी
जाता हूं, तो
दो दिखाई पड़ते
हैं। और बायें
तरफ के रास्ते
पर भूलकर मत
जाना; वह
है ही नहीं।
तुम्हारा
मन तुम्हारे
भीतर गलत की
बेहोशी की प्रक्रिया
है, शराब है।
वह हमेशा
बायें तरफ का
रास्ता दिखाएगा।
और वह सुगम
मालूम पड़ेगा।
क्योंकि मन को
उसमें जाने में
कोई भी अड़चन
नहीं है। जब
तुम पत्नी से
ऊब जाओगे, तब
तुम्हें
साधुओं की
बातें एकदम
ठीक मालूम पड़ेंगी।
जब घर में कोई
मर जाएगा तब
तुम धर्मशास्त्र
एकदम से पढ़ने
लगोगे। जब
दिवाला निकल
जाएगा, तब
तुम्हें साधु
बनने की बड़ी
प्रेरणा
होगी। जब भी
तुम हारोगे, तत्क्षण तुम
हरि नाम जपने
लगोगे--'हारे
को हरिनाम।' भजन-कीर्तन
करने लगोगे।
इससे
बचना। यह
तुम्हारा मन
ही समझा रहा
है। जो
तुम्हें
दुकान में
लगाए था, वही
तुम्हें
मंदिर में ले
जा रहा है। जो
तुम्हें धन का
हिसाब करवाता
था, वही
राम-नाम जपवा
रहा है। वहां
हार गए तो वह
कहता है, चलो
यहां कोशिश कर
लो। लेकिन ठीक
रास्ता बायें
तरफ नहीं है, मन की तरफ
नहीं है। ठीक
रास्ता, मन
की सुनना बंद
कर देना है।
तुम मन से
पूछना ही मत; मन तो
द्वंद्व में
बताएगा। और
बड़ी अजीब हालत
है मन की। अगर
तुम जहां हो
वहां से
तुम्हें
बताएगा, विपरीत
चले जाओ। अगर
तुम विपरीत
चले गए, वहां
से तुम्हें
बताएगा, तुमने
वह जगह बेकार
छोड़ दी।
एक
आदमी हवाई
जहाज का पायलट
है। हवाई जहाज
पर अपने एक
मित्र को
घुमाने ले
गया। केलीफोर्निया
की सुंदर घाटी
के ऊपर वे उड़
रहे हैं। नीचे
एक झील आती
है। और वह
पायलट अपने
मित्र से कहता
है, 'बड़ी अजीब
बात है। जब
मैं छोटा
बच्चा था, तो
इस झील पर मैं मछलियां पकड़ता था।
और जब मैं
कांटा डालकर
बैठा रहता, मछलियां पकड़ता, ऊपर हवाई
जहाज उड़ते तो
मेरा मन कहता
था, कब वह
सौभाग्य
मिलेगा, जब
मैं पायलट हो जाऊंगा! अब
मैं पायलट हो
गया। अब मैं
इस झील पर से
जब भी निकलता
हूं, सोचता
हूं कब
रिटायर्ड हो जाऊंगा कि
फिर मछलियां
मारूं?'
मन ऐसा
है! अब वह कहता
है, बस एक ही
सुख मालूम
पड़ता है कि कब
छुटकारा मिले
इस सबसे, और
बैठूं झील पर,
मछलियां मारूं!
कोई चिंता
नहीं मछलियां
मारने में। और
पहले मैं मछलियां
मारता ही था, लेकिन तब
पायलट होना
चाहता था।
तुम्हारा
मन, जब तुम
दुकान में हो
तो मंदिर में
जाएगा। जब तुम
मंदिर में हो
तब दुकान ले
जाएगा।
तुम्हारा मन
तुम्हें सदा
विपरीत में
बुलाता
रहेगा। जब तुम
जागोगे और
दोनों को छोड़
दोगे, तब
संतत्व का
जन्म है।
अगर यह
व्यक्ति संत
रहा होता तो
इसका व्यवहार
बिलकुल भिन्न
होता। कुछ
कहना मुश्किल
है, कैसा
व्यवहार
होता।
यह और
एक खास बात
समझ लेनी
जरूरी है।
साधु का व्यवहार
तय है। कैसा
होगा, प्रिडिक्टेबल है। असाधु
से उल्टा
होगा। तुम
थोड़ी देर सोचो,
कि तुम रहे
होते इस साधु
की कोठरी में,
और यह सुंदर
वेश्या आई
होती; तुमने
क्या किया
होता? तुम
सोचते कि अब
एक दिन के लिए
साधुता-वाधुता
छोड़ देने में
कुछ हर्ज नहीं
है। और एक दिन
की बात है, फिर
कमा लेंगे, अपनी ही
कमाई है।
गंवाना क्या
है? और ऐसा
अवसर हाथ लगा,
इसे जाने
देना ठीक
नहीं। खुद वेश्या
खोजती आ गई
है। और जब
भगवान ऐसा
अनुग्रह करे,
तो इनकार मत
करना। भक्त को
कभी इनकार
नहीं करना, स्वीकार
करना। तुम
अपना व्यवहार
भलीभांति सोच
सकते हो। उससे
विपरीत इस
आदमी का
व्यवहार है।
यह साधु है; यह प्रिडिक्टेबल
है।
साधु
के संबंध में
घोषणा की जा
सकती है, वह
क्या करेगा; लेकिन संत
के संबंध में
कोई घोषणा
नहीं की जा सकती।
संत के संबंध
में कोई
भविष्य-वाणी
संभव नहीं है।
क्योंकि संत
किसी भी बंधी
हुई विचार-धारणा
पर नहीं चलता।
संत की चेतना
पर निर्भर है,
कि वह क्या
करेगा?
बौद्ध
कथा है: एक
बौद्ध भिक्षु
रास्ते से
गुजर रहा है।
सुंदर है।
और
भिक्षु अकसर
सुंदर हो जाते
हैं।
संन्यासी अकसर
सुंदर हो जाते
हैं। क्योंकि
संसार इतना कुरूप
है, उसमें
जी-जीकर चेहरा
भी कुरूप हो
जाता है। उसमें
लगे-लगे चेहरे
पर भी वे सब
घाव बन जाते
हैं, जो
चारों तरफ
हैं। और बुरा
करते-करते
बुराई की रेखा
भी आंखों में
खिंच जाती है।
संन्यासी
सुंदर हो जाते
हैं। इसलिए
संन्यासी बड़े
आकर्षक हो
जाते हैं। और
स्त्रियां
जितनी
संन्यासियों
के प्रति
मोहित होती
हैं, किसी
के प्रति
मोहित नहीं
होतीं।
एक
वेश्या ने उसे
रास्ते से
गुजरते देखा।
और उन दिनों
वेश्या बड़ी
बहुमूल्य बात थी।
इस मुल्क में
उन दिनों
बिहार में, बुद्ध के
दिनों में जो
नगर में सबसे
सुंदर युवती
होती, वही
वेश्या हो
सकती थी। एक
समाजवादी
धारणा थी वह।
वह धारणा यह
थी कि इतनी
सुंदर स्त्री
एक व्यक्ति की
नहीं होनी
चाहिए। इसलिए
इसको पत्नी
नहीं बनने
देंगे। इतनी
सुंदर स्त्री
सबकी ही हो
सकती है।
इसलिए वह
नगर-वधू कही
जाती थी। और
नगर-वधू का
सौभाग्य
श्रेष्ठतम
स्त्रियों को
मिलता था। और
यह गौरव का पद
था, क्योंकि
पत्नी होना तो
बहुत आसान है,
लेकिन
नगर-वधू होना
बड़ा कठिन है।
यह
नगर-वधू थी, और उसने
अपने महल से
नीचे झांककर
देखा, और
यह शानदार
भिक्षु अपनी
मस्ती में चला
जा रहा है। वह
मोहित हो गई।
वह भागी। उसने
जाकर भिक्षु
का चीवर पकड़
लिया। और कहा
कि 'रुको।
सम्राट मेरे
महल पर दस्तक
देते हैं, लेकिन
सभी को मैं
मिल नहीं पाती;
क्योंकि
समय की सीमा
है। यह पहला
मौका है, मैं
किसी के द्वार
पर दस्तक दे
रही हूं। तुम
आज रात मेरे
पास रुक जाओ।'
भिक्षु
संत ही रहा
होगा। उसकी
आंखों में
आंसू आ गए।
उस
वेश्या ने
पूछा कि 'आंख
में आंसू?'
उसने
कहा, 'इसीलिए
कि तुम जो
मांगती हो, वह मांगने
जैसा भी नहीं
है। तुम्हारे
अज्ञान को, तुम्हारे
अंधेरे को
देखकर पीड़ा
होती है। आज तो
तुम युवा हो, सुंदर हो।
अगर मैं न भी
रुका आज रात
तुम्हारे घर,
तो कुछ बहुत
अड़चन न होगी।
बहुत युवक
प्यासे हैं
तुम्हारे पास
रुकने को।
लेकिन जब कोई
तुम्हारे
द्वार पर न आए,
तब मैं आऊंगा।'
यह संत
का व्यवहार
है। मना नहीं
किया उसने, कि मैं नहीं
आता। उसने कहा,
मैं आऊंगा,
लेकिन अभी
तो बहुत बाजार
पड़ा है। अभी
बहुत लोग आने
को उत्सुक
हैं। अभी मेरी
कोई जरूरत भी
नहीं है। मेरी
कोई--कोई
उपयोगिता भी
नहीं। मैं न भी
आया तो तुम
भूल जाओगी। और
मैं आया भी तो
भी दो दिन बाद
भूल जाऊंगा।
पानी पर खिंची
लकीर है, मिट
जाएगी। लेकिन
जिस दिन कोई न
होगा...ज्यादा
देर न लगेगी, यह भीड़ छंट
जाएगी। यह भीड़
सदा नहीं
रहेगी। आज तुम
सुंदर हो, कल
तुम सुंदर न
रहोगी। आज लोग
तुम्हें
चाहते हैं, कल तुमसे
बचेंगे। आज
सुंदर हो, सिर
पर उठाया है।
कल कुरूप हो
जाओगी, गांव
के बाहर फेंक
देंगे। और जिस
दिन कोई न होगा,
उस दिन मैं आऊंगा।
मुझे भी तुमसे
प्रेम है, लेकिन
प्रेम
प्रतीक्षा कर
सकता है।
उस
वेश्या की समझ
में कुछ न
आया। क्योंकि
वासना तो
बिलकुल अंधी
है, वह कुछ
नहीं समझ
पाती। करुणा
के पास आंखें
हैं, वासना
के पास कोई
आंखें नहीं
हैं। लोग कहते
हैं, प्रेम
अंधा है। वह
जो प्रेम
वासना से भरा
है, निश्चित
ही अंधा है।
लेकिन एक और
प्रेम भी है, जो अंधा
नहीं है।
वस्तुतः उसी
प्रेम के पास
आंखें हैं, जो आंखों
वाला है।
इस
भिक्षु ने
प्रेम से
इनकार न किया।
इसने यह न कहा
कि 'यह क्या
पागलपन की बात
है? हट, स्त्री!
यह क्या शैतान
का निमंत्रण!
मेरे चीवर को
छूकर भ्रष्ट
किया। दूर हो!
यह क्या पाप
की बात!' इसके
माथे पर पसीना
न आया, आंख
में आंसू आए।
इसे किसी
वासना से कोई
ज्वर पैदा न
हुआ। इसने कुछ
व्याख्या भी न
दी। इसने कोई
व्याख्या
मांगी भी
नहीं। इसने
इतना ही कहा, 'जब जरूरत
होगी, मैं
जरूर आ जाऊंगा।'
बीस
वर्ष बाद, अंधेरी रात
है अमावस की।
और एक स्त्री
पड़ी है गांव
के बाहर और तड़फ
रही है।
क्योंकि गांव
ने उसे बाहर
फेंक दिया। वह
कोढ़ ग्रस्त हो
गई। यह वही
वेश्या है, जिसके द्वार
पर सम्राट
दस्तक देते
थे। अब दस्तक
देने का तो
कोई सवाल नहीं
है। अब उसके
शरीर से बदबू
आती है। उसके
पास भी कोई
बैठने को राजी
नहीं। उस
अंधेरी रात
में सिर्फ एक
भिक्षु उसके
सिर के पास
बैठा हुआ है।
वह करीब-करीब
बेहोश पड़ी है।
बीच-बीच में
उसे थोड़ा-सा
होश आता है, तो भिक्षु
कहता है, 'सुन,
मैं आ गया!
अब भीड़ जा
चुकी है। अब
कोई तेरा चाहने
वाला न रहा।
लेकिन मैं
तुझे अब भी
चाहता हूं। और
मैं कुछ तुझे
देना चाहता
हूं, कोई
सूत्र, जो
जीवन को
वस्तुतः
सुंदर करता
है। और कोई
सूत्र, जो
जीवन को
निश्चित ही
तृप्ति से भर
देता है। उस
दिन तूने
मांगा था, लेकिन
उस दिन तू ले न
पाती। और जो
तू मांगती थी,
वह देने
योग्य नहीं
है। प्रेम उसे
नहीं दे सकता
है।'
बौद्ध
कहते हैं इस
कथा के संबंध
में, कि वह
भिक्षुणी, वह
जो स्त्री थी,
वह उस रात
दीक्षित हुई।
भिक्षुणी की
तरह मरी। और
परम तृप्त
मरी। और बौद्ध
कहते हैं कि
वह बुद्धत्व
को उपलब्ध
हुई। इसने उसे
ध्यान दिया। प्रेम
ध्यान ही दे
सकता है।
क्योंकि उससे
बड़ा देने
योग्य कुछ भी
नहीं।
लेकिन प्रिडिक्टेबल
नहीं है संत
का व्यवहार।
कुछ ऐसा नहीं
है कि दूसरे
संत के पास
वेश्या गई
होती, तो
उसकी आंख से
आंसू निकले
होते। कुछ
कहना मुश्किल
है, उस
परिस्थिति
में क्या
होता।
क्योंकि संत
जीता है सहज, क्षण-क्षण।
क्या उत्तर
आता है, कहना
मुश्किल है।
एक और
दूसरी बौद्ध
कथा है।
एक
वेश्या ने
भिक्षु को
रोका, निमंत्रण
दिया, कि
मेरे घर रुक
जाओ वर्षाकाल
में। उस
भिक्षु ने कहा,
'रुकने में
मुझे जरा अड़चन
नहीं है,... यह
बात अलग! फिर
भविष्यवाणी
मुश्किल है।'
उसने कहा, 'रुकने में मुझे
जरा अड़चन नहीं,
लेकिन जिस
से दीक्षा ली
है, उस
गुरु से जरा
पूछ आऊं। ऐसे
वह मना भी
नहीं करेंगे,
उसका पक्का
भरोसा है।
लेकिन उपचारवश!
सिर्फ
औपचारिक है।
क्योंकि मैं
गुरु का शिष्य
हूं। बुद्ध
गांव के बाहर
ही हैं, अभी
पूछकर आ जाता
हूं।'
वेश्या
भी थोड़ी
चिंतित हुई
होगी। कैसा
भिक्षु! इतनी
जल्दी राजी
हुआ?
वह
भिक्षु गया।
उसने बुद्ध से
कहा कि 'सुनिए,
एक आमंत्रण
मिला है एक
वेश्या का, वर्षाकाल
उसके घर रहने
के लिए। जो
आज्ञा आपकी हो,
वैसा करूं।'
बुद्ध ने
कहा, 'तू जा
सकता है।
निमंत्रण को
ठुकराना उचित
नहीं।'
सनसनी
फैल गई भिक्षुओं
में। दस हजार
भिक्षु थे,र्
ईष्या से भर
गए। लगा कि
सौभाग्यशाली
है। तो वेश्या
ने निमंत्रण
दिया
वर्षाकाल का।
और हद्द हो गई
बुद्ध की भी
कि उसे
स्वीकार भी कर
लिया और आज्ञा
भी दे दी। एक
भिक्षु ने खड़े
होकर कहा कि 'रुकें! इससे गलत
नियम प्रचलित
हो जाएगा। भिक्षुओं
को वेश्याएं
निमंत्रित
करने लगें, और भिक्षु
उनके घर रहने
लगें, भ्रष्टाचार
फैलेगा। यह
नहीं होना
चाहिए।'
बुद्ध
ने कहा, 'अगर
तुझे
निमंत्रण
मिले, और
तू ठहरे तो
भ्रष्टाचार
फैलेगा। तू
ठहरने को
कितना आतुर
मालूम होता
है! कह तू उलटी
बात रहा है।
अगर तुझे
निमंत्रण
मिले और तू
पूछने
आए...पहली तो
बात तू पूछने आएगा
नहीं, क्योंकि
तू डरेगा। यह
पूछने आया ही
इसीलिए है कि
कोई भय नहीं
है। तू आएगा
नहीं पूछने।
अगर तू पूछने
भी आएगा, तो
मैं तुझे हां
न भरूंगा।
और तू भयभीत
मत हो। मुझे
पता है यह
आदमी अगर वेश्या
के घर में
ठहरेगा, तो
तीन महीने में
यह वेश्या के
पीछे नहीं
जाएगा, वेश्या
इसके पीछे
आएगी। मुझे इस
पर भरोसा है। यह
बड़ा कीमती है।'
वह
भिक्षु चला भी
गया। वह तीन
महीने वेश्या
के घर रहा।
बड़ी-बड़ी
कहानियां
चलीं, बड़ी
खबरें आईं, अफवाहें आईं
कि भ्रष्ट हो
गया। वह तो
बरबाद हो गया,
बैठकर
संगीत सुनता
है। पता नहीं
खाने-पीने का
भी नियम रखा
है कि नहीं! वह
भिक्षु भीतर
तो जा नहीं सकते
थे, लेकिन
आसपास चक्कर
जरूर लगाते
रहते थे। और
कई तरह की
खबरें लाते
थे। लेकिन
बुद्ध सुनते
रहे और
उन्होंने कोई
वक्तव्य न
दिया।
तीन
महीने बाद जब
भिक्षु आया, तो वह वेश्या
उसके पीछे आई।
और उस वेश्या
ने कहा कि मेरे
धन्यभाग
कि आपने इस
भिक्षु को
मेरे घर रुकने
की आज्ञा दी।
मैंने सब तरह
की कोशिश की
इसे भ्रष्ट
करने की, क्योंकि
वह मेरा
अहंकार था।
जब
वेश्या
तुम्हें
भ्रष्ट कर
पाती है, तब
जीत जाती है।
वह
मेरा अहंकार
था कि यह भिक्षु
भ्रष्ट हो
जाए। लेकिन
इसके सामने
मैं हार गई।
मेरा सौंदर्य
व्यर्थ, मेरा
शरीर व्यर्थ,
मेरा संगीत
व्यर्थ, मेरा
नृत्य, इसे
कुछ भी न लुभा
पाया और तीन
महीने में, मैं इसके
लोभ में पड़
गई। और मेरे
मन में यह सवाल
उठने लगा, क्या
है इसके पास? कौन-सी
संपदा है, जिसके
कारण मैं इसे
कचरा मालूम
पड़ती हूं? अब
मैं भी उसी की
खोज करना
चाहती हूं। जब
तक वह संपदा
मुझे न मिल
जाए, तब तक
मैं सब कुछ
करने को राजी
हूं, सब
छोड़ने को राजी
हूं। अब जीने
में कोई अर्थ
नहीं, जब
तक मैं इस
अवस्था को न
पा लूं, जिसमें
यह भिक्षु है।
कहना
मुश्किल है, संत का
व्यवहार क्या
होगा। साधु का
व्यवहार निश्चित
है।
उस बुढ़िया
ने पाया कि यह
साधु तो है, संत नहीं। झोपड़े में
आग लगा दी।
उसने अपनी
सेवा वापिस ले
ली। वह सदगुरु
नहीं हो सकता
था। वह खुद ही
अभी यात्रा का
पथिक है, अभी
यात्री है।
अभी मार्ग
पूरा होना है।
और न केवल
पूरा होना है,
अभी मार्ग
बायें की तरफ
चल रहा है, उसे
दायें की तरफ
चलना है। न
केवल वह
यात्री है, बल्कि गलत
यात्रा में
संलग्न है।
असाधु
के विपरीत
साधु मत बनना।
साधना में ही
अगर उत्सुक हो
जाए चित्त, साधना का ही
अगर निमंत्रण
मिल जाए, तो
साधु-असाधु
दोनों के पार
एक तीसरी
यात्रा है संत
की, उस तरफ
जाना--द्वंद्व
के पार, अतियों
के पार, विपरीत
से मुक्ति।
आज
इतना ही।
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