कुल पेज दृश्य

बुधवार, 31 दिसंबर 2014

ताओ उपनिषद--प्रवचन--123

निर्बल के बल राम—(प्रवचन—एकसौतैइसवां)
अध्याय 78
पानी से दुर्बल कुछ नहीं

पानी से दुर्बल कुछ भी नहीं है,

लेकिन कठिन को जीतने में उससे

बलवान भी कोई नहीं है;

उसके लिए उसका कोई पर्याय नहीं है।

यह कि दुर्बलता बल को जीत लेती है

और मृदुता कठोरता पर विजय पाती है;

इसे कोई नहीं जानता है;

इसे कोई व्यवहार में नहीं ला सकता है।

इसलिए संत कहते हैं:

"जो संसार की गालियों को अपने में

समाहित कर लेता है, वह राज्य का संरक्षक है।

जो संसार के पाप अपने ऊपर ले लेता है,

वह संसार का सम्राट है।'

सीधे शब्द टेढ़े-मेढ़े दिखते हैं।

मैं लाओत्से को देखता हूं--बहुत सी स्थितियों में। कभी जलप्रपात के पास बैठे हुए। जल की कोमल धार गिरती है कठोर चट्टानों पर। कोई सोच भी नहीं सकता कि चट्टानें राह दे देंगी; कोई तर्क-विचार नहीं कर सकता कि चट्टानें टूटेंगी और पानी मार्ग बना लेगा। लेकिन जीवन में होता यही है। चट्टानें धीरे-धीरे टूट कर रेत हो जाती हैं, बह जाती हैं, और जल मार्ग बना लेता है। पहले क्षण में तो जल को भी भरोसा न आ सकता था कि जिस चट्टान पर गिर रहा हूं वह टूट सकती है। लेकिन सतत, कमजोर भी सातत्य से बलवान हो जाता है।
लाओत्से जलप्रपात के पास ऐसे ही नहीं बैठा है। जलप्रपात उसके लिए एक बहुत बड़ा विमर्श, ध्यान हो गया। उसने कुछ पा लिया। उसने देख लिया कमजोर का बल और बलवान की कमजोरी। पत्थर टूट गया, बह गया; जल को न हटा पाया, न तोड़ पाया।
कमजोर को तुम तोड़ोगे कैसे? कमजोर का अर्थ ही है कि जो टूटा हुआ है, जो नम्य है, जो टूटने को तैयार है। जो टूटने को तैयार है वह चुनौती नहीं देता कि मुझे तोड़ो। जो टूटने को तैयार है उससे किसी के भी मन में यह अहंकार नहीं जगता कि इसे तोडूं। पानी तो तरल है, टूटा ही हुआ है, बह ही रहा है। और उसे क्या बहाओगे? चट्टान सख्त है, कठोर है, जमी है; बहने की उसकी कोई क्षमता नहीं है। और जब भी तरल और कठोर में संघर्ष होगा, तरल जीत जाएगा, कठोर टूटेगा। क्योंकि तरल जीवंत है और कठोर मृत है।
जीवन सदा कमजोर है, इसे जितनी बार दोहराया जाए, उतना भी कम है। जीवन सदा कमजोर है; मृत्यु सदा मजबूत है। लेकिन कितनी बार मृत्यु दुनिया में घटती है, फिर भी मृत्यु जीत नहीं पाती। रोज घटती है, फिर भी हारी हुई है। जीवन फिर-फिर मृत्यु को पार करके ऊपर उठ आता है। हर मृत्यु के बाद जीवन पुनः अंकुरित हो जाता है। हर कब्र पर फूल खिल जाते हैं; हर लाश की राख पर फिर नये अंकुर उठ आते हैं। मृत्यु अनंत-अनंत बार आई है; जीवन को मिटा नहीं पाती। और जीवन कितना कमजोर है? जीवन से कमजोर और क्या?
मृत्यु चट्टान जैसी है; जीवन जलधार जैसा। लेकिन अंततः मृत्यु राख होकर बह जाती है; जीवन बचा रहता है। जिसने यह जान लिया उसने अमृत का सूत्र जान लिया। उसने जान लिया कि मरना चाहे कितनी ही बार पड़े, मृत्यु जीत न सकेगी। मृत्यु मुर्दा है, उसके जीतने का उपाय कहां? जीवन जीवंत है, उसके हारने की संभावना कहां?
लाओत्से को और स्थितियों में भी देखता हूं। देखता है लाओत्से: एक छोटा सा बच्चा एक बड़े बलवान आदमी के कंधे पर बैठा जा रहा है। खड़ा है किनारे; राह से लोग गुजर रहे हैं। वह सोचता है, आदमी इतना बलवान है, कमजोर बच्चे को क्यों कंधे पर लिए है? बच्चे की कोमलता ही, उसकी कमजोरी ही, उसे कंधे पर चढ़ा देती है। बलवान नीचे हो जाता है; कमजोर ऊपर हो जाता है।
देखता है लाओत्से--पूर्णिमा की रात होगी, झुरमुट के पास से गुजरता है--एक शक्तिशाली युवक एक कोमल सी दिखने वाली युवती के चरणों में झुका है, याचना कर रहा है प्रेम की। स्त्री कमजोर है; बड़े से बड़े पुरुष को झुका लेती है। सिकंदर भी, नेपोलियन भी किसी स्त्री के चरणों में ऐसे झुक जाते हैं जैसे भिखारी हों। बड़ी सेनाएं उन्हें नहीं झुका सकतीं; पर्वत भी उनसे लड़ने को राजी हों तो पर्वतों को उखड़ जाना पड़ेगा। नेपोलियन के सामने आल्प्स पर्वत को झुक जाना पड़ा; किसी ने कभी पार न किया था, नेपोलियन ने पार कर लिया। सिकंदर ने सारी दुनिया रौंद डाली; बड़े-बड़े योद्धाओं को मिट्टी में मिला दिया। लेकिन एक कोमलगात, एक स्त्री, फूल जैसी, और सिकंदर वहां घुटने टेके खड़ा है।
लाओत्से देखता है। पूरे चांद की रात, झुरमुट में देखी घटना, ऐसे ही नहीं देखता। लाओत्से जो भी देखता है, वहां से जीवन का सार ले लेता है; कमजोर जीत जाता है, बलवान हार जाता है। बलवान होने की एक ही कला है, वह है कमजोर हो जाना। जीतने का एक ही मार्ग है, वह है जल की भांति हो जाना। इसलिए लाओत्से स्त्री की महिमा के इतने गुणगान गाता है कि संसार में कभी किसी ने नहीं गाए। अगर कभी भी सोचा जाएगा कि किस व्यक्ति ने स्त्री को सबसे ज्यादा समझा है तो लाओत्से का कोई मुकाबला नहीं। और स्त्री के गुणगान का कारण क्या है? उसके गुणगान का कारण है कि स्त्रैण-गुण कोमल है, जल जैसा है; उसमें एक बहाव है। पुरुष सख्त है, पत्थर जैसा है। और कोमल सदा सख्त को झुका लेता है। चट्टान सदा टूट जाती है जलधार के सामने।
लाओत्से गुजर रहा है एक बाजार से। मेला भरा है। एक बैलगाड़ी उलट गई है; दुर्घटना हो गई है। मालिक था, हड्डी-पसलियां टूट गई हैं। बैल तक बुरी तरह आहत हुए हैं। गाड़ी तक चकनाचूर हो गई है। एक छोटा बच्चा भी गाड़ी में था; दुर्घटना जैसे उसे छुई ही नहीं।
तुमने अक्सर देखा होगा, कभी किसी मकान में आग लग गई है, सब जल गया, और एक छोटा बच्चा बच गया। कभी कोई छोटा बच्चा दस मंजिल ऊपर से गिर जाता है, और खिलखिला कर खड़ा हो जाता है, और चोट नहीं लगती। लोगों में कहावत है, जाको राखे साइयां मार सके न कोए। इसमें परमात्मा का कोई सवाल नहीं है। क्योंकि परमात्मा को क्या भेद है--कौन छोटा, कौन बड़ा!
नहीं, राज कुछ और है। वह लाओत्से जानता है। बच्चा कमजोर है। अभी बच्चा सख्त नहीं हुआ। अभी उसकी हड्डियां पथरीली नहीं हुईं। अभी उसकी जीवन-धार तरल है। जितनी हड्डियां मजबूत हो जाएंगी उतनी ही ज्यादा चोट लगेगी। बैलगाड़ी उलटेगी, तो बूढ़े को ज्यादा चोट लगेगी, बच्चे को न के बराबर। क्योंकि बच्चा इतना कोमल है; जब गिरता है जमीन पर तो उसका कोई प्रतिरोध नहीं होता जमीन से। वह जमीन के खिलाफ अपने को बचाता नहीं। उसके भीतर बचाव का कोई सवाल ही नहीं होता; वह जमीन के साथ हो जाता है। वह गिरने में साथ हो जाता है। वह समर्पण कर देता है, संघर्ष नहीं। कठोरता में संघर्ष है।
जब तुम गिरते हो तो तुम लड़ते हुए गिरते हो, तुम गिरने के विपरीत जाते हुए गिरते हो, तुम अपने को बचाते हुए गिरते हो, तुम मजबूरी में गिरते हो। तुम्हारी चेष्टा पूरी होती है कि न गिरें, बच जाएं, आखिरी दम तक बच जाएं। तो तुम्हारी हड्डी-हड्डी, रोएं-रोएं में सख्ती होती है कि किसी तरह बच जाएं। और जब बचने का भाव होता है तो सब चीजें सख्त हो जाती हैं। बच्चे को पता ही नहीं होता क्या हो रहा है। वह ऐसे गिरता है जैसे कोई नदी की धार में धार के साथ बहता हो। तुम धार के विपरीत तैरते हुए गिरते हो। तुम्हारी विपरीतता में, तुम्हारी सख्ती में ही तुम्हारी चोट छिपी है। बच्चा बच जाता है।
लाओत्से खड़ा है नदी के किनारे। एक आदमी डूब गया है। लोग उसकी लाश को खोज रहे हैं। आखिर में लाश खुद ही पानी के ऊपर तैर आई है। और लाओत्से बड़ा चकित होता है: जिंदा आदमी तो डूब गया और मुर्दा ऊपर तैर आया, मामला क्या है? क्या नदी जिंदा को मारना चाहती थी और मुर्दे को बचाना चाहती है? जिंदा आदमी डूब जाते हैं और मुर्दा तैर आते हैं।
नहीं, लाओत्से समझ गया राज को। मुर्दा ऊपर तैर आता है, क्योंकि मुर्दे से ज्यादा और कमजोर क्या? मर ही गया, अब उसका कोई विरोध न रहा। जिंदा आदमी डूबता है, क्योंकि नदी से लड़ता है। अगर जिंदा भी मुर्दावत हो जाए तो नदी उसे भी ऊपर उठा देगी। तैरने की सारी कला ही इतनी है कि तुम नदी में मुर्दे की भांति हो जाओ। तो जो लोग तैरने में कुशल हो जाते हैं वे नदी में बिना हाथ-पैर तड़फड़ाए भी पड़े रहते हैं मुर्दे की तरह। नदी उनको सम्हाले रहती है। उन्होंने नदी पर ही छोड़ दिया सब। कमजोर का अर्थ यह है कि अपना बल क्या? इसलिए अपने पर भरोसा क्या? छोड़ देते हैं।
ऐसा लाओत्से जीवन की छोटी-छोटी घटनाओं से सारभूत को चुनता रहा है। उसने किसी वेद से और उपनिषद से ज्ञान नहीं पाया है। उसने जीवन का शास्त्र सीधा समझा है; जीवन के पन्ने, जीवन के पृष्ठ पढ़े हैं। और उनमें से उसने जो सबसे सारभूत सूत्र निकाला है वह है कि इस संसार में अगर तुमने शक्तिशाली होने की कोशिश की तो तुम टूट जाओगे, और अगर तुमने निर्बल होने की कला सीख ली तो तुम बच जाओगे।
भक्त गाते हैं: निर्बल के बल राम। जो बात स्वभावतः घटती है वह राम पर आरोपित कर रहे हैं। भक्त की भाषा में राम का अर्थ सारा अस्तित्व है।
लाओत्से कोई भक्त नहीं है। वह राम और परमात्मा जैसे शब्दों का प्रयोग नहीं करता। पर बात वह भी यही कह रहा है: निर्बल के बल राम। जितना जो निर्बल है उतना ही राम का बल उसे मिल जाता है। लाओत्से भी यही कह रहा है कि जो जितना कमजोर है, अस्तित्व उसे उतनी ही ज्यादा शक्ति दे देता है। और जो अकड़ा हुआ है अपनी शक्ति से, अस्तित्व उससे उतना ही विमुख हो जाता है। जब तुम अकड़े तब तुम अकेले; जब तुम विनम्र तब सारा अस्तित्व तुम्हारे साथ।
स्वभावतः, कमजोर बलवान हो जाएगा और बलवान कमजोर रह जाएंगे। बलवान होने की आकांक्षा अहंकार है। और अहंकार से ज्यादा बड़ी बीमारी, बड़ी उपाधि, बड़ा रोग खोजना मुश्किल है। कैंसर है अहंकार आत्मा का। अभी तो शरीर के कैंसर का ही कोई इलाज नहीं है तो आत्मा के कैंसर का तो कभी कोई इलाज नहीं होगा। अहंकार का अर्थ है: मैं लडूंगा, जीतूंगा, अपने ही पर खड़ा रहूंगा। न मुझे किसी राम की सहायता की जरूरत है, न अस्तित्व की सहायता की जरूरत है। मैं अकेला काफी हूं।
कैसे तुम सोचते हो कि तुम अकेले काफी हो? एक क्षण भी तो जी नहीं सकते श्वास न आए, हवाओं में उदजन न हो, आक्सीजन न हो, सूरज न हो, ताप न मिले; तुम बचोगे? नदियां सूख जाएं; तुम्हारे भीतर जल की धार सूख जाएगी। सूरज बुझ जाए; तुम्हारे भीतर शरीर की ऊष्मा खो जाएगी। श्वास न आए; एक क्षण में तुम टूट जाओगे। फिर भी तुम्हारा अहंकार कहता है, अपने पर जीऊंगा, मुझे किसी के सहारे की जरूरत नहीं। बिना सहारे के एक पल भी जी सकते हो?
तुम जुड़े हो। अस्तित्व चौबीस घंटे तुम्हें दे रहा है इसीलिए तुम हो, चाहे तुम भूल ही गए हो। क्योंकि अस्तित्व देने में शोरगुल नहीं मचाता, और न देते वक्त डुंडी पीटता है कि कितना दान दिया। पता ही नहीं चलता कि तुम प्रतिपल अस्तित्व के सहारे जी रहे हो। तुम एक क्षण भी उसके विपरीत न जी सकोगे। लेकिन अहंकार तुम्हें यह भ्रांति पैदा करवा देता है: अपने बल जी लूंगा। उसी दिन तुम कमजोर हो जाते हो। जिसने कहा अपने बल जी लूंगा, वह कमजोर। हालांकि वह समझ रहा है कि ताकतवर। और जिसने कहा कि राम के बल के बिना और कोई बल कहां, वह दिखता तो निर्बल है पर उसकी सबलता का कोई मुकाबला नहीं।
अब हम लाओत्से के इन वचनों को समझने की कोशिश करें।
"पानी से दुर्बल कुछ भी नहीं है, लेकिन कठिन को जीतने में उससे बलवान भी कोई नहीं। उसके लिए पानी का कोई मुकाबला नहीं; वह अद्वितीय है। उसका कोई पर्याय नहीं।'
पानी की निर्बलता क्या है? समझें। पानी को गिलास में डाल दो, गिलास के ढंग का हो जाता है; लोटे में रख दो, लोटे का आकार ले लेता है। पानी का अपना कोई आकार नहीं। उसका अपना कोई व्यक्तित्व नहीं। यह उसकी पहली निर्बलता है। पानी की अपनी कोई आकृति नहीं। इतना निर्बल है कि अपने आकार को भी नहीं सम्हाल सकता; जैसा ढाल दो वैसा हो जाता है। जरा भी जिद्द नहीं करता कि यह क्या कर रहे हो? मुझे क्यों लोटे का आकार का बनाए दे रहे हो? पानी में प्रतिशोध नहीं है, विरोध नहीं है, रेसिस्टेंस नहीं है। तुमने जैसा ढाला वैसा ही ढल जाता है। एक दफे भी आवाज नहीं देता कि यह क्या कर रहे हो? मेरा आकार बिगाड़े देते हो! इसलिए हमें लगेगा: बड़ा निर्बल है। न कोई व्यक्तित्व, न कोई अहंकार की घोषणा।
पत्थर को इतनी आसानी से न ढाल सकोगे। सब तरह की अड़चन खड़ी करेगा। छेनी-हथौड़ी लानी पड़ेगी; बड़ी कुशलता से मेहनत करनी पड़ेगी तब कहीं तुम पत्थर को आकार दे पाओगे। इंच-इंच लड़ेगा; प्रतिपल विरोध करेगा। तुम चाहे सुंदर मूर्ति ही गढ़ रहे होओ, अनगढ़ पत्थर भी विरोध करेगा। वह कहेगा, रहने दो मुझे जैसा मैं हूं। तुम हो कौन बदलने वाले? तुम्हारी छेनी-हथौड़ी से भी लड़ेगा, संघर्ष देगा। वह पत्थर का बल है। वह तुम्हें ऐसे ही नहीं बदल लेने देगा। बिना संघर्ष के तुम इंच भर भी जीत न सकोगे।
लेकिन पानी ऐसा निर्बल है कि एक क्षण को भी विरोध खड़ा नहीं करता। तुम इधर ढालते हो, उधर वह ढल जाता है। न छेनी लानी पड़ती न हथौड़ी; कोई संघर्ष नहीं करना पड़ता। लेकिन यही उसका बल भी है। पत्थर को--वह कितना ही बलवान मालूम पड़ता हो--तोड़ा जा सकता है, आकार दिया जा सकता है, मूर्ति बनाई जा सकती है। तुमने कभी किसी को पानी की मूर्ति बनाते देखा? पत्थर लड़ता है, लेकिन ढाला जा सकता है। पानी ढलने को बिलकुल तैयार है। कैसे ढालोगे? तुम भला सोच लो कि तुमने पानी को आकार दे दिया, लेकिन पानी अपने निराकार होने में लीन रहता है। गिलास में ढालते हो तो भी तुम सोचते हो कि आकार मिल गया। आकार मिला नहीं है। गिलास से बाहर निकालो पानी को, वह फिर निराकार है। पानी अपने निराकार में लीन रहता है। ऊपर से दिखाई पड़ती है जो निर्बलता वही उसकी बड़ी सबलता है। पानी निराकार है; पत्थर आकार है। पानी परमात्मा के ज्यादा निकट है। अहंकार नहीं है पानी के पास कोई।
पानी को भी जमा कर अगर तुम बर्फ बना लो तो संघर्ष शुरू हो जाता है। अहंकार की भी ऐसी ही तीन दशाएं हैं। जैसे पानी जम जाए बर्फ, ऐसा जो गहन अहंकारी होता है उसके भीतर पत्थर जैसा अहंकार होता है, बर्फ जैसा। अहंकार की दूसरी अवस्था है पानी जैसी तरल। यह विनम्र आदमी है; तुम उसे जैसा ढालो वैसा ढल जाए; तुम उसे जहां चलाओ चल जाए; जो किसी तरह का प्रतिरोध नहीं करता; कोई संघर्ष नहीं करता; हवाएं जहां ले जाएं वहां जाने को राजी है; जिसकी अपनी कोई मर्जी नहीं; तरल। और फिर अहंकार की आखिरी अवस्था है जैसे भाप। खो ही जाए, इतना भी न बचे जितना कि पानी है, विराट आकाश में लीन हो जाए। जैसे-जैसे तरल होता है पत्थर का बर्फ वैसे-वैसे निराकार के करीब आता है। फिर जैसे-जैसे वाष्प बनता है तो निराकार के साथ बिलकुल लीन हो जाता है।
अपने भीतर खोजना कि अहंकार किस दशा में है। अक्सर तो तुम पाओगे, पत्थर की तरह है। हर वक्त संघर्ष में लीन है, और हर वक्त सुरक्षा के लिए तत्पर है, कि कहीं कोई हमला न कर दे, कि कहीं कोई हंस न दे, कि कहीं कोई चोट न पहुंचा दे। तुम पूरे वक्त अपने को बचा रहे हो। और बचाने योग्य भीतर कुछ भी नहीं है। व्यर्थ ही पहरा दे रहे हो; अभी पहरा देने योग्य संपदा भी पास में नहीं है। व्यर्थ ही पूरे समय संघर्ष कर रहे हो। लोग जिंदगी भर लड़ते रहते हैं कि कोई हमें पिघला न दे, कोई चोट न पहुंचा दे, कोई छेनी-हथौड़ा लाकर थोड़ी सी आकृति न दे दे। छोटे-छोटे बच्चे तक लड़ते हैं। छोटे से बच्चे से कहो, मत जाओ बाहर! और वह उसी क्षण बाहर जाना चाहता है। क्योंकि तुमने उसके अहंकार को चुनौती दे दी। तुम यह कह रहे हो कि कौन बड़ा है? किसका अहंकार बड़ा है? कौन बलशाली है?
मुल्ला नसरुद्दीन अपने बेटे को समझा रहा था। दवा सामने रखी थी, वह पीने से इनकार कर रहा था। मां थक गई थी। सब कुछ कर चुकी थी। मार-पीट भी हो चुकी थी। आंसू जम गए थे सूख कर, लेकिन वह बैठा था और दवा नहीं पी रहा था तो नहीं पी रहा था। नसरुद्दीन ने उसे कहा कि देख बेटा, मुझे मालूम है कि दवा कड़वी है। मैं भी तेरे जैसा कभी छोटा बच्चा था; दवा मुझे भी कभी पीनी पड़ती थी। लेकिन तेरे जैसा नहीं था मैं; मैं एक बार संकल्प कर लेता था कि रहने दो कड़वी, पीऊंगा! तो अपने संकल्प का पक्का साबित होता था, और पीकर रहता था।
उस लड़के ने नसरुद्दीन की तरफ देखा, और कहा कि संकल्प का पक्का मैं भी हूं। मैंने संकल्प किया है कि नहीं पीऊंगा। रखी रहने दो दवा को; देखें क्या होता है! मैं आपका ही बेटा हूं। संकल्प मेरा भी पक्का है।
छोटे-छोटे बच्चे भी सीख रहे हैं अहंकार की कला--कैसे अपने को बचाना, अपनी बात को। और जानते हैं क्या करने से अपनी सुरक्षा होगी। और धीरे-धीरे निष्णात होते जाते हैं।
नसरुद्दीन के जीवन में ऐसा उल्लेख है कि घर में उसका नाम, जब वह बच्चा था, उलटी खोपड़ी था। क्योंकि जो भी उससे कहो वह उससे उलटा करता था। तो घर के लोग समझ गए थे, नसरुद्दीन का बाप भी समझ गया था, कि जो करवाना हो उससे उलटी बात कहो। गणित सीधा था। चाहते हो बाहर न जाए, इससे कहो कि देखो, बाहर जाओ! अगर न गए तो ठीक न होगा। तो वह घर में ही बैठा रहेगा। बाहर न भेजना हो तो बाहर भेजने का आदेश दे दो; वह घर में बैठा रहेगा। फिर लाख उपाय करो वह बाहर नहीं जा सकता।
एक दिन दोनों चले आ रहे थे गांव के बाहर से। गधे पर नमक की बोरियां लादी थीं। नमक खरीदने गए थे। जब नदी के पुल पर से गुजर रहे थे तो बाप ने देखा कि बोरियां नमक की बाएं तरफ ज्यादा झुकी हैं, और हो सकता है न सम्हाली गईं तो गिर जाएं। लेकिन नसरुद्दीन से कुछ भी करवाना हो तो उलटी बात कहनी जरूरी है। तो बाप ने कहा कि देख नसरुद्दीन, बोरियां दाईं तरफ ज्यादा झुकी हैं। थोड़ा बाईं तरफ झुका दे।
झुकी थीं बाईं तरफ, झुकवानी थीं दाईं तरफ; ठीक उलटी बात कही। लेकिन नसरुद्दीन ने जैसा बाप ने कहा वैसा ही कर दिया। बोरियां, जो कभी गिर सकती थीं, फौरन नदी में गिर गईं।
बाप ने कहा, नसरुद्दीन, यह तेरे आचरण के बिलकुल विपरीत है!
नसरुद्दीन ने कहा, शायद आपको पता नहीं कि कल मैं अठारह साल का हो गया, अब मैं प्रौढ़ हूं। अब बचपने की बातें ठीक नहीं। अब मैं वही करूंगा जो किया जाना चाहिए। अब जरा सोच-समझ कर आज्ञा देना।
छोटे बच्चे भी संघर्ष में लीन हो जाते हैं। बड़े-बूढ़ों की तो बात ही क्या, छोटे बच्चे तक विकृत हो जाते हैं। फिर यह विकृति जीवन भर पीछे चलती है। और तब तुम तड़पते हो और चिल्लाते हो।
मेरे पास लोग आते हैं, वे कहते हैं, हमें हृदय का कुछ पता नहीं चलता; कि हृदय है, इसका भी पता नहीं चलता। तुम यह मत सोचना कि यह होगा किसी और के संबंध में सही; तुम्हें भी पता नहीं है हृदय के होने का। वह जो धक-धक हो रही है वह हृदय की नहीं है, वह तो फेफड़े की है। वह तो केवल खून के चलने की चाल का तुम्हें पता चल रहा है। हृदय की धक-धक तो तुमने अभी सुनी ही नहीं। उसे तो केवल वही सुन पाता है जो अहंकार की चट्टान को तोड़ देता है। तब जीवन का सारा रूप बदल जाता है। तब तुम कुछ और ही देखते हो। तब यह सारा अस्तित्व अपनी परिपूर्ण महिमा में प्रकट होता है।
क्योंकि तुम्हारे पास हृदय ही नहीं है, वीणा के तार ही टूटे पड़े हैं, अस्तित्व कैसे गीत को गाए? कैसे गाए अपने गीत को तुम्हारे हृदय की वीणा पर? अहंकारी के पास कोई हृदय नहीं होता। अहंकार कीमत मांगता है। और सबसे पहली कुर्बानी हृदय की है। क्योंकि हृदय का अर्थ है तरलता।
तुम जितना हार्दिक आदमी पाओगे उतना तरल पाओगे। इसीलिए तो हम कहते हैं--किसी आदमी में अगर तरलता न हो तो कहते हैं--इसका हृदय पाषाण हो गया, पत्थर हो गया। हम कहते हैं, पत्थर भी पिघल जाए लेकिन इस आदमी का हृदय नहीं पिघलता। यह मुहावरा कीमती है। यह घटना तब घटती है जब अहंकार इतना मजबूत हो जाता है कि अहंकार के परकोटे में छिप जाता है हृदय, अहंकार के पत्थरों में छिप जाता है। उसका पता ही खो जाता है। वह तुम्हारे भीतर होता है, पड़ा रहता है निर्जीव, निष्क्रिय।
हृदय तरल है, और आत्मा वाष्पीभूत रूप है, अहंकार पत्थर की तरह है जमा हुआ बर्फ। इसलिए अहंकार तुम्हारी खोपड़ी में जीता है, मस्तिष्क में, विचार में। वे सब मुर्दा हैं। अहंकार उन हड्डियों-पसलियों को इकट्ठा कर लेता है। उस अस्थिपंजर--विचारों के अस्थिपंजर--के ऊपर अकड़ कर बैठ जाता है। वहीं उसकी गति है। उससे नीचे, उससे गहरे में उसकी कोई गति नहीं है।
उससे नीचे हृदय है, जहां सब तरल है, पानी की तरह है। और उससे भी गहराई में तुम्हारी आत्मा है जो वाष्प की तरह है, जो कि लीन, शून्य है, जिसको तुम छू न सकोगे, जिसे तुम देख न सकोगे, जिसे तुम मुट्ठी में बांध न सकोगे, जिसका कोई स्पर्श नहीं हो सकता और न कोई दर्शन हो सकता है। क्योंकि तुम ही वही हो।
और जिसे भी अंतर्यात्रा करनी हो, उसे पहले मस्तिष्क की बर्फ पिघलानी पड़ती है। उसके पिघलने पर पहली दफा तरल हृदय का पता चलता है। फिर तरल हृदय को भी तपश्चर्या, योग, ध्यान से वाष्पीभूत करना होता है। और जैसे-जैसे तरल हृदय वाष्पीभूत होने लगता है, तुम्हें पहली दफा आत्मा के आकाश का अनुभव होता है। सब द्वार गिर जाते हैं, सब दीवालें मिट जाती हैं। अनंत आकाश है। जितना अनंत आकाश तुमसे बाहर है उतना ही अनंत आकाश तुम्हारे भीतर है; उससे रत्ती भर भी कम नहीं है। और चांदत्तारों का सौंदर्य कुछ भी नहीं है जब तुम्हें भीतर के चांदत्तारे दिखाई पड़ेंगे। तब बाहर के सूर्योदय का कोई भी अर्थ नहीं है, क्योंकि कबीर कहते हैं कि मेरे भीतर हजार-हजार सूरज जैसे एक साथ उग गए हैं।
जब तुम भीतर के आकाश को देख पाओगे तब तुम समझोगे कि तुमने कितनी बड़ी कीमत पर क्षुद्र से अहंकार को सजा कर, क्षुद्र से अहंकार को लेकर बैठ गए थे। एक पत्थर की पूजा कर रहे थे, और जीवंत भीतर तड़प रहा था। पक्षी भीतर मौजूद था जो आकाश में उड़ सकता था, और तुम पक्षी को तो भूल ही गए थे, लोहे के पिंजड़े को पकड़ कर बैठ गए थे। और उसकी ही पूजा चल रही थी।
लाओत्से कहता है, "पानी से दुर्बल कुछ भी नहीं है, लेकिन कठिन को जीतने में उससे बलवान भी कोई नहीं है।'
और अगर कठिन को जीतना हो तो पानी जैसे हो जाना। और तुमसे ज्यादा कठिन क्या है? अगर तुम्हें स्वयं को भी जीतना हो तो पानी जैसे तरल हो जाना, तो ही जीत पाओगे, अन्यथा नहीं। यह जीत की बात किसी और को जीतने के लिए नहीं है, जीत की बात अंततः तो आत्म-विजय के लिए है।
दूसरे को जीतने जो चला है वह तो कठोर होगा ही। तुमने कभी किसी आदमी को झगड़े में पानी उठा कर किसी को मारते देखा है? लोग पत्थर उठा कर मारते हैं, पानी उठा कर नहीं। जब कोई दूसरे से लड़ने चलेगा तब तो तुम्हारा पूरा तर्क तुम्हें कहेगा कि पत्थर जैसे हो जाओ! पीस डालो दूसरे को पत्थर के नीचे!
लेकिन ध्यान रखना, जब तुम दूसरे के लिए पत्थर जैसे होते हो तभी एक बड़ी भारी घटना तुम्हारे भीतर घट रही है। उसका तुम्हें पता नहीं है। जब तुम दूसरे के लिए पत्थर जैसे होते हो तब तुम अपने लिए भी पत्थर जैसे हो जाते हो। क्योंकि जो तुम्हारा व्यवहार दूसरे के लिए है वही अंततः तुम्हारा व्यवहार अपने लिए हो जाता है। जो अभ्यास तुम दूसरे के साथ करते हो वही अभ्यास तुम्हारा कारागृह हो जाएगा; उसी अभ्यास में तुम बंद हो जाओगे।
अगर तुम दूसरे के लिए पत्थर जैसे होना चाहते हो तो चौबीस घंटे दूसरे मौजूद हैं। घर आओ तो पत्नी है, बेटे हैं, बच्चे हैं, नौकर-चाकर हैं। बाहर जाओ तो बाजार है, भीड़ है, सब तरफ दुश्मन हैं। कठोर आदमी के लिए मित्र तो कहीं भी नहीं हैं, प्रतियोगी हैं, प्रतिस्पर्धी हैं। बाहर जाओ तो, घर आओ तो, चौबीस घंटे तुम्हें दूसरे से संघर्ष करना पड़ रहा है। तुम्हारे सपने तक में तुम दूसरों से लड़ते रहते हो। अगर चौबीस घंटे तुमने यह अभ्यास किया कठोरता का, तो तुम सोचते हो तुम अपने प्रति पत्थर होने से बच जाओगे? यह अभ्यास इतना मजबूत हो जाएगा कि तुम अपने प्रति भी पथरीले हो जाओगे।
मैं बहुत मुश्किल से ऐसे आदमी के करीब आ पाता हूं कभी। हजारों लोग मेरे करीब आते हैं। इतने करीब आते हैं जितने वे करीब किसी आदमी के न आते होंगे। मेरे सामने अपना हृदय खोल कर रख देते हैं। न भी रखें तो मुझसे बचने का कोई उपाय नहीं है। लेकिन कभी-कभी ऐसा घटता है कि ऐसा आदमी मुझे दिखाई पड़ता है जो अपने को प्रेम करता हो--कभी! जितने लोग आते हैं, उनमें से अधिक लोग खुद को घृणा करते हैं। उन्हें पता भी नहीं है, लेकिन दूसरे को घृणा करते-करते, दूसरे के प्रति पथरीले होते-होते, चलते-चलते अभ्यास के, वे अपने प्रति भी पथरीले हो गए हैं। अब पत्थर होना उनकी सहज आदत हो गई है, वह उनका दूसरा स्वभाव हो गया है। अब वे अकेले में भी बैठे हैं जहां कोई दूसरा नहीं है तो भी पत्थर की तरह बैठे हैं। इस पत्थर होने से छुट्टी लेना आसान नहीं है। यह उनके रग-रेशे में समा गया है। वे खुद को भी निंदा करते हैं, घृणा करते हैं।
दूसरे के प्रति तुम्हारा जो व्यवहार है, ध्यान रखना, अंततः वही तुम्हारा अपने प्रति व्यवहार हो जाएगा। जीसस का बहुत प्रसिद्ध वचन है: जो तुम चाहते हो कि तुम्हारे साथ हो, वही तुम दूसरे के साथ करना। और इस वचन का इतना ही अर्थ नहीं है कि जो तुम चाहते हो दूसरे तुम्हारे साथ करें, वही तुम उनके साथ करना; इस वचन का गहरे से गहरा अर्थ यह है कि तुम जो दूसरों के साथ करोगे, अंततः तुम अपने साथ भी करोगे। वह तुम्हारे जीवन की शैली और पद्धति हो जाएगी।
इसलिए भूल कर भी पत्थर जैसे होने की सुविधा मत बनाना। कठिन से कठिन समय भी हो तो भी तुम कठोर मत बनना। तुम तरल रहना। अगर तुम्हें कभी जीवन की गहरी अनुभूतियों में उतरना है तो तुम्हें पिघलना ही होगा। तो दूसरा जब गालियों की वर्षा भी कर रहा हो तब भी तुम भीतर तरल रहना।
जीसस के बड़े प्यारे वचन हैं। जीसस और लाओत्से में बड़ा तालमेल है। जीसस का वचन है कि तुम्हारा कोई कोट छीने तो तुम कमीज भी दे देना; और कोई तुम्हें दो मील चलने को कहे बोझ ढोने को तो तुम चार मील चले जाना; और कोई तुम्हारे एक गाल पर चांटा मारे तो तुम देर मत करना, दूसरा गाल उसके सामने कर देना।
इन सारी बातों का क्या अर्थ है? इन सारी बातों का इतना ही अर्थ है कि तुम कठोर मत होना, तुम तरल रहना, तुम पानी की भांति रहना। वह कहे दो मील, तुम कहना हम चार मील तैयार। तुम बहने को तत्पर रहना। तुम साथ जाने को राजी रहना। तुम सहयोग करना दुश्मन के साथ भी।
और अगर तुमने दुश्मन के साथ सहयोग किया तो तुम पाओगे कि दुश्मन दुश्मन न रहा; क्योंकि सहयोग करने की कला दुश्मन को रूपांतरित कर देती है। और अगर तुमने दुश्मन के साथ भी सहयोग किया तो मित्रों के साथ तो तुम कितना न कर पाओगे। और मित्रों के साथ जब तुम इतना कर पाओगे तो तुम उसका तो कोई हिसाब ही नहीं लगा सकते कितना तुम अपने साथ न कर पाओगे।
दुश्मन सबसे दूर है। बीच में मित्र हैं। फिर तुम हो। दुश्मन तुम्हारा अड्डा है जहां तुम सीखोगे क्या करना: कठोर होना? दुश्मन के साथ कठोर हुए तो मित्र के साथ भी कठोरता जारी रहेगी। और तुम जो विनम्रता दिखलाओगे वह चेहरे पर होगी, वह असली में भीतर नहीं होगी। और अपने साथ--जो कि आखिरी मित्रता है--वहां भी तुम वही व्यवहार करोगे। बुद्ध ने कहा है, तुम ही हो अपने मित्र और तुम ही हो अपने शत्रु। अगर तुम कठोर होने का अभ्यास कर लेते हो--घृणा का,र् ईष्या का, मत्सर का--तो तुम अपने दुश्मन हो जाओगे। और अपने तुम ही हो मित्र, अगर तुमने प्रेम का, करुणा का, तरलता का अभ्यास किया, अगर तुमने बहने का अभ्यास किया।
तुमने कभी सोचा! हर चीज, छोटी-छोटी चीज बहुत विचार और विमर्श करने जैसी है। जब तुम घृणा से भरे होते हो तब तुम्हारे भीतर सब बहाव बंद हो जाता है। और जब मैं कह रहा हूं बहाव बंद हो जाता है, तो मैं शाब्दिक रूप से कह रहा हूं; ऐसा निश्चित हो जाता है, शब्दशः हो जाता है। यह कोई प्रतीक नहीं है। जब तुम घृणा से भरे होते हो तब तुम बंद हो जाते हो, तुम्हारी जीवन-ऊर्जा बाहर की तरफ बहती नहीं। जब तुम प्रेम और करुणा से भरे होते हो तब? तब तुम्हारी ऊर्जा बहती है, तब तुम्हारे चारों तरफ झरने निकल पड़ते हैं। जब तुम प्रेमपूर्ण होते हो तब तुम अनायास बंटने को आतुर होते हो, बांटना चाहते हो, दूसरे को साझीदार बनाना चाहते हो, सहभागी बनाना चाहते हो। तुम्हारा हाथ फैलता है और दूसरे के हाथ को अपने हाथ में लेना चाहता है। तुम अपने द्वार खोलना चाहते हो। तुम चाहते हो कोई तुम्हारे भीतर अंतरतम में प्रवेश करे और तुम्हारे खजाने में साझी हो जाए। जब तुम घृणा से भरे होते हो, तत्क्षण सब द्वार-दरवाजे बंद हो जाते हैं। तुम अपने भीतर रुक जाते हो, बहाव रुक जाता है।
न केवल इतना, बल्कि घृणा से भरे हुए आदमी के पास जाकर तुम अनुभव करोगे कि जैसे तुम किसी पत्थर के पास से गुजर रहे हो जिसमें कोई संवेदन नहीं है। जहां से कोई रिस्पांस, जहां से कोई प्रत्युत्तर नहीं आता, जहां से कोई प्रतिध्वनि भी नहीं गूंजती। मुर्दा घाटियां भी प्रतिध्वनि से भर जाती हैं; लेकिन घृणा में बंद आदमी, कठोर हुआ आदमी, घाटियों से बदतर हो जाता है। तुम गीत गाओ, उसके भीतर कोई गूंज पैदा नहीं होती। तुम हाथ बढ़ाओ, उसके भीतर से कोई तुम्हारी तरफ नहीं बढ़ता। तुम उसके पास जाओ, वह तुमसे हटता है। चाहे वस्तुतः शरीर से न हटा हो, लेकिन भीतर हटता है।
जब तुम प्रेम से भरे आदमी के पास जाते हो तब तुम पाते हो एक आमंत्रण, एक बुलावा। तुम कभी भी बिना बुलाए मेहमान नहीं हो वहां। प्रेम से भरे आदमी को पाकर तुम अनुभव करोगे जैसे वह तुम्हारी ही जन्मों-जन्मों से प्रतीक्षा कर रहा था, तुम्हारे लिए ही द्वार खोल कर बैठा था, पता नहीं तुम कब आ जाओगे। तुम वहां बिना बुलाए मेहमान नहीं हो। वहां द्वार पर ही स्वागतम लिखा है। तुम पाओगे, वह बांटने को राजी है। जो भी है उसके पास वह तुम्हारे साथ साझीदार हो जाना चाहता है। उसके हाथ बढ़े हैं। वह आलिंगन को तत्पर है।
हेनरी थारो अमरीका में एक बहुत बड़ा विचारक और एक बड़ा साधक हुआ। उसने धीरे-धीरे अनुभव किया...। उसकी जीवन-धारा बड़ी प्रवाहमान थी। उसने अनुभव किया--अमरीका में तो जैसे हाथ मिलाने की विधि है, पद्धति है--तो उसने अनुभव किया कि सभी लोगों से हाथ मिलाते वक्त एक सी प्रतीति नहीं होती। किसी के हाथ में से कुछ बहता हुआ आता है। किसी के हाथ में से कुछ बहता हुआ नहीं आता। किसी का हाथ तो शोषक मालूम पड़ता है कि उसने तुम्हें चूस लिया, लेकिन दिया कुछ भी नहीं। और किसी का हाथ तुम्हें आपूर कर देता है, भर देता है और लेता कुछ भी नहीं, मांगता कुछ भी नहीं।
तुम भी खयाल करना, जब तुम लोगों से हाथ मिलाओ तब खयाल करना, दूसरे हाथ से कोई जीवन-ऊर्जा आती है दौड़ कर तुम्हारे स्वागत को? शरीर तो विद्युत-प्रवाह है। वैज्ञानिक कहते हैं, बायो-इनर्जी। दौड़ रही है जीवन-ऊर्जा, एक वर्तुल में दौड़ रही है। तुम्हारे चारों तरफ एक वर्तुल में जीवन-ऊर्जा दौड़ रही है।
दूसरों के प्रति घृणा से भरा हुआ और अपने प्रति घृणा से भरा हुआ आदमी इस जीवन-ऊर्जा को सख्त कर लेता है, यह पथरीली हो जाती है। पानी की तरह तरल आदमी इसे तरल कर लेता है। और मजा यह है कि जितनी यह तरल होती है उतने ही नये झरने तुम्हारे भीतर फूटने लगते हैं। क्योंकि तुम भीतर अनंत हो। तुम भीतर महासागर हो। तुम जितना बांटोगे उतना ही तुम्हें भीतर के नये झरनों का बोध होगा। तुम जितना दोगे उतना ही पाओगे। यहां से पानी बाहर जाएगा और तुम भीतर से पाओगे नये झरनों ने तुम्हें फिर भर दिया। तुम जितना रोकोगे उतना ही सड़ोगे। तब तुम एक डबरे हो जाओगे जिसमें सिर्फ गंदगी पलेगी, मच्छरों का आवास होगा, बदबू उठेगी। जीवन की सतत धार रुक जाएगी।
परमात्मा तुम्हारे कुएं से प्रतिपल बहने को तैयार है, लेकिन तुम बहने को तैयार नहीं हो। थोड़ा सहयोग दो। थोड़ा बहो, और देखो। इतने कंजूस होने की कोई भी जरूरत नहीं है। और जिस जीवन के लिए तुम इतने कृपण हो वह जीवन अनंत है। तुम कितना ही लुटाओ लुटेगा न। तुम कितना भी बांटो बंटेगा, बढ़ेगा। बढ़ता चला जाता है।
लाओत्से कहता है, "पानी से दुर्बल कुछ भी नहीं है, लेकिन कठिन को जीतने में उससे बलवान भी कोई नहीं है।'
अगर तुम बहने को राजी हो प्रेम से तो तुम कठोर से कठोर को भी जीत लोगे। इसलिए नहीं कि तुम जीतना चाहते थे; क्योंकि जो जीतना चाहता है वह तो तरल हो ही न सकेगा; बल्कि इसीलिए कि तुम्हारी जीतने की कोई आकांक्षा ही न थी। तुम तो सिर्फ जीवन में सहभागी बनाना चाहते थे। मित्र था या शत्रु, यह उसकी दृष्टि थी; तुम तो सभी को देना चाहते थे, तुम बांटने को तत्पर थे, और तुम्हारी कोई शर्त न थी। और तुम पाओगे कि कठोर से कठोर हार जाता है।
बुद्ध के जीवन में उल्लेख है। वे एक पहाड़ के पास से गुजरते थे। गांव के लोगों ने रोका। वह रास्ता निर्जन हो गया था; वहां कोई जाता न था। क्योंकि वहां एक हत्यारे ने वास कर लिया था। और उस हत्यारे ने कसम ले ली थी कि वह एक हजार आदमियों की गर्दन काटेगा और उनकी अंगुलियों की माला पहनेगा। उस आदमी का नाम अंगुलीमाल हो गया था। उसने नौ सौ निन्यानबे आदमी मार ही डाले थे। इसलिए अब लोग इतने डर गए थे कि जिसका कोई हिसाब नहीं। खुद उसकी मां उससे मिलने जाना बंद कर दी थी। क्योंकि वह ऐसा पागल था और हजारवें आदमी की प्रतीक्षा कर रहा था कि यह भी हो सकता है कि वह मां की भी गर्दन उतार दे और अंगुलियों की माला बना कर पहन ले। मां भी जहां जाने से डरने लगी हो, तुम सोच सकते हो खतरा कैसा था! जहां मां भी पथरीली हो गई हो, तुम सोच सकते हो कि खतरा कैसा था! जहां मां ने भी बेटे को देना बंद कर दिया हो वहां तुम सोच सकते हो कि खतरा कैसा था!
लोगों ने बुद्ध को कहा, आप वहां मत जाएं। यह आदमी पागल है। यह तुम्हारी फिक्र न लेगा और न यह समझेगा कि तुम कौन हो। यह समझ ही नहीं सकता; इसकी बुद्धि मारी गई है।
लेकिन बुद्ध ने कहा, यह भी तो सोचो, वह हजारवें आदमी की प्रतीक्षा कर रहा है। और कोई भी न जाएगा तो उस बेचारे का क्या होगा? तुम उसकी तकलीफ भी तो समझो। वह कब तक ऐसी प्रतीक्षा करता रहेगा? और मेरे शरीर से जो होना था वह हो चुका, जो पाना था, वह पा लिया। अब इस शरीर का और क्या इससे अच्छा उपयोग हो सकता है कि इस आदमी की प्रतिज्ञा पूरी हो जाए? कौन जाने यह प्रतिज्ञा पूरे होने पर इसका पागलपन खो जाए? मुझे जाना ही होगा, बुद्ध ने कहा।
गांव में खबर पहुंच गई कि ये बुद्ध उस अंगुलीमाल से भी ज्यादा पागल मालूम होते हैं। बुद्ध के शिष्य भी डरे। प्रतिज्ञा ली थी सदा साथ चलने की, वे सब भूल गईं प्रतिज्ञाएं। पास-पास चलने में बड़ा रस आता था, क्योंकि प्रतिष्ठा मिलती थी। अब खतरे का मामला था। बुद्ध के पास जो चलता था वह बड़े सम्राटों की नजरों में भी आ जाता था। अब आज कौन जाएगा साथ? लोगों के कदम धीमे हो गए। बुद्ध पहली दफा अकेले चले उस रास्ते पर। साथी थे, लेकिन वे काफी पीछे थे, अचानक उनके पैरों की गति धीमी हो गई थी। ऐसा कभी न हुआ था। और जब लोगों ने अंगुलीमाल को देखा कि वह एक चट्टान पर फरसे पर धार रख रहा है तब तो वे ठहर ही गए।
अंगुलीमाल ने आंख उठाई। पीत वस्त्रों में आते हुए सुंदर इन बुद्ध को देखा; एक चमत्कार घटित हुआ। वह हमें चमत्कार लगता है, क्योंकि हमें प्रेम की परिभाषा नहीं आती, और न हमें प्रेम के गणित का कोई पता है। लेकिन चमत्कार नहीं, सीधा गणित है। उसने बुद्ध को देखा। उसके जीवन में पहली दफे करुणा का भाव उठा। यह आदमी इतना निरीह मालूम हुआ, इतना कमजोर, कि इसको मारना? एक भिक्षु को? और इसके चेहरे पर ऐसी स्निग्धता और ऐसी शांति कि क्षण भर को अंगुलीमाल को भी दया आ गई। कोई जीवन-ऊर्जा प्रवाहित हो रही है; पानी पत्थर को तोड़ रहा है, जलधार कठोर पत्थर को गिराए दे रही है।
अंगुलीमाल थोड़ा घबराया। जो अंगुलीमाल से घबराते थे उनसे अंगुलीमाल कभी नहीं घबराया था। अंगुलीमाल थोड़ा घबराया। यह अतिशय हुआ जा रहा है। उसने खड़े होकर आवाज दी कि रुक जाओ भिक्षु वहीं! आगे मत बढ़ो! तुम्हें शायद पता नहीं है। क्या तुम्हें गांव के लोगों ने नहीं बताया? लगता है अनजान-अपरिचित तुम चले आए हो इस मार्ग पर। मैं हूं अंगुलीमाल। शायद तुमने नाम सुना हो। यह देखते हो, नौ सौ निन्यानबे लोगों की अंगुलियों की माला पहने बैठा हूं। एक आदमी की कमी रह गई है। मेरी मां भी आना बंद कर दी है। आ जाए तो उसकी मैं गर्दन उतार दूं। तुम लौट जाओ। अनजान देख कर मुझे तुम पर दया आती है।
अंगुलीमाल समझ नहीं पा रहा है। कैसे समझ पाएगा! यह दया अंगुलीमाल के कारण नहीं आ रही है, नहीं तो पहले भी आ गई होती। नौ सौ निन्यानबे आदमी मार चुका और दया न आई। और आज अचानक दया आ रही है! अंगुलीमाल के कारण नहीं आ रही है। यह घटना बुद्ध के कारण घट रही है। वह जो बहता हुआ प्रेम का प्रवाह है, वह दूसरे को भी रूपांतरित करता है। वह बड़ी अनजान शक्ति है, दिखाई नहीं पड़ती। एक हृदय से दूसरे हृदय तक जाते हुए बीच के रास्ते में तुम उसे कहीं पकड़ कर प्रयोग न कर पाओगे कि कैसी है। शायद छलांग लेती है, शायद बीच में कोई रास्ता पूरा करती ही नहीं। अभी यहां और युगपत वहां, जैसे बीच में कोई यात्रा नहीं होती। इतनी त्वरा है।
वे कहते हैं प्रकाश की गति एक सेकेंड में एक लाख छियासी हजार मील है--प्रति सेकेंड! लेकिन प्रकाश को भी वे पकड़ पाए हैं, प्रेम को अभी तक नहीं पकड़ पाए। शायद प्रेम की गति कभी पकड़ में न आ सके। आना भी नहीं चाहिए। क्योंकि प्रेम तो प्रकाश से भी गहरा प्रकाश है, महाप्रकाश है। और जब सूरज भी ठंडे हो जाएं तब भी प्रेम ठंडा नहीं होता। जब सूरज भी बुझ जाएं और मृत्यु का अंधेरा उन पर छा जाए तब भी प्रेम का गीत तो गुनगुनाया ही जाता है। प्रेम की वीणा बजती ही रहती है। अंधेरा हो या प्रकाश, दिन हो या रात, जीवन हो या मृत्यु, सुख हो या दुख, प्रेम को कुछ भी मिटा नहीं पाता।
अंगुलीमाल को पता नहीं है, लेकिन उसके मन में करुणा का जन्म हो गया। और बुद्ध मुस्कुराए। बुद्ध ने कहा, अंगुलीमाल, तुम प्रतीक्षा करते एक आदमी की। मैंने सोचा इस शरीर का सब काम पूरा हो ही चुका है, जो पाना था पा लिया, जो जानना था वह जान लिया, अब दुबारा आना भी नहीं है, अगर मैं इतने काम आ जाऊं कि तुम्हारी प्रतिज्ञा पूरी हो जाए! इसलिए मैं जान कर आ रहा हूं; मैं कोई अनजान नहीं हूं। मुझ पर दया करने की कोई जरूरत नहीं है। मैं तुम्हारी दया का भिखारी नहीं हूं। मैं कुछ देने आ रहा हूं, लेने नहीं। इस शरीर का काम पूरा हो चुका अंगुलीमाल, तुम बिलकुल निर्भय होकर मुझे मार सकते हो।
ऐसा आदमी तो पहले कभी आया न था। जो आए थे वे या तो मृत्यु से डरते थे और भागते थे। जो आए थे या तो भीरु लोग थे, भाग जाते थे; या बहादुर लोग थे, तलवार निकाल कर लड़ने को खड़े हो जाते थे। उन दोनों तरह के आदमियों से अंगुलीमाल भलीभांति परिचित था। उन दोनों से वह निपट सकता था। उसमें कोई अड़चन न थी। यह आदमी कुछ तीसरी तरह का है। अंगुलीमाल ने नीचे से ऊपर तक देखा। तलवार की तो बात दूर, हाथ में कुछ भी नहीं है, भिक्षा-पात्र है। अंगुलीमाल ने फिर एक बार कहा। इस आदमी पर उसे बड़ी दया आने लगी, जैसे कोई छोटा बच्चा आ रहा हो, और उसके हाथ कंपने लगे। और उसने कहा कि मैं फिर तुम्हें कहता हूं कि आगे मत बढ़ो! मैं आदमी बुरा हूं, वहीं रुक जाओ!
और बुद्ध ने एक बड़ा अनूठा वचन कहा है जो मुझे बड़ा ही प्यारा रहा। बुद्ध ने कहा, अंगुलीमाल, मुझे रुके सालों हो गए, तब से मैं चला ही नहीं। जब मन रुक जाता है तो कैसा चलना? मैं तुमसे कहता हूं कि तू ही चल रहा है, मैं नहीं चल रहा हूं। मैं तो खड़ा हुआ हूं। तू गौर से देख!
बुद्धों से बात करना ठीक नहीं, खतरे से खाली नहीं। अंगुलीमाल फंस गया। वह हंसा जोर से। और उसने कहा कि तुम पागल हो। मुझे पहले ही शक हो गया था कि कोई पागल ही ऐसा आएगा। चलते हुए को खड़ा हुआ कहते हो और मुझ खड़े हुए को चलता हुआ! मैं समझा नहीं, क्या तुम्हारा मतलब है?
और जब कोई बुद्ध से पूछने लगे तो गया, फिर उसके बचने का कोई उपाय नहीं। अंगुलीमाल ने पूछा, और वहीं वह हार गया। वह भूल ही गया कि मारना है इस आदमी को; मैं हूं बधिक, काटना है इस आदमी को। हिंसा जैसी चीज करनी हो तो बुद्ध जैसे लोगों के साथ जल्दी कर लेनी चाहिए। इसमें देर करना खतरनाक है। जरा सा अवसर, कि बुद्ध की ऊर्जा तुम्हें आपूरित कर लेगी, सब तरफ से घेर लेगी, तुम्हें निरस्त्र कर देगी।
बुद्ध पास आ गए हैं। और बुद्ध ने कहा, तू गौर से देख, मेरी आंखों में देख। मन ठहर गया; वासना रुक गई; चलना कैसा?
ऐसे कठिन सवाल अंगुलीमाल ने न तो कभी सोचे थे, न मौका आया था। सीधा-सादा आदमी था।
अपराधियों से ज्यादा सीधे-सादे आदमी दुनिया में खोजने मुश्किल हैं। सज्जन तो जरा तिरछे होते हैं, दुर्जन बिलकुल सीधा होता है। उसका गणित साफ है। वह कोई छिपाधड़ी धोखाधड़ी नहीं करता। बुरा है, यह उसे भी स्पष्ट है। वह पाखंडी नहीं है। पाखंडी खोजना हों तो मंदिर-मस्जिदों, गुरुद्वारों में खोजने चाहिए। वे तुम्हें तिलक लगाए, माला फेरते मिलेंगे। अपराधियों में पाखंडी नहीं हैं। वे सीधे-सादे लोग हैं। बुरे हैं, खतरनाक हैं, पर पाखंडी नहीं हैं।
वह अपने सिर पर हाथ रख कर सोचने लगा। उसने कहा, तुम मुझे बिगूचन में डालते हो। बुद्ध ने कहा, तू बातचीत में मत पड़, अन्यथा तू उलझ जाएगा। तू अपना काम कर। तू उठा अपना फरसा और मुझे काट दे। लेकिन काटने के पहले मैं तुझसे एक बात पूछता हूं। इसके पहले कि तू मुझे काटे, मरते आदमी की एक इच्छा पूरी कर दे। यह जो सामने वृक्ष है, इसके कुछ पत्ते फरसे से काट कर मुझे दे दे।
उसने उठाया फरसा, पत्ते क्या उसने एक शाखा काट दी और कहा, यह लो। इसका क्या करोगे?
बुद्ध ने कहा, बस यह आधा काम तूने कर दिया, आधा और। इसे तू वापस जोड़ दे।
उसने कहा, तुम निश्चित पागल हो। टूटी शाखा कहीं वापस जोड़ी जा सकती है?
तो बुद्ध ने कहा, बस एक सवाल और, फिर मैं कुछ भी न पूछूंगा। तू मेरी गर्दन काट; बात खतम कर। क्या तू उस आदमी को बहादुर कहता है जो तोड़ सकता है और जोड़ नहीं सकता? क्या उसको तू शक्तिशाली कहता है जो तोड़ सकता है और जोड़ नहीं सकता? या उसे शक्तिशाली कहता है जो जोड़ सकता है? यह शाखा तो बच्चे भी तोड़ देते अंगुलीमाल, तू कोई बहादुर नहीं है। हम तो सोचे थे कुछ बहादुर आदमी मिलेगा। तूने नौ सौ निन्यानबे आदमी मार डाले, तूने कभी यह सोचा कि एक चींटी भी तू बना नहीं सकता, एक सूखे पत्ते को हरा नहीं कर सकता, टूट गई डाल को वापस जोड़ नहीं सकता, जीवंत नहीं कर सकता! मारना तो बहुत आसान है अंगुलीमाल, जिलाना?
अंगुलीमाल का फरसा नीचे गिर गया। वह बुद्ध के चरणों पर गिर गया। और उसने कहा, मुझे जिलाने की कला सिखाओ। मैं तो यही सोचता था कि यह बलवान होना है, लेकिन साफ हो गई है बात कि यह कोई बल नहीं है।
अहंकार का बल कोई बल नहीं है। वह तोड़ता है; वह बनाता नहीं। तो इसे तुम बल की परिभाषा समझ लो कि शक्ति सदा सृजनात्मक है। निर्बलता सदा विध्वंसात्मक है। लेकिन निर्बलता बलपूर्ण मालूम होती है, क्योंकि वह तोड़ती है। हिटलर और नेपोलियन और माओ और स्टैलिन सब कमजोर लोग हैं। बड़े बलशाली मालूम पड़ते हैं, क्योंकि तोड़ने में बड़े कुशल हैं; अंगुलीमाल के वंशज हैं। अंगुलीमाल भी झेंप जाए। अंगुलीमाल ने तो नौ सौ निन्यानबे लोग ही मारे थे, स्टैलिन ने कितने मारे हिसाब लगाना मुश्किल है। अंदाज एक करोड़। हिटलर ने कितने मारे मुश्किल है पता लगाना। एक करोड़ से भी ज्यादा। मिटाना बल नहीं है। लेकिन मिटाने वाला आदमी बलपूर्वक मिटाता है और देखने वालों को लगता है बड़ी शक्ति प्रकट हो रही है।
सृजन शक्तिशाली है, लेकिन सृजन बड़ा कमजोर मालूम पड़ता है। किसी कवि को कविता लिखते देख कर तुम्हें कभी खयाल उठा है कि यह कवि बलशाली है? किसी चित्रकार को चित्र बनाते देख कर तुम्हें लगा है कि यह महा शक्तिशाली व्यक्ति है? या किसी मूर्तिकार को गढ़ते हुए मूर्ति को? कौन सोचेगा कि चित्रकार, मूर्तिकार, संगीतज्ञ, नर्तक, ये बलशाली हैं। लेकिन मैं तुमसे कहता हूं, यही असली बलशाली हैं। ये निर्बल दिखाई पड़ते हैं; इनकी निर्बलता जल जैसी है। हिटलर, माओत्से तुंग, स्टैलिन बलशाली मालूम पड़ते हैं, इनका बल पत्थर जैसा है। इनके नीचे दब कर कोई मर सकता है। इनके द्वारा किसी के ऊपर जीवन की वर्षा नहीं हो सकती।
राजनीति में मत खोजना बल, न खोजना धन में, न खोजना पद-प्रतिष्ठा में, क्योंकि वहां पत्थर ही पत्थर हैं। जितना तुम्हारे पास धन हो जाएगा उतनी ही तुम्हारी आत्मा सिकुड़ जाएगी और पथरीली हो जाएगी। जितने बड़े पद पर तुम पहुंचोगे, पहुंच ही न पाओगे अगर पथरीला हृदय न हो। क्योंकि लोगों के हृदय पर पैर रखने पड़ेंगे, सिर काटने पड़ेंगे, लोगों की सीढ़ियां बनानी पड़ेंगी, लोगों का साधनों की तरह उपयोग करना पड़ेगा। धोखाधड़ी, बेईमानी, पाखंड, सब करना पड़ेगा, तभी तुम पहुंच पाओगे बड़े पदों पर। तुम पत्थर हो जाओगे। राष्ट्रपति होते-होते भीतर की आत्मा बिलकुल ही मर गई होती है। वहां कोई होता ही नहीं, सिंहासन पर मुर्दे बैठे रहते हैं।
सृजन है असली बल, लेकिन दिखाई नहीं पड़ता; क्योंकि वह जल की तरलता जैसा है। जो बनाते हैं उन्हें सम्मान देना; जो मिटाते हैं उनसे सम्मान वापस ले लो। अंगुलीमालों की पूजा बहुत हो चुकी। उस पूजा में खतरा है, क्योंकि तुम भी जिसकी पूजा करते हो उसी जैसे होने लगते हो। तुम जिसको आदर देते हो उसी जैसे होने लगते हो। तुम जिसको आदर्श की तरह देखते हो, अनजाने तुम अपने को उसी के रूप में ढालने लगते हो। पत्थरों की पूजा बहुत हो चुकी। जलधार को समझो, सृजन की धार को समझो। कमजोर दिखाई पड़ती चीजों को खोजो। तुम पाओगे वहां बड़ा बल छिपा है।
कोई वीणा पर एक धुन उठा रहा है। क्या है ताकत वहां? एक पत्थर मार दो, वीणा भी टूट जाएगी, संगीत खो जाएगा। बड़ा कोमल फूल है संगीत का। लेकिन काश तुम उसे बरस जाने दो अपने ऊपर तो तुम नये हो जाओगे, तुम्हें अपने ही भीतर नये आयाम मिल जाएंगे। तुम अपने ही भीतर आंगन की जगह आकाश को खोज लोगे। छोटी क्षुद्र सीमाएं गिर जाएंगी। असीम की झलक मिलने लगेगी।
एक नर्तक नाच रहा है। उसके घूंघर बज रहे हैं। क्या है वहां? शरीर की ऊर्जा से एक संगीत पैदा कर रहा है; एक लयबद्धता पैदा कर रहा है; शरीर की गति से एक अदृश्य लोक निर्मित कर रहा है। एक क्षण को यह जगत खो जाता है अगर तुम उसके नृत्य में खो जाओ। एक क्षण को अपने नृत्य के द्वार से तुम्हें वह किसी दूसरे ही जगत का दर्शन करा देता है। बड़ा बलशाली है; लेकिन कितना निर्बल। उठाओ एक पत्थर और मार दो, नृत्य भी गिर जाएगा, नर्तक भी गिर जाएगा। फूल जैसा कमजोर है, यहां जो भी महत्वपूर्ण है।
और लाओत्से कहता है, "कठिन को जीतने में उससे बलवान और कोई नहीं है। उसका कोई पर्याय ही नहीं है। यह कि दुर्बलता बल को जीत लेती है, और मृदुता कठोरता पर विजय पाती है। इसे कोई नहीं जानता है, न ही इसे कोई व्यवहार में ला सकता है।'
इसे कोई नहीं जानता, क्योंकि तुम जानते तो तुम्हारे जीवन में वह अपने आप घट जाता। यह थोड़ा समझने के लिए, थोड़ी नाजुक बात है।
लाओत्से यह कह रहा है, जो जान लेता है वह हो जाता है। जानने और होने में फासला नहीं है। जीवन में कुछ चीजें हैं बाहर की, उन्हें तुम पहले जानो, फिर जानने के बाद अभ्यास करना पड़ता है। और भीतर के जगत का नियम बिलकुल अनूठा है। वहां जानना ही पर्याप्त है; जानो कि हो गए। तुमने अगर समझ ली यह बात--मेरे समझाने से नहीं, लाओत्से के समझाने से नहीं, जीसस के प्रभाव में नहीं--तुमने यह बात समझ ली तुम्हारी ही बुद्धि की आभा में। तुमने सोचा, ध्यान किया, जीवन का दर्शन किया, जगह-जगह गए, घूंघट उठाया प्रकृति का और पहचानने की कोशिश की कि कौन है विजेता? अंततः कौन जीत जाता है--कमजोर कि सबल? तुमने असली बल की खोज की। तुमने असली शक्ति के स्रोत को देख लिया। तुमने! ध्यान रखना। मेरे दिखाने से भी तुम देख सकते हो, वह उधार होगा। मेरी बात के प्रभाव में भी तुम्हें दिख सकता है, वह दर्शन सपने का दर्शन होगा। नहीं, मेरी बात के प्रभाव में नहीं। मेरी बात तो इतना ही करवा दे कि तुम जीवन में खोजने निकल जाओ और तुम जीवन को खुली आंख से देखने लगो, बस काफी है। जीवन में जिस दिन तुम देख लोगे कि निर्बलता कठोरता पर विजय पा लेती है, स्त्री पुरुष पर जीत जाती है, विनम्र अहंकारी पर जीत जाता है, ना-कुछ जिसके पास सब कुछ है उसे हरा देता है, भिक्षु के भीतर तुम जिस दिन छिपे सम्राट को देख लोगे, उस दिन अभ्यास करना पड़ेगा? फिर क्या तुम निर्बल होने का अभ्यास करोगे? अभ्यास की बात ही क्या रही!
यह तो ऐसे ही है कि तुम पत्थर हाथ में लेकर चल रहे थे और एक दिन अचानक जीवन ने तुम्हें उस खदान के निकट पहुंचा दिया जहां हीरे-जवाहरात भरे थे, तुम्हें दिखाई पड़ गया कि यह जो हाथ में तुम लिए हो वह पत्थर है। क्या तुम उसे छोड़ने का अभ्यास करोगे? क्या तुम किसी गुरु के पास जाकर कहोगे कि कैसे अब इस पत्थर को छोडूं? छोड़ने का भी कहीं कोई अभ्यास करना पड़ता है? पकड़ने का अभ्यास करना पड़ता है, छोड़ना तो क्षण में हो जाता है। पकड़ने का अभ्यास करना पड़ता है। छोड़ दोगे तुम। पूछने जाओगे किसी से? छोड़ दोगे, यह कहना भी ठीक नहीं है। छूट जाएगा; दिखते ही छूट जाएगा। हाथ खुल जाएंगे; पत्थर गिर जाएगा। हाथ बंधे थे इसलिए कि सोचा था हीरा है। हाथ खुल जाएंगे, जैसे ही दिखाई पड़ जाएगा हीरा नहीं है।
शक्ति की तलाश में तुम भटकते रहे हो जन्मों-जन्मों से। उसको तुमने हीरा समझा है। जिस दिन तुम देखोगे कि निर्बलता बल है, उसी क्षण पत्थर हाथ से गिर जाएगा। अचानक तुम पाओगे सब बदल गया। अभ्यास की कोई जरूरत नहीं है। अभ्यास का तो कोई प्रयोजन ही नहीं है। ऐसे ही जैसे तुम्हें बाहर जाना होता है तो तुम दरवाजे से निकल जाते हो। तुम सोचते भी नहीं, कहां है दरवाजा? पूछते भी नहीं, कहां है दरवाजा? सोच-विचार भी नहीं करते, कैसे निकलें? बस निकल जाते हो। दरवाजा तुम्हें दिखाई पड़ता है। अब क्या पूछना है? क्या सोचना है?
अंधा आदमी निकलना चाहे इस कमरे के बाहर तो पहले पूछेगा, कहां है दरवाजा? टटोलेगा। सोचेगा कि जिस आदमी से पूछा है यह विश्वसनीय है या नहीं! कहीं मजाक तो नहीं कर रहा है कि अंधे को टकरवा दे और गिरवा दे और हंसी करे! तो भी अंधा पूछ कर भी लकड़ी से जांच-पड़ताल करेगा, क्योंकि कई बार लोग मजाक कर गए हैं। और इतने कठोर लोग भी हैं कि अंधों से भी मजाक कर लेते हैं। इतने पथरीले लोग भी हैं कि अंधा गिर जाए उस पर भी हंस लेते हैं। तो अंधा सोचेगा, विचारेगा, हिसाब लगाएगा, लकड़ी से जांच-पड़ताल करेगा, दरवाजे के पास पहुंचेगा, बड़ी व्यवस्था से निकलेगा। उसकी सारी व्यवस्था इसीलिए है कि उसे दिखाई नहीं पड़ता। दिखाई पड़ जाए तो वह पूछेगा भी नहीं किसी से। जरूरत ही न रही।
इसलिए लाओत्से कहता है, "इसे कोई नहीं जानता है; इसे कोई व्यवहार में नहीं ला सकता है।'
क्योंकि जब तक तुम जानते नहीं तब तक तो तुम व्यवहार में लाओगे कैसे? और जब तुम जान लोगे तब व्यवहार में लाने की जरूरत ही न रही, व्यवहार में आ जाएगा। इसलिए असली बात है जान लेना। ज्ञान ही क्रांति है। मगर ज्ञान उधार न हो, बासा न हो, तभी ज्ञान है। अपना हो, मौलिक हो, सीधा-सीधा जाना गया हो, प्रत्यक्ष हो, परोक्ष न हो, किसी और का बताया हुआ न हो; अन्यथा तुम अंधे रहोगे। कितना ही वेद चिल्लाते रहें कि ब्रह्म है और कुछ भी नहीं है। लेकिन कौन जाने कोई मजाक कर रहा हो। अंधे आदमी से मजाक की जाती है। कौन जाने जिन्होंने वेद लिखे वे खुद ही धोखे में रहे हों? विश्वास कैसे करो? उपनिषद चिल्लाते हैं, भरोसा नहीं आता। भरोसा तो तुम्हें तभी आएगा जब तुम देख लोगे, एक झलक मिल जाए। और वह झलक अगर तुम्हें चाहिए हो तो उपनिषद, वेदों को एक तरफ रख देना। तभी किसी दिन तुम्हारे जीवन में वेद और उपनिषद सच हो पाएंगे। तुम गवाह बन सकते हो वेद-उपनिषदों की सचाई के, अनुयायी नहीं। तुम अगर उन्हें मान कर चले तो तुम कभी न पहुंचोगे। अगर तुम उन्हें हटा कर चले तो तुम जरूर पहुंच जाओगे। और एक दिन तुम गवाह बन सकोगे कि उपनिषद ठीक कहते हैं।
शास्त्रों से सिद्धांत सीखा नहीं जा सकता; शास्त्रों में सिद्धांत है। सीखा तो जीवन से ही जा सकता है। कोई जीवन के शास्त्र का पर्याय नहीं है। जिस दिन तुम जान लोगे जीवन से उस दिन सब शास्त्र तुम्हारे लिए सही हो जाएंगे। और ध्यान रखना, मैं कहता हूं सब शास्त्र।
जब तक तुम शास्त्रों को मान कर चलोगे तब तक वेद सही रहेगा तो कुरान गलत रहेगा; कुरान सही रहेगा तो वेद गलत रहेगा, बाइबिल गलत रहेगी; बाइबिल सही रहेगी तो धम्मपद गलत रहेगा। अगर तुम शास्त्र को मान कर चलते हो तो तुम या तो हिंदू होगे, या मुसलमान, या ईसाई, या जैन, या बौद्ध, या सिक्ख; धार्मिक नहीं।
जिस दिन तुम जीवन के शास्त्र को पढ़ लोगे...। तो जीवन के शास्त्र पर किसी की बपौती नहीं है। वह न हिंदू का है, न मुसलमान का है। जिस दिन तुम जीवन का शास्त्र पढ़ लोगे उस दिन तुम सारे शास्त्रों के गवाही हो जाओगे कि कुरान भी ठीक कहती है, बाइबिल भी ठीक कहती है, वेद भी ठीक कहते हैं, उपनिषद भी ठीक कहते हैं। क्योंकि अब तुमने जीवन की भाषा समझ ली। अब संस्कृत धोखा न दे सकेगी, अरबी छिपा न सकेगी। अब अरबी में कही जाए बात कि संस्कृत में कि हिब्रू में, कोई फर्क न पड़ेगा। तुमने जीवन से पढ़ ली। अब किसी भी भाषा में कही जाए, किसी भी ढंग से कही जाए, कोई भी रूप दिया जाए, तुम पहचान ही लोगे। तुम्हें स्वाद मिल गया पानी का, अब पानी मानसरोवर का हो कि काबा का, कोई फर्क नहीं पड़ता। तुम स्वाद जानते हो। तुम पानी को चख लोगे, तुम पहचान लोगे, तुम्हारे ओंठों ने स्वाद जान लिया। तब सभी शास्त्र सही हो जाते हैं।
जब तक तुम्हारे लिए एक शास्त्र सही रहे और दूसरा गलत रहे, तब तक समझना कि तुम जीवन के शास्त्र से बच रहे हो। जीवन का शास्त्र वह मूल स्रोत है जहां से सब शास्त्रों का जन्म होता है, जहां से सब ज्ञानी खबर लाते हैं। तुम भी उसी स्रोत से खबर लाओ। और कोई रास्ता नहीं है।
"इसलिए संत कहते हैं: जो संसार की गालियों को अपने में समाहित कर लेता है, वह राज्य का संरक्षक है। जो संसार के पाप अपने ऊपर ले लेता है, वह संसार का सम्राट है। सीधे शब्द टेढ़े-मेढ़े दिखते हैं।'
जब तुम्हें कोई गाली देता है तब तुम दो काम कर सकते हो। एक जो तुम करते हो कि जब तुम्हें कोई गाली देता है तो तुम भी गाली देते हो। अगर ताकतवर दिखाई पड़ता है तो भीतर देते हो, ऊपर से मुस्कुराते हो। अगर कमजोर दिखाई पड़ता है तो ऊपर से देते हो।
एक छोटे स्कूल में पादरी बच्चों को समझा रहा था कि क्षमा करना चाहिए, क्षमा बड़ा गुण है। जब तुम्हें कोई गाली दे, क्षमा कर दो। फिर उसने एक छोटे बच्चे से पूछा कि बोलो, तुम्हें समझ में आया? उसने कहा, बिलकुल समझ में आया। अपने से बड़ों को तो मैं बिलकुल सरलता से क्षमा कर देता हूं, लेकिन अपने से छोटों को क्षमा करना असंभव है।
अपने से बड़ों को सरलता से क्षमा कर देता हूं; अपने से छोटों को क्षमा करना असंभव है। कमजोर को क्षमा करना असंभव है, ताकतवर को तो तुम क्षमा कर ही देते हो; क्योंकि झंझट है। लेकिन जिस दिन तुम कमजोर को क्षमा कर देते हो, उस दिन तुम्हारे जीवन में एक रूपांतरण होता है।
तो एक तो व्यवहार है गाली देने का--या तो ऊपर से दो या भीतर से दो।
मैंने सुना है कि एक साधारण सिपाही पहले महायुद्ध में पुरस्कृत हुआ। एक साधारण सा सैनिक उसकी वीरता के कारण मेजर बना दिया गया। वह एक दिन जनरल के साथ रास्ते से गुजर रहा है और सभी सैनिक सलामी मारते हैं। वह जब भी सलामी सुनता है तो धीरे से भीतर कहता है: दि सेम टु यू, वही तुम्हारे लिए भी। जनरल थोड़ा हैरान हुआ। उसने कहा, तुम यह बार-बार क्या करते हो कि दि सेम टु यू? ऊपर से सलामी करते हो और धीरे से यह क्या कहते हो कि वही तुम्हारे लिए भी? उसने कहा, आपको पता नहीं कि भीतर-भीतर ये लोग क्या कह रहे हैं। मुझे पता है; मैं सैनिक रह चुका हूं। भीतर ये गाली दे रहे हैं; ऊपर से सलाम मार रहे हैं। इसलिए मैं धीरे से कह देता हूं: दि सेम फॉर यू। इनकी असली हालत मुझे पता है। मैं रह चुका हूं सैनिक।
आदमी का यह तो सहज व्यवहार है कि गाली कोई दे तो वह गाली दे। या तो ऊपर से दे सके तो ऊपर से दे, न दे सके ऊपर से तो भीतर से दे। क्योंकि बिना दिए उसे बेचैनी अनुभव होगी।
और लाओत्से कह रहा है, जब तुम्हें कोई गाली दे तो तुम उसे पी जाओ, तुम उत्तर मत दो। तुम किसी तरह का बाहर या भीतर प्रतिकार मत करो।
और लाओत्से एक ऐसी गहन बात कह रहा है कि अगर तुम कर पाओ तो तुम चकित हो जाओगे कि तुमने कितनी ऊर्जा अब तक व्यर्थ गंवाई! जब तुम किसी की गाली को चुपचाप पी जाते हो तो उसकी गाली तुम्हें मजबूत कर जाती है, शक्तिशाली कर जाती है। एक तो तुम गाली देने में जितनी ऊर्जा खर्च करते, क्रोधित होते, परेशान होते, बेचैन होते, उससे बच जाते हो। और उसने गाली के द्वारा जो ऊर्जा तुम्हारी तरफ फेंकी है, तुम उसे भी लीन कर लेते हो, तुम उसको भी आत्मसात कर लेते हो। वह गाली देकर कमजोर हो गया, वह गाली देकर छोटा हो गया, सिकुड़ गया। उसकी गाली को तुमने आत्मसात कर लिया। तुम सबल हो गए। हालांकि दुनिया यह कहेगी कि यह आदमी कितना निर्बल है कि लोग इसको गाली देते हैं और यह गाली का जवाब भी नहीं देता! लोग तुम्हें निर्बल कहेंगे। लेकिन जीवन के शास्त्र से अगर तुम पूछो तो तुम सबल हो रहे हो।
लाओत्से के इन वचनों के आधार पर एक पूरा शास्त्र विकसित हुआ है। जुजुत्सु, जूडो, अकीदो, अनेक नामों से उस शास्त्र का चीन और जापान में विकास हुआ। न केवल गाली के लिए लाओत्से कहता है, जब तुम्हें कोई घूंसा मारे तब भी तुम उसके घूंसे को पी जाओ। घूंसा तो शुद्ध ऊर्जा है, तुम उसको फेंको मत, तुम उसे लीन कर लो, आत्मसात कर लो, तुम उसे स्वीकार कर लो। जैसे किसी आदमी ने कोई चीज भेंट दी है। तुम उसे पी जाओ। और जुजुत्सु को जो लोग ठीक से अभ्यास कर लेते हैं--क्योंकि जुजुत्सु का अभ्यास बड़ा कठिन है, तुम्हारी सारी जीवन की व्यवस्था के बिलकुल प्रतिकूल है, कोई मारे, उसकी ऊर्जा को पी जाओ--तो ऐसी घटनाएं घटती हैं कि कमजोर से कमजोर आदमी बलवान से बलवान आदमी को चारों खाने चित्त गिरा देता है। सिर्फ उसकी ऊर्जा पीकर।
अभी पश्चिम में नारियों का बड़ा विराट आंदोलन चल रहा है। और पश्चिम के सभी बड़े नगरों में जुजुत्सु की क्लासें हैं; खासकर स्त्रियों के लिए। स्त्रियों का जो आंदोलन चल रहा है स्वातंत्र्य का। क्योंकि स्त्री पुरुष से और किसी तरह से तो लड़ नहीं सकती, मगर अगर जुजुत्सु सीख ले तो तुम्हारा पहलवान भी स्त्री को हरा नहीं सकता।
ऊर्जा को पी जाने की कला! दूसरे ने घूंसा मारा, तुम जगह दे दो अपने शरीर में उसको। कड़े मत हो जाओ, हड्डियां तुम्हारी मजबूत न हो जाएं। अन्यथा टूट जाएंगी। तुम उसको पी लो। उसके घूंसे को पड़ जाने दो, जैसे तकिए पर पड़ रहा हो और तकिया जगह दे दे, ऐसा तुम अपने शरीर को तकिए जैसी जगह दे जाने दो। तुम अचानक पाओगे, एक ऊर्जा का बड़ा गहन प्रवाह तुम्हारे शरीर में प्रविष्ट हो गया और वह आदमी कमजोर हो गया। दस-पांच घूंसे उसे मारने दो और उसे कमजोर होने दो। कहते हैं कि अगर तीन मिनट कोई व्यक्ति जुजुत्सु की हालत में रह जाए तो सबल से सबल व्यक्ति अपने आप ही हांफने लगेगा और गिर जाएगा।
और यह कोई कथा नहीं है। लाखों लोग जुजुत्सु का प्रयोग करते हैं जापान और चीन में। और अब पश्चिम में उसकी हवा जोर से फैल रही है। और मैं भी मानता हूं कि स्त्रियों को हर जगह वह कला सीख लेनी चाहिए। अन्यथा स्त्री कभी भी बलवान न हो सकेगी। स्त्री का बल उसकी निर्बलता में है। इसलिए अगर मनुष्य-जाति को कभी भी स्त्रियों को मुक्त होते देखना है तो लाओत्से स्त्रियों का गुरु होगा, और कोई गुरु नहीं हो सकता। क्योंकि लाओत्से ने सिखाई है कला: निर्बल कैसे बलवान है। फिर कोई स्त्री पर बलात्कार नहीं कर सकता। जुजुत्सु जानने वाली स्त्री पर कभी कोई बलात्कार नहीं कर सकता। जुजुत्सु जानने वाली स्त्री पर गुंडे हमला नहीं कर सकते।
पर वह एक अनूठी ही कला है। अब पश्चिम में उस पर काफी काम चल रहा है, और वैज्ञानिक भी राजी होते जा रहे हैं कि बात सच है। क्योंकि एक घूंसे का अर्थ होता है काफी ऊर्जा वह आदमी अपने शरीर की इकट्ठी कर रहा है और फेंक रहा है। तुम उसे वापस मत लौटाओ; तुम उसे लीन कर लो। तुम उसे पी जाओ। तुम उसे निमज्जित हो जाने दो। तुम उसे पचा लो।
"जो संसार की गालियों को अपने में समाहित कर लेता है, वह राज्य का संरक्षक है।'
वही समाज का संरक्षक है। संत समाज की सुरक्षा है। संत के नीचे जब भी कोई समाज जीता है तो बड़ी सुरक्षा में है। संत तो ऐसे है जैसे बहुत बड़ा वृक्ष, जिसके नीचे छाया है, जिसकी छाया में तुम बैठ सकते हो। और जिसकी छाया को कोई भी डगमगा नहीं सकता, और जिसके नीचे शीतलता की वर्षा होती ही रहेगी। क्योंकि उसने वह कीमिया सीख ली है कि वह संसार की गालियों को शांति में बदल लेता है; संसार के क्रोध को प्रेम में बदल लेता है।
यही तो असली अल्केमी है। तुमने अल्केमी और अल्केमी को मानने वाले लोगों का नाम सुना होगा। और तुमने सुना होगा कि वे लोहे को सोने में बदलने की कोशिश करते हैं। तुम यह मत समझना कि वे लोहे को सोने में बदलने की कोशिश करते हैं। लोहा और सोना तो प्रतीक हैं। लोहा है क्रोध; सोना है प्रेम। लोहा है मूर्च्छा; सोना है जागृति। लोहा है घृणा,र् ईष्या, मत्सर; सोना है करुणा। लोहे को सोने में बदल लेने का कुल इतना ही अर्थ है कि दुनिया तुम्हें कुछ भी दे, कांटे फेंके, लेकिन तुम्हारे भीतर वह कला होनी चाहिए कि कांटे तुम्हारे भीतर फूल हो जाएं।
और यह कला है। अगर तुम लड़ो मत। अगर तुम स्वीकार कर लो। अगर तुम अहोभाव से स्वीकार कर लो। अगर तुम गाली को भी अहोभाव से स्वीकार कर लो कि जरूर इसके पीछे भी कोई राज होगा, जरूर इसके पीछे भी कोई छिपा रहस्य होगा। और परमात्मा ने अगर ऐसी स्थिति बनाई है कि गाली मिले तो वह हमसे ज्यादा जानता है। जिसने दिया है जन्म, जिसने दिया है जीवन, वह निश्चित हमसे ज्यादा जानता है। अस्तित्व हमसे बहुत बड़ा है। इस क्षण में उसने गाली दिलवाई है; जरूर कोई राज होगा, कोई रहस्य होगा, कोई छिपी बात होगी। हम जल्दी न करें। हम स्वीकार कर लें। तब तुम पाओगे दुख में भी सुख की सुवास आने लगी। और क्रोध से भी करुणा जन्मने लगी। और तुम्हारे भीतर हर कांटा फूल बन जाता है। फेंके जाते हैं अंगारे और तुम्हारे भीतर सब शीतल हो जाते हैं।
"जो संसार की गालियों को अपने में समाहित कर लेता है, वह राज्य का संरक्षक है। जो संसार के पाप अपने ऊपर ले लेता है, वह संसार का सम्राट है।'
कहीं भी कुछ बुरा हो रहा है, कहीं भी कोई पाप हो रहा है, जो अपने को जिम्मेवार मानता है, जो समझता है कि मेरा उसमें हाथ है, और जो उसे अपने ऊपर ले लेता है, वही सुरक्षा बन जाता है, वही सम्राट है। सम्राट वे नहीं हैं जो सिंहासनों पर बैठे हैं। सम्राट वे हैं जिन्हें तुम शायद खोज भी न पाओगे। सम्राट वे हैं जिन्होंने तुम्हारे सारे पाप को अपने ऊपर ले लिया है, जिन्होंने तुम्हारे सारे पापों की अग्नि को अपने भीतर शीतल करने की व्यवस्था कर ली है, जो तुम्हें शुद्ध करने की प्रक्रिया हैं।
जीसस के संबंध में ईसाइयों का विश्वास है कि उन्होंने सारे संसार के पाप अपने ऊपर ले लिए। सारे संसार का पाप उन्होंने अपनी सूली में समाहित कर लिया। सारे संसार को जो दुख मिलना चाहिए पापों के कारण, वह उन्होंने सूली पर झेल लिया उस एक क्षण में।
यह बात बड़ी महत्वपूर्ण है। संत का अर्थ ही यही है। इसके कारण बहुत से प्रतीक संसार में फैल गए। और प्रतीक धीरे-धीरे अर्थहीन हो जाते हैं।
तुम पाप करते हो, तुम जाकर गंगा में स्नान कर आते हो। प्रतीक तो बड़ा कीमती है, क्योंकि तीर्थ का अर्थ ही वह होता है जहां तुम्हारे सब पाप ले लिए जाएं। मूलतः तो गंगा में लोग तीर्थ के लिए स्नान के लिए नहीं जाते थे, क्योंकि गंगा के किनारे संतों का वास था। गंगा तो बाद में धीरे-धीरे-धीरे-धीरे प्रतीक की तरह महत्वपूर्ण हो गई। संत रहे न रहे, गंगा महत्वपूर्ण हो गई। लेकिन गंगा के किनारे संतों का वास था; उनके कारण गंगा तीर्थ बन गई।
संतों के पास जाने का अर्थ ही यह है कि कोई, जो तुम्हारे लोहे को सोने में बदल देगा, जो पारस की तरह है। उसका स्पर्श तुम्हें रूपांतरित कर देगा, तुम्हारी विकृति को जो सुकृति में बदल देगा। तुम्हारी निम्नता को जो रूपांतरित करेगा। तुम्हारी अधोगामी ऊर्जा को जो ऊर्ध्वगामी कर देगा। संत के संस्पर्श का इतना ही अर्थ है, जो तुम्हारे दुख, तुम्हारी पीड़ाएं, तुम्हारा पाप, तुम्हारा अंधकार ले लेगा, और तुम्हें प्रकाश दे देगा। संत ले सकता है तुम्हारा पाप, क्योंकि पाप को संत पुण्य में बदलने की कला जानता है। तुम सोचते हो कि तुम पाप दे आए; संत तो हर चीज से पुण्य निकाल लेने की कला जानता है। तुम्हारा पाप भी संत के पास पुण्य हो जाता है। लेकिन तुम हलके हो जाते हो और संत तुम्हें पुण्य से भर देता है।
इसका क्या अर्थ है? इसका गूढ़ अर्थ केवल इतना ही है जैसे चुंबक के पास लोहा खिंचा चला जाता है; और चुंबक के पास अगर लोहा बहुत देर रह जाए तो लोहे में भी चुंबक का गुण आ जाता है। बस इतना ही अर्थ है। सत्संग का इतना ही अर्थ है, संतों के पास होने का इतना ही अर्थ है कि तुम अगर उनके पास थोड़ी देर रह गए...।
रहना बहुत मुश्किल है, क्योंकि पाप की लत तुम्हें दूर जाने को कहेगी। रहना मुश्किल है, क्योंकि संत तुम्हें रूपांतरित करेगा और तुम्हारा अहंकार बाधा डालेगा। रहना मुश्किल है, क्योंकि तुम्हारी बुद्धि बड़े सिद्धांतों को माने बैठी है; संत तुम्हारे सब सिद्धांतों को तोड़ेगा। तुम्हें बड़ी नाराजगी आएगी। तुम्हें बड़ा क्रोध होगा। तुम्हारी मान्यताएं खंडित होंगी। तुम्हारे आदर्श गिरेंगे। तुमने जिन मूर्तियों को परमात्मा की समझा है, वह पत्थर कहेगा। तुम्हें बड़ी बेचैनी होगी। तुम्हारी बुद्धि राजी न होना चाहेगी। तुम्हारा अहंकार इनकार करेगा। तुम्हारा समग्र व्यक्तित्व पाप की मांग करेगा। और तुम्हारा जो जीवन का पुराना ढांचा है, तुम उसमें वापस लौट जाना चाहोगे। इसलिए संत के पास रहना कठिन है। अगर कोई रह जाए--उस रहने के लिए बड़ा धीरज चाहिए, बड़ी क्षमता चाहिए, प्रतीक्षा की कला चाहिए, जल्दबाजी और निर्णय से बचने की क्षमता चाहिए--अगर कोई संत के पास रह जाए, धीरे-धीरे-धीरे-धीरे कुछ करे भी न, सिर्फ रह जाए, सिर्फ संत को अपने भीतर मिलने दे और निमज्जित होने दे, संत की ऊर्जा के साथ अपनी ऊर्जा को एक होने दे, थोड़ा सा भी संस्पर्श हो जाए, तो जैसे पारस की कथा है कि वह लोहे को सोने में बदल देता है, ऐसा पारस कहीं होता नहीं, कहानी है। लेकिन संत के पास ऐसा पारस है। संत ऐसा पारस है।
लाओत्से कहता है, "वही संसार का सम्राट है।'
और फिर वह कहता है, "ये सीधे-सादे शब्द टेढ़े-मेढ़े दिखते हैं।'
क्योंकि तुम सम्राट को सिंहासन पर खोजते हो; वहां नहीं है सम्राट, सिंहासन खाली है। वहां मुर्दे, पापी, हत्यारे बैठे हुए हैं। तुम राजधानियों में खोजते हो; वहां नहीं है। तुम सत्ताधिकारियों में खोजते हो; वहां नहीं है। तुम बलशालियों में खोजते हो; वहां नहीं है। संत तो तरल है, पानी की तरह तरल है। वाष्प की तरह अदृश्य है। बड़ी गहन तुम्हें खोज करनी पड़ेगी। और उन जगहों में खोजना पड़ेगा जहां तुम सोचते ही नहीं थे। हो सकता है तुम्हारे पड़ोस में हो, और वहां तुमने कभी नहीं खोजा। क्योंकि अपने पड़ोसी में कभी कोई संत देख सकता है? असंभव!
मैं बहुत से गांवों में रहा हूं। दुनिया के दूर-दूर कोने से लोग आ जाते हैं, लेकिन पड़ोसी नहीं आता। यह नियम मैंने समझ लिया कि यह पक्का नियम है, इसमें कुछ हो ही नहीं सकता। एक मकान में मैं आठ साल रहा। मेरे ऊपर ही जो सज्जन रहते थे, वे कभी मुझसे मिलने नहीं आए। करीब-करीब रोज सीढ़ियों पर या रास्ते पर मिलना-जुलना हो जाता। नमस्कार हो जाती। वह भी मुझे ही करनी पड़ती। इतना खतरा भी उन्होंने कभी नहीं लिया कि अपनी तरफ से नमस्कार करें। फिर आठ साल बाद--वे किसी कालेज के प्रिंसिपल थे; बदली हो गई--जब मैं उनके गांव में बोलने गया, तब उन्होंने मुझे सुना। रोने लगे आकर मेरे पास कि मैं भी कैसा अभागा हूं कि आठ साल ठीक तुम्हारे सिर पर था! मैंने कहा, इसीलिए चरणों में आने में कठिनाई हुई। सिर पर थे, चरणों में आने में बहुत कठिनाई है। चलो देर-अबेर जब आ गए, कुछ देर नहीं हो गई। अभी भी आ गए तो ठीक।
मुल्क के मैं बहुत से नगरों में रहा हूं। लेकिन देख कर चकित हुआ, इसको मैंने फिर मान लिया कि यह कोई सिद्धांत ही होना चाहिए कि पड़ोसी नहीं आएगा। आ ही नहीं सकता। क्योंकि पड़ोसी में, तुम्हारे पड़ोसी में और परमात्मा हो सकता है? असंभव! तुम्हारे रहते और तुम्हारे पड़ोसी में? यह संभव ही नहीं हो सकता।
सीधी-सीधी बातें भी तुम्हारे टेढ़े-मेढ़े मन के कारण टेढ़ी-मेढ़ी दिखाई पड़ती हैं। पड़ोसी में भी परमात्मा है। और ऐसा नहीं कि तुम में नहीं है। तुम में भी परमात्मा है। लेकिन तुम न तो अपने पड़ोसी में मान सकते हो, और न अपने में मान सकते हो। और परमात्मा कहीं बहुत दूर आकाश में छिपा नहीं है; यहां जीवन की छोटी-छोटी घटनाओं में छिपा है। परमात्मा कोई ऐसा सत्य नहीं है जिसे तुम एक दिन आखिर में उघाड़ लोगे; हर तथ्य के भीतर छिपा है सत्य। तथ्य तो सिर्फ घूंघट है, जरा सा उठाओ और वहीं से तुम्हें सत्य मिलना शुरू हो जाएगा।
लाओत्से ने बहुत से तथ्यों पर से वस्त्र उठाए हैं। और यह एक गहनतम तथ्य है कि जीवन में कोमल होना, तो तुम जीवंत होओगे। सख्त हुए कि मरे। कमजोर होना, तो ही तुम बलशाली रहोगे। बलशाली हुए कि तुमने अपने को गंवा दिया। जो अपने को बचाएगा वह गंवाएगा। और जो अपने को बिलकुल गंवा कर एकदम निर्बल हो जाता है, निश्चित ही राम उसके हैं। निर्बल के बल राम!

आज इतना ही।


1 टिप्पणी: